अफ्रीका के भूगोल पर दृष्टिपात करते हुए पहले प्रकरण में हमने जिन भौगोलिक विभागों की संक्षिप्त चर्चा की, वे प्राचीन काल से चले आ रहे हैं ऐसा पाठक न मान लें। अत्यंत प्राचीन काल में दक्षिण अफ्रीका के निवासी कौन लोग रहे होंगे, यह निश्चित रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। यूरोपियन लोग दक्षिण अफ्रीका में आकर बसे उस समय वहाँ हबशी रहते थे। ऐसा माना जाता है कि अमेरिका में जिस समय गुलामी के अत्याचार का बोलबाला था, उस समय अमेरिका से भागकर कुछ हबशी दक्षिण अफ्रीका में आकर बस गए थे। वे लोग अलग-अलग जाति के नाम से पहचाने जाते हैं - जैसे जुलू, स्वाजी, बसूटो, बेकवाना आदि। उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग हैं। ये हबशी ही दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासी माने जाते हैं। परंतु दक्षिण अफ्रीका इतना बड़ा देश है कि आज हबशियों की जितनी आबादी वहाँ है उससे बीस या तीस गुनी आबादी उसमें आसानी से समा सकती है। रेल द्वारा डरबन से केप टाउन जाने के लिए 1800 मील की यात्रा करनी होती है। समुद्री मार्ग से भी दोनों के बीच की यात्रा 1000 मील से कम नहीं है। पहले प्रकरण में बताए गए चार उपनिवेशों का कुल क्षेत्रफल 473000 वर्गमील है।
इस विशाल भूभाग में हबशियों की आबादी 1914 में लगभग 50 लाख और गोरों की आबादी लगभग 13 लाख थी। जुलू जाति के लोग हबशियों में ज्यादा से ज्यादा कद्दावर और सुंदर कहे जा सकते हैं। 'सुंदर' विशेषण का उपयोग मैंने हबशियों के बारे में जान-बूझकर किया है। गोरी चमड़ी और नुकीली नाक को हम सुंदरता का लक्षण मानते हैं। यदि इस अंधविश्वास को हम घड़ी भर एक ओर रख दें, तो हमें ऐसा नहीं लगेगा कि जुलू को गढ़ने में ब्रह्मा ने कोई कसर रहने दी है। स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ऊँचे और ऊँचाई के अनुपात में विशाल छाती वाले होते हैं। उनके संपूर्ण शरीर के स्नायु सुव्यवस्थित और बहुत बलवान होते हैं। उनकी पिंडलियाँ और भुजाएँ मांसल और सदा गोलाकार ही दिखाई देती हैं। कोई स्त्री या पुरुष झुककर या कूबड़ निकाल कर शायद ही चलता देखा जाता है। उनके होंठ जरूर बड़े और मोटे होते हैं; परंतु वे सारे शरीर के आकर के अनुपात में होते हैं इसलिए मैं तो नहीं कहूँगा कि वे जरा भी बेडौल लगते हैं। आँखें उनकी गोल और तेजस्वी होती है। नाक चपटी और बड़े मुँह पर शोभा दे इतनी बड़ी होती है और उनके सिर के घुँघराले बाल उनकी सीसम जैसी काली और चमकीली चमड़ी पर बड़े सुशोभित हो उठते हैं। अगर हम किसी जुलू से पूछें कि दक्षिण अफ्रीका में बसने वाली जातियों में सबसे सुंदर वह किसे मानता है, तो वह अपने जाति के लिए ही ऐसा दावा करेगा और उसके इस दावे को मैं जरा भी अनुचित नहीं मानूँगा। आज यूरोप में सैंडो और दूसरे पहलवान अपने शागिर्दों की भुजाओं, हाथ आदि अवयवों के विकास के लिए जो प्रयत्न करते हैं, वैसे कोई प्रयत्न किए बिना कुदरती रूप में ही इस जाति के अवयव मजबूत और सुडौल दिखाई देते हैं। भूमध्य-रेखा के नजदीक रहने वाली जातियों की चमड़ी काली ही हो, यह खुदरत का नियम है। और खुदरत जो आकर गढ़ती है उसमें सौंदर्य ही होता है ऐसा हम यदि मानें, तो सौंदर्य के विषय में हमारे संकुचित और एकदेशीय विचारों से हम मुक्त हो जाएँगे। इतना ही नहीं, परंतु हिंदुस्तान में हमें अपनी ही चमड़ी थोड़ी काली होने पर जो अनुचित लज्जा और घृणा मालूम होती है, उससे भी हम मुक्त हो जाएँगे।
ये हबशी घास-मिट्टी के बने गोल कूबों (झोपड़ियों) में रहते हैं। हर कूबे की एक ही गोल दीवाल होती है और उसके ऊपर घास का छप्पर होता है। इस छप्पर का आधार कूबे के भीतर खड़े एक खंभे पर होता है। कूबे का एक नीचा दरवाजा होता है, जिसमें झुककर ही जाया जा सकता है। यही दरवाजा कूबे में हवा के आने-जाने का साधन होता है। उसमें किवाड़ शायद ही कहीं होते हैं। हमारी तरह ही वे लोग दीवाल को और कूबे की फर्श को मिट्टी और लीद या गोबर से लीपते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे लोग कोई भी चौकोन चीज नहीं बना सकते। उन्होंने अपनी आँखों को केवल गोल चीजें देखने और बनाने की ही तालीम दी है। कुदरत रेखागणित की सीधी लकीरें और सीधी आकृतियाँ बनाती नहीं देखी जाती है। और कुदरत के इन निर्दोष बालकों का ज्ञान कुदरत के उनके अनुभव पर आधार रखता है।
मिट्टी के इस महल में साज-सामान भी उसके अनुरूप ही होता है। यूरोपियन सभ्यता ने दक्षिण अफ्रीका में प्रवेश किया उससे पहले तो वहाँ के हबशी लोग पहनने-ओढ़ने और सोने-बैठने के लिए चमड़े का ही उपयोग करते थे। कुर्सी, टेबल, संदूक वगैरा चीजें रखने जितनी जगह भी उस महल में नहीं होती थी; और आज भी ये चीजें उसमें नहीं होतीं, ऐसा बहुत हद तक कहा जा सकता है। अब उन्होंने घर में कंबलों का उपयोग शुरू किया है। ब्रिटिश सत्ता की स्थापना से पहले हबशी स्त्री-पुरुष दोनों लगभग नग्न अवस्था में ही घूमते-फिरते थे। आज भी गाँवों में बहुत लोग इसी अवस्था में रहते हैं। वे अपने गुप्त भागों को एक चमड़े से ढक लेते हैं। कुछ लोग तो इतना भी नहीं करते। परंतु इसका अर्थ कोई पाठक यह न करे कि इस कारण से वे लोग अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रख सकते। जहाँ बहुत बड़ा समुदाय किसी रिवाज के वश में होकर चलता हो वहाँ दूसरे समुदाय को वह रिवाज अनुचित लगे, तो भी यह बिलकुल संभव है कि पहले समुदाय की दृष्टि में अपने रिवाज में कोई दोष न हो। इन हबशियों को एक-दूसरे की ओर देखने की फुरसत ही नहीं होती। शुकदेव जी जब नग्न अवस्था में स्नान कर रही स्त्रियों के बीच होकर निकल गए तब न तो स्वयं उनके मन में कोई विकार उत्पन्न हुआ और न उन निर्दोष स्त्रियों को किसी प्रकार का क्षोभ हुआ अथवा लज्जित होने जैसा कुछ लगा, ऐसा भागवतकार कहते हैं। और इस वर्णन में मुझे कुछ भी अलौकिक नहीं लगता। हिंदुस्तान में आज ऐसे अवसर पर हम में से कोई मनुष्य इतनी स्वच्छता और निर्विकारता का अनुभव नहीं कर सकता, यह कोई मनुष्य जाति के पवित्रता के प्रयत्न की मर्यादा को नहीं बताता, परंतु हमारे अपने दुर्भाग्य और पतन को ही बताता है। हम लोग इन हबशियों को जो जंगली मानते हैं वह हमारे अभिमान के कारण। वास्तव में हम मानते हैं वैसे जंगली वे नहीं हैं।
ये हबशी जब शहर में आते हैं तब उनकी स्त्रियों के लिए यह नियम बना हुआ है कि छाती से घुटनों तक का भाग उन्हें ढकना ही चाहिए। इस नियम के कारण इन स्त्रियों को इच्छा न होने पर भी ऐसा वस्त्र अपनी शरीर पर लपेटना पड़ता है। इसके फलस्वरूप दक्षिण अफ्रीका में इस नाप के कपड़े की खूब खपत होती है और वैसी लाखों चादरें या कमलियाँ यूरोप से हर साल वहाँ आती हैं। पुरुषों के लिए कमर से घुटनों तक का भाग ढकना अनिवार्य है, इसलिए उन्होंने तो यूरोप के उतरे हुए कपड़े पहनने का रिवाज अपना लिया है। जो लोग ऐसा नहीं करते वे नाड़ेवाला जाँघिया पहनते हैं। ये सब कपड़े यूरोप से ही वहाँ आते हैं।
इन हबशियों का मुख्य आहार मकई है। मिलने पर वे मांस भी खाते हैं। सौभाग्य से वे लोग मिर्च-मसालों से बिलकुल अनजान हैं। उनके भोजन में मसाला डाला गया हो अथवा हल्दी का रंग भी आ गया हो, तो वे नाक सिकोड़ेंगे; और जो लोग पुरे जंगली कहे जाते हैं, वे तो ऐसे खाने को छुएँगे भी नहीं। साबुत उबली हुई मकई के साथ थोड़ा नमक मिला कर एक बार में एक पौंड मकई खा जाना किसी साधारण जुलू के लिए जरा भी आश्चर्य की बात नहीं है। वे लोग मकई का आटा पीसते हैं, उसे पानी में उबालते हैं और उसका लपसी बनाकर खाने में संतोष मानते हैं। जब कभी मांस मिल जाता है तब उसे कच्चा या पक्का - उबाला हुआ या आग पर भुना हुआ - केवल नमक के साथ वे लोग खा जाते हैं। चाहे जिस प्राणी का मांस हो; खाने में उन्हें हिचक नहीं होती।
उनकी भाषाओं के नाम जातियों के नाम पर ही होते हैं। लेखन कला उनमें गोरों ने ही आरंभ की है। हबशी वर्णमाला या ककहरे जैसी कोई चीज नहीं है। अब हबशी भाषाओं में बाइबल अदि पुस्तकें रोमन लिपि में छापी गई हैं। जुलू भाषा अत्यंत मधुर और मीठी है। उसके अधिकतर शब्द के अंत में 'आ' का उच्चारण होता है। इसकी वजह से भाषा का नाद कानों को मुलायम और मधुर लगता है। उसके शब्दों में अर्थ और काव्य दोनों होते हैं, ऐसा मैंने पढ़ा और सुना है। जिन थोड़े से शब्दों का मुझे अनायास ज्ञान प्राप्त हुआ है, उनके आधार पर भाषा विषयक उपर्युक्त मत मुझे उचित मालूम हुआ है। शहरों और उपनिवेशों के जो यूरोपियन नाम मैंने दिए हैं, उन सबके मधुर और काव्यमय हबशी नाम तो हैं ही। ये नाम याद न होने से मैं यहाँ नहीं दे सका हूँ।
ईसाई पादरियों के मतानुसार हबशियों का कोई धर्म ही नहीं था, और आज भी नहीं है। परंतु यदि हम धर्म का विस्तृत और विशाल अर्थ करें तो यह कहा जा सकता है कि हबशी ऐसी अलौकिक शक्तियों को अवश्य मानते और पूजते हैं, जिसे वे समझ नहीं सकते हैं। इस शक्ति से वे लोग डरते भी हैं। उन्हें इस सत्य का अस्पष्ट भान भी है कि शरीर के नाश के साथ मनुष्य का सर्वथा नाश नहीं हो जाता। यदि हम नीति को धर्म का आधार मानें, तो नीति में विश्वास रखने वाले होने के कारण हबशियों को धार्मिक भी माना जा सकता है। सच और झूठ का उन्हें पूरा भान है। अपनी स्वाभाविक अवस्था में वे लोग सत्य का जितना पालन करते हैं उतना गोरे या हम लोग करते हैं या नहीं यह शंकास्पद है। उनके मंदिर या मंदिर जैसे कोई स्थान नहीं होते। अन्य प्रजाओं और जातियों की तरह उन लोगों में भी अनेक प्रकार के अंधविश्वास देखने में आते हैं।
पाठकों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि शरीर की ताकत में संसार की किसी भी जाति से घटिया न ठहरने वाली यह जाति सचमुच इतनी डरपोक है कि किसी भी गोरे बालक को देखकर डर जाती है। अगर कोई आदमी हबशी के सामने पिस्तौल का निशाना बाँधे, तो या तो वह भाग जाएगा या इतना मूढ़ हो जाएगा कि उसमें भागने की भी ताकत नहीं रह जाएगी। इसका कारण तो है ही। मुट्ठी भर गोरे आकर इतनी बड़ी और जंगली जाति को बस में कर सकते हैं, इसमें कोई जादू अवश्य होना चाहिए, ऐसा उनके मन में बैठ गया है। वे लोग भाले और तीर कमान का उपयोग तो अच्छी तरह से जानते थे परंतु वे हथियार उनसे छीन लिए गए हैं। और अच्छी बंदूक न तो किसी दिन उन्होंने देखी और न कभी चलाई। यह बात उनके समझ में ही नहीं आती कि जिस बंदूक को न तो दियासलाई दिखानी होती है, न हाथ के अँगुली चलने के सिवा दूसरी कोई गति करनी पड़ती। उसकी छोटी सी नली से एकाएक आवाज कैसे निकलती है, आग कैसे भड़क उठती है और गोली के लगते ही पल भर में आदमी के प्राण कैसे उड़ जाते हैं! इसलिए हबशी बंदूक चलाने वाले आदमी के डर से हमेशा घबराया हुआ रहता है। उसने और उसके बाप-दादों ने इस बात का अनुभव किया है कि बंदूक की इन गोलियों ने अनेकों निराधार और निर्दोष हबशियों के प्राण लिए हैं। परंतु उनमें से अधिकतर लोग आज भी इसका कारण नहीं जानते।
इस जाति में धीरे-धीरे 'सभ्यता' का प्रवेश हो रहा है। एक ओर भले ही पादरी अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार ईसा मसीह का संदेश उन लोगों के पास पहुँचाते हैं। वे हबशियों के लिए स्कूल खोलते हैं और उन्हें सामान्य अक्षर-ज्ञान देते हैं। उनके प्रयत्न से कुछ चरित्रवान हबशी भी तैयार हुए हैं। लेकिन बहुत से हबशी, जो आज तक अक्षर-ज्ञान की कमी के कारण और सभ्यता के परिचय के अभाव में अनेक प्रकार की अनीतियों से मुक्त थे, आज ढोंगी और पाखंडी भी बन गए हैं। सभ्यता के संपर्क में आए हुए हबशियों में से शायद ही कोई शराब की बुराई से बचा हो। और जब उनके शक्तिशाली शरीर में शराब का प्रवेश होता है तब वे पूरे पागल बन जाते हैं और न करने जैसा सब कुछ कर डालते हैं। सभ्यता के बढ़ने के साथ आवश्यकताओं का बढ़ना उतना ही निश्चित है जितना दो और दो मिलकर चार होना। हबशियों की आवश्यकताएँ बढ़ाने के लिए कहिए अथवा उन्हें श्रम का मूल्य सिखाने के लिए कहिए, प्रत्येक हबशी पर मुंड-कर (पॉल-टैक्स) और झोंपड़ी कर (कूबा-कर) लगाया गया है। यह कर यदि उन पर न लगाया जाए तो अपने खेतों में रहने वाली यह जाति जमीन के भीतर सैकड़ों गज गहरी खदानों में सोना या हीरा निकालने के लिए न उतरे। और यदि खदानों के लिए हबशियों की मेहनत का लाभ न मिले, तो सोना या हीरे पृथ्वी के गर्भ में ही पड़े रहें। इसी तरह यदि उन पर ऐसा कर न लगाया जाए, तो यूरोपियनों को दक्षिण अफ्रीका में नौकर मिलने कठिन हो जाएँ। इसका नतीजा यह हुआ है कि खदानों में काम करने वाले हजारों हबशियों को अन्य रोगों के साथ एक प्रकार का क्षय रोग भी हो जाता है, जिसे 'माइनर्स थाइसिस' कहा जाता है। यह रोग-प्राण घातक होता है। उसके पंजे में फँसने के बाद कुछ ही लोग उबर पाते हैं। ऐसे हजारों आदमी अपने बाल-बच्चों से दूर खदानों में एक साथ रहें, तो उस स्थिति में वे संयम का कितना पालन कर सकते हैं, यह पाठक आसानी से सोच सकते हैं। इसके फलस्वरूप जो रोग (उपदंश आदि) फैलते हैं, इसके शिकार भी ये लोग हो जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका के विचारशील गोरे भी इस गंभीर प्रश्न पर विचार करने लगे हैं। उनमें से कुछ लोग अवश्य यह मानते हैं कि सभ्यता का प्रभाव इस जाति पर सब मिलाकर अच्छा पड़ा है, ऐसा दावा शायद ही किया जा सके। परंतु सभ्यता का बुरा प्रभाव तो इस जाति पर हर आदमी देख सकता है।
जिस महान देश में ऐसी निर्दोष जाति रहती थी वहाँ आज से लगभग 400 वर्ष पहले डच लोगों ने अपनी छावनी डाली। वे लोग गुलाम तो रखते ही थे। कुछ डच अपने जावा उपनिवेश से मलायी गुलामों को लेकर दक्षिण अफ्रीका के उस भाग में पहुँचे, जिसे हम केप कालोनी के नाम से जानते हैं। ये मलायी लोग मुसलमान हैं। उनमें डच लोगों का रक्त है और इसी प्रकार डच लोगों के कुछ गुण भी हैं। वे अलग-अलग तो सारे दक्षिण अफ्रीका में फैले हुए दिखाई देते हैं, परंतु उनका मुख्य केंद्र केप टाउन ही माना जाएगा। आज उनमें से कुछ लोग मलायी लोगों की नौकरी करते हैं। और दूसरे स्वतंत्र धंधा करते हैं। मलायी स्त्रियाँ बड़ी उद्यमी और होशियार होती है। उनका रहन-सहन अधिकतर साफ-सुथरा देखा जाता है। स्त्रियाँ धोबी का और सिलाई का काम बहुत अच्छा कर सकती हैं। पुरुष कोई छोटा-मोटा व्यापार करते हैं। बहुतेरे इक्का या तांगा चलाकर गु्जारा करते हैं। कुछ लोगों ने उच्च अँग्रेजी शिक्षण भी लिया है। उनमें से एक डॉ. अब्दुल रहमान केप टाउन में मशहूर हैं। वे केप टाउन की पुराणी धारासभा में भी पहुँच सके थे। नए संविधान के अनुसार मुख्य धारासभा में जाने का यह अधिकार छीन लिया गया है।
डच लोगों का थोड़ा वर्णन करते-करते बीच में मलायी लोगों का वर्णन भी प्रसंगवश आ गया। लेकिन अब हम यह देखें कि डच लोग कैसे आगे बढ़े। डच जितने बहादुर लड़वैये थे और हैं, उतने ही कुशल किसान भी थे और आज भी हैं। उन्होंने देखा कि उनके आस-पास का देश खेती के लिए बहुत अच्छा है। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ के मूल निवासी साल में थोड़े ही समय काम करके आसानी से अपना निर्वाह कर सकते हैं। उन्होंने सोचा : इन लोगों से मेहनत क्यों न कराई जाए? डच लोगों के पास उनकी अपनी कला थी, बंदूक थी और वे यह भी जानते थे कि दूसरे प्राणियों की तरह मनुष्यों को वश में कैसे किया जा सकता है? उनकी मान्यता यह थी कि ऐसा करने में उनका धर्म बिलकुल बाधक नहीं होता। इसलिए अपने कार्य के औचित्य के बारे में जरा भी शंकाशील हुए बिना उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के हबशियों की मेहनत से खेती वगैरा काम शुरू का दिए।
जिस प्रकार डच लोग दुनिया में अपना विस्तार करने के लिए अच्छे-अच्छे प्रदेश खीज रहे थे, उसी प्रकार अँग्रेज भी खोज रहे थे। धीरे-धीरे अँग्रेज भी दक्षिण अफ्रीका में आए। अँग्रेज और डच चचेरे भाई तो थे ही। दोनों के स्वभाव एक से और दोनों के लोभ भी एक से। जब एक ही कुम्हार के बनाए हुए बर्तन एक जगह इकट्ठे होते हैं तब उनमें से कुछ टकरा कर फूटते ही हैं। इसी प्रकार ये दोनों जातियाँ अपने पाँव फैलाते-फैलाते और धीरे-धीरे हबशियों को वश में करते-करते आपस में टकरा गईं। दोनों के बीच झगड़े हुए, युद्ध भी हुए। मजूबा की पहाड़ी पर अँग्रेजों की हार भी हुई। यह मजूबा का घाव अँग्रेजों के मन में बना रहा, जिसने एक कर एक फोड़े का रूप ले लिया; और फोड़ा उस जग-प्रसिद्ध बोअर-युद्ध में फूटा, जो सन् 1899 से 1902 तक चला। जब जनरल कोंजे को लार्ड राबर्टस ने हरा दिया तब उन्होंने महारानी विक्टोरिया को तार किया : 'मजूबा का बदला हमने' ले लिया।' परंतु जब (बोअर-युद्ध पूर्व) इन दोनों के बीच पहली मुठभेड़ हुई तब डचों में से बहुतेरे अँग्रेजों की नाम मात्र की सत्ता भी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे; इसलिए वे दक्षिण अफ्रीका के भीतरी प्रदेशों में चले गए। इसके फलस्वरूप ट्रांसवाल और आरेंज फ्री स्टेट का जन्म हुआ।
ये ही डच लोग दक्षिण अफ्रीका में 'बोअर' के नाम से पुकारे जाने लगे। बालक जिस तरह अपनी माँ से चिपटा रहता है वैसे ही अपनी भाषा से चिपटे रह कर बोअरों ने उसे सुरक्षित रखा है। हमारी स्वतंत्रता का हमारी भाषा के साथ अत्यंत निकट का संबंध है, यह बात उनकी रग-रग में समा गई है। इस भाषा ने ऐसा नया रूप धारण कर लिया है, जो वहाँ के लोगों के लिए सुविधाजनक हो। बोअर लोग हालैंड के साथ अपना निकट संबंध नहीं रख पाए, इसलिए वे संस्कृत से निकलने वाली अपभ्रंश डच भाषा बोलने लगे। परंतु अब वे अपने बालकों पर अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहते, इसलिए इस प्राकृत बोली को ही उन्होंने स्थायी रूप दे दिया है; और वह टाल के नाम से जानी जाती है। उसी भाषा में वहाँ की पुस्तकें लिखी जाती हैं। बालकों को शिक्षा उसी भाषा में दी जाती हैं और धारासभा में बोअर सदस्य अपने भाषण भी 'टाल' भाषा में ही देते हैं। यूनियन की रचना के बाद समूचे दक्षिण अफ्रीका में दोनों भाषाएँ - टाल या डच और अँग्रेजी - एक सा पद भोगती हैं। वह भी इस हद तक कि वहाँ के सरकारी गजट और धारासभा की सारी कार्यवाई अनिवार्य रूप से दोनों भाषाओं में छपती हैं।
बोअर लोग सीधे-सादे, भोले और धर्म-परायण हैं। वे अपने विशाल खेतों में रहते हैं। हम वहाँ के खेतों के क्षेत्रफल की कल्पना नहीं कर सकते। हमारे किसानों के खेत दो या तीन बीघा जमीन वाले होते हैं। इससे छोटे खेत भी हमारे यहाँ होते हैं। लेकिन वहाँ के खेतों का अर्थ है एक-एक किसान के अधिकार में सैकड़ों या हजारों बीघा जमीन। इतनी बड़ी-बड़ी जमीनों को तुरंत जोतने का लोभ भी ये किसान नहीं रखते। और यदि कोई उनसे तर्क करता है तो वे कहते हैं : "भले बिन-जोती पड़ी रहे। जिस जमीन में हम खेती नहीं करते उसमें हमारे बच्चे करेंगे।"
प्रत्येक बोअर लड़ने में पूरा कुशल होता है। वे लोग आपस में कितने ही क्यों न लड़ें-झगड़ें, परंतु अपनी स्वतंत्रता उन्हें इतनी प्रिय है कि जब कभी उस पर आक्रमण होता है तब सारे ही बोअर तैयार हो जाते हैं और एक योद्धा के सामान बहादुरी से लड़ते हैं। उन्हें लंबी-चौड़ी कवायद और तालीम की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि लड़ना तो सारी बोअर जाति का स्वभाव या गुण ही है। जनरल स्मट्स, जनरल डी वेट और जरनल हर्जोग तीनों बड़े वकील और बाद किसान हैं; और तीनों उतने ही बड़े योद्धा भी हैं। जनरल बोथा के पास 9000 एकड़ का खेत था। खेती की सारी पेंचीदगियों को वे जानते थे। जब वे संधिवार्ताओं के लिए यूरोप गए थे तब उनके विषय में ऐसा कहा गया था कि भेड़ों की परीक्षा करने में उनके जैसा कुशल यूरोप में भी शायद ही कोई होगा। ये ही जनरल बोथा स्व. प्रेसिडेंट क्रूगर के स्थान पर आए थे। उनका अँग्रेजी का ज्ञान बहुत सुंदर था। फिर भी जब इंग्लैंड में वे ब्रिटिश सम्राट और मंत्रि-मंडल से मिले तो उन्होंने हमेशा अपनी मातृ-भाषा में ही उनसे बातचीत करना पसंद किया। कौन कह सकता हैं कि उनका ऐसा करना उचित नहीं था? अँग्रेजी भाषा का अपना ज्ञान बताने के लिए वे कोई गलती करने का खतरा भला क्यों उठाते? अँग्रेजी में उपयुक्त शब्द खोजने के लिए वे अपनी विचारधाराओं को भंग करने का सहस क्यों करते? ब्रिटिश मंत्रि-मंडल केवल अनजान में ही अँग्रेजी भाषा के किसी अपरचित किसी मुहावरे का प्रयोग करे और उसका अर्थ न समझने के कारण वे स्वयं कुछ का कुछ उत्तर दे बैठें, शायद घबरा जाएँ, और इस कारण उनके कार्य को हानि पहुँचे - ऐसी गंभीर गलती वे क्यों करने लगें?
जिस प्रकार बोअर पुरुष बहादुर और सरल हैं, उसी प्रकार बोअर स्त्रियाँ भी बहादुर और सरल हैं। बोअर युद्ध के समय लोगों ने अपना खून बहाया था; यह कुरबानी वे अपनी स्त्रियों की हिम्मत और प्रोत्साहन से ही कर सके थे। बोअर स्त्रियों को न तो अपने वैधव्य का भय था और न भविष्य का भय था।
मैंने ऊपर कहा है कि बोअर लोग धर्म-परायण हैं, ईसाई हैं। परंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे ईसा मसीह के नए करार (न्यू टेस्टामेंट) में विश्वास करते हैं। सच पूछा जाए तो यूरोप ही कहाँ नए करार में विश्वास करता है? परंतु यूरोप में नए करार का आदर करने का दावा जरूर किया जाता है, यद्यपि बहुत थोड़े यूरोपवासी ईसा मसीह के शांति धर्म को जानते हैं और उसका पालन करते हैं। परंतु ऐसा कहा जा सकता है कि बोअर लोग नए करार को केवल नाम से ही जानते हैं। पुराने करार (ओल्ड टेस्टामेंट) को वे श्रद्धा और भक्ति से पढ़ते हैं और उसमें छपे युद्धों के वर्णन को कंठाग्र करते हैं। मूसा पैगंबर की आँख के बदले आँख और दाँत के दाँत की शिक्षा में वे पूरी तरह विश्वास करते हैं। और जैसा उनका विश्वास है वैसा ही उनका व्यवहार है।
बोअर स्त्रियाँ समझती थीं कि उनके धर्म का ऐसा आदेश है कि अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बड़े से बड़ा दुख भी सहन करना पड़े तो उन्हें करना चाहिए। इसलिए उन्होंने धीरज और आनंद के साथ सारी आपातियाँ झेली। बोअर स्त्रियों को झुकाने और उनके जोश को तोड़ने के उपाय करने में लार्ड किचरन ने कोई कमी नहीं रखी। उन्हें अलग-अलग कैंपों में बंद रखा गया। वहाँ उन्हें असहाय कष्टों में से गुजरना पड़ा। खाने-पीने की तंगी भोगनी पड़ी। कड़ाके की सर्दी और भयंकर गर्मी की यातनाएँ सहनी पड़ीं। कभी कोई शराब पीकर पागल बना हुआ या विषय-वासना के आवेश में होश भूला हुआ सैनिक इन अनाथ स्त्रियों पर हमला भी कर देता था। इन कैंपों में अनेक तरह के दूसरे उपद्रव भी खड़े हो जाते थे। फिर भी बहादुर बोअर स्त्रियाँ झुकी नहीं। अंत में राजा एडवर्ड ने स्वयं ही लार्ड किचनर को लिखा कि, "यह सब मुझसे सहा नहीं जाता। यदि बोअरों को झुकाने को हमारे पास यही एक उपाय हो, तो इसके बजाय मैं उनके साथ कैसी भी संधि करना पसंद करूँगा। इस युद्ध को आप जल्दी ही खतम कर दें।"
जब इन सारे दुखों और यातनाओं की पुकार इंग्लैंड पहुँची तब ब्रिटिश जनता का मन भी दुख से भर गया। बोअरों की बहादुरी से अँग्रेज जनता आश्चर्यचकित हो गई। इतनी छोटी सी बोअर जाति ने सारी दुनिया में अपना साम्राज्य फैलाने वाली ब्रिटिश सत्ता को छका दिया, यह बात अँग्रेज जनता के मन में चुभा करती थी। परंतु जब इन कैंपों में बंद की हुई बोअर स्त्रियों के असहाय दुखों की आवाज इन स्त्रियों के मारफत नहीं, उनके पुरुषों के मारफत भी नहीं - वे तो रण क्षेत्र में जूझ रहे थे - परंतु दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले कुछ इने-गिने उदार चरित अँग्रेज स्त्री-पुरुषों के मारफत इंग्लैंड पहुँची, तब अँग्रेज जनता विचार में पड़ गई। स्व. सर हेनरी कैंपबेल-बैनर मैन ने अँग्रेज जनता के हृदय को पहचाना और उन्होंने बोअर युद्ध के खिलाफ गर्जना की। स्व. स्टेड ने सार्वजनिक रूप से ईश्वर से यह प्रार्थना की, और दूसरों को ऐसी प्रार्थना करने के लिए प्रेरित किया कि इस युद्ध में ईश्वर अँग्रेजों को हरा दे। वह दृश्य चमत्कारिक था। बहादुरी से भोगा हुआ सच्चा कष्ट पत्थर जैसे हृदय को भी पिघला देता है, यह ऐसा दुख अर्थात् तपस्या की महिमा है; और इसी में सत्याग्रह की कुंजी है।
इसके फलस्वरूप फ्रीनिखन की संधि हुई और अंत में दक्षिण अफ्रीका के चारों उपनिवेश एक शासन-तंत्र के नीचे आ गए। यद्यपि अखबार पढ़ने वाला हर हिंदुस्तानी इस संधि के बारे में जनता होगा, फिर भी एक-दो बातें ऐसी हैं जिनकी कल्पना भी अनेकों को भी शायद नहीं होगी। फ्रीनिखन की संधि होते ही दक्षिण अफ्रीका के चारों उपनिवेश परस्पर जुड़ गए हों ऐसा नहीं है। प्रत्येक उपनिवेस की अपनी धारासभा थी। उसका मंत्रि-मंडल इस धारासभा के प्रति पूरी तरह जिम्मेदार नहीं था। ट्रांसवाल और फ्री स्टेट की शासन पद्धति 'क्राउन कालोनी' की शासन पद्धति जैसी थी। ऐसा संतुलित अधिकार जनरल बोथा को या जनरल स्मट्स को कभी संतोष नहीं दे सकता था। फिर भी लार्ड मिल्नर ने 'बिना दूल्हे की बारात' वाली नीति अपनाना उचित माना है। जनरल बोथा और जनरल स्मट्स धारासभा से अलग रहे। उन्होंने असहयोग कर दिया। सरकार के साथ कोई भी संबंध रखने से उन्होंने साफ मना कर दिया। लार्ड मिल्नर ने तीखा भाषण किया और कहा कि जनरल बोथा को ऐसा मान लेने की जरूरत नहीं कि सारी जिम्मेदारी का भार उन्हीं पर है। उनके बिना भी देश का राज-काज चल सकता है।
मैंने बिना किसी संकोच के बोअरों की बहादुरी, उनके स्वातंत्र्य प्रेम और उनके आत्मत्याग के बारे में लिखा है। किंतु मेरा आशय पाठकों पर यह छाप डालने का नहीं था कि संकट-काल में भी उनके बीच मतभेद पैदा नहीं होते थे। अथवा उनमें कोई कमजोर मन वाले होते ही नहीं थे। बोअरों में भी आसानी से खुश हो जाने वाला एक पक्ष लार्ड मिल्नर खड़ा कर सके थे; और उन्होंने यह मना लिया था कि इस पक्ष की मदद से वे धारासभा को स्वयं सफल बना सकेंगे। कोई नाटककार भी मुख्य पात्र के बिना अपने नाटक को रंगमंच पर सफल नहीं बना सकता; तब फिर इस कठिन संसार में राज-काज चलाने वाला कोई पुरुष मुख्य पात्र को भूल कर सफल होने की आशा रखे, तो वह पागल ही माना जाएगा। यही दशा सचमुच लार्ड मिल्नर की हुई। और यह भी कहा जाता था कि उन्होंने जनरल बोथा को धमकी तो दी थी, परंतु ट्रांसवाल और फ्री स्टेट का शासन जनरल बोथा के बिना चलाना इतना कठिन हो गया कि लार्ड मिल्नर अपने बगीचे में अक्सर चिंतातुर और व्याकुल अवस्था में देखे जाते थे! जनलर बोथा ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि फ्रीनिखन के संधि पत्र का अर्थ मैंने निश्चित रूप से यह समझा था कि बोअर लोगों को अपनी आतंरिक व्यवस्था करने का पूरा अधिकार तुरंत मिल जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसा न होता तो मैंने संधि पत्र पर कभी हस्ताक्षर न किए होते। लार्ड किचनर ने उत्तर में यह कहा कि मैंने ऐसा कोई विश्वास जनरल बोथा को नहीं दिलाया था। मैंने इतना ही कहा था कि मैं जैसे-जैसे बोअर प्रजा विश्वासपात्र सिद्ध होती जाएगी वैसे-वैसे उसे क्रमशः अधिक स्वतंत्रता मिलती जाएगी। अब इन दोनों के बीच न्याय कौन करे? यदि कोई पंच द्वारा निर्णय कराने की बात कहता, तो भी जनरल बोथा उसे क्यों मानने लगे? उस समय इंग्लैंड की बड़ी (साम्राज्य) सरकार ने न्याय किया वह संपूर्णतया उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला था। उस सरकार ने यह बात स्वीकार की कि सामने वाला पक्ष - और उसमें भी निर्बल पक्ष समझौते का जो अर्थ समझा हो वह अर्थ बलवान पक्ष को मान्य रखना ही चाहिए। न्याय और सत्य के सिद्धांत के अनुसार सदा वही अर्थ सच्चा होगा। मेरे कथन का अपने मन में मैंने चाहे जो अर्थ मान रखा हो, फिर भी उसकी जो छाप पढ़ने वालों या सुनने वालों के मन पर पड़ती हो उसी अर्थ में मैंने अपना वचन कहा है या अपना लेख लिखा है, ऐसा मुझे उनके सामने स्वीकार करना ही चाहिए। बहुत बार हम व्यहार में सुवर्ण-नियम का पालन नहीं करते, इसी कारण से हमारे अनेक लड़ाई-झगड़े पैदा होते गेन और सत्य के नाम पर अर्ध सत्य का - अर्थात् सच कहा जाए तो ड्योढ़े असत्य का - उपयोग किया जाता है।
इस प्रकार जब सत्य की - इस उदहारण में जनरल बोथा की - संपूर्ण विजय हुई, तब उन्होंने अपना कार्य हाथ में लिया। इसके फलस्वरूप चारों उपनिवेश एकत्र हुए और दक्षिण अफ्रीका को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई। यूनियन जैक उनका ध्वज है और नक्शों में उस प्रदेश का रंग लाल दिखाया जाता है; फिर भी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका संपूर्ण रूप में स्वतंत्र ही है। ब्रिटिश साम्राज्य दक्षिण अफ्रीका की सरकार की सम्मति के बिना एक पैसा दक्षिण अफ्रीका से ले नहीं सकता। इतना ही नहीं ब्रिटिश मंत्रियों ने यह भी स्वीकार किया है कि यदि दक्षिण अफ्रीका ब्रिटिश ध्वज हटा देना चाहे और नाम से भी स्वतंत्र होना चाहे, तो कोई उसे ऐसा करने से रोक नहीं सकता। फिर भी यदि आज तक दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने यह कदम नहीं उठाया, उसके लिए अनेक प्रबल कारण हैं। एक तो यह कि बोअर प्रजा के नेता चतुर और सयाने हैं। ब्रिटिश साम्राज्य के साथ वे इस प्रकार की भागीदारी अथवा ऐसा संबंध बनाए रखें। जिसमें उन्हें किसी तरह की हानि न उठानी पड़े, तो इसे वे अनुचित नहीं मानते। लेकिन इसके सिवा दूसरा एक व्यावहारिक कारण भी है। वह यह कि नेटाल में अँग्रेजों की संख्या अधिक है; केप कालोनी में भी अँग्रेजों की संख्या बहुत है, परंतु बोअरों से अधिक नहीं; और जोहानिसबर्ग में केवल अँग्रेजों का ही प्राधान्य है। ऐसी दशा में यदि बोअर जाति समस्त दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्र प्रजासत्ताक राज्य स्थापित करना चाहे, तो घर में ही लड़ाई शुरू हो जाए। और शायद उसमें से गृह युद्ध भी भड़क उठे। इसलिए दक्षिण अफ्रीका आज भी ब्रिटिश साम्राज्य का डोमिनियन (अधिराज्य) मना जाता है।
दक्षिण अफ्रीका के यूनियन का संविधान किस प्रकार रचा गया, यह भी जानने जैसी बात है। चारों उपनिवेशों की धारासभाओं के प्रतिनिधियों ने एकमत होकर यूनियन के संविधान का मसौदा तैयार किया और ब्रिटिश पार्लियामेंट को उसे अक्षरशः स्वीकार करना पड़ा। ब्रिटिश लोकसभा के एक सदस्य ने संविधान के मसौदे में पाए गए एक व्याकरण दोष की ओर सदस्यों का ध्यान खींचा और कहा कि ऐसा दोषयुक्त शब्द संविधान से निकाल देना चाहिए। परंतु स्व. सर हेनरी कैंपबेल-बैनरमेन ने सदस्य के सुझाव को अस्वीकार करते हुए कहा कि राज्य का शासन शुद्ध व्याकरण से नहीं चल सकता; यह संविधान ब्रिटिश मंत्रि-मंडल तथा दक्षिण अफ्रीका की सरकार के मंत्रियों के बीच हुए सलाह-मशविरे के परिणाम-स्वरूप रचा गया है; अतः उसमें व्याकरण का दोष भी दूर करने का अधिकार ब्रिटिश पार्लियामेंट के लिए सुरक्षित नहीं रखा गया है। इसका नतीजा यह हुआ कि संविधान जिस रूप में था उसी रूप में उसे लोकसभा और लार्ड सभा ने मान्य रखा।
इस संबंध में एक तीसरी बात भी ध्यान देने योग्य है। यूनियन के संविधान में कुछ धाराएँ ऐसी हैं, जो तटस्थ पाठकों जरूर निरर्थक मालूम होंगी। उनकी वजह से खर्च भी बहुत बढ़ गया है। यह बात संविधान के रचयिताओं के ध्यान से बाहर भी नहीं थी। परंतु उन लोगों का उद्देश्य संपूर्णता सिद्ध करना नहीं था, बल्कि आपसी समझौते से एकमत होना और संविधान को सफल बनाना था। इसी कारण से अभी यूनियन की चार राजधानियाँ मानी जाति हैं, क्योंकि कोई भी उपनिवेश अपनी राजधानी का महत्व छोड़ने को तैयार नहीं है। चारों उपनिवेशों की स्थानीय धारासभाएँ भी रखी गई हैं। चारों उपनिवेशों के लिए गवर्नर जैसा कोई पदाधिकारी तो होना ही चाहिए, इसलिए चार प्रांतीय अधिकारी भी स्वीकार किए गए हैं। सब कोई यह समझते हैं कि चार स्थानीय धारासभाएँ, चार राजधानियाँ और चार प्रांतीय शासक बकरी के गले के स्तनों की तरह निरुपयोगी और केवल आडंबर बढ़ाने वाले ही हैं। परंतु इससे दक्षिण अफ्रीका का शासन चलाने वाले व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञ डरने वाले थोड़े ही थे? इस व्यवस्था में आडंबर होते हुए भी और उसके कारण खर्च अधिक होने पर भी चारों उपनिवेशों की एकता वांछनीय थी। इसलिए दक्षिण अफ्रीका के राजनीतिज्ञों ने बाहरी दुनिया की टीकाओं की चिंता किए बिना खुद को जो उचित लगा वही किया और ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा उसे स्वीकार कराया।
इस तरह दक्षिण अफ्रीका का यह अतिशय संक्षिप्त इतिहास मैंने पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ देने का प्रयत्न किया है। मुझे लगा कि इसके बिना सत्याग्रह के महान संग्राम का रहस्य समझाया नहीं जा सकता। मूल विषय पर आने से पहले अब हमें यह देखना होगा कि हिंदुस्तानी लोग दक्षिण अफ्रीका में कैसे आए और वहाँ सत्याग्रह का आरंभ होने के पूर्व वे अपनी कठिनाइयों और संकटों से कैसे जूझे।