10 . युद्ध के बाद
बोअर-युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण भाग सन् 1900 में समाप्त हो गया था। लेडीस्मिथ, किंबरली और मेफेकिंग की मुक्ति बोअर-सेना ने हो चुकी थी। जनरल क्रोन्जे पारडीबर्ग में हार चुके थे। बोअरों द्वारा जीता हुआ ब्रिटिश उपनिवेशों का संपूर्ण भाग ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में फिर से आ चुका था। लॉर्ड किचनर ने ट्रान्सवाल और ऑरेन्ज फ्री स्टेट पर भी अधिकार कर लिया था। अब सिर्फ वानर-युद्ध (गुरीला वारफेयर) बाकी रहा था।
मैंने सोचा कि दक्षिण अफ्रीका में मेरा कार्य अब पूरा हो गया है। मैं एक महीने के बदले छह वर्ष वहाँ रहा। कार्य की रूपरेखा हमारे सामने अच्छी तरह निश्चित हो चुकी थी। फिर भी हिंदुस्तानी कौम को राजी किए बिना मैं दक्षिण अफ्रीका छोड़ नहीं सकता था। मैंने हिंदुस्तान जाकर वहाँ लोकसेवा करने का अपना इरादा सार्थियों को बताया। दक्षिण अफ्रीका में मैंने स्वार्थ के बजाय सेवाधर्म का सबक सीखा था। मुझे सेवाधर्म की ही लगन लगी थी। श्री मनसुखलाल नाजर दक्षिण अफ्रीका में थे ही; श्री खान भी वहाँ थे। कुछ हिंदुस्तानी नवयुवक दक्षिण अफ्रीका से इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर हो आए थे। ऐसी स्थिति में वहाँ से मेरा हिंदुस्तान लौटना किसी भी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता था। ये सारी दलीलें मैंने अपने सार्थियों के सामने रखीं, फिर भी एक शर्त पर मुझे हिंदुस्तान लौटने की इजाजत मिली : दक्षिण अफ्रीका में कोई भी अकल्पित कठिनाई खड़ी हो और कौम को मेरी उपस्थिति जरूरी मालूम हो, तो कौम मुझे किसी भी समय वापस बुला सकती है और मुझे तुरंत दक्षिण अफ्रीका लौटना पड़ेगा। मेरा यात्रा-खर्च और दक्षिण अफ्रीका का निवास-खर्च उठाने की जिम्मेदारी कौम के लोगों ने ले ली। यह शर्त मैंने मान ली और मैं हिंदुस्तान लौट आया।
मैंने बंबई में बैरिस्टरी करने का निर्णय कर लिया। इसके पीछे मुख्य हेतु स्व. गोखले की सलाह और मार्गदर्शन में सार्वजनिक कार्य करना था; दूसरा हेतु था सार्वजनिक कार्य करते हुए आजीविका कमाना। इसलिए मैंने चैंबर (कमरे) किराये पर लिए। मेरी वकालत भी थोड़ी चलने लगी। दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों के साथ मेरा इतना घनिष्ठ संबंध बंध गया था कि उस देश से हिंदुस्तान लौटे हुए मुवक्किल ही मुझे इतना काम दे देते थे, जिससे अपना जीवन-निर्वाह मैं आसानी से कर सकूँ। लेकिन मेरे नसीब में स्थिर और शांत जीवन बिताना लिखा ही नहीं था। मुश्किल से तीन-चार महीने मैं बंबई में स्थिर रहा होऊँगा कि दक्षिण अफ्रीका से यह जरूरी तार आया : "यहाँ की स्थिति गंभीर है। श्री चैंबरलेन कुछ समय में आएँगे। आपकी उपस्थिति जरूरी है।"
मैंने बंबई का ऑफिस और घर समेट लिए। और पहले जहाज से मैं दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गया।1902 का अंत निकट था। 1901 के अंत में मैं हिंदुस्तान लौटा था। 1902 के मार्च-अप्रैल में मैंने बंबई में ऑफिस खोला। तार के आधार पर मैं वहाँ की सारी परिस्थिति तो नहीं जान सका। लेकिन मैंने अंदाज लगाया कि मुसीबत कोई ट्रान्सवाल में ही खड़ी हुई होगी। अपने परिवार को मैं साथ नहीं ले गया था, क्योंकि मैंने सोचा था कि चार-छह महीनों में मैं हिंदुस्तान लौट सकूँगा। लेकिन डरबन पहुँचकर सारी बातें सुनते ही मैं आश्चर्यचकित हो गया। हममें से अनेक लोगों को यह आशा थी कि बोअर-युद्ध के बाद समस्त दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों की स्थिति जरूर सुधर जाएगी। कम से कम ट्रान्सवाल और ऑरेन्ज फ्री स्टेट में तो कोई मुसीबत नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि जब बोअर-युद्ध छिड़ा उस समय लॉर्ड लेन्सडाउन, लॉर्ड सेल्बर्न और ब्रिटेन के अन्य ऊँचे सत्ताधारियों ने यह कहा था कि इस युद्ध का एक कारण बोअरों द्वारा हिंदुस्तानियों के साथ किया जानेवाला बुरा व्यवहार भी है। प्रिटोरिया के ब्रिटिश एजेंट (राजदूत) भी मेरे समक्ष अनेक बार कह चुके थे कि यदि ट्रान्सवाल ब्रिटिश उपनिवेश बन जाए, तो वहाँ के हिंदुस्तानियों के सारे दुख दूर हो जाएँ। गोरों का भी यही विश्वास था कि राज्यसत्ता बदल जाने पर ट्रान्सवाल के पुराने (विरोधी) कानून हिंदुस्तानियों पर किसी हालत में लागू नहीं किए जा सकते। यह बात इस सीमा तक सर्वमान्य हो गई थी कि जमीन नीलाम करनेवाले जो कर्मचारी बोअर-युद्ध से पूर्व हिंदुस्तानियों द्वारा लगाई हुई बोली कभी भी कबूल नहीं करते थे, वे अब खुलेआम उसे कबूल करने लगे। बहुत से हिंदुस्तानियों ने इस तरह नीलाम में जमीनें खरीदी थी। लेकिन जब वे लोग अपनी जमीनों का दस्तावेज रजिस्टर कराने तहसील में गए, तो तहसील के अधिकारी ने 1885 के कानून नं.3 का हवाला दे कर जमीनों की रजिस्ट्री करने से इनकार कर दिया। मैं डरबन के बंदरगाह पर उतरा तब इतना तो मैंने सुन लिया। हिंदुस्तानी नेताओं ने मुझसे कहा कि आपको ट्रान्सवाल जाना होगा। लेकिन पहले श्री चैंबरलेन डरबन आएँगे। यहाँ के (नेटाल के) हिंदुस्तानियों की स्थिति से भी उन्हें परिचित कराना जरूरी है। यहाँ का काम पूरा करके उनके पीछे ही पीछे आपको ट्रान्सवाल जाना होगा।
नेटाल में हिंदुस्तानियों का एक प्रतिनिधि-मंडल श्री चैंबरलेन से मिला। उन्होंने उसकी सारी बातें शांति और धीरज से सुनीं और नेटाल के मंत्रि-मंडल से हिंदुस्तानियों की स्थिति के बारे में बातचीत करने का वचन दिया। नेटाल में बोअर-युद्ध से पूर्व जो कानून पास हो चुके थे, उनमें तुरंत सुधार होने की मैंने स्वयं तो कोई आशा नहीं रखी थी। इन कानूनों की चर्चा मैं पिछले प्रकरणों में कर चुका हूँ।
पाठक यह तो जानते ही हैं कि बोअर-युद्ध से पहले कोई भी हिंदुस्तानी किसी भी समय ट्रान्सवाल में जा सकता था। लेकिन अब मैंने देखा कि वह स्थिति नहीं रह गई थी। उस समय का यह प्रतिबंध गोरों और हिंदुस्तानियों दोनों पर एकसा लागू होता था। ट्रान्सवाल की स्थिति अभी भी ऐसी थी कि यदि अधिक संख्या में लोग वहाँ घुस जाते, तो अन्न और वस्त्र भी सबको पूरे नहीं मिल सकते थे; क्योंकि युद्ध का अंत होने के बाद भी सब दुकानें फिर से खुली नहीं थीं। इसलिए मैंने मन में सोचा कि यह प्रतिबंध यदि अमुक समय के लिए ही लगाया गया हो, तब तो डरने का कोई कारण नहीं है। लेकिन गोरों और हिंदुस्तानियों को ट्रान्सवाला में प्रवेश करने का जो परवाना लेना पड़ता था, उसे देने की रीति में फर्क था। और, यह फर्क शंका और भय का कारण बन गया। परवाना देने के दफ्तर दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग बंदरगाहों में खोले गए थे। ऐसा कहा जा सकता है कि गोरों को तो माँगते ही परवाने मिल सकते थे। परंतु हिंदुस्तानियों के लिए ट्रान्सवाल में एक एशियाटिक विभाग खोला गया था।
ऐसा अलग विभाग खोलने की यह नई घटना थी। पहले उस विभाग के अधिकारी को हिंदुस्तानी लोग अरजी करते थे। उस अरजी के मंजूर होने के बाद डरबन या दूसरे बंदरगाह से सामान्यतः परवाने मिल सकते थे। यदि मुझे भी ऐसी अरजी करनी होती तो श्री चैंबर लेने के ट्रान्सवाल छोड़ने से पहले परवाना मिलने की आशा ही नहीं रखी जा सकती थी। ट्रान्सवाल के हिंदुस्तानी वैसा परवाना प्राप्त करके मेरे पास भेज नहीं सके थे। यह उनकी शक्ति से बाहर की बात थी। मेरे परवाने का आधार उन्होंने डरबन की मेरी जान-पहचान पर ही रखा था। परवाना देने वाले अधिकारी को तो मैं जानता नहीं था, लेकिन डरबन के पुलिस सुपरिंटेंडेंट को जानता था। इसलिए उन्हें साथ ले जाकर उनके द्वारा अधिकारी से मेरा परिचय करवाया। सन् 1893 के साल में एक बरस मैं ट्रान्सवाल में रहा था, यह बताकर मैंने परवाना लिया और मैं प्रिटोरिया पहुँचा।
प्रिटोरिया में मैंने दूसरा ही वातावरण देखा। मैंने समझ लिया कि एशियाटिक विभाग एक भयानक विभाग है और वह केवल हिंदुस्तानियों को दबाने के लिए ही खोला गया है। उसमें नियुक्त किए गए अधिकारी उस वर्ग के थे, जो बोअर-युद्ध के समय सेना के साथ हिंदुस्तान से दक्षिण अफ्रीका आए थे और अपना नसीब आजमाने के लिए वहीं बस गए थे। उनमें से कुछ अधिकारी रिश्वत खाते थे। ऐसे दो अधिकारियों पर रिश्वत खाने के अपराध में मुकदम भी चले थे। पंच ने तो दोनों को निर्दोष बता कर छोड़ दिया था, परंतु रिश्वत खाने के बारे में कोई संदेह न रह जाने से उन्हें नौकरी से अलग कर दिया गया था। पक्षपात का तो कोई पार ही नहीं था। और, जहाँ ऐसा कोई विभाग अलग से खोला जाता है वहाँ, और यदि वह प्रचलित अधिकारों पर अंकुश लगाने के लिए ही खोला गया हो तब तो, उसका झुकाव अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए तथा अंकुश लगाने का अपना फर्ज वह पूरी तरह अदा कर रहा है यह दिखाने के लिए सदा नए अंकुश खोजने की ओर ही रहता है। एशियाटिक विभाग के बारे में ठीक ऐसा ही हुआ।
मैंने देखा कि मुझे अपने काम का फिर से श्री गणेश करना पड़ेगा। एशियाटिक विभाग को तुरंत इस बात का पता नहीं चला कि मैं ट्रान्सवाल में कैसे दाखिल हुआ। मुझसे पूछने की एकाएक उसकी हिम्मत नहीं हुई। मैं मानता हूँ कि इतना विश्वास तो उसे था ही कि मैं चोरी से कभी प्रवेश नहीं करूँगा। परोक्ष रूप से उसने यह जान भी लिया कि परवाना मुझे कैसे मिला। प्रिटोरिया का हिंदुस्तानी प्रतिनिधि-मंडल भी श्री चैंबरलेन के पास जाने को तैयार हुआ। उनके सामने पेश की जानेवाली अरजी तो मैंने तैयार की। परंतु एशियाटिक विभाग ने मुझे श्री चैंबरलेन के सामने नहीं जाने दिया। इस स्थिति में हिंदुस्तानी नेताओं को लगा कि उन्हें भी श्री चैंबरलेन से मिलने नहीं जाना चाहिए। पर मुझे उनका यह विचार पसंद नहीं आया। मैंने उनसे कहा कि मेरा जो अपमान हुआ उसे मुझे पी जाना चाहिए; और उन्हें सलाह दी कि मेरे अपमान की उन्हें भी परवाह नहीं करनी चाहिए। अरजी तो तैयार है ही। उसे श्री चैंबरलेन को सुनाना जरूरी है। उस समय हिंदुस्तानी बैरिस्टर श्री जार्ज गॉडफ्रे वहाँ उपस्थित थे। उन्हें श्री चैंबरलेन के सामने अरजी पढ़ने के लिए तैयार किया गया। हिंदुस्तानी प्रतिनिधि-मंडल गया। वहाँ मेरे विषय में बात निकली। श्री चैंबरलेनने कहा : "मि. गांधी से मैं डरबन में मिल चुका हूँ। इसलिए यहाँ मैंने उनसे मिलने से इनकार कर दिया, ताकि ट्रान्सवाल की बात मैं ट्रान्सवाल के लोगों से ही सुन सकूँ।" मेरी दृष्टि से उनका यह उत्तर जलती आग में घी डालने जैसा था। श्री चैंबरलेन एशियाटिक विभाग की सिखाई हुई बात बोले थे। जो हवा हिंदुस्तान में फैली हुई थी वही एशियाटिक विभाग ने ट्रान्सवाल में फैला दी। गुजराती (या हिंदुस्तानी) लोग यह बात जानते ही होंगे कि अँग्रेज अधिकारी हिंदुस्तान में बंबई के रहनेवाले लोगों को चंपारन में परदेशी मानते हैं। इस न्याय से एशियाटिक विभाग ने श्री चेंबरलेन को यह सिखया। कि डरबन में रहनेवाला मैं ट्रान्सवाल के हिंदुस्तानियों की बात क्या जान सकता हूँ। उस विभाग के अधिकारियों की क्या पता कि मैं ट्रान्सवाल में रह चुका था और न रहा होऊँ तो भी ट्रान्सवाल की सारी परिस्थिति से पूरी तरह परिचित था। प्रश्न सिर्फ एक ही था : 'ट्रान्सवाल की परिस्थिति से अधिक से अधिक परिचित कौन था?' इस प्रश्न का उत्तर हिंदुस्तानी कौम ने मुझे ठेठ हिंदुस्तान से ट्रान्सवाल बुला कर दे ही दिया था। लेकिन यह कोई नया अनुभव नहीं है कि सत्ताधारियों के सामने बुद्धि पर आधारित दलीलें नहीं चल सकतीं। उस समय श्री चैंबरलेन स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों के प्रभाव में इतने ज्यादा थे और वहाँ के गोरों की संतुष्ट करने के लिए इतने आतुर थे कि उनसे न्याय पाने की आशा बिल्कुल नहीं थी या बहुत कम थी। फिर भी हिंदुस्तानी प्रतिनिधि-मंडल केवल यह सोच कर उनसे मिलने गया कि गहती से या आहत स्वाभिमान की भावना के कारण न्यायप्राप्ति का एक भी सही उपाय आजमाये बिना रह न जाए।
परंतु मेरे सामने 1894 से भी अधिक विषय परिस्थिति खड़ी हो गई। एक दृष्टि से तो मुझे ऐसा लगा कि श्री चैंबरलेन के दक्षिण अफ्रीका छोड़ने ही मैं हिंदुस्तान लौट सकता हूँ। दूसरी ओर मैं स्पष्ट रूप से यह देख सका कि दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानी कौम को भयंकर स्थिति में देखते हुए भी यदि मैं हिंदुस्तान में व्यापक क्षेत्र में जनता की सेवा करने के अभिमान से लौट जाऊँ, तो सेवाधर्म की जो झाँकी मुझे दक्षिण अफ्रीका में हुई है वह दूषित हो जाएगी। मैंने सोचा कि कौम पर मँडराने वाले विपत्ति के बादल बिखर न जाएँ अथवा सारे प्रयत्नों के बावजूद विपत्ति के बादल अधिक गहरे बन हिंदुस्तानी कौम पर टूट कर हम सबका नाश न कर दें तब तक मुझे ट्रान्सवाल में ही रहना चाहिए - फिर उसका अर्थ जीवन-भर दक्षिण अफ्रीका में रहना ही क्यों न हो। मैंने कौम के नेताओं के साथ इस आशय की बात की और 1894 की तरह इस बार भी वकालत से जीवन-निर्वाह चलाने का अपना निश्चय मैंने उन्हें बताया। कौम के लोग तो यही चाहते थे।
मैंने तुरंत ट्रान्सवाल में वकालत करने की अरजी पेश की। मुझे थोड़ा भय था कि नेटाल की तरह यहाँ का वकील-मंडल भी मेरी अरजी का विरोध करेगा, परंतु वह भय निराधार सिद्ध हुआ। मुझे वकालत की सनद मिल गई और जोहानिसबर्ग में मैंने ऑफिस खोला। ट्रान्सवाल में हिंदुस्तानियों की सबसे ज्यादा आबादी जोहानिसबर्ग में ही थी। इसलिए मेरी आजीविका तथा सार्वजनिक सेवा दोनों दृष्टियों से जोहानिसबर्ग ही मेरे लिए अनुकूल केंद्र था। एशियाटिक विभाग की सड़ांध और भ्रष्टाचार का कड़वा अनुभव प्रतिदिन मुझे हो रहा था और ट्रान्सवाल के हिंदुस्तानी मंडल (ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन) की संपूर्ण शक्ति यह सड़ांध दूर करने में ही खर्च हो रही थी। अब 1885 का कानून नं.3 रद कराने की बात दूर का ध्येय बन गई। तात्कालिक ध्येय एशियाटिक ऑफिस के रूप में जो तेज बाढ़ डुबाने के लिए हमारी ओर बढ़ी चली आ रही थी उससे अपने आपको बचाना था। हिंदुस्तानी प्रतिनिधि-मंडल लॉर्ड मिल्नर से, वहाँ आए हुए लॉर्ड सेल्बर्न से, ट्रान्सवाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर आर्थर लॉली से - जो बाद में मद्रास के गवर्नर हो गए थे, और इनसे नीची श्रेणी के अधिकारियों से मिले और उनके सामने अपनी शिकायतें पेश कीं। मैं अकेला तो सरकारी अधिकारियों से बहुत बार मिलता था। यहाँ वहाँ कुछ राहत हमें मिलती थी, परंतु वह सब फटे हुए कपड़ों में पैबंद लगाने जैसा था। हमें कुछ वैसा ही संतोष इन छोटी-छोटी राहतों से मिलता था जैसा लुटेरे हमारा सारा धन लूट कर ले जाएँ और बाद में हमारे रोने-गिड़गिड़ाने से पसीज कर थोड़ा धन लौटा दें उस समय हमें मिल सकता है। इस आंदोलन के फलस्वरूप ही जिन जिन अधिकारियों के नौकरी से बरखास्त होने की बात मैं पहले लिख चुका हूँ उन पर कोर्ट में मुकदमा चला था। हिंदुस्तानियों के प्रवेश के बारे में अपना जो भय मैं पहले बता चुका हूँ वह सच साबित हुआ। गोरों के लिए ट्रान्सवाल में आने का परवाना लेना जरूरी न रहा, लेकिन हिंदुस्तानियों पर परवाने का बंधन बना ही रहा। ट्रान्सवाल की भूतपूर्व सरकार ने कानून जितना सख्त बनाया था उतना सख्त उसका अमल नहीं होता था। यह स्थिति बोअर-सरकार की उदारता या भलमनसाहत के कारण नहीं, परंतु उसके प्रशासन-विभाग की लापरवाही के कारण खड़ी हुई थी। और उस विभाग के अधिकारी भले हों तो भी अपनी भलमनसाहत के उपयोग का जितना अवकाश उन्हें बोअर-सरकार के शासन में मिलता था, उतना ब्रिटिश सरकार के शासन में नहीं मिल सकता। ब्रिटिश राज्यतंत्र पुराना होने के कारण दृढ़ तथा व्यवस्थित हो गया है, और उसके अधीन अधिकारियों को यंत्र की तरह काम करना पड़ता है। उन लोगों की कार्य करने की स्वतंत्रता पर एकके बाद दूसरे चढ़ते-उतरते अंकुश लगे रहतें हैं। इसलिए यदि ब्रिटिश संविधान में राज्य-पद्धति उदार हो, तो प्रजा को उस उदार पद्धति का अधिक से अधिक लाभ मिल सकता है; और यदि वह पद्धति अत्याचारी या कंजूस हो, तो उसकी नियंत्रित सत्ता के मातहत प्रजा को उसके दबाव का भी पूरा पूरा अनुभव होता है। इससे उलटी स्थिति ट्रान्सवाल की भूतपूर्व सत्ता के जैसे राज्यतंत्र में होती है। ऐसे तंत्र में उदार कानूनों का पूरा लाभ प्रजा को मिलने या न मिलने का अधिकतर आधार सरकारी विभागों के अधिकारियों पर रहता है। इस न्याय के अनुसार ट्रान्सवाल में जब ब्रिटिश सत्ता स्थापित हुई तब हिंदुस्तानियों से संबंध रखनेवाले सारे ही कानूनों का अमल दिनोंदिन ज्यादा कड़ा होने लगा। पहले जहाँ-जहाँ कानून की पकड़ से बचने के मार्ग खुले थे वहाँ-वहाँ ऐसे सब मार्ग बंद कर दिए गए। जैसा हम पहले देख चुके हैं, एशियाटिक विभाग की कार्रवाई सख्त हुए बिना रह ही नहीं सकती थी। इसलिए पुराने कानून रद कराने का ध्येय एक ओर रह गया; फिलहाल तो हिंदुस्तानी कौम को इसी दृष्टि से प्रयत्न करना पड़ा कि उन कानूनों की सख्ती को अमल में कम कैसे कराया जाए।
एक सिद्धांत की चर्चा हमें जल्दी या देर से करनी ही पड़ेगी; और इस स्थान पर उसकी चर्चा करने से शायद हिंदुस्तानियों के दृष्टिकोण को तथा आगे चलकर खड़ी हुई परिस्थिति को समझना सुविधाजनक होगा। ट्रान्सवाल और ऑरेंज फ्री स्टेट में ब्रिटिश झंडा लहराने लगा उसके बाद तुरंत ही लॉर्ड मिल्नर ने एक कमेटी नियुक्त की। उसका कार्य था इन दोनों राज्यों के पुराने कानूनों की जाँच करके ऐसे कानूनों की सूची तैयार करना, जो प्रजा की स्वतंत्रता पर अंकुश लगानेवाले हों या ब्रिटिश संविधान की भावना के विरुद्ध हों। इस जाँच में हिंदुस्तानियों की स्वतंत्रता पर हमला करनेवाले कानून स्पष्ट रूप में सम्मिलित किए जा सकते थे। परंतु यह जाँच-कमेटी नियुक्त करने के पीछे लॉर्ड मिल्नर का उद्देश्य हिंदुस्तानियों के दुख दूर करना नहीं, बल्कि अँग्रेजों के दुख दूर करना था। उनकी इच्छा ऐसे कानूनों को जल्दी से जल्दी रद कराने की थी, जो परोक्ष रूप में अँग्रेजों के रास्तें में रुकावट डालते थे। इस कमेटी की रिपोर्ट बहुत ही थोड़े समय में तैयार हो गई; और ऐसा कहा जा सकता है कि अँग्रेजों के हितों के विरुद्ध जानेवाले अनेक छोटे-मोटे कानून एक ही हुक्म से रद कर दिए गए।
उसी कमेटी ने हिंदुस्तानियों के विरुद्ध जानेवाले कानूनों की भी सूची बना ली। ये सब कानून एक पुस्तक के रूप में छापे गए, जिसका उपयोग या हमारी दृष्टि से दुरुपयोग एशियाटिक विभाग आसानी से करने लगा।
अब यदि हिंदुस्तानी-विरोधी कानून उनमें हिंदुस्तानियों का नाम रखकर खास तौर पर उनके विरुद्ध न बनाए जाते, परंतु सबको लागू हों इस प्रकार रचे जाते तथा उनका अमल करने या न करने का चुनाव अधिकारियों पर छोड़ दिया जाता; अथवा इन कानूनों में ऐसे अंकुश रखे जाते जिनका अर्थ सार्वजनिक होता, परंतु वह अर्थ करने पर उनका अधिक दबाव हिंदुस्तानियों पर पड़ता, तो ऐसे कानूनों से भी कानून बनानेवालों का उद्देश्य पूरा हो जाता और फिर भी वे कानून सार्वजनिक कहे जाते। उनके अमल से किसी का अपमान न होता। और समय बीतने पर जब विरोध की भावना मंद पड़ जाती उस समय उन कानूनों में किसी प्रकार का परिवर्तन किए बिना - केवल उनके उदार अमल से ही - उस कौम को राहत मिल जाती, जिसके विरुद्ध वे कानून बनाए गए थे। जिस तरह दूसरे प्रकार के कानूनों को मैंने सार्वजनिक कानून कहा है, उसी तरह पहले प्रकार के कानून एकदेशीय अथवा जातीय कहे जा सकते हैं। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें रंगभेद के कानून कहा जाता है, क्योंकि उनमें चमड़ी का भेद करके काली या गेहुँए रंग की चमड़ीवाली प्रजाओं पर गोरों की तुलना में अधिक अंकुश लगाए जाते हैं। इसी को 'कलर-बार' अथवा रंग-भेद या रंग-द्वेष कहा जाता है।
प्रचलित कानूनों में से ही हम एक उदाहरण यहाँ लें। पाठकों को स्मरण होगा कि नेटाल में मताधिकार से संबंधित जो पहला कानून पास हुआ और बाद में जो बड़ी (साम्राज्य) सरकार द्वारा अस्वीकार कर दिया गया, उसमें एक धारा ऐसी थी कि भविष्य में किसी भी एशियाई को मतदान का अधिकार नहीं रहेगा। अब अगर ऐसे कानून को बदलवाना हो तो लोकमत इतनी हद तक शिक्षित होना चाहिए कि अधिकतर लोग एशियाई लोगों के न केवल विरुद्ध न हों, बल्कि उनके प्रति मित्रता की भावना रखते हों। ऐसा सुअवसर किसी दिन आए तभी नया कानून पास करके रंगभेद के कलंक को मिटाया जा सकता है। यह है एकदेशीय या रंगभेदी कानून का उदाहरण। नेटाल का उपर्युक्त कानून रद होकर उसके स्थान पर जो दूसरा कानून पास हुआ, उसमें भी पहले कानून का मूल हेतु लगभग सिद्ध हो गया; परंतु उसमें से रंगभेद का डंक दूर कर दिया गया और वह सार्वजनिक हो गया। इस दूसरे कानून की एक धारा का आशय इस प्रकार है : ''जिस देश को पार्लियामेंटरी फ्रेन्चाइज न हो - अर्थात् ब्रिटिश लोकसभा के सदस्य चुनने के मताधिकार जैसा मताधिकार न हो, उस देश के नागरिक नेटाल में मतदान के अधिकारी नहीं हो सकते।'' इस धारा में कहीं भी हिंदुस्तानियों का या एशियाई लोगों का नाम नहीं आया है। हिंदुस्तान में इंग्लैंड के जैसा मताधिकार है या नहीं, इस विषय में कानून के पंडितों के भिन्न भिन्न मत हो सकते हैं। लेकिन हम दलील के लिए यह मान लें कि भारत में उस समय - यानी 1894 में - ऐसा मताधिकार नहीं था अथवा आज भी नहीं है; फिर भी नेटाल में मताधिकारियों के नाम दर्ज करनेवाला अधिकारी यदि हिंदुस्तानियों के नाम दर्ज कर ले, तो कोई एकाएक ऐसा नहीं कह सकेगा कि उस अधिकारी ने कानून के खिलाफ काम किया है। सामान्य अनुमान हमेशा प्रजा के अधिकार के पक्ष में किया जाता है। इसलिए जब तक तत्कालीन सरकार विरोध न करना चाहे तब तक वह अधिकारी, उपर्युक्त कानून अस्तित्व में हो तो भी, हिंदुस्तानियों और दूसरे लोगों के नाम मताधिकारियों के पत्रक में दर्ज कर सकता है। अतः मान लीजिए कि समय पाकर नेटाल में हिंदुस्तानियों के प्रति गोरों की घृणा मंद पड़ जाए और सरकार को हिंदुस्तानियों का विरोध न करना हो, तो कानून में किसी भी तरह का परिवर्तन किए बिना हिंदुस्तानियों के नाम मतदाता-सूची में दर्ज किए जा सकते हैं। सार्वजनिक कानून की यह खूबी है। दक्षिण अफ्रीका के जिन दूसरे कानूनों का मैं पिछले प्रकरणों में उल्लेख कर चुका हूँ, उनसे ऐसे अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। अतः सयानी राजनीति यही मानी जाएगी कि एकदेशीय कानून कम से कम बनाए जाएँ - बिलकुल न बनाए जाएँ तो अति उत्तम होगा। एक बार कोई कानून बन जाने के बाद उसे बदलने में अनेक कठिनाइयाँ होती हैं। लोकमत बहुत अधिक शिक्षित बन जाता है तभी बने हुए कानून रद हो सकते हैं। जिस लोकतंत्र में हमेशा कानूनों में परिवर्तन होता ही रहता है, उस लोकतंत्र को सुदृढ़ और सुव्यवस्थित नहीं कहा जा सकता।
अब हम ट्रान्सवाल के एशियाई-विरोधी कानूनों में भरे हुए जहर का अंदाज अधिक अच्छी तरह लगा सकते हैं। वे सब कानून एकदेशीय थे। उनके अनुसार एशियाई लोग मत नहीं दे सकते थे; सरकार द्वारा निर्धारित किए हुए मुहल्लों से बाहर जमीन के मालिक नहीं बन सकते थे। वे कानून रद न हों तब तक अधिकारी-वर्ग हिंदुस्तानियों की मदद बिलकुल नहीं कर सकता था। वे कानून सार्वजनिक नहीं थे, इसीलिए लॉर्ड मिल्नर द्वारा नियुक्त जाँच-कमेटी उन्हें दूसरे कानूनों से अलग निकाल सकी। लेकिन अगर वे सार्वजनिक कानून होते, तो अन्य कानूनों के साथ वे भी - जिनमें एशियाई लोगों का नाम तो नहीं था, परंतु जिनका उपयोग एशियाइयों के विरुद्ध ही किया जाता था - रद हो गए होते। तब अधिकारी लोग ऐसा कभी न कह पाते कि ''हम क्या करें? हम लाचार हैं। जब तक नई धारासभा इन कानूनों को रद न करे तब तक हमें तो उन पर अमल करना ही होगा।''
जब ये कानून अमल के लिए एशियाटिक विभाग के हाथ में आए तब उसने पूरी सख्ती से इन पर अमल शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, उसने यह भी सुझाया कि यदि सरकार ऐसा मानती है कि ये कानून अमल करने लायक हैं, तो सरकार को उनमें एशियाई लोगों के पक्ष में जानबूझ कर रखे गए या असावधानी से रह गए बच निकलने के रास्तों को बंद करने की अधिक सत्ता प्राप्त करनी चाहिए। यह तर्क तो सीधा और सरल मालूम होता है। ये कानून बुरे हों तो सरकार को इन्हें रद कर देना चाहिए; और यदि ये ठीक हों तो इनमें रहे हुए दोषों को दूर कर देना चाहिए। मंत्रि-मंडल ने इन कानूनों पर अमल करने की नीति अपनाई थी। हिंदुस्तानी कौम ने बोअर-युद्ध में अँग्रेजों के साथ खड़े रह कर अपने प्राणों की बाजी लगाई थी, परंतु यह तो तीन-चार वर्ष पुरानी बात हो चुकी थी। ट्रान्सवाल में ब्रिटिश एजेंट (राजदूत) हिंदुस्तानी प्रजा के लिए लड़ा था, परंतु यह घटना पुराने राज्यतंत्र में हुई थी। बोअर-युद्ध का एक कारण हिंदुस्तानियों के साथ बोअरों का बुरा व्यवहार भी है - ऐसी जो घोषणा की गई थी, वह तो स्थानीय परिस्थितियों का अनुभव न रखनेवाले शासकों द्वारा दूरदर्शिता का उपयोग किए बिना की गई घोषणा थी। स्थानीय अनुभव ने ट्रान्सवाल के ब्रिटिश अधिकारियों को स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि बोअर-राज्य के समय हिंदुस्तानी-विरोधी जो कानून बनाए गए थे, वे न तो पर्याप्त थे और न व्यवस्थित थे। यदि हिंदुस्तानी लोग जब चाहें तब ट्रान्सवाल में प्रवेश कर सकें और जहाँ भी चाहें वहाँ मनचाहा व्यापार कर सकें, तो अँग्रेज व्यापारियों को बड़ा नुकसान होगा। इन दलीलों ने और ऐसी दूसरी दलीलों ने गोरों पर और मंत्रि-मंडल के उनके प्रतिनिधियों पर दृढ़ अधिकार जमा लिया था। वे सब कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा धन एकत्र करना चाहते थे। इसमें हिंदुस्तानी लोग उनके साझेदार बनें, यह उन्हें कैसे बरदाश्त होता? इसके साथ तत्वज्ञान का पाखंड भी मिल गया। दक्षिण अफ्रीका के बुद्धिमान लोगों को केवल व्यापार की दृष्टि से की जानेवाली स्वार्थपूर्ण दलील संतोष नहीं दे सकती थी। अन्याय करने के लिए भी मनुष्य की बुद्धि ऐसी दलीलें खोजती है, जो उसे उचित लगें। दक्षिण अफ्रीका के गोरों की बुद्धि ने यही किया। जनरल स्मट्स तथा दूसरे लोगों ने जो दलीलें दीं, वे इस प्रकार थीं :
''दक्षिण अफ्रीका पश्चिमी सभ्यता का प्रतिनिधि है। हिंदुस्तान पूर्वीय सभ्यता का केंद्रस्थान है। इस युग के तत्वज्ञानी, विचारशील लोग, यह स्वीकार नहीं करते कि इन दो सभ्यताओं का समन्वय हो सकता है। इसलिए यदि इन दो प्रतिद्वंद्वी सभ्यताओं का प्रतिनिधित्व करनेवाली प्रजाएँ छोटे समुदायों में भी एक-दूसरे से मिलें, तो उसका परिणाम विस्फोट ही हो सकता है - दोनों का संघर्ष अनिवार्य है। पश्चिम सादगी का विरोधी है। पूर्व के लोग सादगी को जीवन में प्रमुख स्थान देते हैं। ऐसी स्थिति में इन दोनों का मेल कैसे बैठ सकता है? इन दो सभ्यताओं में से कौन सी सभ्यता अधिक अच्छी है, यह देखना राजनीतिक यानी व्यावहारिक पुरुषों का काम नहीं है। पश्चिम की सभ्यता अच्छी हो या बुरी, लेकिन पश्चिम की प्रजाएँ उसी से चिपटी रहना चाहती हैं। उस सभ्यता की रक्षा के लिए पश्चिम की प्रजाओं ने अथक प्रयत्न किए हैं, खून की नदियाँ बहाई हैं और दूसरे भी अनेक तरह के कष्ट सहे हैं। इसलिए पश्चिम की प्रजाओं को इस समय दूसरा रास्ता नहीं सूझ सकता। इस दृष्टि से सोचने पर हिंदुस्तानियों और यूरोपियनों का प्रश्न न तो व्यापार-द्वेष का है और न वर्णद्वेष का। यह प्रश्न केवल अपनी सभ्यता की रक्षा करने का अर्थात् आत्मरक्षा का ऊँचे से ऊँचे प्रकार का अधिकार भोगने का और उससे संबंधित कर्तव्यों का पालन करने का ही है। कुछ भाषण करनेवाले लोगों को हिंदुस्तानियों के दोष निकालने की बात यूरोपियनों को उभाड़ने के लिए भले ही पसंद आती हो, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से सोचनेवाले लोग तो यही मानते हैं और कहते हैं कि हिंदुस्तानियों के गुण ही दक्षिण अफ्रीका में उनके दोष माने जाते हैं। हिंदुस्तानी लोग अपनी सादगी, लंबे समय तक मेहनत करने के अपने धीरज, अपनी किफायतशारी, अपनी परलोक-परायणता, अपनी सहनशीलता आदि गुणों के कारण ही दक्षिण अफ्रीका में अप्रिय बन गए हैं। पश्चिम की प्रजा साहसी, अधीर, दुनियावी जरूरतें बढ़ाने और उनकी पूर्ति करने में मग्न, खाने-पीने की शौकीन, शरीर-श्रम बचाने के लिए आतुर और उड़ाऊ स्वभाव की है। इसलिए उसे हमेशा यह डर बना रहता है कि यदि पूर्वीय सभ्यता के हजारों प्रतिनिधि दक्षिण अफ्रीका में बसेंगे, तो पश्चिम के लोगों को पीछे हटना ही होगा। दक्षिण अफ्रीका में बसनेवाली पश्चिम की प्रजा आत्महत्या करने के लिए कभी तैयार नहीं होगी। और उस प्रजा के समर्थक, उसके नेता, उसे किसी भी समय ऐसे खतरे में नहीं पड़ने देंगे।''
मैं मानता हूँ कि यहाँ मैंने उपर्युक्त तर्क उसी रूप में निष्पक्ष भाव से प्रस्तुत किया है, जैसा वह दक्षिण अफ्रीका के अच्छे से अच्छे और चरित्रवान गोरों के द्वारा किया गया है। इस तर्क को मैंने ऊपर तत्वज्ञान का पाखंड कहा है; परंतु उससे में यह सूचित नहीं करना चाहता कि इस तर्क में कोई सचाई नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से, अर्थात् तात्कालिक स्वार्थ की दृष्टि से, तो उसमें काफी सचाई है। परंतु तत्वज्ञान की दृष्टि से वह निरा पाखंड और ढोंग है। मेरी अल्प बुद्धि को तो ऐसा लगता है कि किसी तटस्थ मनुष्य की बुद्धि ऐसे निर्णय को स्वीकार नहीं करेगी। कोई भी सुधारक अपनी सभ्यता को ऐसी लाचार स्थिति में नहीं रखेगा, जैसी लाचार स्थिति में उपर्युक्त तर्क प्रस्तुत करनेवाले लोगों ने अपनी सभ्यता को रखा है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, पूर्व के किसी भी तत्व ज्ञानी को यह भय नहीं है कि पश्चिम की प्रजा स्वतंत्रता से पूर्व की प्रजा के संपर्क में आएगी, तो पूर्व की सभ्यता पश्चिम की सभ्यता की बाढ़ में बालू की तरह बह जाएगी। जहाँ तक मैंने पूर्वीय तत्वज्ञान को समझा है, मुझे तो यह दिखाई देता है कि पूर्व की सभ्यता पश्चिम के स्वतंत्र समागम से निर्भय रहती है; इतना ही नहीं परंतु ऐसे समागम का वह स्वागत करेगी। इससे उलटे उदाहरण यदि पूर्व में पाए जाएँ, तो उनसे मेरे बताए हुए सिद्धांत पर कोई आँच नहीं आती; क्योंकि मेरे सिद्धांत के समर्थन में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। परंतु जो भी हो, पश्चिम के तत्वज्ञानियों का यह दावा है कि पश्चिमी सभ्यता का मूल सिद्धांत सर्वोच्च पशुबल पर आधारित है। यही कारण है कि उस सभ्यता के समर्थक पशुबल की रक्षा में अपने समय का अधिक से अधिक भाग खर्च करते हैं। उन लोगों का तो यह भी सिद्धांत है कि जो प्रजाएँ अपनी जरूरतें बढ़ाएँगी नहीं, उनका अंत में नाश ही होनेवाला है। इन सिद्धांतों का अनुसरण करके ही पश्चिम की प्रजा दक्षिण अफ्रीका में बसी है और अपनी संख्या से अनेक गुनी अधिक संख्यावाले हबशियों को उसने वश में किया है। तब फिर उसे हिंदुस्तान की गरीब प्रजा का भय तो हो ही कैसे सकता है? और पूर्वीय सभ्यता की दृष्टि से उस प्रजा को कोई वास्तविक भय नहीं है, इसका उत्तम प्रमाण यह है कि हिंदुस्तानी दक्षिण अफ्रीका में यदि सदा मजदूरों के रूप में ही रहते, तो गोरे कभी भी हिंदुस्तानियों के वहाँ बसने के विरुद्ध आंदोलन नहीं करते।
तब शेष कारण तो केवल व्यापार और रंग के ही रह जाते हैं। हजारों गोरों ने यह लिखा है और स्वीकार किया है कि हिंदुस्तानियों का व्यापार छोटे छोटे अँग्रेज व्यापारियों को परेशान करता है और गेहुँए रंगवाली प्रजा के प्रति नफरत का भाव अभी तो गोरी प्रजा की रग-रग में पठ गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कानून में तो सारे नागरिकों को समान अधिकार दिए गए हैं; परंतु वहाँ भी बूकर टी. वाशिंग्टन जैसा उच्चतम पश्चिमी शिक्षा पाया हुआ, अत्यंत चरित्रवान ईसाई और पश्चिमी सभ्यता को पूर्ण रूप से अपनी बना लेनेवाला पुरूष प्रेसिडेंट रूजवेल्ट के दरबार में नहीं जा सका था, और आज भी नहीं जा सकता। अमेरिका के हबशियों ने पश्चिम की सभ्यता स्वीकार कर ली हैं; वे ईसाई भी बन गए हैं। लेकिन उनकी काली चमड़ी उनका अपराध माना जाता है। और यदि संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्यों में सामाजिक दृष्टि से उनसे घृणा की जाती है और उनका तिरस्कार किया जाता है, तो दक्षिण अमेरिका के राज्यों में अपराध की केवल शंका होने पर ही गोरे उन्हें जिंदा जला डालते हैं। दक्षिण अमेरिका में इस दंडनीति का एक विशेष नाम भी है, जो आज अँग्रेजी भाषा में प्रचलित हो गया है। वह शब्द है 'लिन्च लॉ'। 'लिन्च लॉ' का अर्थ ऐसी दंडनीति है, जिसके अनुसार सजा पहले दी जाती है और अपराध की जाँच बाद में होती है। यह नाम 'लिन्च' नामक एक मनुष्य के नाम के आधार पर पड़ा है, जिसने यह दंडप्रथा आरंभ की थी।
इस तरह पाठक यह समझ लेंगे कि उपर्युक्त तात्विक माने जानेवाले तर्क में बहुत सार नहीं है। लेकिन पाठक इसका यह अर्थ भी न करें कि उपर्युक्त तर्क प्रस्तुत करनेवाले सब गोरे भिन्न विश्वास रखते हुए भी ऐसा तर्क करते हैं। उनमें से अनेक लोग सच्चे हृदय से मानते हैं कि उनका यह तर्क तात्विक है। संभव है कि हम उनके जैसी स्थिति में हों तो हम भी शायद ऐसा ही तर्क करें। कुछ ऐसे ही कारण से यह लोकोक्ति प्रचलित हुई है - 'बुद्धि: कर्मानुसारिणी।' यह अनुभव किसे नहीं होगा कि हमारी अंतर्वृत्ति का निर्माण जैसा हुआ होता है वैसा ही तर्क हमें सूझा करता है; और वह तर्क जब दूसरों के गले नहीं उतरता तो हमें असंतोष होता है, हम अधीर बन जाते हैं और अंत में हमें क्रोध आता है।
मैंने जानबूझ कर इस प्रश्न की इतनी बारीकी से चर्चा की है। मैं चाहता हूँ कि पाठक विभिन्न दृष्टियों को समझें और जो लोग आज तक ऐसा न करते आए हों वे विभिन्न दृष्टियों का आदर करने और उन्हें समझने की आदत डालें। सत्याग्रह का रहस्य जानने के लिए और खास करके सत्याग्रह का प्रयोग करने के लिए ऐसी उदारता और ऐसी सहनशीलता अत्यंत आवश्यक है। इनके बिना सत्याग्रह संभव ही नहीं है। यह पुस्तक मैं केवल लिखने के उद्देश्य से ही नहीं लिख रहा हूँ। इसके पीछे यह हेतु भी नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका के इतिहास का एक पहलू भारत की जनता के सामने रखा जाए। इस पुस्तक को लिखने का मेरा हेतु यह है कि जिस सत्याग्रह के लिए मैं जीता हूँ, जीना चाहता हूँ और जिसके लिए उतनी ही हद तक मैं मरने को भी तैयार हूँ, उस सत्याग्रह का जन्म कैसे हुआ और उसका सर्वप्रथम सामुदायिक प्रयोग कैसे किया गया - यह सब भारतीय जनता जाने, समझे और जितना पसंद करे उतना यथाशक्ति आचरण में उतारे।
अब हम फिर से अपनी कथा को आगे बढ़ाएँ। हम यह देख चुके हैं कि ब्रिटिश सत्ताधारियों ने यह निर्णय किया था कि ट्रान्सवाल में नए हिंदुस्तानियों को आने से रोका जाए और पुरानों की स्थिति इतनी कठिन बना दी जाए कि वे घबरा कर ट्रान्सवाल छोड़ दें, और न छोड़ें तो भी वे लगभग मजदूर जैसे बनकर ही रह सकें। दक्षिण अफ्रीका के कुछ महान माने जानेवाले राजनीतिक पुरुषों ने अनेक बार यह कहा था कि हिंदुस्तानियों को हम दक्षिण अफ्रीका में केवल लकड़हारों और काँवरियों के रूप में ही रख सकते हैं। पहले जिस एशियाटिक विभाग की बात मैं लिख चुका हूँ उसमें दूसरे गोरे अधिकारियों के साथ हिंदुस्तान में किसी समय रह चुके और विभक्त जिम्मेदारी (डायर्की) के शोधक और प्रचारक के रूप में प्रसिद्धि पाए हुए श्री लायनल कर्टिस भी थे। कुलीन परिवार के ये नौजवान, उस समय 1905-06 में तो नौजवान ही थे, लॉर्ड मिल्नर के विश्वस्त आदमी थे। प्रत्येक कार्य वैज्ञानिक पद्धति से ही करने का उनका दावा था। परंतु वे बड़ी बड़ी गलतियाँ भी कर सकते थे। अपनी ऐसी एक गलती से उन्होंने जोहानिसबर्ग की म्युनिसिपैलिटी को 14000 पौंड के खड्डे में उतार दिया था! उन्होंने यह सुझाव रखा कि ट्रान्सवाल में नए हिंदुस्तानियों को आने से रोकना हो, तो उस दिशा में पहला कदम यह उठाया जाना चाहिए कि दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए पुराने हिंदुस्तानियों के नाम इस ढंग से रजिस्टर किए जाएँ कि एक हिंदुस्तानी के बदले दूसरा हिंदुस्तानी दक्षिण अफ्रीका में घुस न सके, और अगर घुस भी जाए तो तुरंत पकड़ लिया जाए। ट्रान्सवाल में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने के बाद हिंदुस्तानियों को जो परवाने दिए जाते थे, उन पर या तो हिंदुस्तानी के दस्तखत लिए जाते थे या दस्तखत न कर सकने की स्थिति में उसके अँगूठे की निशानी ली जाती थी। इसके बाद किसी अधिकारी ने सुझाया कि परवानों पर हिंदुस्तानियों की फोटो भी रहनी चाहिए। इस प्रकार फोटो, अँगूठे की निशानी और दस्तखत - ये सब वैसे ही चल पड़े। इसके लिए कोई कानून बनाना जरूरी नहीं माना गया। इस कारण कौम के नेताओं को इन बातों का तुरंत पता भी नहीं चल सका था। धीरे धीरे ही उन्हें इन नई बातों के दाखिल होने का पता चला। उन्होंने कौम की ओर से सत्ताधारियों को अर्जियाँ भेजीं; प्रतिनिधि-मंडल भी भेजे। अधिकारियों की दलील यह थी कि कोई भी हिंदुस्तानी किसी भी रीति से ट्रान्सवाल में प्रवेश करे, इसे हम स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए सब हिंदुस्तानियों के पास एक ही तरह के परवाने होने चाहिए और उनमें इतना ब्योरा होना चाहिए कि उन परवानों के आधार पर उनके मालिक ही ट्रान्सवाल में आ सकें, दूसरे कोई न आ सकें। मैंने कौम को यह सलाह दी कि ऐसा कोई कानून तो नहीं है जिसके अनुसार ऐसे परवाने लेना हमारे लिए अनिवार्य हो; परंतु जब तक शांति रक्षा का कानून (पीस प्रिजर्वेशन ऑडिनेन्स) मौजूद है तब तक अधिकारी हम से परवाने अवश्य माँग सकते हैं। जिस तरह हिंदुस्तान में 'डिफेन्स ऑफ इंडिया एक्ट' - भारत रक्षा कानून - था, उसी तरह दक्षिण अफ्रीका में शांति रक्षा का कानून था। जिस तरह हिंदुस्तान में डिफेन्स ऑफ इंडिया एक्ट केवल प्रजा को परेशान करने के लिए ही लंबी अवधि तक चालू रखा गया था, उसी तरह यह शांतिरक्षा कानून आवश्यकता पूरी हो जाने के बाद भी केवल हिंदुस्तानियों को परेशान करने के लिए ही दक्षिण अफ्रीका में लंबे समय तक चालू रखा गया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि गोरों पर शांतिरक्षा कानून का सामान्यतः बिलकुल अमल नहीं होता था। अब यदि परवाने लेना अनिवार्य हो तो उन पर पहचान की कोई निशानी होनी ही चाहिए। इसलिए जो हिंदुस्तानी दस्तखत न कर सकते हों उनके लिए अँगूठे की निशानी परवाने पर देना उचित ही होगा। पुलिसवालों ने यह खोज निकाला है कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की अँगुलियों की रेखाएँ एक सी कभी नहीं होती। उन्होंने अँगुलियों की आकृति और संख्या का वर्गीकरण किया है। इस विज्ञान का निष्पात व्यक्त्िा दो अँगूठों की छाप की तुलना करके एक-दो मिनट में ही कह सकता है कि वे अँगूठे दो अलग व्यक्तियों के है या एक व्यक्ति के हैं। लेकिन फोटो देने की बात मुझे बिलकुल पसंद नहीं थी; और मुसलमानों की दृष्टि से तो फोटो देने में धार्मिक आपत्ति भी थी।
अंत में हिंदुस्तानी कौम और सरकार के बीच हुई बातचीत का परिणाम यह आया : कौम ने यह बात मान ली कि प्रत्येक हिंदुस्तानी अपना पुराना परवाना लौटा कर नया परवाना ले और नया आनेवाला हिंदुस्तानी नए रूप में ही परवाना ले। ऐसा करना हिंदुस्तानियों के लिए कानून की दृष्टि से जरा भी अनिवार्य नहीं था, परंतु उन्होंने इस आशा से स्वयं ही परवाने ले लिए कि उन पर नए अंकुश नहीं लगाए जाएँगे, कौम संबंधित लोगों की यह दिखा सकेगी कि वह धोखे से किसी भी नए हिंदुस्तानी को ट्रान्सवाल में दाखिल नहीं करना चाहती और नए आनेवाले हिंदुस्तानियों को परेशान करने के लिए शांतिरक्षा कानून का अमल नहीं किया जाएगा। ऐसा कहा जा सकता है कि लगभग सभी हिंदुस्तानियों ने नए परवाने ले लिए थे। यह कोई ऐसी-वैसी बात नहीं मानी जाएगी। जो काम करना कानून की दृष्टि से हिंदुस्तानी कौम के लिए जरा भी अनिवार्य न था, वह काम उसने संपूर्ण एकता से बहुत ही जल्दी कर दिखाया। यह कौन की सचाई, व्यवहार-कुशलता, सयानेपन, बुद्धिमानी और नम्रता का लक्षण था। और अपने इस काम से कौम ने यह भी सिद्ध कर दिखाया कि ट्रान्सवाल के किसी कानून का किसी भी तरह उल्लंघन करने का उसका बिलकुल इरादा नहीं था। हिंदुस्तानियों का ऐसा विश्वास था कि जो कौम सरकार के साथ इतनी सज्जनता से व्यवहार करती है, उस कौम के साथ सरकार भी अच्छा व्यवहार करेगी, उसके प्रति आदर दिखाएगी और दूसरे अधिकार भी देगी। ट्रान्सवाल की ब्रिटिश सरकार ने इस सज्जनता का बदला कैसे चुकाया, यह हम अगले प्रकरण में देख सकेंगे।