जब हमारा प्रतिनिधि-मंडल इंग्लैंड जा रहा था उस समय दक्षिण अफ्रीका में बसे
हुए एक अँग्रेज यात्री ने मेरे मुँह से ट्रान्सवाल के खूनी कानून की बात और
हमारे इंग्लैंड जाने का कारण सुना, तो वह बोल उठा : ''तो आप कुत्ते का पट्टा
(डॉग्स कॉलर) पहनने से इनकार करना चाहते हैं!'' उस अँग्रेज ने ट्रान्सवाल के
परवाने की तुलना कुत्ते के पट्टे से की। वह वचन उसने पट्टे के बारे में अपना
हर्ष बताने और हिंदुस्तानियों के प्रति अपना तिरस्कार प्रकट करने के लिए कहा
था या अपनी सहानुभूति प्रकट करने के लिए कहा था - यह निर्णय मैं न तो उस समय
कर सका था। और न आज उस घटना का उल्लेख करते समय कर सकता हूँ। किसी भी मनुष्य
के वचन का अर्थ हमें इस तरह नहीं करना चाहिए कि उसके साथ अन्याय हो, इस
सुनीति का अनुसरण करके मैं ऐसा मान लेता हूँ कि उस अँग्रेज ने अपनी सहानुभूति
प्रकट करने के लिए ही स्थिति का यथावत चित्र प्रस्तुत करनेवाले ये शब्द कहे
थे। एक ओर ट्रान्सवाल सरकार हिंदुस्तानियों को यह गलपट्टा पहनाने की तैयारी
कर रही थी; और दूसरी ओर हिंदुस्तानी कौम इस बात की तैयारी कर रही थी कि यह
पट्टा गले में न पहनने के निश्चय पर वह कैसे अटल रहे और ट्रान्सवाल सरकार की
वक्र नीति के खिलाफ कैसे लड़े। इंग्लैंड के और हिंदुस्तान के सहायक मित्रों
को पत्र आदि लिखने और वहाँ की वर्तमान स्थिति से परिचित रखने का काम तो चल ही
रहा था। परंतु सत्याग्रह की लड़ाई बाह्य उपचारों पर बहुत कम आधार रखती है।
आंतरिक उपचार ही सत्याग्रह में रामबाण उपचार सिद्ध होते हैं। इसलिए कौम के
सारे अंग ताजे और सक्रिय बने रहें, इसके उपाय ढूँढ़ने में ही कौम के नेताओं का
समय जाता था।
कौम के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह खड़ा हुआ कि सत्याग्रह का आंदोलन करने
के लिए किस संगठन का उपयोग किया जाए। ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के
सदस्यों की काफी बड़ी संख्या थी। उसकी स्थापना के समय सत्याग्रह का जन्म
भी नहीं हुआ था। उस संघ को एक नहीं परंतु अनेक कानूनों के विरुद्ध लड़ना पड़ता
था और आगे भी लड़ना था। कानूनों के विरुद्ध लड़ने के सिवा उसे राजनीतिक,
सामाजिक और अन्य क्षेत्रों में भी विविध प्रकार के कार्य करने होते थे। इसके
सिवा, उस संघ के सारे सदस्यों ने सत्याग्रह द्वारा खूनी कानून का विरोध करने
की प्रतिज्ञा भी नहीं ली थी। साथ ही उस संघ के संबंध में हमें बाहरी खतरों का
भी विचार करना था। सत्याग्रह की लड़ाई को ट्रान्सवाल सरकार यदि राजद्रोही
माने तो? और ऐसा मान कर यदि सरकार सत्याग्रह की लड़ाई चलानेवाली संस्थाओं को
गैर-कानूनी करार दे तो? ऐसी स्थिति में उन संस्थाओं में काम करनेवाले जो
कार्यकर्ता सत्याग्रही न हों उनका क्या हो? सत्याग्रह छिड़ने से पहले
जिन्होंने संघ को धन दिया हो, उनके धन का क्या हो? - इन बातों का भी विचार
करना जरूरी था। अंत में, सत्याग्रहियों का यह दृढ़ निश्चय था कि जो लोग
अश्रद्धा के कारण, अशक्ति के कारण अथवा अन्य किसी कारण से सत्याग्रह में
शामिल न हो सकें, उनके प्रति द्वेष की भावना न रखी जाए; इतना ही नहीं, उनके
साथ के स्नेहपूर्ण व्यवहार में जरा भी परिवर्तन न होने दिया जाए और
सत्याग्रह के सिवा अन्य आंदोलनों में उनके साथ मिलकर ही काम किया जाए।
इन सब प्रश्नों पर सोच-विचार करने के बाद समूची कौम इस निर्णय पर पहुँची कि
किसी भी वर्तमान संगठन या संस्था के द्वारा सत्याग्रह का आंदोलन न चलाया
जाए। दूसरी संस्थाएँ सत्याग्रह आंदोलन को यथा शक्ति प्रोत्साहन दें। और
दूसरी संस्थाएँ भी सत्याग्रह के सिवा अन्य जो भी कदम खूनी कानून के विरुद्ध
उठा सकें व उठाएँ। इसलिए सत्याग्रहियों ने 'पैसिव रेजिस्टेन्स एसोसियेशन'
अथवा सत्याग्रह-मंडल नामक एक नए मंडल की स्थापना की। अँग्रेजी नाम से पाठक
यह समझ सकेंगे कि जिस समय यह नया मंडल अस्तित्व में आया उस समय सत्याग्रह
नाम की खोज नहीं हुई थी। ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों यह मालूम
होता गया कि नया मंडल स्थापित करने से हिंदुस्तानी प्रजा को हर तरह से लाभ
ही हुआ है और यदि वैसा न किया गया होता तो सत्याग्रह आंदोलन को शायद नुकसान
ही होता। लोग इस नए मंडल के बड़ी संख्या में सदस्य हो गए और पैसा भी कौम ने
उसे खुले हाथों दिया।
मुझे तो अपने अनुभव ने यही सिखाया है कि कोई भी आंदोलन पैसे के अभाव में न तो
कभी बंद होता, न कभी रुकता और न कभी निस्तेज बनता। इसका यह अर्थ नहीं कि
दुनिया का कोई भी आंदोलन पैसे के बिना चल सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ अवश्य
है कि जिस आंदोलन के संचालक सच्चे और प्रामाणिक होते हैं, उसके लिए पैसा
अपने-आप चला आता है। इससे विपरीत, मुझे ऐसा भी अनुभव हुआ है कि जब किसी आंदोलन
में पैसे की बाढ़ आ जाती है तब उसकी अवनति आरंभ हो जाती है। इस कारण से मैंने
अनुभव के आधार पर एक सिद्धांत यह भी बनाया है : किसी भी सार्वजनिक संस्था का
पूँजी जमा करके उसके ब्याज से अपना कामकाज चलाना पाप है, ऐसा कहने की तो मेरी
हिम्मत नहीं होती; परंतु इतना मैं अवश्य कहूँगा कि ऐसा करना अनुचित है।
जन-समुदाय ही सार्वजनिक संस्था की सच्ची पूँजी है। जब तक लोग चाहें तभी तक
ऐसी संस्थाएँ चलनी चाहिए। पूँजी जमा करके उसके ब्याज पर अपना काम चलानेवाली
संस्था सार्वजनिक नहीं रह जाती; वह स्वच्छंद और मनमानी करनेवाली हो जाती है।
वह सार्वजनिक टीका के अंकुश में नहीं रहती। ब्याज पर चलनेवाली अनेक धार्मिक
और सामाजिक संस्थाओं में कितनी संड़ाध फैल गई है, इसकी चर्चा का यह स्थान
नहीं है। यह तो लगभग स्वयंसिद्ध जैसी बात है।
परंतु हम अपने मूल विषय पर लौटें। सूक्ष्म दलीलें करके बाल की खाल खींचने का
और मीन-मेष निकालने का एकाधिकार केवल वकीलों का या अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए
सभ्य लोगों का ही नहीं है। मैंने देखा कि दक्षिण अफ्रीका के अनाड़ी और अनपढ़
हिंदुस्तानी भी बहुत ही सूक्ष्म दलीलें कर सकते थे। कुछ लोगों ने यह दलील
खोज निकाली कि पहली बार बना हुआ खूनी कानून अस्वीकार कर दिया गया, इसलिए
यहूदियों की नाटक-शाला में ली हुई हमारी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। जो लोग अपनी
प्रतिज्ञा के पालन में शिथिल और कमजोर पड़ गए थे, उन्होंने इस दलील की शरण
ली। इस दलील में कोई सत्य नहीं था, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। परंतु इस दलील
का उन लोगों पर कोई असर नहीं हो सका, जो खूनी कानून का केवल कानून के रूप में
विरोध नहीं करते थे, परंतु उस कानून में निहित बुरे तत्व का विरोध करते थे।
ऐसा होते हुए भी सुरक्षितता की दृष्टि से, कौम में अधिक जागृति उत्पन्न करने
की दृष्टि से और लोगों में अगर कमजोरी आई है तो किस हद तक आई है इसकी जाँच
करने की दृष्टि से एक बार फिर प्रतिज्ञा लिवाना मुझे आवश्यक मालूम हुआ। इसलिए
स्थान स्थान पर सभाएँ करके लोगों को परिस्थिति समझाई गई और फिर से प्रतिज्ञा
भी लिवाई गई। लोगों के उत्साह और जोश में किसी तरह की कमी आई हो ऐसा देखने
में नहीं आया।
इस बीच जुलाई के निर्णायक महीने का अंत निकट आ रहा था। जुलाई की आखिरी तारीख
को ट्रान्सवाल की राजधानी प्रिटोरिया में हिंदुस्तानियों की एक विशाल सभा
करने का हमने निर्णय किया था। दूसरे शहरों से भी प्रतिनिधियों को निमंत्रित
किया गया था। सभा प्रिटोरिया की मसजिद के खुले मैदान में की गई थी। सत्याग्रह
शुरू होने के बाद सभाओं में लोग इतनी बड़ी संख्या में आने लगे थे कि किसी
मकान के भीतर सभा करना असंभव हो गया था। पूरे ट्रान्सवाल में हिंदुस्तानियों
की आबादी 13000 से ज्यादा नहीं थी। इनमें से 10000 से ज्यादा तो जोहानिसबर्ग
और प्रिटोरिया में ही रहते थे। इतनी संख्या में पाँच-छह हजार लोग किसी सभा
में हाजिर हों तो यह संख्या दुनिया के किसी भी भाग में बहुत बड़ी और बहुत
संतोषकारक मानी जाएगी। सार्वजनिक सत्याग्रह की लड़ाई दूसरी किसी शर्त पर लड़ी
भी नहीं जा सकती। जिस लड़ाई का आधार केवल सत्याग्रहियों की अपनी शक्ति पर ही
होता है, उसमें यदि लड़ाई से संबंधित विषयों की सार्वजनिक तालीम न दी जाए तो
लड़ाई चल ही नहीं सकती। इसलिए इतनी बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति हम
कार्यकर्ताओं को आश्चर्यजनक नहीं लगती थी। हमने पहले से ही यह निश्चय कर
लिया था कि सार्वजनिक सभाएँ खुले मैदान में ही की जाएँ, जिससे पैसा खर्च न
करना पड़े और जगह की कमी के कारण किसी भी आदमी को वापिस न जाना पड़े। यहाँ इस
बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि ये सब सभाएँ प्रायः अत्यंत शांत होती थीं।
आनेवाले लोग सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनते थे। कोई सभा के छोर पर खड़े होते
और भाषण न सुन पाते, तो बोलनेवाले से ऊँची आवाज में बोलने को कहते। पाठकों को
यह बताना जरूरी नहीं होना चाहिए कि ऐसी सभाओं में कुर्सियों की व्यवस्था
नहीं हो सकती थी। सब कोई जमीन पर ही बैठते थे। केवल एक छोटा सा मंच खड़ा कर
दिया जाता था, जिस पर सभा के सभापति, भाषण करनेवाले वक्ता और दो चार अन्य
लोग सभापती के पास बैठ सकें। उस मंच पर एक छोटी सी टेबल और दो चार कुर्सियाँ
या स्टूल रख दिए जाते थे।
प्रिटोरिया की इस सभा के सभापति थे ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अस्थायी
अध्यक्ष यूसुफ इस्माइल मियाँ। खूनी कानून के अनुसार परवाने लेने का समय निकट
आता जा रहा था। इस कारण से अपने सारे जोश के बावजूद जिस प्रकार हिंदुस्तानी
चिंतातुर थे, उसी प्रकार जनरल बोथा और जनरल स्मट्स अपनी सरकार के पास अमोघ
शक्ति होते हुए भी चिंतातुर थे। एक संपूर्ण कौम को जबरन झुकाना किसी को भी
अच्छा नहीं लग सकता था। इसलिए जनरल बोथा ने श्री विलियम हॉस्किन को इस सभा
में हमें समझाने के लिए भेजा। श्री हॉस्किन का परिचय मैं तेरहवें प्रकरण में
दे चुका हूँ। सभा ने उनका हार्दिक स्वागत किया। उन्होंने अपने भाषण में कहा
: ''आप सब यह जानते हैं कि मैं आपका मित्र हूँ। यह कहना जरूरी नहीं कि मेरी
सहानुभूति आपके साथ है। मुझमें शक्ति हो तो मैं आपकी सारी माँगें स्वीकार
करवा दूँ। लेकिन यहाँ के साधारण गोरों के विरोध के बारे में आपको चेताना जरूरी
नहीं है। आज मैं आपके पास जनरल बोथा के कहने से आया हूँ। जनरल बोथा ने मुझसे
कहा है कि इस सभा में आकर मैं उनका संदेश आपको सुना दूँ। हिंदुस्तानी कौम के
लिए उनके मन में आदर है। कौम की भावनाओं को वे समझते हैं। लेकिन वे कहते हैं,
'मैं लाचार हूँ। ट्रान्सवाल के सभी गोरे ऐसे कानून की माँग करते हैं। मैं
स्वयं भी इस कानून को आवश्यक मानता हूँ। हिंदुस्तानी कौम ट्रान्सवाल सरकार
की शक्ति से परिचित है। साम्राज्य सरकार ने इस कानून का समर्थन किया है।
हिंदुस्तानी कौम ने जितना किया जा सकता था उतना किया है और अपने सम्मान की
रक्षा की है। परंतु जब कौम का विरोध सफल न हुआ और कानून पास हो गया है, तो अब
कौम को इस कानून के वश होकर अपनी वफादारी और शांतिप्रियता सिद्ध कर दिखानी
चाहिए। इस कानून के अनुसार जो धाराएँ रची गई हैं उनमें कोई छोटा-मोटा परिवर्तन
करना हो, तो इस संबंध में कौम की बात जनरल स्मट्स ध्यानपूर्वक सुनेंगे।'' इस
तरह जनरल बोथा का संदेश सुनाने के बाद श्री हॉस्किन ने कहा : ''मैं भी आपको यह
सलाह देता हूँ कि आप लोग जनरल बोथा के संदेश को मान लें। मैं जानता हूँ कि
सरकार इस कानून के संबंध में दृढ़ है। उसका विरोध करने का अर्थ होगा दीवाल से
अपना सिर टकराना। मैं चाहता हूँ कि आपकी कौम उसका विरोध करके व्यर्थ ही दुख न
भोगे और बरबाद न हो।'' इस भाषण का अक्षरशः अनुवाद करके मैंने कौम के लोगों को
सुना दिया। अपनी ओर से भी मैंने उन्हें सावधान किया। श्री हॉस्किन तालियों की
गड़गड़ाहट के बीच बिदा हुए।
अब सभा में हिंदुस्तानियों के भाषण शुरू हुए। इस प्रकरण के और सच पूछा जाए तो
इस इतिहास के नायक का परिचय अब मुझे कराना ही चाहिए। सभा में जिन वक्ताओं ने
भाषण दिए उनमें स्व. अहमद मुहम्मद काछलिया भी थे। मैं उन्हें अपने एक
मुवक्किल के रूप में और दुभाषिए के रूप में जानता था। वे अभी तक सार्वजनिक
कार्य में प्रमुख भाग नहीं लेते थे। उन्हें अँग्रेजी का कामचलाऊ ज्ञान था,
परंतु अनुभव से उन्होंने अपने इस ज्ञान को इतना बढ़ा लिया था कि जब वे अपने
मित्रों को अँग्रेज वकीलों के पास ले जाते थे तब उनके दुभाषिए का काम वे
स्वयं ही करते थे। लेकिन दुभाषिए का काम उनका धंधा नहीं था; यह काम वे एक
मित्र के नाते ही करते थे। उनका धंधा पहले कपड़े की फेरी लगाने का था और बाद
में वे अपने भाई के साथ साझेदारी में छोटे पैमाने पर व्यापार करने लगे थे। वे
सूरती मेमन थे। उनका जन्म सूरत जिले में हुआ था। सूरती मेमनों में उनकी बहुत
अच्छी प्रतिष्ठा थी। उनका गुजराती का ज्ञान भी सीमित ही था, परंतु अनुभव से
उन्होंने इस ज्ञान को खूब बढ़ा लिया था। लेकिन उनकी बुद्धि इतनी तेज थी कि वे
किसी भी बात को बड़ी आसानी से समझ लेते थे। मुकदमों की उलझनों को वे इस ढंग से
सुलझा सकते थे कि मैं बहुत बार आश्चर्यचकित हो जाता था। वकीलों के साथ कानूनी
दलीलें करने में भी वे हिचकिचाते नहीं थे और अकसर उनकी दलीले वकीलों को भी
विचारने जैसी लगती थीं।
बहादुरी में और एकनिष्ठा में उनसे आगे बढ़ जाए ऐसे एक भी आदमी का अनुभव न तो
मुझे दक्षिण अफ्रीका में हुआ और न हिंदुस्तान में हुआ। कौम के भले के लिए
उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। जब कभी मैं उनके संपर्क में
आया तब मैंने सदा ही उन्हें एकवचनी के रूप में पाया। वे एक कट्टर मुसलमान थे।
सूरती मेमनों की मसजिद के ट्रस्टियों में वे भी एक थे। परंतु साथ ही वे
हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रति समदर्शी भी थे। मुझे ऐसा एक भी अवसर याद नहीं
आता जब उन्होंने धर्मान्ध बनकर अथवा अनुचित रूप में हिंदुओं के खिलाफ
मुसलमानों का पक्ष लिया हो। पूरी तरह निडर और निष्पक्ष होने के कारण वे
आवश्यक मालूम होने पर हिंदू-मुसलमान दोनों को उनके दोष बताने में जरा भी
संकोच नहीं करते थे। उनकी सादगी और उनकी निरभिमानता अनुकरण करने जैसी थी। उनके
साथ वर्षों के गाढ़ परिचय के बाद मेरा यह दृढ़ मत बन गया था कि स्व. अहमद
मुहम्मद काछलिया जैसा पुरुष हिंदुस्तानी कौम को मिलना दुर्लभ है।
प्रिटोरिया की सभा में बोलनेवाले लोगों में एक यह नर-पुंगव भी था। उन्होंने
बहुत छोटा भाषण दिया। उन्होंने कहा : ''हर हिंदुस्तानी इस खूनी कानून को
जानता है। हम सब उसका अर्थ समझते हैं। श्री हॉस्किन का भाषण मैंने ध्यान से
सुना है। आप सबने भी उसे सुना है। मुझ पर उसका एक ही असर हुआ है। उसे सुनकर
मेरी कसम (प्रतिज्ञा) और पक्की हुई है। हम जानते हैं कि ट्रान्सवाल सरकार
कितनी शक्तिशाली है। लेकिन इस खूनी कानून के डर से ज्यादा बड़ा डर वह हमें
क्या दिखा सकती है? वह हमें जेल में बंद करेगी, हमारी जायदाद जब्त करके बेच
देगी, हमें देशनिकाले की सजा देगी या फाँसी पर चढ़ाएगी। यह सब हम हँसते-हँसते
बरदाश्त कर सकते हैं, लेकिन खूनी कानून को हम कभी भी बरदाश्त नहीं कर
सकते।'' मैं देख रहा था कि यह सब बोलते बोलते अहमद मुहम्मद काछलिया अत्यंत
उत्तेजित हो गए थे। उनका चेहरा लाल हो गया था। उनके गले की और सिरकी रगें खून
की तीव्र गति के कारण फूल उठी थीं। उनका शरीर काँप रहा था। अपने दाहिने हाथ की
खुली अँगुलियाँ गले पर फेरते फेरते वे गरज उठे : ''मैं खुदा की कसम खाकर कहता
हूँ कि मैं जान की बाजी लगा दूँगा, लेकिन इस कानून के सामने सिर नहीं
झुकाऊँगा। और मैं चाहता हूँ कि यह सभा भी ऐसा ही निश्चय करे।'' इतना बोलकर वे
बैठ गए। जब उन्होंने अपने गले पर दाहिने हाथ की अँगुलियाँ फिराईं, उस समय मंच
पर बैठे कुछ लोग मुसकरा उठे थे। मुझे याद है कि मुसकराने में मैं भी उनके साथ
जुड़ गया था। जितना बल काछलिया सेठ ने अपने शब्दों में प्रकट किया है उतना बल
वे अपने कार्य में प्रकट कर सकेंगे या नहीं, इस विषय में मेरे मन में थोड़ी
शंका थी। इस शंका के बारे में मैं सोचता हूँ तब और यहाँ उसका उल्लेख करते समय
भी मैं लज्जा का अनुभव करता हूँ। उस महान संग्राम में जिन अनेक
हिंदुस्तानियों ने अपनी प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन किया, उन सब में काछलिया
सेठ सदा आगे रहे। किसी दिन उनका रंग बदला हो, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा।
सभा ने इस भाषण का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। मैं जितना काछलिया
सेठ को जानता था उसकी अपेक्षा दूसरे सदस्य उस समय उन्हें कहीं अधिक जानते
थे; क्योंकि उनमें से अनेक लोगों को तो उस गुदड़ी के लाल का व्यक्तिगत परिचय
था। वे जानते थे कि काछलिया जो करना चाहता है वही कहता है और जो कहता है वही
करता है। सभा में दूसरे भी जोशीले भाषण हुए। मैंने काछलिया सेठ के ही भाषण को
इसलिए चुना है कि उनके आगे के कार्यों के लिए यह भाषण भविष्यवाणी सिद्ध हुआ
था। जोशीले भाषण करनेवाले सभी लोग अपनी प्रतिज्ञा पर टिक नहीं पाए थे। इस
पुरुष-सिंह की मृत्यु सन 1918 में, अर्थात सत्याग्रह की लड़ाई समाप्त होने
के चार वर्ष बाद, कौम की सेवा करते करते ही हुई थी।
काछलिया सेठ का एक संस्मरण अन्य किसी स्थान पर देना संभव नहीं होगा, इसलिए
उसे भी मैं यहीं दे देता हूँ। पाठक टॉल्स्टॉय फार्म की बात आगे पढ़ेंगे। उस
फार्म पर सत्याग्रहियों के अनेक परिवार रहते थे। केवल कौम के लोगों के सामने
एक उदाहरण रखने के लिए और अपने पुत्र को भी सादगी का सबक सिखाने और प्रजा-सेवक
बनाने के लिए काछलिया सेठ ने उसे टॉल्स्टॉय फार्म में शिक्षा लेने के लिए
भेजा था; और ऐसा कहा जा सकता है कि इसकी वजह से ही दूसरे मुसलमान बालकों को भी
उनके माता-पिता ने फार्म में पढ़ने के लिए भेजा था। बालक काछलिया का नाम था
अली। उस समय उसकी उमर 10-12 वर्ष की रही होगी। अली स्वभाव से नम्र, चपल-चंचल,
सत्यवादी और सरल लड़का था। काछलिया सेठ से पहले लेकिन सत्याग्रह की लड़ाई
बंद होने के बाद उस बालक को भी फरिश्ते खुदा के दरबार में ले गए। मेरा यह
विश्वास है कि वह जीवित रहता तो अवश्य ही अपने पिता का सुयोग्य पुत्र सिद्ध
होता।