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कहानी

जाननिसारी

महेंद्र सिंह


सोहना के हर रोज रात को नौ-साढ़े नौ बजे कस्बे की परिधि में घुसते ही गली-मुहल्ले के सभी कुत्ते बिना नागा इकट्ठा हो कर उस पर भौंकने लग जाया करते थे - भौं! भौं! भौं! न जाने कैसे वे सोहना की पदचाप पहचान लेते थे और उस पर भौंकने लग जाया करते थे। सोहना को मरगिल्ले कुत्तों से डर नहीं लगा करता था। जैकी को भी सोहना पुचकार लिया करता था। पर शेरू? वो तो एक ही था। कान खड़े हुए। पूँछ उठी हुई। कितना खुरार्ट। कितना कटखन्ना काला कुत्ता! माँ बचपन में सोहना को कुत्तों के बारे में बताया करती थी कि वे भैरों के वाहन होते हैं। सपने में कुत्तों का दिख जाना शुभ होता है। भूत-प्रेत सबसे पहले कुत्तों को दिखाई देते हैं। भूत-प्रेत! हूँ! बेरोजगार भूत! सोहना जैसे बेरोजगार भूत से कस्बेवालों की रक्षा करने के लिए ही शायद कुत्ते भौंकते होंगे...।

सोहना ने अपने कंधे पर बस्ता लटकाया हुआ था। उसमें प्रतियोगिता दर्पण का ताजा अंक, सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल का इतिहास विशेषांक, रैन एंड मार्टिन अँग्रेजी व्याकरण तथा उपकार प्रकाशन की सामान्य अध्ययन की कुछ किताबें थीं। हमेशा की तरह उसकी गर्दन झुकी हुई थी। वह कुनमुना रहा था और 'धीर तुम बढ़े चलो' की तर्ज पर अपनी मंजिल की ओर बढ़ा चला जा रहा था। कॉलेज से निकलने के एक-डेढ साल में ही उसके चेहरे पर दायित्वबोध व परिपक्वता की चादर चढ़ गई थी। कॉलेज की मस्ती और बेफिक्री तथा उसके ढाबों की बेतकल्लुफी उसके सिर से हवा हो गई थी। उसकी जगह पर एक अंतहीन चुप्पी उसके अंतस में पसर गई थी।

पीर बाबा की मजार आने पर उसने मन में उन्हें सलाम कहा। फिर वह अपने कदमों को गिनने के साथ-साथ आस-पास लगे पेड़ों की गिनती करने लगा। कटहल के पेड़ के बाद जामुन के दो, आम के पाँच, बेल पत्थर के छह, मौलसिरी के दो, आँवले के दो, बड़े शहतूत का एक और छोटे शहतूत का भी एक ही पेड़ तथा नीम के चार पेड़ आते थे और उसके बाद उसका घर आ जाता था। आम के पेड़ के नीचे टपके पड़े होते थे। पहले पेड़ की अमिया खट्टी होती थी। वह सबसे छोटा पेड़ था। तीसरे और चौथे पेड़ की अमिया मीठी हुआ करती थी। इनके नीचे बच्चों की सवार्धिक भीड़ रहा करती थी। जो बच्चे पेड़ पर नहीं चढ़ पाते थे, वह पत्थर मार-मार कर अमिया तोड़ लिया करते थे। कमोबेश यही दृश्य बेल के पेड़ों के नीचे भी दिखाई दे जाता था। डेढ हजार डग भरने के बाद सोहना नीम के पेड़ों के नीचे पहुँच जाता था। इन चारों पेड़ों की बुनावट अलग-अलग थी। पहले पेड़ का तना ऊँट के आकार का था। इस पर पीपल का एक पेड़ भी लगा हुआ था। सावन के महीने में औरतें नीम के इसी पेड़ पर झूला डाल कर पींगें भरा करती थीं। दूसरे पेड़ का तना बहुत ऊँचा था। तीसरे पेड़ का तना दो मीटर की ऊँचाई पर था। बचपन में सोहना इस पेड़ पर खूब चढ़ा करता था। चौथे और अंतिम पेड़ का तना त्रिशूल की तरह था। पता नहीं किस अंधविश्वास के चलते औरतें उसके चारों ओर रौली बाँधने एवं चढ़ावा चढ़ाने लगी थीं। सोहना की पड़ोसन नेपालन थी। वह विधवा थीं। उनका नाम कुंती था। वह उन्हें मौसी कह कर बुलाया करता था। मौसी सुबह-सुबह नीम के इस पेड़ पर जल चढ़ाया करती थीं।

पौने दस बज चुके थे। कारखाने के घड़ियाल में नौ का घंटा कब का बज चुका था। पड़ोसियों की खाटें नीम के पेड़ों के नीचे बिछने लगी थीं। शांतिमोहन भैजी, राम ब्वाडा, बिजेंदर सिंह चाचा, विमल दादा और विजयसिंह डलैवर भैजी की चारपाइयाँ बिछ चुकी थीं। लेकिन चबूतरे पर बैठे हुए किशोरी धोबी और जौहरी धोबी के किस्से-कहानी सुने बिना, उन्हें सोने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उनके इर्द-गिर्द महफिल जमी रहती थी। थोड़ी देर में पूरा गढ़वाल समाज उठ कर शांति भैजी की चारपाई पर सिमट आया। शांति भैजी की चाँद बिल्कुल सफाचट थी। बस ब्रह्मरंध्र के ठीक ऊपर एक कान से दूसरे कान तक उनका 'बालसेतु' गया हुआ था। राम ब्वाडा ने कच्छा पहना हुआ था और उसका नाड़ा नीचे लटक रहा था। उन्होंने नाभि के ऊपर तोंद तक अपनी बनियान चढ़ा कर रखी हुई थी। ब्वाडा पसीने से तर-बतर हो रखे थे और काफी बेचैन भी दिखाई दे रहे थे। डलैवर भैजी का तो कहना ही क्या - कमीज की जेब में उनके तंबाकू, घर में उनके कांटीन (कैंटीन) की बोतल तथा जबान पर उनके निंदा रस हुआ करता था। वह होश में कम, सुरूर में अधिक रहा करते थे। उनके बारे में यह उक्ति फिट बैठती थी कि सूरज अस्त, गढ़वाली मस्त।

शांतिमोहन भैजी को मीटिंग की चिंता हो रही थी। आनंद दादा किश्त देने में कोताही बरत रहे थे। इस माह पाँच-छह लोगों की किश्तें नहीं आई थीं। किसी ने ब्याज दे दिया था, तो मूलधन चुकाने से वह कन्नी काट गया था। काफी लोग गर्मियों की छुट्टी में गाँव चले गए थे। इसलिए उनका हिसाब-किताब गड़बड़ा गया था। गाँव की बात चलने पर डलैवर भैजी कैसे पीछे रह सकते थे। विजय सिंह भैजी को काफल से लदी हुई गुमखाल की डांडियाँ याद आने लगीं। वह किंगौड़े, बेड़ू, तिमला, हिसरा, काकड़ी और माल्टा को याद कर बिसूरने लगे। उन्हें याद आया कि वह दो साल से गाँव नहीं गए हैं। उनके खानदान के सारे देवता नाराज हो रखे हैं। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें। रूठे हुए देवताओं को मनाने जाएँ कि उजड़ते हुए घर की देखभाल करें। फिर वह अपनी धाक जमाने के लिए फेंकने लग गए कि उन्होंने तिमला के फूल को देखा है। तिमला का फूल रात में ही खिलता और फट जाता था। गढ़वाल में प्रचलित मान्यता के अनुसार तिमला का फूल अभी तक किसी ने भी नहीं देखा है। डलैवर भैजी के तिमला के फूल की बात छेड़ने का मकसद केवल अपनी धाक जमाना होता था। वह यह बात अच्छे से जानते थे कि जब किसी ने तिमला का फूल देखा ही नहीं है, तो वह उनकी बात की काट किस तरह से कर पाएगा। अतः अक्सर वह तिमला के फूल की खूबसूरती की तारीफ करते हुए कह दिया करते थे कि - "आह! क्या तो खूबसूरत नजारा होता है उस वक्त। तब ऐसा लगता है मानो कि कोहिनूर हीरा प्रकृति के खजाने में चमक रहा है।"

आमतौर पर शांति भैजी डलैवर भैजी की बातों को दिल पर नहीं लिया करते थे क्योंकि उनका मानना था कि जो आदमी होश में है ही नहीं, तो भला उसकी बातों पर क्या ध्यान धरना। विजय सिंह तो शराब के सुरूर में बकझक करता ही रहता है। इसलिए वह उसकी बातों को इस कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते थे। मगर अब बात कारखाने की बदहाली और कामगारों की बेदखली पर आ टिकी थी जिससे गढ़वाल सभा का माहौल अनायास ही गमगीन हो चला था। पिछले कुछ समय से कारखाने के हर खासोआम के बीच यह चर्चा जोरों पर थी कि कारखाने में छंटनी होने जा रही है। लेकिन आज बात कर्मचारियों की छँटनी से बढ़ कर कारखाने की तालाबंदी होने, जमीन खाली कराए जाने के नोटिस भेजे जाने और बस्ती में नींव खुदने की कवायद शुरू होने तक पहुँच गई थी। विजय भैजी को मैनेजमेंट के इस फैसले की खबर लग गई थी कि कारखाने को बंद करके उसकी जगह पर एक भव्य आधुनिक विद्यालय की नींव रखे जाने के लिए यह सब ताना-बाना बुना जा रहा है। दरअसल, अँग्रेजों के जमाने के मशहूर व्यापारी लाला धान सिंह के पोते लाला वीर सिंह ने कारखाने और उसके आस-पास की जमीन खरीद ली थी। लाला जी की वणिक बुद्धि ने यह भाँप लिया था कि महानगर से सटा होने के कारण आगामी कुछ वर्षों में कस्बे की डिमांड बहुत बढ़ने वाली है। इसकी एक वजह तो यह थी कि महानगर की सीमा में मेट्रो ने पंख पसार लिए थे। उसकी सीमा में धडल्ले से बहुराष्ट्रिक कंपनियों व सेवा क्षेत्र के दफ्तर खुल गए थे। नवधनाढ्य मध्यम वर्ग के कुलदीपकों की शिक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए स्कूल का खोला जाना सर्वथा उपयुक्त फैसला था। फिर शिक्षा का व्यवसाय एक मीठे जहर की तरह होता है जिसमें अभिभावकों को गुमान ही नहीं होता कि कितनी सफाई से उनकी जेब ढाली की जा रही है।

सोहना वैसे ही गढ़वाल समाज से कटता रहता था। इसलिए गढ़वाल समाज में पसरी गंभीरता को अनदेखा करते हुए सोहना अपने घर में घुस गया। छिड़े हुए मस्ले की संजीदगी और उस पर सोहना की बेअदबी देख कर भला बतोडू बिजेंदर सिंह चचा की जबान भला कैसे रुक पाती। इसलिए अपने जामे से बाहर निकलते हुए उन्होंने कह दिया - "देखो! घरघुस्सू आ गया है। क्या तो हो गए हैं आज कल के बच्चे! न आँखों में शर्म, न दुआ-सलाम! देख कर भी देखो कैसे मुँह फेर लेता है। कुछ मुँह से बोलता भी नहीं। आँखें देखो इसकी-ऐसा लगता है कि जैसे कि हमें खा ही जाएगा यह। पिताजी तो नहीं हैं इसके ऐसे। कितने सज्जन आदमी हैं वे। कितने मिलनसार हैं वे। सबसे हँस-हँस कर बोलते-चालते हैं वे। इसे देखो एक ही घुन्ना है यह सोहना। इससे तो बात करते हुए भी भय लगता है। हम सब इनके भविष्य को ले कर परेशान हो रखे हैं और इन्हें जमाने से कोई लेना-देना नहीं है। हम तो बेवकूफ ठहरे। पहले हमने इनके लिए अपनी जवानी बर्बाद की और अब हम अपना बुढ़ापा इनके लिए होम कर रहे हैं।"

माँ डयोढ़ी पर दरवाजे की ओट लेकर मानो सदियों से सोहना का इंतजार कर रही थी। सोहना की झलक मिल जाने पर माँ ने अपने मन में कहा कि चलो, सुबह का गया हुआ सोहना शाम को सही-सलामत लौट तो आया। इतना ही काफी है। इस वक्त सोहना की शक्ल का दिख जाना ही जैसे उनके लिए संसार की सबसे बड़ी नेमत थी। उनके मायूस चेहरे से तनाव एवं चिंता की मिली-जुली रेखाएँ मिट गर्इं। अब हड़बड़ी में माँ दो-तीन काम निबटाएगी। पहले-पहले वह पिताजी को खबर करेंगी कि सोहना लौट आया है। इसके बाद माँ पीतल की डेकची (पतीले) से भात और कलई की हुई कढ़ाई से आलू की धबड़ी (साग) निकाल कर थाली में परोस देंगी। ताँबे के बंठे (घड़े) से पानी का एक गिलास निकाल कर रख देंगी। ये तीनों चीजें वे गैस के चूल्हे के ऊपर रख देंगी। गैस के चूल्हे, स्टोव और चूल्हे में ही उनकी जिंदगी तमाम हो गई है। स्टोव की पिन लगाने में अब माँ को दिक्कत होती है। उसकी भक-भक की ध्वनि माँ के जहन में चुभने लगती है जिससे उनकी साँस फूलने लगती है। शायद उन्हें अस्थमा रहने लगा है। नहीं, नहीं, उन्हें अस्थमा लकड़ी के चूल्हे का प्रयोग करने से हुआ था। सिर के नीचे ऊँची तकिया रख कर लेटने पर भी कभी-कभी उन्हें आराम नहीं मिल पाता था। एक रात तो उनकी साँस उखड़ने लग गई थी। औंधा मुँह करके लेटने पर भी वे साँस नहीं ले पा रही थीं। उस रात माँ को खैराती अस्पताल के आपातकालीन कक्ष में ले जाना पड़ गया था। एस्थलीन की गोली खाने के साथ-साथ डॉक्टर दवे ने उन्हें इनहेलर लेने की भी सलाह दी थी। मगर इनहेलर खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आते? डॉक्टर साहब की सलाह पर ही माँ की साँस की बीमारी की गंभीरता को देखते हुए कुछ समय पहले गैस का चूल्हा लिया गया था। लेकिन घर में उसका इस्तेमाल बहुत कम हो पाता था। इसका एक कारण तो आर्थिक था। दूसरा कारण माँ की आशंका थी। माँ को यह भय लगा रहता था कि गैस का सिलेंडर कभी भी फट सकता है। इस शंका के चलते गैस का सिलेंडर घर में काफी दिनों तक चल जाया करता था क्योंकि जब गैस इस्तेमाल ही नहीं होगी, तो वह खत्म भी कैसे हो पाती।

सोहना के घर के अंदर आने पर आँगन में सिलाई की मशीन ले कर बैठे हुए पिताजी ने एकबारगी उसे देखा और उससे कुछ कहे बिना वह मशीन की सुई में धागा डालने का प्रयास करने लगे। पिताजी की यही दृष्टि सोहना को बेध जाया करती थी। वह मन में सोचता कि पिताजी को ऐसी नजरों से उसे नहीं देखना चाहिए। इससे तो कहीं अच्छा होता कि पिताजी उसे जली-कटी सुना देते। मगर वह ऐसा कुछ भी नहीं करते। बस अपने काम में लग जाते। यही सोहना को अखरता रहता। तब वह अपने आपसे सवाल-जवाब करने लगता कि कौन कहता है इन्हें कि काम करें। सुई में धागा डाल पाते नहीं। आँखें इनकी हर दम सूजी रहती हैं। चश्मे का नंबर इनका कितना बढ़ गया है। क्यों नहीं अब वे आराम से अपने स्कूल की टीचरी करते और एक साल बाद रिटायर हो जाते? नहीं, ऐसा तो वह कर ही नहीं सकते न। वह घर की साफ-सफाई भी करेंगे। अपने लिए कपड़े भी सिलेंगे। अपने और हमारे कपड़े धोएँगे भी और फिर यह शिकवा-शिकायत भी करेंगे कि बुढ़ापे में अब उनसे काम नहीं हो पाता। जब काम नहीं हो पा रहा है उनसे, तो काहे नहीं केवल अपनी टीचरी पर ध्यान देते? सोहना अक्सर यह सोचता कि उसके पिताजी दूसरे लोगों जैसे क्यों नहीं हैं? क्यों दिन भर खटते रहते हैं वे? क्या जरूरत है इस उम्र में भी उन्हें काम करने की? लेकिन जिद पर अड़े हैं,तो अड़े हुए हैं। खुद दुखी होते हैं और घरवालों को भी सुखी नहीं रहने देते। ठीक पाँच बजे उठ भी जाएँगे। घूमने भी जाएँगे। थोड़ी दंड-बैठक भी करेंगे। वापस आ कर स्नान और पूजा भी करेंगे। माँ को चाय भी पिलाएँगे। नाश्ता बनाने में उनकी मदद भी करेंगे। फिर अपनी साईकिल पर स्कूल के लिए निकल भी जाएँगे। ठीक सात बजे अपने स्कूल पहुँच भी जाएँगे। उनकी इस नैमित्तिक दिनचर्या में कोई व्यतिक्रम नहीं आता। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह स्कूल देर से पहुँचे हों। यहीं तक सीमित रहें न फिर वे, क्यों हर काम में फिजूल में अपनी चोंच मारते रहते हैं?

सोहना ने खूँटी पर अपना बस्ता टाँग दिया था। उसने अपने कपड़े बदल लिए। अपनी कमीज और पतलून को उसने तह करके अटैची के नीचे रख दिया। वह जल्दी से रसोई में अपना फोल्डिंग बैड ले आया। उसने भोजन करने से पहले अपना जेबी ट्रांजिस्टर चला दिया। विविधभारती में दस बजे छायागीत कार्यक्रम शुरू हो चुका था। अब सोहना एक साथ तीन-तीन काम करेगा। उसकी नजर अपना फिल्मी ज्ञान बढ़ाने पर रहेगी। छायागीत में पहला गीत शुरू हो चुका था। दूसरा काम सोहना को खाने का करना था। वह खाने के लिए नहीं, जीने के लिए खाता था। तीसरा और इस वक्त सबसे जरूरी काम सोहना को टिन की छत से टपकती हुई काली-काली बूँदों से अपने भोजन को बचाने का करना था। रसोई में अभी तक भी मिट्टी के तेल की बास आ रही थी। मिट्टी के तेल के स्टोव के भभके वाष्प बन कर छत पर चले जाया करते थे तथा पानी की बूँदें बनने के बाद गरीबी रूपी वर्षा करने लगते थे। जंग लगी टिन की छत से रह-रह कर बुकना गिरता रहता था। भोजन भकोसने के बाद सोहना हाथ धोने के लिए मुहल्ले के नल पर गया। उसे ध्यान आया कि पानी की सप्लाई रात आठ बजे बंद हो जाती है। अब तो रात के दस बज चुके हैं। आँगन में लौटने पर उसे लोहे की बाल्टी खाली होने के बावजूद कुछ-कुछ भारी लगी। शायद बाल्टी रिसने लगी होगी। इसलिए माँ ने उसके तलवे पर कोलतार चिपका दिया था। इसके बाद 5 लीटर के शालीमार पेंट्स का प्लास्टिक का डिब्बा उसने उठाया। उसमें से पानी निकाल कर उसने मग्गे में डाल दिया और अपना हाथ धोने लगा।

सोहना ने अब रसोई में फोल्डिंग बैड बिछा दिया था। अपना बस्ता निकाल कर वह बैड पर बैठ गया। ट्रांजिस्टर बज रहा था। उसने उसका वॉल्यूम धीमा कर दिया। 'गमन' फिल्म का गाना शुरू हो चुका था - सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है... (जयदेव, सुरेश वाडेकर, शहरयार)। सोहना पढ़ रहा था। सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल का इतिहास विशेषांक उसने निकाल लिया था। वह इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ रहा था। पूर्व-पाषाण युग, पाषाण युग - सोहना के जीवन का प्रस्तर युग अभी तक चल रहा था। वह न जाने कब खत्म होगा? न जाने और कितने पत्थर उसे खाने होंगे अपने इस जीवन में। उसके सिरहाने की तरफ पैडस्टल फैन लगा हुआ था। उसकी ओर जब पंखे की हवा आती थी, तब पत्रिका के पन्ने कबूतर के पंखों की मानिंद फड़फड़ाने लग जाया करते थे - फड़-फड़-फड़-फड़...। कैसी बेकली है सोहना की यह! सोहना का मन एकाग्र नहीं हो पा रहा था जिसके कारण पढ़ाई करने में उसका मन नहीं लग पा रहा था। इसलिए रसोई की लाइट बंद कर सोहना अपनी फोल्डिंग चारपाई को उठा कर नीम के पेड़ के नीचे ले आया। आँगन में बाबूजी और छुटकी पसरे हुए थे। माँ करवट बदल रही थी। भैया-भाभीजी का कमरा बंद हो चुका था। सोहना की जेब में रखा हुआ ट्रांजिस्टर बज रहा था।

बिस्तर पर लेट कर सोहना आकाश तकने लगा। आसमान में पूर्णिमा का चाँद निकला हुआ था। तारामंडली बिल्कुल साफ दिखाई दे रही थी। चाँद की रोशनी में कटहल, जामुन, आम, बेल, मौलसिरी, आँवले, शहतूत और नीम के पेड़ों को देख कर सोहना ने एक आह भरी। इन पेड़ों के नीचे उसके बचपन की न जाने कितनी कही-अनकही यादें दफन हो रखी थीं। मगर फिलहाल वह अपनी यादों को ताजा नहीं कर पा रहा था। इसका कारण यह था कि अपने बिस्तर पर से उसे आम का छोटा पेड़ नजर नहीं आ रहा था। नहीं, नहीं आम का छोटा पेड़ काट नहीं दिया गया था। बस उसके सामने शुरू हुई मिट्टी की खुदाई के कारण मिट्टी के ढेर ने उसे पाट दिया था। इस तरह छोटा होने की उसे खूब सजा मिली थी। आम के बड़े पेड़ अभी भी अपनी गर्दन उठा कर खड़े हो रखे थे। पर हाँ, ईंट-गारा-चूना-रोड़ी-बजरी का ढेर लगते रहने के कारण उनका भी दम घुटना शुरू हो गया था। सोहना ने सोचा कि शायद अब पेड़ों से बिछड़ने की बेला पास आ गई है। एक पल के लिए वह मायूस हो गया। उसकी बस्ती की चिता पर नवनिर्माण होने जा रहा था। अपने इस अंधकारमय भविष्य से संघर्ष करने के इरादे से उसने अपने मन में संकल्प किया कि अब उसे जल्द से जल्द अपने पाँवों पर खडा होना पड़ेगा।

लेकिन उसकी यह मनःस्थिति अधिक समय तक बनी न रह सकी। कुछ ही देर में उसके माथे पर पड़ी त्यौरियों ने उधेड़बुन का दामन छोड़ कर चिंता के साथ संगसार होने का फैसला कर लिया। उसके मन में कल की अपनी दिनचर्या के बारे में कच्ची-पक्की सी रूपरेखा बन गई। कल वह नहा-धो कर और नाश्ता करके घर से फुट लेगा। दोपहर का भोजन उसे करना होता नहीं है। पूरा दिन पानी पर या चाय की चुस्कियों में गुजार देने की आदत उसकी हो चली थी। तीन घंटे उसके लाइब्रेरी में बीत जाएँगे। तीन घंटे उसके ट्यूशन में निकल जाएँगे। एक घंटा ट्यूशन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में उसका निकल जाएगा। एक घंटा भी उसे तभी लगेगा जबकि सभी बसें उसे टाइम से मिल जाएँगी। ट्यूशन निबटाने के बाद उसके पास पाँच घंटे का समय बचता है। दिन के यही पाँच घंटे उसके अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी होते हैं। इनमें वह कस्बे के एक कोने से दूसरे कोने में साक्षात्कार देने के लिए जाता है। तब उसे लगता है कि उसकी सारी उम्र इंटरव्यू देने में ही गुजर जाएगी।

आज वह एक जगह साक्षात्कार दे कर आया था। उस प्रकाशन गृह में एक साहित्यकार ने उसका इंटरव्यू लिया था। उन्होंने छूटते ही सोहना से बोल दिया कि जगह भरी जा चुकी है। आप देर से आए हैं। इंटरव्यू कल ही खत्म हो गए थे। हमने उसमें एक आदमी को रख लिया है। नौकरी की बात तो खत्म हो गई थी जिससे सोहना का मन उदास हो गया। कहानीकार तुरंत भाँप गया कि सोहना एक जरूरतमंद और संघर्षरत युवक है। उन्होंने सोहना का दिल रखने के लिए उससे बात करनी आरंभ कर दी। सोहना की प्रिय पुस्तक, शौक, लेखन, परिवार आदि के बारे में वह पूछने लग गए। सोहना ने उन्हें बताया कि गोदान के अलावा हिमांशु जोशी का उपन्यास 'तुम्हारे लिए' उसे बेहद पसंद है। 'तुम्हारे लिए' की सादगी का वह कायल है। उसका एक मित्र है गौतम, उसने उसे 'तुम्हारे लिए' पढ़ने के लिए दिया था। गौतम 'तुम्हारे लिए' का बहुत बड़ा दीवाना है। वह अब तक 150 बार यह उपन्यास पढ़ चुका है। उसे लगभग सारा उपन्यास जबानी याद हो चुका है। इस पर कहानीकार महोदय ने कहा कि 'तुम्हारे लिए' का एक खास तरह का पाठक वर्ग है। तुम युवा हो, तो हो सकता है कि इसलिए तुम्हें यह उपन्यास पसंद आ रहा हो। मेरी स्वयं की एक कहानी खासी चर्चित हुई थी। मुझे एक पाठक ने खत लिख कर बताया था कि वह उस कहानी को लगभग चालीस बार पढ़ चुका है। तुम्हारे मित्र की दीवानगी तो ईर्ष्या करने लायक है। उसने तो आगे-पीछे के सारे रिकार्ड ही तोड़ डाले हैं। सोहना की उनसे और भी कई बातें हुर्इं। अंत में साहित्यकार ने उसे हिम्मत न हारने की सलाह दी।

सोहना को हिम्मत नहीं, नौकरी चाहिए थी। वह आज भी उसे नहीं मिली थी। वह खुद से लड़ने लगा। हूँ! हिम्मत न हारना। जेब में किराए के रूप में केवल बीस रुपल्ली का एक नोट है। सुबह जो नाश्ता किया था, उसके बाद से कुछ पेट में गया नहीं है। कहते हैं कि हिम्मत बाँध कर रखो। किससे बाँद कर रखूँ हिम्मत? अँग्रेजी आती है नहीं, हिंदी से नौकरी मिलता है नहीं। अगर अँग्रेजी में थोड़ी गिटपिट करनी ही आती होती, तो कम से कम किसी कॉल सेंटर में ही लग गए होते या होटल की लाइन ही पकड़ ली होती। माना कि साहित्य मानव मस्तिष्क की सर्वाधिक सुंदर अभिव्यक्ति होती है। लेकिन उस साहित्य का क्या उपयोग जो आपके लिए दो जून रोटी का प्रबंध भी न कर सके? भूखे माँ-बाप को रोटी न दे सके? अपनी जिद की सूली पर अपने परिवार के सदस्यों को लटका देने का अधिकार आप लोगों को किसने दे दिया? सोहना के मन का गुबार चाय की केतली के मुँह से निकल रही भाप की तरह उड़ रहा था। थोड़ा सा दिमाग पर जोर डालने पर सोहना को वे लोग याद आने लगे जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के साहित्य की बलिवेदी पर अपना जीवन होम कर दिया था। क्या वे लोग सिरफिरे थे? उन लोगों ने क्या तुमसे कम कष्ट उठाए थे अपने जीवन में? जरा सा काँटा पाँव पर लग जाने से तुम इतना तिलमिला रहे हो, उन लोगों ने तो तलवार की धार पर चल कर साहित्य की सेवा की थी। तुम शहीद दिखने की कोशिश मत करो। तुम्हारा यह आक्रोश बेबुनियाद है। मन के इन सवालों के बाद से सोहना थोड़ा शांत हो गया। हालाँकि अब भी वह झड़ ही रहा था - क्षण-प्रतिक्षण दीमक लगी लकड़ी के बुरादे की तरह, पर अब वह उतना हताश नहीं था जितना नौकरी न मिलने की बात से वह हो गया था। अब उसे यह लगने लगा था कि साहित्यकार गलत नहीं बोल रहा था। बात तो यह सही ही थी कि सुख-दुख, आशा-निराशा, सफलता-विफलता जीवन के अंग हैं। सफलता मिलने पर आदमी को इतराना नहीं चाहिए और विफलता हाथ लगने पर घबराना नहीं चाहिए। उसे हिम्मत से काम लेना चाहिए। सोहना को भी अपने लक्ष्य के हासिल हो जाने तक मेहनत करते रहनी चाहिए। देर-सबेर उसके जीवन का अंधा दौर समाप्त हो ही जाएगा। इस वैचारिक उठा-पठक से सोहना के माथे की नसें फड़फड़ाने लगीं और उसके माथे पर पहले से पड़े हुए बल कुछ और गहरे हो गए...।

आँगन में माँ अभी भी करवट बदल रही थी। सोहना की चिंता उन्हें दीमक की तरह खाए जा रही थी। वह यह सोच-सोच कर खासी परेशान हो रही थी कि न जाने उनके बेटे को किसकी नजर लग गई है - उसने हँसना-गाना-बोलना-रोना बिल्कुल छोड़ दिया है। सोहना पहले कितना खिलंदड़ था। सचिन तेंदुलकर का कितना बड़ा फैन हुआ करता था वह। दिन भर क्रिकेट और क्रिकेट ही खेलता रहता था वह। सुबह-सुबह घर से निकल जाया करता था और शाम को लौटा करता था वह। दोपहर में जुराब के अंदर टेनिस बॉल डाल कर और उसे कपड़े टाँगने की लोहे की तार पर रस्सी से बाँध कर बैटिंग की प्रैक्टिस करता रहता था वह। बैट पर लगती हुई गेंद की धप्प-धप्प से तथा तार की छन-छन से हमारी नींद में खलल पड़ता रहता था। तेंदुलकर के रिकार्डों की उसने कितनी खूबसूरत फाइल बना कर रखी हुई थी। वही सोहना अब क्रिकेट के समाचारों को पढ़ता तक नहीं है।

मुझे याद नहीं पड़ता कि सोहना ने पिछली बार मुझसे या पिताजी से या फिर अपने बड़े भैया, भाभी, छुटकी या भतीजे-भतीजी से कब हँस-हँस कर बातें की थीं? कब वह अपने भतीजे-भतीजी के साथ खेला था? कैसा हो गया है सोहना? सुबह निकल जाता है घर से और रात को लौटता है। न जाने क्या करता है वह, कहाँ आता-जाता है वह, कहाँ खाता-पीता है वह, कुछ पता नहीं चलता। एक कमीज में अपना पूरा सप्ताह निकाल लेता है वह। हफ्ते बीत जाते हैं जूतों में पॉलिश किए हुए उसे। दाढ़ी बनाना कब से छोड़ रखा है उसने। माथे पर हरदम कितने बल पड़े रहते हैं उसके। आँखों के नीचे कितने गहरे काले गड्ढे हो गए हैं उसके। आँखें भी कितनी लाल-लाल रहने लगी हैं उसकी। ऐसा लगता है कि सोहना की आँखों में से कोई तूफान गुजर रहा है। क्या हो गया है सोहना को? किताब! किताब! किताब! बस यहीं तक सीमित हो गई है सोहना की जिंदगी। किसी से बातचीत नहीं, बस अपनी गर्दन नीचे किए हुए पढ़ता रहता है वह, न जाने क्या-क्या सोचता रहता है वह... अरे पिताजी को रिटायर होने में अभी एक साल तो बचा है। क्यों वह सोचता रहता है कि पिताजी को रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली धनराशि से छुटकी के हाथ पीले कैसे होंगे? हम लोग कैसे गुजर-बसर करेंगे? भाई-भाभी क्या करेंगे? भतीजे-भतीजी कहाँ पढेंगे? गाँव का पुश्तैनी मकान कैसे ठीक होगा? ईश्वर की कृपा से अभी हमारे हाथ-पाँव तो सही-सलामत हैं न-कुछ न कुछ तो हम करेंगे ही। खाली थोड़े ही बैठे रहेंगे। फिर क्यों कर अपनी जान हलकान करता रहता है वह? जैसे बड़े भैया अपने बीवी-बच्चों में मस्त हो गए हैं, क्यों नहीं अपनी उम्र के दोस्तों में मस्त हो जाता है वह? हमारे लिए प्राणोत्सर्ग क्यों करता रहता है वह? हमारे लिए जाननिसारी क्यों करता रहता है वह? उसकी उम्र के ही हैं - सूरज, दीपक, दयाल और सुधीर। देखो वे लोग कितने मस्त रहते हैं। सूरज की तो शादी भी हो चुकी है। फिर भी फुटबाल खेलता रहता है वह। इन सब बातों को देख कर मुझे तो यही लगता है कि मेरा बेटा सोहन सिंह जवान तो हुआ ही नहीं है - वह बचपन से सीधे बुढ़ापे में पहुँच गया है।

पिताजी के साथ सोहना ने कभी ऊँचे स्वर में बात नहीं की। पिताजी ने भी कभी सोहना को डाँटा नहीं। उनके बीच नई पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी जैसी भी कोई खाईं नहीं है। उल्टे वह उनका बहुत आदर-सम्मान करता है। उसे यह बात चुभती रहती है कि पिताजी को इस उम्र में भी उसकी नालायकी की वजह से मेहनत करनी पड़ रही है। उसका आक्रोश पिताजी के प्रति उतना नहीं है, जितना अपने प्रति है। उसकी खुद से यह नाराजगी ही मेरी चिंता का सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा सोहना किसी लड़की के इश्क-विश्क के चक्कर में पड़ने के कारण पागल भी नहीं हो रखा है। फिर क्यों कर बोलना छोड़ दिया है उसने हमसे? घर में आता है तो कितना बदहवास रहता है वह - मानो किसी पराए घर में घुस आया हो। उसके आने पर घर में एक रेगिस्तानी उदासी पसर जाती है। उस वक्त घर सन्नाटों का मरुथल बन जाता है जहाँ पर गर्दो-गुबार के रेतीले तूफान आ-आ कर घर रूपी ढूहों को गिराने की कोशिश करते रहते हैं। क्यों नहीं पहले की तरह चहकता-महकता अब वह? क्यों नहीं रफी-किशोर के गाने सुनता-गाता अब वह? किशोर के गानों वह कितना नाचता-कूदता था। लेकिन अब देखो वह कैसे-कैसे गाने सुनता है - तुम अपना रंजो-गम अपनी परेशानी मुझे दे दो, सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है - भरी जवानी में वह कैसा हो गया है? क्या यह उम्र है उसकी ऐसे गाने सुनने की।

दरअसल, सारा कुसूर इस वक्त का है। समय ही मेरे परिवार का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है। क्या कभी मैंने यह सोचा था कि ऐसा भी एक दिन मेरे जीवन में आएगा जब मैं अपने ही घर में अपने ही कलेजे के टुकड़े से बात करने के लिए तरस जाऊँगी। उससे बात करते हुए मुझे डर लगने लगेगा और उसकी कुशल-क्षेम जानने के लिए मुझे चोरी-छिपे उसकी डायरी पढ़नी पड़ेगी। उसकी डायरी में भी क्या होता है सिवाय रिक्तियों की कतरनों के, प्रकाशन संस्थानों के पतों के, ठेके पर अनुवाद करने के विज्ञापनों के या फिर ट्रेनी पत्रकार की सूचनाओं के। हैं भी वे कितनी-कितनी दूर... एक संस्थान से दूसरे संस्थान तक जाने में ही सारा वक्त निकल जाता है। नौकरी इससे क्या खाक मिलेगी?

बेटा मैं तेरी माँ हूँ। मुझे मालूम है कि तेरे मन में यह आशंका घर कर गई है कि पिताजी की रिटायरमेंट के बाद तेरे और तेरे बड़े भैया के बीच बँटवारा हो जाएगा। धर्मेन्द्र अलग हो जाएगा, तो हो जाने दे। इसमें बुरा क्या है। उसे भी अपनी जिंदगी के बारे में फैसला लेने का पूरा-पूरा हक है। बहू को भी अपने आसमान में पंख फैलाने का पूरा-पूरा अधिकार है। मगर एक बात का ध्यान रखना बेटा कि तुम दोनों भाइयों में जब तक बनी है, तब तक ठीक है। बिगाड़ हो जाने पर बेटा लड़ाई-झगड़ा हरगिज न करना। हँस-हँस कर अलग हो जाना-तभी तुम्हारे बीच प्यार-मोहब्बत बनी रह पाएगी। पिताजी ने तो चलो जैसे-तैसे गाँव की जिम्मेवारी भी निबाह दी और तुम्हें भी पाल-पोस दिया। अब तुम्हारी सोच है बेटा - वो तुम्हें जिस तरफ ले जाए। हमारी फिक्र तुम मत करना। हम जितना कर सकते थे, उतना हमने कर दिया।

सोहना तुझे याद है न कि रात में जब तुझे पेशाब आती थी, तब पिताजी तेरी अँगुली पकड़ कर बाहर आते थे और तुझे पेशाब करा कर लाते थे। उस समय कस्बे में यह बात फैली हुई थी कि वीरवार की रात को बारह बजे पीर बाबा की सवारी हमारे घर के सामने से गुजरा करती है। तब तू कितना डर जाया करता था। अब देख तू कितना बड़ा हो गया है - खुद उसी नीम के पेड़ के नीचे सोने जा रहा है और अपने पिताजी की ओर देख भी नहीं रहा है। यकीन कर बेटा मेरा। मुझे यह जान कर बहुत खुशी हो रही है कि तू अब इतना बड़ा हो गया है कि अपने पाँवों पर खड़ा हो कर दुनिया से लड़ने चला है। पर बेटा हम भी तो तेरे माँ-बाप ही हैं न, कोई दुश्मन थोड़ी हैं न तेरे। तू हमसे बात न करके, हमें क्यों जीते जी मार रहा है? हमें तेरी सफलता पर तो तुझसे ज्यादा खुशी होगी ही न। देख बेटा त्याग करने की उम्र तो हमारी है। हम देह भी त्याग देंगे तेरे लिए। देख तेरे पिताजी ने तेरी पढ़ाई के लिए अपने फंड से तीस हजार रुपये भी निकाल लिए हैं। तू बेटा हम पर अपनी जाननिसार मत कर। हमें अपना फर्ज पूरा कर लेने दे रे तू।

आजकल समय कितना खराब चल रहा है। हमारे आस-पास के सारे परिवार टूट रहे हैं। शांतिमोहन भैजी का बेटा कुसंगति में पड़ कर स्मैक खाने लगा है। काफी समय तक उन्हें इसका पता ही नहीं चला। स्मैक खाने के बाद वह बहकी-बहकी बातें करने लग जाता था जिसे अपनी अज्ञानता के कारण उसके घरवाले ऊपर की हवा का कोई चक्कर समझाते रहते थे। विजयसिंह भैजी की बेटी ने भाग कर एक डूम से शादी कर ली क्योंकि उसे अपनी जाति में कोई पढ़ा-लिखा नौकरीपेशा युवक नहीं मिल पा रहा था। बिजेंदर सिंह चाचा के बेटों में अलगौझा हो गया है। राम ब्वाडा की तो पूछ ही मत - आए दिन उनके घर में सास-बहू की रार मची रहती है।

हमारे देखते-देखते अब के बच्चे कितने बड़े हो गए हैं। वे इतने बड़े हो गए हैं कि अपनी जान से खेलने लग गए हैं - उनमें से कोई नदी में डूब रहा है, तो कोई पंखे से लटक कर जान दे रहा है, कोई जहर खा ले रहा है, तो कोई इमारत की छत से कूद जा रहा है। ऐसे में बेटा हम चैन से कैसे बैठ सकते हैं। ...तू तो... कहीं... हे देवी माँ! ...आतंकवादी भी आजकल जगह-जगह पर ट्रांजिस्टर बम रख कर बेकुसूर एवं मासूम लोगों को मार रहे हैं... तू भी बेटा न जाने क्यों नया ट्रांजिस्टर खरीदने की बात करने लगा है... इस ओर ध्यान जाने पर रूह काँप उठती है मेरी...।

अब तक माँ की चिंतातुर आँखों में से टूटी हुई माला के धागे से एक-एक कर गिरते हुए मोतियों की तरह आँसू ढरकने लग पड़े थे। साढ़े दस तो बज चुके ही थे। उस वक्त बस छायागीत का अंतिम गीत बज रहा था -

आई जंजीर की झनकार खुदा खैर करे,
दिल हुआ किसका गिरफ्तार खुदा खैर करे।
जाने यह कौन मेरी रूह को छू कर गुजरा,
एक कयामत हुई बेदार खुदा खैर करे...।
(रज़िया सुल्तान, खय्याम, कब्बन मिर्ज़ा, जान निसार अख्तर)

गाना सुनते-सुनते सोहना सो गया। सवा ग्यारह के करीब विविध भारती की प्रसारण सेवा भी समाप्त हो गई। तब तक उसका जेबी ट्रांजिस्टर धीमे-धीमे स्वर में खड़-खड़-खड़-खड़ करने लगा था। सुबह होते-होते उसकी यह खड़खड़ाहट भी बंद हो गई। संभवतः ट्रांजिस्टर के पेंसिल सैल कमजोर हो गए थे। मगर सोहना की माँ ट्रांजिस्टर नहीं थी, पूरी रात जागती रही थी वह...।


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हिंदी समय में महेंद्र सिंह की रचनाएँ