परमेश्वरी देवी किसी जमाने में धार्मिक लेखन किया करती थीं। पति के गुजरने के
बाद लेखन बंद हो गया। वे ठाकुर जी की पूजा-पाठ, सत्संग में अधिक समय बिताने
लगीं। प्रिया बहू बनकर आई तो सास परमेश्वरी देवी ने खूब लाड़-चाव किए। वे
आश्वस्त थीं कि लड़की पढ़ी-लिखी है। घर-परिवार की जिम्मेदारी सौंप कर मुक्त हो
जाऊँगी।
अगले दो बरस में ननद ससुराल की हो गई। देवर नौकरी के सिलसिले में बाहर चला
गया। प्रिया माँ बन गई।
बेटी गई बहू आई। बेटा गया पोता आया। फिर भी जाने क्यों परमेश्वरी देवी को
अकेलापन पहले से अधिक काटने लगा।
उन्हें लगने लगा जैसे कि बहू को घर में उनकी उपस्थिति अखरती है। उन्हें समय पर
खाना नहीं मिलता है। उनके कपड़े प्रेस नहीं किए जाते हैं। कई बार धुलते भी
नहीं है तो खुद को धोने पड़ते हैं।
मधुमेह जैसी बीमारी की दवा खत्म हो जाती है तो दिनों-दिन तक बार-बार याद लाने
पर भी आती नहीं है।
परमेश्वरी देवी मन ही मन समझाती हैं खुद को कि बहू अकेली काम करने वाली है।
अनुभव नहीं है। बच्चा छोटा है। बेटे को दवा के बारे में बताना कहाँ याद रहता
होगा? धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यह अलग बात है कि वे यह सोच कर भी पूरी तरह
संतुष्ट नहीं हो पाती हैं।
एक दिन पोते ने अपनी खिचड़ी खत्म करके दादी की थाली से चम्मच भर खिचड़ी मुँह
में डाली। और अगले ही पल उसने डस्टबिन में थूक दी, यह कहते हुए कि 'टेस्टी
नहीं है, पतली भी है। दाल जैसी। मेरी वाली खिचड़ी स्वाद थी।'
दादी ने बेटे और बहू की ओर देखा। बेटा उठकर अपने कमरे में चला गया। बेटे के
जाते ही बहू भी चली गई। वे भी जैसे-तैसे उठ खड़ी हुईं। परमेश्वरी देवी को लगा
कि बेटे बहू को अपने इस व्यवहार के लिए शर्मिंदगी महसूस होनी चाहिए थी जबकि हो
उसे रही है।
उन्होंने महसूस किया कि आजकल घर में फल-फ्रूट भी कम आ रहे हैं। खाने की थाली
से टमाटर, ककड़ी भी गायब हैं। छाछ और पतली होती जा रही है। जबकि डॉक्टर की
सलाह के मुताबिक ये सब परमेश्वरी देवी के स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं।
परमेश्वरी देवी ने अपने समय में सुंदर जीवन जिया था। इस तरह से घुट-घुट कर
जीवन जीने की आदी नहीं थीं। उन्होंने बहुत सोच-विचार कर एक निर्णय ले लिया कि
वे वृद्धाश्रम में रहेंगी।
बेटे ने थोड़ी 'क्या', 'क्यों' की मगर यह 'क्या', 'क्यों' इतनी कमजोर थी कि
परमेश्वरी देवी वृद्धाश्रम में रहने चली गईं। वे अपने ही घर से ऐसे गई थीं
जैसे मेहमान हों। वे अपने उस घर से गईं जहाँ उनके सपनों की पोटलियाँ आज भी
अधखुली धरी हैं। उस घर से जिसकी दीवारें आज भी उनके संघर्ष, आकांक्षाओं,
उदासियों, खुशियों की गवाह हैं।
उन्हें वृद्धाश्रम गए दो बरस हो गए। इधर शहर में चोरियों की वारदातों में
लगातार इजाफा हो रहा था। उधर बिटू भी अकेलापन महसूस करने लगा था। प्रिया को
किटी पार्टियों, क्लब, शॉपिंग जाना होता था। बेटे के कारण प्रिया बँध सी गई
थी।
इतना भर भी होता, तो कोई बात नहीं। बेटे का बिजनेस सुस्त चलने लगा। उन्हें यह
भी पता नहीं चल रहा था कि परमेश्वरी देवी ने पैसे और मकान के बारे में क्या
निर्णय किया है। ऐसे में प्रिया ने तरकीब सोची। पति को बताया, समझाया। और
कन्विन्स कर लिया कि सासू माँ को घर लाया जाए।
वे परमेश्वरी देवी से मिलने आश्रम गए। बहू ने चिरौरी की 'हम तो आपके अपने हैं।
आप हमें भूल ही गईं। प्लीज घर चलिए।' परमेश्वरी देवी ने बाल यूँ धूप में सफेद
नहीं किए थे। वे बहू की इन चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आने वाली थीं। वे सारा
माजरा समझ गईं थीं।
उन्होंने बहू को बड़ी सहजता से जवाब दिया - 'बहू, मैं किसी को नहीं भूली। अपने
घर की यादें सदा मेरे साथ रहती हैं। एक-एक क्षण हजार-हजार स्मृतियाँ जगाता है।
मैं जितनी अकेली उनके जाने पर नहीं हुई उतनी तुम्हारे आने पर हुई। बीता कल
उम्र के इस पड़ाव पर अकेलेपन में खूब याद आता है, रुलाता है, मगर मेरे आँसू
पोंछने वाला कोई नहीं है।'
परमेश्वरी देवी का गला रुँध रहा था। फिर भी उन्होंने कहना जारी रखा 'मुझे इस
बात का मलाल सदा रहेगा कि मैंने घर छोड़ने का निर्णय लिया तो तुम दोनों में से
किसी ने दृढ़ता से एक बार भी नहीं कहा 'मम्मी मत जाओ। यह घर और हम सब आपके
हैं। इसलिए अब मुझे सदा के लिए भूल जाओ। वह घर तुम्हारा ही है। और हाँ रुपया
पैसा सारा इस वृद्धाश्रम को दान कर दिया है। बहू कम से कम चोरों के सामने तो
मत करो। और हाँ बहू, व्रत-उपवास करती रहना। तुम्हारा आचरण तुम्हारा बेटा देख
रहा है। जैसे भगवान मुझे टूठा वैसे ही तुम्हें भी टूठे। बहू, उसके घर देर है
अंधेर नहीं।'
कहकर परमेश्वरी देवी को लगा जैसे पत्थर-सा जो दिल पर कब से पड़ा था बोझ, वह हट
गया। वे सधे कदमों से आश्रम के अपने कमरे की ओर मुड़ गई।
बेटे बहू के लिए अपना घर बहुत दूर हो गया था। उदास साँझ ने बिना मन के, देर
रात बेटे बहू को घर के भीतर लिया। घर पाकर, घर में आकर उन्हें घर, घर जैसा
नहीं लग रहा था। बेटा सो गया था। वे दो थे पर दोनों ही बहुत अकेले और तन्हा
थे।