साहित्यिक प्रवृत्तियों की एक अलग धारा का स्वरूप जानकीवल्लभ शास्त्री की
रचनाशीलता में दिखाई देता है। संस्कृति, भाषा और परंपरा के नैरंतर्य का
निर्वाह उनकी विशेषता है। परंपरा को जितनी गहराई से उन्होंने लिया, और
आधुनिकता को जितनी खुली दृष्टि प्रदान की, वह उनकी विशिष्ट पहचान के लिए
पर्याप्त है। भारतीय ज्ञान धारा और संस्कृति को शास्त्री जी से काव्यात्मक
अभिव्यक्ति मिली है। सच्ची बात यह है कि वे जीवन द्रव्य के कवि हैं। जीवन में
डूबकर, जीवन मूल्य को उबारने वाले कवि। इनके काव्य व्यक्तित्व को लेकर अनेक
तरह के विवाद होते रहे हैं। छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को आलोक पथ में
रखकर उनके कृतित्व को कसने, ढीला करने और उसके तिनके-तिनके को समेटकर, उसके
अणु-परमाणुओं तक को छान डालने की घोषणा होती रही है। इन बहसों में शास्त्री जी
के कृती व्यक्तित्व को लेकर हिंदी साहित्य में पर्याप्त मतभेदों का रूप दिखाई
देता है। दरअसल उनकी मनोरचना और सृजन के भावस्फुरित स्वरूप को लेकर भी असमंजस
रहा है। अपने समकालीन रचनात्मक चलन के अभ्यास से बाहर होने के कारण भी उनके
प्रति काफी कुछ संशय बरकरार रहा, किंतु नलिन विलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे,
नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि अनेक विद्वानों ने समय-समय पर
अपने-अपने ढंग से, अलग-अलग उन्हें स्वीकार किया है।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के संबंध में मानना है कि ''जीवन-पथ पर निर्भीक
हो, अप्रतिहत गति हो, बढ़ते चलने का निर्देश, चाहे जिन गुरुओं से मिला हो, पर
राह पर दीप तो उन्होंने खुद जलाया है।''1 एक साधक के लिए दीप
जलाना, अपने यात्रा पथ पर खुद को जलाना होता है। निश्चय ही, उन्होंने किसी के
घर जाकर न तो आग उधार माँगी है और न दूसरे के दीपक से अपने घर का दीप जलाया
है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का काव्य निर्माण, वस्तुतः उनका आत्मनिर्माण
है। उन्हीं के शब्दों में - ''आत्म-निर्माण काव्य-निर्माण से कम कठिन नहीं है,
प्रत्युत मैं तो अपने अबाध अनुभव से यह कह सकता हूँ कि काव्य-निर्माण सबसे सरल
है।''2
वस्तुतः आचार्य जानकीवल्ल शास्त्री कल्पना और अनुभूति के कवि थे। एक उन्मुक्त
आंतरिकता उनके भीतर जीवन मधु का संचय करती रही है। गीत-गाथा पर विचार करते हुए
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री लिखते हैं - ''बड़ी मुश्किल से आती है सहजता, सच
तो यह है कि जीवन में ऋजुता न हो तो कला में सहजता संभव ही नही। सहजता स्वधर्म
में अटूट निष्ठा से आती है। इसे यों समझा जा सकता है कि कलाकार का हृदय जितना
कोमल होगा, अनुभूतियों को ग्रहण करने वाली क्षमता उतनी ही प्रखर होगी।'' 3
इस ऋजुता के लिए जीवन में बंधनों से विद्रोह या घृणा के स्थान पर मैत्री करनी
पड़ती है, विपरीत लगने वाली प्रवृत्तियों को अनुशासन के दायरे में लाना होता
है और इस प्रकार बंधन ही मुक्ति का साधन बन जाता है। बंधन उनके लिए बुरा है जो
इसे बोझ मानते हैं, उनके लिए नहीं जो इसे मित्र मानकर पालते हैं। कवि कहता है
-
''बंधन मन अभ्यास पास से
ज्यों घन गर्जन तड़ित हास से
इस बंधन के गहन गमन से
मुक्ति मर्म निर्मल छन आता।''4
किंतु ऋजुता का अर्थ उसे मालूम है। ऋजुता के वैयक्तिक स्रोतों से भी वह सावधान
है। इसलिए वह अपनी सृजन साधना को जीवनानुभवों के निकट एक छतरी सदृश्य बना लेता
है। तो वह सहजता की ही स्वीकृति देता है। क्योंकि बड़ी वेदनाओं की बाढ़
निहारने वाले व्यक्ति की दृष्टि, और चाहे जो हो, सूक्ष्म नहीं होती। स्थूल
आँखों से बाढ़ का प्रसार देखा जा सकता है मगर लघु अस्तित्व वाले प्राणियों,
फूल-पत्तों और प्रकृति के लघु उपादानों की व्यथा को तो कोई सूक्ष्म ही अनुभव
कर सकता है। इसलिए स्थूल दृष्टि संपन्न कला सरल भले हो, सहज नहीं होती।
जिन लघु तत्व के सहारे कवि ने अपनी काव्य साधना की है, वही उसकी सहजता और
ऋजुता का प्रतीक बना है, जो तथाकथित बड़प्पन को छोड़कर, क्षणों और कणों को
महत्वपूर्ण दृष्टि से देखता है। वही बड़ा है, वही सहज साधक है। सहजता कवि की
ख्यातिलब्ध संगीतिका 'तमसा' में और अधिक स्पष्ट और प्रभावोत्पादक रूप में
प्राप्त होती है। ''मैं तो सहजता को ही सर्वाधिक प्रभावोत्पादक मानने वाला
हूँ, सहजता जो सिकुड़न और फैलाव, पस्ती और चक्करदार घाटियों से नहीं कतराती,
बियाबान में अपनी ही प्रतिध्वनियों से नहीं चौंकती-चीखती, बस जलन पिए दिए की
हँसमुख लौ की तरह मधुर-मधुर जलती रहती है।''5
कवि मानता है कि साधना के सहारे कवि उस सीमा पर पहुँच जाता है, जहाँ सरल और
वक्र रेखाओं तथा वृत्त और आयताकार क्षेत्रों को उरेहने में किसी प्रकार की
असुविधा नही होती। दूसरे शब्दों में सहज-साधना शिव साधना है, गरल सृजित होती
है, जो पूज्य भी होती है।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने 'हंसबलाका' में सहजता को अपने काव्यदर्श के रूप
में स्वीकार किया है - ''मैंने आशा-निराशा, ध्वंस निर्माण एवं जीवन-मरण को
काव्य में यथारूप प्रतिफलित हो जाने दिया है। मैं जहाँ, जब जिस रूप में सहजता
से अभिव्यक्त हो सका हूँ, उसे ही अपनी सफल काव्य-कला समझता हूँ, भले ही वह
किसी विशेष मानदंड के अनुसार निपट निस्सार और निष्फल हो।''6
अपनी सृजन साधना में वस्तुजगत को छानकर भावजगत समृद्ध करने वाले इस कवि की
प्रतिभा नवोन्मेषी है। सुंदरतम रचने का उनका आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। कहीं
गहरे वे सचेत ढंग से तत्सम के कवि हैं। भाव और भाषा की मनोहारिता चुनना भी
उनका कवि स्वभाव है।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का काव्य, समुद्र की तरह गंभीर है इसलिए वह अपनी
गंभीरता से पाठकों को बाँधता है, उत्तालता से उद्वेलित करता है और नव प्रयोगों
की चंचल लहरियों से गुदगुदाता है। इस पूरी प्रक्रिया में उनकी प्रतिभा-तरंगें
तट पर मणियाँ फेंकती हैं। 'रूप-अरूप', 'मेघगीत', 'शिप्रा', 'पाषाणी', 'तमसा',
'राधा' आदि कृतियाँ शास्त्री जी के प्रतिभा सागर से निकली मणि है। यह जगमगाहट
आलोड़न भरी साधना की है। शास्त्री जी की पूरी काव्य यात्रा साधना की यात्रा
है, सहज साधना की यात्रा।
वे गंभीर अध्येता और खुली दृष्टि वाले संवेदनशील मनुष्य थे। भारतीय दर्शन,
काव्यशास्त्र और वेद उपनिषद आदि के अध्ययन-मनन से जहाँ उनके ज्ञान भंडार में
मोतियों का ढेर लगा है, वह अंग्रेजी, उर्दू एवं बंगला के कालजयी कवियों की
रचनाओं के अनुशीलन से उनकी काव्य प्रतिभा शोधित होकर धारदार और प्रखर बनी है।
शास्त्री जी ने लगभग दो हजार गीत, दो सौ ग़ज़लें, तीन दर्जन से ऊपर गीति नाट्य
और पाँच सौ से अधिक स्फुट कविताएँ लिखी हैं।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में समान रूप से
लिखा है। 'स्मृति के वातायन', 'हंसबलाका', 'कर्मक्षेत्रे-मरुक्षेत्रे', 'एक
असाहित्यिक की डायरी', 'अष्टपदी', 'कालिदास' जैसे उत्कृष्ट महाकाव्यात्मक गद्य
साहित्य को देखने के बाद यह निर्णय देना कठिन है कि आचार्य जानकीवल्लभ
शास्त्री समग्र रूप में कवि हैं या गद्यकार।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को एक लंबा सृजनात्मक जीवन मिला। अपनी जीवन विधि
की दृष्टि से भी वे एक विलक्षण शख्सियत थे। मनुष्य ही नही पशु-पक्षी,
लता-पुष्प सब उनके सहचर हुए। एक विस्तृत घरौंदा था उनका और सुसंस्कृति की एक
बड़ी आत्मीय लय उनके वजूद से फूटती थी। अनवरत रचनाधर्मिता का स्रोत भी, उनका
यह जीवन ही था जिसमें आखिरी दिनों में उनका एकांत सघन होता गया था। उनके पास
आधुनिक हिंदी साहित्य के पुरोधाओं से साहचर्य की अपार स्मृतियाँ थीं। निराला
जी से उनका बड़ा ही अनूठा साहचर्य था। 7 अप्रैल 2011 को उनकी मृत्यु हुई।
विस्मृति के हमारे इस दौर ने उनको लगभग भुला रखा था, किंतु जिस जातीयता की
प्राणधारा का हम संधान करना चाहते हैं उसका एक मजबूत स्तंभ जानकीवल्लभ
शास्त्री थे। उनके पाठ में नए ढंग से प्रवेश करने की आवश्यकता है।
संदर्भ सूची
1
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सत्येंद्र प्रसाद सिंह, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का गीति काव्य, पृ. 22
2
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आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, हंसबलाका, पृ. 76
3
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सत्येंद्र प्रसाद सिंह, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का गीतिकाव्य, पृ. 24
4
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सत्येंद्र प्रसाद सिंह, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का गीतिकाव्य, पृ. 24
5
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आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, तमसा की भूमिका से उद्धृत
6
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आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, हंसबलाका, पृ. 81