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लेख

सबद निरंतर

आनंद वर्धन


हिंदी के विख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा है -

जिस तरह हम बोलते हैं
उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी
हमसे बड़ा तू दिख।

यहाँ कवि का जोर इस बात पर है कि बोलना और लिखना इन दोनों में समानता होनी चाहिए लेकिन लिखने के बाद उसी लिखे के आधार पर जो कुछ दिखे वह उससे भी बड़ा हो। यह बोलना और लिखना ही भाषा है और दिखना है भाषा की ताकत और वह भाषा जो अपनी होती है उसकी ताकत भी उतनी ही बड़ी होती है।

हिंदी को पूरे भारत की भाषा बनाने के पक्षधर थे गांधी जो गैर-हिंदी भाषी थे लेकिन इसकी पुख्ता पृष्ठभूमि भारतेंदु काल से ही तैयार हो चुकी थी। भारतेंदु का जीवन काल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के मध्य का काल है। वे अंग्रेजियत के षड्यंत्र को जान रहे थे इसीलिए लिख रहे थे -

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
और एक अति लाभ यह, या मैं प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहु, भाषा माहि प्रचार।

भारतेंदु को यह चिंता थी कि यदि अपनी भाषा में ज्ञान विज्ञान और विद्या की बातें नहीं की जाएँगी तो देश का समुचित विकास नहीं हो सकेगा इसीलिए वे इसके हिमायती थे और भाषा की ताकत से भलीभाँति परिचित भी थे। उनकी यही दृष्टि हमें आज के कवि केदारनाथ सिंह में मिलती है जो कहते हैं -

''तुम अपनी बात
अपनी भाषा की सारी ताकत के साथ कह सकते हो
और कहने के बाद भी इसी शहर में
जिंदा रह सकते हो।"

नई चाल में ढलती हुई हिंदी अपने प्रत्येक रूप का परिमार्जन करती चल रही थी। नई पत्र-पत्रिकाएँ छप रही थीं और हिंदी भाषा विस्तार पाती जा रही थी। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने भी हिंदी भाषा को लेकर इसी शीर्षक से कविता लिखी। वे लिखते हैं -

''आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नाम ही
इक्कीस कोटि जन पूजिता हिंदी भाषा है वही।"

किंतु इसी कविता में चिंता भी जताते हैं -

''पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी
हिंदू जनता नहिं आज भी हिंदी के रंग में रँगी।"

अंत में वे कहते हैं -

''कैसे निज सोए भाग को कोई सकता है जगा
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहीं उर में उगा।"

वे मानते हैं कि अपनी भाषा ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। हरिऔध जी अपनी एक अन्य कविता में हिंदी के प्रति उनका जो अनुराग है उसे अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं -

''दूसरों को हानि पहुँचाए बिना औ बिन ठगे
दूर हों सब विघ्न बाधा भाग हिंदी का जगे।"

हिंदी की हिमायत करने वाले अनेक साहित्यकार नसीहत देते हैं कि हमें अपनी भाषा से प्यार करना चाहिए तभी भाषा भी हमें ज्ञान देगी। मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी भाषा कविता में लिखा -

''करो अपनी भाषा पर प्यार
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब"

भाषा अतीत और वर्तमान मस्तिष्क के बीच सेतु का कार्य करती है और भविष्य को अतीत से जोड़ती है -

''यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान प्रसाद
और तुम्हारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद
बनाओ इसे गले का हार।"

यही संदेश कवि गोपाल सिंह नेपाली भी देते हैं -

''दो वर्तमान का सत्य सरल
सुंदर भविष्य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो।"

हिंदी की विशाल हृदयता से हम सभी परिचित हैं। इसी का परिणाम है कि हिंदी ने अपनी आत्मसातीकरण की विशेषता के कारण अत्यधिक विस्तार किया और अन्यान्य भाषाओं और बोलियों के वे शब्द जो उसे अपनी प्रकृति के अनुरूप लगे और जो जनप्रिय थे तथा व्यवहार में प्रयुक्त हो रहे थे, उन्हें अपने शब्द भंडार में स्थान दिया और विशाल शब्दकोश तैयार किया। गिरिजा कुमार माथुर ने हिंदी की इसी विशालता और जनप्रियता को अपनी कविता 'हिंदी जन की बोली है' में कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है -

''उच्चवर्ग की प्रिय अंग्रेजी
हिंदी जन की बोली है
वर्ग भेद को खत्म करेगी
हिंदी वह हमजोली है,
सागर में मिलती धाराएँ
हिंदी सबकी संगम है
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलाती हिंदी है
पूरब पश्चिम/कमल-पंखुरी
सेतु बनाती हिंदी है।"

हिंदी ने पूरे देश को एकसूत्रता में पिरोने का काम किया है। यही कारण है कि अंडमान हो या अरुणाचल, कश्मीर हो या गुजरात, कर्नाटक हो या आंध्र, हिंदी की मशाल हर जगह प्रकाशित हो रही है। गोपाल कृष्ण सक्सेना पंकज की एक गज़ल की पक्तियाँ हैं -

''इक शापग्रस्त प्यार में खोई शकुंतला
दुष्यंत को बुला रही हिंदी की गजल है
गालिब के रंगे शेर में खैयाम के घर में
गंगाजली उठा रही हिंदी की गजल है।"

सचमुच हिंदी में ही वह ताकत है जो राष्ट्र को जोड़ती है। देशभर के विद्वान, राजनेता और साहित्यकार इससे सहमत थे। वी. कृष्णस्वामी अय्यर मानते थे कि - ''हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।'' तो अनंतगोपाल शेवड़े कहते हैं कि - ''राष्ट्रभाषा हिंदी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है।''

जहाँ शारदाचरण मित्र का कहना है कि - ''भारतवर्ष के लिए हिंदी भाषा ही सर्वसाधारण की भाषा होने के उपयुक्त है।'' वहीं पुरुषोत्तम दास टंडन कहते हैं कि - ''जीवन के छोटे से छोटे क्षेत्र में हिंदी अपना दायित्व निभाने में समर्थ है।''

कोई बालक जैसे अपनी माँ के पास जाकर आश्वस्त हो जाता है वैसे ही कुछ-कुछ स्थिति भाषा की भी है। सहजता से स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए हम अपनी ही भाषा को समर्थ पाते हैं। या यों कहें विश्राम पाने के लिए हम अपनी मातृभाषा के पास जाते हैं। हिंदी के संदर्भ में कवि केदारनाथ सिंह की कविता मातृभाषा उल्लेखनीय है -

''जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा।''

बार-बार अपनी भाषा में लौटना दरअसल खोजना है खुद को। यह स्वयं की तलाश ही जीवन को सार्थकता देती है। भाषा की जमीन पर शब्दों के बीज सदा से रोपे गए हैं जो विशाल बिरवे बने। यह क्रम निरंतर जारी है। इसी क्रम को उकेरती हुई पंक्तियाँ हैं -

तुम कर रहे हो बरसों बरस से
भाषा की जमीन पर शब्दों की खेती।
तुम्हारे पुरखों ने भी तो सरकंडे की कलम के हल से
कोड़ा था कागद का जंगल,
अरे वहीईई तुलसी बाबा।
और उनके भी पहले वह जुलहा
जो खड्डी की धुन पर पिरोता रहा उजली चादर में
शब्दों के मोती
जिसे ओढ़-ओढ़, बिछा-बिछा
कितनों ने तार लिया खुद को
लिख-लिख प्रेम की अकथ कथाएँ
भले ही उनके पास भूल-भटक कर भी नहीं आया
प्रेम का प।
पर दुखी नहीं है जुलहा
बिन ही रहा है खटर खट्टट्ट खटर खट्टट्ट
झीनी-झीनी चादर बैठ कर गंगा तीरे।
और तुलसी बाबा छील रहे हैं
नई-नई सरकंडे की कलम
दवात में भरी है अभी-अभी सियाही उन्होंने
एक सोंधी भाषा का नया खेत जोतना है उन्हें
जिसमें लहलहाएँगे नीम के टूसे से
नन्हें-नन्हें सबद निरंतर।

आज हम जिस बहाने से भी हिंदी को याद करें उसका होना हमारा होना है। वह है तो हैं हम इसीलिए शब्दों के बीजों को निरंतर बोते रहना हम सबका दायित्व है।


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