hindisamay head


अ+ अ-

लेख

हिंदी नाटक : चुनौतियाँ और संभावनाएँ

बंदना ठाकुर


नाटक अभिव्यक्ति की एक ऐसी विधा है जो सिर्फ साहित्य नहीं बल्कि इससे भी बढ़कर कुछ और है क्योंकि नाटक की प्रक्रिया केवल लिखे जाने तक ही समाप्त नहीं होती, उसका व्यापक स्वरूप और संप्रेक्षण मंच पर जाकर ही पूरा होता है। इसके व्यापक स्वरूप के अंतर्गत नाटककार, निर्देशक, अभिनेता, रंगशिल्पियों के साथ सहृदय दर्शक भी समाहित है। यह एक ऐसी प्रदर्शनकारी विधा है जो केवल दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं करती अपितु जीवन के अनेक पक्षों और अनुभवों का साक्षात्कार कराते हुए, दशकों के मस्तिष्क को झकझोरते हुए, उन्हें सोचने पर मजबूर करती है। यह एक जीवंत एवं सजीव कला है जो सिनेमा या टी.वी की तरह मशीन द्वारा नहीं बल्कि अभिनेताओं की गतिशील क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत होती है।

आज 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हम हिंदी नाटक और रंगमंच के विकास की ओर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि सृजनात्मक के स्तर पर इसने इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि वह संसार के किसी भी रंगमंच के सामने बेहतर साबित होने का सामर्थ्य रखता है परंतु अपनी विशिष्टताओं तथा उपलब्धियों के बावजूद आज हमारा हिंदी नाटक और रंगमंच कई चुनौतियों, मजबूरियों तथा कठिनाइयों से संघर्शरत है जो उसके अस्तित्व के लिए खतरा बनी हुई हैं जिनके कारण हिंदी नाटक और रंगमंच में एक गतिरोध की स्थिति आ गई है।

आज नाटक और रंगमंच को सबसे बड़ी चुनौती सिनेमा, टी.वी. चैनलों और इंटरनेट से है। यह प्रश्न भी आज बड़े जोर-शोर से उठाया जा रहा है कि मीडिया तथा बाजारवाद के इस दौर में रंगमंच की सार्थकता क्या है? उदारीकरण तथा प्रोद्यौगिक उन्नति की आड़ में हो रहे सांस्कृतिक आक्रमण का सामना करते हुए वर्तमान नाटक और रंगमंच अपनी मौलिकता बरकरार रख पाएगा या नहीं?

1982 के बाद दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण द्वारा भारतीय मनोरंजन जगत में एक व्यापक परिवर्तन आया। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों जैसे धारावाहिक, फिल्म, टेलीफिल्म, गीत-संगीत आदि द्वारा दर्शक घर बैठे ही हर प्रकार का मनोरंजन तथा जानकारी प्राप्त करने लगा। जिसके कारण दर्शक जीवंत माध्यम रंगमंच से दूर होने लगे। 1991-92 के बाद व्यवसायिक चैनलों की शुरुआत से तो स्थिति और भी अधिक विकट हो गई और बाकी रही सही कसर पूरी की इंटरनेट ने। आज गंभीर, सार्थक तथा प्रयोगशील नाटक के लिए दर्शकों का अभाव एक चुनौती साबित हो रहा है। आज हम देखते हैं कि फिल्मी सितारों तथा अँग्रेजी सेक्स कॉमेडी के आकर्षण में दर्शक महँगी टिकट खरीदकर सिनेमाहाल में चले जाएँगे पर रंगशाला जाने के लिए मुफ्त में भी तैयार न होंगे। अधिकतर फिल्में तथा टेलीविजन धारावाहिक 'हिंदी' में होने के कारण हिंदी दर्शक के साथ ही रंगकर्मी भी उनकी ओर तीव्रता से उन्मुख हुए हैं। आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या अन्य नाट्य-प्रशिक्षण केंद्रों की स्थिति आई.आई.टी. शिक्षा-संस्थाओं जैसी हो गई है जहाँ विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं और फिर डिग्री लेकर पैसा कमाने अमेरिका की ओर प्रस्थान कर देते हैं। ठीक उसी तरह नाट्य संस्थाओं या नाट्य प्रशिक्षण केंद्रों से प्रशिक्षित रंगकर्मी अपने अनुभव तथा प्रशिक्षण का फायदा भविश्य में रंगमंच को और उसके दर्शक को न देकर छोटे या बड़े पर्दे के दर्शकों को देते हैं।

एक ज्वलंत तथा गंभीर नाटक तैयार करने के बावजूद भी यह गारंटी नहीं होती कि दर्शक नाटक देखेने आएँगे? अब सवाल यह उठता है कि क्या रंगमंच को अपने गंभीर, प्रामाणिक, उच्च-स्तरीय, गहन-अनुभूति संपन्न रंगकर्म को छोड़ना होगा? दर्शकों को आकर्षित करने के लिए कलात्मक दृष्टिकोण की उपेक्षा कर व्यवसायिक दृष्टिकोण अपनाना होगा? वास्तव में इन शंकाओं ने वर्तमान नाटक और रंगमंच के अस्तित्व को लेकर गंभीर चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।

सिनेमा, टी.वी, इंटरनेट जैसे विद्युत संचार माध्यम ने हिंदी नाटक और रंगमंच को जिस स्थिति में डाल दिया है उसको लेकर काफी चिंता जताई जा रही है। लेकिन इस स्थिति का यह मतलब नहीं है कि आगे कुछ नहीं हो सकता। इस विशय पर सिद्धनाथ कुमार नाटक की आवश्यकता तथा महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ''आज के युग में रंगनाटक की महत्ता और आवश्यकता के संबंध में संदेह नहीं किया जा सकता। आज रंगमंच की आवश्यकता को अस्वीकार करना वैसा ही है जैसा यह कहना कि फोटोग्रॉफी के युग में चित्रकला की आवश्यकता नहीं है।'' लेकिन फिर भी आज विश्व के किसी भी देश में रंगमंच की स्थिति संतोषजनक नहीं है। आज शहरों में जगह-जगह हमें सिनेमाघर मिलेंगे लेकिन रंगशालाएँ क्यों नहीं? यह सवाल आज के सांस्कृतिक संकट की ओर इशारा करता है। उदारीकरण एवं बाजारवाद से उत्पन्न हुई व्यवसायिक मानसिकता ने हमारे उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों को बहुत हद तक प्रभावित किया है। रंगमंच की यह वर्तमान स्थिति इसी का परिणाम है। दरअसल रंगमंच को खतरा सिनेमा से उतरा नहीं जितना इसकी बाजारीकरण तथा व्यवसायिकरण नीति से है। सिद्धनाथ कुमार के शब्दों में ''सिनेमा ने रंगमंच को इसलिए नहीं मारा कि वह इससे अधिक शक्तिशाली है बल्कि इसलिए कि व्यवसाय बनकर कुछ विशेष वर्गों के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध हो रहा है। व्यवसायिक लाभ के लिए सिनेमा किस प्रकार विकृत जनरुचि की तृप्ति का प्रयत्न करता हुआ उसे और विकृत करता जा रहा है, इसे अपने सामाजिक जीवन में स्पष्टतः देखा जा सकता है'' स्पष्टतः कहें तो बुराई सिनेमा में नहीं बल्कि उसकी व्यवसायिक मानसिकता में है। ऐसी भी फिल्में आती हैं जो व्यवसायिक धरातल से ऊपर उठकर कला तथा संस्कृति के धरातल पर आने का प्रयास करती है लेकिन ऐसी फिल्में कहाँ चल पाती हैं? रंगमंच को इसी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। रंगमंच को मीडिया और फिल्मों से मुकाबला नहीं करना है बल्कि इसे एक स्वतंत्र सांस्कृतिक कला के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित करना है। जीवंत तथा सजीव कला रूप रंगमंच को जीवन का जरूरी घटक मानने वाले लोगों के लिए इसे जीवित बनाए रखना एक चुनौती है। आज सिनेमा और टी.वी. की शक्ति और सुलभता को देखते हुए यह चुनौती साधारण प्रतीत नहीं होती।

आज जहाँ कहीं भी हिंदी नाटक और रंगमंच पर सैमिनार, बहस या साक्षात्कार होता है वहाँ यही बात बार-बार सुनने को मिलती है कि हिंदी में आज मौलिक नाटक नहीं लिखे जा रहे। अगर हैं भी तो उनकी गिनती बहुत कम है लेकिन ऐसा नहीं है बल्कि समस्या यह है कि साहित्य की जितनी भी विधाएँ हैं जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण आदि इन सबमें नाटक सबसे मुश्किल विधा है। इसमें शब्दों का प्रयोग सिर्फ पढ़ने के लिए ही नहीं होता, बल्कि बोलने के लिए भी होता है दूसरे, नाटक की अपनी जरूरतें हैं। तकनीकी और व्यवहारिक भी। नाटक लिखना ही अपने आप में एक चुनौती है। इसलिए बहुत कम नाटककार सामने आ रहे हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि हम 20वीं शताब्दी के हिंदी नाटक की बात नहीं कर रहे क्योंकि 20वीं शताब्दी में बहुत से महत्वपूर्ण नाटककार हुए हैं जिन्होंने अपने नाट्यालेखों द्वारा दायित्व का पूर्ण निर्वाह किया है - जैसे जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मुद्राराक्षस, मणि मधुकर, सुरेंद्र वर्मा, हमीदुल्ला आदि ने बेहतरीन नाटकों द्वारा हिंदी नाट्य साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया। लेकिन हम आज 21वीं शती में नाट्य-आलेखों की बात करें तो निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि इक्का-दुक्का नाटककारों को छोड़कर कोई भी सशक्त नाटककार सामने नहीं आ रहा जिसका नाट्यालेख मंचन की समस्त संभावनाओं को पूरा कर सके। इस समस्या को गहराई से महसूस करते हुए जयदेव तनेजा अपने लेख 'इक्कीसवीं सदी के नए नाटककार' में कहते हैं, ''हिंदी नाटककारों की प्रजाति खत्म हो चुकी है। नाटककार को रंगकर्म से 'अलविदा' कहा जा चुका है। मौलिक हिंदी नाट्य लेखन का क्षेत्र बिल्कुल बंजर और उजाड़ पड़ा है। नए और अच्छे मंचन-योग्य नाटकों के अभाव के कारण ही रंगकर्मियों को पुराने एवं बहुमंचित मौलिक अथवा अन्य भाशाओं के देषी-विदेशी अनुवादों को बार-बार अभिमंचित करना पड़ता है'' इसलिए आज बाकायदा नाट्य लेखन के प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। हम देखते हैं कि विद्यालयों, विश्वविद्यालयों यहाँ तक कि सर्वोच्च संस्थान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी आज तक इस विशेषज्ञता का कोई कार्यक्रम शुरू नहीं हो पाया है जबकि इसकी जरूरत को काफी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।

अच्छे, स्तरीय, मंचनीय, नाट्य लेखों के सृजन के लिए नाट्य निर्देशकों तथा नाटककारों के बीच नियमित संवाद की भी बहुत आवश्यकता है, जो फिलहाल हिंदी नाटक और रंगमंच में न के बराबर है। इस तरह के संवाद से दोनों पक्षों को एक-दूसरे की मुश्किलों तथा जरूरतों को समझने में काफी सहायता मिलेगी।

दरअसल वर्तमान नाटक और रंगमंच के अस्तित्व को बनाए रखने का दायित्व केवल नाटककारों तथा नाट्य-निर्देशकों का ही नहीं बल्कि सरकार, व्यवस्था, बड़े उद्योग संस्थान, बुद्धिजीवी वर्ग तथा कला प्रेमी दर्शक वर्ग सबका है। इन सबको अपने-अपने ढंग से इस दिशा में सार्थक प्रत्यत्न करने होंगे। जब फिल्मों का आगमन हुआ तो लगा था कि हिंदी रंगमंच ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय रंगमंच ही खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ, फिल्में अपनी जगह चलती रहीं और रंगमंच भी सांस्कृतिक जीवन से किसी-न-किसी तरह से जुड़ा रहा और अब संचार क्रांति के कारण उत्पन्न हुई समस्याएँ इस समय विकट तो अवश्य है लेकिन नाटक और रंगमंच अपनी विशिष्टताओं के बलबूते दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने में निकट भविष्य में सफल हो सकता है। आज इक्कीसवीं शताब्दी में देखा जा सकता है कि अब छोटे बक्स के मशीनी मनोरंजन का आकर्षण थोड़ा कम हुआ है। पहले की अपेक्षा 'रंग नाट्य' की ओर मुड़ने वाले दर्शकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। इस संख्या की वृद्धि में शायद थोड़ा-बहुत समय ओर लगेगा। लेकिन नाटक और रंगमंच के इतिहास पर दृष्टि डालें तो लगेगा कि अगर इस संख्या में इजाफा नहीं भी हुआ तो भी अपनी जीवंतता तथा सजीवता के बलबूते रंगमंचीय निरंतरता बनी रहेगी। रंगमंच में निहित संभावनाओं तथा इसके इतिहास को देखते हुए ऐसा मानना गलत न होगा कि तमाम चुनौतियों के बावजूद हिंदी ही नहीं बल्कि पूरा भारतीय नाटक और रंगमंच, भारतीय सांस्कृतिक जीवन में केवल इतिहास के रूप में नहीं बल्कि जीवंत वर्तमान के रूप में अपने अस्तित्व का अहसास दिलाता रहेगा।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में बंदना ठाकुर की रचनाएँ