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विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 21. पहला समझौता पीछे     आगे

इस तरह जेल में हम लगभग 15 दिन रहे होंगे कि बाहर से आनेवाले नए लोग यह समाचार लाने लगे कि सरकार के साथ समझौता करने की कोई बातचीत चल रही है। दो तीन दिन बाद जोहानिसबर्ग के 'ट्रान्‍सवाल लीडर' नामक दैनिक के संपादक श्री आल्‍बर्ट कार्टराइट मुझसे जेल में मिलने आए। उस समय जोहानिसबर्ग से निकलनेवाले सारे दैनिकों का स्‍वामित्‍व सोने की खान के किसी न किसी गोरे मालिक के हाथ में था। उनके विशेष स्‍वार्थ का विषय न हो ऐसे हर एक सार्वजनिक प्रश्‍न पर संपादक अपने स्‍वतंत्र विचार प्रकट कर सकते थे। इन अखबारों के संपादक विद्वान और प्रख्‍यात व्‍यक्तियों में से ही चुने जाते थे। उदाहरण के लिए, 'दि डेली स्‍टार' नामक दैनिक के संपादक एक समय लॉर्ड मिल्‍नर के निजी सचिव रह चुके थे। और बाद में वे 'दि टाइम्‍स' के संपादक श्री बकल का स्‍थान ग्रहण करने के लिए इंग्‍लैंड गए थे। श्री आल्‍बर्ट कार्टराइट सुयोग्‍य होने के साथ ही अत्यंत उदार मन के पुरुष थे। उन्‍होंने अपने अग्रलेखों में भी लगभग हमेशा हिंदुस्‍तानियों का समर्थन किया था। उनके और मेरे बीच गहरी मित्रता हो गई थी और मेरे जेल जाने के बाद वे जनरल स्‍मट्स से मिले थे। जनरल स्‍मट्स ने समझौते की बातचीत के लिए उनकी मध्‍यस्‍थता स्‍वीकार की थी। हिंदुस्‍तानी कौम के नेताओं से भी वे मिल चुके थे। नेताओं ने उन्‍हें एक ही उत्तर दिया : ''कानून की बारीकियों को हम समझ नहीं सकते। यह हो ही नहीं सकता कि गांधी जेल में रहें और हम समझौते की बातचीत करें। हम सरकार के साथ समझौता करना तो चाहते हैं। लेकिन अगर हमारे कौम के लोगों को जेल में बंद रखकर सरकार समझौता करना चाहती हो, तो आपको गांधी से जेल में मिलना चाहिए। वे जो कुछ करेंगे उसे हम स्‍वीकार कर लेंगे।''

इस प्रकार श्री कार्टराइट मुझसे मिलने आए। अपने साथ वे जनरल स्‍मट्स द्वारा तैयार किया हुआ या उनका पसंद किया हुआ समझौते का मसौदा भी लाए थे। वह मसौदा मुझे पसंद नहीं आया। उसकी भाषा अस्‍पष्‍ट थी। फिर भी एक परिवर्तन के साथ मैं स्‍वयं तो उस मसौदे पर हस्‍ताक्षर करने को तैयार था। लेकिन मैंने श्री कार्टराइट से कहा कि बाहर के हिंदुस्‍तानियों की इजाजत होते हुए भी जेल के अपने साथियों का मत लिए बिना मैं समझौते के मसौदे पर हस्‍ताक्षर नहीं कर सकता।

उस मसौदे का आशय इस प्रकार था : हिंदुस्‍तानियों को स्‍वेच्‍छा से अपने परवाने बदल लेने चाहिए। यह बात कानून के मातहत नहीं कराई जा सकती। परवाने का रूप हिंदुस्‍तानियों के साथ सलाह-मशविरा करके सरकार तैयार करेगी और यदि हिंदुस्‍तानी कौम का मुख्‍य भाग स्‍वेच्‍छा से परवाने ले लेगा, तो सरकार खूनी कानून रद कर देगी और स्‍वेच्‍छा से लिए गए परवानों को कानूनी मान्‍यता देने के लिए नया कानून पास करेगी। समझौते के इस मसौदे में खूनी कानून रद करने की बात स्‍पष्‍ट नहीं थी। अपनी दृष्टि से यह बात स्‍पष्‍ट करने जितना परिवर्तन मैंने मसौदे में सुझाया।

श्री आल्‍बर्ट कार्टराइट को इतना-सा परिवर्तन करना भी अच्‍छा नहीं लगा। उन्‍होंने कहा : ''इस मसौदे को जनरल स्‍मट्स ने अंतिम माना है। मैंने स्‍वयं भी इसे पसंद किया है। पर इतना मैं आपको विश्‍वास दिलाता हूँ कि यदि आप सब स्‍वेच्‍छा से परवाने ले लेंगे, तो खूनी कानून रद हुआ ही समझिए।''

मैंने उत्तर में कहा : ''समझौता हो या न हो, किंतु आपकी सहानुभूति और सहायता के लिए हम सदा ही आपके ऋणी रहेंगे। मैं मसौदे में एक भी अनावश्‍यक परिवर्तन नहीं कराना चाहता। जिस भाषा से सरकार की प्रतिष्‍ठा की रक्षा हो, उसका मैं विरोध नहीं करूँगा। परंतु जहाँ मुझे स्‍वयं अर्थ के बारे में शंका हो, वहाँ तो मुझे भाषा का परिवर्तन सुझाना ही चाहिए। और अंत में यदि समझौता होना ही हो, तो दोनों पक्षों को मसौदे में परिवर्तन करने का अधिकार अवश्‍य होना चाहिए। जनरल स्‍मट्स को ऐसा कहकर हमारे सामने पिस्‍तौल नहीं रखनी चाहिए कि 'समझौते का यह मसौदा अंतिम है।' खूनी कानून के रूप में एक पिस्‍तौल तो हम पर तनी ही हुई है; तब फिर इस दूसरी पिस्‍तौल का हम पर क्‍या असर होनेवाला है?''

श्री कार्टराइट मेरे इस तर्क का विरोध नहीं कर सके और उन्‍होंने मसौदे में मेरा सुझाया हुआ परिवर्तन जनरल स्‍मट्स के सामने रखने की बात स्‍वीकार की।

मैंने जेल के अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श किया। उन्‍हें भी मसौदे की भाषा पसंद नहीं आई। परंतु इस बात से वे सहमत हुए कि मेरा सुझाया हुआ परिवर्तन यदि जनरल स्‍मट्स स्‍वीकार करें, तो सरकार से समझौता कर लिया जाए। जो नए सत्‍याग्रही कैदी जेल में आए थे, वे मेरे लिए कौम के बाहरी नेताओं का यह संदेश लाए थे कि उचित समझौता होता हो, तो उनकी सम्मति की राह देखे बिना मैं समझौता कर लूँ। उस मसौदे पर मैंने श्री क्विन और थंबी नायडू के हस्‍ताक्षर कराए और हम तीनों के हस्‍ताक्षरोंवाला मसौदा श्री कार्टराइट को सौंप दिया।

दूसरे या तीसरे दिन, 30 जनवरी 1908 को, जोहानिसबर्ग के पुलिस सुपरिटेंडेंट श्री वर्नन मुझे जनरल स्‍मट्स से मिलने के लिए प्रिटोरिया ले गए। हम दोनों के बीच खूब बातें हुई। श्री कार्टराइट के साथ जनरल स्‍मट्स की जो बातचीत हुई थी वह भी उन्‍होंने मुझे कह सुनाई। मेरे जेल जाने के बाद भी हिंदुस्‍तानी कौम अपनी बात पर डटी रही, इसके लिए उन्‍होंने मुझे बधाई दी और कहा : ''मेरे मन में कभी आपके लोगों के लिए नाराजी या नफरत हो ही नहीं सकती। आप जानते ही हैं कि मैं भी बैरिस्‍टर हूँ। मेरे समय में कुछ हिंदुस्‍तानी भी मेरे साथ पढ़ते थे। मुझे केवल अपने कर्तव्‍य का पालन करना है। गोरे इस कानून की माँग करते हैं। और आप यह भी स्‍वीकार करेंगे कि इस कानून की माँग करनेवालों में मुख्‍यतः बोअर नहीं परंतु अँग्रेज हैं। आपने जो परिवर्तन मसौदे में सुझाया है, उसे मैं स्‍वीकार करता हूँ। मैंने जनरल बोथा के साथ भी इस विषय में बात कर ली है। और मैं आपको विश्‍वास दिलाता हूँ कि आप में से अधिकांश लोग यदि स्‍वेच्‍छा से परवाने ले लेंगे, तो मैं एशियाटिक एक्‍ट को रद कर दूँगा। स्‍वेच्‍छा से लिए हुए परवानों को कानूनी रूप देनेवाले कानून का मसौदा मैं तैयार करूँगा तब उसकी एक प्रति आपकी आलोचना के लिए भेजूँगा। मैं नहीं चाहता कि यह लड़ाई फिर छिड़े; और मैं आप लोगों की भावनाओं का आदर करना चाहता हूँ।''

इस प्रकार हमारी बातचीत होने के बाद जनरल स्‍मट्स उठे। मैंने उनसे पूछा : ''अब मुझे कहाँ जाना है? और मेरे साथ के दूसरे सत्‍याग्रही कैदियों को क्‍या होगा?''

तो जनरल स्‍मट्स हँसते हुए बोले : ''आप तो अभी से मुक्‍त हैं। और आपके साथियों को कल छोड़ देने का टेलीफोन मैं करता हूँ। लेकिन मेरी इतनी सलाह जरूर है कि आप लोग ज्‍यादा सभाएँ और प्रदर्शन न करें। आप ऐसा करेंगे तो उससे सरकार की स्थिति विषम हो जाएगी।''

मैंने उत्तर दिया : ''आप विश्‍वास रखें कि सिर्फ जलसे के लिए एक भी जलसा मैं नहीं होने दूँगा। लेकिन सरकार के साथ कैसे समझौता हुआ है, उसका स्‍वरूप क्‍या है और समझौता होने से हिंदुस्‍तानियों की जिम्‍मेदारी कितनी ज्‍यादा बढ़ गई है, ये सब बातें कौम के लोगों को समझाने के लिए सभाएँ तो मुझे करनी ही पड़ेंगी।''

जनरल स्‍मट्स ने कहा : ''ऐसी सभाएँ तो आप जितनी चाहें उतनी कर सकते हैं। मेरे आशय को आपने समझ लिया, इतना बस है।''

उस समय शाम के लगभग 7 बजे होंगे। मेरे पास एक पाई भी नहीं थी। जनरल स्‍मट्स के सचिव ने मुझे जोहानिसबर्ग जाने के लिए रेल-किराये के पैसे दिए। प्रिटोरिया के हिंदुस्‍तानियों के पास रुककर उनके समक्ष समझौते की घोषणा करना जरूरी नहीं था। कौम के नेता सब जोहानिसबर्ग में थे। हमारा केंद्रीय कार्यालय भी वहीं था। जोहानिसबर्ग जानेवाली एक ही ट्रेन बाकी थी; और मैं उसे पकड़ सका था।


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