संवेदना शब्द भाषा की दृष्टि से स्त्री लिंग है जिसका अर्थ है - समान वेदना
प्रकट करने का भाव या दुख की अनुभूति या सहानुभूति। "अँग्रेजी में इसे सिंपैथी
या फेलो फीलिंग कह सकते हैं। मूलतः संवेदना का अर्थ ज्ञान या ज्ञानेंद्रियों
का अनुभव किया जाता है।"1 मनोविज्ञान के अनुसार संवेदना उत्तेजना
के संबंध में देह रचना की सर्वप्रथम सचेतन प्रतिक्रिया है। उत्तेजना का हमारे
मन मस्तिष्क तथा नाड़ी तंतुओं द्वारा प्रभाव पड़ने पर ही उसकी संवेदना महसूस
होती है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं करती। जैसे मनोहारी संगीत सुनने के
बाद हम अपना आकर्षण नहीं रोक सकते। यही कारण है कि हमें बच्चों की तोतली बोली
भी संगीत की तरह लगती है और हम आनंद की दुनिया में पहुँच जाते हैं। किंतु आज
हमारे सामने बच्चों के बचपन को बचाने की चुनौती है। मुझे ऐसा लगता है कि हमारे
सामने दो तरह की चुनौती है। पहली चुनौती है - बच्चों के ऊपर अति शिक्षा का
दबाव समाप्त करना। किताबों का बोझ उठाते-उठाते उनकी स्वाभाविक सहजता गायब होती
जा रही है। उनके पास खेलने का समय नहीं है। स्कूल से पढ़कर आते ही होम ट्यूशन
वाले सर आकर डाँटते हैं - अभी तुम कल का होमवर्क नहीं किए हो़ और फिर कल जो
याद करने के लिए कह कर गए थे वो याद क्यों नहीं हुआ? जाते हुए पुनः ढेर सारे
होमवर्क। अर्थात अति शिक्षा का दबाव होने से बच्चों का बचपन हाशिए पर है।
दूसरी चुनौती है - बाल मजदूरी को समाप्त करना। आज भी हमारे समाज में बहुत से
ऐसे बच्चे हैं, जो बाल मजदूरी करने के लिए विवश हैं। अपने माता-पिता के साथ
पूरे दिन ईंट के भट्ठों पर लूँ में तो कभी खेतों में बर्फीली ठंड में काम करते
हैं। चलने-फिरने वाले बच्चों की बात ही छोड़िए, मजदूर के बच्चे तो काम करती हुई
माँ के पीठ पर युद्ध में लड़ने वाली झाँसी की रानी के बच्चे की तरह संघर्ष करते
हैं। खेत में जब किसान की पत्नी काम करती है तो उनके नवजात शिशु का पलना उस
ईंट भट्ठे पर काम करने वाली झाँसी की रानी के पीठ के तरह खेतों की डाँड़ होता
है, जहाँ ऐसे विपरीत परिस्थितियों में भी वे बच्चे खिलखिलाकर हँसते हैं, किंतु
अपनी आर्थिक गरीबी के कारण शिक्षा के अभाव में जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं
उनकी स्वाभाविक खिलखिलाहट गायब होती चली जाती है और वे फिर अपने माता-पिता के
मजदूरी वाली परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। कंपनियों में ऐसे मजदूरों की भीड़ देखी
जा सकती है। सबसे अधिक हृदय को आघात तब लगता है जब मैं उन छोटे-छोटे बच्चों को
देखता हूँ जो कभी स्टेशन पर तो कभी मंदिरों के सामने भीख माँगते हैं जिनके पास
वो सारी योग्यता होती है जो रोजाना स्कूल जाने वाले बच्चों में होती है। यथा -
बच्चों को खेलते देखकर चेहरे पर मुस्कान छा जाती है,
उनको पढ़ते हुए देखकर सपनों को उड़ान आ जाती है।
बच्चों का भोलापन किसे अच्छा नहीं लगता?
मगर, भीख माँगते हुए देखकर जान निकल जाती है।
अँग्रेजी के एक विद्वान ने कहा था - "किसी देश की समृद्धि और उसकी सभ्यता के
विषय में जानने की जिज्ञासा हो तो उस देश के बच्चों को देख लीजिए। आपको तुरंत
ही ज्ञात हो जाएगा कि वह देश कितना खुशहाल है।"2
अँग्रेजी के महान कवि वाल्टर डिलामेर का मानना है कि - "उत्तम कोटि के साहित्य
में भी जो सर्वोत्तम है, उसी को ही बच्चों का साहित्य माना जा सकता है।" गांधी
जी ने एक नारा दिया था - "बच्चों की मुस्कान देश की शान।"
वास्तव में किसी देश की समृद्धि की पहचान उसके बच्चे होते हैं। वे ही देश की
बहुमूल्य निधि, आधार स्तंभ और भावी कर्णधार होते हैं।
बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू ने भी इस ओर इंगित करते हुए ये कहा था - "मैं
हैरत में पड़ जाता हूँ कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग
तारों को देखते हैं। मैं ज्योतिष की गिनतियों में दिलचस्पी नहीं रखता। मुझे जब
हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है, तो मैं बच्चों की आँखों और
चेहरों को देखने की कोशिश करता हूँ। बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे
जाते हैं।"3
महाकवि तुलसीदास जी ने जब अपना विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस लिखा था
तो उसके सात कांडों में सबसे पहले बालकांड की रचना की थी। कवितावली में
श्रीराम बाल रूप में कभी चंद्रमा को माँगने का हठ करते हैं, कभी अपनी परछाहीं
देखकर डरते हैं, कभी हाथ से ताली बजा-बजाकर नाचते हैं, जिससे सब माताओं के
हृदय आनंद से भर जाते हैं। कभी रूठकर हठपूर्वक कुछ माँगते हैं और जिस वस्तु के
लिए अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं -
कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।।
कबहुँ रिसिआइ कहैं हठिकै पनि लेत सोइ जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।।4
महाकवि सूरदास जी ने भी अपने महाकाव्य सूरसागर में भी सबसे पहले श्रीकृष्ण की
बाल लीलाओं का ही वर्णन किया है। सूरदास का वात्सल्य वर्णन हिंदी साहित्य की
अनुपम निधि है। श्रीकृष्ण के बाल सौंदर्य की झाँकी के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान
का जैसा चित्रण सूरकाव्य मे उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। बालक की
चेष्टाएँ, माता के हृदय की आशंकाएँ, पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव, बाल
वृत्तियों का निरूपण, मातृ हृदय की झाँकी आदि का मर्मस्पर्शी एवं मनोहारी
चित्रण सूरदास ने किया है। उनकी इस विशेषता को लक्ष्य कर आचार्य रामचंद्र
शुक्ल ने लिखा है - "बाल सौंदर्य एवं स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सूर को
मिली है, उतनी अन्य किसी को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना
झाँक आए हैं।" सूर के वात्सल्य में स्वाभाविकता, विविधता, रमणीयता एवं
मार्मिकता है जिसके कारण वे वर्णन अत्यंत हृदयग्राही एवं मर्मस्पर्शी बन पड़े
हैं। यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ हृदय का ऐसा स्वाभाविक, सरल और हृदयग्राही
चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। वात्सल्य के दोनों पक्षों-संयोग एवं वियोग
का चित्रण सूर काव्य में उपलब्ध होता है। वात्सल्य के संयोग पक्ष में उन्होंने
एक ओर तो बालक कृष्ण की रूप माधुरी का चित्रण किया है तो दूसरी ओर बालोचित
चेष्टाओं का मनोहारी वर्णन किया है। यथा :
काहे को आरि करत मेरे मोहन! यो तुम आँगन लोटी?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुट लिये छोटी।।5
कृष्ण कहीं घुटनों के बल चल रहे हैं तो कहीं मुख पर दधि का लेप किए दौड़ रहे
हैं। कहीं अपने प्रतिबिंब को पकड़ने की चेष्टा कर रहे हैं, तो कहीं किलकारी भर
रहे हैं। एक चित्र देखिए :
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटरुन चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।6
कृष्ण माखन चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़े गए हैं, मुख पर माखन लगा हुआ है फिर
भी तर्क देकर माता के सामने अपनी निर्दोषता प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि -
मैया मैं नहीं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो।।
प्राचीन काल में भी पंचतंत्र, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी जैसे अनेक ग्रंथों
की रचना हुई थी।
प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ. श्रीप्रसाद के अनुसार - "बाल साहित्य बच्चों में
साहित्यिक संस्कार तथा साहित्य के प्रति अभिरुचि जगाकर बालकों के व्यक्तिव को
नए साँचे में ढालता है। बाल साहित्य बाल शिक्षा का पूरक भी है। बाल साहित्य
बालकों के अपने संसार से परिचित कराकर उनके व्यक्तित्व को संतुलित बनाता है।"
बाल कविता का आशय है ऐसी कविताएँ जो बच्चों के मन के अनुकूल हों और जिनको गाकर
अथवा पढ़कर बच्चे आनंद से भर जाएँ। ऐसी रचनाएँ लिखने वाले प्रसिद्ध रचनाकारों
में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, हरिऔध, रामवृक्ष बेनीपुरी, रोहिताश्व अस्थाना,
श्री प्रसाद आदि हैं। उदाहरणस्वरूप प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्री प्रसाद की
कविता "बड़ा मजा आता" प्रस्तुत है -
रसगुल्ले की खेती होती / बड़ा मजा आता
चीनी सारी रेती होती / बड़ा मजा आता
बाग लगे चमचम के होते / बड़ा मजा आता
शरबत के बहते सब सोते / बड़ा मजा आता
चरागाह हलुए का होता / बड़ा मजा आता
क्या कोई हलुए को रोता? / बड़ा मजा आता
बरफी के होते सब पर्वत / बड़ा मजा आता
लड्डू के सब खानें होतीं / बड़ा मजा आता
घर में दुनिया पेड़े बोती / बड़ा मजा आता
रुपये की दस किलो मिठाई / बड़ा मजा आता
होते रुपये पास अढ़ाई / बड़ा मजा आता।7
किंतु आज हमारे सामने बच्चों के बचपन को बचाने की चुनौती है। मुझे ऐसा लगता है
कि हमारे सामने दो तरह की चुनौती है। पहली चुनौती है - बच्चों के ऊपर अति
शिक्षा का दबाव समाप्त करना। किताबों का बोझ उठाते-उठाते उनकी स्वाभाविक सहजता
गायब होती जा रही है। उनके पास खेलने का समय नहीं है। स्कूल से पढ़कर आते ही
होम ट्यूशन वाले सर आकर डाँटते हैं - अभी तुमने कल का होमवर्क नहीं किया है और
फिर कल जो याद करने के लिए कहा था वो याद क्यों नहीं हुआ? जाते हुए पुनः ढेर
सारे होमवर्क। अर्थात अति शिक्षा का दबाव, जिससे बच्चों का बचपन हाशिए पर है।
बच्चों के ऊपर अति शिक्षा के दर्द को समझने में डॉ. श्री प्रसाद की कविता
"बस्ते का बोझ" अत्यंत महत्वपूर्ण है -
मेरे इस भारी बस्ते को, कर दे कोई कम
बारह कापी, आठ किताबें, इसमें भरता हूँ
फिर खाने का अपना डिब्बा, इसमें धरता हूँ
वजन बढ़ाता कलरबक्स भी, खड़िया, स्लेट, कलम।
मेरा एक बोझ बन जाता, विद्या का बस्ता
गिर-गिर पड़ता, किसी तरह से, कटता है रस्ता
छिल-छिल जाता कंधा, लगता है निकलेगा दम।
इस बस्ते से कमर झुक गई, टेढ़ी कमर हुई
सब कहते हैं बच्चे होते, कोमल, छुई-मुई
देख दशा माता सरस्वती की आँखें हैं नम।
इधर ज्ञान है एक बोझ सा, उधर फूल-फूले
रटो सभी इतिहास, उधर तितली झूला झूले
महके महुआ, कोयल गाए, मोर करे छम-छम।
खेल कूद कम हुआ हमारा, केवल पढ़ना है
यह बनना है, वह बनना है, आगे बढ़ना है
कविता गई कहानी छूटी गीत गए सरगम।
खेलें पढ़ें हँसे, मुसकाएँ नाचें फूलों से
घूमें झूमें करें काम कुछ, सीखें भूलों से
छीन रहा है खुशियाँ बस्ता, बढ़ा रहा है गम।
मेरे इस भारी बस्ते को, कर दे कोई कम।।
इसी प्रकार शिव मृदुल की कविता "बस्ता हल्का कर दो राम" बोझ से दबे हुए एक
बच्चे की विनती है -
विद्यालय का लंबा रस्ता
भारी भरकम मोटा बस्ता
लाद-लाद कर हालत खस्ता
हाथ जोड़कर करें प्रणाम
बस्ता हल्का कर दो राम।।8
दूसरी चुनौती है - बाल मजदूरी को समाप्त करना। बाल श्रमिक हमारे देश की दुखती
रग हैं। हजार कानून बने, किंतु बाल श्रमिकों का शोषण अब भी जारी है। उन्हें
अपने शिक्षा के अधिकार की जानकारी भी कानून नहीं दे सका। बाल श्रमिकों के
माता-पिता पेट की आग की गिरफ्त में पड़कर बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते।
"भोलू" नामक कविता में बाल श्रमिक भोलू का साथी उसे स्कूल भेजने के लिए
प्रेरित करता है, तो भोलू उत्तर देता है कि ठीक है मैं पढ़ने जाऊँगा, परंतु
अच्छा पढ़ने की तनख्वाह क्या दोगे? कवि रमेश तैलंग यहाँ उन बच्चों का हाहाकार
उकेर सके, जो पेट की पीड़ा को साकार कर रही है -
देर रात में सोता हूँ / कप और प्याली धोता हूँ
रोते-रोते हँसता हूँ / हँसते-हँसते रोता हूँ।
यहाँ बाल मजदूर की लाचारी देखी जा सकती है, जिसकी चिंता न समाज को है, न तो
शासन को है।
प. रामनरेश त्रिपाठी का एक बालगीत प्रस्तुत है -
आई एक छींक नंदू को
एक रोज वह इतना छींका
इतना छींका, इतना छींका
इतना छींका, इतना छींका
सब पत्ते गिर गए पेड़ के
धोखा उन्हें हुआ आँधी का।9
संवेदना के धरातल पर उतर कर बाल मन को समझने वाले कुशल शब्द चितेरे डॉ. भगवती
लाल व्यास ने "धरती की शान" और "फूलों की मुस्कान" बने बच्चों की पीड़ा को जिस
प्रकार शब्दों में पिरोते हैं, वह कितना सटीक लगने लगता है -
कोई बच्चा कभी ना रोए / भूखा कोई कभी ना सोए।
मजदूरी की चक्की में पिस / खेल कूद के दिन ना खोए।
लुटे न बचपन की पहचान / बच्चे सब हैं एक समान।
ऐसे में कोई कैसे भूल सकता है कि बच्चे हैं तो राष्ट्र है और राष्ट्र है तो
जीवन है।
मुझे पूरा विश्वास है कि जब हम इस प्रकार के बच्चों के ऊपर सेमिनार करेंगे,
लेख लिखेंगे, कविताएँ लिखेंगे तब इन सब चीजों के प्रेरणा से ही भविष्य में उन
बालकों का भविष्य और बाल साहित्य का भी भविष्य उज्ज्वल होगा।
आईना है दुनिया का हर एक बच्चा
उसमें भविष्य नजर आता है।
पत्थर मत मारो अति बौद्धिकता का उस पर
वरना टूटकर बिखर जाएगा।।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1.
हिंदी साहित्य कोश, भाग-1, प्रधान सं. डॉ. धीरेंद्र वर्मा, प्रकाशन ज्ञानमंडल
लिमिटेड, वाराणसी, 2013, पृ. - 707
2.
समकालीन बाल साहित्य : परख और पहचान, डॉ. सुरेंद्र विक्रम, कुशी प्रकाशन,
लखनऊ, प्रथम संस्करण 1998,
3.
वही
4.
कवितावली, तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, पृ. - 2
5.
हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, अनुपम प्रकशन पटना, संस्करण
2008, पृ. - 112
6.
वही
7.
बालवाटिका, जनवरी, 2015, संपादक भैरूँलाल गर्ग, पृ. - 25
8.
समकालीन बाल साहित्य : परख और पहचान, डॉ. सुरेंद्र विक्रम, कुशी प्रकाशन,
लखनऊ, प्रथम संस्करण 1998, पृ. - 122
9.
हिंदी बाल साहित्य विविध परिदृश्य, डॉ. सुरेंद्र विक्रम, अनुभूति प्रकाशन
इलाहाबाद, 1997, पृ. - 85