मेरी दृष्टि में भीष्म साहनी सहज मानवीय उष्मा के संवेदनशील कथाकार हैं और
मेरी यह बात इस तथ्य से पुष्ट होती है कि उनके यहाँ बाकायदा 'विलेन' जैसा कोई
नहीं है। भीष्म साहनी का समग्रता में अभी मूल्यांकन नहीं हुआ है। अब तक उनके
पूरे कथा-साहित्य को, पूरी मानसिक बनावट को एक गहरी अंतर्दृष्टि के साथ समझने
की कोशिश नहीं हुई है। - राजेंद्र यादव हिंदी के महान कथाशिल्पी और 'तमस' जैसी
कालजयी कृति के रचनाकार भीष्म साहनी की जन्म शतवार्षिकी के अवसर पर उनके
साहित्य की प्रासंगिकता की चर्चा खूब की जा रही है। 8 अगस्त, 1915 को
रावलपिंडी में जन्म भीष्म साहनी 'नई कहानी' दौर के एक ऐसे प्रतिबद्ध रचनाकार
हैं जिनके संपूर्ण साहित्य (कहानी, उपन्यास, नाट्य-साहित्य की विधाओं) में
विभाजन की त्रासदी झेल रहे भारतीय जीवन की कठिनाइयों और दुविधाओं के बीच से
जीवन की धूल-धूसरित सच्चाईयाँ प्रस्तुत होती हैं। यही कारण है कि इनके साहित्य
को मनुष्यता से जुड़े साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। उन्होंने अपनी
रचना में खुली और फैली हुई जिंदगी को पूरी जीवंतता और गतिमयता के साथ अंकित
किया है। उनकी पहली कहानी 'अबला', रावी पत्रिका में तथा दूसरी कहानी 'नीली
आँखें' अमृतराय के संपादकत्व में हंस में छपी। साहनी जी ने 'झरोखे' (1967),
'कड़ियाँ' (1971), 'तमस' (1974), 'बसंती' (1979), 'मय्यादास की माड़ी' (1987),
'कुंतो' (1993), 'नीलू नीलिमा नीलोफर' (2003) नामक उपन्यासों के अतिरिक्त
'भाग्यरेखा' (1953), 'पहला पाठ' (1956), 'भटकती राख' (1965), 'पटरियाँ'
(1973), 'वाड. चू' (1978), 'गुलेल का खेल' (1980), 'शोभा यात्रा' (1981),
'निशाचर' (1983), 'पाली' (1989), 'डायन' (1996) सहित प्रतिनिधि कहानियाँ व
मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाटकों के क्षेत्र
में भी उन्होंने 'हानूश' (1977), 'कबिरा खड़ा बजार में' (1981), 'माधवी'
(1984), 'मुआवजे' (1993), 'रंग दे बसंती चोला', 'आलमगीर' जैसे प्रसिद्धि
प्राप्त नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अंतर्गत उन्होंने 'मेरे भाई : बलराज'
(1980), 'अपनी बात', 'जलियांवाला बाग' (1994), 'मेंरे साक्षात्कार' (1996) तथा
बाल साहित्य के अंतर्गत 'वापसी' 'गुलेल का खेल' का सृजन कर साहित्य की हर विधा
पर अपनी कलम अजमायी। 1998 में पद्म भूषण से विभूषित भीष्म साहनी की साहित्य के
क्षेत्र में असली पहचान बनी-1965 में 'नई कहानियाँ' जैसी महत्वपर्ण
कथा-पत्रिका का संपादक पद सँभालने से और उन्होंने अपना जीवन साहित्य की सेवा
में समर्पित कर दिया। अपनी मृत्यु (11 जुलाई, 2003) के कुछ दिन पहले उन्होंने
'आज के अतीत' नामक आत्मकथा का प्रकाशन करवाया। भीष्म जी टॉलस्टॉय, प्रेमचंद,
चार्ल्सत डिकेंसा, थॉमस हार्डी, रवींद्र नाथ ठाकुर, शरतचंद्र, महादेवी वर्मा,
केथरीन मैन्सफील्ड, चेख़व, मैक्सिम गोर्की, रसेल, गाब्रियल गार्सिया मार्खेज
से प्रभावित थे। उनके कथा साहित्यर पर प्रेमचंद और यशपाल की गहरी छाप देखी जा
सकती है, हालाँकि, आलोचकों की दृष्टि में भीष्म साहनी ने प्रेमचंद और यशपाल की
तरह ग्रामीण-जीवन शैली को नहीं अपनाया है।
नई कहानी में सामाजिक यथार्थ एवं वस्तुपरकता की दृष्टि से भीष्म साहनी की
कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। मानवीय मूल्यों के वे बड़े हिमायती थे, उन्होंने
विचारधारा को अपने साहित्य पर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के
साथ जुड़े होने के साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी ओझल नहीं होने देते। इस बात
का उदाहरण उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' से लिया जा सकता है। उन्होंने धर्म के
आधार पर देश के बँटवारे और उसकी त्रासदी को अपने आँखों से देखा था और साजिश को
भी पहचाना था जिसे राजनीति और धर्म की जुगलबंदी ने अंजाम दिया था। इस उपन्यास
में वे सांप्रदायिकता के मूल उत्स की खोज करते हैं और उसके विकास की स्थितियों
को बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं, भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर लिखी उनकी
कृति 'तमस' ही उनको विश्व लेखक की श्रेणी में खड़ा करने के लिए काफी है। तमस
में जिस तरह से सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत और उसके पीछे की मंशा का चित्रण
है, वह उस उपन्यास को आज भी मौजूँ बनाता है। इस उपन्यास में यह दिखाया गया है
कि किस तरह से अँग्रेज हुक्मरानों के इशारे पर दंगे होते हैं। अँग्रेजों को जब
लगा कि उनकी हुकूमत हिंदुस्तान में नहीं चलने वाली है तब उन्होंने दोनों
समुदायों (हिंदू-मुस्लिमों) को लड़ाने का काम किया और उनका वह विष बीज आज तक
फल-फूल रहा है। तमस उपन्यास को गोविंदे निहलानी ने यादगार टेलीफिल्म की शक्ल
में ढालकर बदलते हालात में उसे नए मायने दिए। इसी उपन्यास पर उन्हें 1976 का
साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी मिला। भीष्म साहनी के पहले यशपाल ने अपने उपन्यास
झूठा सच में सांप्रदायिकता की समस्या को व्यापक स्तर पर उठाया था।
देश के विभाजन पर वैसे तो कई कहानियाँ लिखी गई हैं, लेकिन भीष्म साहनी की
कहानी 'अमृतसर आ गया है' का स्थान उनमें विशिष्ट है - खास करके उस दब्बून बाबू
के मनोविज्ञान के सूक्ष्म 'चित्रण के कारण जो अमृतसर आते ही शेर हो जाता है और
उनके अंदर दबी हुई सांप्रदायिकता हिंसा उग्र रूप धारण कर लेती है।
यदि स्त्री-पुरूष संबंध की बात की जाए तो भीष्म जी भारतीय गृहस्थ जीवन में
स्त्री-पुरूष के जीवन को रथ के दो पहियों के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका
मानना है कि विकास और सुखी जीवन के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य
का बना रहना अनिवार्य है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री लेखन की जमीन
तैयार करते हैं। उन्होंने 'कडि़याँ' उपन्यास में स्त्री और पुरूष के संबंधों
की पड़ताल की है। पात्र प्रमीला के माध्यम से वे आम भारतीय पत्नीय के चरित्र
को उजागर करते हैं और साथ ही पुरूष की खोखली आदर्शवादिता की कलई खोलकर रख देते
हैं। विभाजन की त्रासदी पर माँ की ममता पर एक बेहद रोचक कहानी है - पाली। इस
कहानी में विभाजन के समय एक हिंदू परिवार का बच्चा पाकिस्तान में बिछुड़ जाता
है; वहाँ उस बच्चेष को एक मुसलमान परिवार पालता-पोशता है। लेकिन कुछ वर्षों के
बाद ऐसी परिस्थिति बनती है कि वह बच्चा अपने हिंदू माँ-बाप के पास लौट आता है।
जिस मुसलमान दंपत्ति ने उसकी परवरिश की, उसके दिल पर क्या बीती और जब अपने
सनातनी परिवेश में लौटा तो उसके मानस पर क्या प्रभाव पड़ा, उसका जो चित्रण
भीष्म जी ने किया है, इससे एक तरफ ममता के अधिकार का प्रश्न अनायास उठता है,
तो दूसरी तरफ मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म द्वारा खड़ी की गई कृत्रिम दीवारों
का भी एक कचोटने वाला अहसास पाठक के मन पर पड़ता है।
भीष्म साहनी को 'चीफ की दावत' कहानी से ख्याति मिली। इस कहानी में भी एक औसत
परिवार है जिसे हम शायद निम्न मध्यमवर्गीय कह सकते हैं। कहानी का पात्र शामनाथ
एक क्लर्क है जो बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करता है। वह अपनी तरक्की पाने
की ख्वाहिश से अपने बॉस को घर बुलाकर दावत देता है ताकि वे खुश होकर उसे
पदोन्नति दे दें। इसी मानसिकता के कारण शामनाथ और उसकी पत्नी दोनों ही बूढ़ी
माँ को पण्य वस्तु की तरह ही देखते हैं। भीष्म जी ने बड़े ही कलात्मक तरीके से
शामनाथ की नजर में माँ को फर्नीचर आदि फालतू सामान के क्रम में ही शामिल करते
हुए दिखाया है - कुर्सियाँ, मेज, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच
गए। ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों
के पीछे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो जाती है
कि माँ का क्या होगा? शामनाथ को आशंका होती है कि साहब के सामने अगर माँ ने
ठीक से बर्ताव न किया तो उसका सपना टूटते देर न लगेगी। वह डरता है कि माँ को
आज के जमाने के अदब-कायदे मालूम नहीं है इसलिए वह उसे भीतर कोठरी में ही रहने
की, और साहब के सामने न आने की कठोर हिदायत देता है। माँ भी समझती है कि बेटे
के भविष्य का मामला है, लेकिन होता यह है कि साहब आता है, टेबल पर बिछे मेजपोश
की कढ़ाई देखकर खुश हो जाता है; यह जानकर कि यह माँ के हाथ की कारीगरी है, माँ
से मिलने की इच्छा व्यक्त करता है और क्लर्क को बधाई देता है कि तुम्हारी माँ
कितनी अच्छी कलाकार हैं। दरअसल कहानी में पारिवारिक संबंधों के मार्मिक विघटन
और बढ़ती संवेदनहीनता को दिखाया गया है, चेखव की विख्यात कहानी 'एक क्लर्क की
मौत' भी इसी तरह की महत्वपूर्ण कहानी है। दरअसल इस कहानी में, पूँजीवादी समय
में बेटा माँ को 'फालतू सामान' में तब्दील कर देता है और एक औसत नौकरीपेशा
व्यक्ति के मनोभावों और परिवार के विघटन का बारीकी से चित्रण किया गया है।
महानगरों खासकर दिल्ली। में पूँजीवादी विकास किस तरह से देशभर के गरीबों को
खींच-खींच कर ला रहा है और उन्हें दिहाड़ी मजूदर बना रहा है, जो ठेकेदारों के
रहमो-करम पर जिंदा रहते हैं। इसका अद्भुत चित्रण उन्होंने 'गंगो की जाया'
कहानी में किया है। इसी कहानी की तर्ज पर उन्होंने 'बसंती' उपन्यास में
सामाजिक और आर्थिक अंतर्विरोध, अनमेल विवाह, मध्यवर्गीय पाखंड, ऊँच-नीच की
भावना, सत्ता वर्ग की भावशून्यता को प्रस्तु्त किया है। इस उपन्यास में
उन्होंने पूँजीवाद के पोषक सरकारी तंत्र और निम्नवर्गीय जनों की जीवन को
समेटते हुए सरकारी तंत्र के छद्म को उभारा है। सरकारी तंत्र की सहायता से जहाँ
एक ओर महानगरों में नई-नई बस्तियाँ बनाई जाती हैं, वहीं दूसरी ओर शहर के किसी
छोर पर बसी निम्नवर्गीय सर्वहारा लोगों की बस्तियाँ हैं, जिन्हें उजाड़ने के
लिए सरकारी तंत्र हमेशा तत्पर है।
सरहदों की राजनीति करने वालों को अगाह करते हुए उन्होंने एक महत्वपूर्ण कहानी
रची-वाड्चू। इस कहानी का नायक न चीनी है न भारतीय है। वह एक मनुष्य है।
राजनीति ने इसी मनुष्य को संदेहास्पद बना दिया है। साहित्य का मुख्य उद्देश्यी
यह है कि वह मनुष्य की असली पहचान बनाए रखे। यह कहानी इसी उद्देश्य की पूर्ति
करती है और इसीलिए एक सार्थक रचना है।
वर्तमान परिदृश्य में दंगों से पीड़ितों को मुआवजा हासिल करने में कितनी
जद्दोजहद करनी पड़ती है और इसे हड़पने के लिए पूरा तंत्र हावी रहता है इसका
बखूबी चित्रण भीष्म जी ने अपने नाटक 'मुआवजे' में कर राजनीति, प्रशासन और
गुंडाराज की सत्ता का विमर्श रचते हैं। दंगे के बाद मिलने वाले मुआवजे पर
उन्होंने दिखाया है कि, दंगा होने से पहले ही मुआवजा देने की तैयारी कर ली गई
है। बस दंगा होने भर की देरी है। मानो यह दंगा नहीं, कोई प्राकृतिक आपदा आने
वाली हो। हालाँकि यह भी सच है कि शासन-प्रशासन प्राकृतिक आपदाओं के वक्त इतना
मुस्तद कभी नहीं रहता जितनी तत्परता वह दंगे की संभावना को लेकर दिखाता है।
दरअसल, राजनीति को चमकाने, चुनाव में उसकी फसल काटने और लूट-खसोट करने का जैसा
सुनहरा मौका दंगा होने से मिलता है वैसा दूसरे कामों में कम ही मिल पाता है।
दंगा एक ऐसा अवसर है जिसका लाभ नेताओं, अफसरों, व्यापारियों, दलालों और
अपराधियों, सभी को भरपूर मिलता है। 'मुआवजे' के पहले दृश्य में कमिश्नर को
टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है। वह कह रहा है कि - 'अगर हालात इसी तरह
बिगड़ते गए तो सोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए'। 'अबकी बार दंगा जबर्दस्त होगा'।
'उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा'। उसकी बातों में जो विश्वास झलकता है
उससे तो यही जाहिर होता है कि दंगा कराने की कोई योजना पहले से बना ली गई है
जिसमें मंत्री, अफसर और गुंडे शामिल हैं। यहाँ यह कहा जा सकता है कि दंगा
करवाने का सिलसिला आज भी थमा नहीं है।
ताजमहल को जब भी देखा, उसमें 'सौंदर्य' नहीं दिखा, शिल्पियों की चित्कारें ही
सुनाई दी। इसी तर्ज पर भीष्म साहनी ने पहला नाटक 'हानूश' रचा। नाटक का पात्र
हानूश ने 17 वर्ष तक दिन-रात मेहनत करके मीनारी घड़ी बनाई। घर में पत्नी और
बच्चे अभाव में जीने को विवश हुए। उनका श्रम सार्थक हुआ, घड़ी बन गई, उन्हें
राजा की तरफ से सम्मानित भी किया गया लेकिन तानाशाह राजा के गुरूर की वीभत्स
नीचता ही कहेंगे, जिस प्रकार से ताजमहल बनाने वाले शिल्पियों के हाथ कटवा दिए
थे, ताकि शिल्पी दुबारा ताजमहल न बना सकें, उसी प्रकार से राजा ने हानूश की
आँखें फुड़वा दी ताकि वह ऐसी दूसरी घड़ी न बना सके। हानूश क्रोधवश देश छोड़कर
जाना चाहता है, पत्नी इनकार कर देती है क्योंकि राजा की सहायता से उनके घर का
खर्चा चल रहा था। हानूश घड़ी का भेद अंतनस में अपने साथ लेकर देश छोड़कर चला
जाता है, राजा को इस चेतावनी के साथ कि 'घड़ी बंद भी हो सकती है और घड़ी बनाने
वाला मर भी सकता है लेकिन घड़ी बनाने का भेद उसके साथ रहेगा।' यह एक श्रमिक की
ललकार थी कि कलाकार की मौत कभी नहीं होती है वह अपने सृजन के माध्य म से हमेशा
जीवित रहता है।
भीष्म साहनी का रचनाफलक बहुत विस्तृत है और दृष्टि बहुत गहरी। उनका साहित्य
केवल हथियार स्वरूप नहीं है वह अन्वेषण के पथ पर चलता है। 'माधवी' नाटक में
स्त्री अस्मिता, मूल्य व शील का अन्वेषण हुआ है। 'माधवी' का कथानक महाभारत के
उद्योगपर्व से लिया गया है जो पौराणिक होते हुए भी वर्तमान सामाजिक संदर्भ में
उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। सारा कथानक नारी की नियति पर केंद्रित
कर लिखा गया है कि पितृसत्तात्मक समाज में उस समय भी नारी उतनी असहाय थी जितनी
आज है। लाँछन, अपमान व शोषण की प्रतिकूल परिस्थितियों ने तमाम प्रसंगों में
माधवी की संवेदना-भूमि को क्षत-विक्षत किया है। संदर्भ बदलते हैं, चेहरे बदलते
हैं या परिवेश बदलता है। माधवी कभी शाहबानो बन जाती है और अपने गुजारे भत्ते
के लिए पति के खिलाफ लड़ती है। वही माधवी पुष्पा, गीता या ईब जैसी लड़कियों
में तब्दील हो जाती है, जो दहेज की चिता पर जला दी जाती हैं। अक्सर माधवी
बाजार में जिंदा गोश्त की तरह बिकती है। आज चाहें हम जितना भी समतामूलक समाज
की बात कर लें, लेकिन वास्तविकता कुछ और बयाँ करती है। दरअसल नारी को भोग्या
की वस्तु के रूप में व्यवहृत करने वाले इस समाज में आज भी नारी को मनुष्य
मात्र का दर्जा भी हासिल नहीं हुआ। भीष्म साहनी ने 'कबिरा खड़ा बजार में' नाटक
में कबीर के क्रांतिदर्शी सामाजिक पक्ष को पूरी सहानुभूति एवं आदर के साथ
प्रस्तुत किया है। मध्यकाल की राजसत्ता एवं समाजसत्ता के अविवेकी, दुराग्रही,
अहंग्रस्त एवं असहिष्णु स्वरूप के अलावा यह नाटक अपने समय की चेतना, द्वंद्व
एवं विद्रूप को जीवंत कर देता है। इस नाटक के कबीर, सत्य के लिए कभी न डिगने
वाले योद्धा के रूप में उपस्थित होते हैं जिसमें सभी प्रकार की सत्ताओं से एक
साथ जूझने की अपराजेय शक्ति मौजूद है।
भीष्म साहनी कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार के साथ एक सशक्त अभिनेता भी थे। वे
अपने अग्रज अभिनेता बलराज साहनी के सानिध्य में बचपन से ही नाटकों में हिस्सा
लेते रहे। वह भारतीय नाट्य संघ इप्टा से भी जुड़े हुए थे। स्वाभाविक रूप से
उनकी रुचि अभिनय में थी और वह फिल्मों की ओर भी आकर्षित हुए।' मोहन जोशी हाजिर
हों' फिल्म में उन्होंने भारतीय न्याय व्यवस्था का विद्रूप और उसमें पिसते हुए
सामान्य लोगों का जीवंत अभिनय किया। इसी तरह लिटिल बुद्धा, तमस और राजधानी
जैसी संवेदनशील फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों में उनका शानदार अभिनय लोगों
को आकर्षित करता है।
स्वतंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य को जिन रचनाकारों ने समृद्ध किया है उनमें
भीष्म साहनी का नाम अग्रणी है। उनकी कहानियों में अंतर्विरोधों व जीवन के
द्वंद्वों, विसंगतियों से जकड़े मघ्यवर्ग के साथ ही निम्नवर्ग की जिजीविषा और
संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। नई कहानी आंदोलन में कुछ समर्थ किंतु
प्रचारप्रिय लेखकों के नाम बढ़-चढक़र सामने आए। भीष्म जी ऐसी आत्मश्लाघा से
हमेशा दूर रहे। वे लेखक कहलाने के लोभ से निर्लिप्त रहकर रचनाकर्म को आवश्यक
सामाजिक कर्म मानकर उसमें जुटे रहे। वर्तमान में नए प्रकार की समस्याओं को
देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी रचनाएँ दिनों-दिन अधिक प्रासंगिक होती
जाएँगी। भीष्म साहनी के साहित्य अध्ययन के दौरान मन में एक बात खटकती है कि
उन्होंने दलित विषय पर बहुत कम लिखा है। किसी भी साहित्यकार या लेखक का
मूल्यांकन समग्रता में किया जाना चाहिए ताकि आलोचकीय पक्ष भी पाठकों के समक्ष
आ सके। मानवीय सरोकारों के रचनाकार भीष्म साहनी का भी समग्रता में मूल्यांकन
होना चाहिए। शतवार्षिकी का मौका बेहतर है और लोगों को खुलकर अपनी बात कहनी
चाहिए।