hindisamay head


अ+ अ-

विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 19. ‘इंडियन ओपीनियन’ पीछे     आगे

मैं पाठकों के सामने सत्‍याग्रह की लड़ाई के बाहरी और भीतरी सभी साधन रखना चाहता हूँ, इसलिए 'इंडियन ओपीनियन' नामक जो साप्‍ताहिक आज भी दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित हो रहा है उसका परिचय कराना भी जरूरी है। दक्षिण अफ्रीका में सर्वप्रथम हिंदुस्‍तानी प्रेस खोलने का श्रेय श्री मदनजीत व्‍यावहारिक नामक एक गुजराती सज्‍जन को है। उस प्रेस को कुछ समय तक मुसीबतों के बीच चलाने के बाद उन्‍होंने एक अखबार निकालने का भी सोचा। इस संबंध में उन्‍होंने स्‍व. मनसुखलाल नाजर की और मेरी सलाह ली। अखबार डरबन से निकाला गया। श्री मनसुखलाल नाजर उसके अवैतनिक संपादक बने। अखबार में पहले से ही घाटा आने लगा। अंत में उसमें काम करनेवाले लोगों को साझेदार या साझेदार जैसे बनाकर और एक खेत खरीद कर उसमें उन सबको बसा कर वहाँ से यह अखबार निकालने का निश्‍चय किया गया। वह खेत डरबन से 13 मील दूर एक सुंदर पहाड़ी पर है। उसके निकट से निकट का रेलवे स्‍टेशन खेत से 3 मील दूर है और उसका नाम फिनिक्‍स है। अखबार का नाम शुरू से ही 'इंडियन ओपीनियन' रखा गया है। एक समय वह अँग्रेजी, गुजराती, तामिल और हिंदी में प्रकाशित होता था। तामिल और हिंदी का बोझ हर तरह से अधिक लगने के कारण, खेत पर रह सकें ऐसे तामिल और हिंदी लेखक न मिलने के कारण और इन दो भाषाओं के लेखों पर अंकुश न रह सकने के कारण ये दो विभाग बंद कर दिए गए और अँग्रेजी तथा गुजराती विभाग जारी रखे गए। सत्‍याग्रह की लड़ाई शुरू हुई तब इन्‍हीं दो भाषाओं में 'इंडियन ओपीनियन' निकलता था। खेत पर बसकर संस्‍था में काम करनेवाले लोगों में गुजराती, हिंदी भाषी (उत्तर भारतीय), तामिल और अँग्रेज सभी थे। श्री मनसुखलाल नाजर की असामयिक मृत्‍यु के बाद एक अँग्रेज मित्र हर्बर्ट किचन 'इंडियन ओपीनियन' के संपादक रहे। उसके बाद संपादक के पद पर श्री हेनरी पोलाक ने लंबे समय तक कार्य किया। मेरे और श्री पोलाक के जेल-निवास के दिनों में भले पादरी स्‍व. जोसफ डोक भी अखबार के संपादक रहे। इस अखबार के द्वारा कौम के लोगों को हर सप्‍ताह के संपूर्ण समाचारों से अच्‍छी तरह परिचित रखा जा सकता था। साप्‍ताहिक के अँग्रेजी विभाग द्वारा ऐसे हिंदुस्‍तानियों को सत्‍याग्रह की थोड़ी-बहुत तालीम मिलती थी, जो गुजराती नहीं जानते थे। और हिंदुस्‍तान, इंग्‍लैंड तथा दक्षिण अफ्रीका के अँग्रेजों के लिए तो 'इंडियन ओपीनियन' एक साप्‍ताहिक समाचार पत्र की गरज पूरी करता था। मेरा यह विश्‍वास है कि जिस लड़ाई का मुख्‍य आधार आंतरिक बल पर है, वह लड़ाई अखबार के बिना लड़ी जा सकती है; परंतु इसके साथ मेरा यह अनुभव भी है कि 'इंडियन ओपीनियन' के होने से हमें अनेक सुविधाएँ प्राप्‍त हुईं, कौम को आसानी से सत्‍याग्रह की शिक्षा दी जा सकी, और दुनिया में जहाँ कहीं भी हिंदुस्‍तानी रहते थे वहाँ सत्‍याग्रह-संबंधी घटनाओं के समाचार फैलाए जा सके। यह सब अन्‍य किसी साधन से शायद संभव न होता। इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सत्‍याग्रह की लड़ाई लड़ने के साधनों में 'इंडियन ओपीनियन' भी एक अत्यंत उपयोगी और प्रबल साधन था।

जिस प्रकार लड़ाई के दिनों में और लड़ाई के अनुभवों के फलस्‍वरूप कौम में अनेक परिवर्तन हुए, उसी प्रकार 'इंडियन ओपीनियन' में भी हुए। पहले उस साप्‍ताहिक में विज्ञापन लिए जाते थे। प्रेस में बाहर का फुटकर काम भी छापने के लिए स्‍वीकार किया जाता था। मैंने देखा कि इन दोनों कामों में हमारे अच्‍छे से अच्‍छे आदमियों को लगाना पड़ता था। विज्ञापन लेने ही हों तो कौन से विज्ञापन लिए जाएँ और कौन से न लिए जाएँ - इसका निर्णय करने में हमेशा ही धर्म-संकट खड़े होते थे। इसके सिवा, किसी आपत्तिजनक विज्ञापन को न लेने का मन हो, परंतु विज्ञापन देनेवाला कौम का कोई अग्रगण्‍य व्‍यक्ति हो, तो उसके बुरा मान जाने के भय से भी हमें न लेने योग्‍य विज्ञापन लेने के प्रलोभन में फँसना पड़ता था। विज्ञापन प्राप्‍त करने में और छपे हुए विज्ञापनों के पैसे वसूल करने में हमारे अच्‍छे से अच्‍छे आदमियों का समय खर्च होता था और विज्ञापन-दाताओं की खुशामद करनी पड़ती सो अलग। इसके साथ यह विचार भी आया कि यदि अखबार पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि केवल कौम की सेवा के लिए ही चलाना हो, तो वह सेवा जबरदस्‍ती नहीं की जानी चाहिए; कौम चाहे तो ही उसकी सेवा हमें करनी चाहिए। और कौम की इच्‍छा का स्‍पष्‍ट प्रमाण यही माना जाएगा कि कौम के लोग काफी बड़ी संख्‍या में साप्‍ताहिक के ग्राहक बनकर उसका खर्च उठा लें। इसके सिवा, हमने यह भी सोचा कि अखबार चलाने के लिए उसका मासिक खर्च निकालने की दृष्टि से कुछ व्‍यापारियों को सेवा भाव के नाम पर अपने विज्ञापन देने की बात समझाने की अपेक्षा यदि कौम के आम लोगों को 'इंडियन ओपीनियन' खरीदने का कर्तव्‍य समझाया जाए, तो वह ललचाने वाले लोगों और ललचाए जानेवाले लोगों दोनों के लिए कितनी सुंदर शिक्षा हो सकती है? इन सारी बातों पर हमने सोच-विचार किया और उस पर तुरंत अमल भी किया। इसका नतीजा यह हुआ कि जो कार्यकर्ता विज्ञापन-विभाग की झंझटों में फँसे रहते थे, वे अब अखबार को सुंदर बनाने के प्रयत्‍नों में लग गए। कौम के लोग तुरंत समझ गए कि 'इंडियन ओपीनियन' की मालिकी और उसे चलाने की जिम्‍मेदारी दोनों उनके हाथ में है। इसके फलस्‍वरूप हम सब कार्यकर्ता निश्चिंत हो गए। कौम अखबार की माँग करे तब तक उसे निकालने के लिए पूरी मेहनत करने की चिंता ही हमारे सिर पर रह गई; और किसी भी हिंदुस्‍तानी का हाथ पकड़ कर उससे 'इंडियन ओपीनियन' का ग्राहक बनने की बात कहने में न केवल हमें लज्‍जा नहीं आती थी, बल्कि ऐसा कहना हम अपना धर्म समझते थे। 'इंडियन ओपीनियन' की आंतरिक शक्ति में और उसके स्‍वरूप में भी परिवर्तन हुआ और वह एक महाशक्ति बन गया। उसकी ग्राहक-संख्‍या, जो सामान्‍यतः 1200 से 1500 तक रहती थी, दिनोंदिन बढ़ने लगी। उसका वार्षिक चंदा हमें बढ़ाना पड़ा था, फिर भी जब सत्‍याग्रह की लड़ाई ने उग्र रूप धारण किया उस समय उसके ग्राहकों की संख्‍या 3500 तक पहुँच गई थी। 'इंडियन ओपीनियन' के पाठकों की संख्‍या अधिक से अधिक 20000 मानी जा सकती है। इतने पाठकों के बीच उसकी 3000 से ऊपर प्रतियाँ बिकना आश्‍चर्यजनक फैलाव कहा जाएगा। कौम ने 'इंडियन ओपीनियन' को इस हद तक अपना बना लिया था कि यदि निश्चित समय पर उसकी प्रतियाँ जोहानिसबर्ग न पहुँचती, तो मुझ पर शिकायतों की झड़ी लग जाती थी। प्रायः रविवार को सुबह साप्‍ताहिक जोहानिसबर्ग पहुँचा जाता था। मैं जानता हूँ कि बहुत से हिंदुस्‍तानी अखबार पहुँचने पर सबसे पहला काम उसके गुजराती विभाग को आदि से अंत तक पढ़ जाने का करते थे। एक आदमी पढ़ता था और दस-पंद्रह आदमी उसके आसपास बैठकर सुनते थे। हम गरीब ठहरे, इसलिए कुछ लोग साझे में भी 'इंडियन ओपीनियन' खरीदते थे।

प्रेस में बाहर का फुटकर काम लेना उसी तरह बंद कर दिया गया था, जिस तरह विज्ञापन लेना बंद कर दिया गया था। उसे बंद करने के कारण प्रायः वैसे ही थे जैसे विज्ञापन न लेने के थे। यह काम बंद करने से कंपोजिटरों का जो समय बचा उसका उपयोग प्रेस द्वारा पुस्‍तकें प्रकाशित करने में हुआ। और कौम जानती थी कि पुस्‍तकें प्रकाशित करने का हमारा उद्देश्‍य धन कमाना नहीं था। चूँकि ये पुस्‍तकें केवल लड़ाई को सहायता पहुँचाने के लिए ही छापी जाती थीं, इसलिए उनकी बिक्री भी अच्‍छी होने लगी। इस प्रकार 'इंडियन ओपीनियन' और प्रेस दोनों ने सत्‍याग्रही लड़ाई में भाग लिया। और यह स्‍पष्‍ट रूप से देखा गया था कि जैसे-जैसे सत्‍याग्रह की जड़ कौम में जमती गई वैसे सत्‍याग्रह की दृष्टि से साप्‍ताहिक की और उसके प्रेस की नैतिक प्रगति भी होती गई।


>>पीछे>> >>आगे>>