अथक परिश्रम करने के बाद भी जब एशियाटिक ऑफिस को 500 से अधिक नाम नहीं मिल सके, तो एशियाटिक विभाग के अधिकारी इस निर्णय पर आए कि किसी न किसी हिंदुस्तानी को गिरफ्तार करना चाहिए। पाठक जर्मिस्टन के नाम से परिचित हैं। वहाँ बहुत से हिंदुस्तानी रहते थे। उनमें से एक रामसुंदर पंडित भी था। वह दिखने में बहादुर और वाचाल था। उसे कुछ संस्कृत श्लोक भी कंठस्थ थे। उत्तर भारत का होने से तुलसीदास की रामायण के दोहे-चौपाई तो वह जानता ही था। और पंडित कहलाने के कारण लोगों में उसकी थोड़ी प्रतिष्ठा भी थी। उसने जगह जगह भाषण दिए। अपने भाषणों को वह खूब जोशीले बना सकता था। जर्मिस्टन के कुछ विघ्न-संतोषी हिंदुस्तानियों ने एशियाटिक ऑफिस से कहा कि यदि रामसुंदर पंडित को गिरफ्तार कर लिया जाए, तो जर्मिस्टन के बहुत से हिंदुस्तानी एशियाटिक ऑफिस से परवाने ले लेंगे। उस ऑफिस का अधिकारी रामसुंदर पंडित को पकड़ने के प्रलोभन से अपने को रोक नहीं सका। रामसुंदर पंडित गिरफ्तार कर लिया गया। इस तरह का यह पहला ही मुकदमा होने से सरकार और हिंदुस्तानी कौम में बड़ी खलबली मच गई। जिस रामसुंदर पंडित को कल तक केवल जर्मिस्टन ही जानता था, उसे एक क्षण में सारा दक्षिण अफ्रीका जानने लग गया। जिस प्रकार किसी महापुरुष पर मुकदमा चलता है और वह सब लोगों की दृष्टि अपनी ओर खींच लेता है, उसी तरह सबकी नजर रामसुंदर पंडित की ओर लग गई। सरकार के लिए शांति की रक्षा का किसी भी तरह का बंदोबस्त करना जरूरी नहीं था, फिर भी उसने ऐसा बंदोबस्त किया। अदालत में भी रामसुंदर को साधारण अपराधी न मानकर हिंदुस्तानी कौम का प्रतिनिधि माना गया और उसके साथ आदर का व्यवहार किया गया। अदालत उत्सुक हिंदुस्तानियों से खचाखच भर गई थी। रामसुंदर को एक मास की सादी कैद मिली। उसे जोहानिसबर्ग की जेल में रखा गया था। वहाँ यूरोपियन वार्ड में एक अलग कमरा उसे दिया गया था। लोग बिना किसी कठिनाई के उससे मिल सकते थे। उसे बाहर से भोजन प्राप्त करने की इजाजत दी गई थी और कौम की ओर से हमेशा उसे सुंदर भोजन बनाकर भेजा जाता था। उसकी हर एक इच्छा पूरी की जाती थी। जिस दिन उसे जेल की सजा मिली वह दिन कौम ने बड़ी धूमधाम से मनाया। कौम का एक भी आदमी उसके जेल जाने से निराश नहीं हुआ, बल्कि सारी कौम का उत्साह और जोश बढ़ गया। सैकड़ों हिंदुस्तानी जेल जाने को तैयार हो गए। एशियाटिक ऑफिस की आशा पूरी नहीं हुई। जर्मिस्टन के हिंदुस्तानी भी परवाना लेने नहीं गए। अधिकारियों के उपर्युक्त कदम से कौम को ही लाभ हुआ। एक महीना पूरा हुआ। रामसुंदर पंडित छूट गया उसे बाजे गाजे के साथ जुलूस में उस स्थान पर ले जाया गया जहाँ सभा करने का निश्चय हुआ था। सभा में जोशीले भाषण हुए। रामसुंदर को फूलमालाओं से ढक दिया गया। स्वयंसेवकों ने उसके सम्मान में एक दावत दी। और हजारों हिंदुस्तानी यह सोचकर रामसुंदर पंडित से मीठी ईर्ष्या करने लगे कि हम भी जेल में गए होते तो कितना अच्छा होता।
लेकिन रामसुंदर पंडित खोटा सिक्का निकला। उसका बल झूठी सती के जैसा था। एक महीने की कैद से बचना तो संभव था ही नहीं, क्योंकि उसे एकाएक गिरफ्तार किया गया था। और, जेल में उसने जो साहबी भोगी उसके दर्शन भी बाहर उसे कभी नहीं हुए थे। फिर भी स्वच्छंद घूमनेवाला और साथ ही व्यसनी आदमी जेल के एकांतवास को तथा अनेक प्रकार का भोजन मिलने पर भी जेल के संयम को सहन नहीं कर सकता। यही स्थिति रामसुंदर पंडित की हुई। कौम के लोगों का और जेल के अधिकारियों का इतना सम्मान मिलने पर भी जेल उसे कड़वा लगा और वह ट्रान्सवाल तथा सत्याग्रह की लड़ाई को अंतिम नमस्कार करके रातोंरात भाग खड़ा हुआ। प्रत्येक समाज में चतुर आदमी तो होते ही हैं; और जैसे वे किसी समाज में होते हैं वैसे ही किसी आंदोलन में भी होते हैं। वे रामसुंदर की रग-रग से परिचित थे। परंतु उससे भी हिंदुस्तानियों का हित हो सकता है, ऐसा समझ कर उन्होंने रामसुंदर पंडित का गुप्त इतिहास - उसका भंडा फूटने से पहले - मुझे कभी जानने ही नहीं दिया। बाद में मुझे पता चला कि रामसुंदर तो अपना गिरमिट पूरा किए बिना ही भागा हुआ एक गिरमिटिया मजदूर था। उसके गिरमिटिया होने की बात यहाँ मैं नफरत से नहीं लिख रहा हूँ। उसके गिरमिटिया होने में कोई दोष नहीं था। पाठक अंत में देखेंगे कि सत्याग्रह की लड़ाई को अतिशय सुशोभित करनेवाले तो हिंदुस्तानी गिरमिटिया मजदूर ही थे। यह लड़ाई जीतने में भी उनका बड़े से बड़ा हाथ था। लेकिन गिरमिट पूरा करने से पहले भाग आने में जरूर रामसुंदर पंडित का दोष था।
परंतु रामसुंदर का पूरा इतिहास मैंने उसका दोष दिखाने के लिए यहाँ नहीं दिया है; यह इतिहास मैंने इस घटना के भीतर छिपे गूढ़ अर्थ को प्रकट करने के लिए ही दिया है। प्रत्येक शुद्ध आंदोलन के नेताओं का यह कर्तव्य है कि वे शुद्ध आंदोलन में शुद्ध आदमियों को ही भरती करें। परंतु बड़ी से बड़ी सावधानी रखने पर भी अशुद्ध आदमियों को शुद्ध आंदोलन से बाहर नहीं रखा जा सकता। फिर भी यदि संचालक निडर और सच्चे हों, तो अनजाने अशुद्ध लोगों के प्रवेश कर जाने से किसी शुद्ध आंदोलन को अंत में हानि नहीं होती। रामसुंदर पंडित का सच्चा रूप खुल जाने पर कौम के लोगों में उसकी कोई कीमत नहीं रह गई। वह बेचारा पंडित मिट गया और केवल रामसुंदर रह गया। कौम उसे भूल गई, परंतु उसकी वजह से भी लड़ाई का बल अवश्य बढ़ा। सत्याग्रह के खातिर उसने कैद की जो सजा भोगी वह व्यर्थ नहीं गई। उसके जेल जाने से लड़ाई का जो बल बढ़ा वह टिका रहा। और उसके उदाहरण से लाभ उठा कर दूसरे कमजोर आदमी अपने-आप लड़ाई से दूर हट गए। ऐसी कमजोरी के दूसरे कुछ उदाहरण भी सामने आए। लेकिन उनका इतिहास मैं नाम-पते के साथ यहाँ देना नहीं चाहता। उसे देने से कोई लाभ नहीं होगा। कौम की कमजोरी और कौम की शक्ति पाठकों के ध्यान से बाहर न रहे, इस खयाल से इतना कह देना आवश्यक है कि रामसुंदर कोई अकेला ही रामसुंदर नहीं था; परंतु फिर भी मैंने देखा कि सभी रामसुंदरों ने कौम की लड़ाई की तो सेवा ही की थी।
पाठक रामसुंदर को दोषी न समझें। इस जगत में सभी मानव अपूर्ण हैं। किसी को अपूर्णता जब विशेष रूप से हमारे सामने आती है तब हम उसका दोष दिखाने के लिए उस पर अँगुली उठाते हैं। लेकिन वस्तुतः यह हमारी भूल है। रामसुंदर जान-बूझकर कमजोर नहीं बना था। मनुष्य अपने स्वभाव को बदल सकता है, उस पर नियंत्रण रख सकता है, लेकिन उसे जड़-मूल से मिटा नहीं सकता। जगत्कर्ता प्रभु ने इतनी स्वतंत्रता मनुष्य को दी ही नहीं है। बाघ यदि अपनी चमड़ी की विचित्रता को बदल सके, तो ही मनुष्य अपने स्वभाव की विचित्रता को बदल सकता है। भाग जाने पर भी रामसुंदर को अपनी कमजोरी के लिए कितना पश्चात्ताप हुआ होगा, यह हम कैसे जान सकते हैं? अथवा, क्या उसका भाग जाना ही उसके पश्चात्ताप का एक प्रबल प्रमाण नहीं माना जा सकता? अगर वह बेशरम होता तो उसे भागने की क्या जरूरत हो सकती थी? परवाना लेकर और खूनी कानून को स्वीकार करके वह सदा जेल मुक्त रह सकता था। इतना ही नहीं, वह चाहता तो एशियाटिक ऑफिस का दलाल बन कर दूसरे हिंदुस्तानियों को भुलावे में डाल सकता था और सरकार का प्रिय आदमी भी बन सकता था। यह सब करने के बजाय कौम को अपनी कमजोरी दिखाने में लज्जा अनुभव करने के कारण उसने अपना मुँह छिपा लिया और ऐसा करके भी उसने हिंदुस्तानी कौम का सेवा ही की, इस तरह का उदार अर्थ हम उसके भागने का क्यों न करें?