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विमर्श

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
प्रथम खंड

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 22. समझौते का विरोध और मुझ पर हमला पीछे     आगे

रात करीब 9 बजे मैं जोहानिसबर्ग पहुँचा। सीधा अध्‍यक्ष सेठ ईसप मियाँ के घर गया। मुझे प्रिटोरिया ले जाने का पता उन्‍हें चल गया था, इसलिए शायद वे मेरी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। लेकिन मुझे अकेला आया देखकर सब लोगों को आश्‍चर्य और आनंद भी हुआ। मैंने सुझाया कि जितने भी लोगों को बुलाया जा सके उतनों को बुलाकर इसी समय एक सभा करनी चाहिए। ईसप मियाँ और दूसरे मित्रों को भी मेरा सुझाव पसंद आया। अधिकांश लोग एक ही मुहल्‍ले में रहनेवाले थे, इसलिए सबको सभा की सूचना करना कठिन नहीं था। अध्‍यक्ष का मकान मसजिद के पास ही था। और हमारी सभाएँ सामान्‍यतः मसजिद के मैदान में ही होती थीं। इसलिए सभा की कोई खास व्‍यवस्‍था करना जरूरी नहीं था। मंच पर केवल एक बत्ती प्रकाश के लिए रखना काफी था। रात के लगभग 11 या 12 बजे यह सभा हुई। समय बहुत थोड़ा था, फिर भी करीब एक हजार आदमी सभा में आ गए थे।

सभा से पहले कौम के जो नेता उपस्थित थे उन्‍हें मैंने समझौते की शर्तें समझाई थीं। कुछ नेताओं ने समझौते का विरोध किया। लेकिन मेरी सारी बातें सुनने के बाद सब लोग समझौते को समझ सके थे। परंतु एक शंका सबके मन में थी : ''जनरल स्‍मट्स अगर दगा करें तो क्‍या होगा? खूनी कानून अमल में भले न आए, लेकिन हमारे सिर पर वह तलवार की तरह लटकता तो रहेगा ही। इस बीच स्‍वेच्‍छा से परवाने लेकर अपने हाथ कटवा देने का अर्थ होगा हमारे पास उस कानून का विरोध करने के लिए जो एक महान शस्‍त्र है उसे स्‍वयं छोड़ देना! यह तो जान-बूझकर शत्रु के पंजे में फँसने जैसा होगा। सच्‍चा समझौता तो यह कहा जाएगा कि पहले खूनी कानून रद हो और बाद में हम स्‍वेच्‍छा से परवाने लें।'' यह दलील मुझे अच्‍छी लगी। दलील करनेवालों की तीक्ष्‍ण बुद्धि और हिम्‍मत के लिए मैंने गौरव अनुभव किया और मुझे लगा कि सत्‍याग्रही ऐसे ही होने चाहिए।

कौम के इन नेताओं की दलील के जवाब में मैंने कहा : ''आपकी दलील बहुत सुंदर है। उस पर गंभीर विचार किया जाना चाहिए। खूनी कानून रद होने के बाद ही हम स्‍वेच्‍छा से परवाने लें, इसके जैसी सुंदर बात और क्‍या हो सकती है? लेकिन इसे मैं समझौते का लक्षण नहीं मानूँगा। समझौते का अर्थ ही यह है कि जहाँ सिद्धांत के विषय में मतभेद न हो वहाँ दोनों पक्ष एक-दूसरे को काफी रिआयतें और छूट दें। हमारा सिद्धांत यह है कि हम खूनी कानून के सामने सिर झुकाकर उसके अनुसार तो ऐसा भी कोई काम न करें, जिसे करना आपत्तिजनक न हो। इस सिद्धांत पर हमें अटल और अचल रहना है। दूसरी ओर, सरकार का सिद्धांत यह है कि ट्रान्‍सवाल में हिंदुस्‍तानियों के नाजायज प्रवेश को रोकने के लिए परिचय की निशानियोंवाले ऐसे परवाने बहुसंख्‍यक हिंदुस्‍तानी स्‍वेच्‍छा से ले लें, जिनकी अदला-बदली न हो सके; और इस तरह गोरों की शंका को मिटा कर उन्‍हें निर्भय कर दें। सरकार इस सिद्धांत को कभी नहीं छोड़ सकती। सरकार के इस सिद्धांत को हमने आज तक अपने आचरण से स्‍वीकार भी किया है। इसलिए इस सिद्धांत का विरोध करने जैसा हमें लगे, तो भी जब तक कोई नए कारण पैदा नहीं होते तब तक हम उसके खिलाफ लड़ नहीं सकते। हमारी सत्‍याग्रह की लड़ाई इस सिद्धांत को काटने के लिए नहीं है, परंतु खूनी कानून के काले कलंक को मिटाने के लिए है। इसलिए अब यदि हम अपनी कौम में प्रकट हुए नए और प्रचंड बल का उपयोग कोई नई वस्‍तु प्राप्‍त करने में करें, तो उससे सत्‍याग्रहियों के नाते हमारे सत्‍य को कलंक लगेगा। अतः सच पूछा जाए तो हम इस समझौते का विरोध नहीं कर सकते।

अब हम इस दलील पर विचार करें कि खूनी कानून रद हो उसके पहले स्‍वेच्‍छा से परवाने लेकर हम अपने हाथ क्‍यों कटवा दें, शस्‍त्रहीन क्‍यों बन जाएँ? इसका उत्तर तो बहुत सीधा है। सत्‍याग्रही डर को सदा के लिए नमस्‍कार कर देता है। इसलिए वह विरोधी पर विश्‍वास करने में कभी नहीं डरता। बीस बार विश्‍वासघात किया गया हो तो भी सत्‍याग्रही इक्‍कीसवीं बार विरोधी पर विश्‍वास करने को तैयार रहता है; क्‍योंकि सत्‍याग्रही तो अपनी नाव विश्‍वास से ही चलाता है। और विरोधी पर विश्‍वास रखने से सत्‍याग्रही अपने हाथ कटवा देता है, यह कहना सत्‍याग्रह के सिद्धांत को न समझने के बराबर है।

मान लीजिए कि हम लोग स्‍वेच्‍छा से नए परवाने ले लेते हैं; और उसके बाद सरकार विश्‍वासघात करती है और खूनी कानून को रद नहीं करती। तो क्‍या उस समय हम सत्‍याग्रह नहीं कर सकेंगे? ऐसे परवाने ले लेने के बाद भी यदि हम उन्‍हें ठीक समय पर बताने से इनकार कर दें, तो उन परवानों की क्‍या कीमत रह जाएगी? और यदि हम ऐसा करें तो जो हजारों हिंदुस्‍तानी गुप्‍त रीति से ट्रान्‍सवाल में घुस जाएँ उनके बीच और हम लोगों के बीच सरकार भेद कैसे कर सकेगी? इसलिए कोई कानून हो या न हो, किसी भी स्थिति में सरकार हमारी सहायता और सहयोग के बिना हम पर कभी अंकुश नहीं रख सकती। कानून का अर्थ इतना ही है कि सरकार जो अंकुश हम पर लगाना चाहती है उसे हम स्‍वीकार न करें, तो हम सजा के पात्र माने जाते हैं। और सामान्‍यतः यह होता है कि सजा के डर से मानव प्राणी अंकुश के वश में हो जाता है। परंतु सत्‍याग्रही इस सामान्‍य नियम का उल्‍लंघन करता है। यदि वह अंकुश के अधीन होता भी है तो कानून की सजा के डर से नहीं, परंतु यह समझ कर स्‍वेच्‍छा से ऐसा करता है कि सरकारी अंकुश को मानने में लोककल्‍याण है। और यही स्थिति आज हमारी इन नए परवानों के बारे में है। इस स्थिति को सरकार बड़े से बड़ा विश्‍वासघात करके भी बदल नहीं सकती। इस स्थिति को उत्‍पन्‍न करनेवाले हम लोग हैं और इसे बदल भी हमीं सकते हैं। जब तक हमारे हाथों में सत्‍याग्रह का हथियार है तब तक हम स्‍वतंत्र और निर्भय हैं।

और यदि कोई मुझ से यह कहे कि आज कौम में जो बल आया है वह फिर से आनेवाला नहीं है, तो मैं उसे यह उत्तर दूँगा कि वह सत्‍याग्रह को नहीं समझता। उसके कहने का अर्थ तो यह होगा कि आज कौम के लोगों में जो बल प्रकट हुआ है वह सच्‍चा नहीं है, बल्कि नशे जैसा झूठा और क्षणिक है। यदि यह बात सच हो, तो हम जीतने के बिलकुल अधिकारी नहीं हैं। और यदि जीतेंगे तो हम जीती हुई बाजी भी हार जाएँगे। मान लीजिए कि सरकार खूनी कानून को रद कर देती है और उसके बाद हम स्‍वेच्‍छा से परवाने लेते हैं। यह भी मान लीजिए कि उसके बाद सरकार वही खूनी कानून दुबारा पास करती है और हिंदुस्‍तानियों को परवाने लेने के लिए मजबूर करती है। तो उस समय सरकार को ऐसा करने से कौन रोक सकता है? और यदि आज हमें अपने बल के बारे में शंका हो, तो उस समय भी हमारी ऐसी ही दुर्दशा होगी। इसलिए चाहे जिस दृष्टि से हम इस समझौते की जाँच करें, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ऐसा समझौता करने में हमारी कौम को कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि लाभ ही होगा। मैं तो यह भी मानता हूँ कि हमारी नम्रता और न्‍यायबुद्धि को समझने के बाद हमारे विरोधी भी अपना विरोध छोड़ देंगे अथवा उसे कम कर देंगे।''

इस प्रकार उस छोटे से दल में जिन एक-दो व्‍यक्तियों ने समझौते का विरोध किया, उनके मन का तो मैं पूरी तरह समाधान कर सका। लेकिन जो तूफान मध्‍य रात्रि की बड़ी सभा में फूटनेवाला था, उसकी तो मैंने स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना नहीं की थी। सभा में आए हुए लोगों को मैंने समझौते की सारी शर्तें समझाईं और कहा :

''इस समझौते से कौम की जिम्‍मेदारी बहुत अधिक बढ़ गई है। हम धोखे से या गलत ढंग से एक भी हिंदुस्‍तानी को ट्रान्‍सवाल में दाखिल नहीं करना चाहते, यह दिखाने के लिए हमें स्‍वेच्‍छा से परवाने लेने होंगे। अगर कोई आदमी परवाना न ले, तो अभी तो उसे कोई सजा भी नहीं होगी। लेकिन परवाने न लेने का अर्थ यही होगा कि कौम समझौते को स्‍वीकार नहीं करती। बेशक, यह जरूरी है कि आप लोग इस समय सभा में अपने हाथ ऊँचे करके इस समझौते का स्‍वागत करें। मैं यह चाहता भी हूँ। परंतु इसका अर्थ यही होगा, और मैं यही करूँगा, कि सभा में हाथ ऊँचे करनेवाले सब लोग नए परवाने देने की व्‍यवस्‍था होते ही परवाने लेने लग जाएँगे। और आज तक जिस प्रकार आप में से अनेक लोग परवाना न लेने की बात समझाने के लिए स्‍वयं सेवक बने थे, उसी प्रकार अब परवाना लेने की बात समझाने के लिए स्‍वयंसेवक बनेंगे। जब अपना कर्तव्‍य हम पूरा कर चुकेंगे, तभी हम इस जीत का फल वास्‍तव में भोग सकेंगे।''

ज्यों ही मैंने अपना भाषण पूरा किया, एक पठान मित्र (मीरआलम) खड़े हुए और उन्‍होंने मुझ पर प्रश्‍नों की झड़ी लगा दी : ''क्‍या इस समझौते के अनुसार हमें दस अँगुलियों की छाप देनी पड़ेगी?''

''हाँ भी और नहीं भी। मेरी सलाह तो यही होगी कि सब लोगों को दस अँगुलियों की छाप देनी चाहिए। लेकिन जिनका इस बात से धार्मिक विरोध हो या जो अँगुलियों की छाप देने में अपना अपमान मानते हों, वे छाप न दें तो भी चलेगा।''

''आप खुद क्‍या करेंगे?''

''मैंने तो दस अँगुलियों की छाप देने का निश्‍चय कर ही लिया है। मैं छाप न दूँ और दूसरों को छाप देने की सलाह दूँ, यह मुझ से कभी नहीं हो सकता।''

''आप दस अँगुलियों की छाप के बारे में बहुत लिखते थे। अँगुलियों की ऐसी छाप तो केवल गुनहगारों से ही ली जाती है, ऐसा सिखानेवाले भी आप ही थे। और कौम की यह लड़ाई दस अँगुलियों की छाप की लड़ाई है, यह बात भी आपने ही कही थी। वह सब आज कहाँ चला गया?''

''मैंने दस अँगुलियों की छाप के बारे में पहले जो जो बातें लिखी थीं उन्‍हें आज भी मैं वैसी ही मानता हूँ। मैं आज भी यह कहता हूँ कि दस अँगुलियों की छाप हिंदुस्‍तान में गुनहगार जातियों से ही ली जाती है। खूनी कानून के मातहत दस अँगुलियों की छाप देना तो दूर रहा, परंतु दस्‍तखत देने में भी पाप है - ऐसा मैंने पहले भी कहा है और आज भी कहता हूँ। यह बात भी सच है कि दस अँगुलियों की छाप पर मैंने बहुत ज्‍यादा जोर दिया था; और मेरा विश्‍वास है कि वह जोर देने में भी मैंने बुद्धिमानी की थी। खूनी कानून की जिन छोटी छोटी बातों पर हम आज तक अमल करते आए हैं, उन पर जोर देकर कौम को समझाने के बजाय दस अँगुलियों की छाप जैसी महत्वपूर्ण और नई बात पर जोर देना ज्‍यादा आसान था। और मैंने देखा कि कौम इस बात को तुरंत समझ गई।

लेकिन आज की परिस्थितियाँ दूसरी हैं। जो बात कल तक एक अपराध थी वह आज की नई और बदली हुई परिस्थितियों में सज्‍जनता अथवा कुलीनता की निशानी बन गई है, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ। अगर आप मुझे सलाम करने के लिए मजबूर करें और मैं आपको सलाम करूँ, तो मैं आपकी, लोगों की और खुद अपनी नजर में भी गिर जाऊँगा। लेकिन अगर मैं आपको अपना भाई या मनुष्‍य मानकर स्‍वेच्‍छा से सलाम करूँ, तो उससे मेरी नम्रता और कुलीनता प्रकट होगी और खुदा के दरबार में भी वह मेरी नेकी ही मानी जाएगी। इसी दलील के आधार पर मैं कौम को दस अँगुलियों की छाप देने की सलाह देता हूँ।''

''हमने सुना है कि आपने कौम को धोखा दिया है और 15000 पौंड लेकर कौम को जनरल स्‍मट्स के हाथों बेच दिया है। न तो हम कभी दस अँगुलियों की छाप देंगे और न दूसरे किसी को कभी देने देंगे। मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि जो आदमी एशियाटिक ऑफिस में सबसे पहले जाएगा, उसे मैं जान से मार दूँगा।''

मैंने कहा : ''पठान मित्रों की भावनाओं को मैं समझ सकता हूँ। मेरा विश्‍वास है कि कौम का एक भी आदमी इस बात को नहीं मानेगा कि मैं रिश्‍वत खाकर कौम को बेच सकता हूँ। यह बात मैं पहले ही समझा चुका हूँ कि जिन लोगों ने दस अँगुलियों की छाप न देने की सौगंध खाई है, उन्‍हें कोई छाप देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। और जो पठान या दूसरे लोग अँगुलियों की छाप दिए बिना परवाना लेना चाहेंगे, उन्‍हें ऐसे परवाने दिलाने में मैं पूरी पूरी मदद करूँगा। मैं इस बात का विश्‍वास दिलाता हूँ कि दस अँगुलियों की छाप दिए बिना वे ऐच्छिक परवाने ले सकेंगे।

लेकिन मुझे यह स्‍वीकार करना चाहिए कि जान से मार डालने की धमकी मुझे पसंद नहीं है। मैं यह भी मानता हूँ कि किसी को मार डालने की कसम खुदा के नाम पर नहीं खाई जा सकती। इसलिए मैं तो यही समझूँगा कि इन मित्र ने गुस्‍से के क्षणिक आवेश में आकर ही जान से मार डालने की कसम खाई है। लेकिन वे मित्र अपनी कसम पर अमल करें या न करें, फिर भी यह समझौता करनेवाले एक मुख्‍य व्‍यक्ति के नाते और कौम के सेवक के नाते मेरा यह स्‍पष्‍ट कर्तव्‍य है कि अँगुलियों की छाप सबसे पहले मैं ही दूँ। और मैं ईश्‍वर से प्रार्थना करूँगा कि वह मुझे ही सबसे पहले यह काम करने दे। मरना तो सबके नसीब में लिखा ही है। रोग से मरने या ऐसे अन्‍य किसी कारण से मरने की अपेक्षा अपने किसी भाई के हाथों मरने में मुझे दुख हो ही नहीं सकता। और यदि उस समय भी मैं जरा क्रोध न करूँ या मारनेवाले से द्वेष न करूँ, तो मैं जानता हूँ कि मेरा तो भविष्‍य ही सुधरेगा; और मुझे मारनेवाला भी बाद में समझ लेगा कि मैं बिलकुल निर्दोष था।''

उपर्युक्‍त प्रश्‍न मुझसे क्‍यों किए गए, इसका कारण समझाना जरूरी है। जो हिंदुस्‍तानी खूनी कानून के वश हो गए थे उनके प्रति किसी तरह का वैरभाव तो नहीं रखा गया था, परंतु उनके इस काम के खिलाफ स्‍पष्‍ट और कड़े शब्दों में बहुत कुछ कहा गया था और 'इंडियन ओपीनियन' में खूब लिखा गया था। इससे कानून के वश हो जानेवालों का जीवन दुखद अवश्‍य हो गया था। उन्‍होंने कभी यह सोचा ही नहीं था कि कौम का बहुत बड़ा भाग अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग खड़ा रहेगा और इस हद तक शक्ति दिखाएगा कि अंत में सरकार के साथ समझौता होने का भी दिन आएगा। परंतु जब 150 से अधिक सत्‍याग्रही जेल चले गए और सरकार तथा कौम के नेताओं के बीच समझौते की बातें चलने लगीं, त‍ब कानून के वश हो जानेवाले लोगों को और भी बुरा लगा; और उनमें कुछ ऐसे भी थे जो यह नहीं चाहते थे कि समझौता हो और यदि हो ही जाए तो उसे तोड़ने की भी वृत्ति रखते थे।

ट्रान्‍सवाल में रहनेवाले पठानों की संख्‍या बहुत थोड़ी थी। मेरा खयाल है कि सब मिलाकर वे 50 से ज्‍यादा नहीं रहे होंगे। उनमें से अनेक पठान बोअर-युद्ध के समय सैनिकों के रूप में आए थे। और जिस प्रकार युद्ध के समय आए हुए अनेक गोरे सैनिक दक्षिण अफ्रीका में ही बस गए थे, उसी प्रकार सैनिकों के रूप में आए हुए पठान और अन्‍य हिंदुस्‍तानी भी वहीं बस गए थे। इन पठानों में से कुछ मेरे मुवक्किल हो गए थे और दूसरी तरह भी मैं उनसे भली-भाँति परिचित हो गया था। पठान स्‍वभाव से बहुत ही भोले होते हैं; बहादुर तो वे होते ही हैं। मारना और मरना - यह उनकी नजर में बहुत मामूली बात है। और अगर उन्‍हें किसी पर गुस्‍सा आ जाए तो वे उसे पीटते हैं - उनकी अपनी भाषा में उसकी पीठ गरम करते हैं - और कभी कभी तो जान से भी मार देते हैं। और, ऐसा करने में वे बिलकुल निष्‍पक्ष रहते हैं। सगे भाई के साथ भी वे ऐसा ही बरताव करते हैं। ट्रान्‍सवाल में पठानों का समाज इतना छोटा था, फिर भी जब उनके बीच झगड़ा हो जाता था तब वे आपस में मार-पीट करते ही थे। ऐसे मार-पीट के मामलों में कभी कभी दोनों पक्षों के बीच मुझे शांति कायम करानी पड़ती थी। उसमें भी जब कोई पठान किसी दूसरे पठान के साथ विश्‍वासघात करता, उस समय तो वे अपने गुस्‍से को काबू में रख ही नहीं पाते थे। तब न्‍याय पाने के लिए एकमात्र मार-पीट ही उनका कानून बन जाती थी।

ये पठान कौम की सत्‍याग्रह की लड़ाई में पूरा पूरा भाग लेते थे। उनमें से एक भी पठान खूनी कानून के सामने झुका नहीं था। उन्‍हें भुलावे में डालना आसान था। दस अँगुलियों की छाप के बारे में उन लोगों में गलतफहमी पैदा करके उन्‍हें उभाड़ना जरा भी कठिन नहीं था। अगर मैंने रिश्‍वत न खाई हो, तो मैं दस अँगुलियों की छाप देने की बात उनसे क्‍यों कहूँ? - इतना-सा संकेत उन पठानों में शंका पैदा करने के लिए काफी था।

इसके सिवा, एक दूसरा पक्ष भी ट्रान्‍सवाल में था। वह पक्ष ऐसे हिंदुस्‍तानियों का था, जो परवाना लिए बिना गुप्‍त रीति से ट्रान्‍सवाल में घुस आए थे अथवा जो गुप्‍त रीति से परवानों के बिना या झूठे परवानों के साथ हिंदुस्‍तानियों को ट्रान्‍सवाल में दाखिल कराते थे। इस पक्ष का स्‍वार्थ इसी में था कि सरकार के साथ कौम का समझौता न हो। जब तक कौम की लड़ाई जारी रहती तब तक किसी को परवाना दिखाने की जरूरत नहीं थी, इसलिए यह पक्ष निर्भय बनकर अपना गंदा व्‍यापार चला सकता था और कौम की लड़ाई जारी रहे तब तक जेल में जाने से भी आसानी से बच सकता था। इस कारण से लड़ाई जितनी लंबी चले उतना ही इस पक्ष के लोगों का लाभ था। इस प्रकार ये लोग भी पठानों को समझौते के खिलाफ भड़का सकते थे। अब पाठक समझ सकेंगे कि ये पठान एकाएक क्‍यों भड़क उठे थे।

परंतु मध्‍यरात्रि के इन व्‍यंग्यपूर्ण प्रश्‍नों का सभा पर कोई असर नहीं हुआ। मैंने समझौते के बारे में लोगों का मत माँगा था। अध्‍यक्ष और दूसरे नेता दृढ़ थे। पठानों के साथ हुए मेरे संवाद के बाद अध्‍यक्ष ने समझौते की शर्तें समझानेवाला और उसे स्‍वीकार करने की आवश्‍यकता बतानेवाला अपना भाषण किया। इसके बाद उन्‍होंने सभा का मत लिया। जो दो चार पठान उस समय सभा में हाजिर थे, उनके सिवा सभी ने एकमत से समझौते को स्‍वीकार कर लिया। मैं दो या तीन बजे रात को घर पहुँचा। सोने का तो प्रश्‍न ही नहीं था, क्‍यों‍कि मुझे जल्‍दी उठकर दूसरे लोगों को छुड़वाने के लिए जेल पर जाना था। सुबह 7 बजे मैं वहाँ पहुँच गया। जेल-सुपरिटेंडेंट को टेलीफोन से हुक्‍म मिल गया था और वे मेरी राह ही देख रहे थे। एक घंटे के भीतर सारे सत्‍याग्रही कैदी रिहा कर दिए गए। अध्‍यक्ष और दूसरे हिंदुस्‍तानी उन सबको लिवाने आए थे। जेल से हमारा जुलूस पैदल ही सभास्‍थान पर गया। वहाँ फिर सभा हुई। व‍ह दिन और दूसरे दो-चार दिन भोजन-समारंभों में और लोगों को समझौते की शर्त समझाने में बीते।

जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे वैसे एक ओर यदि समझौते के गूढ़ार्थ स्‍पष्‍ट से स्‍पष्‍टतर होते गए, तो दूसरी ओर गलतफहमी भी बढ़ती गई। उत्तेजना के कारणों की चर्चा तो हम ऊपर कर ही चुके हैं। उनके सिवा जनरल स्‍मट्स को कौम की ओर से लिखे गए पत्र में भी गलतफहमी का कारण मौजूद ही था। इसलिए लोगों द्वारा अनेक तरह की जो आपत्तियाँ उठाई जाती थीं उन्‍हें दूर करने में मुझे जितनी कठिनाई हुई, वह सत्‍याग्रह की लड़ाई के दिनों में अनुभव की हुई कठिनाई से कहीं ज्‍यादा बड़ी थी। लड़ाई के समय हम जिसे अपना विरोधी या शत्रु मानते हैं, उसके साथ के हमारे व्‍यवहार में कठिनाइयाँ खड़ी होती हैं। लेकिन मेरा अनुभव यह है कि ऐसी कठिनाइयाँ आसानी से दूर की जा सकती हैं। उस समय आपस के झगड़े, अविश्‍वास, फूट आदि या तो होते ही नहीं, या तुलना में बहुत मामूली होते हैं। लेकिन लड़ाई खतम होने के बाद आपसी विरोध, अविश्‍वास, ईर्ष्‍या-द्वेष आदि - जो सामने खड़े संकट के कारण दबे हुए रहते हैं - बाहर आते हैं; और यदि लड़ाई का अंत समझौते से हुआ हो तब तो उसमें दोष निकालने का काम हमेशा आसान होने से अनेक लोग इस काम को अपने हाथ में ले लेते हैं। और जहाँ संगठन लोकतंत्रात्‍मक होता है वहाँ छोटे-बड़े सब लोगों के प्रश्‍नों का उत्तर देना होता है और उन्‍हें संतोष दिलाना होता है। यही पद्धति सच्‍ची है। मनुष्‍य जितना अनुभव ऐसे समय - अर्थात मित्रों के बीच पैदा होनेवाली गलतफहमी या झगड़ों के समय - प्राप्‍त कर सकता है, उतना विरोधी पक्ष के साथ लड़ी जानेवाली लड़ाई में नहीं प्राप्‍त कर सकता। विरोधी से लड़ी जानेवाली लड़ाई में एक प्रकार का नशा रहता है और इसलिए लड़नेवालों में उत्‍साह और उल्‍लास बना रहता है। लेकिन जब मित्रों के बीच गलतफहमी या विरोध उत्‍पन्‍न होता है तब वह असामान्‍य घटना मानी जाती है और सदा दुखद ही होती है। फिर भी मनुष्‍य की परीक्षा ऐसे ही समय होती है। मेरा यह सदा का अनुभव है, और मुझे यह लगता है कि ऐसे ही समय मैं ऊँची से ऊँची आध्‍यात्मिक संपत्ति प्राप्‍त कर सका हूँ। जो लोग लड़ते समय सत्‍याग्रह की लड़ाई का शुद्ध स्‍वरूप समझ नहीं सके थे, वे समझौते के दिनों में और समझौते के बाद उसके शुद्ध स्‍वरूप को अच्‍छी तरह समझ गए। सच्‍चा और गंभीर विरोध पठानों तक ही सीमित रहा, उनसे आगे नहीं बढ़ा।

ऐसा करते करते दो-तीन माह में एशियाटिक ऑफिस ऐच्छिक परवाने देने के लिए तैयार हो गया। परवानों का रूप पूरी तरह बदल गया था। उनका नया रूप तैयार करते समय सत्‍याग्रह-मंडल के साथ सलाह मशविरा किया गया था।

ता. 10-2-1908 के सवेरे हम में से कुछ लोग परवाने लेने के लिए एशियाटिक ऑफिस में जाने को तैयार हो गए। कौम के लोगों को अच्‍छी तरह समझा दिया गया था कि परवाने लेने का काम यथासंभव जल्‍दी से जल्‍दी पूरा कर देना चाहिए। और सलाह-मशविरे के बाद यह बात भी तय हो गई थी कि पहले दिन कौम के नेता ही सबसे पहले परवाने लेने जाएँगे। इसके पीछे उद्देश्‍य लोगों का संकोच दूर करना, एशियाटिक विभाग के अधिकारी अपना काम शिष्‍टता से करते हैं या नहीं यह जानना और अन्‍य प्रकार से उस काम की सारी व्‍यवस्‍था पर देखरेख रखना था। मेरा ऑफिस सत्‍याग्रह-मंडल का भी ऑफिस था। वहाँ पहुँचते ही मैंने ऑफिस की दीवाल के बाहर मीरआलम और उसके साथियों को खड़ा देखा।

मीरआलम मेरा पुराना मुवक्किल था। अपने हर काम में वह मेरी सलाह लेता था। अनेक पठान ट्रान्‍सवाल में घास के या नारियल के रेशों के गद्दे मजदूरों से बनवाते थे और फिर अच्‍छा मुनाफा लेकर उनहें बेचते थे। मीरआलम भी यही धंधा करता था। उसकी ऊँचाई 6 फुट से अधिक थी। वह कद्दावर और दोहरे शरीर का आदमी था। आज पहली ही बार मैंने मीरआलम को ऑफिस के अंदर न देखकर बाहर खड़ा देखा और हम दोनों की आँखें मिलने पर भी उसने पहली ही बार मुझे सलाम नहीं किया। लेकिन मैंने उसे सलाम किया, इसलिए उसने भी मुझे सलाम किया। अपनी आदत के अनुसार मैंने उससे पूछा : ''कैसे हो?'' मेरा ऐसा खयाल है कि उसने जवाब में कहा था : ''अच्‍छा हूँ।'' परंतु आज उसके चेहरे पर हमेशा की मुसकान नहीं थी। मैंने देखा कि उसकी आँखों में गुस्‍सा भरा है। यह बात मैंने मन में लिख ली। मुझे यह भी लगा कि आज कुछ न कुछ होनेवाला है। मैंने ऑफिस में प्रवेश किया। अध्‍यक्ष ईसप मियाँ और दूसरे मित्र भी आ पहुँचे और हम एशियाटिक ऑफिस की ओर चल पड़े। मीरआलम और उसके साथी भी हमारे पीछे पीछे आए।

एशियाटिक ऑफिस की इमारत वॉन ब्रेन्डिस स्‍क्‍वेअर में थी। मेरे ऑफिस से उसकी दूरी एक मील से कम थी। वहाँ जाने के लिए हमें मुख्‍य सड़कों पर से गुजरना पड़ा। वॉन ब्रेन्डिस स्‍ट्रीट में चलते चलते हमने मेसर्स आरनॉट और गिब्‍सन की सीमा छोड़ी। वहाँ से एशियाटिक ऑफिस तीनेक मिनट के फासले पर रहा होगा कि मीरआलम मेरी बगल में आ गया। उसने मुझसे पूछा : ''कहाँ जाते हो?'' मैंने उत्तर दिया : ''मैं दस अँगुलियों की छाप देकर रजिस्‍टर (परवाना) निकलवाना चाहता हूँ। अगर तुम भी चलोगे तो तुम्‍हें दस अँगुलियों की छाप देने की जरूरत नहीं है। तुम्‍हारा परवाना (सिर्फ दो अँगूठों की छाप के साथ) पहले निकलवाने के बाद मैं अँगुलियों की छाप देकर अपना निकलवाऊँगा।''

अंतिम वाक्‍य मैंने मुश्किल से पूरा किया होगा कि मेरी खोपड़ी पर पीछे से लाठी का एक बार हुआ। मैं 'हे राम' बोलते-बोलते बेहोश होकर जमीन पर लुढ़क गया। बाद में क्‍या हुआ, इसका मुझे कोई भान नहीं था। लेकिन मीरआलम ने और उसके साथियों ने मुझ पर लाठियों के अधिक वार किए और लातें थी मारीं। उनमें से कुछ ईसप मियाँ और थंबी नायडू ने झेलीं। इस कारण से ईसप मियाँ और थंबी नायडू पर भी थोड़ी मार पड़ी। इतने में शोरगुल मचा। आने-जानेवाले गोरे इकट्ठे हो गए। मीरआलम और उसके साथी भागे, लेकिन गोरों ने उन्‍हें पकड़ लिया। इस बीच पुलिस भी आ पहुँची। उसने पठानों को हिरासत में ले लिया।

पास ही श्री जे.सी. गिब्‍सन का ऑफिस था। मुझे उठाकर वहाँ ले जाया गया। कुछ देर बाद मुझे होश आया तब मैंने रेवरेंड डोक को अपने चेहरे पर झुके हुए देखा। उन्‍होंने मुझ से पूछा : ''आपको कैसा लगता है?''

मैंने हँसकर जवाब दिया : ''अब ठीक हूँ। लेकिन मेरे दांतों में और पसलियों में दर्द होता है।'' फिर मैंने पूछा : ''मीरआलम कहाँ है?''

बोले : ''उसे और उसके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।

मैंने कहा : ''वे छूटने चाहिए।''

डोक : ''वह सब तो होता रहेगा। लेकिन आप यहाँ एक अपरिचित के ऑफिस में पड़े हैं। आपका होंठ फट गया है। पुलिस आपको अस्‍पताल ले जाने को तैयार है। लेकिन अगर आप मेरे यहाँ चलें तो मैं और श्रीमती डोक आपकी यथाशक्ति सार-सँभाल करेंगे।''

मैंने कहा : ''मुझे आपके ही घर ले चलिए। पुलिस के प्रस्‍ताव के लिए उसे धन्‍यवाद दीजिए। लेकिन उससे कहिए कि मुझे आपके यहाँ जाना ज्‍यादा पसंद है।''

इतने में एशियाटिक विभाग के अधिकारी श्री चमनी भी आ पहुँचे। मुझे एक गाड़ी में लिटा कर भले पादरी श्री डोक के स्मिट स्‍ट्रीट स्थित निवास-स्‍थान पर ले जाया गया। मेरी जाँच के लिए एक डॉक्‍टर को बुलाया गया। इस बीच मैंने श्री चमनी से कहा : ''मेरी आशा तो यह था कि आपके ऑफिस में आकर और दस अँगुलियों की छाप देकर पहला परवाना मैं लूँगा। लेकिन ईश्‍वर को यह स्‍वीकार नहीं था। अब मेरी आप से प्रार्थना है कि आप इसी समय जाकर जरूरी कागजात ले आइए और पहला परवाना मुझे दीजिए। मैं आशा रखता हूँ कि मेरे पहले आप दूसरे किसी को परवाना नहीं देंगे।''

उन्‍होंने कहा : ''ऐसी क्‍या जल्‍दी है? अभी डॉक्‍टर आएगा। आप आराम करें। बाद में सब कुछ हो जाएगा। दूसरों को परवाना दूँगा तो भी आपका नाम सबसे पहला रखूँगा।''

मैं बोला : ''ऐसा नहीं। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि यदि मैं जिंदा रहूँ और ईश्‍वर को मंजूर हो, तो सबसे पहले मैं ही परवाना लूँगा। इसीलिए मेरा आग्रह है कि आप कागजात ले आइए।''

इस पर श्री चमनी कागजात लाने के लिए ऑफिस गए।

दूसरा काम एटर्नी-जनरल अर्थात सरकारी वकील को यह तार करना था कि ''मीरआलम और उसके साथियों ने मुझ पर जो हमला किया, उसके लिए मैं उन लोगों को दोषी मानता ही नहीं। जो भी हो, लेकिन मैं नहीं चाहता कि उन पर फौजदारी मुकदमा चले। मैं आशा करता हूँ कि मेरे खातिर आप उन्‍हें छोड़ देंगे।'' इस तार के उत्तर में मीरआलम और उसके साथियों को छोड़ दिया गया।

लेकिन जोहानिसबर्ग के गोरों ने एटर्नी-जनरल को इस आशय का एक कड़ा पत्र लिखा : ''अपराधी को सजा देने के बारे में गांधी के चाहे जो विचार हों, लेकिन इस देश में उन पर अमल नहीं किया जा सकता। गांधी को जो मार पड़ी है उसके बारे में वे भले ही कुछ न करें, लेकिन हमला करनेवाले लोगों ने यह मार उन्‍हें किसी निजी मकान में नहीं मारी है। यह अपराध पठानों ने आम रास्‍ते पर किया है। इसलिए यह एक सार्वजनिक अपराध माना जाएगा। कुछ अँग्रेज भी इस अपराध की गवाही देने की स्थिति में हैं। अपराधियों को पकड़ना ही चाहिए।'' इस आंदोलन के कारण एटर्नी-जनरल ने फिर मीरआलम और उसके एक साथी को गिरफ्तार कर लिया और उन्‍हें तीन तीन महीने की कड़ी कैद की सजा दी। केवल मुझे गवाह के रूप में नहीं बुलाया गया।

लेकिन हम बीमार के कमरे की ओर लौटें। श्री चमनी कागजात लेने गए इतने में डॉ. थ्‍वेट्स आ पहुँचे। उन्‍होंने मेरी जाँच की। मेरा ऊपर का होंठ फट गया था। एक गाल में भी घाव हो गया था। इसलिए टाँके लगा कर डॉक्‍टर ने दोनों को जोड़ दिया। पसलियों की जाँच करके उन पर लगाने की दवा दी; और जहाँ तक वे टाँके न तोड़ें वहाँ तक बोलने की मनाही कर दी। भोजन में तरल पदार्थों के सिवा दूसरा कुछ खाने की मनाही कर दी। डॉक्‍टर का निदान यह था कि मुझे शरीर के किसी भी हिस्‍से में गंभीर चोट नहीं लगी है। एक ही हफ्ते में मैं बिस्‍तर छोड़ सकूँगा और साधारण कामकाज कर सकूँगा; केवल इतना ध्‍यान रखना होगा कि दो-एक माह तक शरीर पर काम का बहुत बोझ न पड़े - इतना कहकर डॉक्‍टर चले गए।

इस प्रकार मेरा बोलना बंद हो गया, परंतु मेरे हाथ चल सकते थे। अध्‍यक्ष के द्वारा कौम के लोगों को संबोधित करते हुए मैंने एक छोटा-सा गुजराती पत्र लिखकर छपने के लिए भेज दिया। पत्र इस प्रकार था :

''मेरी तबीयत अच्‍छी है। श्री डोक और श्रीमती डोक हृदय का सारा प्रेम उँड़ेल कर मेरी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं। मैं कुछ ही दिनों में अपना काम सँभाल लूँगा। जिन लोगों ने मुझे मारा है, उन पर मेरे मन में जरा भी गुस्‍सा नहीं है। उन्‍होंने बेसमझी से यह काम किया है। उन पर मुकदमा चलाने की कोई जरूरत नहीं। अगर दूसरे लोग शांत रहेंगे, तो इस घटना से भी हमें लाभ ही होगा।

''हिंदुओं को चाहिए कि वे मन में जरा भी रोष न रखें। मैं चाहता हूँ कि इस घटना से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खटास पैदा होने के बदले मिठास पैदा हो। खुदा से - ईश्‍वर से मैं यही याचना करता हूँ।

''मुझ पर मार जरूर पड़ी; लेकिन इससे ज्‍यादा मार पड़े, तो भी मैं एक ही सलाह आपको दूँगा। वह यह कि लगभग सभी हिंदुस्‍तानियों को दस अँगुलियों की छाप देनी चाहिए। ऐसा करने में जिन्‍हें सचमुच धार्मिक आपत्ति हो, उन्‍हें सरकार छूट देगी। इसी में कौम का और गरीबों का भला तथा उनकी रक्षा समाई हुई है।

''यदि हम सच्‍चे सत्‍याग्रही होंगे, तो मार के या भविष्‍य में होनेवाले विश्‍वासघात के डर से घबराएँगे नहीं। जो लोग दस अँगुलियों की छाप न देने की बात को पकड़े हुए हैं, उन्‍हें मैं अज्ञानी मानता हूँ।

''मैं ईश्‍वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह कौम का भला करे, उसे सत्‍य के मार्ग पर लगाए और हिंदुओं तथा मुसलमानों के दिलों को मेरे खून की पट्टी से जोड़ दे।''

श्री चमनी कागजात लेकर आए। बड़ी कठिनाई से और जैसे-तैसे मैंने अपनी दस अँगुलियों की छाप उन्‍हें दी। उस समय मैंने उनकी आँखों में आँसू देखे। उनके खिलाफ मुझे अकसर कड़ी बातें लिखनी पड़ती थीं। लेकिन इस घटना से मेरे सामने इस बात का प्रत्‍यक्ष चित्र खड़ा हुआ कि मौका आने पर मानव का हृदय कितना कोमल बन सकता है।

पाठक आसानी से कल्‍पना कर सकते हैं कि यह विधि पूरी करने में कुछ मिनट से ज्‍यादा समय नहीं लगा होगा। श्री डोक और उनकी भली पत्‍नी मुझे पूर्ण शांत और स्‍वस्‍थ देखने के लिए अत्यंत उत्‍सुक थे। हमले से घायल होने के बाद मेरे मानसिक कार्य को देखकर दोनों को दुख होता था। उन्‍हें भय था कि इसका बुरा असर कहीं मेरी तबीयत पर न पड़े। इसलिए संकेत देकर और दूसरी तरकीबें काम में लेकर वे सब लोगों को मेरे पलंग से दूर हटा ले गए और मुझे लिखने की या और कुछ करने की मनाही कर दी। मैंने उनसे विनती की (और लिखकर की) कि मैं बिलकुल शांति से सो जाऊँ इससे पहले, और इसके लिए, उनकी लड़की ऑलिव - जो उस समय छोटी बालिका ही थी - मुझे अपना प्रिय अँग्रेजी भजन 'लीड, काइंड्ली लाइट' गाकर सुनाए। श्री डोक को मेरी यह विनती बहुत पसंद आई। यह बात अपने मधुर हास्‍य द्वारा उन्‍होंने मुझे समझा दी और ऑलिव को इशारे से बुलाकर दरवाजे के बाहर खड़े खड़े धीमे स्‍वर में वह भजन गाने के लिए कहा। यह लिखाते समय वह संपूर्ण दृश्‍य मेरी आँखों के सामने तैर रहा है और ऑलिव के दिव्‍य स्‍वर की गूँज अभी भी मेरे कानों में गूँज रही है।

इस प्रकरण में मैं ऐसी बहुत सी बातें लिख गया हूँ, जिन्‍हें मैं स्‍वयं और पाठक भी मेरे विषय के साथ असंगत मानेंगे। फिर भी एक और संस्‍मरण जोड़े बिना मैं यह प्रकरण पूरा नहीं कर सकता। उस काल के सारे ही संस्‍मरण मेरी दृष्टि में इतने अधिक पवित्र हैं कि उन्‍हें मैं छोड़ ही नहीं सकता। डोक-परिवार की सेवा-शुश्रूषा का वर्णन मैं किन शब्दों में करूँ?

श्री जोसेफ डोक बैप्टिस्‍ट संप्रदाय के पादरी थे। उस समय उनकी उमर 46 वर्ष की थी। दक्षिण अफ्रीका आने से पहले वे न्‍यूजीलैंड में रहते थे। मुझ पर पठानों का हमला हुआ उसके कोई छह महीने पहले वे मेरे ऑफिस में आए और मेरे पास अपना नाम भिजवाया। उसमें 'रेवरेंड' विशेषण का उपयोग किया गया था। उसके आधार पर मैंने यह गलत कल्‍पना कर ली कि जिस तरह कुछ पादरी मुझे ईसाई बनाने के लिए अथवा सत्‍याग्रह की लड़ाई बंद करने की बात समझाने के लिए अथवा आश्रयदाता बन कर कौम की लड़ाई के साथ सहानुभूति बताने के लिए आते थे, उसी प्रकार डोक भी आए होंगे। लेकिन डोक भीतर आए और हम दोनों की बातचीत कुछ ही मिनट चली कि मैं अपनी भूल को समझ गया और मैंने मन ही मन उनसे क्षमा माँगी। उसी दिन से हम दोनों घनिष्‍ठ मित्र बन गए। कौम की लड़ाई के बारे में अखबारों में जो भी बातें छपती थीं उन सबसे मैंने उन्‍हें परिचित पाया। उन्‍होंने कहा : ''आप इस लड़ाई में मुझे अपना मित्र ही समझिए। मुझसे जो भी सेवा बन पड़ेगी वह मैं अपना धर्म समझ कर करना चाहता हूँ। ईसा मसीह के जीवन का चिंतन करके यदि मैंने कुछ सीखा है, तो यही कि दुखियों के दुख में मनुष्‍य को हिस्‍सा लेना चाहिए।'' इस प्रकार हमारा परिचय हुआ और हमारे बीच का स्‍नेह और घनिष्‍ठता दिनों दिन बढ़ती ही गई।

आगे चल कर पाठक इस इतिहास में डोक का नाम अनेक स्‍थानों पर देखेंगे। लेकिन डोक-परिवार ने मेरी जो सेवा-शुश्रूषा की, उसका वर्णन करने से पहले श्री डोक का इतना परिचय देना आवश्‍यक था। रात और दिन परिवार का कोई न कोई सदस्‍य मेरे पास हाजिर ही रहता था। जितने समय मैं उनके घर में रहा उतने समय तक वह घर धर्मशाला बना रहा! हिंदुस्‍तानी कौम में फेरी लगानेवाले आदमी मजदूरों जैसे कपड़े पहनते थे, जो मैले भी काफी होते थे; उनके जूतों पर धूल की परत चढ़ी रहती थी; और उनकी माल की गठरी या टोकरी भी उनके साथ ही होती थी। ऐसे हिंदुस्‍तानियों से लेकर ट्रान्‍सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के अध्‍यक्ष जैसे लोगों तक का श्री डोक के घर में ताँता बँधा रहता था। सब तरह के लोग वहाँ मेरे हालचाल पूछने और डॉक्‍टर की इजाजत के बाद मुझसे मिलने आते थे। श्री डोक सभी को समान आदर और समान प्रेम से अपने दीवानखाने में बैठाते थे। जब तक मैं डोक परिवार के साथ रहा तब तक उनका सारा समय मेरी सेवा-शुश्रूषा में और मुझे देखने आनेवाले सैकड़ों लोगों के आदर-सत्‍कार में ही व्‍यतीत होता रहा। रात में भी दो तीन बार डोक चुपचाप मेरे कमरे में आकर मुझ पर एक नजर डाल जाते थे। उनके घर में रहते हुए मुझे किसी भी दिन ऐसा खयाल न आया कि यह मेरा घर नहीं है या मेरे प्रिय से प्रिय जन भी डोक-परिवार से मेरी अधिक सार-सँभाल करते।

पाठक यह भी न मानें कि हिंदुस्‍तानी कौम की लड़ाई का इतने खुले रूप में समर्थन करने के लिए या मुझे अपने घर में रखने के लिए डोक को कोई मुसीबत न उठानी पड़ी। वे अपने बैप्टिस्‍ट संप्रदाय के गोरों के लिए एक गिरजाघर चलाते थे। उनकी जीविका इसी संप्रदाय के लोगों द्वारा चलती थी। उस संप्रदाय के सभी अनुयायी उदार थे, ऐसा नहीं मानना चाहिए। हिंदुस्‍तानियों के लिए सामान्‍य अरुचि तो उनके मन में भी थी ही। लेकिन डोक ने इसकी बिलकुल परवाह नहीं की। हमारे परिचय के आरंभ में ही मैंने इस नाजुक विषय की चर्चा उनके साथ की थी। उनका उत्तर यहाँ देने जैसा है। उन्‍होंने कहा था : ''मेरे प्रिय मित्र, ईसा के धर्म को आप कैसा मानते हैं? मैं उस महापुरुष का अनुयायी हूँ, जो अपने धर्म के पालन के लिए - सूली पर चढ़ा था और जिसका प्रेम इस विश्‍व जैसा ही विशाल था। जिन गोरों के बारे में आपको डर है कि वे मेरा त्‍याग कर देंगे, उनके सामने यदि मैं ईसा का प्रतिनिधित्‍व करने की थोड़ी भी अभिलाषा रखता हूँ, तो हिंदुस्‍तानी कौम की लड़ाई में मुझे सार्वजनिक रूप में भाग लेना ही चाहिए; और ऐसा करने से मेरा मंडल यदि मुझे त्‍याग दे, तो मुझे जरा भी दुखी नहीं होना चाहिए। यह सच है कि मेरी जीविका उनके द्वारा चलती है। लेकिन आप ऐसा तो नहीं मानेंगे कि जीविका के खातिर मैं उनसे संबंध रखता हूँ अथवा वे मेरी रोजी के देनेवाले हैं। मेरी रोजी तो मुझे ईश्‍वर देता है। वे केवल उसके निमित्त मात्र हैं। उनके साथ मेरे संबंध की बिना कहे समझ ली गई शर्त यह है कि उनमें से कोई मेरी धार्मिक स्‍वतंत्रता में बाधक बन ही नहीं सकता। इसलिए आप मेरे विषय में जरा भी चिंता न करें। मैं कोई हिंदुस्‍तानियों पर मेहरबानी करने के लिए इस लड़ाई में शरीक नहीं हुआ हूँ। इसे अपना धर्म मान कर मैं इसमें शरीक हुआ हूँ। लेकिन सत्‍य यह है कि अपने डीन (गिरजे के मुखिया) के साथ इस विषय में मैंने स्‍पष्‍ट बात कर ली है। मैंने उन्‍हें नम्रता से कह दिया है कि यदि हिंदुस्‍तानी कौम के साथ मेरा संबंध उन्‍हें पसंद न हो, तो वे बिना किसी संकोच के मुझे नौकरी से अलग कर सकते हैं और दूसरा पादरी (मिनिस्‍टर) रख सकते हैं। परंतु डीन ने मुझे इस विषय में बिलकुल निश्चिंत कर दिया है; इतना ही नहीं, मुझे प्रोत्‍साहन दिया है। इसके सिवा, आपको यह भी नहीं समझना चाहिए कि सभी गोरे हिंदुस्‍तानी कौम के लोगों को एक सी तिरस्‍कार की नजर से देखते हैं। आपको इस बात की कल्‍पना नहीं हो सकती कि परोक्ष रूप में अनेक गोरे आपके दुखों के प्रति कितनी सहानुभूति रखते हैं; परंतु मुझे इसका अनुभव होना चाहिए, यह आप स्‍वीकार करेंगे।''

इतनी स्‍पष्‍ट बातचीत होने के बाद दुबारा मैंने यह विषय डोक के सामने कभी नहीं छेड़ा। और बाद में जब कौम की लड़ाई चल रही थी उसी बीच डोक अपना धर्म कार्य करते करते रोडेशिया में देवलोक सिधारे, उस समय उनके संप्रदाय के अनुयायियों ने अपने गिरजे में एक सभा की थी; उस सभा में स्‍व. काछलिया के साथ मुझे और दूसरे कई हिंदुस्‍तानियों को बुलाया गया था और उसमें भाषण करने का निमंत्रण मुझे भी मिला था।

लगभग 10 दिन में मैं अच्‍छी तरह घूमने-फिरने लगा। इस स्थिति में पहुँचने के बाद मैंने इस ममतालु परिवार से बिदा ली। हम दोनों के लिए यह वियोग दुखद सिद्ध हुआ था।


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