'मैं पदोन्नति नहीं ले रही।'
'क्यों?'
'मैं जिनके सामने बैठना चाहती हूँ वे मुझे अपने बराबर बिठाना चाहते हैं।'
'यह तो सम्मान है। तुम्हारे काम को पहचान मिल रही है।'
'नहीं, यह जबान को लगाम देने की साजिश है। आप 'ऊपरलों' के साथ बैठकर 'निचलों'
के हक की बात कर ही नहीं सकते।'
'तनख्वाह दुगुनी और इज्जत सौ गुनी। तुम भावुक होने के बजाय व्यावहारिक होकर
अपने निर्णय पर पुनर्विचार करो।'
'कर लिया। मेरे सामने दो रास्ते हैं। और एक चुनने का समय आ गया है। मानती हूँ
कि कभी-कभी स्थितियाँ विकट हो जाती हैं। जब आपको एक तरफ होना पड़ता है। इधर या
उधर। निजी स्वार्थों को त्याग कर। मेरा निर्णय अंतिम है। मैं पदोन्नति नहीं ले
रही।'