कुछ दिनों बाद ही कॉमरेड मोहन ने कार्तिक को बुलाया था और उसे नोटिस दे दिया
गया था।
नोटिस पाने के बाद करीब महीने भर तक कार्तिक घर में ही रहा था और लिखता रहा
था। एक दो बार पार्टी ऑफिस से संदेश भी आया था कि कॉमरेड मोहन मिलना चाहते हैं
पर उसने कहलवा दिया था कि अभी व्यस्त है, कुछ दिनों बाद खुद आकर मिल लेगा।
फिर अचानक एक दिन सुदीप घर ही आ गया। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने
कार्तिक को देखते ही कहा,
'कॉमरेड आपको ऑफिस बुलाया है।'
'बुलाया है तो ठीक है। मैं आ जाऊँगा। पर तुम्हारे चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़
रही हैं।'
'कॉमरेड आपसे नोटिस के बारे में पूछताछ होने वाली है।'
'अब पूछताछ की क्या बात है? उन्होंने नोटिस दिया है, मैं लिखित जवाब दे
दूँगा।'
'नहीं नहीं वो बात नहीं है। उन्हें शक हो गया है कि आपको नोटिस के बारे में
पहले से ही जानकारी थी। और उस रिपोर्ट के बारे में भी, जो नताशा ने आपको दी।
वे जानना चाहते हैं कि रिपोर्ट और नोटिस के बारे में किसने आपको बताया।'
'तो ये बात है? मैं तो किसी से जानकारी लेने गया नहीं था। अगर वह मेरे हाथ में
आ ही गई तो इसमें मेरा क्या दोष? उन्हें अपना ऑफिस ठीक करना चाहिए।'
'यही तो समस्या है कॉमरेड। अगर आपने बता दिया कि आपको नताशा से और नताशा को
मुझसे जानकारी प्राप्त हुई थी, तो सबसे पहले तो मैं मारा जाऊँगा।'
'अच्छा एक बात बताओ। मैं तो तुमसे कुछ कहने गया नहीं था। फिर वह रिपोर्ट तुमने
नताशा को क्यों दी?'
'कॉमरेड मुझे लगता है कि आपके साथ अन्याय हो रहा है। उसी तरह जैसे कि मेरे
साथ। मुझे ये कहकर लाया गया था कि मेरे और मेरी पत्नी के लिए कुछ रोजगार का
प्रबंध हो जाएगा। पर अब मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया गया है। आप ही बताइए हजार
डेढ़ हजार रुपये में कैसे अपना घर चलाऊँ, कैसे पत्नी और बच्चे का पेट पालूँ और
कैसे पार्टी का काम देखूँ। ऊपर से जिस तरह का व्यवहार होता है उसे मैं बिल्कुल
सहन नहीं कर पाता। मुझे लगता है कि आपके साथ भी उनका व्यवहार ठीक नहीं है।
जैसे भी हो सके मुझे आपकी मदद करनी चाहिए...'
कार्तिक ने हँसते हुए कहा था,
'ठीक है पर मुझे इस तरह की रिपोर्ट्स से डर नहीं लगता। और तुम्हारी इस तरह की
मदद से उन्हें बनने से रोका भी नहीं जा सकता। तुम अपना काम अच्छी तरह करो और
मेरी चिंता मत करो।'
'पर कॉमरेड आप मेरा नाम मत ले देना। मैं पहले ही बहुत परेशान हूँ। इससे मैं
पूरी तरह अविश्वसनीय हो जाऊँगा। कॉमरेड रमेश तो मुझे पीट भी सकते हैं...।'
कहते कहते सुदीप की आँखों में आँसू आ गए। कार्तिक ने कहा,
'तुम चिंता मत करो। पूछताछ का जवाब मुझे देना है।'
कार्तिक जब शाम को पार्टी ऑफिस पहुँचा तो कॉमरेड मोहन अपने कमरे में ही बैठे
थे। उनके साथ सचिव मंडल के एक वरिष्ठ सदस्य और जिला समिति के सचिव भी थे।
सुदीप दूसरे कमरे में सहमा हुआ कंप्यूटर के सामने बैठा था।
कॉमरेड मोहन ने कहा,
'आइए बैठिए। क्या हो रहा है आजकल?'
'यूँ ही कुछ लिख रहा था। बताएँ कैसे याद किया?'
अब सचिव मंडल के साथी ने पूछा,
'कॉमरेड पार्टी ने आपको एक नोटिस दिया है। सचिव मंडल को खबर लगी है कि इसकी
आपको पहले से ही जानकारी थी कि आपको नोटिस दिया जाने वाला है।'
'अगर बात इस बात पर हो कि जो कुछ नोटिस में लिखा है वह सत्य है या नहीं तो
मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा।'
'आपको जानकारी थी या नहीं थी?'
'नहीं थी।'
'और पार्टी ऑफिस ने राजपुर के साक्षरता आंदोलन के बारे में एक रिपोर्ट भी बनाई
थी। मालूम पड़ा है कि उस रिपोर्ट के बारे में भी आपको जानकारी थी?'
'आपकी सूचना का स्रोत क्या है?'
अब कॉमरेड मोहन ने कहा,
'उस दिन की बैठक में स्वयं रामनारायण ने कहा था कि उसे मालूम था कि नोटिस देने
जैसी कार्यवाही होगी। उसे कैसे मालूम पड़ा?'
'ये आपको रामनारायण से पूछना पड़ेगा।'
'देखिए कार्तिक जी, इस तरह बातचीत करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। अनुमान है
कि रामनारायण आपके निकट हैं और उन्हें आपने ही बताया है। आप ये बताइए रिपोर्ट
के बारे में आपको मालूम था या नहीं?'
'पार्टी को मेरी क्षमताओं पर कुछ ज्यादा ही विश्वास है।'
'इसीलिए तो आपसे पूछताछ की जा रही है।'
अब कार्तिक ने अप्रत्याशित रूप से धमाका करते हुए कहा,
'मुझे रिपोर्ट के बारे में मालूम था।'
उसने पहली बार कॉमरेड मोहन को चौंकते हुए देखा। उन्होंने अपनी दोनों कोहनियाँ
टेबल पर टिका लीं और चेहरा हथेलियों के बीच फँसाते हुए पूछा,
'कैसे?'
सचिव मंडल के साथी और जिला सचिव भी उत्सुकतावश आगे खिसक आए। अब कार्तिक ने
कहा,
'मैं टी.आर.सी. से मिलने दिल्ली गया था। मैंने रिपोर्ट वहीं देखी थी।'
'ये असंभव है। रिपोर्ट पूरी तरह गोपनीय थी और बंद लिफाफे में भेजी गई थी।'
'मतलब भेजी गई थी?'
'प्रश्न ये नहीं है। प्रश्न ये है कि आपको उसके अस्तित्व के बारे में कैसे
मालूम पड़ा?'
'इस तरह से तो आप रिपोर्ट की सत्यता-असत्यता, औचित्य-अनौचित्य के सवाल को पूरी
तरह दरकिनार कर रहे हैं। मेरा सवाल है कि रिपोर्ट अगर थी, तो किसने बनाई, किस
आधार पर बनाई और उसका लक्ष्य क्या था। और अगर मैं उसमें शामिल था तो मुझसे
मेरा पक्ष क्यों नहीं पूछा गया?'
'फिलहाल प्रश्न ये है कि आपको रिपोर्ट के बारे में कैसे मालूम पड़ा?'
'ठीक है। अगर आप जानना ही चाहते हैं तो सुनिए। मैं टी.आर.सी. से मिलने गया था
और उनके सामने बैठा था। उसी समय आपका लिफाफा पहुँचा। उन्होंने अनजाने में उसे
खोला और कुछ देर तक उसे पढ़ते रहे। उसका पीछे वाला हिस्सा बिल्कुल मेरे सामने
था। मैंने उसे पढ़ लिया। क्योंकि उसमें एक दो बार मेरा नाम भी आ रहा था, उससे
मेरी उत्सुकता और बढ़ी। मैंने उसके निष्कर्ष और अंतिम हिस्सा पूरा पढ़ा।'
अब सचिव मंडल के सदस्य ने कहा,
'मुझे आपकी बात विश्वसनीय नहीं लगती। चलिए एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। मैं ये
अखबार उठाता हूँ और टेबल के इस तरफ से इसे पढ़ता हूँ। आप दूसरी तरफ से इसे
पढ़कर दिखाइए।'
कार्तिक की नजरें तेज थीं। उसने दूसरी तरफ की कुछ खबरें पढ़कर सुना दीं।
कॉमरेड मोहन ने पीछे लौटते हुए कहा।
'ठीक है। फिलहाल आपकी बात मान लेते हैं।'
कार्तिक धीरे से अभिवादन कर बाहर निकल आया था।
बाहर निकलते समय वह एक क्षण को सुदीप के पास गया, उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा,
'सब ठीक है। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।'
बाहर निकल कर उसने एक भरपूर निगाह पार्टी ऑफिस पर डाली थी जैसे उसे आखिरी बार
देख रहा हो।
उसे समझ आ गया था कि अब वह इन लोगों के साथ ज्यादा दिन तक काम नहीं कर पाएगा।
उसे लगने लगा था कि अपनी गहरी निराशा और अवसाद से बाहर आने का एक ही तरीका है,
कि वह उस पूरे संजाल से और उसके आधारभूत तर्कशास्त्र से बाहर आए, उससे दूरी
हासिल करे, तभी कोई नई दृष्टि प्राप्त कर पाएगा।
जहाँ नोटिस ने उसकी मनुष्यत्व की गरिमा को ठेस पहुँचाई थी, वहीं इस पूछताछ ने
उसे पूरी तरह पार्टी से विमुख कर दिया। उसे उनकी न्याय कर सकने की क्षमता पर
ही अविश्वास होने लगा।
उसने तय किया, अब वह यहाँ कभी नहीं आएगा।
घर पहुँचकर उसने नीति से कहा,
'नीति मैं एक दो दिन को साँची जाना चाहता हूँ।'
'साँची? अचानक साँची क्यों?'
'बस यूँ ही। मैं वहाँ कुछ देर घूमना चाहता हूँ, अकेले। शायद फिर कोई नई रोशनी
प्राप्त कर सकूँ।'
'मैं भी चलूँ?'
'नहीं इस बार अकेले जाऊँगा।'
दूसरे दिन वह सुबह की ट्रेन से साँची चला गया था।
एक दो दिन उस प्रकाश स्तंभ के आसपास रहने के लिए।
ट्रेन से उतरकर उसने महास्तूप की तरफ जाने वाली सीधी राह पकड़ी।
उस रास्ते पर वह सोच रहा था कि वह कहाँ से कहाँ आ गया था। अम्मा और नीति के
साथ बिताए वे आनंद, उल्लास और प्रेम से भरे दिन जब खुशी उसके चारों ओर बिखरी
रहती थी। फिर अपने दोस्त केदार के जाने पर, उसकी मिट्टी हाथ में लेकर, बदलाव
के लिए जारी आंदोलन में अपना जीवन लगा देने वाले दिन, फिर विज्ञान और
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से राह तलाशने वाले दिन और अंत में पार्टी और
उसके भीतर के संघर्ष। क्या वह अपने शुरू के उच्च मानदंडों पर टिका रह सका था?
क्या वह उस आम जन से जुड़ा रह सका था जिसके लिए वह काम करना चाहता था, क्या वह
घर, समाज, परिवार से कटता नहीं जा रहा था?
और कहाँ थे उसके दोस्त? परियोजनाओं का लगातार विरोध करने वाले सरफराज ने उनका
विरोध छोड़ उन्हीं के सहारे जीवन जीना शुरू कर दिया था, सरकारीकरण का विरोध
करने वाले लक्ष्मण सिंह अपने आचार व्यवहार में स्वयं पूरी तरह सरकारीकृत हो
चुके थे और पार्टी छोड़कर यहाँ वहाँ भटकते फिर रहे थे, विवाह एक बंधन है कहने
वाली नताशा ने अपना जीवनसाथी चुन लिया था और उसके बाद उसके तमाम विरोध पता
नहीं कहाँ गुम हो गए थे, गाँवों की बात करने वाले डॉ. विजय सक्सेना लंबे समय
तक शहरों में रहने के बाद शहर में ही अपना क्लीनिक स्थापित करने जा रहे थे,
पार्टी में नैतिकता की दुहाई देने वाले कॉमरेड रमेश ने अपने से आधी उम्र की
लड़की से दूसरी शादी कर ली थी और अपने इस कार्य को स्वीकार्य बना लिया था। वे
सब जैसा बनना चाहते थे, या कहते थे कि वैसा बनना चाहते हैं, उससे बिल्कुल उलट
आदमी बन गए थे। तो क्या उनके विचार एक तरह का छलावा थे, एक तरह का झूठ जो आदमी
अपने बचाव में अपने आसपास बुन लेता है? और वास्तव में वे वही हासिल करना चाहते
थे जो उन्होंने किया। पर कार्तिक के पास तो वह सब बीस साल पहले ही था। उसे
छोड़कर वह पार्टी में आया था। निर्मोही बनकर। एक बेहतर आदमी बनने और बनाने की
आस लेकर।
तो क्या ये सब करते हुए वह कुछ और बेहतर, कुछ भरापूरा, कुछ प्रसन्न आदमी बन
पाया था? क्या वह निश्चितता से ये कह सकता था कि उसका वर्तमान जीवन, जिसमें
उसका दिल और दिमाग दोनों शामिल थे, इस लंबी यात्रा के बाद पहले से बेहतर हुआ
था? क्या उसके दिल और दिमाग के बीच एक सतत संघर्ष नहीं जारी था जिसमें दिल अब
तक अर्जित सभी विचारों और ज्ञान का निरोध करता दिखता था? कैसे पा सकता था वह
अपने जीवन की भीतरी एकता और खुशी?
कार्तिक यही सोचते हुए उस कच्चे रास्ते से सीढ़ियों तक पहुँचा जहाँ से होकर
सम्राट अशोक और उनकी पत्नी, महात्मा बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र और सैकड़ों
भिक्षु, कभी ऊपर तक गए होंगे और जहाँ खुद कार्तिक, नीति के साथ, एक बार सत्य
की तलाश में आया था। खिरनी और शरीफों के पेड़ उसी तरह सीढ़ियों को छू रहे थे,
हवा में वैसी ही खनक भरी ठंडक थी और सीढ़ियों से वैसा ही विहंगम दृश्य आसपास का
दिख रहा था, जैसा कार्तिक ने नीति के साथ देखा था।
ऊपर प्राचीन पीपल के पेड़ के नीचे थोड़ा विश्राम कर कार्तिक महास्तूप तक आया
और स्तूप के पीछे कदंब के पेड़ के नीचे पड़ी पत्थर की बेंच पर बैठ गया। एक
मटके वाला आकर उसे ठंडा पानी पिला गया। उसने पानी पिया, अपना सिर पीछे की ओर
झुकाया और आँखें बंद कर लीं।
अचानक उसे लगा जैसे कोई आकर उसके पास बैठा है। उसने चौंककर पूछा,
'कौन केदार?'
'हाँ, तुम्हारा दोस्त केदार।'
'तुम तो कहीं चले गए थे?'
'नहीं, गया नहीं था। तुम्हारे आसपास ही था। सोचा तुम अपने सच की तलाश पूरी कर
लो तो तुमसे मिलूँ।'
'मैंने तुम्हें कितना याद किया!'
'कुछ संघर्ष ऐसे होते हैं जो आदमी को खुद ही करने पड़ते हैं। जैसे अपने सच की
तलाश। अच्छा बताओ, तुम पहुँचे सच तक?'
'कह नहीं सकता।'
'बिल्कुल ठीक। यही सच है। आदमी कई सत्यों से गुजरते हुए जब इस जगह पहुँचता है
तो उसे मालूम पड़ता है कि सच असल में बहुत ही कॉम्प्लेक्स चीज है, वह अलग अलग
लोगों के लिए अलग अलग हो सकता है। इसलिए सच की सत्यता के बारे में कुछ कहा
नहीं जा सकता।'
'तुमने बिल्कुल वैसा ही कह दिया जैसा मैं सोचता हूँ।'
'अच्छा ये तो बताओ, तुम राजनीति में सच की तलाश क्यों कर रहे थे?'
'ये कहना बेहतर होगा कि मैं सच की तलाश करते करते राजनीति में आ गया था।'
'पर वह तुम्हें यहाँ नहीं मिल सकता। राजनीति का मतलब है राज करने की नीति। आप
जहाँ पर भी हैं वहाँ राज करने की नीति। और ऐसा करते ही आप अपने आप को एक दूसरे
व्यक्ति या समूह के विरुद्ध खड़ा पाते हैं जो खुद भी अपनी 'राजनीति' चला रहा
होता है। अब दोनों ही किसी न किसी तरह का सच बोलेंगे जो 'राजनैतिक सच' होगा और
वास्तविक सच से अलग होगा। राजनीति वह जगह नहीं जहाँ सच की तलाश की जा सके।'
'इसका मतलब है कि सरफराज और लक्ष्मण सिंह अपनी अपनी तरह के राजनैतिक सच बोल
रहे थे?'
'बिल्कुल। और इसके द्वारा वे जो हासिल करना चाहते थे वह उन्होंने किया। और
कॉमरेड मोहन को भी उनके सच ज्यादा मुफीद पड़ते हैं।'
'पर कहा तो ये जा रहा था कि हम एक व्यापक परिवर्तन और बदलाव की लड़ाई लड़ रहे
हैं और व्यक्ति नहीं पार्टी महत्वपूर्ण है।'
'ये भी एक तरह का राजनैतिक सच है, जो कुछ व्यक्ति अपने आपको महत्वपूर्ण बनाए
रखने के लिए कहते रहते हैं। ऑल आर इक्वल। बट सम आर मोर इक्वल।'
अब कार्तिक के चेहरे पर थोड़ी मुस्कुराहट आई। उसने कहा,
'अगर तुम ठीक भी हो तो भी मेरी बात मानने से उनकी 'राजनीति' और 'सत्ता' का
विस्तार ही होता। उसे मानने में क्या हर्ज था?'
'हो सकता है कि खुली तौर पर तुम्हारी बात मान लेने से उनका व्यक्तिगत महत्व कम
होता, या उन आधारों का जिन पर वे खड़े हुए हैं, क्षरण होता। फिर तुमसे ये
किसने कहा कि वे तुम्हारे काम या तरीकों या उसके प्रभाव को स्वीकार नहीं करते?
हो सकता है वे दिल में उसे स्वीकार करते हों, बाद में उसे ग्रहण भी कर लें,
अपने में समाहित कर लें। पर तब उसका श्रेय उन्हें मिलेगा। फिलहाल कर लेंगे तो
श्रेय तुम्हें मिलेगा और उनका महत्व कुछ कम होगा।'
'ये तो अन्याय हुआ।'
'हाँ पर यही उनकी 'राजनीति' है। जहाँ से भी हो सके वहाँ से रस ग्रहण कर खुद को
शक्तिशाली बनाने की राजनीति। इसमें सच की परिभाषा बदलती रहती है। जो उन्हें
ताकतवर बनाए वह सत्य है जो नहीं बनाए वह असत्य है। और ऐसा लगभग हर राजनैतिक
समूह में होता है। इसीलिए मैंने कहा, राजनीति सच की तलाश करने के लिए सही जगह
नहीं है। फिर यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारा उनसे संवाद पूरी तरह हुआ ही न
हो।'
'ऐसा कैसे संभव है? मैंने हर स्तर पर पूरी पूरी बात रखी है।'
'संभव है। देखो कार्तिक किसी भी संवाद में चार स्तर होते हैं और चारों स्तरों
पर गड़बड़ी हो सकती है। एक, मनुष्य अपने भीतर जो सोचता है वह शब्दों के माध्यम
से प्रगट करता है। पर जो वह सोचता है वह पूरा पूरा प्रगट नहीं होता, पहली
गड़बड़ी तो यहीं हो जाती है। दूसरे, शब्द कुछ कह रहे होते हैं पर मनुष्य के
हाव भाव और मुखमुद्रा कुछ और, दूसरी गड़बड़ी यहाँ पैदा हो सकती है। तीसरे,
ग्रहण करने वाला जिस तरह की मुखमुद्रा और हावभाव बना रहा है वह एक प्रभाव पैदा
करता है पर अपने अंतर्मन में वह कैसे ग्रहण कर रहा है ये कभी स्पष्ट नहीं हो
पाता। यह संवाद की तीसरी गड़बड़ी है। फिर ग्रहण करने के बाद वह क्या निष्कर्ष
निकालता है इसकी प्रोसेसिंग में भी समस्या खड़ी हो सकती है। यह चौथी दिक्कत
है। इसलिए संवाद कभी भी ठीक ठीक पूरा नहीं होता। और गड़बड़ी बढ़ती चली जा सकती
है।'
'जैसे उमा और नताशा के बीच?'
'हाँ वह एक उदाहरण हो सकता है। पर दूसरा उदाहरण तुम्हारे और उमा-नताशा के बीच
का भी हो सकता है।'
'मेरे और उमा-नताशा के बीच?'
'चौंको मत कार्तिक। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो उमा और नताशा के व्यवहार को आसानी
से समझा जा सकता है। तुम्हारे मित्र मिलान कुंदेरा ने ही कहा है कि स्त्रियाँ
सुरक्षित होना चाहती हैं और आदमी सफल। तो नताशा और उमा अपनी अपनी तरह से
सुरक्षित होना चाह रही थीं और तुम अपनी तरह से सफल। पर फिर तुम एक बात भूल रहे
हो।'
'क्या?'
'अवचेतन की बात। एक सवाल पूछूँ, बुरा तो नहीं मानोगे?'
'नहीं नहीं, बिल्कुल नहीं।'
'कहीं तुम्हारे अवचेतन में ही अलग अलग समय पर दोनों का प्यार पाने की इच्छा तो
नहीं थी और इसीलिए तुम उन्हें अपने पास आने दे रहे थे?'
'नहीं नहीं, ये सच नहीं'
'क्या तुम वास्तव में चाहते तो उनकी प्रतिस्पर्धा को रोक नहीं सकते थे?'
'प्रतिस्पर्धा दो स्तरों पर थी। एक, जिसके केंद्र में शायद मैं था और दूसरा जो
उनकी अपनी महत्वाकांक्षाओं से बनता था। दोनों स्तर शायद आपस में गड्ड मड्ड भी
थे। एक को शायद मैं रोक लेता पर उससे दूसरा रुक जाता इसमें मुझे संदेह है।'
'एक बार फिर सोच लो'
इस बार कार्तिक काफी देर चुप रहा। फिर बोला,
'कह नहीं सकता।'
'बिल्कुल ठीक। कह नहीं सकते। मतलब पूरे सच तक पहुँचा नहीं जा सकता। मतलब सच वह
भी हो सकता है जो मैं कह रहा हूँ। और वह भी जो तुम कह रहे हो।'
'शायद तुम ठीक कह रहे हो।'
'तो अब आगे चलें? इन छोटी छोटी समस्याओं के बाद कुछ बड़ी समस्याओं को देखा
जाए। तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या क्या है?'
'अभी जब मैं आ रहा था तो मुझे लगा कि मेरे दिल और दिमाग के बीच सतत संघर्ष
चलता रहता है और यही मेरी सबसे बड़ी समस्या है। दिमाग ने अब तक जो कुछ हासिल
किया है, चाहे वह विचार हो या अनुभव, दिल उस सबको नहीं मानता, उसका निषेध करता
है। इससे एक अजब खालीपन और निराशा मेरे मन में फैल गई है। मैं बहुत आसानी से
किसी विचार को स्वीकार कर उस पर एक्शन नहीं कर पाता। शायद मैं ठीक से सोच नहीं
पा रहा हूँ। आइ एम कन्फ्यूज्ड।'
'असल में कार्तिक हम सब जब छोटे होते हैं, पंद्रह-बीस वर्षों के होते हैं, तो
एक भोलापन, चीजों पर विश्वास करने की क्षमता हममें होती है। फिर हम बड़े हो
जाते हैं। ये बड़ा हो जाना क्या है? इसे तुम्हारे ही दूसरे दोस्त ग्राहम ग्रीन
के शब्दों में कहें तो यह 'लॉस ऑफ इनोसेंस' है। अगर आप भोले बने रहना चाहते
हैं तो बड़े नहीं हो सकते और अगर बड़े होना चाहते हैं तो भोलापन खोना ही
होगा।'
'मैं ठीक नहीं समझा।'
'चलो इसको दूसरी तरह से देखते हैं। तुमने कहा तुम्हें लगता है कि तुम ठीक ठीक
सोच नहीं पा रहे। ये बताओ तुम सोचते किस चीज से हो?'
'शायद उन विचारों से जो मेरे पास हैं।'
'और ये विचार तुम्हारे पास कहाँ से आए?'
'उस शिक्षा से जो मैंने प्राप्त की, उस अनुभव से जो मैंने इकट्ठा किया। उस
सामाजिक कार्य से जो मैं अब तक करता रहा...।'
'एक्सीलेंट। हम उन विचारों के माध्यम से सोचते हैं जो हमने अपने शुरुआती दौर
में, जिसे मैं हम सबका 'अँधेरा समय' कहूँगा - इकट्ठे किए। एक आम आदमी अपने
आसपास से कुछ विचार, कुछ पूर्वाग्रह, कुछ विश्वास इकट्ठे कर लेता है और उनसे
काम चलाता है। पर हमारे समय के बुद्धिजीवी को जो समय और समाज में गहरे जाता
है, अपने समय के छह प्रमुख विचारों से टकराना ही पड़ता है। अपने 'अँधेरे समय'
में वह उनमें से किसी एक को चुन लेने की गलती कर देता है। मजे की बात ये है कि
ये सभी उन्नीसवीं सदी के विचार हैं और बीसवीं सदी में इनमें कोई इजाफा नहीं
हुआ, सिर्फ उनका प्रभाव बढ़ा है।'
'जरा खुलकर बताओ...'
'बता रहा हूँ। पहला विचार है इवॉल्यूशन का। मानव सभ्यता इवॉल्व कर रही है और
लगातार उच्चतर जीवन उभरता जा रहा है, उभरता रहेगा। दूसरा है प्रतिस्पर्धा का
सिद्धांत, सर्वोत्कृष्ट के बचने का सिद्धांत। जीवन के सभी रूप एक दूसरे से
प्रतिस्पर्धा में हैं, और उनमें से सर्वोत्तम बचा रहेगा। तीसरा है तुम्हारा
अपना मार्क्सवाद; जीवन की सभी गतिविधियों का आधार आर्थिक है और बाकी सब उच्चतर
रूप 'सुपरस्ट्रक्चर' हैं जो आर्थिक संबंधों के ऊपर खड़े हैं या उन्हें छुपाने
के काम आते हैं। चौथे अपने फ्रायड साहब हैं जो कहते रहे कि जीवन की सभी
क्रियाएँ अवचेतन से पैदा होती हैं और बचपन की अधूरी सेक्सुअल इच्छाओं का
प्रतिफलन होती हैं। फिर आपेक्षिकता का सिद्धांत है जो सभी चीजों को, यहाँ तक
कि गणित को भी आपेक्षिक मानता है, कुछ भी पूर्णतः सत्य नहीं है इसलिए किसी पर
भी विश्वास नहीं किया जा सकता और अंत में है पॉसिटिविज्म का सिद्धांत कि जो
करके देखा जा सकता है, वही सत्य है।'
कार्तिक ध्यान से केदार की बात सुन रहा था। केदार ने कहा,
'मजे की बात ये है कि इनमें से सभी विचार पूरी दुनिया, हर समाज और हर
परिस्थिति का विश्लेषण करने का दम भरते हैं। हम बड़े होते हैं और पाते हैं कि
समाज और व्यक्ति इन विचारों से कहीं बड़े और कहीं कॉम्प्लेक्स हैं। कि हम उस
पारंपरिक कथा के अंधे व्यक्तियों की तरह हैं जो हाथी का पैर या पूँछ या सूँड़
छूकर उसे खंभा या साँप या रस्सी समझ रहे हैं फिर अचानक हमें लगता है कि जो
विचार, जो 'टूल बॉक्स' हमारे पास था, वह दुनिया को समझने के लिए नाकाफी है।'
'और हम एक बौद्धिक खालीपन या निराशा के शिकार हो जाते हैं...'
'जैसे तुम अगर मानोगे कि सिर्फ विज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुनिया को
समझ लोगे तो ये एक गलत अवधारणा होगी क्योंकि विज्ञान से पदार्थ को तो पूरी तरह
समझा जा सकता है पर मनुष्य को नहीं। उसे समझने के लिए हमें शायद उसके साहित्य
को, दर्शन को, परंपरा को समझना पड़ेगा और फिर भी हम शायद उसे पूरी तरह न समझ
पाएँ। पर दिक्कत ये है कि हमारे छहों प्रमुख विचार इनका पूरी तरह निषेध कर
देते हैं।'
'तो मनुष्य को कैसे समझा जाएगा।'
'एक अलग वैचारिक 'टूल बॉक्स' से। पहले तो मानना होगा कि मनुष्य सिर्फ पदार्थ
नहीं है। वह मरने के बाद पदार्थ हो सकता है पर जीवित मनुष्य पदार्थ से अलग है।
उसमें जीवन और आत्म चेतना है। वह सोच सकता है इसलिए अलग है। सामान्यतया वह आपस
में विरोधी विचारों और परिस्थितियों से रूबरू होता रहता है और रास्ता निकालता
रहता है। जैसे एक माँ अपने बच्चे को अनुशासित भी रखती है और स्वतंत्रता भी
देती है। अनुशासन और स्वतंत्रता की इस परस्पर विरोधी माँग को वह 'प्रेम' जैसे
मानवीय गुण से सुलझाती है, विज्ञान से नहीं।'
'मतलब मनुष्य को समझने और उसकी समस्याओंको सुलझाने के लिए के लिए मानवीय गुणों
की जरूरत पड़ेगी उसके बिना सभी विज्ञान और विचार बेमानी हैं...'
'एक्जैक्टली'
वे दोनों मित्र महात्मा बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र के स्तूप की छाया में, एक
पेड़ के नीचे बैठे थे, प्रकाश की किरणों से सराबोर।
वे काफी देर वैसे ही बैठे रहे। फिर केदार ने कहा,
'अचानक मुझे तुम्हारे वैज्ञानिक मित्र डार्विन की आत्मकथा के कुछ अंश याद आ
रहे हैं। देखो वे हमारे इस समय के लिए कितने उपयुक्त हैं :
'लगभग तीस वर्षों की उम्र तक मुझे कविता बेहद पसंद थी। मुझे उससे बहुत आनंद
प्राप्त होता था। स्कूल के समय में मुझे शेक्सपियर, विशेषकर उनके ऐतिहासिक
नाटक, बहुत अच्छे लगते थे। मुझे चित्र देखने में आनंद आता था और संगीत सुनने
में तो उससे भी कहीं अधिक मजा मिलता था। लेकिन पिछले कई सालों से मुझसे कविता
की एक लाइन बर्दाश्त नहीं होती, शेक्सपियर मुझे भयानक बोरियत से भर देते हैं,
चित्रों और संगीत से मुझे कोई आनंद नहीं मिलता। मेरा दिमाग एक ऐसी मशीन की तरह
हो गया है जिसके सामने अगर ढेरों तथ्य रख दिए जाएँ तो वह तुरंत निष्कर्ष निकाल
देगी। मैं समझ नहीं पाता कि संगीत, साहित्य और उच्चतर आनंद के लिए जिम्मेदार
दिमाग का मेरा वही हिस्सा क्यों कुंद हो गया है। पर मैं इतना समझ पाता हूँ कि
दिमाग के उस हिस्से के कुंद होने से मेरे जीवन से खुशी गायब हो गई है, और इससे
शायद मेरी बुद्धि एवं नैतिक चरित्र पर भी फर्क पड़ रहा है।'
कार्तिक डार्विन के इस रहस्योद्घाटन को ध्यान से सुन रहा था। उसे लगा जैसे
उसके कितने बुद्धिजीवी मित्रों की बात की जा रही थी जिनके जीवन में रसहीनता से
उसे हर समय आश्चर्य होता था। उसने तय किया वह वैसा नहीं बनेगा।
केदार ने अब मुस्कुराते हुए पूछा,
'क्या कहते हो?'
'अद्भुत है डार्विन का रहस्योद्घाटन'
'असल में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अकेले से काम चलने वाला नहीं। यहाँ
बौद्ध स्तूप के सामने बैठकर हम महात्मा बुद्ध के मध्य मार्ग और 'सम्यक् जीवन'
के गुण तो समझ ही सकते हैं। हमारे जीवन में 'ज्ञान' भी होगा और 'विज्ञान' भी,
तभी वह 'सम्यक्' होगा। इतिहास में इतनी सभ्यताएँ आईं और गईं। हम अक्सर कह देते
हैं कि संसाधनों के नाश से सभ्यताएँ नष्ट हो गईं। तो पूछा जा सकता है कि अगली
सभ्यता के विकास के समय संसाधनों ने अपने आपको पुनर्जीवित कैसे किया? असल में
संसाधनों ने अपने आपको पुनर्जीवित नहीं किया। मनुष्य ने अपने आपको पुनर्जीवित
किया। नए विचारों से, नई तरह से शिक्षित होकर...'
'तो शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण हुई...'
'बिल्कुल, और अब मैं तुम्हारे प्रारंभिक सवाल का जवाब दे सकता हूँ। तुम बड़े
हो गए हो कार्तिक, और नई तरह से शिक्षित भी। वे चीजें, वे संगठन जो तुमने बनाए
और छोड़े अब तुम्हारी जिज्ञासा को शांत नहीं करते, तुम्हें खुशी नहीं देते,
तुम्हें उस आंतरिक ऊर्जा और वैभव से नहीं भर पाते जैसा उन्होंने पहले पहल किया
था। तुम्हें एक नई तरह की सक्रियता की जरूरत है जो तुम्हारी वर्तमान मानसिक
जरूरत को पूरा कर सके। इस आत्मज्ञान और आत्म शक्ति से भरे तुम, एक नई शुरुआत
कर सकते हो।'
'तुमसे बात करने के बाद लगता है कर सकता हूँ।'
'और तुम्हें किसी मान्यता की जरूरत नहीं। जैसाकि तुमने कहा - वह तुम्हारे पास
काफी है। पर तुम्हें एक चीज की जरूरत है।'
'क्या?'
'प्रेम की। या व्यापक अर्थों में कहें तो कंपैशन की। हमारी पूरी सभ्यता को
इसकी जरूरत है जो विचारों की मारी हुई है।'
कार्तिक ने अपना सिर ऊपर किया, आँखें खोलीं। वह हाथ बढ़ाकर केदार को छू लेना
चाहता था, उसे गले लगाना चाहता था। पर उसने देखा, केदार वहाँ नहीं था।
कार्तिक जैसे एक 'ट्रांस' की अवस्था में साँची से अपने घर पहुँचा। वह अद्भुत
हल्कापन महसूस कर रहा था।
नीति ने उसे देखकर कहा भी,
'लगता है कुछ प्रकाश मिला।'
कार्तिक ने मुस्कुराते हुए कहा,
'हाँ, बहुत सारा।'
अभी वह ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि रामनारायण का फोन आ गया।
'कार्तिक?'
'बोल रहा हूँ।'
'रामनारायण। कहाँ हो?।'
'अभी अभी घर आया हूँ।'
'सुनो, एक बुरी खबर है।'
ये रामनारायण इतनी भूमिका क्यों बाँध रहा है? कार्तिक ने अधैर्य से कहा,
'अब बता भी दो!'
'तुम सीधे आयुष अस्पताल चले आओ'
'क्यों क्या बात है?'
'कॉमरेड मोहन...। कॉमरेड मोहन ने आत्महत्या कर ली।'
कार्तिक के हाथ से फोन गिरते गिरते बचा।
'क्या? क्या कह रहे हो...'
'सच है। सिर्फ मैं और नताशा यहाँ हैं...'
'इज ही, इज ही...'
'यस, ही इज डेड।'
कार्तिक धड़ाम से कुर्सी पर बैठ गया, फोन उसके हाथ में था,
'मैं पहुँच रहा हूँ तत्काल।'
कार्तिक ने तत्काल अपनी जीप निकाली थी और आयुष अस्पताल की ओर भागा था। वह
आई.सी.यूट. के गेट पर पहुँचा तो उन्हें बाहर लाया जा रहा था। नताशा कॉमरेड
मोहन की पत्नी सरिता को लेकर घर जा चुकी थी। रामनारायण लुटा पिटा सा उनके
स्ट्रेचर के साथ खड़ा था। कार्तिक के अलावा शरद भी वहाँ पहुँच चुका था। उसने
बताया - बहुत सोच समझकर उन्होंने आज का दिन चुना, पार्टी के सभी साथी कहीं न
कहीं बाहर गए हुए थे, सिर्फ सरिता यहाँ थी। वे बहुत देर तक अकेले दफ्तर में
बैठे रहे। शायद कुछ लिखा भी। फिर स्कूटर उठाकर पार्क में गए। वहाँ इत्मीनान से
एक पेड़ के नीचे बैठकर सल्फास पावडर खा लिया। जब तबियत ज्यादा खराब होने लगी
तो ऑटो में बैठकर घर आ गए। स्कूटर वहीं पड़ा है...
कार्तिक ने देखा एक समय प्रदेश में युवा शक्ति और उत्साह का प्रतीक, सैकड़ों
लोगों का प्रेरणा स्रोत, उसकी पार्टी का सेक्रेटरी मोहन सामने स्ट्रेचर पर
पड़ा था।
तभी किसी डॉक्टर ने आकर कहा,
'इन्हें पोस्टमॉर्टम के लिए हमीदिया ले जाना पड़ेगा। पुलिस का एक आदमी और
अस्पताल का एक आदमी साथ जाएगा। आपमें से...?'
रामनारायण ने कहा,
'मैं और कार्तिक जाएँगे...'
अस्पताल के कर्मचारियों ने बॉडी उठाकर अस्पताल की एंबुलेंस में रखी। पुलिस
वाला और एक कर्मचारी सामने आकर बैठ गए। कार्तिक और रामनारायण उनके कंधे और
पैरों को थाम पीछे बैठे थे।
शरद कार्तिक की जीप लिए पीछे चला आ रहा था।
पोस्टमॉर्टम रूम के सामने पहुँचते पहुँचते रात हो गई थी और रूम बंद हो गया था।
उसके सामने मौत का भयानक सन्नाटा छाया हुआ था।
कार्तिक ने चौकीदार को ढूँढ़ने की कोशिश की।
वहाँ कोई नहीं था।
शरद ने कहा - मैं ढूँढ़ कर लाता हूँ। फिर वह कर्मचारी क्वार्टर्स की ओर निकल
गया।
अस्पताल का कर्मचारी गाड़ी खाली करने की जल्दी मचा रहा था। कार्तिक और
रामनारायण ने बॉडी उतार कर पोस्टमॉर्टम रूम के द्वार पर रख दी। कर्मचारी ने
कॉमरेड मोहन के शरीर पर पड़ी चादर की ओर इशारा करके कहा - चादर अस्पताल की है।
कार्तिक ने बहुत जोर से उसे घूर कर देखा। वह सकपका कर पीछे हट गया और बोला -
अच्छा अच्छा, आप ही पहुँचा दीजिएगा। फिर वह अस्पताल की गाड़ी लेकर चला गया।
शरद के साथ भारी चाबी का गुच्छा लिए एक चौकीदार चला आ रहा था। उसने बॉडी पर एक
सरसरी निगाह डाली और कहा,
'जगह नहीं है। अंदर जगह नहीं है।'
अब कार्तिक ने गुस्से से कहा,
'तो जगह बनाइए। क्या बॉडी पूरी रात बाहर पड़ी रहेगी?'
चौकीदार ने लापरवाही से कहा,
'तो मैं क्या करूँ?'
पीछे से कार्तिक को रामनारायण की 'चल हट', 'चल हट' आवाजें आई। उसने देखा वह दो
कुत्तों को पत्थर मारकर पोस्टमॉर्टम रूम के वरांडे में घुसने से रोक रहा था।
अब कार्तिक का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया उसने शरद से कहा,
'शरद जरा फोन देना।'
फिर सीधे कलेक्टर को फोन लगाया। वह उसे जानता था। उधर से आवाज आई,
'साहब खाना खा रहे हैं। थोड़ी देर बाद बात कीजिए।'
'खाना खा रहे हैं तब भी जाकर उन्हें फोन दो। कहो कार्तिक का फोन है।'
थोड़ी देर बाद उधर से कलेक्टर राय की आवाज आई,
'क्या बात है यार? अचानक रात में इस समय...'
'लुक मिस्टर राय। इट इज इंपॉर्टेंट। मेरे एक दोस्त ने सुसाइड कर लिया है। ही
वाज द स्टेट सेक्रेटरी ऑफ ए नेशनल पार्टी। मैं उसकी बॉडी लिए यहाँ पोस्टमार्टम
रूम के सामने खड़ा हूँ, और बदतमीजी ये है कि उसे रात भर के लिए फ्रीजर में जगह
नहीं मिल रही...'
'कम डाउन कार्तिक। मैं अभी डीन को फोन करता हूँ...'
कुछ देर बाद उसका फोन आया,
'कार्तिक मैंने डीन को फोन कर दिया है। वह कन्सर्ड डॉक्टर को वहाँ भेज रहा
है...'
कुछ देर बाद फोरेसिंक विभाग के डॉक्टर महापात्र वहाँ आए थे। कार्तिक और
रामनारायण उन्हें गैस त्रासदी के समय से जानते थे। उन्होंने कहा,
'अरे कार्तिक तुम? और रामनारायण तुम भी? यहाँ कैसे भाई?'
रामनारायण ने उसे पूरी बात बताई। डॉक्टर ने कहा,
'मैं अभी इंतजाम करता हूँ।'
वे एक बार फिर चौकीदार को ढूँढ़ने चले गए।
कार्तिक और रामनारायण वहीं एक चट्टान पर बै गए। कॉमरेड मोहन की सुरक्षा करते
हुए।
कार्तिक ने पूछा,
'कुछ पता चला?'
'एक सुसाइड नोट छोड़ा था। जो उनकी कुर्ते की जेब में था। पुलिस के हाथ में
पड़ने के पहले मैंने उसे पढ़ा था।'
'क्या लिखा था?'
'यही कि पार्टी का काम ठीक से नहीं कर पा रहा हूँ।'
'बस यही?'
'और सरिता का कोई दोष नहीं है।'
'और?'
'और बच्चे को बहुत बहुत प्यार।'
कार्तिक को लगा रामनारायण उससे कुछ छुपा रहा है। अगर वह नहीं बताना चाहता तो
कार्तिक भी नहीं पूछेगा।
उसने देखा सामने वही दोस्त मोहम्मद खान का मकबरा था जहाँ वह पहले पहल, शहर
घूमते समय, आया था। तब भी उसने वहाँ एक गहरी उदासी का अनुभव किया था। फिर गैस
त्रासदी के समय सैकड़ों लाशों के बीच एक बिल्कुल दूसरी अनुभूति - दिमाग सुन्न
हो जाने की अनुभूति - के साथ उसने यहाँ दिन गुजारा था। पर आज? आज कॉमरेड मोहन
का शरीर सामने पड़ा था और गहरे व्यक्तिगत नुकसान की अनुभूति के साथ वे दोनों
वहाँ बैठे थे।
रामनारायण ने कहा,
'ग्वालियर के पास एक छोटे से गाँव में पढ़ते थे। माँ शिक्षिका थीं। किसी बात
पर पिता घर से अलग हो गए थे। सुनते हैं कॉमरेड मोहन बचपन में एक बार साधु बनने
निकल गए थे। जब ढूँढ़ कर लाया गया तो कहा - साधु बनना अच्छा लगता है, कंद मूल
खाने निकल गए थे।'
'फिर?'
'पिता के अलग होने के बाद नाना के यहाँ आश्रय मिला। माँ गुस्सैल थीं, फिर जिस
अवस्था में थीं उसमें थोड़ा चिड़चिड़ा होना स्वाभाविक था। गुस्सा बच्चे पर ही
निकलता था।'
'तो ग्वालियर कैसे पहुँचे?'
'ग्यारहवीं में पास होकर साइंस कॉलेज में प्रवेश लेने आए। हाफ पैंट पहने ही
कॉलेज चले आए थे। एक दम बच्चे जैसे दिखते थे। फिर कॉमरेड रमेश ने उन्हें अपने
प्रभाव में ले लिया। रमेश उन दिनों ऑल इंडिया स्टूडेंट फोरम में थे। शहर में
समाजवादी युवजन सभा का भी प्रभाव था। नक्सल विचारों को नाग साहब प्रमोट करते
थे। ग्वालियर उस समय राजनीति की पाशाला था। कॉमरेड मोहन उसमें जल्दी ही
प्रशिक्षित हो गए।'
'और पार्टी में?'
'बोलने में कुशल थे। काफी तैयारी के साथ बोलते थे। उस समय छात्र आंदोलन को
अखबारों में काफी कवरेज मिलता था। जल्दी ही प्रसिद्ध हो गए। फिर इमरजेंसी लगी
तो उन्हें पकड़ने का वारंट निकला था। कई दिनों तक पुलिस को छकाते रहे और
अखबारों में छाते रहे। जेल के अंदर भी संघषर्रत थे। छूटकर आए तो उनकी
प्रसिद्धि काफी हो चुकी थी। पहले जिला सचिव फिर राज्य के कार्यकारी सचिव बना
दिए गए...'
'तुम्हें क्या लगता है, गलती कहाँ हुई?'
'मुझे लगता है राज्य पार्टी और नेशनल पार्टी दोनों ने ही जल्दीबाजी की। उसे
इतनी जल्दी प्रमोट नहीं करना था। वह बहुत जल्दी अपने आपको बड़ा मानने लगा और
उसी तरह का व्यवहार करने लगा। जब शुरू में उसने कुछ अच्छे काम किए, बड़े
आंदोलनों का नेतृत्व किया तो हम सबने तालियाँ बजाना शुरू कर दीं। उसने अपने
लिए और कड़े नियम बना लिए और इस तरह लोगों से कटता गया।'
'दोस्त मोहन से कॉमरेड मोहन?'
'सही है। उसकी वह स्वाभाविक ब्रिलियंस जाती रही। पहले कविताएँ और दोहे लिखा
करता था। अच्छे मजाक भी कर लेता था। वह संजय के चार और इंदिरा के बीस सूत्रों
वाला पोस्टर उसी ने सुझाया था। हमें उसे वैसा ही रहने देना चाहिए था...'
'मुझे लगता है कि उस पर स्कॉलर होने का दबाव भी आ गया था। वह यहाँ वहाँ से
चीजें इकट्ठी कर आपको प्रभावित करने की कोशिश भी करता था...'
'मूल बात ये है कि वह एक अच्छा युवा नेता था। धीरे धीरे बढ़ता तो शायद
स्वाभाविक गति से जाता। पर आप उसे दोहे लिखने से मना कर रहे हैं, लोगों से
मिलने से मना कर रहे हैं, प्रेम करने से मना कर रहे हैं...।'
'प्रेम करने से?'
'हाँ। एक बार पहले भी अफेयर हुआ था। सफल नहीं हुआ तो उस समय भी आत्महत्या की
कोशिश की थी। दोस्तों और मित्रों को उसी समय सम्हल जाना चाहिए था...'
'ओह!'
'फिर एक तरह की आंतरिक प्रतिस्पर्धा भी थी। असल में मनोविज्ञान एक बहुत ही
कॉम्प्लेक्स चीज है कार्तिक वही कॉमरेड रमेश जिन्होंने कॉमरेड मोहन को आगे
बढ़ाया अपने अवचेतन में शायद उससे प्रतिस्पर्धा भी रखते थे और उसे अपने प्रभाव
में भी रखना चाहते थे। वह उनका 'प्रॉडक्ट' था। फिर शुरू हुआ था अधिक
ब्रिलियंट, अधिक क्षमतावान, अधिक लोकप्रिय, केंद्र के अधिक निकट दिखने का खेल
जिसमें छोटी से छोटी असफलता आदमी को गहरी चोट पहुँचा सकती है।'
कार्तिक इस खेल को जानता था। उसका मन गहरे अवसाद से भर गया। क्या कॉमरेड मोहन
के मन में भी वैसा ही गहरा खालीपन और निराशा भर गई थी जैसी कल तक कार्तिक के
मन में थी? क्या पार्टी की किसी बात से उन्हें भी गहरी चोट पहुँची थी? क्या
सिर्फ विचार उन्हें भी नाकाफी लगने लगा था और वे जीवन में प्रेम और खुशी की
वापसी चाहते थे?
क्या पता?
उनके दोस्तों ने नए रास्ते चुन लिए थे। फिर उन्होंने क्यों की आत्महत्या।
उन्होंने बातचीत का, पढ़ने का, दूसरे काम करने का, खुद को पुनर्जीवित करने का
रास्ता क्यों नहीं चुना।
अचानक कार्तिक को कॉमरेड मोहन से गहरी निकटता महसूस हुई वह उनकी निराशा और दुख
में अपने को शामिल मानने लगा। उसने देखा उसका सिर रामनारायण के कंधे पर है और
वह फूट फूटकर रो रहा है।
अगले दिन पार्टी ऑफिस के आसपास जनसमुद्र फैला हुआ था। प्रदेशभर से पार्टी के
साथी, शहर के लोग, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता, कॉमरेड मोहन के
परिचित, उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने इकट्ठा हुए थे।
जब फूलों से सजे उनके शरीर को कंधों पर उठाया गया तो पूरा आसमान नारों से गूँज
उठा,
'कॉमरेड मोहन को लाल सलाम, लालसलाम', 'कॉमरेड मोहन अमर रहें, अमर रहें'
'कॉमरेड मोहन का अधूरा काम, कौन करेगा, हम करेंगे।'
गूँजते नारों के बीच कार्तिक ने देखा। खिड़की से लगी एक अशक्त सी महिला खड़ी
थीं। रामनारायण ने बताया,
'कॉमरेड मोहन की माँ हैं।'
उन्होंने अचानक जोर से रोते हुए कहा,
'अरे राम चले गए। बिना कुछ सुख उठाए चले गए। न कभी वार मनाए, न त्यौहार। न खुद
किए न घर में किसी को करने दिए। अरे मेरे राम, बिना खुशी देखे ही चले गए...'
कार्तिक को माँ की आवाज उन सभी नारों से ज्यादा बुलंद लगी। उसकी आँखें भर आईं।
उसे अपनी माँ की याद आई - बेटा तू खुश नहीं है। और अगर तू खुश नहीं है तो घर
में प्रसन्नता कैसे रह सकती है?
कार्तिक का मन और भारी हो गया।
वह जैसे एक प्रवाह में बहते हुए पुण्यस्थल तक जा रहा था।
पुण्यस्थल पर एक छोटी सी सभा की गई।
दिल्ली से आए कॉमरेड केंद्रीय समिति के सदस्य ने एक भाषण दिया जिसमें कॉमरेड
मोहन के अवदान पर संक्षिप्त टिप्पणी थी और पार्टी की ओर से उनके अवसान पर गहरा
दुख प्रगट किया गया था।
उनके भाषण के बाद फिर एक बार नारे लगे,
'कॉमरेड मोहन को लाल सलाम, लाल सलाम।'
'कॉमरेड मोहन अमर रहें, अमर रहें।'
सरिता भी अंतिम यात्रा में शामिल थी। वह कॉमरेड मोहन के सिरहाने ही खड़ी थी।
नारों के साथ साथ दिल्ली से आई एक महिला कॉमरेड ने सरिता का भी हाथ उठाया और
ऊपर तान दिया।
सरिता लगभग बेहोश होकर गिरने गिरने को हो रही थी। कार्तिक को वह दृश्य असहनीय
रूप से अमानवीय लगा। वह कहना चाहता था।
'इस समय तो उसे गले लगाइए कॉमरेड।'
पर उसने कुछ कहा नहीं। वह धीरे धीरे बाहर जाने लगा। कोई कह रहा था,
'सब कॉमरेड रमेश का किया धरा है।'
अब क्या फर्क पड़ता है? कार्तिक ने सोचा और बाहर निकल आया।
उसकी जीप पार्टी ऑफिस के सामने ही खड़ी थी।
जब वह पैदल वहाँ पहुँचा तो इक्का दुक्का लोग ही वहाँ नजर आ रहे थे।
कार्तिक ने एक बार जी भरकर पार्टी ऑफिस को देखा। बीस साल। वह बीस साल से यहाँ
आता रहा था। यहीं सरफराज, लक्ष्मणसिंह, रामनारायण और नताशा से उसकी दोस्ती
परवान चढ़ी थी। यहीं कॉमरेड मोहन बैठकर प्रदेश में एक आंदोलन खड़ा करने की
कोशिश कर रहे थे जो उनकी समझ से एक क्रांतिकारी आंदोलन होता। अब ये सब नहीं
होगा। कम से कम उसमें कॉमरेड मोहन और कार्तिक खुद नहीं होंगे...
कार्तिक जीप में बैठने को हुआ। अचानक उसने देखा, सामने की सीट पर एक फाइल पड़ी
है जिसमें वह पूरी कथा थी जो वह अब तक लिखता रहा था। वह उसे कॉमरेड मोहन को
देना चाहता था...।
उस समय कार्तिक को कॉमरेड मोहन की बहुत जोर से याद आई। उसे लगा कि वह उनकी
टेबल तक जाए और कहे, कॉमरेड यह रहा मेरा स्पष्टीकरण। क्या पता कार्तिक को देख
शायद कॉमरेड मोहन भी अपनी दराज खोलें, उसमें से एक फाइल निकालें और कहें,
'अब कोई जरूरत नहीं है कॉमरेड कार्तिक। मेरे पास भी अपनी फाइल है जिसमें वही
है जो तुम्हारी फाइल में है। माँ, प्रेम, संगीत, साहित्य, बचपन और दोस्त...'
अचानक एक तेज हवा का झोंका आया। कार्तिक ने देखा आगे की सीट पर रखी उसकी फाइल
खुल गई है। हवा से उसके पन्ने काँप रहे हैं, फर फर - फर फर।
फिर अचानक एक झटके के साथ क्लिप खुल गई और उसके पन्ने हवा के साथ साथ आसमान की
ओर उड़ चले।
कार्तिक को लगा कॉमरेड मोहन से संवाद का इससे बेहतर तरीका अब और कोई नहीं हो
सकता था।
उसने उन पन्नो को सहेजने की कोई कोशिश नहीं की।
उन सबका आभार
जिनके विचार
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
इस कथा में
आ गए हैं
और उनका भी
जिनके नहीं आ सके
क्योंकि
उन्हीं से तो शुरू होगी
अगली कहानी।