भारत अनेक जातियों-जनजातियों, धर्म पंथों तथा संस्कृति संप्रदायों का भंडार है। जाति व्यवस्था भारतीय सामाजिक व्यवस्था का प्राण-तत्व है। हमारी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जनजातियों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। जनजाति, जिन्हें हम आदिवासी, अनुसूचित जनजाहत एवं भूमिजन के नाम से जानते हैं, भारत के विभिन्न प्रांतों में निवास करती हैं। नगर से दूर वन्य प्रदेशों और बीहड़ जंगलों में प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने वाली इन आदिम जातियों की लोक-संस्कृति में धरती की सोंधी खुशबू प्राकृतिक वातावरण में पल्लवित और पुष्पित होती है। वास्तव में ये आदिवासी वन-पुत्र हैं। गिलिन और गिलिन ने अपनी रचना 'कल्चरल एंथ्रोपोलॉजी' में जनजाति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि - "स्थानीय जनजातीय समूहों का ऐसा समवाय जनजाति कहा जाता है जो एक सामान्य क्षेत्र में निवास करता है, एक सामान्य भाषा का प्रयोग करता है तथा जिसकी सामान्य संस्कृति है।" 1 प्रारंभ से ही ये आदिवासी प्रकृति के निकट रहे थे। ये प्रकृति प्रेमी होते हैं तथा आज के वैज्ञानिक युग में भी प्राकृतिक जीवन जीना पसंद करते हैं।
वर्तमान में भारत में जनजातीय समूहों की कुल संख्या 700 से अधिक है, जिनमें प्रमुखतः कोल, भील, संथाल, मुंडा, उराँव आदि हैं, जिसमें भील एक बड़ी जनजीति के रूप में उभरी है। भील मध्य प्रदेश की दूसरी बड़ी जनजाति है। ये लोग भिलाला तथा भील गरासिया भी कहलाते हैं। मध्य प्रदेश में ये मुख्यतः खरगोन, धार, झबुआ और रतलाम जिलों में निवास करते हैं। इन जिलों के अतिरिक्त पूर्व निमाड़ (खंडवा) जिले में भी वे पर्याप्त संख्या में रह रहे हैं। मालवा और निमाड़ अंचल के विभिन्न नगरों में निर्माण कार्य में संलग्न मजदूरों के रूप में भीलों को बड़ी संख्या में देखा जा सकता है। भील शब्द की उत्पत्ति के संबंध में यह माना जाता है कि - "इस शब्द की उत्पत्ति मूलतः उच्चारण संबंधी भेद के कारण संस्कृत के मूल शब्द 'भिद्' से हुई है। भिद का भावार्थ है बंधना, भेदना, वेधना (लक्ष्य को वेधना) आदि।"2 ऐसा माना जाता है कि ऋषि वाल्मीकि स्वयं भील थे तथा उनका मूल नाम वालिया था। इसी प्रकार महाभारत में धनुर्विद्या में प्रवीण प्रसिद्ध एकलव्य भी भील जनजाति थे, जिन्होंने गुरु दक्षिणा में अपना अँगूठा काटकर दे दिया था। भील स्वयं को प्रकृति-पुत्र कहते हैं। भील साहसी और पराक्रमी होते हैं तथा वे जीवट के पक्के व आत्माभिमानी होते हैं। वनों से उनका भावनात्मक जुड़़ाव है। भील जनजाति की अपनी अलग वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, भाषा तथा जीवन शैली है। इनकी अपनी पृथक संस्कृति है जो लोक से बहुत ही गहराई से जुड़ी हुई है।
विश्व की सभी जातियों एवं संप्रदायों में तीज-त्यौहार मनाने का प्रचलन अनादिकाल से चला आ रहा है, जिनसे उनकी लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। भील जनजाति हर्षोल्लास से अपने त्यौहार मनाती है। उनका सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार होली है। होली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला इनका पर्व 'गल' कहलाता है। यह मनौतियों का त्यौहार है। अभावग्रस्त भील समुदाय इस पर्व में विविध मनौतियों को माँगता है और यदि मनोकामना पूरी हुई तो वह गल के खंभे पर झूलकर तीन, पाँच या सात परिक्रमा करता है। इसी प्रकार होली के पश्चात एकादशी को 'गढ़' नामक पर्व का आयोजन किया जाता है। भील चूँकि वीरतापूर्वक कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं। ऐसे में 'गढ़' पर्व में भील युवकों के शौर्य प्रदर्शन और मनोरंजन का एक आयोजन होता है। यही उनकी संस्कृतिक धरोहर है, जो उनके लोक में व्याप्त है। भीलों का एक और प्रमुख त्यौहार है - 'दिवासा'। इसे जून माह में मनाया जाता है। इस दिन सामूहिक रूप से भील विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, बलि देते हैं और मद्य का तर्पण करते हैं। कुछ त्यौहारों को इन्होंने हिंदू समाज से लिया है, जिन्हें ये अपनी सामाजिक मान्यताओं के अनुसार मनाते हैं। जैसे - दशहरा, दीपावली, रामनवमी आदि। ऐसा लगता है कि भीलों के समस्त त्यौहार इनके आत्मविश्वास, श्रद्धा और मन की उमंगों की देन है। यही उनकी सांस्कृतिक धरोहर है। जो उनके लोक में व्याप्त है।
चूँकि भीलों के जीवनयापन का प्रमुख स्रोत कृषि है। पर्याप्त कृषि भूमि के स्वामी भील यथासंभव खाद्यान्न स्वयं उपजाते हैं तथा उन्हीं से अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। भीलों का भोजन बहुत ही सादा एवं प्राकृतिक होता है। प्रत्येक भोज्य पदार्थों को ये उबालकर या भूनकर खाते हैं। भील प्रायः मक्का, ज्वार, बाजरे की रोटी खाते हैं। इनमें से मक्का को ये प्राथमिकता देते हैं। कोदो, कुटकी इनका विशिष्ट भोजन है। यह अनाज कम पानी में, कंकड़-पत्थर युक्त भूमि पर भी कम समय में पैदा होता है। भील जनजाति मांस के शौकीन होने के कारण उसकी आंशिक और आकस्मिक आपूर्ति के लिए मुर्गियाँ पालते हैं। इसके अतिरिक्त वे वनों से प्राप्त कंद, मूल, फल आदि को भी अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं।
भील जनजातियों में शराब का व्यसन अत्यधिक है। भीलों का कोई भी पर्व, विवाह, जन्म-मृत्यु आदि आयोजन बिना शराब के पूरे नहीं होते हैं। विवाह में तो शराब अनिवार्य है। बीमारी पर देवी-देवताओं को तर्पण करने के लिए, जादू-टोने के प्रभाव से मुक्ति हेतु आत्माओं की संतुष्टि के लिए देव-बड़वा (देवों की सामूहिक पूजा) के अवसर पर शराब का प्रयोग किया जाता है। शराब के अतिरिक्त नशे के लिए भील ताड़ी भी पीते हैं। भील धूम्रपान के भी शौकीन होते हैं। भील जनजीवन में धूम्रपान का महत्वपूर्ण स्थान है। अतिथि को बीड़ी पिलाना इनके समाज में आतिथ्य का सूचक है।
भील जनजाति की वेशभूषा अत्यंत साधारण है, इनमें दिखावा नाम-मात्र का भी नहीं होता। भील पुरुषों की दैनंदिन वेशभूषा मात्र एक लँगोटी है तथा सिर पर फेंटा बाँधने का प्रचलन भी है। निर्धन भील वस्तुतः फेंटा न बाँध कर एक मीटर लंबा और एक फुट चौड़ा कपड़े का टुकड़ा लेकर सिर पर लपेट लेते हैं। उनकी इस वेशभूषा का प्रत्यक्ष संबंध आर्थिक स्थिति तथा बाह्य संपर्क से है। भील पुरुषों की अपेक्षा भील महिलाएँ वस्त्रों के प्रति सजग होती हैं। भील महिलाओं की वेशभूषा में सामान्यतः लुगड़ा, ओढ़नी, चोली तथा लँहगा सम्मिलित होता है। भील जनजाति सामान्यतः विपन्नता के कारण वस्त्रों पर अधिक व्यय नहीं कर पाते, किंतु साज-सज्जा में ये वनों से प्राप्त होने वाले फूलों-पत्तियों को श्रृंगार साधन बनाते हैं। विशेष अवसरों पर ये चाँदी के आभूषणों को धारण करते हैं।
भील जनजाति की लोक संस्कृति में चित्रांकन की परंपरा अत्यंत महत्वपूर्ण है। भील स्त्री-पुरुष शरीर को अलंकृत करने के लिए आभूषणों के अतिरिक्त गुदना का भी प्रयोग करते हैं। नारियाँ अपने हाथों से लेकर पैरों तक गुदना गुदवाती हैं। गुदना कतिपय जनजातियों में जातीय प्रतीक भी होता है। उदाहरणस्वरूप भील महिलाओं के द्वारा आँखों के सिरों पर दो आड़ी लकीरें गुदवाना भील होने का प्रतीक है। इतना ही नहीं यदि किसी स्त्री के शरीर पर गुदना न गुदा हो तोउस स्त्री के हाथ का पानी तक पीना वर्जित होता है। वास्तव में गुदना गुदवाने की प्रेरणा आदिवासियों को आदिमानवों द्वारा उत्कीर्ण गुहा-चित्रों से मिली है। अतः आदिवासी समाज में माथे से लेकर पैर की उँगलियों तक अनेक प्रकार का चित्रांकन गुदना के अंतर्गत किया जाता रहा है, किंतु आज इस समाज की लोक परंपरा समाप्ति की कगार पर आ खड़ी हुई है।
प्रकृति लोक-संगीत की जननी है। प्रकृति के साथ अंतर्किया करते हुए ही मानव ने कंठ और वाद्य संगीत का विकास किया है, जिसमें भील जनजाति का विशेष महत्व है। ढोल या मांदल और बाँसुरी की धुन पर भील इतना मधुर गाते हैं कि मन मुग्ध हो उठता है। भीलों के वाद्य यंत्रों में थाली भी शामिल है। नगाड़े का छोटा प्रारूप भी वे गले में लटकाकर हाट मेलों में गाते-बजाते हुए देखे जाते हैं। अतः भील जनजाति के सांस्कृतिक धरोहरों में गीत-संगीत सर्वोपरि है। इसके गायन द्वारा शाब्दिक चित्रण बड़े सहज भाव से व्यक्त होते हैं। प्राचीनकाल से ही गीत-संगीत भील जनजीवन का एक अभिन्न अंग रहा है, चाहे वह माँगलिक कार्य हो या उत्सव, देवी-देवताओं को मनाने के लिए कोई पूजा हो या किसी संस्कार, मेले या दैनिक कार्य करने का समय। वह अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति गीतों के रूप में करते हैं। जैसे - भील जनजाति में होली के अवसर पर भगोरिया हाट नामक उत्सव के समय गाया जाने वाला यह गीत उनकी मनोदशा का चित्रण करता है। वास्तव में भगोरिया हाट उत्सव विवाह योग्य जोड़े को मिलाने का कार्य करता है। निम्नांकित पंक्तियाँ इसी भावना को व्यक्त करती हैं -
"आरसी भालिने, सुरमो लोगाविने,
लाडी हेरने चाल्यो रे भाया।
हाथ माँ तेर्वायो गुलाल लीने,
घराली काजे लगाड़ा रे भाया।"3
इस गीत का आशय है कि "बालों को काढ़ कर (कंघी कर), सुरमा रचकर, लाडी (वधू) लाने जा रहा है रे भाई। त्यौहार के अवसर पर घरवाली (लाडी, वधू) को गुलाल लगाना है रे भाई।"
परिणय के परिप्रेक्ष्य में भगोरिया हाट भील आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता है। आदिवासी बहुल मध्य प्रदेश में भीलों के अतिरिक्त अन्य किसी भी जनजाति में साप्ताहिक हाट-बाजार का वैवाहिक महत्व नहीं है।
लोक संस्कृति को जीवंत बनाने वाले भीलों में विवाह संस्कार का विशेष महत्व है। भीलों में विवाह से संबंधित दो प्रथाएँ उल्लेखनीय हैं - प्रथम तो वधू मूल्य की प्रथा है। वधू मुल्य वह राशि एवं वस्तुएँ हैं जो कि वर पक्ष के द्वारा वधू के अभिभावकों को दी जाती है। इस रूप में यह शेष समाज में प्रचलित दहेज प्रथा से विपरीत है। द्वितीय - सेवा-विवाह के रूप में घर जँवाई प्रथा है। भील जनजाति में विधवाओं व परित्यक्ताओं को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त है।
वास्तव में भील मध्य प्रदेश ही नहीं वरन भारत की एक बड़ी जनजाति है, जिनकी अपनी पृथक संस्कृति है। उस संस्कृति को साक्षात भोगते हुए, उसमें जीते हुए, पारस्परिक नियंत्रण के माध्यम से अपनी संस्कृति को वे संरक्षित रखता है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी उसका सफलतापूर्वक संचार करता है। वस्तुतः यही वे तत्व हैं जिनके कारण भील जनजाति अपनी सांस्कृतिक धरोहर को अनेकानेक संघातों के बावजूद अक्षुण्ण रखे हुए है। किंतु खेद की बात है कि गत कुछ सालों में इन आदिवासियों के वैभव व विक्रम को जल, जंगल, जमीन के धर्म को, राग और रंगों को, रूप और रास को न जाने किसकी नजर लग गई है। फिर भी यह महान जाति बड़ी प्रसन्न, उदार और अलमस्त सहृदय रही है। उनके तन पर गोदनों की सुंदरता, पक्षी, जानवर व पेड़ों में देव आस्था, पर्वों व मेलों का लोक रंग, उनके कंठों में गीत का अमृत और पैरों में नृत्य का सम्मोहन रचा हुआ है।
भील जनजाति लोक समाज का एक अहम् हिस्सा है। इनकी अपनी कुछ मान्यताएँ, रीति-रिवाज, बोली, परंपरा तथा जीवन-शैली है जिनके द्वारा इनकी संस्कृति निर्मित होती है। चूँकि भील जनजाति में शिक्षा का स्तर न्यूनतम है तथा बाह्य जीवन से संपर्क भी सीमित है। इसीलिए उनके सृजन में नवीनता तथा परिवर्तन अधिक दिखाई नहीं पड़ता है। वह सिर्फ अपनी जमीन, अपने साधनों, अपना मस्तिष्क और अपनी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इनके पास अपनी लोककथा, गल्प, गीतों, मिथ, किंवदंतियों, मुहावरों व कहावतों का विषद भंडार है। जिससे इनकी लोक परंपरा सदैव अग्रगामी रही है। ऐसे में आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी संस्कृति को जीवंत बनाया जाए तथा इनकी संस्कृति को संरक्षित रखा जाए। जिससे वर्तमान संचार क्रांति के युग में तथा भविष्य में भी इनके अनुभवों, इनकी संस्कृतियों से लाभांवित हुआ जा सके। साथ ही इन प्रकृति पुत्रों के पारंपरिक विश्वासों, रीति-रिवाजों को संरक्षण भी मिल सके।
संदर्भ-ग्रंथ सूची
1. 'भारतीय जनजातियाँ : संरचना एवं विकास' - हरिश्चंद्र उप्रेती, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, तृतीय संस्करण - 2007, पृ. - 1
2. 'भील जनजीवन और संस्कृति' - डॉ. अशोक डी. पाटिल, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, प्रथम संस्करण - 1998, पृ. - 5
3. वही, पृ. - 58