एल्बर्ट आइंस्टाइन का विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धांत हमें इस सत्य से जोड़ता है
कि प्रकाश से तेज कोई नहीं चल सकता। एक तरह से प्रकाश की गति ब्रह्मांड के
भीतर गति की परिसीमा है। निर्वात में लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड !
यानी एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड ! यह हमारे भौतिक जगत का एक निश्चित
सत्य है !
लेकिन फिर प्रकाश हर समय निर्वात यानी वैक्यूम में ही तो नहीं चला करता न ! वह
हवा से होकर भी गुजरता है; वह पानी के भीतर भी झिलमिलाता दौड़ लगाता है।
बेशकीमती हीरे के पार भी वह कौंध पैदा करता निकल जाता है और मामूली काँच के
पार जाकर उस ओर की चीजें हमें दिखाता है। प्रकाश की गति पदार्थ की प्रकृति के
अनुसार घटती है। पानी में कुछ धीमा, हीरे में थोड़ा और।
लेकिन अगर प्रकाश धीमा हो सकता है, तो क्या वह रुक नहीं सकता ? क्या हम प्रकाश
को रोक सकते हैं ? और क्या हम प्रकाश को उसकी नियत गति से तेज चला सकते हैं ?
क्या हम प्रकाश के साथ खेल सकते हैं कि जब चाहें उसे तेज कर दें और जब चाहें
उसे धीमा ?
यह सत्य है कि आज-तक कोई प्रकाश से तेज तो दूर, उसकी गति के आसपास भी नहीं
पहुँच पाया है। लेकिन हारवर्ड की वैज्ञानिक लेने हाउ ने प्रकाश हो बहुत-बहुत
धीमा करने में अनूठी कामयाबी पाई है।
अपने इस प्रयोग के लिए लेने थोड़ा सोडियम लेती हैं। वही सोडियम जिससे
हमारा-आपका खाने वाला नमक बना है। इस सोडियम को फिर वे एक अवन में इतना गर्म
करती हैं कि वह गैस बन जाए। लगभग साढ़े तीन सौ डिग्री सेल्सियस तक।
जिस बर्तन में सोडियम को गैस बनाया गया है, उसमें एक छेद है। इस छेद से सोडियम
के परमाणु बाहर निकलने लगते हैं। वे आड़े-तिरछे हर ओर नाच रहे हैं। अब लेने इन
बाहर आते परमाणुओं पर लेजरों से इतनी जबरदस्त बमबारी करती हैं कि वे लगभग
स्थिर हो जाते हैं। ये लगभग रुक चुके परमाणु बहुत-बहुत ठंडे हैं। इतने ठंडे कि
इनसे कम तापमान धरती पर मौजूद किसी वस्तु या स्थान का नहीं।
अब लेने इसमें से प्रकाश को गुजारती हैं। ठंडे परमाणुओं के इस नन्हें बादल में
गुजरता प्रकाश 15 मील प्रति घंटे की रफ्तार तक धीमा हो जाता है। यह वह गति है,
जिस पर आप और मैं सायकिल चला सकते हैं !
लेने कई अन्य प्रयोगों के माध्यम से प्रकाश को स्थिर कर देती हैं। वे उसे
रोकती हैं, फिर अगले बादल में उसे पुनः पैदा करके फिर से चला देती हैं ! सुनने
में यह किसी जादूगरनी का मायाजाल लगता है ! प्रकाश को रोकना और फिर चला देना !
यह आइंस्टाइन की विशिष्ट सापेक्षता से आगे की ओर बढ़ने जैसा है। हम प्रकाश को
एक छोर पर नियंत्रित करना सीख चुके हैं। दूसरा छोर उसकी गति तक पहुँचने और
उससे भी तेज चलने का है। अगर हमें तारों के पार जाना है और नए आशियाने बनाने
हैं, तो प्रकाश से तेज तो चलना ही होगा। अन्यथा हम घोंघों की तरह रेंगते बहुत
दूर जीवन-स्थलियाँ नहीं पा सकते।
लेने हाउ हमें आइंस्टाइन से आगे बढ़ने का साहस देती हैं। हर वह तथ्य जो अटल जा
पड़े, उसे ढहाने की हमें कोशिश करनी है।
भंजन होगा पहले, तभी आगे निर्मिति।