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आलोचना

सांप्रदायिकता की राजनीति और समकालीन हिंदी उपन्यास

अरुण कुमार पांडेय


सांप्रदायिकता शब्द का इस्तेमाल पश्चिमी देशों में सकारात्मक अर्थ में किया जाता है जिसका आशय किसी समुदाय विशेष से संबंधित कार्रवाई से है। किंतु दक्षिण एशियाई देशों में यह किन्हीं दो समुदायों के बीच, आमतौर पर धार्मिक समुदायों के बीच होड़ और टकराव का द्योतक है। सांप्रदायिकता के मूल कारण तो बहुत से हैं किंतु इसे समझने का एक आम नजरिया समाज में रूढ़ हो गया है, वह इसके मूल में केवल धार्मिक कारण तलाशता है। "सांप्रदायिकता धार्मिक परिघटना नहीं है, लेकिन यह एक धर्म को मानने वाले समूह के स्वार्थों से जुड़ी है। इससे धार्मिक मतों के सवाल पर द्वंद्व नहीं होता बल्कि सांसारिक हितों का द्वंद्व जुड़ा होता है। अकसर अभिजात समूह धर्म को आस्था के लिए नहीं, वैधता के लिए लेता है।" 1 इस वैधता को प्रमाणित करने के लिए धार्मिक राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करने की प्रवृत्ति तो हमारे इतिहास में काफी पहले से मिलती है। मध्यकालीन भारतीय शासकों की धर्म आधारित राजनीति के बारे में रोमिला थापर लिखती हैं कि "धर्म को तब तक कोई महत्व नहीं दिया जाता था जब तक की वह किसी निश्चित राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता था, लेकिन जहाँ भी ये राजनीतिक उद्देश्य पूरे कर सकता था, इसका जमकर प्रयोग किया जाता था।"2

आधुनिक काल में इसी प्रकार की धार्मिक राजनीति से सांप्रदायिकता के उदय की पृष्ठभूमि निर्मित हुई। "निश्चय ही यह एक आधुनिक परिघटना है और इसका सबसे घातक पहलू है, भारत की विविधता, यानी अल्पसंख्यक बहुल समाज की अवधारणा का परित्याग और बहुसंख्यकवादी एकरूपीकरण और सामान्यीकरण की अवधारणा का थोपा जाना। सांप्रदायिकता का उदय इसी का परिणाम है।"3 इसके अतिरिक्त सांप्रदायिकता की उत्पत्ति का कारण राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में संरचनागत बदलाव भी है। औपनिवेशिक राजनीति और अर्थव्यवस्था ने सामंती राजनीति और अर्थव्यवस्था की जगह ली। सामंती अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों प्रतिस्पर्धात्मक नहीं थीं। सामंत काल में सत्ता तलवार के बल पर प्राप्त की जाती थी जबकि आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिस्पर्धात्मक मतपेटी से प्राप्त की जाती है। इसी तरह सामंती अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धात्मक नहीं थी क्योंकि उत्पादन मुख्यतः स्थानीय उपयोग के लिए होता था, आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था की तरह व्यापक बाजार के लिए नहीं। औपनिवेशिक राजनीति और अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धात्मक थे। आंशिक रूप से इस प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति और अर्थव्यवस्था ने सांप्रदायिक घटना को जन्म दिया।"4

सांप्रदायिकता के स्वरूप और विकास का श्रेणीवार विभाजन करते हुए राम पुनियानी लिखते हैं कि "सांप्रदायिकता एक ऐसा विश्वास या विचारधारा है जिसके अनुसार एक धर्म से ताल्लुक रखने वाले सभी लोगों के सामान्य आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक हित एक होते हैं और ये हित दूसरे धर्म से जुड़े लोगों के हितों से अलग होते हैं।"5 वे आगे लिखते हैं कि "सांप्रदायिकता के विकास की तीन स्पष्ट श्रेणियाँ हैं -

नरम - एक धर्म के लोगों के हित एक होते हैं।

मध्यम - विभिन्न धर्मों के लोगों के हित विभिन्न होते हैं।

उग्रवादी - विभिन्न धर्मों के लोगों के हित एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं। यह अन्य धर्मों के प्रति डर और घृणा पर आधारित होता है।"6

'नरम' और 'मध्यम' सांप्रदायिक श्रेणियाँ समाज को अलग-अलग खाँचों में बाँटती हैं लेकिन इनमें दूसरे धर्म के अनुयायियों के प्रति तटस्थता का भाव रहता है। यह सांप्रदायिक बोध सामाजिक समरसता को प्रत्यक्ष तौर पर खंडित नहीं करता किंतु इतना अवश्य है कि 'उग्रवादी' सांप्रदायिक श्रेणी के विकास के लिए एक जमीन अवश्य मुहैया करा देता है। उग्रवादी सांप्रदायिकता, फासीवादी विचारों के साथ आगे बढ़ती है। जहाँ से असहिष्णुता चरम पर होती है। सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले अनवरत इस प्रयास में लगे रहते हैं कि समाज में प्रायः उग्र सांप्रदायिकता की स्थिति बनी रहे। हमारे देश में आए दिन होने वाली जातीय-नस्लीय हिंसा या सांप्रदायिक दंगे ऐसी राजनीति के ही परिणाम हैं। धार्मिक-सामाजिक वर्चस्व के लिए राजनीतिज्ञ और धार्मिक ठेकेदार धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, नस्ल आदि के आधार पर अन्य समुदाय को शत्रु के रूप में पेश करते हैं। उनके प्रति घृणा और भय का माहौल निर्मित करते हैं। इतिहास से ऐसे-ऐसे तथ्य सामने लाते हैं जो अन्य समुदायों को लक्षित समुदाय के लिए सबसे बड़ा खतरा सिद्ध कर दे।

इसी क्रम में वे राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र पर मँडरा रहे खतरे की भी बात करते हैं। हमारे देश में हिंदू और मुसलमानों को लक्ष्य करके इसी तरह से सांप्रदायिक स्थितियाँ पैदा की जाती हैं। बहुसंख्यकों का धार्मिक-राजनीतिक वर्चस्व चाहने वाले उन्हें राष्ट्र का पर्याय घोषित करते हैं जिसका अर्थ यह निकलता है कि बहुसंख्यक या हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं। अब हिंदुओं के सारे हित राष्ट्रीय हित हुए जबकि अल्पसंख्यक मुख्यतः मुसलमानों से जुड़े सारे हित और क्रियाकलाप सांप्रदायिक हुए। हिंदुओं की धार्मिक वर्चस्व की राजनीति का यह फासीवादी रूप है। दरअसल "फ़ासिज़्म विभिन्न रुझानों का सम्मिश्रण होने के साथ ही सभी देशों में एक सामान्य तत्व के साथ आता है और वह है, उसका तीव्र राष्ट्रवाद।"7 इटली के कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व करने वाले पामीरो तोग्लियात्ती 'फासीवाद' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि "यह विचारधारा मेहनतकशों पर अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए विभिन्न धाराओं को साथ लाती है। इस काम के लिए यह एक व्यापक आंदोलन को संगठित करती है। इसके विकास की मूल दिशा तीव्र तीव्र राष्ट्रवाद है।"8

तोग्लियात्ती ने यह विशेषता भले ही मेहनतकशों और तानाशाही के संदर्भ में बताई हो किंतु 'फासीवाद' राष्ट्रीय स्तर पर अन्य संदर्भों में भी इसी प्रक्रिया से उधार लेता है। हम जानते हैं कि सांप्रदायिकता एक आधुनिक परिघटना है, इसका उदय भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान हुआ। जिसके पीछे अनेक कारण हैं - अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति के द्वारा हिंदू और मुसलमानों के बीच में ऐसा तनाव पैदा किया जो उक्त समय के पूर्व कभी उस स्तर पर नहीं था। इसके लिए उन्होंने अनेक चालें चलीं। नीतिगत फैसलों में अंग्रेजों ने हिंदू मुस्लिम विवाद को बार-बार उभारा और दोनों समुदाय के प्रतिनिधियों से अलग संबंध रखे। सबसे बड़ी चाल उन्होंने इतिहास की प्रस्तुति के स्तर पर किया। जैसा कि हम जानते हैं कि प्रारंभिक भारतीय इतिहास विदेशियों द्वारा ही लिखे गए जिनमें उन्होंने तथ्यों को जैसा चाहा तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। अंग्रेजो ने "इतिहास लेखन के लिए इलियट और डाऊसन की सेवाएँ लीं जिन्होंने फारसी से चुनिंदा स्रोतों का अनुवाद करके ऐसी सामग्री मुहैया करवाई जो यह सिद्ध करती थी कि हिंदू और मुसलमानों के बीच शाश्वत लड़ाई है।"9

इन प्रायोजित स्थापनाओं ने भारतीय जनमानस को जहाँ खंडित किया वहीं बाद का सारा भारतीय इतिहास प्रतिक्रियावादी ढंग से लिखा गया। इतिहास द्वारा गलत तथ्यों और भ्रमित करने वाली अवधारणाओं को प्रस्तुत करने से समाज में हिंदू-मुस्लिम का भेद गहरा होता चला गया। सैकड़ों वर्षो के साहचर्य और उससे बनी समान सांस्कृतिक चेतना ने लंबे समय तक इस भेद को स्पष्टतः उभरकर सामने नहीं आने दिया किंतु जब उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों से लोगों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के लिए भारतीय नेताओं ने धार्मिक चेतना का उपयोग किया तो इससे दो बातें हुईं - एक तरफ तो राष्ट्रीयता का उदय हुआ और दूसरी तरफ सांप्रदायिकता का उदय हुआ। भारतीय समाज में 20वीं सदी के अंतिम दशकों में पुनः सांप्रदायिकता के उभार का एक नया दौर शुरू हुआ। इस दौर की सांप्रदायिकता 'उग्रवादी सांप्रदायिकता' की श्रेणी में आती है। 'उग्रवादी सांप्रदायिकता' फासीवादी विचारों के साथ आगे बढ़ती है जहाँ असहिष्णुता चरम पर होती है। "सांप्रदायिकता की राजनीति के पीछे उन वर्गों का स्वार्थ है जो समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ हैं। सांप्रदायिक राजनीति घृणा के प्रचार का सहारा लेकर चलती है।"10

'हमारा शहर उस बरस' उपन्यास में मठ वालों के साथ आई भीड़ कहती है कि "हिंदू जागो, देश बचाओ। कि नहीं तो हम पर अन्याय बढ़ता जाएगा। हमारे रक्त की नदियाँ बहेंगी। बह रही हैं। मंदिर और गुरुद्वारे नष्ट होंगे। हो रहे हैं। हमारी इज्जत और संपत्ति लूटी जाएगी, हमारी लड़कियों का सरेआम अपहरण होगा। हो रहा है। लुट रही है। हिंदू कुत्ते बिल्ली की तरह मारे-मारे फिरेंगे। फिर रहे हैं। ...कायरता दूर करो या हिंद महासागर में डूब मरो...। 'हिंद नहीं' ...हिंदू महासागर कहो। ...औरों के लिए तो पचासों देश हैं, पर हमारे लिए तो बस हिंदुस्तान है। ...हिंदूस्थान बोलो... हिंदूस्थान है।"11 देवी मठवाले एक ओर जहाँ इस प्रकार के प्रचार से हिंदू समुदाय के मन में एक असुरक्षा का भाव जगाना चाहते हैं ताकि देश के समस्त हिंदू सांप्रदायिक विभाजन का शिकार हो मुस्लिमों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मान बैठे और दूसरी ओर 'हिंद' को 'हिंदू' तथा 'हिंदुस्तान' को 'हिंदूस्थान' संबोधन देकर समय और संस्कृति का भी हिंदूकरण करते चलते हैं। हिंदूकरण की इस प्रक्रिया और ऐतिहासिक सामाजिक तत्वों को तोड़ मरोड़कर विकृत रुप में प्रस्तुत करने का हनीफ प्रतिकार करता है। वह प्रश्न करता है कि "हम अपने देश का इतिहास क्यों नहीं जानते। तभी तो हैवानी आत्माएँ इतिहास के पन्नों से कुछ का कुछ उठाकर उसका मलीदा बनाकर जहर बुझे तीरों पर लगा कर तान देती हैं और हम अपनी जाहिली में उन पर यकीन कर लेते हैं।"12

देशभक्ति का प्रवचन हर समुदाय के लिए अलग-अलग होता है। दरअसल देशभक्ति के नाम पर प्रायः हर समुदाय अपनी धार्मिक मान्यताओं और मिथकों को इतिहास के साथ गड्डमड्ड करते हैं। हर समुदाय स्वयं को देशभक्त और सामने वाले को शक की नजर से देखने का आग्रह रखता है। यह स्थिति बहुसंख्यकों के हित में अधिक काम करती है क्योंकि बहुसंख्यक प्रायः अपने समुदाय को ही देश का पर्याय घोषित करने लगते हैं। ऐसी मानसिकता के चलते ही मठ के बाहर बिकने वाले कैसेट में बोलने वाला आदमी कहता है कि "...तुम्हें हमने बराबरी दी, तुमने हमें क्या दिया? पाकिस्तान। बहुत हो गई दया-धर्म की बातें। अब हैं वीरता और क्रूरता के दिन। यहाँ रहना था तो रहीम रसखान बनते, प्यार से दूध में चीनी की तरह।" 13 दरअसल दूध में चीनी की तरह रहने की बात का आशय यह है कि दूसरा समुदाय अपनी अस्मिता को मिटा कर रहे। रहीम रसखान ऐसे संत थे जिन्होंने हिंदू धर्म, हिंदू देवी-देवता और हिंदू संस्कृति की प्रगति में अहम योगदान दिया था। यही वजह है कि कैसेट में बोलने वाला उनके प्रति आभार व्यक्त करता है। भारत की सांप्रदायिक स्थितियों को विश्लेषित करते हुए रावेना रॉविन्सन एवं डी. पार्थसारथी लिखते हैं कि "सांप्रदायिकता की सैद्धांतिक समझ के लिए यह काफी मुश्किल है कि वह सांप्रदायिकता के विरुद्ध चल रहे संघर्ष से भी आगे की चीज हो। यह केवल तभी संभव है, जब फासिस्टों और सांप्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध चल रहा संघर्ष उस उच्च बिंदु तक पहुँच जाए। तब ऐसी ताकतों को समझ पाना संभव हो जाता है जो ऐसे अभियानों की सहायता करते हैं और उन्हें उकसाते हैं। भारत में वह स्थिति अभी तक नहीं आई है। अभी आवश्यकता इस बात को समझने की है कि सांप्रदायिक शक्तियों को जिस तरीके से संयोजित किया जाता है, उसकी पहचान और उसका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जाए।"14

सांप्रदायिक कट्टरता किसी भी समुदाय की हो वह अंततः अन्य समुदायों के लिए अहितकर ही होती है। कट्टरता किसी भी सूरत से सहनशीलता और सहिष्णुता की विरोधी होती है। इसीलिए धर्म के नाम पर ही असहिष्णुता का माहौल बन जाता है। दो अलग धर्म के व्यक्तियों का टकराव निश्चित रूप से धार्मिक टकराव में बदल जाता है और हिंसात्मक स्थितियाँ पैदा होती हैं। 'हमारा शहर उस बरस' में उपन्यासकार लिखती हैं कि "हिंदू-मुसलमान हो गई थी हर चीज, हर रंग, हर शब्द, हर सलाम-नमस्कार, अचकन-धोती, हरा-पीला। ...न जाने कितनी उपमाएँ, कहावतें, किंवदंतियाँ मौत के घाट उतार दी गईं और आम लोगों से छिनकर कहीं बंद कर दी गईं। ...जिद्दी बरस था, जो हर चीज, हर रंग, हर शब्द हर लोग को हिंदू और मुसलमान में बाँटने पर आमादा था।"15 दरअसल सांप्रदायिक दंगों के समय पहचान के सरलीकरण का सिद्धांत ही प्रभावी दिखता है। सब कुछ केवल समुदाय या जाति के आधार पर बाँट दिया जाता है। इस प्रकार के सांप्रदायिक बँटवारे में अचानक से भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता पर जोर दिया जाने लगता है जिससे विभिन्न पहचानें स्पष्ट हो सकें। ऐसी स्थिति के बारे में ऑस्कर वाइल्ड लिखते हैं कि "लोगों के किसी समूह को कोई विशेष पहचान देकर योजनापूर्वक उसका प्रचार करने से उन्हें दूसरे समूहों के खिलाफ बर्बर व्यवहार करने के लिए उभारा जा सकता है।"16

वास्तव में सांप्रदायिकता हमारे डीएनए को प्रभावित करती है। हमारे सबसे विश्वसनीय रिश्ते पर प्रहार करती है। कल तक जो शरद सेक्युलर था वही बदली हवा में हिंदुओं की हिंसा को उनका रिएक्शन मानने लगता है। महंत की बातें उसे सही सी लगने लगती हैं भले कुछ हद तक ही सही। उसी के प्रभाव में वह आगे कहता है कि "मैं हिंदू हूँ। एक हिंदू होने के नाते मैं चुप नहीं रह सकता।"17 शरद की यह बात उस मानसिकता की परिचायक है जिसमें व्यक्ति अपनी पूर्वाग्रही दृष्टि के चलते अपने समुदाय, अपनी संस्कृति के नकारात्मक पक्ष को देख नहीं पाता। वह स्वयं ही उसकी एक सकारात्मक छवि गढ़ता है। ऐसी संकुचित दृष्टि से ही कट्टर सांप्रदायिक सोच पनपती है। 'कितने पाकिस्तान' उपन्यास में बाबर का मुर्दा अदालत के सामने अपनी सफाई देते हुए कहता है कि "मैंने हिंदुस्तान पर कई हमले किए लेकिन जीत नहीं पाया। आखिरी बार जब मैं जीता तो सच्चाई यह है कि हिंद पर हमला करने और इसे जीतने के लिए मुझे सुल्तान इब्राहिम लोदी के चचा, पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ और रणथंभौर के हिंदू राजपूत राणा सांगा ने बुलाया था।" 18 बाबर का यह बयान सुन त्रिशूलधारी मुर्दा क्रोधित हो जाता है। त्रिशूलधारी मुर्दा विश्वास ही नहीं कर सकता था कि कोई हिंदू राजा भी इस देश के साथ गद्दारी कर सकता है। उसके अनुसार गद्दारी तो केवल मुस्लिम ही कर सकता है क्योंकि वह आक्रांता है, विदेशी है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता सबसे बड़ा कारण रहा है। अदीब की अदालत बाबर से जब यह प्रश्न करती है कि "अयोध्या की राम मंदिर को तुमने 1528 में गिरवाया और अपने सूबेदार मीर बाकी को तुमने आदेश दिया कि उस जगह पर मस्जिद बनवा दी जाए! " 19 तो बाबर कहता है कि "यह सरासर गलत है! मेरा उस मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है।"20 लॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल ए. फ्यूहरर के मुर्दे ने भी अपनी गवाही में बाबर की इस बात की पुष्टि की। फ्यूहरर ने 1889 में बाबरी मस्जिद पर लगे शिलालेख को पढ़ा था जो बाद के दिनों में विकृत कर दिया गया। इसी के साथ उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के खिलाफ भावनाओं का इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक नीति पर चलते हुए ब्रिटिश इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ताओं ने मुसलमान शासकों पर आरोप लगाया कि उन सभी ने समान और अनवरत रूप से हिंदू मंदिरों को नष्ट किया तथा हिंदुओं का दमन-उत्पीड़न किया ताकि मुस्लिम राजाओं की तुलना में ब्रिटिश शासन की बेहतर छवि प्रस्तुत की जा सके।"21 ब्रिटिश इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं की इस चाल ने एक साथ भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य को एक निश्चित दिशा की ओर मोड़ दिया।

सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों के लिए इतिहास में उपलब्ध ऐसे तथ्य हथियार का काम करते हैं। ऐसे तथ्यों के द्वारा ही दो समुदायों के बीच नफरत के बीज बोए जाते हैं जो भविष्य में एक नए सांप्रदायिक इतिहास की पौध बनते हैं। 'कितने पाकिस्तान' में रेत के वीरान जंगल से आई आवाज कहती है कि "नफरत ही आदमी को पहचान देती है... नफरत से ही आदमी और उसके जातीय समुदाय पहचाने जाने लगे हैं। नफरती एकता के लिए अतीत काम आता है। अतीत का दंश, गौरव और वे स्मृतियाँ जो कसकती, दुखती और रिसती हैं... नफरत एक ऐसा स्कूल है जिसमें पहले खुद को प्रताड़ित, अपमानित और दंशित किया जाता है... उसे घृणा की खाद से सींचा जाता है और तब उसकी स्मृति को एकात्म करके प्रतिशोध के नुकीले हल से जोत कर हमवार किया जाता है इसीलिए घृणावादियों के तर्क इकहरे और एक से होते हैं... उनके पास अधिक बातें नहीं होतीं। वे हजारों लाखों मुखों से एक ही स्वर में बोलते हैं, एक से प्रश्न उठाते हैं, एक सी दलीले देते हैं... यही उनकी एकता की पहचान बन जाती है।"22 नफरत और प्रतिशोध की ऐसी ही मानसिकता को विश्लेषित करते हुए विभूति नारायण राय लिखते हैं कि "हर अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि अल्पसंख्यक आमतौर से पुलिस को सांप्रदायिक दंगों के दौरान शत्रु के रूप में पाते हैं। ...हमने पूर्वी बंगाल की हिंसक घटनाओं के दौरान देखा कि मुस्लिम सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा अफवाह फैलाने में पुलिस का इस्तेमाल किया गया।" 23 दोनों उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि देश के भीतर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनाए गए विभिन्न सुरक्षा बल भी सांप्रदायिक वैमनस्य से ग्रसित हैं।

कुँवरपाल सिंह लिखते हैं कि "घृणा और ईर्ष्या के आधार पर कोई नवनिर्माण नहीं किया जा सकता, केवल मनुष्य, समाज और देशों को बाँटा जा सकता है। धर्म और संस्कृति का घालमेल भी अनेक त्रासदियों को जन्म देता है। धर्म व्यक्तिगत होता है, संस्कृति सामूहिक होती है। वह धर्म और संप्रदाय से ऊपर मनुष्यता के सूत्र जोड़ने वाली शक्ति है। ...पाकिस्तान का निर्माण भी धर्म का राजनीति में प्रयोग, संस्कृति की गलत व्याख्या, सद्भाव और प्रेम के मूल्यों का ह्रास तथा आपसी अविश्वास के कारण हुआ।"24 सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों ने बाबरी प्रसंग में यह प्रचारित कर रखा है कि "बाबरी मस्जिद की तामीर के दौरान हिंदू मुस्लिम फसाद में मुसलमानों ने एक लाख चौहत्तर हजार हिंदुओं को हलाक किया और उन्हीं के खून से मस्जिद के लिए गारा बनाया गया। इतिहास जब नफरत स्कूल बना दिया जाए तब वह पूरी कौम और तहजीब के लिए घातक होता है। इसलिए आज तीसरी दुनिया व्यग्रता के साथ मानवता के इतिहास का असली अर्थ पहचानना चाहती है।"25

दूधनाथ सिंह 'आखिरी कलाम' उपन्यास में सांप्रदायिकता की पूरी राजनीति का पर्दाफाश करते हुए हिंदूवादी सांप्रदायिक शक्तियों को चिन्हित करते हैं। आचार्य तत्सत पांडे कहते हैं कि "सब झूठे और मक्कार और मिले हुए। सब हिंदू। सब केवल हिंदू। सब बर्बर। सभी कारसेवक। जो सोए हैं वे भी और जो चीख रहे हैं वो भी। सारे अखबार और तथाकथित मीडिया और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार। देश और विदेश-सभी। सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। कोई फर्क नहीं है। पुलिस और फौज और कानून के महात्मा - सभी हैं नशे में। सभी को वही जोगिया रंग चढ़ा हुआ है।" 26 आचार्य का कथन पूरी व्यवस्था के ऊपर प्रश्नचिह्न है। लोकतंत्र के दावे के भीतर सांप्रदायिक कट्टरता एक मूल्य की तरह समाज में ऐसे स्थापित हो गई है कि सांप्रदायिक सोच ना रखने वाला व्यक्ति स्वयं ही हाशिए पर पर चला जा रहा है। सांप्रदायिक धारणा को समाज में गहराई से बैठाने के लिए सांप्रदायिक राजनीति करने वाले अनेक किंवदंतियाँ भी गढ़ते हैं। इन किंवदंतियों में लक्षित समुदायों के आपसी वैमनस्य के कुछ गढ़ंत किस्से डाले जाते हैं जिससे समाज के भीतर सांप्रदायिक विभेद को स्थायित्व मिल सके। प्रोफेसर तत्सत पांडे कहते हैं कि "किंवदंतियों में एक फासिस्ट तत्व होता है। लोग उन्हें जैसा चाहें, गढ़ लेते हैं। उन्हें तर्क पर चढ़ाना बेकार है । उनके साथ वितर्क का रस ही संभव है। तुम यह नहीं कह सकते कि ऐसा कैसे हो सकता है।"27

सांप्रदायिकता भी ऐसी ही कुछ किंवदंतियों और गलत ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे पैदा किया गया प्रश्न है। यह प्रश्न व्यवस्था को चुभने वाले प्रश्नों के नुकीलेपन को कुंद करने के लिए खड़ा किया गया है। हिंदू और मुसलमानों की भाँति यहूदियों और ईसाइयों के बीच भी सर्वाधिक सख्त विरोध धार्मिक विरोध रहा है और इस धार्मिक विरोध के संदर्भ में कार्ल मार्क्स का विचार था कि "उत्तरोत्तर ईसाई और यहूदी दोनों ही यह समझने लायक हो जाएँगे की धर्म इतिहास के एक अतिक्रांत चरण की केंचुल से अधिक कुछ नहीं है। जब तक केंचुल को साँप समझते रहेंगे तब तक जनमानस में इसकी डरावनी एवं प्रलोभनकारी उपस्थिति बनी रहेगी।" 28 सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों से उबरकर हिंदू और मुसलमान भी धर्म और संप्रदाय के इस द्वंद्व से क्या कभी उबर पाएँगे?

हमारे देश के भीतर सांप्रदायिक अलगाववाद की समस्या इसलिए भी अधिक उन्मादकारी है क्योंकि धार्मिक संस्कार यहाँ आज भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसी धार्मिक संस्कार के चलते दरोगा कहता है कि "और यह साला प्रोफेसर... कैसा पांडे है रे। पांडे है तो पांडे होना चाहिए... गोसाईं जी की खिल्ली उड़ाओगे तो कैसा पांडे रे?"29 इसी धार्मिक संस्कार के चलते रामलला के द्वार के सामने पुलिस का सिपाही नंगे पाँव पहरा देता है और जब प्रोफेसर पांडे उससे सवाल करते हैं तो वह उन्हें झिड़क देता है "चुप बे, रामलला के जन्म स्थान को मस्जिद बोलता है? फेरा लगाएगा? दिखाएँ जूता?"30 भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त इस धार्मिक संस्कार के स्वरूप और इसके प्रभाव को समझते हुए प्रोफेसर पांडे कहते हैं कि "धर्म ही एक षड्यंत्र है।"31 और इस षड्यंत्र का शिकार होकर ही समाज उन्मादी हो जाता है। वे सर्वात्मन से प्रश्न करते हैं कि "क्या धर्म के सवाल पर इस देश के सारे लोग ब्राह्मण हो जाते हैं? तब हो चुका। यह मंदिर-मस्जिद का सवाल नहीं है सर्वात्मन... यह मनुष्य होने या न होने का सवाल है। अब जो तुम देख रहे हो, वह क्या है? वह वही भेड़चाल है। बाद में कुछ नए गड़ेरिए आएँगे और अपना पक्ष तर्कपूर्वक नहीं, बलपूर्वक रखेंगे।" 32

अयोध्या के बाद से ऐसी ताकतों के द्वारा भारतीय समाज लगातार नियंत्रित किया जाता रहा है। अयोध्या में गुजरात की पृष्ठभूमि तैयार हुई थी और गुजरात में उसके बाद के समय की। एक ऐसे अविश्वासपूर्ण समय की जिसके भीतर धर्म के आधार पर मानव और मानव के सह अस्तित्व को नकार दिया जाने की साजिशें होने लगीं। ऐसी ही साजिशों का नतीजा है कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद के पिछवाड़े की मुस्लिम बस्तियों के लोगों के मन में भय, निराशा, अलगाव, बेबसी और पलायन के भाव घर कर गए हैं। एक मुस्लिम पात्र अपनी पीड़ा व्यक्त करता है कि "खसरा में हमीं हैं हुजूर! नजूल की जमीनों के पट्टेदार भी हमीं हैं हुजूर! मौरूसी हक है। अभी तो हम जोत-बो रहे हैं लेकिन कब ले लेंगे, पता नहीं, कोई मुआवजा नहीं। आधा-तीहा देते हैं। जो मुसलमान हैं, वे अपना पट्टा 'होलसेल' बेच सकते हैं। अब पट्टेदार हम रामआसरे दास ने कब्जा ले लिया। क्या हो सकता है। मजूरी से पेट काटकर कब तक लड़ते हुजूर! और फिर कतल-खून की धमकी दिन-रात अलग से।"33 सांप्रदायिक विद्वेष कमजोर और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए हमेशा ही भारी क्षति का कारण बनता है।

'काला पहाड़' उपन्यास भी मेव जाति की कथा के मार्फत सांप्रदायिकता के पूरे कलेवर को उघाड़ते हुए सांप्रदायिकता की राजनीति का देश की अखंडता, भाईचारे, आपसी विश्वास और मूलभूत मुद्दों पर पड़ने वाले प्रभाव को विश्लेषित करता है। इस महादेश के सामूहिकता, एकरसता और भाईचारे को ध्वस्त करने वाली ताकतें कौन-सी हैं क्या यह सिर्फ कट्टर इस्लामी ताकतें हैं या फिर कट्टर हिंदू ताकतें? या फिर दोनों ही? क्या यहाँ का प्रत्येक हिंदू और मुसलमान सांप्रदायिक है? क्यों उन्हें ऐसा बनाया जा रहा है? क्या इसमें स्वार्थी राजनीतिक और धार्मिक ताकतों को सफलता मिल पा रही है? मिल पा रही है तो कितनी? अंततः सत्ता-राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आता है।"34 'काला पहाड़' के औपन्यासिक कथ्य में ये सारी बातें अत्यंत स्वाभाविकता के साथ विन्यस्त हैं। वीरेंद्र यादव लिखते हैं कि "जिन मेवों ने बाबर और अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लिया था जिन्होंने मुस्लिम लीग को भी मेवों का प्रवक्ता न होने देकर पाकिस्तान का विरोध किया था। उन्हें ही बाबरी मस्जिद ध्वंस की छाया में चौधरी करीम हुसैनों, मुर्शीद अहमदों, अभय चंद आर्यों एवं विसंभर सत्यर्थियों के संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के चलते विभाजन की मानसिकता का शिकार होना पड़ा।"35

मेवात का पूरा इलाका जो अपनी दैनंदिन समस्याओं और आर्थिक अभावों के बीच सरकारी उदासीनता के कारण विपन्नता के दिन काट रहा था। सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना के स्तर पर समरसतापूर्ण और काफी उन्नत था। प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चंद्र के अनुसार "सांप्रदायिकता का आधार ही यह धारणा है कि भारतीय समाज कई ऐसे संप्रदायों में बँटा हुआ है जिनके हित ना सिर्फ अलग हैं बल्कि एक दूसरे के विरोधी भी हैं।"36 मेवों की समस्या यह है कि वह सभी पूर्व में हिंदू रहे हैं जिन्होंने बाद में इस्लाम कुबूल कर लिया था। इस तरह पूरी की पूरी मेव जाति कनवर्टेड होने के चलते हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों द्वारा उपेक्षित रही है। प्रोफेसर उस्मानी डॉ. शफीकुर्रहमान से कहते हैं कि "आज भी हम यू.पी. वाले इनसे आसानी से रिश्ते नहीं जोड़ते हैं, पता है क्यों...? इसलिए कि एक तो ये कनवर्टेड मुसलमान हैं... दूसरा इनके यहाँ आज भी रिश्ता करते वक्त हिंदुओं की तरह माँ, दादी, नानी और खुद का गोत्र बचाया जाता है... हमारी तरह सिर्फ माँ का दूध नहीं बचाया जाता... आज भी इनके रस्मो-रिवाज हिंदुओं के काफी नजदीक हैं।"37

प्रोफेसर उस्मानी की यह बात सिद्ध करती है कि देश के बाकी मुसलमान मेवों को मुसलमान नहीं मानते जबकि हिंदू उन्हें मुसलमान ही मानते हैं। यही कारण है कि मेवात में सांप्रदायिक माहौल बनने पर इस देश के लिए बलिदान देने वाले मेवों के भीतर अलगावबोध पैदा होता है और सलेमी पछतावे के साथ कहता है कि "मैं तो रात-दिन बस वा घड़ी ए कोसतो रहूँ... जा घड़ी हमने पाकिस्तान जाण सू ना कर दी थी।"38 सलेमी के मन की यह पीड़ा इसलिए उभरकर सामने आ जाती है क्योंकि जिस समाज के लिए, जिस देश की अखंडता के लिए उन्होंने लहू बहाए थे उसी देश में उनकी राष्ट्रीय पक्षधरता पर प्रश्नचिह्न लगाया गया। बनवारी अखबार में छपने वाली रिपोर्ट के बारे में कहता है कि "ताऊ यही छप रही है के मेवात में कभी भी कुछ हो सकता है... बल्कि एक अखबार ने तो यहाँ तक लिखा है कि कोई बड़ी बात नहीं यह इलाका आने वाले टैम में दूसरा पाकिस्तान ही बन जाए...।" 39 वह आगे कहता है कि "इस इलाके का अब कोई भरोसा नहीं रहा... अरे आज तो हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ तोड़ी जा रही हैं, हमारे साधु-संतों को मारा-पीटा जा रहा है... कल को हमें भी मारा जाएगा... हमारे ही सामने हमारी बहन बेटियों पर हराम किया जाएगा... अगर यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं जब यह मेवात सचमुच दूसरा पाकिस्तान बन जाएगा।"40

जिस सांप्रदायिक अस्मिता के बोध से बनवारी यह सारी उपर्युक्त बातें कहता है। ठीक वैसी ही सांप्रदायिक अस्मिता के बोध के चलते सुभान खाँ रामदेई से दिवाली के दिए लेने से मना करता है। उसका यह कथन कि "हमारे कौण-सी होली-दीवाली मने हैं जो हम दीवा लेएँ...?"41 उस सांप्रदायिक चेतना का द्योतक है। जिस सांप्रदायिक बोध को धार्मिक राजनीति वाले अपना हथियार बनाते हैं। एक बार सांप्रदायिक सोच मस्तिष्क पर प्रभावी होने के बाद अपने संप्रदाय से ही अपने अस्तित्व को जोड़कर देखने लग जाता है और सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ जैसा चाहें उसका लाभ उठा सकते हैं। सांप्रदायिक राजनीति करने वाले स्थितियाँ अपने पक्ष में बनाने के लिए सदैव एक फासीवादी माहौल बनाते हैं जिससे उस वैचारिक आग्रह से बच पाना असंभव हो। सलेमी पूरे मेवात में उभारी जा रही सांप्रदायिक शक्तियों को समझता है। वह कहता है कि "क्या सचमुच मेवात से बाहर यह खबर खूब जोरों से प्रचारित की जा रही है कि यहाँ हिंदुओं की अस्मिता सुरक्षित नहीं है? लेकिन इलाके में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता है सिवाय इसके कि बडकली चौक पर रिक्शों की तादात दिन पर दिन बढ़ती जा रही है, और खेतों में दूर-दूर तक सिवाय धूल उड़ने के कुछ नहीं दिखाई देता है।"42

सलेमी की समझ और मेवात में शांति और सौहार्द बनाए रखने के लिए किए जाने वाले उसके प्रयासों के बाद भी मेवात का पूरा इलाका सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होता है। सलेमी और अन्य लोग निरंतर प्रयास करते रहे किंतु फासीवादी ताकतें अपनी ताकत दिखाती रहीं। सांप्रदायिकता के इस खेल के द्वारा ही मेवात के विकास और उससे जुड़े अन्य मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सकता था इसलिए मेवात में सांप्रदायिक स्थितियाँ बनीं। सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की सारी साजिशों और उसमें सहयोग देने वाली ताकतों को समकालीन हिंदी उपन्यास जिस स्पष्टता के साथ पाठकों के सामने रखते हैं, वह एक सुखद पक्ष है।

संदर्भ :

1. भारत में सांप्रदायिकता : इतिहास और अनुभव, असगर अली इंजीनियर, पृष्ठ-13 (भूमिका से)

2. वही, पृष्ठ-27

3. राजनीति की किताब/रजनी कोठारी का कृतित्व (सं.) अभय कुमार दुबे (सांप्रदायिकता का अष्टावक्र), पृष्ठ-254

4. भारत में सांप्रदायिकता : इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-12 (भूमिका से)

5. सांप्रदायिकता : एक सचित्र परिचय, राम पुनियानी, पृष्ठ-44

6. वही, पृष्ठ-44

7. हिंदू राष्ट्रवाद और उसका यथार्थ, कृष्णा झा, पृष्ठ-27

8. फासीवाद और उसकी कार्य पद्धति, पामीरो तोग्लियात्ती

9. भारत में सांप्रदायिकता : इतिहास और अनुभव, असगर अली इंजीनियर, पृष्ठ-12 (भूमिका से)

10. सांप्रदायिकता : एक सचित्र परिचय, राम पुनियानी, प्राक्कथन से

11. हमारा शहर उस बरस, गीतांजलि श्री, पृष्ठ-22

12. वही, पृष्ठ-28

13. वही, पृष्ठ-44

14. गुजरात के बाद..., रावेना रॉबिन्सन एवं डी. पार्थ सारथी का लेख संकलित, धर्म, सत्ता और हिंसा (सं.) राम पुनियानी, पृष्ठ-274

15. हमारा शहर उस बरस, गीतांजलि श्री, पृष्ठ-172

16. हिंसा और अस्मिता का संकट, अमर्त्य सेन, पृष्ठ-11

17. हमारा शहर उस बरस, गीतांजलि श्री, पृष्ठ-239

18. कितने पाकिस्तान, कमलेश्वर, पृष्ठ-68

19. वही, पृष्ठ-70

20. वही, पृष्ठ-70

21. सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या, राम शरण शर्मा, पृष्ठ-12

22. कितने पाकिस्तान, कमलेश्वर, पृष्ठ-93

23. सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस, विभूति नारायण राय संकलित सांप्रदायिकता का जहर (सं.) डॉ. रणजीत, पृष्ठ-154

24. मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र और हिंदी उपन्यास, कुँवर पाल सिंह, पृष्ठ-188

25. हिंदी उपन्यास : समय से संवाद, रोहिणी अग्रवाल, पृष्ठ-200

26. आखिरी कलाम, दूधनाथ सिंह, पृष्ठ-150

27. वही, पृष्ठ-268

28. आधुनिक हिंदी उपन्यास 2, (सं.) नामवर सिंह, पृष्ठ-324

29. आखिरी कलाम, दूधनाथ सिंह, पृष्ठ-327

30. वही, पृष्ठ-321

31. वही, पृष्ठ-150

32. वही, पृष्ठ-150

33. वही, पृष्ठ-276

34. आधुनिक हिंदी उपन्यास 2, (सं.) नामवर सिंह, पृष्ठ-254

35. उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेंद्र यादव, पृष्ठ-158

36. हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ. अमरनाथ, पृष्ठ-367

37. काला पहाड़, भगवनदास मोरवाल, पृष्ठ-87

38. वही, पृष्ठ-455

39. वही, पृष्ठ-269

40. वही, पृष्ठ-270

41. वही, पृष्ठ-259

42. वही, पृष्ठ-272


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हिंदी समय में अरुण कुमार पांडेय की रचनाएँ