कला के बारे में कुछ कहने से पूर्व मैं ज्याँ काक्टो के आकर्षक किंतु
विरोधाभाषी सूक्ति को यहाँ रखना चाहूँगा जहाँ वो ये कहते हैं कि 'कविता के
बिना काम नहीं चल सकता लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि उसका काम क्या है?' से
कला की जरूरत और समय के साथ कला कि संदिग्ध होती भूमिका को बहुत ही स्पष्ट
तरीके से सबके समक्ष प्रस्तुत कर सके। जिस तरीके से पिछले कुछ वर्षों में
प्रकृति को विकृति की अवस्था में पहुँचा कर दो हाथ व दो पाँव वाला जीव,
मस्तिष्क में छिपे छोटे से किंतु कभी न भरने वाली मेमोरी के उपयोग पर
प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है, कहना न होगा कि कला साहित्य से मोहभंग होना
स्वाभाविक है। कलाकार होने के लिए अनुभव को पकड़ना, न भरने वाली मेमोरी में
सहेजना व चेतन अवस्था में मूर्तरूप देकर निष्क्रिय हो चुके प्राणियों को
कर्तव्य के प्रति सचेत करना, कुछ ऐसे ही निहायत जरूरी कार्यों के प्रति
जिम्मेदार होना पड़ता है। कलाकार समाज के लिए सबसे बड़ा जादूगर होता है और उसे
हमेशा लीन रहना पड़ता है अपनी जादूगरी को सँभाल कर स्पष्ट तरीके से समाज के
समक्ष प्रस्तुत कर देने तक। अगर इतने उधेड़बुन, पागलपन की हद तक जाकर कलाकार
समाज को कुछ देना चाहता है तो फिर हम क्यों नहीं लेना चाहते उसके दिए हुए
अनुभवों को? जबकि दर्शक का पूरा हक बनता है कि वो समाज के जादूगर से खुलकर ये
माँग सकता है कि आपने हमें क्या दिया, जिसकी हमें दरकार थी?
शायद यही सब वजह है कि आज जबकि भारतीय कला व्यावसायिकता के मामले में इतनी
मिशालें खड़ी कर चुकी है कि कलाकार के नाम से ही कलाकृति करोड़ो में बिक जाती
है, जैसे कलाकृति से आम दर्शक का दूर दराज तक कोई नाता ही नहीं दिखता है। दीगर
बात है कि कोई भी कलाकार कला आराधना प्रारंभ करने में सबसे पहले ऐसे ही
सामाजिक परिदृश्यों पर कूँची चलाता है लेकिन जैसे ही उसे आभास होता है कि मैं
कुछ सीख चुका हूँ, यानी कलाकार कहलाने का हकदार हो चुका हूँ वैसे ही वह भूल
जाता है कि उसके भविष्य की कृतियों में उसकी भी उपस्थिति होनी चाहिए जो कि
प्राथमिक पायदान पर थी यानि हम भारतीयता की जड़ों को सँभाल कर नहीं रख पा रहे
हैं औेर दिनोंदिन पाश्चात्य सभ्यता की जकड़न में फँसते चले जा रहे हैं फलतः हम
अपना वजूद टटोलने की हिम्मत भी नहीं कर पाते, शायद यही वजह है कि इतने वर्षों
बाद भी भारतीय कला वैश्विक स्तर पर नगण्य है। प्रभु जोशी के मतानुसार "कोई भी
भारतीय कलाकार वैश्विक स्तर के सौ कलाकारों में शुमार नहीं है। पाश्चात्य में
प्रचलित है कि कला, कला के लिए है जबकि मेरा मानना है कि, ठीक है मेरी कला उस
स्तर तक पहुँच चुकी है, जहाँ कि आम दर्शक नहीं पहुँच सकता। मतलब साफ है कि हम
अपने कला को नीचे नहीं कर सकते पर, कला की पराकाष्ठा, वजूद की महत्ता को बलवती
बनाने के लिए आम दर्शक को सीढ़ी के माध्यम से अपनी कला तक पहुँचाने का सफल
प्रयास तो मेरा फर्ज बनता ही है न।''
कला में युवा व आधुनिकता
कला हमेशा से ही समय के साथ कदमताल मिला कर चलती रही है बल्कि आगे भी, जिस
तरीके से आज हर तरफ जीव-जंतु में अस्थिरता घर कर गई है, मस्तिष्क हर दफा
उधेड़बुन में फँसा हुआ है, शांति-सुकून तो कोसों दूर भागता जा रहा है, गलत न
होगा कि कला भी इसकी शिकार हुई है, विशेषकर युवा पीढ़ी की कला जो रातों-रात चमक
कर फलक पर छा जाना चाहती है, भले ही पान के पीक से कैनवास को भर दिया गया हो।
आज का कलाकार आधुनिकता के चक्कर में काम व विषयवस्तु पर ध्यान न देकर माध्यम
पर ज्यादा जोर दे रहा है। उदाहरण के तौर पर लिपिस्टिक का पोस्टर बनाते समय आज
का युवा पूरे फलक पर बड़ा सा होंठ, छोटी सी चमकीली ब्रांडेड लिपस्टिक बना कर
फलक को खुला छोड़ देता है और सोचता है बैकग्राउंड के बारे में, सहसा विचार आता
है और अपनी ही दोस्त लड़की के होठ में रंग लगाकर कैनवास पर छिटपुट किस करवा
देता है, और चंद लाइन लिखकर पूरा कर देता है एक कृति। कुछ ऐसी ही है हमारी
युवा पीढ़ी। शायद यही वजह है कि समकालीन कला आम आदमी की समझ से बाहर होती जा
रही है। आज का कलाकार जानी पहचानी आकृतियों की रेखाओं को न पकड़ कर आत्मा को
पकड़ने में लगा हुआ हैं, फलतः कला का कोई निश्चित चेहरा नहीं बन पा रहा है।
एकबारगी दूसरे पक्ष पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि हम जितना अधिक कल्पना
में गोता लगाएँगे यथार्थ का दायरा बढ़ता जाएगा, क्योंकि कल्पना ही ख्वाब की जड़
है और ख्वाब से ही निर्मित होता है यथार्थ धरातल, जो कलाकार को वाकई समाज का
जादूगर कहलाने का अधिकारी बना देता है। वैसे अगर गौर किया जाए तो दोनों पक्ष
अपने-अपने जगह पर सही है। यहाँ पर कमजोर पड़ रहा है तो दोनों के बीच लगा
धनात्मक निशान जो दोनों के बीच आपसी सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है अर्थात् ना
ही कलाकार समझाने का प्रयास करता है और ना ही दर्शक उसमें झाँकने का, या इसका
उलट ना ही दर्शक समझना चाहता है और ना ही जादूगर समझाना। शायद यही वजह है या
भ्रमित दुनिया का ही असर है कि आज की अधिक कृतियाँ अनटाइटल्ड (अनाम) होती हैं।
डॉ. व्यास के मतानुसार-कलाकार रचना करते समय उस समय के संवेदना को रच बुन रहा
होता है, उसी समय वह अतीत के आमंत्रण के साथ भविष्य के सुरों को सँजो रहा होता
है। कलाकार के लिए वह समय भी महत्वपूर्ण होता है जिस समय वह अपनी सर्जना को
कैनवास पर परोस रहा होता है। ऐसा लगता है कि उस समय यदि कलाकार कृति के शीर्षक
को स्पष्ट नहीं कर पाया तो शायद बाद में वह भी असमर्थ हो जाता है, भाषा व
शीर्षक को पकड़ पाने में।
युवा कला व हिंदी भाषा
भारतवर्ष में हिंदी कला समीक्षा की लंबी व समृद्ध परंपरा रही है, भारतीय कला
मनीषियों ने समय-समय पर इस ओर जबरदस्त लेखन किया है। पर आज शायद ही कोई
पत्रिका या समाचार पत्र होंगे जो कला समीक्षा को स्थान देते हों यानि कहा जा
सकता है कि बीच का धनात्मक निशान यानी मीडिया यहीं कमजोर पड़ जाती है कला की
दुनिया से आम दुनिया को मिला पाने में। हालाँकि कुछ अपवाद भी है विशेषकर अन्य
भाषाओं में तो बाकायदा कॉलम फिक्स है व कैंप लगाकर जागरूक किया जाता रहा है,
और है भी। जबकि इस मामले में हिंदी एकदम से उदासीन दिखती है मतलब आज के कला
समीक्षक शायद अपने कर्तव्य को नहीं समझ पा रहे हैं, या इस आपाधापी में इसे
फजीहत के रूप में लिया जाने लगा है। कोई भी कलाकार हिंदी में अपना कैटलाग
मात्र इसलिए नहीं बनवाना चाहता क्योंकि ऊँचे दामों पर खरीद करने वाले वर्ग में
हिंदी उपेक्षित हैं फलतः युवा हिंदी वर्ग वजूद के संकट को बचाने के लिए संघर्ष
न कर आत्मसमर्पण कर देना ज्यादा बेहतर समझता है, शायद यही उसकी गलती भी है
यानि वह अपनी कृति का अपना खरीददार वर्ग तैयार कर पाने में खुद को असमर्थ
समझता है। याद है मुझे जब साक्षात्कार के समय संक्षिप्त परिचय (बायोडाटा) मैं
हिंदी में लेकर गया था। मेरी योग्यता, कला इतिहास की जानकारी सब कुछ इंगित कर
रही थी कि मैं उस योग्य हूँ, बस कमी थी तो अँग्रेजी में बायोडाटा की, हालाँकि
इस बाबत काफी देर तक बहस भी होती रही कि कला की कोई भाषा नहीं होती, मैं यहाँ
अँग्रेजी, हिंदी या गणित पढ़ाने नहीं बल्कि कला सिखाने आया हूँ जो सभी भाषाओं
से कहीं ऊपर की वस्तु है, पर वही हुआ जो होना था अर्थात बाँट दिया गया भाषा के
आधार पर कला को कि हिंदी भाषी कलाकार अन्य भाषा के बच्चों को कला क्या
सिखाएगा? यहाँ तक कि खजुराहो, अजंता, एलोरा जाने वालों में भी कितने हैं जो
पहले से ही जान लेना चाहते हैं कि वहाँ कौन सी भाषा उपयोगी है, जिसके बलबूते
वो तय करते है कि मुझे वहाँ जाना है या नहीं।
सौंदर्यानुभूति का आदर्श रूप
जब हम किसी वस्तुक्रिया के साथ अपने आप को इतना लीन कर लेते है अर्थात इतना
डूब जाते हैं कि स्व का बोध ही नहीं रह जाता उस समय हम अपने नहीं बल्कि समाज
के होते हैं। यानि अनैच्छिक सहसंवेदन की स्थिति से गुजरते हुए वस्तु तथा आत्मा
में कोई भेद नहीं रह जाता, यही सौंदर्यानुभूति का क्षण है, यही आदर्श आत्मा की
वास्तविक क्रिया है और यहाँ से उपजी हुई कृति शुद्ध कला कही जा सकती है।
कलाकृति का वाह्य रूप ऐंद्रिय सुख देता है, जबकि कलात्मक अनुभव संपूर्ण
काल्पनिक अनुभव है। कलाकृति की श्रेष्ठता तकनीकि पर आधारित न होकर श्रेष्ठ
भावों व विचारों पर आधारित होती है, कलाकार इस समय के प्रतिनिधि के रूप में
कला सृष्टि करता है। 'प्रोटेस्टर' कृति के माध्यम से युवा कलाकार हरमीत सिंह
(स्कल्पचर) की समाज के प्रति चिंता को देखा जा सकता है, जिसमें एक वृक्ष का
तना जो पूर्णरूपेण सूख चुका है, पर चढ़ते हुए सैकड़ों चींटे एक साथ कई संदेश
हमारे जेहन में छोड़ जाते है। लखनऊ की कुसुम वर्मा की कृति (पेंटिंग) जिसमें
पृथ्वी के ऊपर पंख फैलाकर बैठा सफेद पक्षी उड़ते हुए तमाम परिंदों को बल दे रहा
है और शांति में सौंदर्यानुभूति का दर्शन करवा रहा है। अमित कुमार की कृति
'चेस बोर्ड' पर मानव सिर जिसकी दोनों आँखें नाक पर बैठे कीड़े को देख रही है,
बिल्कुल शतरंजी लगता है। 'सौंदर्य-बोध' कृति में ही अजय सिंह (वाराणसी) की
कृति 'दीपावली' प्रमुख है। मिक्स-मीडिया में बनी ये कृति सामाजिक सरोकारों के
साथ-साथ बनारस घाट को भी बड़े मनोहारी ढंग से दिखाती है। स्कल्पचर में प्रीती
मिश्रा (लखनऊ) व सुनील कुमार (दिल्ली) भी काफी सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
सत्येंद्र कुमार वर्मा (वाराणसी), योगेश राय (गोरखपुर), कुनाल (मुंबई), मु.
इरशाद (बलिया), सुनील चौधरी (जबलपुर) आदि भी इस कड़ी में प्रमुख भागीदारी दर्शा
रहे हैं।
अमूर्त के रास्ते यथार्थ विजन
विकास मनुष्यों की प्रथम आकांक्षा होती है, चाहे वह यथार्थ वातावरण हो या
कृत्रिम धरातल पर निर्मित कायदे कानून। इस विकास की महत्ता अलग-अलग लोगों के
निगाह में अलग-अलग भले ही हो लेकिन है तो है। इन्हीं सारी निगाहों में प्रबल
निगाह कला के माध्यम से सभी को अपने निगाह से उसके द्वारा दिए गए विकास की
परिभाषा को समझाने का प्रयास किया गया है लातूर के युवा शिल्पकार रविकांत
कांबले द्वारा, जहाँ आज के दौर में मॉर्डन आर्ट के नाम पर पता नहीं किस दुनिया
का सैर कराया जा रहा है, जिसे कलाकार खुद नहीं समझ पाता भला दर्शक क्या समझेगा
यानि अशीर्षक कृति के इस दौर में अमूर्त शिल्प के माध्यम से यथार्थ दृश्य को
दिखाना मेरे समझ से ऐसे चुनौतीपूर्ण कार्य रविकांत ही कर सकते हैं और अपने में
सफल भी। आनंद प्रकाश (इलाहाबाद) एक ऐसे कलाकार हैं जिनकी कृतियों में टेक्सचर
व निराकार भी आकार के व्यापक रूप में दृष्टिगोचर हो उठते हैं। इन सबों के इतर
रंग संतुलन कमाल का बन पड़ा है हर कृति में ऐसा लगता है जैसे अंतहीन जंगल में
घुसते चले जा रहे हैं। इसी कड़ी में राजीव रंजन पांडेय (आगरा) के कार्यशैली को
भी नहीं झुठलाया जा सकता, ग्रोथ को देखने का उनका नजरिया कुछ ऐसा है जहाँ नारी
व योनियों की अधिकता है या हम कह सकते हैं कि सांकेतिकता में विकास को
दर्शाता, वो भी स्वतंत्रता व योग्यता को लेकर दिखाना सहज ही दर्शा देता है कि
गढ़ने के पीछे खूब पढ़ा गया है यानि मूर्त रूप देने से पहले अनुभव व अध्ययन के
अथाह गहराइयों में गोता लगाया गया है कलाकार द्वारा इन्हीं संकेतों के माध्यम
से उनकी दृष्टि समस्त सृष्टि को एक साथ टटोलने में सक्षम सी दिखती है।
टेराकोटा, मिक्स मीडिया, वुडमेंटल सभी पर प्रयोग कर सृष्टि को मूर्त रूप दे
देना वह भी अमूर्तांकन पद्धति में निश्चित ही शिल्पकार के दूरद्रष्टा होने की
ओर संकेत करता है, इसी कड़ी को साकार कर रहे हैं भदोही के विद्यानिवास मिश्रा।
प्रजनन क्रिया सृष्टि में जीवन का उद्गम महत्व को रेखांकन के माध्यम से कम
लाइनों में इंगित कर देना यह दर्शाता है कि लखनऊ के मनोज कुमार (शीर्षक -
थ्रिल आफ माइंड) कलाकार हाने के साथ-साथ एक अभ्यर्थी भी हैं जीवन के उद्गम पर
काफी अध्ययन किए हुए से दिखते हैं।
अंतःपुर का वासी
किसी भी वस्तु को देखने, व मन से देखने में जितना फर्क नजर आता है वही फर्क
दर्शक व गणेश पोखरकर (मुंबई) में भी साफ झलकता है। कला का विषयवस्तु इन्हें
खुद ढूँढ़ता है या यूँ भी कह सकते हैं कि इनका विषयवस्तु इतना व्यापक है कि तू
जहाँ-जहाँ चलेगा मेरा साया साथ होगा जैसे गीत चरितार्थ हो उठते हैं। यात्रा के
दौरान चेतनावस्था में देखा गया दृश्य, हाथ में तूलिका के आ जाने पर स्वतः ही
कैनवास पर फिसल पड़ता है वह भी बड़े-बड़े पैचेज में यानि कि कलाकार आभास मात्र न
दिखाकर चित्र के व्यापकता, प्रत्येक वस्तु को जूम करके देखने के बाद उसी रूप
में विरेचित कर देता है फलक पर, इसमें सिद्ध-हस्त से दिखे हैं भास्कर
भट्टाचार्य जी (कोलकाता)। चित्रकार (पूनम किशोर) अपने चित्रों को बिंब के
माध्यम से भले ही प्रस्तुत कर रही हैं लेकिन यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वह
अपने पर फैलाये दुनिया की हर जानी अनजानी पहाड़ी, गाँवों, गलियों की खाक छानती,
आवारागर्दी करती हुई, आसमान से असीमित अपेक्षाएँ रखती हुई हम सभी को एक नवीन
दुनिया की सैर कराने का भरपूर प्रयास कर रही है। कही-कही कल्पना यथार्थ का व
यथार्थ कल्पना का रूप भी धर लेती है जो एक अच्छे कलाकार को और भी अच्छा बनाने
में मदद करती है इसी कड़ी में तीन सहेलियाँ पूनम वाराणसी, मीना शर्मा सोनभद्र
तथा पुष्पा लखनऊ अपनी साधना में तल्लीन है। जिस प्रकार कहा गया है कि
बूँद-बूँद से घड़ा भरता है ठीक वैसे ही बिंदु-बिंदु से प्रकृति की सार्थकता को
व्यक्त करने में कलाकार पंकज शर्मा (भोपाल) इतने सफल हो गए हैं कि प्रकृति के
हँसते खेलते बेहद अनौपचारिक संबंध स्वतः उजागिर हो उठे हैं।
गतिशील कलाकार की गति
मेरे नजर में सृजन का मुख्य उदेश्य उड़ते धुएँ को देखकर, विकराल आग का अंदाजा
लगा लेना व मिजाजी कीड़े को मूर्त रूप दे देना होता है जिसको देखकर समाज, अपने
गलती को पूर्व, वर्तमान या भविष्य में सुधारने का प्रयास कर सके, यानि आईना
बनकर समाज के सामने खड़ा हो जाता है एक सर्जक। सर्जक की सबसे बड़ी विशेषता यह
होती है कि सृजन को लेकर उसके उपर सर कलम करने का फतवा जारी कर देने के बाद भी
वह अपने आप को रोक नहीं पाता, कह सकते हैं कि जब तक वह समाज में रहता है समाज
का ही अंग बनकर उस गतिविधियों में लीन रहता है लेकिन जैसे ही उसमें सृजन के
कीड़े कुलबुलाने लगते हैं वो अपने आप को रोक नहीं पाता उन सबों से अलग होने से,
जब तक की मन के गुबार मूर्त रूप ना ले ले। उस समय वह कुछ खास हो जाता है भूल
जाता है कि किसके बारे में क्या लिख रहा है चाहे वो उसके माँ, बाप, भाई ही
क्यों न हो? यदि वे गलत है तो कलाकार के कृति में भी खलनायक की भूमिका में ही
नजर आएँगे ना कि परिवार के रूप में। कहा जा सकता है कि सृजन के समय मस्तिष्क व
हाथ का सामंजस्य सही तरीके से नहीं हो पाता अन्यथा कलाकार की हर कृति कालजयी
बन पड़ती। इधर इस बीच एक युवाकार है जिसका हाथ शायद उसके मस्तिष्क के साथ
तालमेल बिठा पा रहा है, और इसमें दो राय नहीं कि वो कालजयी भी होगा। लातूर के
युवा कलाकार श्रीनिवास म्हात्रे के इसी गति को देखते हुए उन्हें मशीन नाम दिया
गया है। मुंबई में प्रिंट स्टूडियों बनाने वाला यह पहला कलाकार है। ये लगभग नए
पीढ़ी के सबसे होनहार प्रिंट आर्टिस्टों में आते हैं जो सिर्फ और सिर्फ खोज में
तल्लीन है, इनके विषयवस्तु में मुख्यतः गतिशील वस्तुएँ जैसे साइकिल, रिक्शे की
गति, पैडल, चैन, हैंडल, सीट आदि आते हैं। इनके कला को समझने के लिए इनके साथ
ही बौद्धिक स्तर पर दौड़ लगाना होगा। आंबिकेश यादव (जौनपुर) तो जैसे रम से गए
हैं अपनी एक अलग दुनिया में, जहाँ पहुँच पाना निश्चित रूप से आसान नहीं होता।
कहना गलत ना होगा कि भारतीय कला उन्नयन की लंबी दौड़ में कब से शामिल है और
अग्रसर भी।