आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
	स्वागत करती हूँ तेरा।
	तुझे देखकर आज हो रहा,
	दूना प्रमुदित मन मेरा।।
	आ, उस बालक के समान
	जो है गुरुता का अधिकारी।
	आ, उस युवक-वीर सा जिसको
	विपदाएँ ही हैं प्यारी।।
	आ, उस सेवक के समान तू
	विनय-शील अनुगामी सा।
	अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
	कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा।।
	आशा की सूखी लतिकाएँ
	तुझको पा, फिर लहराईं।
	अत्याचारी की कृतियों को
	निर्भयता से दरसाईं।।