हम देख चुके हैं कि रामसुंदर पंडित की गिरफ्तारी सरकार के लिए मददगार साबित
नहीं हुई। दूसरी ओर अधिकारियों ने यह भी देखा कि कौम में उत्साह तेजी से
बढ़ने लगा है। 'इंडियन ओपीनियन' के लेखों को एशियाटिक विभाग के अधिकारी भी
ध्यान से पढ़ते थे। कौम की लड़ाई के संबंध में कोई भी बात कभी गुप्त नहीं
रखी जाती थी। कौम की कमजोरी और कौम की ताकत को जो भी जानना चाहता 'इंडियन
ओपीनियन' से जान सकता था - फिर वह शत्रु हो, मित्र हो या कोई तटस्थ व्यक्ति
हो। कार्यकर्ता आरंभ से ही यह समझ गए थे कि जिस लड़ाई में कोई गलत काम करना ही
नहीं है, जिसमें चालाकी अथवा धोखेबाजी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है और जिस
लड़ाई में अपनी शक्ति के आधार पर ही विजय प्राप्त की जा सकती है, उसमें
गुप्तता का कोई भी स्थान नहीं हो सकता। कौम के स्वार्थ का ही यह तकाजा है
कि कमजोरी के रोग को यदि दूर करना हो, तो कमजोरी की परीक्षा करके उसे अच्छी
तरह जाहिर कर दिया जाए। जब एशियाटिक विभाग के अधिकारियों ने देखा कि 'इंडियन
ओपीनियन' इसी नीति पर चलता है, तब वह उनके लिए हिंदुस्तानी कौम के वर्तमान
इतिहास का दर्पण बन गया; और इसलिए उन्होंने सोचा कि जब तक कौम के अमुक नेताओं
को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा तब तक लड़ाई का बल कभी टूट नहीं सकेगा। इसके
फलस्वरूप दिसंबर 1907 में कुछ नेताओं को अदालत में हाजिर होने की नोटिस मिली।
मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि ऐसी नोटिस देने में अधिकारियों ने सभ्यता
दिखाई थी। वे चाहते तो वारंट निकाल कर नेताओं को गिरफ्तार कर सकते थे। पर ऐसा
करने के बजाय उन्हें हाजिर रहने की नोटिस देकर अधिकारियों ने सभ्यता के साथ
साथ अपना यह विश्वास भी प्रकट किया था कि कौम के नेता गिरफ्तार होने को तैयार
हैं। निश्चित किए हुए दिन - शनिवार, ता. 28-12-1907 को - अदालत में जो नेता
हाजिर रहे थे उन्हें इस तरह की नोटिस का उत्तर देना था : 'कानून के अनुसार आप
लोगों को परवाने प्राप्त कर लेने चाहिए थे, फिर भी आपने प्राप्त नहीं किए।
इसलिए आपको ऐसा हुक्म क्यों न दिया जाए कि अमुक समय के भीतर आप ट्रान्सवाल
की सीमा छोड़ दें?'
इन नेताओं में एक सज्जन का नाम क्विन था, जो जोहानिसबर्ग में रहनेवाले
चीनियों का नेता था। जोहानिसबर्ग में 300-400 चीनी रहते थे। वे सब व्यापार
करते थे या छोटी-मोटी खेती का काम करते थे। हिंदुस्तान खेती के लिए मशहूर देश
है। लेकिन मेरा यह विश्वास है कि चीनी लोगों ने जिस हद तक खेती का विकास किया
है उस हद तक हमने खेती का विकास नहीं किया है। अमेरिका आदि देशों में खेती की
जो आधुनिक प्रगति हुई है, उसका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। फिर भी पश्चिम
की खेती को अभी मैं प्रयोग के रूप में ही मानता हूँ। लेकिन चीन तो हमारे जैसा
ही प्राचीन देश है और वहाँ पुराने जमाने से ही खेती का विकास किया गया है।
इसलिए चीन और हिंदुस्तान के बीच तुलना करके हम कुछ सीख सकते हैं। जोहानिसबर्ग
के चीनियों की खेती को देखकर और उनकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा कि चीनियों का
ज्ञान और उद्यम हम से कहीं अधिक है। जहाँ हम जमीन को पड़ती मानकर उसका कोई भी
उपयोग नहीं करते, वहाँ चीनी लोग विभिन्न प्रकार की मिट्टियों के अपने
सूक्ष्म ज्ञान के कारण अच्छी अच्छी फसलें पैदा कर सकते हैं।
इस उद्यमी और चतुर कौम पर भी खूनी कानून लागू होता था। इसलिए चीनियों ने भी
हिंदुस्तानियों की लड़ाई में सम्मिलित होना उचित माना। ऐसा होते हुए भी आरंभ
से अंत तक दोनों जातियों की सारी प्रवृत्तियाँ सर्वथा अलग अलग ही रहीं। दोनों
जातियाँ अपनी अपनी संस्थाओं द्वारा गोरी सरकार से लड़ रही थीं। इसका शुभ
परिणाम यह आया कि जब तक दोनों जातियाँ टिकी रहीं तब तक दोनों को लाभ हुआ,
लेकिन जब एक जाति गिरी तो दूसरी को नुकसान पहुँचने का कोई कारण नहीं रहा; नीचे
गिरने की तो कोई बात हो ही नहीं सकती थी। अंत में बहुत से चीनी हार गए,
क्योंकि उनके नेता ने उन्हें धोखा दिया। चीनियों का नेता खूनी कानून के
सामने झुका तो नहीं, लेकिन एक दिन किसी ने मुझे यह खबर सुनाई कि चीनियों का
नेता चीनी संघ का हिसाब-किताब सौंपे बिना ही भाग गया है। नेता के अभाव में
किसी लड़ाई में अनुयायियों का टिका रहना हमेशा ही कठिन होता है; और यदि नेता
में कोई मलिनता देखने में आती है, तब तो उसके अनुयायियों में दुगुनी निराशा
पैदा होती है। लेकिन जब गिरफ्तारियाँ शुरू हुई उस समय तो चीनी लोग अतिशय
उत्साह में थे। उनमें से शायद ही किसी ने परवाने लिए हों। इसलिए जिस तरह
हिंदुस्तानी नेताओं को गिरफ्तार किया गया उसी तरह चीनियों के कर्ता-धर्ता
श्री क्विन को भी गिरफ्तार किया गया। कुछ समय तक तो श्री क्विन ने बहुत ही
सुंदर काम लिया, ऐसा कहा जा सकता है।
हिंदुस्तानियों के जो नेता पकड़े गए थे, उनमें से मैं जिनका परिचय यहाँ कराना
चाहता हूँ वे हैं श्री थंबी नायडू। थंबी नायडू तामिल थे। उनका जन्म मोरीशियस
में हुआ था। लेकिन उनके माता-पिता मद्रास प्रांत से आजीविका कमाने के लिए
मोरीशियस गए थे। थंबी नायडू सामान्य व्यापारी थे। ऐसा कहा जा सकता है कि
उन्हें शाला की कोई शिक्षा नहीं मिली थी। परंतु उनका अनुभव-ज्ञान बहुत ऊँचा
था। वे अँग्रेजी बहुत अच्छी बोल और लिख सकते थे, यद्यपि भाषाशास्त्री की
दृष्टि से उनके अँग्रेजी बोलने-लिखने में दोष रहता था। तामिल भाषा का ज्ञान भी
उन्होंने अनुभव से ही प्राप्त किया था। हिंदुस्तानी भी वे अच्छी तरह समझते
और बोलते थे। तेलुगु का भी उन्हें काफी ज्ञान था, यद्यपि वे हिंदी या तेलुगु
लिपि बिलकुल नहीं जानते थे। मोरीशियस की भाषा का, जो 'क्रीओल' के नाम से
पुकारी जाती है और जिसे फ्रेंच भाषा का अपभ्रंश कहा जा सकता है, उन्हें बहुत
अच्छा ज्ञान था। दक्षिण भारत के लोगों में इतनी सारी भाषाओं का व्यावहारिक
ज्ञान होना कोई अपवाद की बात नहीं थी। दक्षिण अफ्रीका में सैकड़ों
हिंदुस्तानी इन सब भाषाओं का साधारण ज्ञान रखनेवाले मिलेंगे। इसके सिवा,
उन्हें इन सब भाषाओं के साथ हबशी भाषा का ज्ञान तो होगा ही। यह सारा
भाषाज्ञान वे अनायास प्राप्त कर लेते हैं और प्राप्त कर सकते हैं। इसका कारण
मैं तो यह मानता हूँ कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करके
उनके दिमाग थकते नहीं। उनकी स्मरण-शक्ति तेज होती है और इन सब भाषाओं के
बोलनेवाले लोगों के साथ बातचीत करके और अवलोकन करके ही वे विभिन्न भाषाओं का
ज्ञान प्राप्त करते हैं। इससे उनके दिमागों को बहुत कष्ट नहीं होता; बल्कि
दिमाग के ऐसे सरल व्यायाम से उनकी बुद्धि स्वाभाविक रूप में ही खिल उठती है।
यही बात थंबी नायडू के विषय में भी सच थी। उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। वे नए
प्रश्नों को बड़ी जल्दी समझ लेते थे। उनकी हाजिरजवाबी सबको आश्चर्य में डाल
देती थी। उन्होंने हिंदुस्तान कभी देखा नहीं था, फिर भी हिंदुस्तान पर उनका
अगाध प्रेम था। स्वदेशाभिमान उनकी रग-रग में समाया हुआ था। उनकी दृढ़ता उनके
मुख पर चित्रित रहती थी। उनके शरीर की गठन अत्यंत मजबूत और कसी हुई थी। वे
परिश्रम करने में कभी थकते ही नहीं थे। किसी सभा में कुरसी पर बैठकर कौम का
नेतृत्व करना हो, तो उस पद को वे भलीभाँति सुशोभित कर सकते थे; और उतनी ही
स्वाभाविकता से वे हमाल का काम भी कर सकते थे। आम रास्ते पर बोझ ढो कर ले
जाने में थंबी नायडू कभी शरमाते नहीं थे। मेहनत करते समय वे रात और दिन का भेद
मानते ही नहीं थे। और हिंदुस्तानी कौम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर
देने में वे हर किसी के साथ होड़ लगा सकते थे। यदि थंबी नायडू आवश्यकता से
अधिक साहसी न होते और यदि वे स्वभाव से क्रोधी न होते, तो आज उनके जैसा वीर
पुरुष ट्रान्सवाल में काछलिया की अनुपस्थिति में कौम का नेतृत्व आसानी से कर
सकता था। ट्रान्सवाल में सत्याग्रह की लड़ाई चली तब तक उनके क्रोध का विपरीत
परिणाम नहीं आ पाया था और उनके भीतर जो अमूल्य गुण थे वे रत्नों के समान
चमकते रहे। परंतु बाद में मैंने सुना कि उनका क्रोध और साहसिकता उनके प्रबल
शत्रु सिद्ध हुए और उन्होंने उनके सारे गुणों को ढक दिया। जो भी हो, किंतु
दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह की लड़ाई के इतिहास में तो थंबी नायडू का नाम
सदा प्रथम श्रेणी में ही रहेगा।
हम सबको अदालत में एक साथ ही हाजिर होना था। लेकिन सबके केस अलग अलग चलाए गए
थे। मजिस्ट्रेट ने कुछ लोगों को 48 घंटों के भीतर और बाकी लोगों को 7 या 14
दिन में ट्रान्सवाल छोड़ देने का आदेश दिया। इस आदेश की अवधि 10 जनवरी, 1908
को पूरी होती थी। उसी दिन हमें सजा सुनने के लिए अदालत में उपस्थित होने का
आदेश मिला था।
हम में से किसी को अपना बचाव तो करना ही नहीं था। कानून के अनुसार परवाने न
लेने के कारण निश्चित अवधि में ट्रान्सवाल की सीमा छोड़ देने का मजिस्ट्रेट
ने जो आदेश दिया था, उसका सविनय अनादर करने का अपराध हम सबको स्वीकार करना
था।
मैंने अदालत से एक छोटा सा वक्तव्य देने की इजाजत माँगी। वह इजाजत मुझे
मिली। मैंने इस आशय का वक्तव्य दिया : मेरे मुकदमे में और मेरे बाद आनेवाले
लोगों के मुकदमे में भेद किया जाना चाहिए। मुझे अभी अभी प्रिटोरिया से ये
समाचार मिले हैं कि वहाँ मेरे देश बंधुओं को तीन मास की कड़ी कैद की सजा और
भारी जुर्माना हुआ है और जुर्माना न देने पर तीन मास की कड़ी कैद की और सजा दी
गई है। अगर उन लोगों ने अपराध किया है, तो मैंने उनसे कहीं बड़ा अपराध किया
है। इसलिए मजिस्ट्रेट से मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें।
परंतु मजिस्ट्रेट ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और मुझे दो मास की सादी
कैद की सजा दी। जिस अदालत में मैं वकील के रूप में सैकड़ों बार खड़ा हुआ था और
वकील-मंडल के बीच उठता-बैठता था, उसी अदालत में आज मैं अभियुक्त के रूप में
कठघरे में खड़ा हूँ, यह विचार मुझे थोड़ा विचित्र अवश्य लगा। किंतु इतना मुझे
अच्छी तरह याद है कि वकील-मंडल की सभा में बैठने में मैंने जो सम्मान और
प्रतिष्ठा मानी होगी, उसकी अपेक्षा अपराधी के कठघरे में खड़े होने में मैंने
कहीं अधिक सम्मान और प्रतिष्ठा मानी। मुझे स्मरण नहीं आता कि कठघरे में
प्रवेश करते समय मैंने जरा भी संकोच अनुभव किया हो। अदालत में मैं सैकड़ों
हिंदुस्तानी भाइयों, वकीलों और मित्रों आदि के सामने खड़ा था। ज्यों ही मुझे
सजा सुनाई गई त्यों ही एक सिपाही मुझे कैदियों को ले जाने के दरवाजे से वहाँ
ले गया जहाँ जेल में ले जाने के पहले उन्हें रखा जाता है।
उस समय मैंने अपने आसपास का वातावरण सुनसान पाया। वहाँ कैदियों के बैठने की जो
बेंच पड़ी थी उस पर मुझे बैठने को कहकर पुलिस अधिकारी दरवाजा बंद करके चलता
बना। यहाँ मुझे जरूर थोड़ी घबराहट हुई। मैं गहरे विचारों में डूब गया। कहाँ
मेरा घर-बार है! कहाँ मेरी बैरिस्टरी है! और कहाँ वे सार्वजनिक सभाएँ हैं! वह
सब स्वप्नवत हो गया है और आज मैं कैदी बनकर यहाँ बैठा हूँ। दो महीनों में
क्या होनेवाला है? क्या मुझे दो माह की पूरी कैद भोगनी ही पड़ेगी? कौम के
लोग अगर अपने वचन के अनुसार बड़ी संख्या में जेल में चले आएँ, तो मुझे दो
महीने की कैद भोगनी ही न पड़े। लेकिन अगर वे जेलों को भरने की हिम्मत न
दिखाएँ, तो ये दो महीने कितने लंबे मालूम होंगे? इन विचारों और ऐसे ही दूसरे
विचारों को लिखवाने में मुझे जितना समय लगा है, उसके सौवें भाग का समय भी इन
विचारों के आने में नहीं लगा होगा। इन विचारों के मन में उठते ही मैं लज्जित
हो गया। मैं कितना बड़ा मिथ्याभिमानी हूँ? मैंने जेल को महल मानने की बात कौम
के लोगों से कही थी! मैंने लोगों से कहा था कि खूनी कानून का विरोध करने के
फलस्वरूप जो भी दुख सहना पड़े उसे दुख नहीं परंतु सुख मानना चाहिए। उसका
विरोध करते करते अपनी संपत्ति और प्राण भी अर्पण करने पड़ें, तो वह सत्याग्रह
में आनंद का विषय माना जाना चाहिए। यह सब मेरा ज्ञान आज कहाँ चला गया? ये
विचार आते ही मैं दृढ़ बन गया और अपनी मूर्खता पर हँसने लगा। मैं व्यावहारिक
दृष्टि से सोचने लगा : दूसरे मित्रों को कैसी कैद मिलेगी? क्या उन्हें मेरे
साथ ही रखा जाएगा? जब मैं इस सारी उधेड़बुन में पड़ा था उसी समय दरवाजा खुला
और पुलिस अधिकारी ने मुझे उसके पीछे पीछे चलने का हुक्म दिया। जब मैं उसके
पीछे चलने लगा तो उसने मुझे आगे कर दिया और खुद मेरे पीछे हो गया। वह मुझे जेल
की पिंजरा गाड़ी के सामने ले गया और बोला कि इसमें बैठ जाओ। बैठ जाने पर मुझे
जोहानिसबर्ग जेल में ले जाया गया।
जेल में पहुँच जाने के बाद मेरे अपने कपड़े उतरवा लिए गए। मैं जानता था कि जेल
में कैदियों को नंगा कर दिया जाता है। हम सबने सत्याग्रहियों के नाते इसे
अपना धर्म माना था कि जेल के नियम जब तक व्यक्तिगत अपमान करनेवाले न हों अथवा
धर्म के विरुद्ध न हों तब तक स्वेच्छा से उनका पालन किया जाए। वहाँ जो कपड़े
मुझे पहनने के लिए मिले वे बहुत मैले थे। उन्हें पहनना मुझे बिलकुल अच्छा न
लगा। उन कपड़ों को पहनने में और मन को ऐसा करने के लिए समझाने में मुझे दुख
हुआ। लेकिन थोड़ा मैलापन तो जेल में बरदाश्त करना ही पड़ेगा, ऐसा समझ कर
मैंने मन पर नियंत्रण रखा। मेरा नाम-पता वगैरा लिखकर मुझे एक बड़ी कोठरी में
ले जाया गया। कुछ समय मैं उसमें रहा। उसके बाद मेरे साथी भी हँसते-बोलते वहाँ
आ पहुँचे। उन्होंने मुझे सुनाया कि मेरे बाद उनका मुकदमा कैसे चला और उसमें
क्या क्या हुआ। उनकी बातों से मालूम हुआ कि मेरा मुकदमा पूरा हो जाने के बाद
कुछ हिंदुस्तानियों ने काले झंडे हाथ में लेकर जुलूस निकाला था, कुछ लोग
उत्तेजित भी हुए थे। पुलिस ने जुलूस को रोका था और दो-चार को मारा-पीटा भी था।
हम सबको एक ही जेल में और एक ही कोठरी में रखा गया, इससे हम लोग बहुत खुश हुए।
शाम के 6 बजे हमारी कोठरी का दरवाजा बंद कर दिया गया। दक्षिण अफ्रीका में
जेलों की कोठरियों के दरवाजों में लोहे के सीकचे नहीं होते। दीवाल में ठेठ ऊपर
एक छोटा-सा जालीवाला झरोखा हवा के आने-जाने के लिए बना होता है। इसलिए दरवाजा
बंद होने पर हमें ऐसा लगा, मानो हम किसी तिजोरी में बंद कर दिए गए हों। पाठक
देखेंगे कि जेल के अधिकारियों ने जो आदर-सत्कार रामसुंदर पंडित का किया था
वैसा हम लोगों का नहीं किया। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। रामसुंदर तो
प्रथम सत्याग्रही कैदी था। इससे सत्ताधारियों को इस बात का पूरा खयाल भी नहीं
रहा होगा कि उसके साथ कैसा बरताव किया जाए। हमारी संख्या काफी बड़ी थी और
दूसरों को पकड़ने का इरादा सरकार का था ही, इसलिए हमें हबशियों के वार्ड में
रखा गया था। दक्षिण अफ्रीका में कैदियों के दो ही विभाग होते हैं : गोरे और
काले (हबशी); और हिंदुस्तानी कैदियों की गिनती हबशी विभाग में होती है। मेरे
साथियों को भी मेरे जितनी ही सादी कैद की सजा मिली थी।
दूसरे दिन सुबह हमें पता चला कि सादी कैदवालों को अपने कपड़े पहन रखने का
अधिकार होता है; और यदि वे अपने कपड़े नहीं पहनना चाहें तो सादी कैदवालों के
लिए जो खास पोशाक होती है वह उन्हें दे दी जाती है। हमने यह निर्णय किया था
कि घर की पोशाक जेल में पहनना अनुचित होगा, वहाँ जेल की पोशाक पहनने में ही
हमारी शोभा है। अपना यह निर्णय हमने जेल-अधिकारियों को बता दिया। इसलिए हमें
सादी कैदवाले हबशी कैदियों की पोशाक दी गई। लेकिन सादी कैदवाले सैकड़ों कैदी
दक्षिण अफ्रीका के जेलों में कभी होते ही नहीं। इसलिए जब सादी कैदवाले दूसरे
हिंदुस्तानी जेल में आने लगे तब सादी कैद के कपड़े कम पड़ गए! कपड़ों के बारे
में हमें कोई झगड़ा नहीं करना था, इसलिए कड़ी कैद की सजा पानेवाले कैदियों के
कपड़े पहनने में हमने कोई आनाकानी नहीं की। बाद में आनेवाले कुछ लोगों ने ऐसे
कपड़े पहनने के बजाय अपने ही कपड़े पहनना पसंद किया। यह मुझे अच्छा तो नहीं
लगा, परंतु ऐसे मामले में आग्रह करना मुझे उचित न लगा।
दूसरे अथवा तीसरे दिन से सत्याग्रही कैदी बड़ी संख्या में आने लगे थे। वे
जान-बूझकर गिरफ्तार होते थे। उनमें से अधिकतर लोग फेरी लगानेवाले ही थे।
दक्षिण अफ्रीका में हर फेरी लगानेवाले व्यक्ति को - फिर वह गोरा हो या काला -
फेरी का परवाना लेना होता है, वह परवाना हमेशा अपने साथ रखना होता है और पुलिस
माँगे तब उसे दिखाना होता है। लगभग रोज ही कोई न कोई पुलिस का जवान ऐसे परवाने
माँगता था और न बतानेवालों को गिरफ्तार करता था। हमारी गिरफ्तारी के बाद कौम
ने जेलों को सत्याग्रही कैदियों से भर देने का निश्चय किया। फेरीवाले लोग
इसमें सबसे आगे रहे। उनके लिए गिरफ्तार होना आसान भी था। उन्हें केवल परवाने
बताने से इनकार करना होता था; उसके बाद उनका गिरफ्तार होना निश्चित था। एक
हफ्ते में इस तरह गिरफ्तार होनेवाले सत्याग्रही कैदियों की संख्या 100 से
अधिक हो गई। और थोड़े-बहुत कैदी तो रोज ही आते थे, इसलिए हमें बगैर अखबार के
ही सारे समाचार मिल जाते थे। वे रोज के समाचार अपने साथ लाते थे। जब बड़ी
संख्या में सत्याग्रही गिरफ्तार किए जाने लगे तब या तो मजिस्ट्रेटों का
धीरज खूट गया अथवा - जैसा कि हमने माना - सरकार की ओर से मजिस्ट्रेटों को
सूचना की गई कि आगे से सत्याग्रहियों को सादी कैद की सजा दी ही न जाए, केवल
कड़ी कैद की सजा ही दी जाए। जो भी हो, लेकिन अब सबको सख्त मेहनत की कैद ही
मिलने लगी। आज भी मुझे ऐसा लगता है कि कौम का अनुमान सही था। क्योंकि शुरू
शुरू के जिन मामलों में सादी कैद की सजा मिली उन्हें यदि छोड़ दें, तो उनके
बाद उसी समय की लड़ाई में और भविष्य में भी समय समय पर कौम द्वारा लड़ी गई
लड़ाइयों में पुरुषों और स्त्रियों को भी किसी समय ट्रान्सवाल या नेटाल की
किसी अदालत में सादी कैद की सजा नहीं दी गई। जब तक सारे मजिस्ट्रेटों को एक
ही प्रकार की सूचना या आदेश न मिलें हों तब तक प्रत्येक मजिस्ट्रेट का हर
बार प्रत्येक पुरुष और स्त्री को कड़ी कैद की ही सजा देना यदि केवल आकस्मिक
संयोग माना जाए, तो यह लगभग एक चमत्कार ही कहा जाएगा।
जोहानिसबर्ग की जेल में सादी कैद की सजावाले कैदियों को भोजन में सवेरे मक्का
के आटे की लपसी या कांजी मिलती थी। उसमें नमक डाला नहीं जाता था, परंतु हर
कैदी को अलग से थोड़ा नमक कांजी में मिलाने के लिए दिया जाता था। दोपहर बारह
बजे चार औंस भात, ऊपर से नमक और एक औंस घी और चार औंस डबल-रोटी दी जाती थी।
शाम को मक्का के आटे की कांजी और उसके साथ थोड़ा साग और साग में भी मुख्यतः
आलू दिए जाते थे। आलू छोटे होते तो दो दिए जाते और बड़े होते तो एक दिया जाता
था। इतने भोजन से किसी का भी पेट नहीं भरता था। चावल चिकने और गीले पकाए जाते
थे। हमने जेल के डॉक्टर से थोड़े मसाले की माँग की और कहा कि हिंदुस्तान की
जेलों में कैदियों को मसाला मिलता है। डॉक्टर ने कड़ा उत्तर दिया : ''यह
हिंदुस्तान नहीं है। कैदी के लिए स्वाद नहीं होता, इसलिए मसाला भी नहीं हो
सकता।'' हमने दाल की माँग की और कारण में यह बताया कि जेल के भोजन में
स्नायुओं को पुष्ट करनेवाले कोई तत्व नहीं हैं। इस पर डॉक्टर ने कहा :
''कैदियों को डॉक्टरी दलील नहीं करनी चाहिए। आपको स्नायु-पोषक भोजन दिया
जाता है, क्योंकि सप्ताह में दो बार आपको मक्का के बदले में शाम के भोजन
में उबली हुई मटर दी जाती है।'' यदि मनुष्य का पेट एक हफ्ते या पखवारे में
अलग अलग समय पर मिलनेवाले अलग अलग तत्वों से युक्त भोजन में से शरीर के लिए
आवश्यक तत्व खींच लेने की शक्ति रखता हो, तब तो डॉक्टर का यह तर्क सही था।
सच पूछा जाए तो डॉक्टर की इच्छा हमारी सुविधा का खयाल करने की थी ही नहीं।
जेल-सुपरिंटेंडेंट ने हमारी माँग के अनुसार अपना भोजन हमें स्वयं बनाने की
इजाजत दे दी। अपने रसोइये के रूप में हमने थंबी नायडू का चुनाव किया। हमारा
खाना बनाने के सिलसिले में उन्हें जेल-अधिकारियों से अनेक बार झगड़ना पड़ता
था। साग तौल में कम दिया जाता तो वे पूरे तौल की माँग करते थे; दूसरी चीजों के
बारे में भी यही होता था। सागवाले दिनों में, जो सप्ताह में दो दिन होते थे,
हम दो बार अपना भोजन बनाते थे और दूसरे दिनों में एक बार बनाते थे, क्योंकि
केवल दोपहर के भोजन के लिए ही हमें दूसरी चीजें पकाने की इजाजत दी गई थी। भोजन
बनाने का काम हमारे हाथ में आया उसके बाद हम कुछ संतोष से भोजन करने लगे।
परंतु ऐसी सुविधाएँ प्राप्त करने में हमें सफलता मिली या न मिली, फिर भी
हममें से कोई जेल की अवधि पूर्ण प्रसन्नता और शांति से व्यतीत करने के
निश्चय से डिगा नहीं। सत्याग्रही कैदियों की संख्या बढ़ते बढ़ते 150 से ऊपर
चली गई थी। हम सब सादी कैद की सजा पाए हुए कैदी थे, इसलिए अपनी कोठरी वगैरा
साफ रखने के सिवा दूसरा कोई काम हमें करना नहीं पड़ता था। इसलिए हमने
जेल-सुपरिटेंडेंट से कोई काम माँगा। उसने कहा : ''यदि मैं आपको काम दूँ, तो वह
मेरा अपराध माना जाएगा। इसलिए मैं लाचार हूँ। लेकिन आप लोग अपने स्थान को
साफ-सुथरा रखने में चाहे जितना समय लगा सकते हैं।'' इस पर हमने कवायद जैसी
कसरत की माँग की, क्योंकि हमने देखा था कि सख्त मेहनत की सजा पाए हुए हबशी
कैदियों से भी कवायद कराई जाती थी। सुपरिटेंडेंट ने उत्तर में कहा : ''आपके
वार्डर को समय मिले और वह आपसे यह कसरत कराए, तो मैं विरोध नहीं करूँगा। परंतु
मैं ऐसा करने के लिए उसे मजबूर नहीं कर सकता। उसे बहुत काम करना पड़ता है और
आप लोगों के आशातीत संख्या में आ जाने से उसका काम और ज्यादा बढ़ गया है।''
हमारा वार्डर बहुत भला आदमी था। उसे तो केवल सुपरिटेंडेंट की इजाजत ही चाहिए
थी। वह बड़ी दिलचस्पी से हमें रोज सुबह कवायद कराने लगा। कवायद की कसरत हम
अपनी कोठरियों के छोटे से आँगन में ही कर सकते थे, इसलिए हमें सिर्फ चौगिर्द
चक्कर ही लगाना होता था। वह भला वार्डर जो कुछ सिखा जाता उसके अनुसार हमें
कवायद कराना एक पठान साथी नवाबखान जारी रखते थे। वे कवायद के अँग्रेजी शब्दों
का उर्दू उच्चारण करके हमें खूब हँसाते थे। 'स्टैंड एट ईज' का उच्चारण वे
'टंडलीस' करते थे! कुछ दिनों तक तो हमारी समझ में ही नहीं आया कि वह कौन सा
हिंदुस्तानी शब्द होगा। बाद में हम समझ गए कि वह हिंदुस्तानी नहीं बल्कि
नवाबखानी अँग्रेजी थी!