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उपन्यास

क्या पता कॉमरेड मोहन

संतोष चौबे

अनुक्रम 2. नीति, कार्तिक पीछे     आगे

कार्तिक नीति के साथ पहाड़ी के ऊपर वाले खूबसूरत रेस्त्राँ 'विंड एंड वेव्स' में बैठा था।

उसने क्रीम पैंट के साथ धारियों वाला कुरता पहन रखा था और पतली कमानी वाले चश्मे पर उसके बालों की घुँघराली लट बहुत खूबसूरती के साथ आ टिकी थी। नीति सफेद चूड़ीदार के साथ आसमानी कुरता पहने हुई थी और उसने कुछ लापरवाही के साथ सफेद चुन्नी अपने कंधों पर डाल रखी थी। उसकी गहरी काली आँखें कार्तिक पर टिकी थीं और उसने अपने चूड़ियों भरे हाथों की उँगलियाँ एक दूसरे में फँसा रखी थीं जिन पर उसकी ठोढ़ी टिकी हुई थी। निश्चित ही वह एक मोहित कर लेने वाली जोड़ी थी।

रेस्त्राँ की काँच की दीवारों के पीछे, हरी खूबसूरत पहाड़ी, ढरकती हुई, विशाल नीली झील से मिल गई थी, जिस पर तैरती छोटी-छोटी नौकाएँ एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर रही थीं। काँच की दीवारों के पार हवा दस्तक दे रही थी पर उनके भीतर सिर्फ फरवरी की खनक भरी दोपहरी की रोशनी छन-छन कर आ रही थी जिससे रेस्त्राँ एक सुखद गरमाहट से भर गया था।

नीति और कार्तिक के सामने वाले टेबल पर कॉफी के दो बड़े कप रखे थे और वे बड़े इत्मीनान से, धीरे-धीरे उनसे सिप लेते जा रहे थे।

ये रेस्त्राँ उन दोनों की सबसे प्रिय जगह था। शहर के भीतर, फिर भी शहर से अलग थलग। नीचे चल रही सैलानियों की हलचल के बीचों बीच स्थित, पर फिर भी एकांत की संभावना से भरपूर। वे घंटों वहाँ अकेले बैठे रह सकते थे और हर महत्वपूर्ण मसले पर बात करने के लिए तो वहाँ अवश्य ही पहुँचते थे।

आज भी एक ऐसा ही मसला उनके सामने उपस्थित था।

आज कार्तिक की जेब में एक दूसरा कागज था। एक ऐसा कागज जिस पर कोई भी आम व्यक्ति फख्र महसूस कर सकता है।

कार्तिक पिछले दिनों ही दिल्ली से लौटा था और तभी अखबार में भारतीय प्रशासनिक सेवा का परिणाम घोषित हुआ था। कार्तिक का नाम चयनित छात्रों की लिस्ट में था। कुछ दिनों बाद लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में पहुँचने का पत्र भी आ गया था।

पर कार्तिक को, उस पत्र को पाकर बहुत खुशी नहीं हुई थी। वह अपने दोस्त केदार की मौत के बाद, अजीब खालीपन और गहरी उदासी से भर गया था। जब वह अपने शहर लौटा तो एक गहरा सन्नाटा उसके दिल में था। नौकरी या कैरियर से उसका दिल हट चुका था। वह ठीक ठीक समझ नहीं पा रहा था कि उसका लक्ष्य क्या होना चाहिए? वह केदार की तरह बनना चाहता था, पर क्या वह वैसा बन सकता था? किसी बड़े लक्ष्य के प्रति अपने आपको समर्पित कर देना चाहता था, पर क्या वह वैसा कर सकता था? नौकरी करना उसे तुच्छ काम लगने लगा था, पर क्या वह उसे छोड़ सकता था? बार-बार उसे लगता था कि वह अलग तरह का आदमी है, उसका रास्ता कुछ अलग होना चाहिए, पर क्या, कौन सा?

नीति अलबत्ता भारतीय प्रशासनिक सेवा में उसके चयन पर बहुत खुश हुई थी और मुहल्ले भर में मिठाई बाँटती फिरी थी। उसने चहक कर कहा था - तुम बड़ा काम करना चाहते थे न! लो, हो गया। पर न जाने क्यों कार्तिक ने इसका जवाब एक फीकी हँसी से ही दिया था। शहर के अखबार में उसके चयन की खबर छपी थी और इष्ट मित्रों ने बधाइयों का ताँता लगा दिया था।

मगर कुछ दिन गुजरने पर भी जब कार्तिक ने सहमति पत्र नहीं भेजा तब नीति चिंतित हुई थी।

'क्यों क्या बात है? तुम्हें प्रशासनिक सेवा में नहीं जाना? सब तो वहाँ जाना चाहते हैं!'

'नीति, मैं कुछ दिन और सोच लूँ?'

'जरूर। और मेरे साथ मिलकर सोचना चाहो तो हम 'विंड एंड वेव्स' चलें?'

'ठीक है। कल ही चलते हैं'

और इस तरह वे एक बार फिर 'विंड एंड वेव्स' में थे। लगभग अकेले। कॉफी के दो बड़े कप उनके सामने रखे थे।

दोनों चुप थे।

कार्तिक ने सोचा उसके और नीति के बीच की ये चुप्पी पिछले दिनों कुछ बढ़ी थी।

पर क्या हर समय ऐसा ही था?

अभी नीति से उसकी शादी हुए कुछ अरसा ही गुजरा था।

शादी के बाद के कुछ साल बहुत आनंद के थे।

उसे याद है कैसे छुई मुई की तरह दियों पर पाँव रखते, उसने कार्तिक के घर में प्रवेश किया था। बहनों ने उसे द्वार पर ही रोक लिया था और नेग लेकर ही घर में प्रवेश करने दिया था। दरवाजे पर आम के पत्तों से बने बंदनवारों ने जैसे उसका सिर छूकर उसे आशीर्वाद दिया था। अम्मा ने ढेर सारी आसीस दी थी और फिर हिदायतें देने में लग गई थीं। बहनों, चाचियों, बुआओं, उनके पतियों और बच्चों का विशाल संसार घर में बिखरा पड़ा था और तमाम असुविधाओं के बीच घर से रौनक और खुशी जैसे फूटी पड़ती थी।

सिर्फ एक लड़की क्या घर में इतना बदलाव ला सकती थी?

कार्तिक जानना चाहता था कि वह क्या उम्मीदें लेकर उसके घर आई है? क्या वह एक बहुत सुखी और समृद्ध जीवन का सपना देखती है या कार्तिक के साथ, उसकी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ चलते हुए, जी लेने का सपना? उसकी अपनी इच्छाएँ क्या हैं, और क्या हैं उसके अपने, बिल्कुल निजी स्वप्न? पर उसके पूछने पर नीति ने बहुत सादगी से कहा था - मुझे आप अच्छे लगे। बस।

नीति की सादगी में कार्तिक को अद्भुत सौंदर्य के दर्शन हुए थे। वह कई दिनों तक उसके शरीर की केसरिया महक में डूबा रहा था। फिर धीरे-धीरे उसने उसके आंतरिक जगत में प्रवेश करना शुरू किया।

नीति छोटे शहरों और कस्बों में रहकर पढ़ाई करती रही थी और वहाँ की खुशबू, वहाँ की मिठास अपने साथ लाई थी। कार्तिक की किताबें, उसका संगीत, उसका वैचारिक विस्तार नीति के लिए नया और अछूता था। पर कार्तिक ने इसे लेकर उसे कभी छोटा नहीं बनाया। वह सायास नीति को अपने विश्व में लाता रहा और उसके खुशबू भरे, प्यार भरे, वैभवशाली विश्व में जाता रहा। सचमुच वह पूरा अनुभव कितना आनंददायक था?

वह पूछती,

'तो तुम मानते हो ईश्वर नहीं है?'

'कम से कम मेरे पास उसके होने का प्रमाण नहीं है।'

'हर चीज का प्रमाण ही हो क्या ये जरूरी है?'

'हाँ, क्योंकि विज्ञान ऐसा कहता है।'

'तो ये सैकड़ों, हजारों सालों से लोग मंदिरों और पूजा स्थलों में जा रहे हैं इसका कोई मतलब नहीं?'

'उनके लिए है, मेरे लिए नहीं।'

'मेरी माँ घंटों पूजा किया करती हैं, उन्हें इसमें संतोष मिलता है। वे कहती हैं कि उनके कई काम भगवान निबटाते हैं।'

'अपने काम मैं ही निबटाता हूँ।'

'तो फिर तुम्हारे लिए ईश्वर क्या है?'

'मेरे लिए वह एक ऐसी परिकल्पना है जिसे आदमी ने अपने सुकून के लिए गढ़ा है। मगर है वह काफी काम की परिकल्पना।'

फिर कार्तिक उसे विभिन्न धर्मों के विकास की दिलचस्प बहस में ले जाता। बताता कि धर्मों के पैदा होने के दो प्रमुख केंद्र रहे हैं दुनिया में। एक येरुशलम और उसके आसपास का मध्यपूर्व का इलाका जहाँ से पहले मोजेस फिर ईसाइयत और फिर इस्लाम धर्म निकले और दूसरा हमारा अपना उत्तरप्रदेश, बिहार और नेपाल की तराई का क्षेत्र जहाँ से हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों का आविर्भाव हुआ और वे पूरे विश्व में फैले। वे धार्मिक टकराहटों के बारे में बात करते और कार्तिक उसे मध्यकाल के रोम में पोप के आतंक एवं ईसाई कठमुल्लों द्वारा किए गए अत्याचारों के बारे में बताता। उसी दौरान उन्होंने गैलीलियो और ब्रूनो के बारे में भी पढ़ा।

नीति कार्तिक की बातों से कभी भी पूरी तरह सहमत न होती। बताती कि किस तरह धार्मिक होने के फायदे भी हैं। किस तरह भगवान को याद करने पर ही उससे अंतिम परीक्षा में फिजिक्स का वह किन सवाल बना था, जिसे हल कर सकने के कारण, यानी भगवान के कारण ही, उसकी फर्स्ट डिवीजन बन पाई थी। कार्तिक कहता कि सवाल तो उसे पहले से ही आता था, बस भगवान का नाम लेने से दिमाग केंद्रित हो गया और वह जो भूल रही थी उसे याद आ गया। अब नीति थककर कहती,

'चलो बहस को यहीं रोकते हैं और खाना खाते हैं।'

ऐसा शायद कार्तिक को ही लगता था या ये शायद सभी का अनुभव हो - शादी के बाद कुछ दिनों तक खाने का स्वाद बदल जाता है, और उसका रंग भी।

माँ के कहने पर कार्तिक शायद ही कभी हाट बाजार गया हो पर नीति के साथ अक्सर वह खरीदारी करने हाट चला जाता था। रोशनी से जगमग हाट जैसे एक जादू सा करती थी। जाने कितनी देर सब्जियों और फलों की दुकानों के बीच वे घूमते रहते। तरह तरह के रंगों और खुशबुओं के बीच। हाट में नीति अपने पूरे फॉर्म में आ जाती। उसे खरीदारी करने में मजा भी बहुत आता था। शानदार हरी भरी मटर और लाल बड़े बड़े टमाटर उसकी प्रिय सब्जियों में थे। फिर वह आलू और गोभी के चयन पर एक व्याख्यान देती, धनिया और मिर्च वाले से प्यार भरी झिड़की के साथ नीबुओं का भी सौदा करती और बड़े से थैले में सब्जियों को इस तरह सजा कर डालती कि मूली की हरी पत्तियाँ थोड़ा थैले के बाहर भी झाँकती रहें। वे घूमते और अक्सर ढेर सारी सब्जियाँ खरीदते। नीति अगर ज्यादा भाव ताव या नाप जोख करती तो कार्तिक उसे टोक देता। पर वह पलट कर कहती -

'ये तुम्हारी किताबों की दुनिया नहीं सब्जी की दुनिया है और तुम्हें सब्जी खरीदना नहीं आता। जरा ये थैला पकड़ने में मेरी मदद कर दो।'

कार्तिक अंत में कुछ फल खरीदता। गर्मी के मौसम में आम और लीचियाँ, ठंड में केले और अमरूद तथा उतरते जाड़ों में संतरे और अंगूर।

फिर स्कूटर के सामने सीट और जाली के बीच थैले रखे जाते और वे स्कूटर से अपने घर लौटते।

नीति पिछली सीट पर से कार्तिक की कमर में घेरा डाल देती। उसके विकसित उभारों का दबाव कार्तिक अपनी पीठ पर महसूस करता और सुखद गर्माहट भरी अनुभूति से भर जाता। स्कूटर जैसे हवा में उड़ने लगता। नीति कहती,

'अभी से घर नहीं चलते। चलो एक लंबा चक्कर लगाते हैं।'

और वे शहर की चौड़ी खुली सड़कों पर घूमने निकल जाते। कार्तिक की उड़ती हुई लटों और नीति के लहराते बालों और चुन्नी से वे एक अजीब मदमाते एहसास से भर जाते। मुक्ति एवं खुशी के इसी एहसास में देर तक सराबोर रहने के बाद वे अपने घर पहुँचते और तब नीति खाना बनाती।

खाना बनाना एक उत्सव की तरह था। नीति कहती,

'कार्तिक, ये सलाद काट दो न!'

'कार्तिक, मैं पूड़ियाँ बेलती हूँ, तुम उन्हें कढ़ाई पर उतार लो।'

'चलो प्लेटें और पानी मेज तक पहुँचाओ, मैं खाना लेकर आती हूँ।'

इस तरह मटर छीलते, सलाद काटते, पूरियाँ तलते या मेज लगाते हुए कार्तिक अपनी तमाम बुद्धिजीविता छोड़कर नीति के बिल्कुल बराबरी का, उसका मित्र और साथी, बन जाता था। वे नए जमाने के पति पत्नी थे और कार्तिक को ये पूरी प्रक्रिया खुशी से भर देती थी।

तब कभी मेज पर या कभी जमीन पर चटाई बिछाकर नीति खाना लगाती,

'लीजिए, ये शानदार मटर पुलाव, ये पूरी और छोले की सब्जी और ये हरा भरा सलाद। कार्तिक सर, आप शुरू करें। एक सरप्राइज आइटम पीछे आ रहा है।'

ज्यादा प्यार आने पर वह कार्तिक को सर कहा करती थी। सरप्राइज आइटम जो कभी खीर, कभी कस्टर्ड, कभी फ्रूट क्रीम हुआ करता - को वह ढक कर लाती और अंत में ढक्कन हटाए हुए कहती,

'जरा इसे भी तो चख कर देखिए।'

शादी से पहले खाना कार्तिक के लिए सिर्फ एक काम था, जिसे जल्दी से जल्दी निबटा कर उसे ऑफिस पहुँचना होता था या शाम को अपने पढ़ने की मेज पर। लेकिन शादी के बाद वह एक उत्सव जैसा हो गया। कार्तिक डेक पर एक अच्छा सा कैसेट लगा देता। गर्मियों की शाम में भीमसेन जोशी या पंडित जसराज का कोई गंभीर राग, बारिश में अमजद अली का सरोद या विलायत खाँ साहब का सितार। फागुन की हल्की ठंडक वाली रातों में किशोरी अमोनकर की खूबसूरत अदाकारी। कार्तिक और नीति पैर फैलाकर जमीन पर बैठते और संगीत के साथ धीरे-धीरे भोजन करते।

कैसा अद्भुत आनंद था।

पर उससे भी ज्यादा आनंददायक था लंबी दूरी तक पैदल घूमने जाना। नीति और कार्तिक का शहर हरा भरा था। शानदार बगीचों एवं तालाबों से भरपूर। वे झील के किनारे किनारे फूलों से महकते किसी भी रास्ते पर निकल जाते। नीति धीरे से कार्तिक का हाथ अपने हाथ में ले लेती और कार्तिक के और अधिक नजदीक आ जाती। एक दूसरे से सटे हुए, एक दूसरे के शरीर की गर्माहट महसूसते वे शाम के झुटपुटे में दूर तक निकल जाते। बातें करना जरूरी नहीं था। पर कभी-कभी लंबी चुप्पी के बाद वे ढेर सारी बातें करते। अपने बचपन और कॉलेज के समय के बारे में, अपने सपनों के बारे में, अपने अभी अभी गुजरे दिनों के बारे में। कार्तिक कहता,

'अच्छा नीति। बचपन में या कॉलेज के दिनों में तुम्हारा किसी न किसी से प्रेम तो जरूर हुआ होगा। सभी का होता है।'

'पहले तुम बताओ।'

'नहीं पहले तुम। लेडीज फर्स्ट।'

नीति के चेहरे पर शरारत बिखर जाती,

'हुआ था। पर तुम्हें क्यों बताऊँ?'

'बताओ न। समझो कि बिना जाने मेरे पेट में दर्द हो रहा है।'

'क्यों? क्या ये ईर्ष्या का दर्द है?'

'मुझे ईर्ष्या क्यों होने लगी। जलन तो उसे होनी चाहिए जिसे तुम नहीं मिल पाई। मैं खुश हूँ। आई एम द विनर!'

वह थोड़ी देर चुप रहती। फिर कहती,

'हम लोग लंबे समय तक माईनिंग एरिया की छोटी छोटी कॉलोनियों में रहे। छोटे शहरों का प्रेम बड़े शहरों की तरह खुला और उन्मुक्त नहीं होता। बस यूँ ही दबा ढका, कुछ छुपा छुपा सा चलता रहता है। वहीं हमारे कॉलेज का एक लड़का था। अक्सर मुझे घूरते हुए पाया जाता था। कभी कभी छिपाकर किताब में चिट्ठी भी रख देता। क्लास में पास आकर साथ बैने की कोशिश करता था। गणेश उत्सव या दुर्गा पूजा में खुले मैदान में फिल्में दिखाई जातीं तो अक्सर वह मेरे आस पास खड़ा दिखाई देता था। कॉलेज के फंक्शन में तो एकदम मेरे पीछे आकर खड़ा हो गया। लगा कि अभी झुकेगा और शायद मेरे आस पास बाँहों का घेरा ही डाल देगा।'

'फिर?'

'फिर क्या? मुझे कहना पड़ा कि भाई साहब जरा दूर हटकर खड़े रहिए। मेरी आप में रुचि नहीं है।'

'अच्छा! और आपकी भाई साहब में रुचि क्यों नहीं थी?'

'क्योंकि मुझे ठेकेदार टाइप के शो ऑफ करने वाले और बड़े बड़े चेक की शर्ट्स पहनने वाले लड़के अच्छे नहीं लगते।'

'तो आपको कैसे लड़के अच्छे लगते हैं?'

'मुझे घुँघराले बालों वाले, हल्के रंगों के कुरते पहनने वाले, सुंदर बुद्धिजीवी अच्छे लगते हैं। तुम्हारे जैसे।'

'अच्छा अब ज्यादा प्रशंसा मत करो। उस ठेकेदार के बच्चे को लड़कियाँ पटाने की तकनीक नहीं आती होगी। उसकी जगह मैं होता तो तुम्हें उड़ा लेता।'

एक बार फिर नीति शरारत से भर जाती।

'तो जनाब आपने अपनी यह तकनीक अपनी अनुराधा पर नहीं लगाई?'

कार्तिक चौंक कर कहता,

'तो तुम मेरी जासूसी करती रही हो?'

'जासूसी की क्या जरूरत? घर भर में आपकी डायरियाँ, कविताएँ, चिट्ठियाँ बिखरी पड़ी हैं। आखिर साफ सफाई तो मैं ही करती हूँ। उन्हें मैं क्या, कोई भी पढ़ सकता है।'

अब कार्तिक चुहल की मुद्रा में आ जाता।

'मैं उसे उड़ाने ही वाला था...'

'फिर उड़ाया क्यों नहीं?'

'मुझे उससे सुंदर लड़की मिल गई इसलिए।'

नीति जोर से कार्तिक के कंधे से लग जाती। वे वहीं झील के किनारे लगी बेंच पर बैठ जाते। एक दूसरे में सिमटे हुए।

ऐसी किसी शाम के बाद प्रेम करने का सुख अद्भुत था।

नीति और कार्तिक घर आते। घर के आसपास लगे आम और गुलमोहर के पेड़ जैसे उनके स्वागत में हवा के साथ साथ सरसर-सरसर थरथराते। खिड़की से उनके शहर की प्रसिद्ध शाम की हवा धीरे-धीरे प्रवेश करती। परदे धीरे-धीरे हिलते। वातावरण एकदम रोमांटिक हो जाता।

कार्तिक अपने कमरे में जाता और कोई किताब लेकर लेट जाता।

फिर वह आती। रात के हल्के कपड़ों में, झीनी सी गुलाबी आसमानी नाईटी में दमकती। उसके शरीर की खुशबू धीरे-धीरे पूरे कमरे में फैल जाती। वह धीरे से कार्तिक की छाती पर से अधखुली किताब लेकर उसे बंद करती और उसके होंठों पर एक हल्के से चुंबन के साथ प्यार की दस्तक देती।

कार्तिक आँखें खोलता और उसकी पलकों पर एक हल्का सा चुंबन लेता। फिर कब वह नीति के शरीर से आने वाली केसर की खुशबू से विमोहित होता और कब उसके अंग प्रत्यंग पर फिसलते हुए उसके प्रेम में गहरे तक डूबता उसे पता ही नहीं चलता।

प्रेम के बाद एक अपूर्व शांति सी फैल जाती। नीति पीठ की तरफ से घेरकर कार्तिक का गहरा चुंबन लेती और कुछ ऐसी मीठी सी बात कहती।

'कार्तिक तुम बहुत अच्छे हो।'

या फिर,

'कार्तिक आई लव यू, लव यू, लव यू।'

कार्तिक कहता - मुझे मालूम है। फिर वह धीरे-धीरे नीति के बालों को सहलाता। वे गहरी नींद में डूब जाते, रतिश्लथ।

कार्तिक और नीति की वह छोटी सी सुखी दुनिया बहुत लंबे समय तक वैसी ही बनी नहीं रह सकी।

शारीरिक सुख अब उतना आकर्षक नहीं रहा था। वे दोनों एक दूसरे को उतना ही प्यार करते थे पर तापक्रम कुछ कम हो चुका था और तीव्रता भी। कार्तिक पढ़ने लिखने में ज्यादा मन लगाने लगा था और नीति भी कोई कोर्स जॉइन करने का सोचने लगी थी।

उन्हीं दिनों शहर के प्रसिद्ध रंग भवन में 'हयवदन' के मंचित होने की खबर आई।

कार्तिक ने नीति से कहा,

'तुमने हयवदन पढ़ा है?'

'हयवदन क्या?'

'नाटक है, गिरीश करनाड का प्रसिद्ध नाटक।'

'नहीं, क्यों?'

'इंटरेस्टिंग थीम है। शाम को रंग भवन में खेला जा रहा है। देखने चलोगी?'

'जरूर।'

वे शाम को हयवदन देखने गए थे।

हयवदन पुरुष की अपूर्णता की कथा थी। कार्तिक ने बहुत से नाटक इस थीम पर देखे थे। 'आधे अधूरे,' 'द्रौपदी' और 'सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक' जैसे नाटक इस अपूर्णता की ही प्रतिध्वनि थे। पर 'हयवदन' पौराणिक ऊँचाई तक ले जाने वाला नाटक था, जिसमें कथा गाथा का रूप ले रही थी।

नाटक के शुरू में भागवत, नट और हयवदन का उप प्रसंग शरीर और मस्तिष्क के द्वंद्व तक ले जा रहा था। उसके बाद देवदत्त, जो एक सुंदर और बुद्धिमान ब्राह्मण है तथा कपिल, जो एक बलिष्ठ व्यक्ति है के बीच सुंदरी पद्मिनी का प्रेम झूलते दिखाया गया था।

नाटक देवदत्त का परिचय कुछ इस प्रकार देता था - विप्रोत्तम पंडित विद्यासागर जी का एकमात्र पुत्र, सुधी पंडित, विद्याधनी, कामदेव सा सुंदर, गौरवर्ण, कोमलकांत काया। जो प्रेम और न्याय शास्त्रार्थों में दिग्गज पंडितों को परास्त कर चुका है, कला में बड़े बड़े महाकवियों को नीचा दिखा चुका है। देवदत्त शर्मा, मानों धर्मपुरी में हर आँख का तारा।

और कपिल का परिचय कुछ इस तरह दिया जाता था - राज शस्त्रागार का स्तंभ पुरुष, कर्मकार लोहित का सपूत। मेघ सा सांवला रंग, सादा सा चेहरा-मोहरा पर घरेलू कामकाज और शारीरिक शक्ति सामर्थ्य में एकदम असाधारण। मुष्टि युद्ध, लटयुद्ध, बाहु क्रीड़ा, मल्ल क्रीड़ा, अखाड़े के दांव पेंच, कसरत कवायद, तैराकी, उठा बैठी, दौड़ा दौड़ी, उखाड़-पछाड़ - हर कला में अद्वितीय।

देवदत्त और कपिल गहरे मित्र हैं। नाटक बुद्धिमान पुरुष और बलिष्ठ मनुष्य के बीच चयन की दुविधा में फँसी पूर्णता की तलाश करती पद्मिनी की कथा को आगे बढ़ाता है। उसकी शादी देवदत्त से होती है पर वह धीरे-धीरे कपिल से भी प्यार करने लगती है। पद्मिनी की इच्छा को गायिकाओं का कोरस सामने लाता है -

प्यार क्यों निभाएँ

सिर्फ एक देह के साथ

लंटीन के फूल

जो एक साथ सौ सौ खिलते हैं

अब उन्हें बीनकर

एक ही डोरी से क्यों बांधें?

दोनों सरों पर एक शीश

दोनों आँखों के लिए एक एक पुतली

दोनों बाँहों से दोनों का

अलग अलग आलिंगन

जिसकी मुझे न लज्जा है न चिंता

धरती के अंतर में रक्त बरसता है

आकाश में गीत की कोपलें फूटती हैं।

देवदत्त पद्मिनी की इच्छा पहचानकर, कपिल के लिए रास्ता बनाने, अपना सिर देवी के सामने काटकर अर्पित कर देता है। यह देख कपिल बहुत दुखी होता है और वह भी अपना सिर काट देता है। अब पद्मिनी शोकाकुल हो जाती है और देवी से दोनों को जीवित कर देने का आशीर्वाद माँगती है। देवी आशीर्वाद देती हैं और कहती हैं कि पद्मिनी अगर उनका सिर धड़ पर लगा दे तो वे जीवित हो जाएँगे। पर पद्मिनी गफलत में एक का सिर दूसरे के धड़ के ऊपर लगा देती है। दोनों जीवित तो होते हैं पर उनके शरीर बदल चुके हैं। पद्मिनी फिर पूर्ण मनुष्य की तलाश में देवदत्त के सिर और कपिल के शरीर वाले व्यक्ति के साथ चली जाती है। द्वंद्व बढ़ता है और अंत में तीनों अपना बलिदान कर देते हैं। पर इसके पहले पद्मिनी एक बालक को जन्म दे चुकी है जो पूर्णता प्राप्त मनुष्य की तरह है। नाटककार उसी में अपनी आश्वस्ति खोजता है।

नाटक देखने के बाद रंगभवन के कोने में पेड़ों से घिरे उस रेस्त्राँ में नीति और कार्तिक काफी देर तक चुप बैठे रहे थे। फिर वह धीरे से बोली थी।

'मैं नाटक की थीसिस से पूरी तरह सहमत नहीं।'

'क्यों?'

'ये शिजोफ्रेनिया का नाटक है। आदमी के व्यक्तित्व में बँटाव का। पर मनुष्य एक चेतन प्राणी है। वह अलग तरह से भी निर्णय ले सकता है। किसी स्त्री के लिए सिर्फ इसी तरह से सोचना जरूरी नहीं। वह एक पुरुष में पूर्णता की तलाश कर सकती है, या उसकी कमियों के साथ भी उसे स्वीकार कर सकती है।'

'फिर भी आकांक्षा तो बनी ही रहती है? अधूरेपन को पूरा करने की आकांक्षा। क्या सच यही नहीं कि स्त्री बुद्धि और बल दोनों ही चाहती है?'

नीति अपनी जगह से नहीं हिली। उसकी दृढ़ता पर कार्तिक को आश्चर्य हुआ था। नीति ने कहा था।

'पूर्णता की खोज ही एक तरह की मूर्खता है। मैं अपने पुरुष को उसकी कमियों के साथ स्वीकार करने की हिम्मत रखती हूँ।'

कार्तिक स्वयं क्या ये हिम्मत रखता था? इस प्रश्न का उत्तर देने का उसे साहस नहीं हुआ था।

उस दिन नीति के प्रेम का अंदाज निराला था।

उसने घर पहुँच कर कपड़े बदलने का भी इंतजार नहीं किया। उसने कार्तिक को अपनी बाँहों में घेरा और चुंबनों से उसे सराबोर कर दिया। जैसे वह कुछ सिद्ध करना चाहती थी।

कार्तिक के ऊपर आते हुए उसने उसके सीने, गर्दन और आँखों पर बेतहाशा प्यार बरसाना शुरू कर दिया।

आज उसके प्यार में बेहद उग्रता थी, जो कार्तिक के लिए बिल्कुल नई पर बेहद उत्तेजक थी।

प्यार के अंत तक आते आते वह भी बहुत उत्तेजित हो गई थी और उसकी समाप्ति पर पूरी तरह निढाल। उसकी आँखों से झर झर आँसू बह रहे थे।

कार्तिक ने पूछा था,

'क्यों, क्या बात है?'

उसने कहा था,

'कुछ नहीं, प्रेम के आँसू हैं।'

इस घटना के बाद नीति और कार्तिक और गहरे दोस्त बन गए। उनके प्रेम में अब वह प्रारंभिक तीव्रता नहीं रह गई थी, पर वह अब और गहरा हो गया था। उनमें एक नई आपसी समझदारी विकसित हो रही थी।

ऐसे ही एक दिन कार्तिक ने कहा था,

'नीति हमारा जीवन अच्छी तरह चल रहा है। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं। पर इसमें मुझे कोई चुनौती भी नजर नहीं आती। मैं कोई बड़ा काम करना चाहता हूँ।'

'जरूर करो। तुम्हारे बहाने मैं भी कोई नया काम कर लूँगी।'

'मैं प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बै कर देखूँ? कहते हैं बड़ी किन परीक्षा होती है। इस बहाने कुछ नए विषय पढ़ना भी हो जाएगा।'

'ठीक है। मैं भी कोई कोर्स जॉइन करती हूँ।'

'मेरी हमेशा से इतिहास और साहित्य पढ़ने की इच्छा रही है। वैसे नहीं जैसे मैं पढ़ता हूँ। पर व्यवस्थित रूप से। राजनीति विज्ञान और दर्शन भी मुझे आकर्षित करते हैं। इन्हीं में से कोई दो विषय ले लूँगा।'

'मेरा ख्याल है एक दो और लोगों से सलाह ले लो। प्रतियोगी परीक्षा का मामला है। तुम भले ही अपने आनंद और संतोष के लिए परीक्षा में बैठ रहे हो पर असफल होना थोड़े ही चाहोगे!'

'और तुम?'

'मेरा मन तो मनोविज्ञान में है। मैं उसी में पी.जी. कोर्स जॉइन करती हूँ।'

इस तरह कार्तिक और नीति ने अपने अध्ययन का दूसरा दौर शुरू किया था। कार्तिक ने अंततः इतिहास और हिंदी साहित्य चुना था। वह इंजीनियरिंग का कोई विषय लेना नहीं चाहता था। इंजीनियरिंग अब उसे रूखी और एकांगी लगने लगी थी। वह समाज और साहित्य में गहरे पैठना चाहता था।

इतिहास उसे शुरू से ही प्रिय था और अवसर मिलने पर वह पढ़ता रहा था। सुना था कि इस समय देश में इतिहास और ऐतिहासिक दृष्टि पर नया काम हो रहा था और इतिहासवेत्ताओं की एक बिल्कुल नई पीढ़ी उभर कर सामने आई थी। कितना रोचक होगा विभिन्न दृष्टियों और धाराओं को समझना?

और साहित्य? वह तो जैसे कार्तिक के मन में रचा बसा था। उसे हर समय साहित्य जीवन को समझने, उसे समृद्ध करने और आंतरिक विश्व को प्रकाशित करने की पद्धति की तरह लगता रहा था। उसका व्यवस्थित अध्ययन कितना आनंददायक होगा, सोचकर ही कार्तिक खुशी से भर उठा था।

सो कुछ अपने संतोष के लिए, कुछ जिज्ञासा के कारण, कुछ खालीपन को भरने के लिए और कुछ जिंदगी को नया मकसद प्रदान करने की दृष्टि से कार्तिक ने प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बैठना तय किया।

कार्तिक के पढ़ने का तरीका भी बिल्कुल अनोखा था। विषय नए थे पर उसने न तो कोई कोचिंग क्लास जॉइन की और न ही कोई ट्यूटोरियल्स। उसे इस तरह की पढ़ाई से बहुत चिढ़ होती थी। उसे अपने पर भरोसा था और वह मानता था कि अगर उसने व्यवस्थित तरीके से विषय को पकड़ा तो कोई कारण नहीं कि वह खुद उसे न समझ ले।

उसने कुछ जानकार प्रोफेसर्स से बात कर स्टैंडर्ड टेक्स्ट तथा संदर्भ ग्रंथों की सूची बनाई। फिर एक बार की रीडिंग के बाद कुछ नोट्स लिए और तब सप्लीमेंटरी मटेरियल पढ़ना शुरू किया। उसकी कोशिश थी कि वह विषय की तह तक पहुँचे और उसकी अंतर्धारा को पकड़ ले।

उसने नौकरी पर जाना भी नहीं छोड़ा था। वह तनाव मुक्त था और आनंद के लिए पढ़ रहा था।

नौकरी से लौटने के बाद वह घंटों किताबों में डूबा रहता। प्राचीन भारतीय इतिहास उसे सबसे ज्यादा आकर्षित करता था। विशेष कर वह उन स्रोतों को समझने की कोशिश करता था जिनके आधार पर इतिहास लिखा जाता था। उसने पहले ही पाठ में समझ लिया कि यूरोपियन इतिहासकारों की विधि व्यक्तियों तथा साम्राज्यों का इतिहास लिखने की थी जबकि जरूरत थी जनता और उसकी संस्थाओं के इतिहास को लिखने की। वेदों, पुराणों, महाभारत तथा रामायण को, जिन्हें वह कथा या धर्म ग्रंथ की तरह पढ़ता आया था, कैसे इतिहास की सामग्री के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है, देखकर वह चकित होता। सिक्कों, खंभों, ताम्रपत्रों और पांडुलिपियों की वह अजीब दुनिया थी जिसमें से उस समय के समाज, संस्कृति, धर्म और राजनीति के चित्र उकेरे जा सकते थे।

वह आर्यों के आने से लेकर मौर्यों द्वारा पहले भारतीय साम्राज्य की स्थापना तक पहुँचा और पाया कि साम्राज्यों के बनने बिगड़ने का सिलसिला इतिहास में लगातार चलता रहा है। देश की कोई निश्चित सीमाएँ नहीं थीं और मौर्यों के बिखरने के बाद शुंग, कलिंग, शक और कुषाण तत्कालीन भारत वर्ष में प्रवेश कर यहाँ के समाज का हिस्सा बनते रहे थे। धीरे-धीरे व्यापारिक समूहों और समुदायों ने अपनी जड़ें गहरी की थीं जिसके आधार पर एक बार फिर गुप्त साम्राज्य उभरा।

उत्तर भारत में साम्राज्यों के बिखराव के बीच नवीं दसवीं शताब्दी से दक्षिण का उत्थान शुरू हो गया था और करीब चार सौ वर्षों तक दक्षिण भारत ही था जिसने कला, संस्कृति, धर्म और राजनीति में भारत का नेतृत्व किया। उत्तर में इस बीच छोटी छोटी क्षेत्रीय ताकतों ने राज्य कायम किए जो इस्लामिक आक्रमण के सामने टिक नहीं पाईं। फिर शुरू हुआ दो विकसित संस्कृतियों के संघर्ष तथा समन्वय का अनूठा सिलसिला जिसने आज के भारत का निर्माण किया था।

उसे भक्ति आंदोलन के कवि बहुत पसंद आते थे। वह एक ओर तो नानक, कबीर तथा नामदेव के दर्शन में डूबा रहता था और दूसरी ओर सूफी कवि, अमीर खुसरो भी उसे उतना ही आकर्षित करते थे।

कार्तिक ने फाह्यान और इब्नबतूता के वृत्तांत पढ़े और उस समय के समाज तथा संस्कृति से परिचित हुआ। उसने हिंदू, बौद्ध, जैन तथा इस्लाम धर्मों के आधारभूत सिद्धांतों, उनके विस्तार और टकराव के बारे में जाना और निष्कर्ष निकाला कि उस समय के टकरावों के आधार पर आज के आधुनिक देश और उसके संघर्षों का निबटारा नहीं किया जा सकता है।

फिर आए थे यूरोपियन, विशेषकर अंग्रेज जिन्होंने आर्थिक रूप से समृद्ध पर राजनैतिक रूप से बँटे हुए देश को धीरे-धीरे तोड़ते हुए गुलाम बना लिया था। उनकी कुटिलता, उनकी बुद्धिमत्ता, उनका ज्ञान, उनका विज्ञान, उनके षड़यंत्र, उनकी नीति इन सबको कार्तिक ने गहराई से समझा था। उनके खिलाफ हुए विद्रोह की कहानी उसे भीतर तक विचलित कर जाती थी और विद्रोह के बाद जनतांत्रिक संगठनों की शुरुआत, जनांदोलनों का विस्तार, महात्मा गांधी का नेतृत्व और उसके बरक्स आजाद और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों का संघर्ष उसे आजादी के आंदोलन की मूल धाराओं से परिचित करा रहे थे। उसे समृद्ध कर रहे थे। उसने सप्लीमेंटरी मटेरियल के रूप में नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया और हूमायूँ कबीर की इंडियन हेरिटेज पढ़ीं और जैसे चीजों को देखने की एक नई दृष्टि उसे हासिल हुई। राममोहन राय समाज की विकृतियों के बारे में उसे बता रहे थे और महात्मा फुले कह रहे थे कि दलितों के लिए पढ़ना ही क्रांति में भाग लेना है।

कहा जा सकता है कि एक साल का वह समय कार्तिक के अपने नवजागरण का समय था।

साहित्य ने उसकी इस समझ को और समृद्ध किया। वह भाषा के इतिहास से गुजरा और भक्ति तथा रीतिकाल की प्रवृत्तियों से रूबरू हुआ। भारतेंदु के साथ उसने दो संस्कृतियों के टकराव के बीच उभरती नई भाषा का स्वाद पहचाना तथा रामचंद्र शुक्ल ने उसे हिंदी साहित्य के इतिहास से परिचित कराया। हजारीप्रसाद ने बताया कि कबीर क्यों महत्वपूर्ण हैं और निराला, अज्ञेय तथा मुक्तिबोध ने नई कविता से उसकी पहचान कराई।

अब कार्तिक ज्ञान के ऐसे शिखर पर खड़ा था जहाँ से वह दूर दूर तक देख सकता था।

कहना न होगा कि उसने प्रशासनिक सेवा के परचे बहुत अच्छे किए और उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।

इंटरव्यू समिति में देश के बड़े विद्वान और वरिष्ठ प्रशासक शामिल थे। उन्हें कार्तिक के विषयों के चयन पर बड़ा आश्चर्य हुआ था। लगभग पैंतालीस मिनिट चलने वाले उस साक्षात्कार में कार्तिक से इतिहास, साहित्य और विज्ञान पर कई सवाल पूछे गए थे। अंत में समिति के अध्यक्ष ने कहा था।

'अच्छा मिस्टर कार्तिक, एक बात बताइए। आप तो इंजीनियर हैं अच्छी नौकरी में हैं। आप प्रशासनिक सेवा में क्यों आना चाहते हैं?'

कार्तिक ने सोचकर कहा था,

'सर, समाज के अन्य क्षेत्रों और प्रशासन में भी वैज्ञानिक दृष्टि की उतनी ही जरूरत है जितनी स्वयं वैज्ञानिक संस्थाओं में। मैं अपने साथ वह दृष्टि लेकर प्रशासन में आना चाहता हूँ। फिर कई विभाग तो ऐसे हैं जिनमें सीधे इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि वाले लोगों की जरूरत है।'

अध्यक्ष ने उसे और आगे परखते हुए कहा था,

'कहते हैं कि वैज्ञानिक और इंजीनियर एक तरह की 'टनल विजन' के, संकुचित दृष्टिकोण के, शिकार हो जाते हैं।'

कार्तिक ने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा था,

'सर, मैंने इसीलिए इतिहास और साहित्य जैसे विषय लिए जिससे मेरा दृष्टिकोण व्यापक हो सके। इफ एट ऑल, आइ एम एट द एंड ऑफ द टनल।'

उस समय उसे नहीं पता था कि उसका यह जवाब उसे प्रथम सौ छात्रों की सूची में ला खड़ा करेगा।

प्रशासनिक सेवा की तैयारी और नए विषयों के अध्ययन ने कार्तिक को साल भर तक मसरूफ रखा था। लेकिन परीक्षा के खत्म होते ही उसका खालीपन फिर लौट आया। इस बार कुछ अधिक शिद्दत के साथ।

उधर नीति ने भी अपने एम.ए. मनोविज्ञान का पहला साल पूरा कर लिया था और वह भी खाली खाली महसूस कर रही थी।

ऐसे ही गर्मियों की एक शाम, वे अपनी प्रिय जगह 'विंड एंड वेव्स' में पहुँचे थे। उस दिन उन्होंने काँच की दीवारों के बाहर लॉन पर बैठना पसंद किया था। शाम की हल्की मदमाती हवा चल पड़ी थी। पहाड़ी की ऊँचाई से झील का विस्तार दूर दूर तक दिखाई दे रहा था। नीचे एक पतला सा रास्ता था जिस पर लोग चलते फिरते, खुशी मनाते नजर आ रहे थे। झील में छोटी छोटी नौकाओं में विहार करते परिवार, झील के बीचों बीच स्थित टापू और टापू पर बनी मजार, एक पेंटिंग जैसा दृश्य उपस्थित कर रहे थे। कार्तिक और नीति को लगा जैसे वे एक पेंटिंग के बीचों बीच बैठे हैं।

झील के उस पार शहर अपने पूरे सौंदर्य और घनत्व के साथ उपस्थित था।

कार्तिक ने एक भरपूर निगाह उस दृश्य पर डाली, जैसे उसे आँखों में भर लेना चाहता हो। बहुत खूबसूरत था उसका शहर। दूर मनुआभांड की टेकरी से ढरकते हुए, कोह-ए-फिजा, ईदगाह हिल्स, फतेहगढ़ पहाड़ी और मेडिकल कॉलेज होते हुए कमला पार्क तक घरों, मीनारों और गुंबदों का संसार बिखरा पड़ा था। वह पूरा दृश्य एक चित्र की भाँति उसके मानस पर अंकित हो गया।

कार्तिक हर बार इस दृश्य को देखता और रोमांचित होता था। पर इस बार उसे कुछ अलग तरह का अनुभव हुआ। एक बिल्कुल नया विचार उसके मन में आया। उसे लगा कि उसका शहर तीन ऐसी सभ्यताओं के ऊपर खड़ा है जिनके अलग-अलग रंग थे पर वे सब वॉटर कलर्स की तरह घुलमिल कर एक नई पेंटिंग का निर्माण कर रहे थे।

उसके एकदम सामने था दोस्त मोहम्मद खान का भोपाल जो अठारहवीं शताब्दी के शुरू में उभर रहा था और जिसका जन्म फतेहगढ़ पहाड़ी पर बने एक छोटे से परकोटे के साथ हुआ था, जो खुद असल में अपने से करीब पाँच सौ साल पुराने गोंड राज्य के खंडहरों पर खड़ा हुआ था जिसका अंतिम सिरा राजा भोज द्वारा बनवाया गया वही बाँध था जिस पर आज कमला पार्क खड़ा हुआ था, और जिसकी पृष्ठभूमि में थी करीब हजार साल पहले की सम्राट अशोक की साँची, जो बौद्ध धर्म का प्रकाश स्तंभ थी और थी एक बिल्कुल अलग सभ्यता की प्रतिनिधि।

कितना सारा इतिहास सिमटा था इन मीनारों और गुंबदों में, मंदिरों और स्तूपों में। कहाँ थे वे साम्राज्य जिनके स्वप्न देखे गए थे? कहाँ थे वे महल और किले जिनके सहारे वे साम्राज्य खड़े थे? कहाँ था वह सारा धन, सुख सुविधाओं के स्वप्न जिनके लिए साम्राज्य खड़े किए गए थे? तमाम लड़ाइयों और संघर्षों के बीच दोस्त मोहम्मद खान उन सुविधाओं के बीच कितना रह पाया होगा? तो क्या फिर कोई और शक्ति थी जो उसे संचालित करती थी? कैसा रहा होगा सत्रहवीं शताब्दी का आखिरी दौर और अठारहवीं शताब्दी का प्रारंभ? औरंगजेब के आखिरी दिन और मुगल साम्राज्य का पतन?

अचानक शाम की लाइट्स जल उठीं और पूरा शहर जगमग-जगमग करने लगा। झील के सामने की सड़क सफेद रोशनी से जगमग हो उठी और उसके पीछे जैसे एक सुंदर संसार जगमगा उठा।

कार्तिक के मन में एक और चित्र उभरा।

वह करीब दस-बारह साल पहले की ऐसी ही एक शाम थी। उस साल उसने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दी थी। परचे अच्छे हुए थे। उम्मीद थी कि प्रवेश हो जाएगा। पर परीक्षा के बाद मन में एक अजीब सा खालीपन घिर आया था। अचानक करने के लिए कोई काम नहीं बचा था और सोचने के लिए थीं कई बातें। कैसा होगा उसका भविष्य? कैसा होगा उसका नया रास्ता? कैसा होगा उसका नया कॉलेज, नए दोस्त? उसके पुराने दोस्त या तो बाहर चले गए थे या छूट जाने वाले थे। एक शून्य जैसा मन में घिर आया था।

आँगन में लगे आम के पेड़ से जैसे उसकी दोस्ती हो गई थी। वह अक्सर उसके नीचे बैठता सोचता, कभी-कभी पढ़ता। उस शाम जब वह आम के पेड़ के नीचे अकेला बैठा था, तब पिता, जिन्हें वह दादा कहा करता था, ने न जाने कैसे उसके मन का ये खालीपन पहचान लिया था और कहा था,

'सबके जीवन में ये मोड़ आता है। स्कूल के बाद का पड़ाव है ये। इस समय कुछ नया करो, थोड़ा आसपास से, अपने शहर से पहचान बढ़ाओ। खुद को भरा-भरा महसूस करोगे।'

फिर कुछ दिन बाद उन्होंने खुद ही प्रस्ताव किया था,

'मैं कुछ दिनों के लिए छुट्टी ले रहा हूँ। हम लोग मिलकर अपना शहर ढूँढ़ेंगे।'

कार्तिक को उनके साथ घूमना अच्छा लगता था। वे शहर की हर इमारत, हर मोहल्ले, हर दरो-दीवार को जानते थे और उनकी ढेरों कहानियाँ, उनकी स्मृति में बसी थीं, जिन्हें वे रोचक अंदाज में सुनाया करते थे। पर इस बार जब बस ने शहर के बाहर का रुख किया तो कार्तिक को थोड़ा आश्चर्य हुआ था। उसने पूछा था,

'हम लोग शहर के बाहर जा रहे हैं?'

'हाँ, कभी-कभी शहर को पहचानने के लिए उसके बाहर जाना जरूरी होता है। एक दूरी हासिल करने से चीजें साफ-साफ दिखती हैं।'

कार्तिक को उनकी ये बात नई और अच्छी लगी थी। बस ने जब उन्हें एक छोटे से गाँव के पास उतारा तो उसने पूछा था,

'दादा, ये तो गाँव जैसा कुछ है!'

'हाँ यही है हमारे शहर का पूर्वज, इस्लाम नगर।'

कार्तिक एक किले के परकोटे से घिरा हुआ खड़ा था जिसे जगह-जगह से तोड़कर गाँव अंदर घुस आया था। परकोटे के भीतर छोटी-छोटी पगडंडियाँ थीं जो बुर्जों तक जाकर खत्म हो जाती थीं। उन्हीं में से एक थोड़ी बड़ी पगडंडी एक महल के सामने जाकर रुकी।

महल में लकड़ी के बड़े बड़े दरवाजे थे जो किसी रहस्य को छुपाए हुए बंद खड़े थे। कार्तिक ढूँढ़ कर चौकीदार को बुला लाया था जिसने दरवाजे खोले थे और कहा था,

'इधर कोई आता नहीं है साहब। इसलिए बंद ही रखते हैं।'

चौकीदार ने जैसे किसी तिलस्म का दरवाजा खोला। दरवाजा एक बड़े सहन में खुलता था जिसके बाद एक और छोटा परकोटा था। छोटे परकोटे से एक विशालकाय बाग में जाया जा सकता था जिसके आखिरी छोर पर महल खड़ा था चौकीदार ने उसके गेट खोलते हुए कहा था,

'ये है चमन महल...।'

कार्तिक ने निगाह भर के देखा, चार बाग स्टाइल के शानदार बगीचे एवं बारादरी के पीछे एक उदास सा महल खड़ा था। कार्तिक को वह महल बहुत सुंदर और हांटिंग लगा था। बगीचा उसमें चार चाँद लगा रहा था। महल के पीछे एक नदी घूमते हुए कहीं दूर चली जा रही थी जिसके पार खेत पसरे हुए थे।

दादा ने महल की छत पर बात शुरू करते हुए कहा था,

'इस जगह का असली नाम है जगदीशपुर। यहाँ पहले राजपूतों का राज था। दोस्त मोहम्मद खान ने उनसे छीनकर अठारहवीं सदी में ये किला बनाया। फिर इसे अपनी राजधानी बनाया'।

वे उसे महल और किला दिखाते रहे थे। गौहर महल, रानी महल, शाही हमाम, बारादरी...।

वे उस इमारत की हर दीवार को, हर मंजिल को जानते थे। कार्तिक को वह जगह बहुत रहस्य भरी सी लगने लगी। अचानक उसे लगा जैसे वह दोस्त मोहम्मद खान के समय में जाना चाहता है। कैसा होगा उस समय का समाज, उस समय के लोग, उनके स्वप्न?

उसने दादा से कहा था,

'दादा, दोस्त मोहम्मद के बारे में कुछ बताइए ना!'

दादा ने हँसती हुई आँखों से उसे देखा जैसे कह रहे हों, देखो मैंने तुम्हारे मन को छू लिया न! फिर एक पेड़ की छाया में पत्थर पर बैठते हुए कहा था,

'आओ तुम्हें कुछ कहानियाँ सुनाता हूँ'

कार्तिक बहुत दिनों तक उस अनुभव को भुला नहीं पाया। जैसे वे दोनों पिता और पुत्र दोबारा खोज रहे थे अपना शहर, अपने शहर में अपना समय, अपने समय में अपना वजूद और ऐसा करते हुए वे अचानक अपने वर्तमान से मुक्त होकर एक ऐसी यात्रा पर निकल गए थे जहाँ से बिना बदले लौटना मुमकिन नहीं था।

दादा ने जो सुनाया वह कहानी थी कि इतिहास, यह कार्तिक नहीं जान पाया।

सत्रहवीं शताब्दी का आखिरी दौर था। औरंगजेब का साम्राज्य ढलान पर था। उसकी मृत्यु के बाद तो देश में अफरा तफरी का माहौल बन गया। मुगल साम्राज्य में टूट फूट शुरू हो गई और मराठों ने अपने पाँव मालवा तक पसार लिए।

ऐसे में एक अफगान युवक ने अपने पिता के साथ भारत की धरती पर कदम रखा। वह खैबर दर्रे के पास के तीराह गाँव का रहने वाला था और वहाँ के प्रसिद्ध कबीले फातिमा खेल का बाशिंदा था। वह सत्रहवीं शताब्दी का आखिरी दशक था। वह पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के पास स्थित एक छोटे से गाँव में पहुँचा, जहाँ पहले से ही उसके कबीले के लोग बसे हुए थे। वह कुछ दिन वहाँ रहा, पर इस बीच उसने एक पठान का कत्ल कर डाला। जैसी कि आशा की जा सकती थी, बीच में एक लड़की थी, जिसकी शादी पहले दोस्त मोहम्मद से होना तय हुआ था, पर बाद में कत्ल होने वाले युवक से तय हो गई।

इस डर से कि कहीं उसे पकड़ न लिया जाए, दोस्त मोहम्मद भाग कर पहले कसाल और फिर दिल्ली पहुँचा और वहाँ मुगल सम्राट के यहाँ नौकरी करने लगा। वह मुगल सेना के साथ मराठों पर हमला करने के इरादे से ही मालवा में आया था। कुछ दिनों बाद उसने मुगल सेना भी छोड़ दी और 'फ्रीलांसर' लड़ाके के रूप में कभी सीतामऊ के राजा केशोदास और कभी भिलसा के नवाब मोहम्मद फारुख के यहाँ नौकरी करने लगा। आखिरी बार वह मोहम्मद फारुख के यहाँ ही अपनी अमानत छोड़ कर मालवा की ओर गया था।

मोहम्मद फारुख ने यह मानकर कि दोस्त मोहम्मद मालवा में कहीं मारा गया है, उसका सामान जब्त कर लिया और फिर उसके लौटने पर भी उसका धन और सामान देने से इनकार कर दिया। दोस्त मोहम्मद खामोशी के साथ मंगलगढ़ के शासक आनंद सिंह सोलंकी के यहाँ नौकरी करने लगा। यह करीब १७०८-०९ के आसपास का समय था। उस समय दोस्त मोहम्मद के पास कुल पचास घुड़सवार और पैदल सिपाही थे।

अब भाग्य ने पलटा खाया। किसी काम से आनंद सिंह सोलंकी को उत्तर भारत की ओर जाना पड़ा। अपना राज्य वह अपनी माँ चंदेल जी के सुपुर्द कर गया, पर वहाँ उसकी मृत्यु हो गई। कुछ दिनों बाद उसकी माँ भी स्वर्ग सिधारीं और मंगलगढ़ का राज्य, उसकी संपत्ति और बैरसिया जिला, दोस्त मोहम्मद के कब्जे में आ गया। कुछ जमीन, इलाका और संपत्ति हाथ में आने पर उसकी साम्राज्य बनाने की परिकल्पना जागी।

इस परिकल्पना के जागते ही दोस्त मोहम्मद बदल गया। उसे अपने इलाके का विस्तार करने में किसी तरह के हथकंडों से परहेज नहीं रहा। पारासोन पर उसने बहुत धूर्तता से कब्जा किया। कब्जे के पहले उसने एक साधु को कस्बे की जासूसी करने भेजा। साधु ने खबर दी कि वहाँ के राजपूत होली के दिन निहत्थे और भाँग के नशे में मस्त रहेंगे, और वही दिन हमला करने के लिए सर्वोत्तम होगा। सो दोस्त मोहम्मद ने होली के दिन हमला करके तबाही मचा दी और पारासोन को कब्जे में ले लिया। इसी तरह उसने किच्ची वाड़ा और उम्मत वाड़ा के राजपूतों को परास्त किया तथा बैरसिया के उत्तर में शमशाबाद को कब्जे में किया।

अब उसने अपनी नजर जगदीशपुर पर डाली। जगदीशपुर भी राजपूतों के कब्जे में था। दोस्त मोहम्मद ने उस पर कब्जा करने का मन बनाया। वह शिकार करने के बहाने अपने दोस्तों और साथियों के साथ जगदीशपुर पहुँचा, और पास ही बेस नदी के किनारे डेरा डाला। वह पहले राजपूतों के यहाँ दावत खाने गया और फिर उन्हें अपने शिविर में खाने पर बुलाया। राजपूतों के शिविर में आने के बाद वह पान और इत्र लाने के बहाने शिविर से बाहर निकला और उसका इशारा पाने पर सैनिकों ने शिविर की रस्सियाँ काट दीं। शिविर राजपूतों पर गिर पड़ा। अब दोस्त मोहम्मद के सैनिकों ने कत्ले आम मचा दिया और राजपूतों की लाशें बेस नदी में बहा दीं। इसीलिए उस नदी का नाम हलाली नदी पड़ा। जगदीशपुर को फतह करने के बाद उसने उसका नाम इस्लामनगर रखा। इसके बाद अपना साम्राज्य बनाने के लिए दोस्त मोहम्मद ने सभी सही गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। कुछ ही दिनों में उसने सिहोर, ग्यारसपुर, दोराहा और इछावर पर कब्जा कर लिया। इस तरह हुआ था भोपाल राज्य का निर्माण।

कार्तिक ने जो बहुत देर से ये कथा सुन रहा था पूछा था,

'तो क्या दोस्त मोहम्मद ने सही किया?'

दादा ने जवाब दिया था,

'देखो, उस समय सही गलत की परिभाषा अलग थी। हर राजा छल बल से ही अपना साम्राज्य बनाता या बचाए रखता था। फिर उसने राजपूतों के साथ ही ऐसा नहीं किया था। विदेशी धरती पर खुद को बचाना और अपना साम्राज्य बनाना उसका लक्ष्य था। उसने मुस्लिम राजाओं के साथ भी यही किया। जैसे विदिशा के मुहम्मद फारुख के साथ।'

अब उन्होंने मुहम्मद फारुख का किस्सा सुनाया।

मोहम्मद फारुख विदिशा का राजा था और उसने दोस्त मोहम्मद की अमानत में खयानत कर दी थी, अपनी ताकत बढ़ने के बाद दोस्त मोहम्मद ने मोहम्मद फारुख से बदला लेने की ठानी। वह जलाल बागड़ी के पहाड़ी इलाके में फारुख से लड़ाई लड़ने पहुँचा। मोहम्मद फारुख हाथी पर सवार, अलग खड़ा लड़ाई का निरीक्षण कर रहा था। उधर दोस्त मोहम्मद ने अपनी सेना अपने छोटे भाई शेर मोहम्मद के मातहत कर, मुकाबले में भेजी। वह खुद जलाल बागड़ी की टेकरी के पीछे खड़ा रहा। मुकाबले में शेर मोहम्मद खान को किसी ने पीछे से भाला मार दिया जो उसके सीने के आर पार हो गया। शेर मोहम्मद मारा गया और उसकी सेना वापस भागने लगी। फारुख ने इसे अपनी जीत समझ कर अपनी सेना को शेर मोहम्मद की सेना को खदेड़ने के लिए उसके पीछे लगा दिया और जीत का बिगुल बजवाना शुरू कर दिया।

तभी टेकरी के पीछे खड़ा दोस्त मोहम्मद आगे बढ़ा। उसने पीछे से फारुख के हाथी पर चढ़कर खंजर के एक वार से उसका काम तमाम कर दिया। और उसे अपनी गोद में सीधा बिठा लिया। उसके साथ जो सेना की टुकड़ी और बिगुल बजाने वाले थे उन्हें अपने घेरे में ले लिया और उन्हें आदेश दिया कि वे बिगुल बजाते हुए भिलसा के किले की तरफ बढ़ें। जब जीत का बिगुल बजाती सेना किले पर पहुँची उस समय शाम का अँधेरा सा हो चुका था। फारुख मोहम्मद की लाश दोस्त मोहम्मद की गोदी में थी और वह खुद उसके पीछे छुपा हुआ था। किले पर तैनात सैनिकों ने उसे बिना पहचाने दरवाजा खोल दिया। दोस्त मोहम्मद ने किले के भीतर पहुँचकर किले के शासक की लाश किले की सेना के सामने पटक दी और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे किले को अपने कब्जे में ले लें।

इस जीत से दोस्त मोहम्मद की इज्जत और बढ़ गई और मालवा का एक बड़ा भाग उसके कब्जे में आ गया।

'तो वह भोपाल कैसे पहुँचा?'

'इसकी भी एक रोचक कथा है।'

'सुनाइए न!'

दादा ने चौकीदार को इशारा किया और वह पास की दुकान से चाय के दो गिलास दे गया। गिलास से उठती भाप के बीच दादा की कहानियों में से जैसे एक और दृश्य उभरा।

उस समय हमारा आज का भोपाल और उसके आसपास का इलाका गोंडों के कब्जे में था। उन्हीं की रानी थी कमलापति। बेहद खूबसूरत और तेज। वह अपने पति निजाम शाह के साथ गिन्नौरगढ़ के किले से इस इलाके पर राज करती थी। उसी का आउटपोस्ट जैसा था हमारा आज का कमलापार्क और उस पर बना महल। भोपाल उस समय मछुआरों का एक छोटा सा गाँव था। निजाम शाह को उन्हीं के एक रिश्तेदार आलमशाह ने, बाड़ी के शासक जसवंत सिंह के कहने पर, जहर देकर मार डाला। कमलापति का बेटा उस समय छोटा था। सो जसवंतसिंह से बदला लेने के लिए कमलापति ने दोस्त मोहम्मद को आमंत्रित किया। दोस्त मोहम्मद ने बाड़ी पर हमला किया और जसवंत सिंह का सिर काटकर कमलापति के सामने लाकर पटक दिया। पहले उसने बाड़ी को अपने राज्य में मिलाया। फिर कमलापति के मरने के बाद भोपाल या भोजपाल को भी अपने कब्जे में ले लिया। इस तरह वह पहुँचा था भोपाल।

कहते हैं दोस्त मोहम्मद के समय की बस्ती, राजा भोज के समय से चली आती थी। वह जो छोटे और बड़े तालाब के बीच का रास्ता है न, वह दरअसल एक बाँध है जिसे राजा भोज ने बनवाया था और उस पर सुरक्षा के लिए चेक पोस्ट जैसा कुछ था। इसी से इसे भोजपाल कहते थे। उसके पास बस एक छोटा सा गाँव था।

वह यहाँ ज्यादा नहीं रह पाया। १७२२ में उसने इस्लाम नगर छोड़कर भोपाल का किला बनवाया, फतेहगढ़ पहाड़ी पर। वह अपनी बीवी फतेह बेगम से बहुत प्यार करता था और उन्हीं के नाम पर उसने इस किले का नाम फतेहगढ़ रखा। १७२८ में उसकी मौत हुई। वहीं फतेहगढ़ पहाड़ी पर उसका मकबरा है, जहाँ आजकल मेडिकल कॉलेज है।

अचानक कार्तिक अपने वर्तमान से टकराया। मेडिकल कॉलेज, उसके सामने का भीड़ भरा बाजार, मरीजों की रेलमपेल और उनके बीचोंबीच दोस्त मोहम्मद का मकबरा। नया जैसे पुराने में मिल रहा था, एक सभ्यता जैसे दूसरे से मुलाकात कर रही थी, एक दृश्य जैसे दूसरे के बीच से उभर रहा था।

दादा ने जैसे देखने की नई दृष्टि उसे प्रदान की। उसकी तीव्र इच्छा हुई कि वह एक बार फिर शहर में लौटे, देखे उन इमारतों को जिन पर इतिहास लिखा था, खोजे अपना वर्तमान उस इतिहास के बीच से...

दादा ने भी अपनी बात इस्लाम नगर पर खत्म नहीं की।

अगले दिन से उन्होंने उसे भोपाल घुमाना शुरू किया था और शुरुआत की थी गांधी मेडिकल कॉलेज के बीचों-बीच स्थित दोस्त मोहम्मद के मकबरे से,

'ये है कॉलेज परिसर के एकदम बीच में स्थित दोस्त मोहम्मद का मकबरा जिसे उसके बेटे यार मोहम्मद खान ने १७४२ में बनवाया था जिस समय दोस्त मोहम्मद की मौत हुई उसका बेटा यार मोहम्मद हैदराबाद में था, एक बंधक की तरह। निजाम ने जब उसे उसके पिता की मौत के बारे में बताया तो उसने कहा - मेरे पिता तो आप ही हैं। इस पर निजाम बहुत खुश हुआ और उसने यार मोहम्मद को भोपाल का नवाब बना दिया। भोपाल लौटकर उसने कई छोटी-छोटी लड़ाईयाँ लड़ीं, उन्हीं में से एक में उसे मिली थी वह हिंदू सुंदरी मामोला, जिससे उसकी कभी शादी नहीं हुई पर आगे चलकर वह रियासत की बड़ी प्रभावशाली महिला बनी - माँजी मामोला, एक समय में तो पूरी रियासत ही उनके हाथ में आ गई थी और दीवान विजय राम के साथ मिलकर उन्होंने पूरा प्रशासन चलाया...।'

'शायद माँजी मामोला से ही भोपाल के इतिहास में महिलाओं और बेगमों के महत्वपूर्ण होने की शुरुआत हो गई थी। इस शहर का इतिहास बनाने में चार मुस्लिम महिलाओं का बड़ा हाथ रहा। ये थीं कुदसिया बेगम जिन्हें गौहर बेगम भी कहते थे, सिकंदर जहाँ बेगम, शाहजहाँ बेगम और सुल्तान जहाँ बेगम। शहर की अधिकतर इमारतें इन्हीं ने बनवाई।'

फिर उन्होंने इमारतें, मस्जिदें और मकबरे दिखाने का सिलसिला शुरू किया,

'यह रहा गौहर महल, जिसे कुदसिया बेगम ने बनवाया था। यह रियासत का पहला महल है। हिंदू एवं मुगल शैली का अद्भुत समन्वय। एक तरफ दीवान-ए-आम और दूसरी ओर दीवान-ए-खास। अंदर शानदार फव्वारे, लकड़ी के नक्काशीदार स्तंभ और मेहराबें, ऊपर बेगम के रहने का खास कमरा और उससे झाँकते ब्रेकेट युक्त छज्जे जहाँ से बड़ी झील का नजारा देखा जा सकता है...।

और इसी के नीचे बना यह शौकत महल इसे भी कुदसिया बेगम ही बनवा गई थीं हालाँकि इसका डिजाइन एक फ्रेंच वास्तुविद ने किया था। इसमें बाद के बहुत सारे बेगमात और नवाब रहे। इसके सामने एक शानदार गुलाबों का बगीचा था...।

और यह रहा मोती महल जिसे कुदसिया बेगम ने दरबार हॉल की तरह बनवाया था, जो विशाल दो मंजिले के साथ आज भी खड़ा है...

ये रहा ताज महल जो शाहजहाँ बेगम की कृति है। इसे बनाने में उस समय भी करीब तीस लाख रुपयों का खर्च आया था। इसमें १२० कमरे और ८ विशाल कक्ष थे। सभी कमरे अलग अलग रंगों से सजे। अंदर लाल किले और कश्मीर के शालीमार बाग की नकल में बनाई गई इमारत 'सावन भादों'। तरह तरह की मेहराबें, स्तंभ और गुंबद। इसके पूरा होने पर तीन साल तक 'जश्ने ताजमहल' मनाया गया था...।

और ये शाहजहाँ बेगम का 'समर रेस्टहाउस' बेनजीर भवन और ये परीबाजार जो असल में चिड़ियाघर था, और ये शाहजहाँ बेगम की बनाई सदर मंजिल, और ये लाल कोठी जिसमें अब राज भवन है और जिसे जहाँगीर मोहम्मद ने ब्रिटिश सेना की छावनी के रूप में बनाया था। ये रही सुल्तान जहाँ बेगम की बनवाई सेंट्रल लायब्रेरी और ये हमीदिया लायब्रेरी जिसका उद्घाटन लॉर्ड मिंटो ने किया था...

दादा शहर की हर इमारत को जानते थे। उसके पुरातत्व और इतिहास से परिचित थे। कार्तिक को वह सब देखने में बड़ा मजा आ रहा था। वह बीच बीच में ढेर सारे सवाल भी करता जा रहा था। अब दादा मस्जिदों पर आए,

'ये है भोपाल की पहली मस्जिद, ढाई सीढ़ी की मस्जिद, जिसे दोस्त मोहम्मद खान ने बनवाया। और ये चौक में लाल पत्थरों की बनी सुंदर जामा मस्जिद जिसे कुदसिया बेगम ने बनवाया और जिसके बारे में सुल्तान जहाँ बेगम ने 'हयाते कुदसी' में लिखा है कि इसका निर्माण उस स्थान पर हुआ है जहाँ हिंदुओं का एक पुराना मंदिर था, जिसे सभा मंडल के नाम से जाना जाता था। शहर के बीचों बीच ये है मोती मस्जिद, जो संगमरमर और लाल पत्थरों से बनी है और जिसे सिकंदरजहाँ बेगम ने दिल्ली की मोती मस्जिद की तरह बनवाया था, और ये है एशिया की तीसरी बड़ी मस्जिद ताज उल मसाजिद जहाँ हर साल इज्तिमा लगता है और लाखों लोग इकट्ठे होते हैं। इसमें और ईदगाह वाली मस्जिद में भी महिलाओं के नमाज पढ़ने की व्यवस्था है...।'

दादा उसे कुछ मकबरों पर भी ले गए थे जो समय की मार के बावजूद अभी भी खड़े थे,

'ये है कमला पार्क के बीचों बीच स्थित फैज मोहम्मद खाँ का मकबरा। और ये है कुदसिया बेगम द्वारा बनवाया गया बड़ा बाग जिसमें कई नवाबों के मकबरे हैं और उसके सामने सफेद संगमरमर का ये सुंदर सा नवाब सिद्दीक हसन का मकबरा...'

करीब हफ्ते भर कार्तिक और उसके पिता भोपाल की इमारतों, मस्जिदों और गलियों में घूमते रहे। दादा उसे इमारतें भी दिखा रहे थे और कहानियाँ भी सुना रहे थे।

छोटे तालाब की मुंडेर पर खड़े होकर उन्होंने दीवान छोटे खान की कहानी सुनाई,

'कई लोग समझते हैं कि छोटे तालाब का नाम 'छोटा तालाब' इसलिए है क्योंकि वह बड़े तालाब से छोटा है। पर ऐसा है नहीं। इसका नाम छोटा तालाब इसलिए है क्योंकि इसके बाँध को छोटे खान ने बनवाया था। छोटे खान को माँजी मामोला ने ही बेटे की तरह पाला था। वह खुद जन्म से तो हिंदू था पर अपने तीन भाइयों के साथ उसने इस्लाम धर्म अपना लिया था। बड़ा भाई फौलाद खान पहले भोपाल का दीवान था। उसकी एक झगड़े में मौत होने के बाद छोटे खान दीवान बना। रियासत के दुश्मनों को हराने के साथ-साथ उसने पिंडारियों पर काबू पाया, सिंधिया परिवार की महिलाओं को बचाकर सिंधिया से दोस्ती की, लेखकों और कलाकारों को भोपाल में लाकर बसाया और कई निर्माण करवाए, जिनमें हमारा ये छोटा तालाब भी था। दीवान छोटे खान बड़ा प्रशासक था...।'

कार्तिक शहर से पहचान बढ़ाता जा रहा था और उसका मन शहर के प्रति अपनत्व से और आंतरिक वैभव से भरता जा रहा था...।

सपनों और कहानियों, इतिहास और इमारतों में विचरने वाले वे दिन कार्तिक के जीवन में दुबारा नहीं आ सके थे। दादा ने अपना 'ग्रेट भोपाल टूर' कमला पार्क पर समाप्त करते हुए कहा था,

'जहाँ पर हम खड़े हैं वह है कमलापति का महल और राजा भोज का बाँध। असल में राजा भोज ने तीन बाँध बनवाए थे। एक तो यही जिस पर हम खड़े हैं। दूसरा कलिया सोत नदी पर और तीसरा भोजपुर में बेतवा के ऊपर।'

फिर हँसते हुए जोड़ा था,

'ऐसा नहीं है कि तुम्हीं इंजीनियर बनने जा रहे हो। उस समय भी सिविल इंजीनियरिंग हुआ करती थी। तीनों बाँध आज तक खड़े हैं। कहते हैं कि राजा भोज को कोई भयंकर बीमारी थी जिसे दूर करने के लिए ऋषियों ने उन्हें साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में तीन सौ पैंसठ अलग-अलग स्रोतों के पानी से नहाने की सलाह दी थी। तब कलिया गोंड ने उन्हें नदियों के नीचे छिपे तीन सौ पैंसठ पानी के स्रोत दिखाए जिनसे पानी लेकर राजा भोज ठीक हो सके। फिर उन्होंने नदियों पर बाँध बनवाए। ये दोस्त मोहम्मद से छह सौ साल पहले की बात है। उनकी गर्मियों की राजधानी शायद भोजपुर के आसपास थी जहाँ से आज के भोपाल तक विशाल जलाशय था। कभी तुम्हें वहाँ भी ले चलूँगा।'

पर वह अवसर फिर आ नहीं सका था। कार्तिक एक बार फिर पढ़ाई में लग गया था जिसके बीच इस तरह की फुरसत निकालना मुश्किल था। पढ़ाई खत्म होते-होते अचानक दादा को हैमरेज हुआ था और वे चिंता भरी निगाहों से कार्तिक को देखते हुए अचानक चले गए थे।

आज कार्तिक अपने आपको फिर उसी खालीपन से घिरा पा रहा था। जिसे भरने के लिए दादा की याद अचानक इस तरह से चली आई थी। और उसी के साथ याद आई थी उनकी वह बात,

'कभी-कभी खुद को पहचानने के लिए खुद से दूर जाना जरूरी होता है। दूरी हासिल करने पर चीजें साफ-साफ दिखती हैं।'

उसने अचानक नीति से कहा,

'नीति हम लोग कुछ दिनों के लिए शहर से थोड़ा दूर चलें? कुछ दिन अकेले अपने आप में रहेंगे तो शायद नया कुछ सोच पाएँ, नई ऊर्जा महसूस करें।'

नीति ने बहुत उत्साह से इस प्रस्ताव का स्वागत किया था।

'कहाँ?'

उसने पूछा था। कार्तिक ने कहा था,

'साँची चलते हैं। शांत और सुंदर है। नीचे एक बिढ़या गेस्ट हाउस भी है।'

फिर तय हुआ था कि वे अगले कुछ दिन साँची में गुजारेंगे।

कार्तिक साँची पहले भी कई बार गया था। अगर आप कार्तिक के शहर से दिल्ली की ओर जाएँ तो करीब चालीस किलोमीटर बाद विदिशा से कुछ पहले, सुरम्य पहाड़ियों पर, पलाश, खिरनी और शरीफे के पेड़ों के बीच खड़े तीन स्तूप दिखाई देंगे। कार्तिक अपने स्कूल और कॉलेज के जमाने में, दोस्तों के साथ, कई बार वहाँ गया था, पिकनिक मनाने। वे लोग सुबह की गाड़ी से वहाँ पहुँचते, दिनभर पहाड़ियों पर रिमझिम बारिश या गुनगुनी ठंडक का आनंद लेते, खाना खाते, धमाचौकड़ी मचाते और शाम की गाड़ी से वापस चले आते। स्तूपों में उनकी कोई खास रुचि नहीं थी।

पर इस बार बात अलग थी। शादी के बाद कार्तिक पहली बार साँची जा रहा था, एक खोजी और जिज्ञासु युवक की तरह। अपने नए-नए प्राप्त इतिहास के ज्ञान से सन्नद्ध। नीति उसके कंधे से लगी हुई थी और उसकी पीठ पर वही खुशनुमा दबाव था। दोनों ओर पहाड़ियाँ थीं जो नई नई बारिश से जीवन पाकर हरियाली से ढकी हुई थीं। बादल घिर आए थे और कभी भी बरस सकते थे। सर सर हवा के बीच कार्तिक का स्कूटर उड़ा चला जा रहा था।

साँची, यानी पहाड़ी की तलहटी में बसा एक छोटा सा गाँव। एक बहुत अच्छा विश्रामालय, फूलों से घिरा सुंदर रेस्त्राँ। प्राचीन स्मारकों को संग्रहित रखने के लिए एक म्यूजियम और पहाड़ी पर ऊपर जाने के लिए गोल घूमता खूबसूरत रास्ता।

कार्तिक ने स्कूटर नीचे ही छोड़ दिया। वहीं बने काउंटर से साँची पर लिखी किताब खरीदी और नीति के साथ पहाड़ी का रुख किया।

'ऊपर जाने के दो रास्ते हैं। एक नया वाला जिस पर घूमकर गाड़ियाँ ऊपर जा सकती हैं और दूसरा, ये पुराना वाला। किस पर चलोगी?'

'इसी पुराने वाले से।'

पुराना रास्ता ललछौहें पत्थरों का था जो समय के प्रहार से बहुत कट पिट चुका था। उसके दोनों ओर से खिरनी और शरीफों के पेड़ जैसे झुककर उनकी अगवानी कर रहे थे। वे धीरे-धीरे, रुक रुक कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। जैसे-जैसे वे ऊपर चढ़ते जाते, कार्तिक के मन में इतिहास की पंगडंडियाँ खुलती जातीं।

इसी पुराने रास्ते से चलकर सम्राट अशोक अपने परिजनों, सेवकों और पीत चँवरधारी भिक्षुओं के साथ दूर तक फैली इस पहाड़ी के ऊपर पहुँचे होंगे। इसी पहाड़ी पर उन्होंने स्तूप की रचना करा कर उसमें भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र और महार्मौल्यायन की अस्थियों की स्थापना की होगी। इसी रास्ते पर चलकर अशोक के सबसे बड़े पुत्र महेंद्र अपनी माँ से मिलने आए होंगे, जो स्तूप की रोज पूजा करने के लिए इस पहाड़ी के एक विहार में ही रहने लगी थीं। इसी प्राचीन मार्ग से वे परम प्रतापी सातवाहन नरेश भी आए होंगे जिन्होंने महास्तूप के चारों ओर तोरण द्वार खड़े कराए थे, और वे महान पराक्रमी सम्राट चंद्रगुप्त भी, जिन्होंने ध्रुव स्वामिनी का उद्धार किया था। उसने अपने शरीर में अद्भुत रोमांच का अनुभव किया।

वे दोनों सीढ़ियों के ऊपर निकल आए। कुछ रुककर उन्होंने पीछे मुड़कर, नीचे एक विहंगम दृष्टि डाली। नीचे पूरी पहाड़ी पर खिरनी, शरीफे, ढाक और तरह तरह के पेड़ बारिश में घुलकर अद्भुत चमक के साथ लहलहा रहे थे। बादल छँट चुके थे और सूरज निकल आया था। ललछौहें पत्थर एक जगमग निखार के साथ दमक रहे थे। प्रवेश द्वार के पास पीपल का हरा भरा पेड़ था और सामने था महास्तूप।

नीति ने पीपल के नीचे चबूतरे पर बैठते हुए कहा,

'कितना सुंदर है। आओ कुछ देर यहाँ बैठते हैं।'

वे काफी देर हाथ में हाथ डाले वहाँ बैठे रहे थे। अचानक कार्तिक को लगा था कि वह अपने पिता की तरह हो गया है और नीति खुद उसकी तरह। इस बीच वह खुद काफी कुछ पढ़ और जान चुका था। उसकी इच्छा हुई कि वह सब कुछ नीति के साथ शेयर कर डाले। उसने कहा,

'कितनी दिलचस्प बात है कि साँची हालाँकि बौद्ध धर्म का प्रमुख स्थान है पर महात्मा बुद्ध खुद यहाँ कभी नहीं आए। वे कपिलवस्तु, राजगृह, श्रावस्ती और वैशाली तो गए थे पर विदिशा या साँची कभी नहीं आए। ये उनके शिष्यों सारिपुत्र और महार्मौल्यायन का स्थान है।'

'सुना है बर्मा, श्रीलंका, चीन, नेपाल, थाईलैंड और पूरी दुनिया से लोग यहाँ आते हैं?'

'हाँ, शांति और ज्ञान की तलाश में, जैसे हम आए हैं।'

वे दोनों बहुत देर तक वहाँ बैठे बैठे साँची की सुंदरता को निहारते रहे, जैसे स्तूप ने उन्हें सम्मोहित कर लिया था।

फिर उन्होंने करीब तेइस सौ साल पुराने उस तिलस्म में प्रवेश किया। उसे ईसापूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर, तेरहवीं शताब्दी तक के करीब पंद्रह सोलह सौ वर्षों में रचा गया था। करीब पचास से अधिक स्मारक-स्तूप, पुराने मंदिर, विहारों के ध्वंसावशेष और जाने कितनी वास्तुकृतियाँ। गुप्त काल का एक छोटा सा मंदिर और एक अन्य मंदिर के सिर्फ खंभे।

वे लोग काफी देर तक महास्तूप के आसपास घूमते रहे। नीति को स्तूप के होने का कारण समझ नहीं आ रहा था क्योंकि न तो वहाँ कोई मूर्ति थी, न ही कोई पूजा का पारंपरिक स्थान। उसने पूछा,

'कार्तिक स्तूप को देखकर श्रद्धा तो उपजती है। पर ये बनाए क्यों जाते थे? इनका अर्थ क्या है?'

कार्तिक अब पूरी तरह अपने पिता की मुद्रा में आ चुका था। उसने कहना शुरू किया,

'पूर्वजों के प्रति आदर की भावना ने ही स्तूपों को जन्म दिया। इनमें किसी महत्वपूर्ण या पूज्य व्यक्ति की अस्थियों को सुरक्षित रखा जाता था। पहले ये मिट्टी या कच्ची ईटों के बनाए जाते थे। नगर के चौराहों पर या श्मशानों में स्तूपों की रचना की जाती थी। उनमें महापुरुषों के केश, नख या अस्थियाँ एक पिटारी में रखी जाती थीं।'

'फिर सम्राट अशोक ने इनमें इतनी रुचि क्यों ली?'

'अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए स्तूप को स्थायी स्मारक के रूप में अपनाया। कहते हैं कि उसने आठ मूल स्तूपों को तुड़वाकर अस्सी हजार स्तूप बनवाए। स्तूप उलटे कटोरे के रूप में आकाश या ब्रह्मांड का प्रतीक था और उसके ऊपर की हर्मिका देवलोक की।'

'यदि पूर्वजों की स्मृति ही मूल बात थी तो स्तूप तो धर्मनिरपेक्ष प्रतीक हुआ? यानी अन्य धर्मों के लोग भी इस प्रतीक को अपना सकते थे?'

'क्यों नहीं? जैनियों के भी सुंदर और भव्य स्तूप बने हैं। मथुरा में प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का जैन स्तूप है। लद्दाख में आज भी प्रतिष्ठित व्यक्ति या घर के मुखिया के लिए गाँव में छोटे छोटे स्तूप बनाए जाते हैं।'

'इसी तरह के? ऐसे ही गोल?'

'नहीं, पहले स्तूप गोल तथा चौकोर दोनों तरह के बनाए जाते थे। आज भी भारत, नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, चीन, जापान और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में अलग अलग प्रकार के स्तूप दिखाई देते हैं। साँची और अमरावती के स्तूप ऐसे लगते हैं मानों किसी ने गोल कटोरा औंधा कर रख दिया हो। नेपाल के स्वयंभूनाथ और बोधनाथ के चैत्यों में लंबी हर्मिका है। श्रीलंका का धूपाराम का स्तूप घंटे की आकृति का है, और जावा का बोरोबुदूर का स्तूप उस कमल की तरह का है जिसका पद्म कोष ऊपर की ओर उठा हो। नेपाल के सबसे पुराने स्तूप जिन्हें सम्राट अशोक की पुत्री चारुमति का बनवाया माना जाता है, साँची जैसे ही अर्धगोलाकार हैं। सारनाथ का धमेख स्तूप कुछ कुछ लंबोतरा है। बर्मा के नुकीले शिखर वाले पैगोडा, स्तूप का ही बदला रूप हैं।'

'वाह भई कार्तिक सर, मान गए आपको।'

'अभी से? अभी तो मैं तुम्हें पूरी साँची घुमाने वाला हूँ!'

अब वे दोनों घूमते घूमते महास्तूप के तोरण द्वारों तक आ पहुँचे थे। तोरण द्वार के सामने की बेंच पर वे बैठ गए। दोपहर ढलने लगी थी। स्तूप के आस पास सैलानी, स्कूल के बच्चे और उनके शिक्षक एक अजीब उत्साह से भरे घूम रहे थे। कार्तिक को अपने स्कूल के त्रिवेदी सर की बात याद आई - जब तक तुम चीजों के प्रति उत्साह या जिज्ञासा से भरे रहोगे, तुम नया सीख रहे होगे। क्या वह और नीति ऐसा ही नहीं कर रहे थे? और क्या इसीलिए वे खुश नहीं थे?

नीति ने सर उसके कंधे पर टिका लिया था और आँखें मूँद ली थीं। दोनों ने एक अजीब शांति का अनुभव किया।

नीति ने अपने बैग में से कुछ नाश्ते का सामान और पानी की बोतल निकाली। कार्तिक का ध्यान नीचे से खरीदी अपनी किताब पर गया।

उसने पढ़ना शुरू किया,

'अक्सर लोग सम्राटों और साम्राज्यों के सपने और उनके इतिहास में फँस जाते हैं जबकि जानना ये चाहिए कि लोगों के सपने क्या थे? और अगर लोगों, उनकी जीवन शैली, उनकी कला के बारे में जानना है तो हमें स्तूपों के साथ साथ तोरण द्वारों तथा स्तूप को घेरने वाली वेदिका को भी देखना होगा।

पुराने समय में चैत्य, स्तूप या पवित्र स्थान को सुरक्षा की दृष्टि से लकड़ी या बाँस की एक बाड़ से घेर दिया जाता था। मौर्यकाल में लकड़ी का स्थान पत्थर ने ले लिया, तब स्तूपों को पत्थर की वेदिका से घेर दिया जाने लगा। लेकिन उनके रूप या डिजाइन में कोई अंतर नहीं आया। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है पत्थर पर काम कर सकने वाले कारीगर भी थे और उस काम को कर सकने वाले उपकरण भी।

पूरे स्तूप कांप्लेक्स में कहीं भी बुद्ध की मूर्ति नहीं है। क्योंकि बुद्ध बड़े विचारक और समाज सुधारक थे। उनका भिक्षुओं के लिए आदेश था कि मूर्ति न बनाएँ। संघ ने तो यहाँ तक कहा था कि विहारों और चैत्यों पर मनुष्य की आकृतियाँ न बनाई जाएँ, क्योंकि इससे भिक्षु और भिक्षुणियों के मन में स्त्री पुरुषों के रूप सौंदर्य के प्रति राग और आसक्ति बढ़ती है। केवल फूलों और बेलों को चित्रित किया जा सकता था। पर कलाकार कहाँ मानने वाले थे? उन्होंने तोरण द्वार बना डाले और उन्हें चित्रित कर दिया।'

कार्तिक ने नीति से कहा - आओ, इन तोरण द्वारों को देखते हैं। अब वे ब्राह्मण राजाओं आंध्र सातवाहन द्वारा स्तूप के चारों ओर खड़े किए गए तोरणों के सामने खड़े थे। आंध्र लोग सातवाहन ब्राह्मण थे, वैसे ही जैसे साँची और भरहुत का विस्तार करने वाले शुंग भी ब्राह्मण थे, या जैन धर्म को प्रश्रय देने वाले राजा भोज भी शैव ब्राह्मण थे।

कार्तिक ने तोरणों के बारे में पढ़ना शुरू किया,

'ये तोरण करीब सात आठ सौ साल तक उपेक्षा के शिकार रहे। फिर जब साँची को दोबारा खोजा गया तो उत्तरी तोरण द्वार को खरीदने के लिए फ्रांस के राजा ने दो करोड़ रुपयों का सौदा कर लिया। सौदा पक्का हो गया था पर लॉर्ड कर्जन ने इसके बाहर जाने पर रोक लगा दी। तोरणों के स्तंभों पर तरह तरह के चित्र उकेरे गए हैं। ये चित्र उस समय के जीवन, वेशभूषा, विश्वासों और संघर्षों की कथाएँ कहते हैं। कुछ चित्र तो पूरी पूरी जातक कथाएँ है, जो भगवान बुद्ध के पूर्व जीवन की कथाएँ मानी गई हैं। इनका नायक बोधिसत्व है। बोधिसत्व वह है जिसके मन में दान, दया और करुणा जैसे गुणों ने बसेरा कर लिया है और दूसरों के लिए अपने प्राण देने में पल भर भी नहीं हिचकता। इन बोधिसत्वों में हिरन भी हैं और वानर भी, हंस हैं, हाथी हैं और विषधर नाग भी है, जिन्होंने अपना स्वभाव त्याग दिया है। मनुष्य भी हैं, सभी जातियों और वर्गों के मनुष्य। साँची में पाँच तरह की जातक कथाएँ चित्रित की गई हैं। ये हैं महावैसंत्तर जातक, महाकवि जातक, श्याम जातक, छदंत जातक और अलंबुष जातक।'

कार्तिक और नीति तोरणों के पास जाकर उन पर चित्रित कहानियाँ देखने लगे। वहाँ था एक पूरा का पूरा संसार। राजा और रानियों की कथाएँ, पशुओं और पक्षियों का चित्रण, यक्षों और यक्षिणियों की मुद्राएँ, सामंतों, सेवकों और वादकों की वेशभूषा, शोभा यात्राएँ, बुद्ध के धर्मोपदेश, वनविहार और जलक्रीड़ाएँ, यथार्थ जीवन और अलौकिक घटनाएँ, गहने, कपड़े और पगिड़याँ, हाथी और सिंह, गाँव के स्त्री पुरुष, देवता और बुद्ध का कपिलवस्तु त्याग, विदूषक कुंभांड, बुद्ध को विचलित करने आए मार की सेना की पराजय, नागों का वन विहार, बुद्ध देव का गंगा नदी पार करना, जल क्रीड़ा करते मनुष्य - एक पूरा संसार वहाँ जीवंत हो उठा था।

कार्तिक ने पत्थरों पर खुदी एक जातक कथा को पहचान लिया। नीति से कहा - ये तो श्याम जातक लगता है। इसके बारे में पढ़कर देखते हैं :

'प्रत्येक जातक कथा में एक शिक्षा या उपदेश है, जो मनुष्य को पवित्र जीवन की ओर ले जाना चाहता है। श्याम जातक में भी यही है। इसमें शिल्पी ने वन के तपस्वियों के जीवन की एक झलक दिखाई है। श्याम वन में एक कुटिया में रहकर अपने बूढ़े माता पिता की सेवा करता है। एक दिन वह पास की नदी में पानी भरने के लिए जाता है। उसी समय वाराणसी का राजा भी वहाँ शिकार खेलने आता है। श्याम के घड़ा भरने से जो आवाजें आती हैं उससे राजा को लगता है कि नदी में मगरमच्छ है और वह बाण छोड़ देता है। बाण जल भरते हुए श्याम को जा लगता है। वह चीख मार कर गिर जाता है। राजा मनुष्य की चीख सुनकर पास जाता है और देखता है कि तीर हाथ से निकल चुका है और श्याम अपने जीवन की आखिरी सांसें गिन रहा है। उसके बूढ़े माता पिता का विलाप मन को हिलाए दे रहा है। राजा भी दुखी होता है। उनके दुख से दुखी होकर इंद्र - जो भगवान बुद्ध का अनुचर है, उनके आगे आकर खड़ा हो जाता है, और श्याम को नया जीवन देता है।

भारतीय साहित्य में इंद्र के कई रूप हैं। वैदिक इंद्र युद्ध का देवता है। पुराणों का इंद्र विलासी है, वह किसी को तपस्या करते हुए देखता है तो उसके तप को डिगाने के लिए अप्सराओं को भेजता है। बौद्ध साहित्य का इंद्र बुद्ध का अनुचर है। वह उनके पास सलाह लेने आता है, उनसे प्रश्न पूछता है, वह श्रद्धावान और चरित्रवान लोगों की रक्षा करता है। इस तरह शताब्दियाँ गुजरती जाती हैं और अपनी अपनी मानसिकता के अनुसार लोग देवताओं की रचना करते जाते हैं।'

कार्तिक और नीति के मन में जैसे एक प्रकाश सा फैल रहा था। वे न जाने कितनी देर उस अद्भुत और विशाल प्रांगण में घूमते रहे। वहाँ हर स्तूप, हर स्तंभ और हर मंदिर एक कहानी था। सबका एक इतिहास था जिसकी प्रतिच्छाया वर्तमान में ढूँढ़ी जा सकती थी।

विहारों के ध्वंसावशेषों में घूमने के बाद, विशाल चहारदीवारी पर चलते हुए वे हिंदू मंदिरों तक पहुँचे और लौट कर स्तूप तक आए। वे खंडहर और ध्वंसावशेष जैसे सीधे धरती के गर्भ से निकले थे। उनमें एक ऐसा पुरानापन था जो आपको अपने समय में खींच ले जाता था और आपके मन को ऐसी अपूर्व शांति और उजास से भर देता था जिसकी तलाश में ही शायद दुनिया भर के लोग वहाँ आते थे।

दोपहर ढल चुकी थी और बादल एक बार फिर घिर आने की मुद्रा में थे। महास्तूप की दाहिनी ओर से एक रास्ता नीचे छोटे स्तूप और विहारों की तरफ जाता था। अब कार्तिक और नीति ने वही रास्ता पकड़ा।

विहार से होकर जाती सीढ़ियाँ थीं जो नीचे की ओर ले जाती थीं। वहाँ दो छोटे छोटे स्तूप थे, उनसे लगी एक झील और पेड़ों से आच्छादित वन। अक्सर लोग वहाँ तक नहीं जाते थे इसलिए वहाँ और भी गहरी शांति थी। कार्तिक नीति के साथ सीढ़ियों पर बहुत देर तक चुपचाप बैठा रहा। नीति ने उसके कंधों से सिर टिका लिया था। कार्तिक की बांहें उसे घेरे हुए थीं। समय जैसे रुका हुआ था। क्या यही प्योर ब्लिस था? यही इलहाम था?

झील के आसपास पक्षी हलचल कर रहे थे। वन में गहरी चुप्पी छाई थी जो पेड़ों की सरसर से और गहरे महसूस की जा सकती थी। कुछ बंदर भी थे जो इधर उधर छलाँग लगाते हुए अपनी उपस्थिति का एहसास करा रहे थे।

अचानक हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई। कार्तिक और नीति ने वापस ऊपर चढ़ने का उपक्रम किया। ऊपर चढ़ते समय कार्तिक ने देखा कि सीढ़ियों वाले रास्ते के दोनों ओर कुछ छोटी छोटी पंगडंडियाँ थीं जो जंगल में जाकर गुम हो जाती थीं। कार्तिक ने नीति का हाथ पकड़ कहा,

'आओ, जरा लीक से हटकर चलते हैं।'

पगडंडी के दोनों ओर के वृक्ष उन्हें छू छू कर लहरा रहे थे। बूँदें कभी उनके चेहरों पर, कभी पीठ पर, कभी बाँहों पर गिरकर उन्हें भिगोए जा रही थीं। अचानक कार्तिक ने नीति को एक पेड़ों के झुरमुट के पीछे चट्टान पर खींच लिया। उसने कहा,

'यहाँ बैठें थोड़ी देर!'

चट्टान पर पेड़ों की शाखाएँ झुकी हुई थीं। कार्तिक ने नीति का चेहरा अपने हाथों में ले लिया और उसकी आँखों और ओंठों पर गहरा चुंबन लिया। नीति ने सिमट कर उसके सीने में मुँह छुपा लिया। कार्तिक को अचानक याद आया - जाने कितने दिन हो गए थे उन्हें प्यार किए हुए। उसने नीति को अपने आलिंगन में ले लिया और उसके शरीर की ऊष्मा को महसूसना शुरू कर दिया। नीति ने उसका इरादा भाँपते हुए कहा,

'यहाँ?'

'क्यों नहीं? पेड़ों की ओट है, चट्टान का सहारा है और खुशनुमा मौसम है। बिल्कुल 'सम्यक' होगा'

'किसी ने देख लिया तो?'

'कोई नहीं देख रहा।'

'कोई आ गया तो?'

'इस वक्त कौन आएगा?'

नीति अवश सी उसके ऊपर झुक आई। उसने आँखें मूँद ली थीं।

बारिश थोड़ी बढ़ गई थी। बूँदें टप टप, टप टप उनके शरीरों को भिगो रही थीं। पेड़ झुक झुक कर उन्हें छुपा रहे थे। ऊपर आकाश में बादल जैसे उनका अभिवादन करने के लिए झुके चले आ रहे थे। तब उन्होंने उस खुली चट्टान पर प्रेम किया। वह शायद उनके जीवन के सबसे स्मरणीय क्षणों में से था।

पहाड़ी पर से नीचे आते समय कार्तिक ने अपने आपको बहुत हल्का महसूस किया। उसके दिलो दिमाग पर एक अपूर्व शांति छाई थी और एक ऐसा प्लैजेंट सा खालीपन उसके मन में था जहाँ से सोच की नई शुरुआत की जा सकती थी। उसकी इस खुशी में नीति भी शामिल थी।

सीढ़ियों वाले रास्ते से मुख्य सड़क पर आने पर नीति ने कहा।

'मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है।'

कार्तिक ने जवाब दिया,

'चलो रेस्त्राँ में बैठते हैं।'

रेस्त्राँ एक बाग के बीचों बीच स्थित था। सुंदर फूलों की क्यारियों, लॉन और अशोक तथा गुलमोहर के वृक्षों से घिरा हुआ। बाउंड्री पर अलग अलग रंगों की बेलें चढ़ी थीं और लाल, गुलाबी, पीले तथा मैजेंटा रंग के फूल उसे एक शानदार खूबसूरती से भरे दे रहे थे।

रेस्त्राँ की काँच की दीवारों के भीतर एक सुखद गरमाहट थी। बाहर बारिश बढ़ गई थी। कार्तिक ने लॉन से सटी हुई खिड़की के पास वाली टेबल पर बैठते हुए कहा,

'कॉफी और गरमागरम पकौड़े। और जब तक मना नहीं करें, रोकना मत!'

फिर वह नीति से मुखातिब हुआ,

'कैसा लगा आज का दिन?'

'अद्भुत था। पूरे स्थान पर कैसी पुरसुकून शांति छाई है। आज भी यहाँ आकर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।'

कार्तिक ने हँसते हुए कहा,

'विशेष कर जब कोई ज्ञानी पुरुष आपके साथ हो।'

'क्यों नहीं, क्यों नहीं ज्ञानी जी। वैसे आप सिर्फ ज्ञानी ही नहीं हैं।'

वह चट्टान वाले अनुभव की ओर इशारा कर रही थी। कार्तिक ने कहा,

'उसमें भी ज्ञान लगता है। प्रेम सिर्फ शरीर से ही नहीं होता, दिमाग से भी होता है।'

'सच आज तुमने कितने दिनों के बाद मुझसे इस तरह प्रेम किया है।'

'मुझे लगता है कि शुरू शुरू में शरीर डॉमिनेट करता है, पर धीरे धीरे मन का रोल बढ़ता जाता है। कम से कम मैं अगर सही मानसिक स्थिति में न रहूँ तो प्रेम नहीं कर सकता।'

'तो तुम सही मानसिक स्थिति में ही रहा करो।'

'अच्छा, सच बताओ कैसा था?'

'अच्छा, बहुत अच्छा, शानदार!'

वेटर आकर कॉफी और पकौड़े रख गया। नीति ने कहा,

'कार्तिक मेरा मन तो घर वापस लौटने को नहीं कर रहा।'

'तो रुक जाते हैं।'

'कहाँ?'

'यहीं। मेरा ख्याल है रेस्त्राँ के पीछे एक दो कमरे भी हैं। मैं रेस्त्राँ मैनेजर से बात करके देखता हूँ।'

उन्हें एक कमरा मिल गया, रातभर के लिए।

साफ सुथरा, वैसा ही फूलों से घिरा। शाम को बारिश रुकने के बाद वे लंबी दूरी तक घूमने गए थे। फिर रात में बातें करते हुए बहुत देर तक जागते रहे थे। बातें अपने सपनों के बारे में, अपने गम और खुशी के बारे में, अपने भविष्य के बारे में। उस दिन उन्होंने एक ऐसी लंबी रात गुजारी थी, जिसमें नींद भी होती है, ख्वाब भी होते हैं और होता है प्रेम।

सुबह बारिश से धुली सड़क पर जब कार्तिक के स्कूटर ने घर की राह पकड़ी तो एक विचार कार्तिक के मन में आसमान की तरह साफ था -

'मैं एक स्वप्न की तलाश में घर से निकला था। इतिहास को अब तक जितना समझ पाया हूँ उससे साफ है कि सपने हर युग के अपने होते हैं, कि सम्राटों के सपने और लोगों के सपने अलग अलग होते हैं, कि इन सपनों का द्वंद्व कला में, संस्कृति में, साहित्य में खोजा जा सकता है और हमारा सपना हमारी इसी समझ से बनेगा और जब वह बन जाएगा तो हमें काम करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। उसकी जड़ें इतिहास में होंगी लेकिन उसकी उड़ान होगी हमारे आज के समय में जहाँ नया शहर था, नई संस्थाएँ थीं, नई बसाहटें थीं, नए उद्योग धंधे थे और था एक नया स्वप्न...'

आज 'विंड एंड वेव्स' में चुपचाप बैठे कार्तिक के दिमाग में पूरा घटनाचक्र एक फिल्म की तरह गुजर गया। इतिहास की अपनी यात्रा से वह लौट भी नहीं पाया था कि केदार का पत्र उसे मिला था दिल्ली आने के लिए जहाँ एक नए संघर्ष से उसका परिचय हुआ था। बदलाव के लिए जारी एक बड़े संघर्ष से, जिसमें केदार भी जाने अनजाने शामिल हो गया था और जिसकी पवित्रता तथा आन की रक्षा करते हुए वह मारा गया था। केदार के संघर्ष ने उसे सिखाया था कि इतिहास सतत प्रवाहमान है और आज भी वह बन रहा है आगे कभी लिखे जाने के लिए। आज भी अच्छे और बुरे में, मनुष्य की बेहतरी के लिए संघर्ष चल रहा है और उसमें तटस्थ नहीं रहा जा सकता। तो क्या कार्तिक तटस्थ रह सकता था? क्या इतिहास की मीनार से उतरकर अब उसे जमीनी लड़ाई में हिस्सा लेने जमीन पर नहीं आ जाना चाहिए था? क्या उसका भी एक पक्ष नहीं होना चाहिए था?

सामने शहर की बत्तियाँ जल रही थीं जगमग जगमग। अचानक उसे लगा सब कुछ कितना आसान तो था। एक निश्चय के साथ उसने कॉफी का कप टेबल पर रखा। नीति ने पूछा।

'तो क्या सोचा?'

कार्तिक ने दृढ़ता से जवाब दिया।

'नहीं नीति। मैं प्रशासनिक सेवा में नहीं जा रहा हूँ।'

'क्यों?'

'मैंने अपना पक्ष चुन लिया है।'

नीति ने कुछ नहीं कहा। उसने कार्तिक के दोनों हाथों को अपने हाथ में लिया और हल्के से थपथपाया। उसके इस स्पर्श में साथ की ऊष्मा थी, कार्तिक के निर्णय से मौन सहमति थी और थी दूर तक चलने की आश्वस्ति।

वे उठे। कार्तिक ने नीति की कमर में अपनी बाँहों का घेरा डाल दिया। वे पहाड़ी ढलान से धीरे-धीरे उतर रहे थे। उनके चेहरे पर एक निष्कर्ष तक पहुँचने का संतोष था और दिल में थी साथ साथ चलने की खुशी।

उन्हें क्या पता था कि कुछ ही दिनों में उनका ये खूबसूरत शहर उन्हें कुछ और रंग दिखाएगा?


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