1.
हम चौबीस घंटों के दिन-रात के बीच पैदा होते हैं, बढ़ते हैं और मर जाते हैं :
इसलिए हमें दस घंटों के दिन-रात की कल्पना भी अजीब लगती है।
हमने एक संसार देखा है। ऐसे में हम धारणाएँ उस एक-सी ही बना लेते हैं। वैसा ही
सूर्योदय होता होगा, वैसा ही सूर्यास्त। वैसे ही आँधियाँ चलती होंगी, वैसे ही
समुद्र गरजते होंगे।
सौर-मंडल के बाहरी चार ग्रह एक अलग बिरादरी हैं।
बृहस्पति-शनि-यूरेनस-नेप्ट्यून भीतरी ग्रहों से बहुत-बहुत अलग हैं। आकार ही
नहीं, संरचना में भी। मगर एक बात जो इनकी तरफ हमारा ध्यान खींचती है, वह इनका
तेजी के साथ अपने अक्ष पर घूम कर एक चक्कर पूरा कर लेना है।
बृहस्पति अपने अक्ष पर लगभग दस घंटों में घूम जाता है, शनि साढ़े दस में।
यूरेनस को लगभग सत्रह और नेप्ट्यून को लगभग सोलह घंटे लगते हैं। अब इनकी तुलना
चौबीस घंटों में घूमने वाली अपनी आलसी पृथ्वी से करिए !
इतने बड़े-बड़े ग्रह और इतनी तीव्र घूर्णन-गति ! इस बात को समझने की प्रक्रिया
में हम उस नर्तकी के बारे में सोचते हैं, जो एक ही स्थान पर खड़ी हाथ फैलाए
गोल-गोल घूम रही है। उसकी रफ्तार तेज है। लेकिन ज्यों-ज्यों वह देह को सिकोड़ती
है, उसकी गति बढ़ती चली जाती है। अंगों को भीतर की ओर खींचे से बढ़ती यह गति
दरअसल भौतकी के एक नियम के अनुसार होने वाली प्रक्रिया है। इस नियम को कोणीय
मोमेंटम का कंजर्वेशन कहा जाता है।
अब वापस अपने सौर-परिवार के इन बड़े दानवों आइए। इन सब के निर्माण को समझिए।
अतीत में बहुत-बहुत-बहुत पहले सौर-मंडल नहीं था। न सूर्य था, न कोई ग्रह। तब
केवल गैस और धुएँ का एक बादल था, जिसे नेब्युला या नीहारिका कहते हैं। यह
सौर-निहारिका सिकुड़ी। इस सिकुड़न का कारण इस विशाल नेब्युला का अपना गुरुत्व
था। फिर इसी गुरुत्व से पैदा हुए संकुचन के कारण पहले सूर्य और फिर ग्रहों का
जन्म हुआ। भीतरी ग्रह सूर्य के अधिक समीप थे, वहाँ गैसें इतनी अधिक मात्रा में
जमा नहीं हो सकती थीं। लेकिन एक निश्चित सीमा के बाहर पर्याप्त ठंडक थी। वहाँ
से बाहर बन रहे ग्रहों में काफी मात्रा में पहले गैसें एकत्रित हुईं, फिर इनका
तरलीकरण और अन्य रूपों में परिवर्तन भी होने लगा।
लेकिन फिर अपने विशाल आकार और द्रव्यमान के कारण इन दानवों का संकुचन उसी
नर्तकी-सा है। ये सिकुड़ रहे हैं और इसी प्रक्रिया में इनकी घूर्णन-गति बहुत
तीव्र है। घूमते हुए जो जितना अधिक द्रव्यमान समेटता सिकुड़ेगा, वह उतना तीव्र
घूमेगा। लेकिन फिर मामला इतने पर रुक लेता तो बात ही क्या थी !
बृहस्पति का घूमना पूरे पिंड का एक-साथ घूमना नहीं है। बृहस्पति जो जब हम
देखते हैं या शनि के दर्शन करते हैं, तो केवल उसके बाहरी वायुमंडल को देख रहे
होते हैं। यूरेनस और नेप्ट्यून का नीलापन भी उनके वायुमंडल के कारण हमें नजर
आता है। और यह बाहरी वायु किसी ठोस सतह-सी एक साथ नहीं घूमती। अलग-अलग हिस्से
अलग-अलग घूमते हैं, उनकी गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।
यही कारण है कि बृहस्पति के अलग-अलग हिस्सों में घूर्णन-गति आपको अलग मिलेगी।
शनि-यूरेनस-नेप्ट्यून का भी हाल यही है।
आप पृथ्वी पर सोच सकते थे कि पैरिस और नई दिल्ली की घूर्णन-गति अलग-अलग हो और
कहीं दिन-रात चौबीस घंटे के हों और कहीं उससे कम या ज्यादा ? नहीं न ? ऐसा
इसलिए कि हम ठोस सतह वाले एक ग्रह के प्राणी हैं,
बृहस्पति-शनि-यूरेनस-नेप्ट्यून जैसे स्थानों के निवासी नहीं।
मैं अपनी झागदार कॉफी में चम्मच चलाता हूँ। और फिर सतह पर चलते झाग के नन्हें
बुलबुलों को गोल-गोल घूमते देखता हूँ। कोई तेज, कोई धीमा। कॉफी तरल है, वह
द्रव है। जो द्रव होते हैं, उनके भीतर एक राय नहीं बनती। वे कई मतों और
मतभेदों को लेकर जीते हैं। उनका कोई हिस्सा तेज चलते बीत जाता है, तो कोई तनिक
धीरे-धीरे।
2.
किसी परिवार के आठ बच्चों में चार एक-से हों और बाकी चार अलग-से, तो क्या आप
सोच में नहीं पड़ जाएँगे ?
ऐसा ही कुछ ग्रहों से युक्त हमारे सौरमंडल में घटता है। परिवार जिसका मुखिया
सूरज है। परिवार जिसमें आठ ग्रह हैं, जिनमें से एक हमारी पृथ्वी भी है। लेकिन
सूर्य के समीपस्थ चार ग्रहों की तुलना में बाहरी चार ग्रह गुण-धर्म-प्रकृति
में एकदम भिन्न हैं !
सूर्य से बाहर की ओर बढ़िए : बुध-शुक्र-पृथ्वी-मंगल नन्हें पिंड हैं। धातु और
चट्टानों से बने, जिनमें सघन वायुमंडल केवल शुक्र और पृथ्वी के पास ही है।
लेकिन ज्यों ही आप मंगल से बाहर की ओर बढ़ते हैं, और आपकी भेंट
बृहस्पति-शनि-यूरेनस-नेप्ट्यून से होती है, कई अचरजों से आपका सामना होता है।
पहली बात यह कि भीतरी चार ग्रहों की तुलना में ये बाहरी चार ग्रह अतिशय विशाल
हैं। बहुत-बहुत बड़े। फिर इनका निर्माण भी अलग पदार्थों से हुआ है। ये धातु और
चट्टानों से नहीं बने, इनकी निर्मिति गैसों-बर्फ-अन्य तत्वों से हुई है। और
इसी निर्मिति के आधार पर इन चार विशाल दानवीय ग्रहों को विज्ञान दो-दो के
समूहों में फिर बाँट देता है : बृहस्पति और शनि का निर्माण एक मेल का जान पड़ता
है और यूरेनस-नेप्ट्यून का दूसरे मेल का। बृहस्पति-शनि बने हैं
हाइड्रोजन-हीलियम जैसी हल्की गैसों से, जबकि यूरेनस-नेप्ट्यून का निर्माण
मीथेन-अमोनिया-बर्फ के साथ उन अनेक तत्वों से हुआ है जो हाइड्रोजन-हीलियम की
तुलना में कहीं अधिक भारी हैं। यही कारण है कि बृहस्पति-शनि को गैसीय दानव कहा
जाता है, जबकि यूरेनस-नेप्ट्यून को बर्फीले दानव।
ये चार बाहरी ग्रह और भी कई आश्चर्य समेटे हैं। ये सूर्य की परिक्रमा धीरे
करते हैं : जाहिर है, ऐसा अधिक दूर होने के कारण है। लेकिन फिर इनकी अपने अक्ष
पर घूमने की गति बहुत तीव्र है। जहाँ नन्हीं पृथ्वी आपके अक्ष पर घूमने में
चौबीस घंटे लेती है, वहीं विशाल हाइड्रोजनी-हीलियमी बृहस्पति मात्र दस घंटों
में यह काम कर लेता है ! ऐसा क्यों है, इसका ठीक-ठीक उत्तर अभी हम नहीं जान
पाए हैं।
फिर इन बाहरी दानवीय ग्रहों के पास कई-कई उपग्रह हैं। इनकी तुलना में भीतरी
ग्रहों बुध व शुक्र उपग्रहहीन हैं और पृथ्वी का केवल एक उपग्रह चंद्रमा और
मंगल के दो उपग्रह डीमोज-फोबोज हैं। बृहस्पति-शनि-यूरेनस-नेप्ट्यून के पास
उपग्रहों की संख्या का अंबार है !
ऐसा शायद इन विशाल दानवों के शक्तिशाली गुरुत्व के कारण हुआ है, जिससे
इन्होंने तमाम आसपास के क्षुद्र ग्रहों को अपने कब्जे में ले लिया होगा। या
फिर समीप से गुजरता कोई नन्हा पिंड इनकी पकड़ से जा न पाया होगा और इन्हीं का
उपग्रह बनकर इनके चारों ओर घूमने लगा होगा। जो हो, लेकिन चंद्रमाओं के भरे
इनके आकाश की कल्पना ही हमारे मन को आनंदित कर देती है ! फिर इन बाहरी विशाल
ग्रहों के पास छल्लों का एक अनोखा संसार भी तो है !
सूर्य के चारों ओर एक अदृश्य रेखा फ़्रॉस्ट-लाइन की बात वैज्ञानिक करते हैं। यह
वह रेखा है, जिसके भीतर हाइड्रोजन-हीलियम-मीथेन-अमोनिया जैसी गैसें तरल होने
और फिर जम पाने में अक्षम हैं। जबकि इस रेखा के बाहर ऐसा संभव होता है और
इसीलिए बाहर के चार ग्रहों के विशाल आकार में ये गैसें अपनी भूमिका निभाती
हैं।
परिवार की समझ समाज की समझ देती है। सौरमंडल को समझना ब्रह्मांड के अनेकानेक
रहस्यों को समझने का पहला चरण है।