तुलनात्मक शोध को पारिभाषित करने से पहले शोध के बारे में समझ लेना आवश्यक है।
ज्ञान की किसी भी शाखा में नवीन तथ्यों, विचारों, अवधारणा या सिद्धांतों की
खोज के लिए अपनाई गई क्रमबद्ध प्रक्रिया ही शोध है। शोध की तमाम पद्धतियों में
तुलनात्मक शोध एक महत्वपूर्ण पद्धति है। साधारणतः हम कह सकते हैं कि 'तुलना'
शब्द का बहुत ही सामान्य एवं व्यावहारिक अर्थ है। जब हम किसी दो वस्तुओं या
व्यक्तियों में साम्य अथवा वैषम्य को ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं तो यह
प्रक्रिया तुलना या तुलनात्मक कहलाती है लेकिन जब हम तुलनात्मक शोध की बात
करते हैं तो यह दोनों शब्द मिलकर एक विशिष्ट अर्थ की निर्मिति करते हैं।
तुलनात्मक शोध कहने से ही पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि यह किन्हीं दो रचनाओं
लेखकों, काव्यांदोलनों या किन्हीं अन्य साहित्यिक पक्षों को लेकर एक ही भाषा
या किन्हीं दो भाषा के स्तर पर किया जाने वाला शोध है।
तुलनात्मक शोध के संदर्भ में बैजनाथ सिंहल का मानना है कि - "इस प्रकार के शोध
में विषमता बताने के लिए साम्य और साम्य बताने के लिए विषमता जरूरी है।" 1 (बैजनाथ सिंहल, 2008) सामान्यतः हम देखते हैं
कि प्रत्येक दो वस्तुएँ एक दूसरे से कुछ न कुछ भिन्नता लिए हुए होती हैं, या
हम यूँ कहें कि प्रत्येक दो व्यक्तियों में भी आकृति के आधार पर अंतर होता ही
है साथ ही वे एक-दूसरे से प्रकृति, विचारधारा और चिंतन-मनन में भी स्थूल से
लेकर सूक्ष्म स्तर तक भिन्न होते हैं। चूँकि साहित्य भी मनुष्य के भावों एवं
विचारों की विशिष्ट अभिव्यक्ति है। जाहिर है, किन्हीं भी दो रचनाकारों का
साहित्य शत-प्रतिशत एक जैसा होना असंभव है। उसमें कुछ न कुछ विषमता अथवा
साम्यता का होना स्वाभाविक है, खासकर अलग-अलग संस्कृतियों, परिवेशों, कालों
एवं भाषाओं के लेखकों में तो ऐसा होना संभव ही नहीं है। तुलनात्मक शोध भी इसी
साम्य अथवा वैषम्य को खोजने का एक उपक्रम है।
तुलनात्मक शोध के विविध आयाम
तुलनात्मक शोध के लिए विषय का चयन कई प्रकार से किया जा सकता है -
• एक ही भाषा के साहित्य के अंतर्गत दो कवियों, लेखकों के व्यक्तित्व व
कृतित्व, काव्यों, प्रवृत्तियों एवं युगों आदि की तुलना। जैसे कबीर व रैदास की
तुलना या देव व बिहारी की तुलना। इसके अतिरिक्त प्रवृत्तियों एवं युगों के
आधार पर 'प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद की साहित्यिक, सांस्कृतिक चेतना का
तुलनात्मक अध्ययन' जैसे विषय को तुलनात्मक शोध का विषय बनाया जा सकता है।
• एक भाषा के साहित्य पर दूसरे भाषा के साहित्य का प्रभाव जैसे विषयों को भी
तुलनात्मक शोध के विषय के अंतर्गत रखा जा सकता है। जैसे - 'हिंदी साहित्य पर
संस्कृत साहित्य का प्रभाव'।
• एक साहित्य पर दूसरी साहित्यिक कृतियों का प्रभाव (जैसे - हिंदी रामकाव्यों
पर वाल्मीकि रामायण का प्रभाव) जैसे क्षेत्रों को भी तुलनात्मक शोध का विषय
बनाया जा सकता है।
• दो कवियों, लेखकों, कृतियों, प्रवृत्तियों एवं युगों आदि की तुलना भी हम
तुलनात्मक शोध के अंतर्गत कर सकते हैं। जैसे - 'नागार्जुन और वरवर राव की
कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन', 'बादल सरकार एवं मोहन राकेश के नाटकों का
तुलनात्मक अध्ययन', 'हिंदी एवं तेलुगु के भक्ति आंदोलनों की तुलना' आदि।
• एक ही भाषा के साहित्य में दो या दो से अधिक कृतियों की तुलना, हम तुलनात्मक
शोध का विषय चुन सकते हैं। इसके अंतर्गत भी दो तरह के विषय बनाए जा सकते हैं।
एक ही कवि की दो कृतियों की तुलना। जैसे - 'सूरदास के सूरसागर और सूरसरावली
की तुलना'।
भिन्न-भिन्न कवियों की कृतियों की तुलना। जैसे - 'रामचरितमानस और
रामचंद्रिका का तुलनात्मक अध्ययन'।
इस तरह के शोध में बोलियों, लोकगीतों के अलावा एक साहित्य पर अन्य साहित्य
की प्रवृत्तियों का प्रभाव जैसे विषयों को भी तुलनात्मक शोध के विषय के रूप
में चुना जा सकता है। जैसे - 'बुंदेली और कन्नौजी लोकगीतों की तुलना' एवं
'हिंदी स्वच्छंदतावादी काव्य पर अँग्रेजी रोमांटिसिज़्म का प्रभाव' आदि।
तुलनात्मक शोध की समस्याएँ
तुलनात्मक शोध के संदर्भ में अनेक सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समस्याएँ आती
हैं। इस तरह के शोध में पहली समस्या स्वयं शोधार्थी संबंधी है। यदि तुलनात्मक
शोध दो या दो से अधिक भाषाओं से संबद्ध है तो शोधार्थी से यह अपेक्षा की जाती
है कि उस भाषा एवं साहित्य के साथ-साथ शोध विषय से संबंधित क्षेत्रों पर उसका
अधिकार हो। तुलनात्मक शोध से संबंधित भाषाओं में यदि एक भाषा शोधार्थी की
मातृभाषा हो तो तुलनात्मक शोध के समय दूसरी भाषा के साहित्य पर भी उसका समान
अधिकार होना भी नितांत आवश्यक है। सिर्फ अनुवाद के आधार पर तुलनात्मक शोध करने
पर शोधार्थी शोध के प्रति पूर्णतः न्याय नहीं कर सकता। कभी-कभी शोधार्थी
अनूदित कृतियों के आधार पर अपने विषय का चयन कर लेता है, हालाँकि अनूदित
कृतियों को लेकर कई शोध हुए हैं और हो भी रहे हैं पर इस तरह की कृतियों में
कहीं-कहीं पर कुछ शब्दों का ठीक-ठीक भाव-बोध नहीं हो पाता जिससे शोध की
प्रामाणिकता पर इसका असर पहुँचता है। ऐसी स्थिति में तुलनात्मक अध्ययन करने
वाले शोधार्थी के पास अनुवाद या भावानुवाद करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है।
इस तरह का शोध करते समय शोधार्थी को किसी एक साहित्य के प्रति पूर्वग्रह या
पक्षपात नहीं करना चाहिए, ऐसी स्थिति होने पर तुलनात्मक अध्ययन एवं मूल्यांकन
में बाधा उत्पन्न हो जाती है। तुलनात्मक शोध की दूसरी समस्या शोध निर्देशक से
संबंधित है। आज दो या दो से अधिक भाषाओं के साहित्य पर अधिकार रखने वाले
शोध-निर्देशकों की संख्या सीमित है। खासकर हिंदी भाषी क्षेत्र के शोध
निर्देशकों का दूसरे भाषा के साहित्य से जो परिचय होता है वह या तो अनुवाद के
आधार पर या तो संबंधित समीक्षा या आलोचना के आधार पर। ऐसी स्थिति में शोध
निर्देशकों के लिए भी यह आवश्यक है कि वह विषय से संबंधित दोनों भाषा के
साहित्यों पर समान अधिकार रखें। तुलनात्मक शोध की तीसरी समस्या शोध-प्रबंध के
परीक्षण एवं मूल्यांकन से संबंधित है। शोध-प्रबंध का मूल्यांकन करने वाले
परीक्षक के लिए भी यह आवश्यक है कि उसे तुलनात्मक शोध से संबंधित भाषा एवं
साहित्य पर पूर्ण अधिकार हो, तभी इस तरह के मूल्यांकन के साथ न्याय संभव है।
तुलनात्मक शोध का महत्व
एक भाषा के साहित्य से दूसरी भाषा के साहित्य में एकरूपता, साम्यता एवं
वैषम्यता का निरूपण करना तुलनात्मक साहित्य का मुख्य उद्देश्य है। निश्चित तौर
पर इस तरह के शोध व्यक्ति के ज्ञान विस्तार में वृद्धि करने के साथ-साथ भाषा,
साहित्य एवं देशकाल के बंधन से मुक्त करने में सहायक होते हैं। मैक्समूलर के
शब्दों में कहें तो - "All higher knowledge is gained by comparative and
rests on compression." (मैक्समूलर, 1980) अर्थात् सभी उच्चतर ज्ञान की
प्राप्ति तुलना से ही हुई है और वह तुलना पर ही आधारित है। एक प्रकार से देखें
तो भारतीयता की अवधारणा को विकसित करने में तुलनात्मक शोध की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है। जब प्रश्न यह उठता है कि हिंदी आत्मकथाओं के बनस्पत मराठी
आत्मकथाओं में अधिक पीड़ा है तो हम दोनों आत्मकथाओं के समय, समाज, परिस्थितियों
एवं संस्कृतियों को जानना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में हम स्वतः तुलनात्मक
पद्धति का ही प्रयोग करते हैं। इस तरह के शोध में प्रायः विविध ज्ञानानुशासनों
की आवाजाही बनी रहती है।
समस्यामूलक शोध में भी तुलनात्मक शोध की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी
समस्या पर एक ही समय में अलग-अलग रचनाकार क्या सोचते हैं, यह तुलनात्मक अध्ययन
के जरिए ही जाना जा सकता है। इस तरह का अध्ययन किसी विशिष्ट पहलू या क्षेत्र
विशेष को लेकर भी किया जा सकता है। धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र
क्षेत्रों में से किसी एक के आधार पर जब तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है तो
इसकी सीमाएँ अंतर्विद्यावर्ती शोध का स्पर्श करके चलने लगती हैं, यह तुलनात्मक
अध्ययन की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है।
भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का अपना विशिष्ट महत्व है। भारत की
सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विविधता की अनुभूति हमें तुलनात्मक शोध के द्वारा ही
प्राप्त होती है। हमें तुलानात्मक साहित्य एवं शोध को स्तरीय बनाने हेतु इसमें
आ रही समस्याओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है तभी तुलनात्मक अध्ययन एवं शोध का
विकास स्वस्थ एवं संतोषप्रद संभव हो सकता है।
संदर्भ-ग्रंथ
1.
सिंहल, बैजनाथ, (2008), शोध स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्य विधि, नई दिल्ली
: वाणी प्रकाशन, पृ. 30
2.
गुलाम, एस. एवं अन्य (संपा.),(1980), तुलनात्मक अनुसंधान एवं उसकी समस्याएँ,
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सहायक-ग्रंथ
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चौधरी, इंद्रनाथ, (2006), तुलनात्मक साहित्य भारतीय परिप्रेक्ष्य, नई दिल्ली :
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जैन, डॉ. रवींद्र कुमार, (2008), साहित्यिक अनुसंधान के आयाम, नई दिल्ली :
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अकादमी