केप टाउन में जहाज से उतरने पर और उससे भी अधिक जोहानिसबर्ग पहुँचने पर हमने
देखा कि मदीरा में मिले हुए तार की हमने जो कीमत आँकी थी उतनी कीमत वास्तव
में उसकी नहीं थी। इसमें दोष तार भेजनेवाले श्री रिच का नहीं था। उन्होंने तो
एशियाटिक एक्ट की अस्वीकृति के बारे में जो कुछ सुना था उसी के अनुसार तार
किया था। हम पहले बता चुके हैं कि उस समय - अर्थात 1906 में - ट्रान्सवाल एक
शाही उपनिवेश था। ऐसे उपनिवेशों के राजदूत उपनिवेश-मंत्री को अपने अपने
उपनिवेश के हितों से संबंधित बातों से परिचित रखने के लिए सदा इंग्लैंड में
रहते हैं। ट्रान्सवाल के राजदूत सर रिचर्ड सॉलोमन थे, जो दक्षिण अफ्रीका के
एक प्रख्यात वकील थे। खूनी कानून को अस्वीकार करने का निश्चय लॉर्ड एल्गिन
ने सर रिचर्ड सॉलोमन के साथ विचार-विमर्श करके ही किया था। 1 जनवरी 1907 से
ट्रान्सवाल को उत्तरदायी शासन की सत्ता प्राप्त होनेवाली थी। इसलिए लॉर्ड
एल्गिन ने सर रिचर्ड सॉलोमन को यह विश्वास दिलाया था कि ''यही कानून यदि
ट्रान्सवाल की धारासभा में उत्तरदायी शासन की सत्ता मिलने के बाद पास होगा,
तो बड़ी (साम्राज्य) सरकार उसे अस्वीकार नहीं करेगी। परंतु जब तक
ट्रान्सवाल शाही उपनिवेश माना जाता है तब तक ऐसे रंग-भेद वाले कानून के लिए
बड़ी सरकार सीधी जिम्मेदार मानी जाएगी। और बड़ी सरकार के संविधान में जातीय
भेदभाव की राजनीति को स्थान नहीं दिया जाता। इसलिए इस सिद्धांत का पालन करने
के लिए मुझे फिलहाल तो इस खूनी कानून को अस्वीकार करने की ही सलाह सम्राट को
देनी होगी।''
इस प्रकार केवल नाम के लिए ही खूनी कानून रद हो और साथ ही ट्रान्सवाल के
गोरों का काम भी बन जाए, तो सर रिचर्ड सॉलोमन को कोई आपत्ति नहीं थी - क्यों
हो सकती थी? इस राजनीति को मैंने 'वक्र' कहा है। परंतु सच पूछा जाए तो इससे
अधिक तीखे विशेषण का प्रयोग करने पर भी इस नीति के प्रवर्तकों के साथ कोई
अन्याय नहीं होगा ऐसा मेरा विश्वास है। शाही उपनिवेशों के कानूनों के बारे
में साम्राज्य सरकार की सीधी जिम्मेदारी होती है। उसके संविधान में रंगभेद
और जातिभेद के लिए कोई स्थान नहीं है। ये दोनों बातें बड़ी सुंदर हैं।
उत्तरदायी शासन की सत्ता भोगनेवाले उपनिवेशों द्वारा बनाए गए कानूनों को बड़ी
सरकार एकाएक रद नहीं कर सकती, यह भी समझ में आने जैसी बात है। लेकिन उपनिवेशों
के राजदूतों के साथ गुप्त मंत्रणाएँ करना और उन्हें साम्राज्य सरकार के
संविधान की भावना के विरुद्ध जानेवाले कानूनों को अस्वीकार न करने का पहले से
वचन देना - यह क्या उन लोगों के साथ धोखा और अन्याय नहीं कहा जाएगा, जिनके
अधिकार छीने जाते हों? सच पूछा जाए तो लॉर्ड एल्गिन ने ऐसा वचन देकर
ट्रान्सवाल के गोरों को अपना हिंदुस्तानी-विरोधी आंदोलन जारी रखने का
प्रोत्साहन दिया था। यदि यही करना था तो हिंदुस्तानी प्रतिनिधियों से
स्पष्ट शब्दों में उन्हें ऐसा कह देना चाहिए था। वास्तव में उत्तरदायी
सत्तावाले उपनिवेशों के कानूनों के लिए भी ब्रिटिश साम्राज्य जिम्मेदार तो
है ही। ब्रिटिश संविधान के मूल सिद्धांत उत्तरदायी शासनवाले उपनिवेशों को भी
स्वीकार करने ही होते हैं। उदाहरण के लिए कोई भी उत्तरदायी शासनवाला उपनिवेश
अपने यहाँ कानून-सम्मत गुलामी की प्रथा को पुनर्जीवित नहीं कर सकता। यदि लॉर्ड
एल्गिन ने खूनी कानून अनुचित है, ऐसा मानकर उसे अस्वीकार किया हो - और ऐसा
मानकर ही वे उसे अस्वीकार कर सकते थे - तो उनका यह स्पष्ट कर्तव्य था कि
वे सर रिचर्ड सॉलोमन को अकेले में बुलाकर यह कह देते कि उत्तरदायी शासन की
सत्ता मिलने के बाद ट्रान्सवाल की सरकार ऐसा अन्यायी कानून न बनाए; और यदि
उसका विचार ऐसा कानून बनाने का हो तो बड़ी सरकार को फिर से यह सोचना पड़ेगा कि
ट्रान्सवाल को उत्तरदायी शासन की सत्ता सौंपी जाए या नहीं। अथवा
हिंदुस्तानियों के अधिकारों की संपूर्ण रक्षा करने की शर्त पर ही ट्रान्सवाल
को उत्तरदायी शासन सौंपा जाना चाहिए था। ऐसा करने के बजाय लॉर्ड एल्गिन ने
बाहर से तो हिंदुस्तानियों की हिमायत करने का ढोंग किया और साथ ही भीतर से
वस्तुतः ट्रान्सवाल सरकार की हिमायत की; और जिस कानून को उन्होंने स्वयं
अस्वीकार कर दिया उसी को फिर पास करने के लिए उसे उत्तेजित किया। ऐसी वक्र
राजनीति का यह एकमात्र या पहला ही उदाहरण नहीं है। ब्रिटिश साम्राज्य के
इतिहास का सामान्य अभ्यासी भी ऐसे दूसरे उदाहरण याद कर सकता है।
इस कारण से जोहानिसबर्ग में हमने एक ही बात सुनी : लॉर्ड एल्गिन ने और
साम्राज्य सरकार ने हमें धोखा दिया। मदीरा में हमें जितनी प्रसन्नता हुई थी
उतनी ही दक्षिण अफ्रीका में हमें निराशा हुई। फिर भी इस वक्रता का तात्कालिक
परिणाम यह हुआ कि हिंदुस्तानियों में अधिक जोश फैला। सब लोग यह कहने लगे :
''अब हमें क्या चिंता है? हमें कौन साम्राज्य सरकार की सहायता के बल पर
लड़ना है? हमें तो अपने बल पर और जिसके नाम पर हमने प्रतिज्ञा ली है उस ईश्वर
के आधार पर लड़ना है। और यदि हम सच्चे रहेंगे, तो टेढ़ी नीति भी सीधी हो
जाएगी।''
ट्रान्सवाल में उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। नई धारासभा का पहला कानून
बजट के संबंध में था; और दूसरा कानून खूनी कानून (एशियाटिक रजिस्ट्रेशन
एक्ट) था। वह एक या दो शब्दों के परिवर्तन के सिवा जैसा पहले बनाया गया था और
पास किया गया था वैसा ही इस बार भी पास हुआ। वह परिवर्तन इस प्रकार था : कानून
की एक धारा में तारीख दी गई थी; उसमें तो परिवर्तन करना अनिवार्य था। इसलिए
केवल उस तारीख का ही परिवर्तन किया गया और 21 मार्च 1907 को एक ही बैठक में
धारासभा ने खूनी कानून की सारी विधि पूरी करके उसे पास कर दिया। इस शाब्दिक
परिवर्तन का कानून की सख्ती के साथ कोई संबंध नहीं था। वह तो पहले जैसी ही
बनी रही। इसलिए कानून के अस्वीकृत होने की घटना केवल स्वप्नवत हो गई।
हिंदुस्तानी कौम ने अपनी प्रथा के अनुसार अरजियाँ वगैरा भेजने का काम तो
किया, लेकिन उनकी तूती की आवाज कौन सुनता? 1 जुलाई 1907 से इस कानून के अमल
में आने की घोषणा की गई और ऐसा आदेश निकाला गया कि हिंदुस्तानियों को 31
जुलाई से पूर्व परवाने लेने की अरजी पेश कर देनी चाहिए। बीच की इतनी अवधि रखने
का कारण हिंदुस्तानी कौम पर सरकार की कृपा नहीं थी। इसका कारण दूसरा था। उस
कानून के लिए नियमानुसार साम्राज्य सरकार की सम्मति भी आवश्यक थी। इसमें कुछ
समय तो जाता ही। इसके सिवा, परिशिष्टों के अनुसार पत्रक, पुस्तिकाएँ, परवाने
आदि तैयार कराने और अलग अलग स्थानों में परवानों के दफ्तर खोलने में भी समय
लगनेवाला था। इसलिए 4-5 माह का समय ट्रान्सवाल सरकार ने अपनी ही सुविधा के
लिए लिया था।