रात के पता नहीं कितने बजे थे। पूरा गाँव सोया पड़ा था। सन्नाटे को चीरती हुई
गाँव के किसी घर के आसपास से झाँझ-मिरदिंग बजने की आवाज आ रही थी। कोई मृत्यु
गीत गाया जा रहा था। लेकिन गीत के बोल पल्ले नहीं पड़ रहे थे। झाँझ-मिरदिंग की
तेज आवाजें शब्दों को उभरने का मौका ही नहीं दे रही थी।
वैसे रात को वह तरह-तरह की आवाजें सुनता रहता था। कभी माँदल की ढप-ढप-ढप तो
कभी ढोल की ढेंगो-ढेंग-ढेंगो। कभी डुमकी की डुईं-डुप-डुईं। कभी डफली की डफ-डफ,
डफ-डफ। सुनते-सुनते उसे कब नींद आ जाती, पता ही नहीं चलता। लेकिन जब भी वह
झाँझ-मिरदिंग की आवाज सुनता, उसकी नींद उड़ जाती। वह गुदड़ी को कानों पर कस कर
लपेट लेता। फिर भी उन आवाजों से पीछा नहीं छूटता। हवा पर सवार उन जिद्दी
आवाजों के सामने गुदड़ी हार जाती।
झाँझ-मिरदिंग की आवाजें उसे दहला देती थी। एक अनाम दहशत उसे दबोच लेती। वह
भयभीत हो उठता। किसी भी उपाय से उसका भय दूर नहीं होता। इन आवाजों का मतलब था
गाँव में कोई मर गया है और उसे सुबह फिर एक मुरदे को देखने के लिए तैयार रहना
था। या घर में कहीं अनमना होकर दुबक जाना था। वह अपने डर को किसी को बता भी
नहीं सकता था। उसके दोनों भाई छोटे थे। एक भाई चार साल छोटा था तो दूसरा उससे
छह साल छोटा। न ही ऐसा कोई उसका दोस्त था जिससे वह अपने दिल की बात कह पाता।
बाऊजी के सामने तो वह अपना डर प्रकट ही नहीं कर सकता था। वह उस पर बुरी तरह
झल्ला़ते - 'स्साला छोरी जेसो कय डरऽ मुर्दाफर्री। थारा सी तो छोरी अच्छी।'
तिराहे पर घर
मुरदों का डर
उसका घर तिराहे पर था। वहाँ पश्चिम से आने वाले दो रास्ते पूर्व में मनावर की
ओर जाने वाले रास्ते से मिलकर एक गुलेल या अँग्रेजी के व्हाय अक्षर का सा आकार
बनाते थे। पश्चिम से आने वाले दो रास्तों में एक रास्ता टेमरियापुरा से और एक
रास्ता गाँव में से आता था। इस रास्ते पर आगे जाकर एक खोदरा आता है। यह खोदरा
उत्तर में बालीपुर की ओर से बहता हुआ आता और दक्षिण की ओर चला जाता। आगे जाकर
फिर पूर्व की ओर मुड़ जाता था। यहाँ आकर बस्ती खतम हो जाती थी। जहाँ उसका घर
है, वह गाँव का बाहरी हिस्सा है। उसका घर लगभग गाँव के बाहर है। यहाँ सब
भील-मानकर रहते है। यह खोदरा मनावर जाने वाले रास्ते को आड़ा काटता है। खोदरा
कूदते ही मनावर के रास्ते पर मसाण आ जाता है। उसके घर के कुछ ही दूर जाने पर
मसाण स्पष्ट दिखने लगता था। उसे तिराहे पर अपना घर का होना बहुत अखरता था।
गाँव के सारे मुरदे इसी रास्ते से निकाले जाते थे। यहाँ तक कि टेमरियापुरा के
मुरदों को भी इसी रास्ते से मसाण लाया जाता था।
जिस दिन वह मुरदा देख लेता था, उस दिन उसे रोटी तक नहीं भाती थी। चारों ओर बस
वही नजर आता। रात में देर तक नींद नहीं आती। आती भी तो डरावने सपने आते। सपने
में देखता एक अरथी उसके घर के सामने से गुजर रही है। राम नाम सत्य है, सत्य
बोलो गत्य है - की समवेत आवाजें साफ-साफ सुनाई देतीं। उसके कानों के ठीक पास
झाँझ-मिरदिंग की आवाजें तीव्रतर होती चली जातीं। अचानक उसकी नींद खुल जाती। डर
और घबराहट के कारण वह पसीना-पसीना हो जाता। इस तरह कई बार उसकी नींद टूटती।
अनिंद्रा के कारण उसका सिर भारी हो जाता। आँखों पर थोड़ी-थोड़ी सूजन आ जाती। उसे
बहुत हैरत होती कि उसके बाऊजी मुरदे से बिल्कुल नहीं डरते थे। यहाँ तक कि मरे
हुए आदमी की दाड़ी-कटिंग भी बना आते। अरथी के चार कोनों पर बाँधे जाने वाले
नारियल के गोले भी खा जाते।
अक्सर वह देखता कि मुरदे के ऊपर हजारिए के ढेर सारे फूल पड़े हैं। अगरबत्तियाँ
जल रही हैं। ढेर सारा गुलाल मुरदे पर छिड़का हुआ है। एक आदमी, ले जाती अरथी पर
गुलाल लगे हजारिए के फूल, कौड़ियाँ फैंकता जा रहा है। तेज चलता हुआ लोगों का
हुजूम अरथी के पीछे-पीछे जा रहा है। अरथी के पीछे रास्ते पर यहाँ-वहाँ गुलाल
लगे फेंके गए फूल और कौड़ियाँ रास्ते पर छूटते जा रहे हैं। वह इन फूलों से बचकर
निकलता। पूरी सतर्कता बरतता कि कहीं रस्ते पर पड़े ऐसे किसी फूल पर उसका पाँव न
पड़ जाए।
यहाँ तक कि कहीं भी वह हजारिए के फूलों को देखता, उसे मुरदों की याद आ जाती।
फिर वह फूल को छूने से भी डरता। मंदिर में जाने से भी वह इसीलिए डरता कि वहाँ
उसे हजारिए के फूल नजर आते। ढेर सारी अगरबत्तियाँ जलती रहती थीं। उसे भगवान भी
मुरदे जैसे दिखते। न हिलते न डुलते। अंतर केवल इतना कि मुरदा लेटा होता जबकि
भगवान खड़े। गले में फूलों की माला पड़ी रहती। हजारिए के वही फूल चढ़े होते और
वही अगरबत्तियाँ। वह कोशिश करता कि अगरबत्तियों का धुआँ उसकी साँस में न घुस
पाए। वह इस धुएँ से दूर रहने की भरपूर कोशिश करता। वह भगवान को देखकर डर जाता
था।
एक बार उसने मंदिर में हनुमान जी की आँखें देख ली थी। वह उन आँखों को देख
अचानक डर गया था। दरअसल उसने अपने घर के पीछे रहने वाले रमेश भील के आँगन में
एक सिर कटे बकरे की आँखें देख ली थी। तब से वे डरावनी आँखें उसका पीछा कर रही
थीं। हनुमान जी की आँखें उसे उस मरे हुए बकरे की स्थिर भावहीन आँखों जैसी नजर
आ रही थी और वह सहसा डर गया था। उसका बालमन समझ नहीं पा रहा था कि जिस भगवान
को दयालु कहा जाता है, वह उसे डरावना क्यों दिखाई देता है।
अक्सर मुरदों को अरथी पर लिटाकर ले जाया जाता था। बाँस के डंडों से सीढ़ी बनायी
जाती। शव को सीढ़ी पर लच्छों और सुतली से बाँधा जाता। सिर खुला रखा जाता। मरने
वाला आदमी होता तो साफा बँधा रहता। डोकरा होता तो मुँह बंद होता। आँखें कोटरों
में धँसी रहती। गाल अन्दर जबड़े में घुसे होते। किसी-किसी का मुँह भी खुला
होता। ऐसे मुँह के दाँत नजर आते। दाँतों पर भी गुलाल पड़ा दिखता था। उसे मुरदे
का ऐसा मुँह बहुत भयानक लगता था। वह मरा हुआ मुँह कई दिनों तक उसका पीछा करता
रहता था। सपनों में भी उसका पीछा नहीं छोड़ता था।
कुछ लोगों का डोला भी निकाला जाता। मुरदे को लिटाने की बजाय बिठाकर मसाण ले
जाया जाता। उसे अच्छी तरह याद है कि पूराबाबा का डोला निकाला गया था। उन्हें
गोल शीशे वाला चश्मा भी पहनाया गया था। यदि उन्हें साफा नहीं पहनाया गया होता
तो वे बिल्कुल गांधी जी जैसे लगते।
तुरही (पीतल का एक लम्बा मुड़ा हुआ सी के आकार का वाद्य जो फूँक कर बजाया जाता
है) सब्रू भंगी बजाता। सब्रू काला और ऊँचा-तड़ाँग आदमी था। वह अरथी के सबसे आगे
तुरही बजाता चलता था। जैसे अरथी आने की पूर्व सूचना दी जा रही हो, जो भी अंतिम
दर्शन करना चाहे कर ले। उसका डीलडौल देखकर उसे लगता, यह कहीं यमदूत तो नहीं!
सब्रू भंगी ही मुरदे के कपड़े समेट कर ले जाता था। मुरदे को नए-कोरे कपड़े पहनाए
और ओढ़ाए जाते थे। उसे सब्रू से डर लगता था। उसे देखकर राजा हरिश्चंद्र का
प्रसंग याद आ जाता। राजा हरिश्चंद्र को अपनी सत्यवादिता के कारण चांडाल का काम
करना पड़ा था। सब्रू को लोग छूते नहीं थे। वह भी लोगों से एक दूरी बनाकर खड़ा
रहता था। उसे ताज्जुब होता कि इतना बलशाली और भयावह होकर भी वह सामान लेने के
लिए दुकान के बाहर खड़ा रहता। लोगों से विनम्रता से बात करता।
जब कोई गजगुंडी छोड़ी जाती। तुरही की दिल दहलाने वाली आवाज सन्नाटे को चीरती
हूतूडूड़़ऽऽऽऽ...हू जैसी आवाज आती। या ढोल की मातमी धुन ढम...ढम बजती और अचानक
रोने पीटने औैर विलाप की समवेत आवाजों का सैलाब-सा आ जाता तो वह समझ जाता था
कि अरथी उठा ली गई है। जल्दी ही उसके घर के सामने से अरथी निकलने वाली है। भय
उसे दबोच लेता। उसकी धड़कनें तेज हो जाती। धूजनी भराने लगती।
गरीब भील-मानकरों में जब कोई मर जाता तो यह सब तामझाम नहीं होता था। कफन भी
साधारण होते। बिना बहुत शोर-शराबे के, वे मरने वाले को गाड़ आते थे। जब कोई
बच्चा मरता तो उसके लिए अरथी नहीं बनाई जाती थी, सिर्फ कफन में लपेट कर गाड़
दिया जाता था।
सिरवी जाति के लोग मृतक का नुक्ता (मृत्युभोज) करते हैं। सिरवी खेती करते हैं।
बाऊजी सीरवियों के घर जजमानी का काम करते हैं। साल भर के काम के बदले अनाज
दिया जाता जिसे अदाव कहा जाता है। इस जजमानी के तहत नुक्ते में बुलावा देना
बाऊजी का ही काम था। जब किसी का नुक्ता होता तो घर पर खाना नहीं बनता था। उसे
अपनी बई और भाइयों के साथ जीमने जाना होता था। जीमते वक्त उसे अक्सर मरने वाले
का मुँह दिखने लगता। वही फूल, वही गुलाल, वही राम नाम सत्य, वही ढोल की मातमी
धुन। फिर ठीक से जीम नहीं पाता। उसे नुक्ते का यह रिवाज अच्छा नहीं लगता।
मरना नावण डोकरी का
पिटना बई का लकड़ी के फंटों से
आज सुबह नावण डोकरी मर गई थी।
बई-बाऊजी की कचाट से ऐन सुबह उसकी नींद टूट गई। अभी चारों तरफ अँधेरा ही था।
नावण डोकरी का घर पटलन माँ के सामने गाँव के बीच था। गाँव में अधिकांश घर
सिरवियों के थे। नाई के सिर्फ दो घर थे। एक उनका और एक नावण डोकरी का। आज नावण
डोकरी का घर खतम हो गया था। वह अकेली रहती थी। उसका बड़ा मकान था। खेती थी।
उसकी कोई संतान नहीं थी। सारी जायदाद उसकी बहन के लड़के को मिलने वाली थी। वह
एक दूसरे गाँव में रहता था। बस कभी-कभार आता था। नावण डोकरी के मुकाबले में
उसका अपना परिवार बहुत गरीब था। घर कच्चा था। दीवारें गारे की और छत पर कवेलू।
खेती थी नहीं।
लाश के पास कोई नहीं था। डोकरी उनकी जाति की होने के नाते बाऊजी चाहते थे कि
बई वहाँ जाकर बैठे। वैसे डोकरी से उनका कोई नजदीकी रिश्ता नहीं था। वह कभी
उसके घर नहीं गया था। न ही डोकरी उसके घर आती-जाती थी। सिर्फ जाति का ही एक
सूत्र था। बई बच्चों को छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। इसी बात को लेकर किचकिच हो
रही थी।
कभी-कभी रात में पड़ी अकेली लाश की बहुत दुर्गति होती है। उसे याद है पड़ोसी
गाँव में एक बूढ़ा अविवाहित नाई अकेला रहता था। आगे-पीछे कोई था नहीं। वह मालवा
से यहाँ बाल बनाने आया था। लोगों की हजामत बनाकर जैसे-तैसे अपना गुजारा करता
था। ठंड की एक रात में वह अपनी टापरी में मर गया। दिन चढ़ने तक वह टापरी में
मरा पड़ा रहा। जब लोगों को पता लगा तब तक चूहे उसकी एक आँख खा चुके थे। बेचारे
डोकरे का शव विकृत हो गया था। यह चर्चा कई दिनों तक आसपास के गाँवों में होती
रही। उसे जब-तब यह बात याद आ जाती है। उसकी कल्पना में बार-बार उस डोकरे का
विकृत शव आता और वह डर जाता। लगता जैसे वह आज, अभी की बात हो।
नावण डोकरी के मरने की सूचना उसके लिए डरावनी थी। आज फिर उसे उस अप्रिय अनुभव
से गुजरना पड़ेगा जिससे वह अक्सर बचना चाहता था। लेकिन बच नहीं पाता था। वह
बेबस था। कुछ चीजें आदमी के हाथ में नहीं होती। उन्हें केवल झेलना होता है। आज
फिर उसे एक अरथी देखनी थी। या अरथी गुजरने तक घर में कहीं दुबके रहना था।
दहशतजदा मातमी ढोल सुनना था। घर में बई-बाऊजी के झगड़े के कारण मन में कुछ
अनहोनी होने का अंदेशा था। उसके मन में डर की कई परतें जमा हो चुकी थी।
आखिर दोपहर को डोकरी की अरथी उठी। तिराहे से शवयात्रा गुजरी। झगड़े के बाद बई
मृतका के घर नहीं गई थी। अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुई। केवल बाऊजी ही गए
थे। ढोल की मातमी धुन बज रही थी। इस धुन के आगे सभी आवाजों के साथ हम भाइयों
की भी सिट्टी-पिट्टी गुम थी। गाँव की हर आवाज पर ढोल की ढम-ढम भारी थी। इस
आवाज ने उसकी धड़कनों को तेज कर दिया था। अरथी पर हजारिए के फूल पड़े थे। शव कफन
से ढँका और रस्सियों से कसा था। अगरबत्तियाँ जल रही थीं। वह घर की खिड़की से दम
साधे सब देख रहा था। लोग 'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है' कहते हुए तेज
कदमों से मनावर के रास्ते पर मसाण की ओर बढ़ते जा रहे थे। सबकी मंजिल मसाण ही
थी।
बाऊजी डोकरी के क्रियाक्रम के बाद शाम को लौट आए थे। रात में उसकी नींद बड़ी
मुश्किल से लगी ही थी कि तेज आवाजों के कारण वापस उचट गई। बई-बाऊजी के बीच
सुबह की रुकी दाँताकिचकिच का दूसरा चरण फिर शुरु हो गया। अक्सर उनके बीच का
वाकयुद्ध जल्दी ही हिंसक हो उठता। उसे अच्छी तरह याद है। शायद दो महीने पहले
की बात है। किसी बात को लेकर दोनों में झगड़ा हुआ था। बाऊजी ने बई को कपड़े धोने
की मोगरी से पीटा था। बई ने फर्श पर अपने हाथ पटक-पटक कर सारी चूड़ियाँ तोड़
डाली। फिर सारे टुकड़े समेटकर उन्हें इमामदस्ते में डाल दिया। इमामदस्ते में
चूड़ियाँ कूट ली। उस चूड़ियों के चूर्ण को पानी में घोलकर पीने ही वाली थी कि
पड़ोस से हो-हल्ला सुनकर सयतुल माँ आ गई थीं। उन्होंने जैसे-तैसे दोनों को शांत
किया।
हम तीनों भाइयों ने मन ही मन सयतुल माँ का आभार व्यक्त किया। ईश्वर से
प्रार्थना की कि दोनों में हमेशा शांति बनी रहे, कभी झगड़ा न हो। हमें बार-बार
कल्पना में अपनी बई को मरा हुआ देखना न पड़े। लेकिन निष्ठुर ईश्वर ने हमारी
प्रार्थना ठुकरा दी थी। उसे लग रहा था कि बई अब मर जाएगी। फिर भी पता नहीं
कैसे वह अभी तक बची रह गई थी।
फिर वही सब घट रहा था जिसकी आशंका सुबह से ही थी। सुबह का स्थगित हुआ झगड़ा फिर
शुरू हो गया था। बई का मुँह चल रहा था और बाऊजी के हाथ। धप-धप, ठो-ठो।
- थारो हड़ब्यो बंद राखऽ, नी तऽ कूच दूँगा।
लेकिन बई का बोलना बंद नहीं हुआ। आखिरकार जब हाथों से बात नहीं बनी तो बाऊजी
ने लकड़ी का एक फंटा उठा लिया और बई को ढोर की तरह पीटने लगे। पीटते-पीटते एक
फंटा टूट गया तो उन्होंने दूसरा फंटा उठा लिया। फिर दाँत पीसते हुए पीटने लगे।
बई जोर-जोर से चिल्ला कर बाऊजी को सराप रही थी - 'ए..तू मखऽ कय मारऽ रे
हत्यारा, तकऽ भगवान मारऽगा।'
- ए...हूँ नी होनी तो थारा पुआड़िया उगी जाता रे कोचरबिल्ला। मारी-मारी न
म्हारा हड़का तोड़ न्हाख्या रे करमखोल्ला।
शायद रोने से अधिक उसे बोलना जरूरी लग रहा था। बई का बोलना आग में घी का काम
कर रहा था। बाऊजी का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया था। हम सब भाई डर से थर-थर
काँप रहे थे। सयतुल माँ भी नहीं आई थी। शायद रात अधिक होने से वे सो गई थीं।
तभी बई ने निर्णयात्मक स्वर में कहा - 'ले अबी थारा नाम सी कुआँ मँ पड़ी न मर
जऊँ।'
...और वह तत्काल उठकर सपाटे से जाने लगी। तीनों खाट से उठ बैठे। अब तीनों भाई
उसके पीछे रोते हुए लगभग भागने लगे। बई को रोकना उनके बूते की बात नहीं थी। वे
बस उसके पीछे-पीछे दौड़ते जा रहे थे। वे बई की बराबरी से चल नहीं पा रहे थे।
तीनों भय से काँप रहे थे। बई जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी। उनका भय बढ़ता ही
जा रहा था। आज बई निश्चित ही मर जाएगी। खोदरे से पहले एक खोदरी पड़ती है। बई
खोदरी पार गई थी।
चिता के दहकते अंगारे,
फूटला कुँआ और इमली का झाड़
वे चलते-चलते खोदरे तक पहुँच गए थे। बई की चाल में वही तेजी थी। वे तीनों उसके
पीछे डरते, रोते और घिसटते जा रहे थे। खोदरे से उन्होंने देखा मसाण में जहाँ
नावण डोकरी को जलाया गया था, अभी तक अंगारे दहक रहे थे। उसे तत्काल दिन का
पूरा दृश्य याद आने लगा। नावण माँ की अरथी ले जाई जा रही है। हजारिए के फूल,
जलती हुई अगरबत्तियाँ, सब कुछ नजर आने लगा। ...तो क्या बई की भी अरथी निकलेगी।
इस कल्पना से ही वह सिहर उठा।
बई बेखौफ आगे बढ़ती रही थी। घरधोलिया (खोदरे का वह स्थान जहाँ घर भर के कपड़े
धोए जाते हैं) आ गया था। खोदरे में सबसे ज्यादा पानी यहीं रहता है। कहते हैं
इसमें यमराज का भैंसा रहता है। दिन में यह भैंसा पानी में डूबा रहता है और रात
में बाहर आकर घूमता है। यह सोचकर उसे धूजनी भराने लगी। चारों ओर रात का
सन्नाटा पसरा था। कहीं से आती सियार की हुआ-हुआ रात को और भयावह बना रही थी।
अब बई के पीछे-पीछे तीनों खोदरा पारकर पगडंडी पर आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ ही
दूरी पर फूटले कुएँ के पास इमली का घना डरावना झाड़ था। इस झाड़ के पास तो वे
दिन में भी जाने से डरते थे। कहते हैं इस पेड़ पर भूत रहते हैं। फूटले कुएँ के
पास जाने से भी डर लगता था। यह कुआँ पक्का बँधा हुआ नहीं था। जगह-जगह टूटा हुआ
था। शायद इसीलिए इस कुएँ का नाम फूटला कुआँ पड़ गया था।
आखिर वे इमली के पेड़ के पास जा पहुँचे। अब बई कुएँ में कूद कर करणसिंग की माँ
की तरह मर जाएगी। करणसिंग सयतुल माँ का पोता था। उसकी माँ इसी कुएँ में कूदकर
मरी थी। उसकी माँ की लाश इसी कुएँ में से निकाली गई थी। तो क्या बई भी...।
अरथी... हजारिए के फूल... अंगारे... वे भय से धूज रहे थे।
बई धम्म से इमली के पेड़ के नीचे बैठ गई। हाथ घुटनों पर बँधे थे और सिर घुटनों
के बीच धँसा था। वह अपने आप में अंतर्लीन थी। कोई भी कुछ बोल नहीं पा रहा था।
तभी बई के सिसकने की आवाज आई। कुछ रो लेने के बाद वह लूगड़े से नाक और आँसू
पोंछने लगी।
एक पल को उसे लगा कि वे सब मसाण में बैठे हैं। मसाण में चारों तरफ सुतली के
टुकड़े, लच्छे, एक-दो अधजली लकड़ियाँ, लाल-सफेद कफन के एक-दो अवशेष, एक-दो राख
के ढेर और पत्थर पड़े थे। लग रहा था कि बई को जलाया जा रहा है। इस कल्पना से वह
सिहर उठा।
छोटा भाई अबोध था। अभी उसे डर की उतनी पहचान नहीं थी। लेकिन उसे इतनी समझ जरूर
थी कि वे जहाँ बैठे हैं वह उनका घर नहीं है। कोई निरापद जगह नहीं है। सन्नाटे
को तोड़ते हुए वही बोला - 'बई घर चल नी... बई चल नी, बई घर... घर चल बई...।' बई
ने धीरे से दाहिने हाथ से छोटे भाई को अपनी ओर खींच लिया।
छोटू की आवाज से उसकी हिम्मत कुछ बढ़ी। वह भी मँझले भाई के साथ बई से सट गया।
जैसे वे दोनों भी छोटू की बात का समर्थन कर रहे हों। वह बार-बार मन में आने
वाली बुरी कल्पनाओं को मन से बुहार रहा था। मुरदों के भयावह चेहरों, भूतों और
यमराज के भैंसे को परे धकेल रहा था। भय की परतें धीरे-धीरे हटने लगी थीं। वह
खुद को कुछ सहज महसूस कर रहा था। उसने पलटकर अपने गाँव की ओर देखा। उसे रोशनी
के छोटे-छोटे धब्बे नजर आ रहे थे। मानो किसी ने अँधेरे की छाती में आग की छड़ें
घोंप दी हों।