1.
हिंदुस्तानी जनता की स्थिति पर विचार करते हुए पिछले प्रकरणों में हम कुछ हद
तक यह देख चुके हैं कि हिंदुस्तानियों ने अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों का कैसे
सामना किया? परंतु सत्याग्रह की उत्पत्ति की कल्पना अच्छी तरह कराने के लिए इस
संबंध में एक अलग प्रकरण देना जरूरी है कि हिंदुस्तानी जनता की सुरक्षा के लिए
क्या-क्या प्रयत्न किए गए?
सन 1893 तक दक्षिण अफ्रीका में ऐसे स्वतंत्र हिंदुस्तानियों की संख्या बहुत कम
थी, जो काफी शिक्षित कहे जा सकें और हिंदुस्तानी जनता के हितों के लिए लड़
सकें। अँग्रेजी जानने वाले हिंदुस्तानियों में मुख्यतः क्लर्क थे। वे अपने
धंधे की जरूरतें पूरी करने लायक अँग्रेजी जानते थे, परंतु अरजियाँ तैयार नहीं
कर सकते थे। इसके सिवा, उन्हें अपना सारा समय अपने मालिकों को देना पड़ता था।
अँग्रेजी की शिक्षा पाया हुआ दूसरा वर्ग ऐसे हिंदुस्तानियों का था, जो दक्षिण
अफ्रीका में ही पैदा हुए थे। ये अधिकतर गिरमिटियों की संतान थे। और इनमें से
बड़ी संख्या के लोग थोड़ी भी योग्यता प्राप्त कर लेने पर कानूनी अदालतों में
दुभाषियों के रूप में सरकारी नौकरी कर लेते थे। इसलिए वे हिंदुस्तानियों के
हितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के सिवा और कुछ नहीं कर सकते थे। यही
उनकी बड़ी से बड़ी सेवा थी।
इसके अलावा, गिरमिटिया मजदूरों और गिरमिट-मुक्त मजदूरों का वर्ग मुख्यतः उत्तर
प्रदेश और मद्रास राज्य से वहाँ आया था। हम यह भी देख चुके हैं कि स्वतंत्र
हिंदुस्तानियों में गुजरात के मुख्यतः मुसलमान व्यापारी और हिंदू मुनीम या
मेहता थे। इनके सिवा कुछ पारसी व्यापारी और क्लर्क भी थे। परंतु सारे दक्षिण
अफ्रीका में पारसियों की संख्या संभवतः तीस या चालीस से ऊपर नहीं थी। स्वतंत्र
व्यापारियों के वर्ग में एक चौथा दल सिंधी व्यापारियों का था। समूचे दक्षिण
अफ्रीका में दो सौ या इससे कुछ अधिक सिंधी होंगे। ऐसा कहा जा सकता है कि
हिंदुस्तान के बाहर वे जहाँ-जहाँ जाकर बसे हैं वहाँ-वहाँ उनका व्यापार एक ही
प्रकार का होता है। वे 'फैंसी गुड्स' के व्यापारियों के नाते पहचाने जाते हैं।
'फैंसी गुड्स' में वे लोग खासतौर पर रेशम, जरी वगैरा का सामान, बंबई की
नक्काशीवाली सीसम, चंदन और हाथीदाँत की तरह-तरह की पेटियाँ और ऐसा ही दूसरा
घरेलू सामान बेचते हैं। और उनके ग्राहक प्रायः गोरे लोग ही होते हैं।
गिरमिटिया मजदूरों को गोरे लोग 'कुली' के नाम से ही पुकारते थे। कुली का अर्थ
है बोझ ढोने वाला मजदूर। यह नाम दक्षिण अफ्रीका में इतना प्रचलित हो गया है कि
गिरमिटिया खुद भी अपने को 'कुली' कहने में नहीं हिचकिचाते! बाद में तो यह नाम
सारे ही हिंदुस्तानियों के लिए चल पड़ा। सैकड़ों गोरे हिंदुस्तानी वकील और
हिंदुस्तानी व्यापारी को क्रम से 'कुली' वकील और 'कुली' व्यापारी कहते थे!
कुछ गोरे तो ऐसा मानते या समझते ही नहीं थे कि इस विशेषण का प्रयोग करने में
कोई दोष है। और बहुत से गोरे केवल तिरस्कार प्रकट करने के लिए ही 'कुली' शब्द
का प्रयोग करते थे। इसलिए स्वतंत्र हिंदुस्तानी अपने को गिरमिटियों से अलग
मनवाने का प्रयत्न करते थे। ऐसे कारणों से और हम हिंदुस्तान से ही अपने साथ
जिन्हें ले जाते हैं उन कारणों से स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के वर्ग तथा
गिरमिटिया और गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों के वर्ग के बीच दक्षिण अफ्रीका में
एक भेद खड़ा हो रहा था।
दुख के इस समुद्र को रोकने का कार्य स्वतंत्र हिंदुस्तानी वर्ग ने और मुख्यतः
मुसलमान व्यापारियों ने अपने हाथ में लिया था। परंतु गिरमिटिया मजदूरों या
गिरमिट-मुक्त मजदूरों का सीधा सहयोग लेने का प्रयत्न जान-बूझकर ही नहीं किया
गया; ऐसा प्रयत्न करने की बात उस समय किसी को संभवतः सूझी भी नहीं थी। सूझती
भी तो इस वर्ग को शामिल करने से काम बिगड़ने का भय बना रहता। इसके सिवा, माना
यह गया था कि मुख्य आक्रमण तो स्वतंत्र हिंदुस्तानी व्यापारी वर्ग पर ही हो
रहा है, इसलिए सुरक्षा के प्रयत्न ने ऐसा संकुचित रूप धारण कर लिया था। इस तरह
की मुसीबतें होने पर भी, अँग्रेजी का ज्ञान न होने पर भी और हिंदुस्तान में
सार्वजनिक कार्य का कोई अनुभव न होने पर भी यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्र
हिंदुस्तानियों का यह वर्ग अपने दुखों के सामने अच्छी तरह जूझा। उन्होंने गोरे
वकील-बैरिस्टरों की सहायता ली, अरजियाँ तैयार करवाई और भेजीं, कभी-कभी शासकों
के पास शिष्ट-मंडल भी भेजे और जहाँ-जहाँ संभव हुआ और उन्हें सूझा वहाँ-वहाँ
अन्याय का विरोध किया। यह स्थिति 1893 तक रही।
इस पुस्तक को समझने के लिए पाठकों को कुछ खास तारीखें याद रखनी होंगी। पुस्तक
के अंत में मुख्य-मुख्य घटनाएँ उनकी तारीखों के साथ परिशिष्ट में दी गई हैं।
उसे समय-समय पर पाठक देखते रहेंगे, तो सत्याग्रह की लड़ाई का स्वरूप और रहस्य
समझने में उन्हें सहायता मिलेगी। सन 1893 तक ऑरेंज फ्री स्टेट में हमारी हस्ती
मिट चुकी थी। ट्रांसवाल में 1885 के कानून नंबर 3 पर अमल हो रहा था। नेटाल में
ऐसे कदम उठाने के बारे में सोचा जा रहा था, जिनके परिणाम-स्वरूप केवल
गिरमिटिया मजदूर ही उपनिवेश में रह सकें और बाकी के हिंदुस्तानियों को निकाला
जा सके; और यह ध्येय पूरा करने के लिए उत्तरदाई शासन की सत्ता प्राप्त कर ली
गई थी।
अप्रैल 1893 में मैंने दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए हिंदुस्तान छोड़ा था। मुझे
गिरमिटियों के इतिहास का कोई ज्ञान नहीं था। मैं केवल स्वार्थ बुद्धि से ही
वहाँ गया था। डरबन में पोरबंदर के मेमनों की दादा अब्दुल्ला के नाम पर चल रही
एक प्रसिद्ध पेढ़ी थीं। उतनी ही प्रसिद्ध पेढ़ी उनके प्रतिस्पर्धी और पोरबंदर
के मेमन तैयब हाजी खान महमद की प्रिटोरिया में थी। दुर्भाग्य से इन
प्रतिस्पर्धियों के बीच एक बड़ा मुकदमा चल रहा था। दादा अब्दुल्ला के साझेदार
ने, जो पोरबंदर में था, यह सोचा कि मेरे जैसा नया बैरिस्टर भी दक्षिण अफ्रीका
चला जाए तो उनके मुकदमे में कुछ अधिक सुविधा हो जाएगी। उन्हें इस बात का कोई
डर नहीं था कि मेरे जैसा सर्वथा अनभिज्ञ और नौसिखुआ वकील उनका मुकदमा बिगाड़
देगा। कारण यह था कि मुझे कोई अदालत में जाकर उनका मुकदमा नहीं लड़ना था। मुझे
तो उनके नियुक्त किए हुए धुरंधर वकीलों और बैरिस्टरों को समझाने का काम यानी
दुभाषिए का काम ही करना था। मुझे नए-नए अनुभव प्राप्त करने का शौक था। यात्रा
भी मुझे पसंद थी। बैरिस्टर के नाते मेरे पास मुकदमे लाने वाले दलालों को कमीशन
देना मुझे जहर की तरह लगता था। काठियावाड़ (सौराष्ट्र) की खटपटों और
षड्यंत्रों से मैं अकुला उठा था। और एक ही वर्ष के इकरार पर मुझे दक्षिण
अफ्रीका जाना था। मैंने सोचा कि इस इकरार को स्वीकार करने में मुझे कोई कठिनाई
नहीं है। और इसमें खोना तो मुझे कुछ था ही नहीं; क्योंकि मेरे जाने-आने और
वहाँ रहने का सारा खर्च दादा अब्दुल्ला ही देने वाले थे। ऊपर से 105 पौंड की
मेरी फीस भी वे देने वाले थे। यह सारी बात मेरे स्वर्गीय बड़े भाई के मारफत
हुई थी; वे मेरे लिए पिता के समान थे। उनकी सुविधा मेरी भी सुविधा थी। उन्हें
मेरे दक्षिण अफ्रीका जाने की बात पसंद आई। इसलिए मैं मई 1893 में डरबन जा
पहुँचा।
बैरिस्टर के ठाटबाट का तो पूछना ही क्या? अपनी मान्यता के अनुसार फ्रॉक-कोट,
नेकटाई, वगैरा पोशाक पहनकर बड़ी शान से मैं जहाज से डरबन बंदरगाह पर उतरा।
परंतु उतरते ही मेरी आँखें कुछ खुल गईं। दादा अब्दुल्ला के जिन साझेदार से
पोरबंदर में मेरी बात हुई थी, उन्होंने नेटाल का जो वर्णन किया था उससे बिलकुल
उलटा ही दृश्य वहाँ मेरे देखने में आया। इसमें उनका कोई दोष नहीं था। इसके
पीछे उनका भोलापन, उनकी सादगी और वास्तविक परिस्थितियों का उनका अज्ञान था।
नेटाल में हिंदुस्तानियों को जो कष्ट भोगने पड़ते थे, उनकी कोई कल्पना उन्हें
नहीं थी। और गोरों का जो व्यहार तीव्र अपमानों से भरा था, वह उन्हें अपमानजनक
नहीं लगता था। मैंने तो पहले ही दिन यह देख लिया कि हमारे लोगों के साथ गोरों
का व्यवहार बहुत ही अशिष्ट और अपमानपूर्ण है।
नेटाल में उतरने के बाद पंद्रह दिनों में ही अदालतों में मुझे जो कड़वा अनुभव
हुआ, ट्रेन में जो मुसीबतें उठानी पड़ी, रास्ते में जो मार खानी पड़ी, होटलों
में ठहरने की जगह पाने में जो तकलीफें सहनी पड़ीं - होटलों में जगह पाना लगभग
असंभव था - उन सबके वर्णन में मैं यहाँ नहीं जाऊँगा। इतना ही कहूँगा कि वे सब
अनुभव मेरी रग-रग में समा गए थे। मैं तो केवल एक ही मुकदमे के लिए वहाँ गया
था। उसमें मेरी दृष्टि स्वार्थ और कुतूहल की थी। इसलिए उस एक वर्ष में तो मैं
ऐसे दुखों का केवल साक्षी और अनुभव करने वाला ही रहा। मेरे कर्तव्य का आरंभ
वहीं से हुआ। मैंने देखा कि स्वार्थ की दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका मेरे लिए कोई
महत्व नहीं रखता। जहाँ अपमान और तिरस्कार हो वहाँ पैसे कमाने या मुसाफिरी करने
का मुझे जरा भी लोभ नहीं था, बल्कि ऐसा करना मुझे बिलकुल नापसंद था। मैं
धर्म-संकट में पड़ गया। मेरे समक्ष दो मार्ग खुले थे। एक मार्ग था : जिन
परिस्थितियों का ज्ञान मुझे हिंदुस्तान में नहीं हो सका था उनका ज्ञान दक्षिण
अफ्रीका में होने के कारण सेठ दादा अब्दुल्ला के साथ हुए इकरार से मुक्त होकर
हिंदुस्तान लौट जाना। दूसरा था : चाहे जैसी मुसीबतें सह कर भी हाथ में लिया
हुआ काम पूरा करना। कड़ाके की सरदी में मैरित्सबर्ग स्टेशन पर रेलवे पुलिस के
धक्के खाकर, मुसाफिरी रोककर और रेल से उतर कर मैं वेटिंग-रूप में बैठा था।
मेरा सामान कहाँ है, इसका पता मुझे नहीं था। किसी से पूछने की मेरी हिम्मत
नहीं होती थी। कहीं फिर अपमान हो तो? कहीं फिर मार खानी पड़े तो? ऐसी स्थिति
में सरदी से काँपते-काँपते नींद तो आती ही कैसे? मन विचारों के चक्र पर घूमने
लगा। सोचते सोचते बहुत रात बीते मैंने यह निश्चय किया कि - ''यहाँ से भाग जाना
कायरता होगी। हाथ में लिया हुआ अपना काम मुझे पूरा करना ही चाहिए। व्यक्तिगत
अपमान सहकर और मार खानी पड़े तो मार खाकर भी मुझे प्रिटोरिया पहुँचना ही
चाहिए।'' प्रिटोरिया मेरे लिए केंद्र स्थान था; वह मेरा लक्ष्य था। वहीं दादा
अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ा जा रहा था। अपना काम करते हुए हिंदुस्तानियों के दुख
दूर करने के लिए कोई उपाय मैं कर सकूँ तो मुझे करने चाहिए। इस निश्चय के बाद
मुझे कुछ शांति मिली, मेरे भीतर कुछ शक्ति भी आई। परंतु मैं सो नहीं पाया।
सवेरा होते ही मैंने दादा अब्दुल्ला की पेढ़ी को और रेलवे के जनरल मैनेजर को
तार किया। दोनों स्थानों से मुझे जवाब मिले। दादा अब्दुल्ला ने और उस समय
नेटाल में रहने वाले उनके साझेदार सेठ अब्दुल्ला हाजी आदम झवेरी ने सख्त कदम
उठाए। उन्होंने अलग अलग स्थानों पर अपने हिंदुस्तानी दलालों को मेरी देखभाल
रखने के बारे में तार कर दिए। वे जनरल मैनेजर से भी मिले। स्थानीय दलाल को किए
गए तार के फलस्वरूप मैरित्सेबर्ग के हिंदुस्तानी व्यापारी मुझसे मिले।
उन्होंने मुझे हिम्मत बँधाई और कहा कि आपके जैसे कड़वे अनुभव हम सबको हुए हैं।
परंतु हम ऐसे अनुभवों के आदी हो गए हैं, इसलिए हम इनकी परवाह नहीं करते।
व्यापार करना और भावुक मन रखना - दोनों बातें साथ-साथ कैसे चल सकती हैं? इसलिए
पैसे के साथ अपमान हो तो उस अपमान को भी पेटी में जमा करने का सिद्धांत हमने
स्वीकार कर लिया है! उसी स्टेशन पर मुख्य द्वार से हिंदुस्तानियों के आने की
मनाही, टिकट मिलने में होने वाली कठिनाई वगैरा का वर्णन भी इन व्यापारियों ने
मेरे सामने किया। उस रात जो ट्रेन आई उससे मैं प्रिटोरिया के लिए रवाना हुआ।
मेरा किया हुआ निश्चय सच्चा है या झूठा, इसकी अंतर्यामी प्रभु ने पूरी पूरी
परीक्षा की। प्रिटोरिया पहुँचते ही मुझे अधिक अपमान और अधिक मार सहन करनी
पड़ी। लेकिन इन सबने केवल मुझे अपने निश्चय में दृढ़ ही बनाया।
इस प्रकार 1893 में मुझे अनायास दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की दुखद
स्थिति का भलीभाँति अनुभव हुआ। मौका मिलने पर मैं प्रिटोरिया के
हिंदुस्तानियों से इस बारे में बातचीत करता था, सारी स्थिति उन्हें समझाता था।
परंतु इससे ज्यादा मैंने कुछ नहीं किया। मुझे लगा कि दादा अब्दुल्ला के मुकदमे
का ध्यान रखना और दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों के दुख दूर कराने का
प्रयत्न करना - ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते। मैंने समझ लिया कि दोनों
कार्य साथ-साथ करने का अर्थ होगा दोनों को बिगाड़ना। यह सब करते-करते 1894 का
साल आ गया; मुकदमा भी पूरा हो गया। मैं डरबन लौट आया। मैंने हिंदुस्तान जाने
की तैयारी की। दादा अब्दुल्ला ने मेरी बिदाई के अवसर पर एक समारोह भी किया।
वहाँ किसी ने 'नेटाल मर्क्युरी' मेरे हाथ में रखा। उस अखबार में नेटाल की
धारासभा की कार्रवाई की जो विस्तृत रिपोर्ट छपी थी, उसमें 'हिंदुस्तानियों का
मताधिकार' - इंडियन फ्रेन्चाइज - शीर्षक के नीचे मैंने कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं।
स्थानीय सरकार हिंदुस्तानियों को धारा सभा के सदस्य चुनने के मताधिकार से
वंचित करने वाला एक बिल तुरंत ही पेश करने जा रही थी। मैंने समझ लिया कि यह
हिंदुस्तानियों के सारे अधिकार छीन लेने की बुनियाद है। धारा सभा के भाषणों
में ही सरकार का यह इरादा स्पष्ट दिखाई पड़ता था। समारोह में आए हुए सेठों और
दूसरे लोगों के सामने मैंने वह रिपोर्ट पढ़कर सुनाई और यथाशक्ति उसका अर्थ
उन्हें समझाया। इस संबंध में सारे तथ्य तो मैं जानता नहीं था। मैंने सुझाया कि
इस आक्रमण का सामना करने के लिए हिंदुस्तानियों को जबरदस्त लड़ाई छेड़नी
चाहिए। उन्होंने मेरी बात मान ली। परंतु ऐसी लड़ाई लड़ने की अपनी अशक्ति दिखाई
और मुझसे वहीं रहने का आग्रह किया। मैंने यह लड़ाई लड़ने तक अर्थात एक-दो
महीने तक नेटाल में रुकना कबूल किया। उसी रात धारा सभा में भेजने के लिए एक
अरजी मैंने तैयार की। सरकार को एक तार इस आशय का किया कि बिल के अधिक वाचन की
कार्रवाई मुलतवी रखी जाए। तुरंत एक कमेटी नियुक्त की गई। सेठ अब्दुल्ला हाजी
आदम कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए। ऊपर का तार उन्हीं के नाम से भेजा गया। बिल का
अगला वाचन दो दिन तक मुलतवी रहा। वह अरजी दक्षिण अफ्रीका की धारा सभाओं में
नेटाल की धारा सभा में भेजी गई हिंदुस्तानियों की सर्व-प्रथम अरजी थी। उसका
काफी असर हुआ। परंतु बिल धारा सभा में पास हो गया। उसका अंत क्या हुआ, यह मैं
चौथे प्रकरण में बता चुका हूँ। दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों का इस तरह की
लड़ाई लड़ने का यह पहला अनुभव था, इसलिए उनमें खूब उत्साह पैदा हुआ। प्रतिदिन
सभाएँ होती थीं। दिनोंदिन अधिक लोग उनमें सम्मिलित होते थे। इस कार्य के लिए
जितना धन जरूरी था उससे अधिक धन एकत्र हुआ था। नकलें करने, हस्ताक्षर लेने
वगैरा के काम में मदद करने के लिए अनेक स्वयं सेवक मिल गए, जो बिना पैसा लिए
और अपना पैसा खर्च करके भी काम करते थे। इस लड़ाई में गिरमिट-मुक्त
हिंदुस्तानियों की प्रजा भी उत्साह और उमंग से शामिल हुई थी। ये सब अँग्रेजी
जानने वाले और सुंदर अक्षर लिखने वाले नौजवान थे। उन्हों ने रात-दिन की परवाह
किए बिना नकलें करने का और दूसरा काम बड़े उत्साह से किया। एक माह के भीतर तो
10000 हस्ताक्षरों वाली अरजी लॉर्ड रिपन को भेजी गई; और मेरा तात्कालिक कार्य
पूरा हुआ।
अब मैंने घर लौटने के लिए सबसे बिदा माँगी। लेकिन इस लड़ाई ने हिंदुस्तानियों
में इतना गहरा रस पैदा कर दिया था कि वे मुझे आने ही नहीं देते थे। उन्होंने
कहा - ''आप ही हमें समझाते हैं कि यह नेटाल सरकार का यहाँ हमारा जड़मूल से अंत
करने का पहला कदम है। कौन जाने विलायत से हमारी अरजी पर उपनिवेश-मंत्री का
क्या उत्तर आता है? हमारा उत्साह तो आप देख चुके हैं। काम करने के लिए हम
तैयार हैं - हमारी ऐसी इच्छा भी है। हमारे पास पैसा भी है। लेकिन हमारा कोई
मार्गदर्शक नहीं होगा, तो इतना किया-कराया भी बेकार हो जाएगा। इसलिए हम मानते
हैं कि यहाँ रहना आपका धर्म है।'' मुझे भी लगा कि हिंदुस्तानियों के हितों की
रक्षा के लिए कोई स्थायी संस्था खड़ी हो जाए तो अच्छा रहे। लेकिन मैं कहाँ
रहूँ और कैसे रहूँ? उन लोगों ने मुझे वेतन देने की बात सुझाई, परंतु वेतन लेने
से मैंने साफ इनकार कर दिया। सार्वजनिक कार्य बड़े-बड़े वेतन लेकर नहीं किया
जा सकता। उस पर मैं तो इस आंदोलन की बुनियाद डालने वाला था। उस समय के अपने
विचारों के अनुसार मैंने सोचा कि मुझे ऐसी तड़क-भड़क और शान-शौकत से रहना
चाहिए, जो एक बैरिस्टर को शोभा दे और हिंदुस्तानी कौम की प्रतिष्ठा को बढ़ाए।
किंतु उसका मतलब होता भारी खर्च। एक ओर हिंदुस्तानियों की सेवा करने वाली
संस्था के कार्य के लिए लोगों पर दबाव डालकर उनसे पैसे निकलवाना तथा संस्था की
प्रवृत्तियाँ बढ़ाना और दूसरी ओर मेरी आजीविका के लिए उस संस्था पर निर्भर
रहना - यह दो परस्पर विरोधी बातों का संगम हुआ माना जाता। ऐसा करने से मेरी
काम करने की शक्ति भी घटती। इस कारण से और ऐसे ही दूसरे कारणों से सार्वजनिक
सेवा के लिए पैसा - वेतन - लेने से मैंने साफ इनकार कर दिया। परंतु मैंने
उन्हें यह सुझाया - ''यदि आप में से प्रमुख व्यापारी अपनी वकालत करने का काम
मुझे सौंपें और उसके लिए पेशगी 'रिटेनर' (वकील-फीस) दें, तो मैं यहाँ रहने को
तैयार हूँ। आपको एक वर्ष का 'रिटेनर' पेशगी देना चाहिए। हम एक वर्ष तक परस्पर
अनुभव करें, अपने काम का लेखा-जोखा निकालें और फिर ठीक लगे तो आगे भी इसी तरह
काम चलाएँ।'' मेरे इस सुझाव का सब लोगों ने स्वागत किया।
मैंने नेटाल की सुप्रीम कोर्ट में वकालत की सनद लेने की अरजी पेश की। नेटाल की
लॉ सोसायटी अर्थात वकील-मंडल ने मेरी अरजी का विरोध किया। उसकी एकमात्र दलील
यह थी कि नेटाल के कानून के अर्थ के अनुसार काले या गेहुँए रंग के लोगों को
वकालत की सनद किसी भी हालत में नहीं दी जा सकती। मेरी अरजी की हिमायत नेटाल के
प्रसिद्ध वकील स्व. श्री एस्कंब ने की, जो एटर्नी-जनरल थे और बाद में नेटाल के
प्रधानमंत्री रहे थे। लंबे समय से वहाँ यह प्रथा चली आ रही थी कि वकील-मंडल का
प्रमुख बैरिस्टर कोई फीस लिए बिना वकालत की सनद की अरजियाँ कोर्ट के सामने पेश
करे। इस प्रथा के अनुसार श्री एस्कंब ने मेरी अरजी की हिमायत करना स्वीकार
किया। वे दादा अब्दुल्ला के बड़े वकील भी थे। वकील मंडल की दलील सीनियर कोर्ट
ने रद्द कर दी और मेरी अरजी स्वीकार की। इस प्रकार वकील-मंडल का विरोध, उसके न
चाहने पर भी, दूसरी बार मेरी प्रसिद्धि का कारण बन गया। दक्षिण अफ्रीका के
अखबारों ने नेटाल के वकील-मंडल का मजाक उड़ाया और कुछ अखबारों ने मुझे बधाई भी
दी।
सेठ अब्दुल्ला हाजी आदम की अध्यक्षता में जो अस्थायी कमेटी नियुक्त की गई थी,
उसे अब स्थायी रूप दे दिया गया। मैंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक भी
अधिवेशन में भाग नहीं लिया था, परंतु उसके बारे में पढ़ा जरूर था। हिंद के
दादा, दादाभाई नौरोजी, के दर्शन मैंने किए थे; मैं उनकी पूजा करता था। इसलिए
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का भक्त तो मैं था ही। इस कांग्रेस के नाम को
लोकप्रिय बनाने की वृत्ति भी मेरे मन में थी। मेरे जैसा अनुभवहीन नौजवान नया
नाम तो क्या खोजता! गलती करने का भारी डर भी मन में सदा बना रहता था। इसलिए
मैंने स्थायी कमेटी को यह सलाह दी कि वह अपना नाम 'नेटाल इंडियन कांग्रेस'
रखे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस संबंध अपना अधूरा ज्ञान मैंने अधूरे रूप में
नेटाल के हिंदुस्तानियों के सामने रखा। आखिर 1894 के मई या जून मास में नेटाल
इंडियन कांग्रेस की स्थापना हुई। भारतीय कांग्रेस और नेटाल कांग्रेस में यह
भेद था कि नेटाल कांग्रेस वर्ष में पूरे 365 दिन काम करती थी। इसके सदस्य वे
ही लोग हो सकते थे, जो वर्ष में कम से कम 3 पौंड का चंदा दे सकते थे। अधिक से
अधिक रकम तो दाता जो भी दे वह स्वीकार की जाती थी। अधिक रकम लेने का आग्रह भी
खूब रखा जाता था। पाँच-सात सदस्य तो वर्ष के 24 पौंड देने वाले भी निकल आए। 12
पौंड देने वालों की संख्या काफी थी। एक महीने में नेटाल कांग्रेस के करीब 300
सदस्य बन गए थे। उनमें हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्म के और सभी
प्रांतों के - अर्थात जिन-जिन प्रांतों के लोग नेटाल में थे उनमें से सब
प्रांतों के - लोग थे। पहले वर्ष तो बड़े जोश से काम चला। बड़े-बड़े व्यापारी
अपनी सवारियों में बैठकर दूर-दूर के गाँवों में नए सदस्य बनाने और चंदा वसूल
करने के लिए पहुँच जाते थे। माँगते ही सब लोग अपना चंदा दे नहीं देते थे।
उन्हें समझाना पड़ता था। इस तरह लोगों को समझाने में एक प्रकार की राजनीतिक
तालीम मिलती थी और लोग परिस्थितियों से परिचित हो जाते थे। इसके सिवा, महीने
में एक बार तो नेटाल कांग्रेस की बैठक होती ही थी। उसमें उस माह का पाई-पाई का
हिसाब सुनाया जाता था और सदस्य उसे मंजूर करते थे। उस माह में हुई सारी घटनाएँ
भी सुनाई जाती थीं और उन्हें 'मिनट-बुक' में दर्ज किया जाता था। सदस्य विविध
प्रकार के प्रश्न पूछते थे। नए विषयों और नए कामों के बारे में सलाह-मशविरा
होता था। इस सबका एक लाभ यह होता था कि जो लोग ऐसी सभाओं में कभी बोलते नहीं
थे वे भी बोलने लग जाते थे। भाषण भी व्यवस्थित और विवेकपूर्ण ही करने होते थे।
यह सब एक बिलकुल नया अनुभव था। हिंदुस्तानियों ने इसमें खूब रस लिया। इस बीच
यह खबर आई कि लॉर्ड रिपन ने नेटाल के बिल को अस्वीकार कर दिया है। इससे लोगों
का हर्ष और विश्वास दोनों बढ़े।
जिस प्रकार बाहरी आंदोलन चल रहा था उसी प्रकार हिंदुस्तानी कौम में भीतरी
सुधार करने का आंदोलन भी चल रहा था। हिंदुस्तानियों के रहन-सहन के खिलाफ समूचे
दक्षिण अफ्रीका में गोरे जोरदार आंदोलन करते रहते थे। वे हमेशा यह तर्क किया
करते थे कि हिंदुस्तानी बहुत गंदे हैं, वे बड़े कंजूस हैं, जिस मकान में
व्यापार करते हैं उसी में रहते हैं, उनके मकान गंदे और हवा-प्रकाश से रहित
होते हैं, वे अपने सुख और आराम के लिए भी पैसा खर्च नहीं करते - ऐसे कंजूस और
गंदे हिंदुस्तानियों के साथ व्यापार में शुद्ध, विविध प्रकार की आवश्यकताओं
वाले तथा उदार स्वभाव के गोरे कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं? इसलिए मकानों की
सफाई और स्वच्छता के बारे में, मकान और दुकान अलग-अलग रखने के बारे में,
कपड़ों को साफ-सुथरा रखने के बारे में और बड़ी कमाई करने वाले व्यापारियों को
शोभा दे, ऐसा रहन-सहन अपनाने के बारे में नेटाल कांग्रेस की सभाओं में भाषण
होते थे, वाद-विवाद चलते थे और सूचनाएँ भी दी जाती थीं। यह सारी कार्रवाई
मातृभाषा में (गुजराती में) ही होती थी।
पाठक समझ सकते हैं कि इन सब बातों से लोगों को स्वाभाविक रूप में कितनी
व्यावहारिक शिक्षा और कितना राजनीतिक अनुभव मिलता होगा। नेटाल कांग्रेस के
अधीन गिरमिट-मुक्त हिंदुस्तानियों की संतान अर्थात नेटाल में ही पैदा हुए
अँग्रेजी बोलने वाले भारतीय नौजवानों की सुविधा के लिए एक शिक्षा-मंडल (नेटाल
इंडियन एज्युकेशनल एसोसियेशन) की भी स्थापना की गई। उसका चंदा नाममात्र का रखा
गया था। इस मंडल का मुख्य उद्देश्य था इन नौजवानों को एकत्र करना, हिंदुस्तान
के प्रति उनमें प्रेम उत्पन्न करना और उन्हें हिंदुस्तान का सामान्य ज्ञान
देना। मंडल का दूसरा उद्देश्य था इन नौजवानों को यह बताना कि स्वतंत्र
हिंदुस्तानी व्यापारी उन्हें अपने ही आदमी मानते हैं और व्यापारियों में उनके
प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना। नेटाल कांग्रेस के पास अपना खर्च चलाने के
वाद एक बड़ी रकम जमा हो गई थी। इस रकम से जमीन खरीदी गई, जिससे आज तक कांग्रेस
को आय होती रहती है।
इन सारी तफसीलों में मैं जान-बूझ कर उतरा हूँ। ऊपर की बातें विस्तार से जाने
बिना पाठक यह बात पूरी तरह समझ नहीं सकते कि सत्याग्रह का जन्म स्वाभाविक रूप
में कैसे हुआ और हिंदुस्तानी कौम उसके लिए कैसे तैयार हुई? नेटाल कांग्रेस पर
कैसी-कैसी आपत्तियाँ आईं, सरकारी अधिकारियों ने उस पर किस प्रकार आक्रमण किए
और उन आक्रमणों से वह कैसे बची, यह और ऐसा ही दूसरा जानने योग्य इतिहास मुझे
छोड़ना पड़ रहा है। परंतु एक बात यहाँ बता देना जरूरी है। हिंदुस्तानी कौम
अतिशयोक्ति से सदा बचती रहती थी। कौम को उसके दोष और खामियाँ बताने की हमेशा
कोशिश की जाती थी। गोरों की दलीलों में जितना सत्य होता उसे तुरंत स्वीकार कर
लिया जाता था; और स्वतंत्रता तथा स्वाभिमान की रक्षा करते हुए गोरों के साथ
सहयोग करने के प्रत्येक अवसर का स्वागत किया जाता था। हिंदुस्तानियों के
आंदोलन का जितना विवरण दक्षिण अफ्रीका के अखबार ले सकते थे उतना उनमें दिया
जाता था और वहाँ के अखबारों में हिंदुस्तानियों पर जो अनुचित आक्रमण किए जाते
थे उनका उत्तर भी उन अखबारों तक पहुँचाया जाता था।
नेटाल में जैसे नेटाल इंडियन कांग्रेस थी वैसे ही ट्रांसवाल में भी
हिंदुस्तानियों की एक संस्था थी। ट्रांसवाल की यह संस्था नेटाल कांग्रेस से
बिलकुल स्वतंत्र थी। इन दोनों के विधानों में भी कुछ फर्क था। परंतु इस चर्चा
में यहाँ मैं नहीं उतरूँगा। ऐसी ही एक संस्था केप टाउन में भी थी। उसका विधान
नेटाल और ट्रांसवाल की संस्थाओं से भिन्न था। फिर भी तीनों का कार्य लगभग एक
ही प्रकार का माना जा सकता है।
1894 का वर्ष समाप्त हुआ। नेटाल कांग्रेस का एक वर्ष भी 1895 के मध्य में पूरा
हो गया। मेरा वकालत का काम मुवक्किलों को पसंद आया। इसके फलस्वरूप नेटाल में
रहने का समय भी बढ़ गया। 1896 में हिंदुस्तानी कौम की इजाजत लेकर मैं छह
महीनों के लिए हिंदुस्तान आया। परंतु पूरे छह महीने मैं रह भी नहीं पाया था कि
नेटाल से तार आ गया और मुझे तुरंत नेटाल लौट जाना पड़ा। 1896-97 की घटना की
चर्चा हम अलग प्रकरण में करेंगे।