ट्रान्सवाल में खूनी कानून का विरोध करने के लिए स्थानीय सरकार के सामने अरजियाँ पेश करने वगैरा के जो जो कदम उठाने जरूरी थे वे सब उठा लिए गए थे। ट्रान्सवाल की धारासभा ने बिल की स्त्रियों से संबंध रखनेवाली धारा निकाल दी थी। परंतु बाकी का बिल लगभग उसी रूप में पास हुआ जिस रूप में वह सरकारी गजट में प्रकाशित किया गया था। परंतु उस समय कौम में बड़ी हिम्मत थी और उतनी ही एकता और एकमत भी था, इसलिए कोई निराश नहीं हुआ। हमारा यह निश्चय अटल रहा कि इस संबंध में जो भी वैधानिक उपाय करने जरूरी हों वे अवश्य ही किए जाएँ। उस समय तक ट्रान्सवाल 'क्राउन कॉलोनी' था। 'क्राउन कॉलोनी' का शब्दार्थ है शाही उपनिवेश - अर्थात ऐसा उपनिवेश जिसके कानूनों, प्रशासन आदि के लिए बड़ी (साम्राज्य) सरकार जिम्मेदार मानी जाए। इसलिए जो कानून शाही उपनिवेश की धारासभा पास करे उसके लिए ब्रिटिश सम्राट की सम्मति केवल व्यवहार और शिष्टाचार का पालन करने के लिए ही प्राप्त करनी जरूरी नहीं होती; बहुत बार अपने मंत्रि-मंडल की सलाह से सम्राट ऐसे कानूनों के लिए अपनी सम्मति देने से इनकार भी कर सकता है, जो ब्रिटिश संविधान के सिद्धांत के विरुद्ध हों। इसके विपरीत, उत्तरदायी शासन (रिस्पॉन्सिबल गवर्नमेंट) वाले उपनिवेशों की धारासभा जो कानून पास करती है, उनके लिए सम्राट की सम्मति मुख्यतः केवल शिष्टाचार पूरा करने के लिए ही ली जाती है।
कौम का प्रतिनिधि-मंडल विलायत जाए तो कौम को अपनी जिम्मेदारी अधिक समझनी होगी, यह बताने का भार मेरे ही सिर पर था। इसलिए मैंने हमारे एसोसियेशन के सामने तीन सुझाव रखे। पहला, यद्यपि यदूदियों की नाटक-शाला (एंपायर थियेटर) में हुई सभा में हमने प्रतिज्ञाएँ ली थीं, फिर भी हमें एक बार और प्रमुख हिंदुस्तानियों की व्यक्तिगत प्रतिज्ञाएँ प्राप्त कर लेनी चाहिए, ताकि अगर लोगों के मन में कोई भी शंका पैदा हुई हो या किसी भी तरह की कमजोरी ने घर किया हो तो उसका हमें पता चल जाए। इस सुझाव के समर्थन में मेरा एक तर्क यह था कि प्रतिनिधि-मंडल सत्याग्रह के बल से इंग्लैंड जाएगा तो निर्भय होकर जाएगा और निर्भयता से हिंदुस्तानी कौम का निश्चय इंग्लैंड में उपनिवेश मंत्री तथा भारत-मंत्री के सामने प्रकट कर सकेगा। दूसरा सुझाव यह था कि प्रतिनिधि-मंडल के खर्च की पूरी व्यवस्था पहले से ही होनी चाहिए। और तीसरा सुझाव यह था कि प्रतिनिधि-मंडल में कम से कम सदस्य जाने चाहिए। तीसरा सुझाव मैंने लोगों में अकसर पाई जानेवाली इस गलत मान्यता को सुधारने के लिए दिया था कि प्रतिनिधि-मंडल में अधिक सदस्यों के जाने से अधिक कार्य हो सकता है। प्रतिनिधि-मंडल में जानेवाले लोग अपने सम्मान के लिए नहीं परंतु केवल कौम की सेवा के लिए जाएँ, इस विचार को महत्व देने की और खर्च बचाने की व्यावहारिक दृष्टि मेरे इस तीसरे सुझाव में थी। मेरे तीनों सुझाव स्वीकार कर लिए गए। लोगों के हस्ताक्षर लिए गए। अनेक लोगों ने प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर किए। लेकिन इस समय मैंने यह बात देखी कि जिन लोगों ने नाटक-शाला की सभा में मौखिक प्रतिज्ञा की थी, उनमें से भी कुछ लोग प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने में हिचकिचा रहे थे। एक बार जो प्रतिज्ञा ले ली उसे बाद में पचास बार दोहराने में भी हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए। फिर भी यह अनुभव किसे नहीं होगा कि लोग सोच-विचार कर जो प्रतिज्ञा लेते हैं, उसमें भी वे ढीले पड़ जाते हैं अथवा मुँह से ली हुई प्रतिज्ञा को लिखित रूप देने में घबराते हैं? प्रतिनिधि-मंडल के खर्च के लिए पैसे भी हमारे अनुमान के अनुसार इकट्ठे हो गए। लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई प्रतिनिधियों के चुनाव में पैदा हुई। मेरा नाम तो उसमें था ही। लेकिन मेरे साथ कौन जाए? इसका निर्णय करने में कमेटी ने बहुत समय ले लिया। कितनी ही रातें चर्चा में बीत गईं। और संगठनों अथवा संघों में जो जो बुरी आदतें ऐसे अवसर पर देखने में आती हैं, उनका हमें पूरा अनुभव हुआ। कुछ लोग कहते कि मैं अकेला ही जाऊँ तो सबको संतोष होगा। लेकिन ऐसा करने से मैंने साफ इनकार कर दिया। सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका में हिंदू-मुसलमान का प्रश्न नहीं था। लेकिन यह दावा नहीं किया जा सकता कि दोनों जातियों के बीच कोई मतभेद थे ही नहीं। इन मतभेदों ने कभी जहरीला रूप नहीं लिया, इसका कारण कुछ हद तक वहाँ की विचित्र परिस्थितियाँ मानी जा सकती हैं। परंतु इसका सच्चा और निश्चित कारण तो यही है कि हिंदुस्तानी कौम के नेताओं ने सच्ची निष्ठा और शुद्ध हृदय से अपना कार्य किया और कौम का सुंदर मार्गदर्शन किया। मैंने यह सलाह दी कि मेरे साथ एक मुसलमान सज्जन अवश्य होने चाहिए और प्रतिनिधि-मंडल में केवल दो ही सदस्य इंग्लैंड जाने चाहिए। लेकिन हिंदुओं की ओर से तुरंत कहा गया कि मैं तो सारी कौम का प्रतिनिधि माना जाऊँगा, इसलिए हिंदुओं का एक प्रतिनिधि इस मंडल में होना ही चाहिए। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि प्रतिनिधि-मंडल में एक कोंकणी और एक मेमन मुसलमान होना चाहिए और हिंदुओं में से एक पाटीदार, एक अनाविल और इसी तरह दूसरी जातियों का एक एक सदस्य होना चाहिए। परंतु अंत में सब लोग समझ गए और श्री हाजी वजीर अली और मैं - दो ही आदमी एकमत से चुने गए।
हाजी वजीर अली आधे मलायी कहे जा सकते थे। उनके पिता हिंदुस्तानी मुसलमान थे और माता मलायी थी। उनकी मातृभाषा को हम डच कह सकते हैं। लेकिन अँग्रेजी शिक्षा भी उन्होंने इस हद तक ली थी कि वे डच और अँग्रेजी दोनों अच्छी तरह बोल सकते थे। अँग्रेजी में भाषण करते हुए उन्हें कहीं रुकना नहीं पड़ता था। अखबारों में पत्र लिखने की कला का भी उन्होंने अच्छा विकास कर लिया था। वे ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के सदस्य थे और लंबे समय से सार्वजनिक कार्य में भाग लेते आ रहे थे। हिंदुस्तानी भी वे अच्छी तरह बोल सकते थे। एक मलायी महिला के साथ उनका विवाह हुआ था, जिसके फलस्वरूप वे अनेक संतानों के पिता थे।
हम दोनों विलायत पहुँचते ही अपने काम में जुट गए। भारत-मंत्री के सामने पेश की जानेवाली अरजी तो हमने जहाज में ही तैयार कर ली थी। इंग्लैंड पहुँच कर हमने उसे छपवा लिया। उस समय लॉर्ड एल्गिन उपनिवेश-मंत्री थे और लॉर्ड मोर्ले भारत-मंत्री थे। हम दोनों भारत के दादा श्री दादाभाई नौरोजी से मिले। फिर उनके मारफत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी से मिले। उसे हमने अपना केस सुनाया और कहा कि हम सारे पक्षों को साथ रखकर अपना काम करना चाहते हैं। दादाभाई ने तो हमें यह सलाह दी ही थी। ब्रिटिश कमेटी को भी हमारा यह विचार उचित लगा। इसी प्रकार हम लोग सर मंचेरजी भावनगरी से भी मिले। उन्होंने भी हमारी बहुत मदद की। उनकी और दादाभाई की यह सलाह थी कि जो प्रतिनिधि-मंडल लॉर्ड एल्गिन से मिलने जाए, उसका नेता कोई तटस्थ और विख्यात एंग्लो-इंडियन हो तो अच्छा। सर मंचेरजी ने कुछ नाम भी सुझाए। उनमें सर लेपल ग्रिफिन का नाम भी था। मुझे पाठकों को बता देना चाहिए कि उस समय पर विलियम विल्सन हंटर जीवित नहीं थे। वे जीवित होते तो दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की स्थिति का गाढ़ा परिचय होने के कारण वे ही उस प्रतिनिधि-मंडल के नेता बने होते अथवा उन्होंने ही लॉर्ड सभा के किसी प्रभावशाली महान नेता को मंडल का नेतृत्व करने के लिए खोज दिया होता।
हम दोनों सर लेपल ग्रिफिन से मिले। वे हिंदुस्तान में चलनेवाले राजनीतिक आंदोलनों के खिलाफ थे। परंतु हमारे इस प्रश्न में उन्हें बड़ा रस आया। और उन्होंने केवल सौजन्य के खातिर नहीं, परंतु न्याय दृष्टि से ही हमारे कार्य में प्रमुख भाग लेना स्वीकार किया। उन्होंने सारे कागजात पढ़े और हमारे प्रश्न से वे परिचित हुए। हम दूसरे एंग्लो-इंडियनों से भी मिले। ब्रिटिश लोकसभा के अनेक सदस्यों से मिले और कुछ न कुछ प्रभाव रखनेवाले ऐसे दूसरे सब लोगों से भी मिले, जिनसे मिल सकना हमारे लिए संभव था। हमारा प्रतिनिधि-मंडल लॉर्ड एल्गिन से मिला। उन्होंने हमारी सारी बातें ध्यान से सुनीं, अपनी सहानुभूति प्रकट की, अपनी कठिनाइयाँ भी बताईं; परंतु साथ ही यथाशक्त्िा हमारे लिए सब कुछ करने का वचन भी दिया। यही प्रतिनिधि-मंडल लॉर्ड मोर्ले से भी मिला। उन्होंने भी हमारे प्रश्न के लिए सहानुभूति प्रकट की। उनके उद्गारों का सार मैं पहले दे चुका हूँ। सर विलियम वेडरबर्न के प्रयत्नों से ब्रिटिश लोकसभा के ऐसे सदस्यों की एक सभा लोकसभा के दीवानखाने में हुई, जिनका संबंध हिंदुस्तान के राजकाज से था। हमने उनके सामने भी अपना मामला यथाशक्ति प्रस्तुत किया। उस समय आयरिश पार्टी के नेता श्री रेडमंड थे। इसलिए हम खास तौर पर उनसे भी मिलने गए। थोड़े में कहा जाए तो हम लोकसभा के सभी पक्षों के जिन जिन सदस्यों से मिलना संभव था उन सबसे मिले। इंग्लैंड में हमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी की मदद तो काफी मिली ही। परंतु वहाँ के रीति-रिवाज के अनुसार उसमें अमुक पक्ष के अथवा अमुक विचारों के लोग ही शरीक होते थे। उसमें शरीक न होनेवाले ऐसे बहुत से लोग थे, जो हमारे कार्य में पूरी सहायता करते थे। उन सबको एक ही स्थान पर एकत्र करके यदि इस कार्य में लगाया जा सके, तो अधिक अच्छा काम हो सकेगा - ऐसी मान्यता और ऐसे इरादे से हमने एक स्थायी समिति रचने का निश्चय किया। हमारा यह विचार सब पक्षों के लोगों को पसंद आया।
प्रत्येक संस्था का आधार मुख्यतः उसके मंत्री पर रहता है। मंत्री ऐसा होना चाहिए जिसका उस संस्था के उद्देश्यों और ध्येयों पर पूर्ण विश्वास हो; इतना ही नहीं, परंतु जिसमें उसके उद्देश्यों और ध्येयों की सिद्धि के लिए अपना लगभग संपूर्ण समय देने की शक्ति हो और संस्था का कार्य करने की योग्यता हो। श्री एल.डब्ल्यू. रिच में ये सारे गुण थे। वे दक्षिण अफ्रीका के ही थे और मेरे ऑफिस में क्लर्क रह चुके थे। इस समय वे लंदन में बैरिस्टरी का अध्ययन करते थे और यह कार्य करने की उनकी इच्छा भी थी। इसलिए हमने इस कार्य के लिए एक स्थायी समिति - साउथ अफ्रीका ब्रिटिश इंडियन कमिटी -रचने का साहस किया।
मेरी दृष्टि से इंग्लैंड में तथा पश्चिम के अन्य देशों में एक ऐसी असभ्य प्रथा है कि वहाँ अच्छे अच्छे कार्यों का शुभारंभ भोज के समय किया जाता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री प्रतिवर्ष 9 नवंबर के दिन मैन्शन हाउस नामक व्यापारियों के महान केंद्र में सारे संसार का ध्यान खींचनेवाला अपना भाषण करते हैं, जिसमें वे अपने वार्षिक कार्यक्रम की रूपरेखा बताते हैं और भविष्य के विषय में अपना अनुमान प्रकट करते हैं। लंदन के लॉर्ड मेयर की ओर से ब्रिटिश मंत्रि-मंडल को और अन्य लोगों को उस भवन में भोज का निमंत्रण दिया जाता है; भोज के समाप्त होने के बाद शराब की बोतलें खुलती हैं और यजमान तथा अतिथियों की स्वास्थ्य-कामना के लिए शराब पी जाती है। और जिस समय यह शुभ अथवा अशुभ (सब कोई अपनी दृष्टि के अनुसार इनमें से कोई विशेषण चुन लें) कार्य चल रहा होता है उसी बीच भाषण भी किए जाते हैं। उसमें ब्रिटिश सम्राट के मंत्रि-मंडल का 'टोस्ट' (स्वास्थ्य-संबंधी आशीर्वाद) भी सम्मिलित कर दिया जाता है इस 'टोस्ट' के उत्तर में ही प्रधानमंत्री का उपर्युक्त महत्वपूर्ण भाषण होता है। जिस तरह सार्वजनिक रूप में किसी बात की चर्चा आदि के लिए भोजन का निमंत्रण देने की प्रथा है, उसी तरह निजी रूप में किसी के साथ विशेष बातचीत करनी हो तो उस व्यक्ति को भोजन के लिए निमंत्रित करने की प्रथा है। और कभी भोजन करते करते तो कभी भोजन पूरा हो जाने के बाद बातचीत का विषय छेड़ा जाता है। हमें भी एक बार नहीं किंतु अनेक बार इस प्रथा के वश होना पड़ा था। लेकिन कोई पाठक इसका यह अर्थ न कर ले कि हममें से किसी ने भी अपेय वस्तु (शराब) पी या अखाद्य वस्तु (मांस) खाई। इस प्रथा के अनुसार हमने भी एक दिन दोपहर के भोजन का निमंत्रण अपने मुख्य समर्थकों और सहायक मित्रों को दिया। लगभग सौ मित्रों को हमने निमंत्रण भेजे होंगे। इस भोज का हेतु सहायकों और समर्थकों का आभार मानना, उनसे बिदा लेना और स्थायी समिति की स्थापना करना था। इस भोज में भी प्रथानुसार भोजन के बाद भाषण हुए और स्थायी समिति की स्थापना भी हुई। इस कार्यक्रम से भी हमारे आंदोलन को अधिक प्रसिद्धि मिली।
इस प्रकार लगभग छह सप्ताह का समय इंग्लैंड में बिता कर हम दक्षिण अफ्रीका लौटे। मदीरा पहुँचने पर हमें श्री रिच का तार मिला : 'लॉर्ड एल्गिन ने यह घोषणा की है कि ब्रिटिश मंत्रि-मंडल ने सम्राट से यह सिफारिश की है कि वे ट्रान्सवाल के एशियाटिक एक्ट को अस्वीकार कर दें।' हमारे हर्ष का तो पार न रहा। मदीरा से केपटाउन पहुँचने में 14-15 दिन लगते थे। ये दिन हमने बड़े आनंद में बिताए और भविष्य में कौम के दूसरे दुखों को दूर कराने के लिए शेखचिल्ली की तरह हवाई किले भी खूब बनाए। परंतु दैव की गति निराली होती है। हमारे ये हवाई किले कैसे ढह गए, इसका वर्णन अगले प्रकरण में किया जाएगा।
लेकिन यह प्रकरण पूरा करने से पहले एक दो पवित्र संस्मरण मुझे, यहाँ देने चाहिए। इतना तो मुझे कहना ही चाहिए कि इंग्लैंड में हमने अपना एक भी क्षण व्यर्थ नहीं खोया। बड़ी संख्या में सरक्यूलर (परिपत्र) वगैरा भेजने का काम अकेले हाथों नहीं हो सकता था। इसके लिए हमें बाहरी मदद की बड़ी जरूरत थी। पैसा खर्च करने पर ऐसी मदद हमें काफी मिल सकती थी। परंतु अपने 40 वर्ष के अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि ऐसी मदद स्वयं सेवकों की शुद्ध मदद के जितनी फलवती नहीं होती। सौभाग्य से ऐसी शुद्ध मदद हमें इंग्लैंड में मिल गई। कई हिंदुस्तानी नौजवान, जो वहाँ अध्ययन करते थे, हमारे आसपास घिरे रहते थे और उनमें से कुछ लोग सुबह-शाम, इनाम अथवा नाम की आशा रखे बिना, हमारे इस काम में मदद करते थे। मुझे याद नहीं आता कि उनमें से किसी भी स्वयं सेवक ने किसी काम को अपनी प्रतिष्ठा के योग्य न मानकर कभी करने से इनकार किया हो - फिर वह नाम-पते लिखने का काम हो, नकलें करने का काम हो, टिकट चिपकाने का काम हो या पत्रों को डाक में छोड़ने का काम हो। लेकिन इन सबको एक ओर रख देनेवाला सिमंड्ज़ नामक एक अँग्रेज मित्र था, जिससे पहले-पहल मैं दक्षिण अफ्रीका में मिला था और जो हिंदुस्तान में रह चुका था। अँग्रेजी में एक कहावत है कि देवता जिसे प्रेम करते हैं उसे वे जल्दी ही अपने पास बुला लेते हैं। इस 'पर-दुख-भंजन' अँग्रेज को यमदूत भर जवानी में ले गए। 'पर-दुख-भंजन' विशेषण के उपयोग का एक विशेष कारण है। यह भला अँग्रेज नौजवान जब बंबई में था उस समय - सन 1897 में -प्लेग के हिंदुस्तानी रोगियों में निडर होकर घूमता-फिरता था और उनकी मदद करता था। छुतहे रोग से पीड़ित लोगों की सहायता और सेवा करते समय मृत्यु का रत्तीभर डर न रखने की बात उसके खून में समा गई थी। उसके भीतर जातिद्वेष या रंगद्वेष का नाम भी नहीं था। वह अतिशय स्वतंत्र मिजाज का आदमी था। उसका यह सिद्धांत था कि सत्य सदा छोटे पक्ष अर्थात 'माइनॉरिटी' के साथ ही रहता है। इसी सिद्धांत के वश होकर वह जोहानिसबर्ग में मेरी ओर आकर्षित हुआ था। विनोद में उसने अनेक बार मुझसे कहा था कि यदि आपका पक्ष बड़ा हो जाएगा तो आप निश्चित मानिए कि मेरा साथ आपको बिलकुल नहीं मिलेगा, क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि 'मेजॉरिटी' (बड़े पक्ष) के हाथ में सत्य भी असत्य का रूप ले लेता है। उसका वाचन बड़ा विस्तृत था। वह जोहानिसबर्ग के एक करोड़पति सर जॉर्ज फेररका विश्वसनीय निजी सचिव था। शॉर्ट हैंड (लघु लेखन) लिखने में वह निष्णात था। जब हम इंग्लैंड में थे तब वह अचानक वहाँ आ पहुँचा था। मुझे उसके निवास-स्थान का कोई पता नहीं था। लेकिन हम सार्वजनिक कार्य करनेवाले आदमी थे, इसलिए अखबारों में हमारा विज्ञापन हो गया था। उसके आधार पर सिमंड्ज ने हमें खोज निकाला और यथाशक्ति हमारी सहायता करने की तैयारी दिखाई। उसने कहा : ''मुझे आप चपरासी का काम देंगे, तो वह भी मैं करूँगा। और अगर आपको शॉर्ट हैंड की जरूरत हो, तब तो आप जानते ही हैं कि मेरे जैसा कुशल स्टेनोग्राफर आपको दूसरा कोई नहीं मिलेगा।'' हमें दोनों प्रकार की सहायता की जरूरत थी। और यह कहने में मैं जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ कि इस अँग्रेज नौजवान ने दिन-रात हमारे लिए बिना पैसे के कड़ा परिश्रम किया। रात के बारह बारह और एक एक बजे तक वह टाइप-राइटर पर टाइप किया करता था। संदेश ले जाने और डाक में पत्र डालने का काम भी सिमंड्ज़ ही करता था; और यह सब वह हँसते-हँसते करता था। मैं जानता था कि उसकी मासिक आय लगभग 45 पौंड थी। परंतु यह सारा पैसा वह मित्रों की मदद में खर्च कर देता था। उसकी उमर उस समय करीब 30 वर्ष की रही होगी। परंतु वह अविवाहित था और जीवन भर अविवाहित रहना चाहता था। मैंने उससे कुछ रकम मेहनताने के रूप में लेने का बहुत आग्रह किया, परंतु उसने स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया। उसने कहा था : ''अगर मैं इस सेवा का बदला स्वीकार करूँ, तो अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाऊँ।'' मुझे याद है कि आखिरी रात हमें अपना सारा काम समेटते और सामान वगैरा बाँधते-बाँधते रात के तीन बज गए थे। सिमंड्ज़ भी हमारे साथ तीन बजे तक जागा था। दूसरे दिन जहाज पर हमें बिदा करके ही वह हम से अलग हुआ था। वह वियोग बड़ा दुखद था। मैंने जीवन में बहुत बार यह अनुभव किया है कि परोपकार गेहुँए रंगवालों की ही विरासत नहीं है।
सार्वजनिक कार्य करनेवाले नौजवानों के हित के लिए मैं यह भी बता दूँ कि प्रतिनिधि-मंडल के खर्च का हिसाब रखने का काम हमने इतनी निश्चितता से किया था कि जहाज पर सोडा-वाटर पिया हो और उसकी रसीद मिली हो, तो उसे भी हमने उतनी रकम के खर्च की निशानी के रूप में सँभाल कर रख छोड़ा था। इसी प्रकार किए गए तारों की रसीदें भी हमने सँभाल कर रखी थीं। मुझे याद नहीं कि हमने ब्योरेवार लिखे हुए हिसाब में विविध खर्च के नाम पर एक भी रकम लिखी हो। ऐसा कोई विभाग तो हमने अपनी हिसाब-बही में रखा ही नहीं था। 'याद नहीं' शब्द जोड़ने का कारण यही है कि शायद दिन के अंत में खर्च का हिसाब लिखते समय दो-चार शिलिंग का खर्च याद न रहा हो और उसे हमने विविध खर्च के रूप में लिख दिया हो। इसीलिए मैंने अपवाद के रूप में 'याद नहीं' शब्दों का प्रयोग किया है।
इस जीवन में एक बात मैंने स्पष्ट रूप से देखी है कि जब से हम समझदार बनते हैं तभी से हम ट्रस्टी अथवा जिम्मेदार व्यक्ति बन जाते हैं। माता-पिता के साथ रहें तब तक वे जो काम या जो पैसा हमें सौंपें, उसका हिसाब हमें उन्हें देना ही चाहिए। हम पर विश्वास रखकर वे हम से हिसाब न माँगें, तो इस कारण से हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाते। जब हम स्वतंत्र गृहस्थ बन जाते हैं उस समय स्त्री और संतान के प्रति हमारी जिम्मेदारी पैदा होती है। अपनी कमाई के स्वामी हम अकेले ही नहीं हैं। हमारे परिवार के लोगों का भी उसमें भाग है। उनके लिए हमें पाई-पाई का हिसाब रखना चाहिए। तब फिर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने के बाद की हमारी जिम्मेदारी का तो कहना ही क्या? मैंने देखा है कि स्वयं सेवकों को एक आदत पड़ जाती है; वे ऐसा मानकर चलते हैं कि उनके हाथ में जो काम या जो पैसा सौंपा गया है उसका ब्योरेवार हिसाब देने के लिए वे बँधे हुए नहीं हैं, क्योंकि वे कभी अविश्वास के पात्र हो ही नहीं सकते। यह घोर अज्ञान ही कहा जाएगा। हिसाब रखने की बात का अविश्वास या विश्वास के साथ कोई संबंध नहीं है। हिसाब रखना भी एक स्वतंत्र कर्तव्य है। उसके बिना अपने काम को हमें स्वयं ही अशुद्ध और मलिन समझना चाहिए। और जिस संस्था के हम स्वयं सेवक हों उस संस्था के नेता अथवा प्रमुख कार्यकर्ता झूठी शिष्टता या डर के कारण हम से अपने काम का या सौंपे हुए पैसे का हिसाब न माँगें, तो वे भी उतने ही दोषी माने जाएँगे। काम का और पैसे का हिसाब रखना जितना वेतन-भोगी नौकर का फर्ज है, उससे दुगुना फर्ज स्वयं सेवक का है; क्योंकि उसने तो अपने काम को ही अपना वेतन माना है। यह बड़े महत्व की बात है, लेकिन मैं जानता हूँ कि बहुतेरी संस्थाओं में सामान्यतः इस बात पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। इसीलिए इस प्रकरण में मैंने इस बात की चर्चा के लिए इतना स्थान देने की हिम्मत की है।