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लेख

अनंत की 'खोज'

स्कंद शुक्ल


अनंत क्या है : यह जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह प्रश्न होना चाहिए कि हम उसे जानना क्यों चाहते हैं और जानकर क्या प्राप्त करेंगे।

अनंत की 'खोज' ने दार्शनिकों-साहित्यकारों-गणितज्ञों-वैज्ञानिकों से लेकर साधारण जनों की नींद सदियों से खराब कर रखी है। अरस्तू हों या गैलीलियो, कार्ल फ्रीडरीख गॉस हों या जॉर्ज कैंटर, सभी अनंत की ओर और उससे दूर भागते रहे हैं। ऐसे में भौतिकशास्त्री मैक्स टेगमार्क की यह टिप्पणी विचारणीय हो जाती है कि अनंत के प्रति हमारा तीव्र आकर्षण क्या कहीं भौतिकी और वैज्ञानिक प्रगति के रास्ते का रोड़ा तो नहीं बन रहा।

यह बात अपने-आप में विवादास्पद भी है और विरोधी भी। ज्ञान की खोज के प्रयास भी अपने विरोधी होते हैं क्या ? क्या किसी विषय या विचार की बहुत गहराई तक जाने की कोशिशें सचमुच उसके सर्वांगीण विकास को अवरुद्ध कर देती हैं ? क्या हमें जानने और शोध के इस प्रयास में अपनी सीमाएँ तय कर लेनी चाहिए और दिशाएँ भी ? और उन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने में अधिक समय बिताना चाहिए जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं ?

'महत्व' एक शब्द-स्वर्णमृग है। यह हमें तात्कालिक रूप में जहाँ दिखता है, वहाँ अगले पल होता नहीं। हम उसके पीछे भागते हैं कुशल आखेटक बनकर। लेकिन अगले ही पल वह 'प्रगटत दुरत करत छल भूरी' को निभाता कहीं और दूर, बहुत दूर निकल जाता है। और फिर अंततः जब हम उसे 'कठिन सर' से मार गिराते हैं, तो वह मृग नहीं असुर निकलता है। आखेट को व्यर्थ बताता हुआ। न कोई स्वर्णिम आभा, न कोई मृगी चपलता। यह तो कुछ और ही स्वाँग था !

इसी विचार को अपने शब्दों में टेगमार्क हमारे सामने रखते हैं। इस बात को पूरी ईमानदारी से स्वीकारते हुए कि वे भी लंबे समय से अनंत की 'विशालता' से अभिभूत रहे हैं। लेकिन फिर वे इस बात को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं कि क्या अनंत का सचमुच अस्तित्व है भी और क्या सचमुच इसे जानना हमारे लिए आवश्यक है।

इसी क्रम में वे 'अनंत विस्तार' और 'अनंत लघुता' की बात करते हैं। अंतरिक्ष कितना बड़ा है : यह सोचते हुए हमारे मन में अनंत विस्तार का विचार जन्म लेता है। लेकिन कागज पर बनाए एक बिंदु में कितने वास्तविक बिंदु हो सकते हैं : यहाँ अनंत लघुता की बात सोचनी पड़ती है। (कागज पर बना एक बिंदु बिंदु होकर भी बिंदु नहीं है। वह हमें बिंदु लगता है। लेकिन उसी को जब हम बहुत-बहुत पास से देखेंगे, तो वह एक काला-नीला वृत्त नजर आएगा। बिंदु की सच्ची परिभाषा कहती है कि उसकी न लंबाई है और न चौड़ाई। ऐसा बिंदु बनाना मनुष्य के लिए वास्तव में असंभव है।)

हमें अंतरिक्ष को जानना है। इसलिए हम अनंत को भेदना चाहते हैं। अनंत के पार जाकर उसे देखना-समझना चाहते हैं। लेकिन अनंत के पार जाकर देखने का अर्थ ही उसका निश्चित हो जाना है। और जो निश्चित हो गया, वह अनंत कहाँ रहा ! वह तो अपनी ही परिभाषा को झुठला गया !

ऐसे में प्रश्न उठता है कि अनंत कहीं केवल गणितीय सिद्धांत-भर तो नहीं ? वह सचमुच कहीं हो ही नहीं ? वह केवल गणित में अस्तित्व रखता हो ? वास्तविक जीवन में, ब्रह्मांड में अनंत का कोई वजूद ही न हो ? सबकुछ जो दिखता है, वह निश्चित-नियत हो ? अनियत-अनिश्चित जैसी कोई भौतिक वस्तु होती ही न हो ?

अनंत ऐसे में हमारे सामने साहित्यकारों-कलाकारों और वैज्ञानिकों-गणितज्ञों दोनों की शरणस्थली बनकर सामने आता है। अब आप अनंत के नाम पर कुछ भी व्याख्यायित कर सकते हैं, कोई आप पर प्रश्न नहीं लगा सकता। जो चाहे लिखिए, जो चाहे बता दीजिए। कोई सवाल आप पर नहीं उठेगा, क्योंकि प्रश्नकर्ता भी उसके बारे में आपसे अधिक कहाँ जानता है ! और जहाँ तक आपकी गणितीयता जाकर थक जाए, वहाँ आप अनंत लिखकर छुट्टी पा लीजिए।

तो ऐसे में एक निष्ठुर सत्य यह नहीं कि हमें अनंत की अपने जीवन में कोई जरूरत ही नहीं ? यह सिद्धांत या सत्य हमारे व्यावहारिक लाभ का नहीं ? होगा अंतरिक्ष अनंत : हमें क्या ! होंगे एक रेखा में अनंत बिंदु : हमारी कौन सी गणित रुक रही है ! हमें उतना ही जानने में सिर खपाना है, जिसे जानकर हम मनुष्यों और प्रकृति को बेहतर बना सकें। अनंत जैसे अतिरिक्त के सुदूरीय ज्ञान के लिए बहुत अधिक श्रम अन्य आवश्यक विषयों से ऊर्जा न खींच ले, यह हमें हमेशा ध्यान में रखना है।

टेगमार्क हमसे कहते हैं कि हम अनंतहीन भौतिकी पर ध्यान दें, क्योंकि वह हमें प्रभावित करती है। वह ही हमारे तात्कालिक काम की है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी अतिविस्तृत या अतिलघु है, वह कहीं हमें भटका-भरमा न दे।

मायामृग से अधिक हमारी आवश्यकता पीछे की पर्णकुटी में रह छूटे स्वजनों की है। वहाँ भी बहुत से मृग हैं, जो हमारे लिए अधिक रुचिकर-लाभकर, दोनों हैं। 'नेति-नेति' के पीछे की कर्मशीलता हमें नियत रूप में ही करनी होगी : इसी बात को टेगमार्क हमसे अपने शब्दों में कह रहे हैं। मायामृग के पीछे न भागना ही उसकी मृत्यु है; उसके लिए हमें कुछ और करने की आवश्यकता नहीं।

(अधिक जानकारी के लिए जॉन ब्रॉकमैन की पुस्तक ' दिस आइडिया मस्ट डाइ ' पठनीय है।)


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