इब्राहिम अल्काजी भारतीय रंगमंच में उस किंवदंती की तरह है जो हमारी पीढ़ी तक दंतकथाओं के रास्ते पहुँचे हैं। ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मिथकों और महाकाव्यों का पारायण किए बिना हम उनका अधिकांश जानते हैं या जानने का दावा करते हैं। लेकिन मुकम्मल रूप से जानना और मिथकीय आवरण के परे यथार्थ छवि देखना तभी संभव हो सकता है खुद उस तक पहुँचे।
उन्नीस सौ चौवन में इब्राइम अल्काजी, जो लंदन के प्रतिष्ठित रायल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स से प्रशिक्षण प्राप्त हैं, बंबई में अपनी रंगमंचीय गतिविधि, जिसमें प्रदर्शन और प्रशिक्षण दोनों ही शामिल हैं, स्थापित कर चुके हैं, भारत राज्य द्वारा स्थापित किए जा रहे नाट्य विद्यालय का प्रमुख बनने के प्रस्ताव को अपने को उम्र के लिहाज से अनुपयुक्त पाकर ठुकरा देते हैं क्योंकि उनकी उम्र अभी महज उनतीस वर्ष है और वे अपने ही द्वारा परिकल्पित संस्थान के प्रमुख बनने को सहज नहीं ले पाते। लेकिन इसके ठीक सात साल के बाद वह इस प्रस्ताव को मंजूर कर लेते हैं क्योंकि इस बार वह अपने को तैयार पाते हैं और राष्ट्रीय भाषा में और राष्ट्रीय स्तर पर काम करना चाहते हैं। इब्राहिम अल्काजी के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का निदेशक बनने के बाद भारतीय रंगमंच फिर वैसा ही नहीं रहता। इसमें एक गुणात्मक परिवर्तन आता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुकूल गढ़ते हैं और ऐसे स्नातक तैयार करते हैं जिस पर संसार का कोई भी रंगमंच गर्व कर सकता है। सतहत्तर के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से त्यागपत्र देने के बाद भारतीय रंगमंच में एक बड़ा रिक्त उत्पन्न होता है, विद्यालय में भी। और ऐसा रिक्त जिसकी पूर्ति वे स्वयं अपनी वापसी पर भी नहीं कर पाते। (देवेंद्र राज अंकुर : 2000)।
भारतीय रंगमंच में अल्काजी के योगदान की सराहना सब करते हैं लेकिन जब आप खोजने चलें कि उनके इस योगदान का लेखा जोखा कहाँ है, किसने कैसे उनके रंगकर्म का मूल्यांकन किया है, तो निराशा हाथ लगती है। इक्का दुक्का लेखों, और संस्मरणों के अलावा कहीं कुछ नहीं मिलता। क्या यह विडंबना नहीं है कि इब्राहिम अल्काजी पर एक मुकम्मल किताब तक नहीं है - न अँग्रेजी में न हिंदी में! यह एक बड़ा अभाव है खासकर वर्तमान रंगकर्मियों, शोधार्थियों, रंग प्रशिक्षकों, इत्यादि के लिए। हमारे लिए यह जानना बेहद आवश्यक है कि भारतीय रंगमंच में एक पैराडाईम शिफ्ट पैदा करने वाले के दिमाग में क्या चल रहा था? वह अपनी सोच को क्रिया में कैसे रूपांतरित करते हैं? उनके प्रयासों को उनका समय और उनके बाद के समय का रंगमंच कैसे ग्रहण करता है? और समय के इतिहास में उनकी अपनी ऐतिहासिक उपस्थिति के मायने क्या हैं?
इस लेख में इन सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। खासकर यह लेखक उनकी सोच की क्रिया में रूपांतरण की प्रक्रिया की व्याख्या करने में अभी असमर्थ है जिसने उनके द्वारा निर्देशित एक भी प्रस्तुति नहीं देखी। अतः इस लेख में यह प्रयास किया गया है कि इब्राहिम अल्काजी के चिंतन के कुछ पहलुओं को सामने लाया जाए, उनसे संवाद किया जाए। लेख में कुछ खास प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है जैसे अल्काजी के लिए रंगमंच क्या है? भारतीय रंगमंच क्या है? रंगमंच के विकास (विशेषकर राष्ट्रीय रंगमंच) की उनकी योजनाएँ कौन सी थीं और वे कितनी व्यावहारिक थीं? अभिनेता और अभिनय प्रशिक्षण के बारे में उनके क्या विचार हैं?
जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण के बिना रंगमंच असंभव है :
"रंगमंच हाँ हाँ नहीं कर सकता, इसे संदेह करना चाहिए, प्रश्न करना चाहिए और अभियोग लगाना चाहिए"। (अल्काजी : 1969-70)। अभिजात और कलावादी छवि के उलट अल्काजी की इस मान्यता से कुछ लोग चौंक सकते हैं। लेकिन अल्काजी अपनी प्रस्तुतियों में जो भी करें रंगमंच की भूमिका की जब भी वे चर्चा करते हैं तो उसकी सामाजिक भूमिका से इतर उन्हें कुछ भी स्वीकार्य नहीं। यद्यपि वे मानते हैं कि सामाजिक भूमिका का निर्वाह तभी हो सकेगा जब अपने युग की नब्ज को थामा जाए और यह तभी होगा जब आपको अन्य कलाओं, और अन्य विधाओं जैसे इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन इत्यादि की जानकारी हो। अभिनेता को और विद्यालय के प्रशिक्षुओं को भी वे इसी दिशा में ले जाने का प्रयास करते हैं।
1962 में सेमिनार के नाटक विशेषांक में वे सवाल उठाते हैं - "रंगमंच का लक्ष्य क्या है?" इसका जवाब वे प्रश्नों की श्रृंखलाओं में तलाशते हैं और विभिन्न परंपराओं में निर्धारित रंगमंच के लक्ष्यों पर संदेह भी प्रकट करते हैं कि क्या ये लक्ष्य रंगमंच के लक्ष्य को समग्रता में अभिव्यक्त कर पा रहे हैं? रंगमंच का लक्ष्य क्या है? "ग्रीक चिंतन का विरेचन या मध्यकाल में आत्मा का उत्थान या एक प्रकार का धार्मिक आनंद, नाट्यशास्त्र में मनुष्य और देवता के बीच संप्रेषण का साधन या स्तानिस्लावस्की के लिए सूक्ष्म सहज विवरणों के जरिए अंतर्जीवन की सावधानीपूर्वक पुनरर्चना, प्रकृतवाद के यथार्थ के भ्रम का सावधानीपूर्वक किया गया पोषण, उन्नीसवीं सदी के नाट्य परंपरा की तरह या ब्रेख्त के मानव दृश्य का पैनोरमाई सर्वेक्षण। स्पष्ट है कि रंगमंच का लक्ष्य इनमें से कोई एक भी और सभी हो सकता है। अल्काजी यह भी मानते हैं कि शिक्षा या मनोरंजन भी रंगमंच का लक्ष्य नहीं है और यदि ऐसा है तो वह संयोग है। (अल्काजी : 1956)। चूँकि किसी भी समय विशेष का रंगमंच अपने युग के अनुकूल अपना लक्ष्य तलाशता है इसलिए उसके लक्ष्य में कभी समानता नहीं हो सकती। अल्काजी इस तथ्य को स्थापित करते हैं।
अल्काजी के लिए क्या है रंगमंच? "रंगकर्म मनुष्य को साँस लेने के समान आवश्यक है। वह जीवन और मृत्यु के अर्थ खोजने, समाज में मनुष्य की भूमिका पहचानने और व्यक्ति के अंतरंग मानस संसार की थाह लेने का सामूहिक प्रयत्न है"। (अल्काजी : 1970)। और रंगमंच का लक्ष्य क्या है? वे कहते हैं - "संभवतः ऐसा कहना सही है कि रंगमंचीय अनुभव मनुष्य के लिए स्तब्धकारी जीवनानुभव हो सकता है। यह एक त्रासद उद्घाटन हो सकता है या मनुष्य पर और उसके मसलों पर कटु व्यंग्य, या हास्य के जरिए चेतना पर हल्का दबाव या प्रहसन का एक बड़ा धक्का जो इच्छित समापन को करीब ले आए"। वे बताते हैं कि 'रंगमंच सत्य की शाश्वत तलाश है अनजाने और नए इलाकों के जरिए जो रंगमंच को अपना जादू, उत्साह और भय प्रदान करता है। इस तरह रंगमंच जीवन को देखने का एक तरीका है। जो स्वाभाविक सत्य के खिलाफ प्रश्न करता है उसे रोकता है जिसे बहुत पहले स्वीकार कर लिया गया है अनुर्वर मान कर'। (इब्राहिम अल्काजी : 1956)। ऐसा कह कर वे स्थापित करते हैं कि रंगमंच हमेशा जाने गए सत्य से परे उसके पीछे जा कर नए सच की तलाश करता है और सच की यह तलाश जीवन से जुड़ कर ही संभव है।
रंगमंच अल्काजी के लिए जीवन के प्रति दृष्टिकोण है। जिसे वे हमेशा उद्धृत करते हैं "सब शिल्प पद्धतियाँ समाज में मनुष्य के अस्तित्व के प्रति किसी दृष्टि से ही जुड़ कर सार्थक हो सकती हैं। ऐसी ही संपूर्ण दृष्टि को मैं नाट्य दृष्टि कहूँगा। यह मनुष्य को अपने चारों और के संसार को रूप देने में समर्थक एक सक्रिय, सकारात्मक एवं निश्चयात्मक शक्ति मानती है। ऐसी दृष्टि मानव इतिहास और सामाजिक संस्थाओं के विकास का व्यापक और गहरा अध्ययन करने से ही मिल सकती है और यह अध्ययन मनुष्य को, अपने आप को और अपने परिवेश को बदलने के सामर्थ्य में आस्था दिलाता है"। (अल्काजी : 1976)
रंगमंच की तारतम्यता बदलते हुए परिवेश से है इसलिए वह हमेशा बदलता रहता है। समय की धारा में पीछे मुड़कर वह जीवन की अभिव्यक्ति नहीं करता, या अतीत के किसी रोमान को पूनर्जीवन नहीं देता उसकी दृष्टि हमेशा वर्तमान पर टिकी होती है। अल्काजी निश्चयात्मक रूप में कहते हैं - "रंगमंच को हमेशा आधुनिक होना होगा अपने पीछे की परंपरा की पूरी समृद्धि अपने साथ लिए हुए। आधुनिक रंगमंच का केवल एक ही वैध प्रकार है। और इसे अवांगार्द रंगमंच कहा जाता है, जो रंगमच की मूल प्रवृति है"। साफ है अल्काजी रंगमंच का लक्ष्य 'किसी स्थापित सत्य पर संदेह और युगीन सत्य की तलाश' निर्धारित करते हैं और इस परिप्रेक्ष्य में रंगमंच का कार्य बदलाव भी है यथास्थिति का पोषण नहीं। वे आधुनिक चेतना के विकास की जिम्मेदारी भी रंगमंच को देते हैं। उनके अपने रंगकर्म में इस चेतना का सतत पोषण सहज दिखता है।
अल्काजी के चिंतन में यह साफ है कि जीवन और वर्तमान समय के बिना रंगमंच का कोई अस्तित्व नहीं है वह एक कवायद भर है जिसमें कोई जीवंतता नहीं। इसी समझ के नाते वह रंगमंच की सामाजिक भूमिका को और अधिक सक्रिय करने की बात कहते हैं। "मैं सोचता हूँ कि राजनीति और रंगमंच के बीच और सामाजिक स्थिति और रंगमंच के बीच बहुत ही करीबी रिश्ता है। मेरे अनुसार जरूरी है कि रंगमंच लोगों के जीवन को तराशने और अधिक लोगों के लिए सार्थक सरकार बनाने के लिए प्रगतिशील सोच बनाने में रंगमंच को अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए" (इब्राहिम अल्काजी : 1975)। इसलिए रंगमंच को जनता से जोड़ना होगा और जनता की भागीदारी भी रंगमंच में बढ़ानी होगी और सक्रिय भागीदारी। "मैं चाहता हूँ कि जनता किस तरह का रंगमंच चाहते हैं इसको तय करने में उनकी अधिक से अधिक भूमिका रहे। मैं बहुत उत्सुक हूँ कि ये रंगमंच जनता का रंगमंच बने ना केवल कुछ जुनूनी लोगों का शौक बन कर रह जाए और वे अपनी पसंद का कुछ करें, जो यह करेंगे कि वेस्ट एंड और ब्रॉडवे की सफल प्रस्तुतियों को यहाँ करेंगे क्योंकि वे वहाँ सफल हो चुके हैं'। (इब्राहिम अल्काजी : 1975)।
अल्काजी यह पहचान रहे हैं कि रंगमंच और रंगकर्मी जब सामाजिक भूमिका का निर्वाह करने को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते तब वे अपनी चमक दमक बढ़ाने के लिए रंगकर्म करते हैं और फिर एक नकली किस्म का रंगमंच विकसित होता है। भारतीय रंगमंच का इतिहास (और वर्तमान भी) देखने पर उनका यह भय वाजिब नजर आता है।
अल्काजी की इस दृष्टि के बावजूद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनके द्वारा की गई बहुत सी प्रस्तुतियों पर यह आरोप लगाया गया कि उनकी भारतीय समाज में कोई भूमिका नहीं थी और वे अपने मिजाज में पाश्चात्य थीं। इस लेख का लक्ष्य इन आरोपों की पड़ताल का नहीं है लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अल्काजी एक विद्यालय में प्रशिक्षण के लिए यह प्रस्तुतियाँ कर रहे हैं। वैसे प्रशिक्षण के पीछे जो भी उनका दर्शन है उसमें भी रंगमंच की सामाजिक भूमिका को ही वे ध्यान में रखते हैं। वे रंगमंच में सीखने के जिन तीन पहलुओं को रेखांकित करते हैं वह है; रंगमंच बतौर शिल्प, रंगमंच बतौर कला और रंगमंच का सामाजिक उत्तरदायित्व। (अल्काजी : 1981)।
इब्राहिम अल्काजी अपने लेखों, साक्षात्कारों में जब भी रंगमंच को परिभाषित करते हैं इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह एक दृष्टिकोण है और जीवन के प्रति आपका रवैया ही आपके रंगमंच को निर्धारित करता है और वे जीवन व रंगमंच के बीच एकता को सच्चे रंगकर्म के लिए अनिवार्य मानते हैं। इसके लिए वे बौद्धिक इमानदारी और बौद्धिक एकाग्रता की अपेक्षा करते हैं जो रंगकर्मियों में हो और ऐसा प्रशिक्षण से ही आ सकता है।
प्रशिक्षण स्वयं अर्जित किया जाता है :
'मैंने महसूस किया कि किसी भी नई प्रतिभा को, जिसे समूह (रंग समूह) अभिनेता, नाटककार, निर्माता जैसी भूमिकाओं में आकर्षित करता है, रंगमंच में प्रवेश से पहले कुछ बुनियादी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। अन्यथा जैसा कि अधिकतर जगहों पर हुआ है, रंगमंच हमेशा शौकिया स्तर पर ही रहेगा। शौकिया स्तर से इसे ऊपर उठ कर कठिन कार्य करने चाहिए; इसे अधिक जिम्मेदारी विकसित करनी और निभानी चाहिए। (अल्काजी : 1975) ।
इब्राहिम अल्काजी के व्यक्तित्व में प्रशिक्षक का व्यक्तित्व अधिक हावी है। राडा (रायल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स, लंदन) से लौटने के बाद वे बंबई में नाट्यकर्म की शुरुआत के साथ ही थियेटर युनिट में प्रशिक्षण की भी शुरुआत करते हैं और 1962 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आने तक वहाँ उल्लेखनीय काम करते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि उम्दा किस्म का रंगमंच तैयार और अनुशासित अभिनेताओं के बिना संभव नहीं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आने से पहले ही वे अभिनेताओं के प्रशिक्षण के संबंध में संगीत नाटक अकादमी के ड्रामा सेमिनार में लंबा व्याख्यान देते हैं। प्रशिक्षण संबंधी उनके कार्य की कुंजी यही व्याख्यान है।
इस व्याख्यान से पहले कुछ बातें उनके प्रशिक्षण के अनुभव से। अल्काजी राडा से नाखुश थे, अपनी उम्मीद के विपरीत वह उन्हें एक बंद संस्थान लगा जिसने अपनी आप को बाहर के रंगमंच के लिए नहीं खोला था। एक समय वे इसे छोड़ना भी चाहते थे लेकिन नहीं छोड़ा। वहाँ सीखने के बारे में जो वे कहते हैं वह दिलचस्प है - "मैंने वहाँ सीखा कि रंगमंच में क्या नहीं करना चाहिए। मैंने यह भी सीखा कि रंगमंच का काम व्यापक रूप से स्वशिक्षा का है और इसीलिए कोई संस्थान नहीं है जो आपको उस तरह का प्रशिक्षण दे जिसे आप चाहते हैं। जहाँ कहीं भी आप जाते हैं आप अपना प्रशिक्षण स्वयं अर्जित करते हैं" (अल्काजी : 1975)। यहाँ अल्काजी साहब से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि फिर प्रशिक्षण क्यों? उनके चिंतन से यह जवाब मिलता है कि अतीत के प्रवाह के रूप में अपने समय को पहचानने उनसे संवाद करने, अपने शरीर पर नियंत्रण करने, शिल्प के रूप में अभिनय को साधने, कला के रूप में इसका आनंद लेने के लिए प्रशिक्षण जरूरी है। अनुशासित करने और माध्यम को समझने के लिए भी ताकि यह पेशेवर रुख अपना ले।
अल्काजी को यह सवाल भी परेशान करता है कि अभिनेता की खास कर भारत में अभिनेता की प्रशिक्षण की क्या शैली होगी? जहाँ रंगमंच की इतनी शैलियाँ हैं। और दो शैलियों के बीच इतना बुनियादी अंतर है जैसे रस और द्वंद्व का जो रूप संस्कृत और पाश्चात्य नाटकों में है। इसका जवाब भी वे देने की कोशिश करते हैं - "किसी एक समय में कुछ निश्चित मान्यताएँ सत्य मानी जाती है और इन मान्यताओं के आधार पर अभिनेता का प्रशिक्षण निर्मित करना चाहिए। कोई भी स्वीकार करता है कि अभिनय एक कला है और रंगमंच में अभिनेता कलाकार। वह दूसरे की रचना का रचयिता और व्याख्याता दोनों है। उसका यंत्र उसका शरीर है, इसमें वह एक ही समय में रचयिता और रचना दोनों है। ये समझ कुछ हद तक अभिनेता के प्रशिक्षण की गुणवत्ता और प्रकार निर्धारित कर देते हैं।' (अल्काजी : 1956)।
प्रशिक्षण की प्रक्रिया में सीखने से अधिक सीखे हुए को पीछे छोड़ने की भूमिका भी चलती है। क्योंकि अधिकांश प्रशिक्षु सिनेमाई अभिनय या तब के समय में पारसी या व्यावासायिक रंगमंच के अतिरंजित अभिनय को ही अभिनय मान के अभिनय सीखने चले आते थे। उनके इस अनुभव से आजाद कराना प्रशिक्षक के लिए बड़ी चुनौती थी। 'प्रशिक्षक के सामने बड़ी कठिनाई है कि वह अनुर्वर रीतियों और बाँझ परंपरा के कुड़े से विद्यार्थी को आजाद करे जो वह अजनाने में सीखता है'। 'यह स्थिति नाट्य प्रशिक्षक के काम को अत्यंत कठिन कर देती है। अतः प्रशिक्षक को चाहिए कि वह अपने प्रशिक्षणार्थियों को पूरी तरह अनावृत कर दे, नवजात शिशु की तरह। उसके शरीर का पुनर्जन्म की तरह संस्कार करे। उसकी कुंठाओं और आंतरिक जटिलताओं से मुक्त कराने के लिए पूरे प्रयत्न करे। और फिर अभिनेताओं को अपने शारीरिक अवयवों, उनकी आंतरिक सुंदरता, अंतर्मन की अंतहीन छायाओं और प्रतिच्छायाओं को स्वयं समझना होगा।" (अल्काजी : 1956)।
"अभिनय प्रशिक्षण की दो श्रेणियाँ हैं : सिद्धांत और व्यवहार। जब मैं सिद्धांत कहता हूँ तो उसका आशय अभिनय के दर्शन से है, अभिनय के इतिहास, नाट्य साहित्य, रंग स्थापत्य, वेश भूषा, और दृश्य परिकल्पना से से है, भारत और विश्व दोनों में। और रंगमंच एवं चित्रकला, संगीत, नृत्य, स्थापत्य और शिल्प के बीच संबंध। और कमोबेश सिद्धांत अभ्यास को गढ़ता है, सिद्धांत कोई स्थायी पदार्थ नहीं है, अभ्यास इसके नतीजों/प्रभाव से बंधा हुआ है"। (अल्काजी : 1956)। इसलिए अल्काजी के प्रशिक्षण में अभ्यास की बड़ी भूमिका है रानावि के पाठ्यक्रम में अल्काजी ने ऐसी व्यवस्था की थी जिससे प्रशिक्षण मंचन की तैयारी के दौरान होता था।
अल्काजी के लिए शिक्षा का पहला चरण है विद्यार्थी के व्यक्तित्व के एकीकरण जिसका लक्ष्य है उसके (विद्यार्थी) और उसके पर्यावरण के बीच सजीव रिश्ता कायम करना। कलाकार के लिए भ्रम नाम की कोई चीज नहीं है। पहली शर्त है विचार और अभिव्यक्ति की सफाई। इसलिए उसे प्रशिक्षण के पहले चरण में कलास्वादन की क्षमता को बढ़ाया जाता है। रंगमंच जैसी मिश्रित कला के लिए यह जरूरी भी है कि अन्य कलाओं और अन्य विधाओं के प्रति अभिनेताओं की रुचि हो। अल्काजी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में स्वयं निगरानी करते थे कि उनके अपने विद्यार्थियों का इस दिशा में विकास हो। और उनका अभिनेता कैसा है? अपने ही एक प्रशिक्षु अभिनेता मनोहर सिंह के बारे में अल्काजी कहते हैं -
एक जिस्मानी एनर्जी जो थियेटर में वाइब्रेट करती है
एक रोशन ख्याल एनर्जी जो रोशनी चादर की तरह बिछ जाती है
एक जजबाती और नफसानी एनर्जी जो उकसाती और पुचकारती है
एक इमैजिनेशन की एनर्जी जो नाटक को ऊँची सतह तक ले जाती है और उसके साथ दर्शकों को भी उन ऊँचाइयों तक ले जाती है।
अल्काजी ने रानावि का जो पाठ्यक्रम बनाया था उसमें विविध शैलियों के नाटक खेलने होते थे जैसे संस्कृत, समकालीन आधुनिक नाटक और पाश्चात्य नाटक। उनके आधुनिक अभिनेताओं के पास यह सुविधा नहीं है कि वे किसी एक शैली में प्रशिक्षित हो और एक ही शैली में काम करें। 'संस्कृत के अभिनेता ने चीनी नाटक में कभी काम नहीं किया। एलिजाबेथ अभिनेता ने शास्त्रीय ग्रीक त्रासदियों में, न ही आप यक्षगान के अभिनेता की कल्पना जात्रा और नौटंकी करते हुए कर सकते हैं। लेकिन आज के अभिनेता को मानवता के समूचे इतिहास का व्याख्याता होना है। इस हिसाब से प्रशिक्षण की पद्धति निर्धारित होगी"(अल्काजी : 1981)। एक ही सत्र में वह कालिदास के नाटक में अभिनय कर रहा होता है तो ब्रेख्त, शेक्सपीयर या मोहन राकेश के नाटक में भी। अल्काजी ने प्रशिक्षण के लिए वह शैलीगत विविधता तैयार की थी जिससे अभिनेता के शैली में एक लचीलापन आ जाए और वह सभी नाटकों में अपने को आत्मसात कर सके। भारत में विविधतापूर्ण शैलियों की उपस्थिति और पाश्चात्य प्रभावों से उपजे आधुनिक शैलियों में भी पर्याप्त विविधता देखते हुए प्रशिक्षण का यह तरीका अद्वितीय था।
अल्काजी अपने चिंतन में यह बराबर खयाल रखते हैं कि वे कहीं भी ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल न करें जिससे लगे कि वे अभिनेताओं के प्रशिक्षण में अपने विचार थोप रहे हैं। प्रशिक्षण के लिए भी वे "नर्सिंग" शब्द का इस्तेमाल करते हैं जिसमें धीरे धीरे अभिनय को तराशा जाता है। वे नहीं मानते कि प्रशिक्षण कुछ सिखा सकता है उनके अनुसार प्रशिक्षक और प्रशिक्षु साथ-साथ सीखने की प्रक्रिया में ही सीख सकते हैं।
वे उम्मीद करते हैं कि विद्यार्थी विविध परंपराओं की पहचान करके नए मार्ग की खोज करे। और विद्यालय से ऐसे स्नातक निकलें "जो भारतवर्ष और विश्व के नाटक साहित्य में पारंगत हों, जिनमें सूक्ष्म संवेदनशीलता और ऐसी निर्मल दृष्टि हो कि वे आज के अधिकांश रंगमंच की झूठी तड़क-भड़क, धोखे और घटियापन को पहचानकर भारतीय परंपरा के भीतर ही प्रामाणिक नाट्यानुभूति के प्रखर हीरे जैसे सौंदर्य को पा सकें"। (अल्काजी : 1965)। यहाँ भारतीय परंपरा के भीतर पर उन आलोचकों को गौर करना चाहिए या उनको भी जो इस पूर्वग्रह से ग्रस्त है कि अल्काजी के व्यक्तित्व में पाश्चात्य बहुत अधिक हावी था।
केवल अरोड़ा ने लिखा है कि अल्काजी अभिनेताओं को कठपुतली की तरह अपने वृहद योजना की एक इकाई के रूप में स्थापित करते थे। केवल अरोड़ा इसे दूसरों पर विश्वास नहीं करने के रूप में परिभाषित करते हैं यानी उन्हें यकीन नहीं था कि उनका इच्छित मंतव्य प्रस्तुत करने में अभिनेता कामयाब हो सकेगा। (केवल अरोड़ा : 2003) इसी को दूसरी तरह से देवेंद्र राज अंकुर भी कहते हैं लेकिन उनके योगदान का उल्लेख कर - "आधुनिक भारतीय रंगमंच में अल्काजी पहले ऐसे निर्देशक है जिन्होंने अभिनेता के सर्वांगिण प्रशिक्षण की नींव डाली - उसकी आवाज, उसका रंग भाषण, उसका शरीर, उसका दिमाग, उसकी सोच, ऐसा कोई भी पहलु नहीं है जिसके प्रशिक्षण पर उन्होंने जोर नहीं दिया है। जो अभिनेता स्वयं प्रशिक्षण के इस महत्व को शुरू में ही समझ गए वे अपनी लगन मेहनत और साधना से प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गए और जिन्होंने उस प्रशिक्षण के महत्व पर ध्यान नहीं दिया वे गुमनामी के अँधेरे में खो गए। (देवेंद्र राज अंकुर : 2010)
राष्ट्रीय रंगमंच कैसे स्थापित हो सकता है :
राष्ट्रीय रंगमंच का एक खाका अल्काजी ने रानावि के निदेशक का पद ग्रहण करते समय दिया था। इसको देखने के बाद पता लगता है कि इस पर अमल किया गया होता तो भारतीय रंगमंच का एक अलग ही स्वरूप मिलता जिसमें विविधता भी होती और एकता भी। यह परिकल्पना करते हुए अल्काजी स्थानीय विविधता को बिलकुल अनदेखा नहीं करते।
राष्ट्रीय रंगमंच की उनकी योजना इस प्रकार है :
एक केंद्रीय राष्ट्रीय रंगमंच हो जिसका मुख्यायलय दिल्ली में हो जो राष्ट्रीय भाषा हिंदी में चले और क्षेत्रीय रंगमंच विकेंद्रित हो जिसे राज्य निजी तौर क्षेत्रीय भाषाओं में रंगमंच के विकास हेतु संचालित करें। केंद्रीय राष्ट्रीय रंगमंच का फलक बड़ा हो और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय इसी का अंग हो जो रंगकर्मियों को प्रशिक्षित करे। इसमें दो पूर्णकालिक रेपर्टरी हो जिसमें अकादमी के प्रशिक्षित स्नातकों को रखा जाए। इसके साथ ही उपकरणों से अच्छी तरह लैस एक बंद प्रेक्षागृह जिसकी क्षमता हजार लोग, एक-दूसरा जिसकी क्षमता चार सौ और एक सस्ता मुक्ताकाशी रंगमंच हो। दोनों बंद प्रेक्षागृह शहर के विभिन्न छोरों पर हो, विभिन्न दर्शकों के लिए। विद्यालय में पुस्तकालय, संग्राहलय, होने चाहिए और कार्यशालाएँ हों। दोनों रेपर्टरी अलग अलग स्वतंत्र रूप से काम करें। आवश्यक है कि प्रत्येक वर्ष कम से कम चार प्रस्तुति करें, एक क्लासिक, दो समकालीन नाटक और एक अनुवादित विदेशी नाटक। नाटककारों को भी अच्छे पारिश्रामिक पर रेपर्टरी पर जोड़ा जाए ताकि उन्हें रंगमंच का सजीव अनुभव मिले और उनके लिखे नाटकों से आने वाले समय में अच्छे नाटकों का पुस्तकालय तैयार हो जाए। एक रेपर्टरी दिल्ली में रहे तो दूसरा देश में भ्रमण करे, इससे एक अध्ययन भी होगा और यह क्रम क्रमशः बदलता रहे। प्रत्येक वर्ष एक राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव हो जिसमें क्षेत्रीय दलों को आमंत्रण दिया जाए, इसमें विदेशी दलों को भी आमंत्रण दिया जा सकता है। यह विचारों के आदान प्रदान के साथ पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र बन सकता है।
राज्य का रंगमंच छोटे पैमाने पर ही हो लेकिन राज्य की जिम्मेदारी से चले जिसमें लालफीताशाही, कामकाजी व्यवधान और हस्तक्षेप और क्षेत्रीय ईर्ष्या केंद्र का फेवरटिज्म भी की जगह नहीं हो। प्रत्येक राज्य एक निर्देशक नियुक्त करे और रेपर्टरी में बीस से अधिक सदस्य न हो। राज्य रेपर्टरी को उपकरणों से लैस एक शुल्क मुक्त रंगशाला भी प्रदान करे। केंद्र की तरह राज्य की रेपर्टरियाँ भी साल में चार प्रस्तुतियाँ करें और राज्य के विभिन्न शहरों में और अन्य राज्यों का दौरा करे। प्रत्येक वर्ष सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय रंगमंच को राष्ट्रीय रंगमंच में भाग लेने का मौका दिया जाए। (अल्काजी : 1962)।
इस विवरण से अंदाजा लगा सकते हैं कि अल्काजी की कल्पना क्षमता कितनी थी। वे इस परिकल्पना में प्रशासनिक, आर्थिक विवरण देते हैं और पेश आने वाली दिक्कत से आगाह करते हैं। इस परिकल्पना की एक शाखा के रूप में ही उन्होंने नाट्य विद्यालय का संचालन किया। संस्थान को लेकर उनकी अवधारणा में एक उदात्त है - "कोई भी संस्थान हमेशा जीवित नहीं रहता लेकिन जब तक जीता है राष्ट्र की सोच को आकार देता है, यह उसकी आकांक्षा का प्रतीक हो सकता है और युग की आत्मा को संजोये रहता है। और यहाँ तक कि अपने पतन में भी अतिप्राचीन अतीत के फलदाई वृक्ष की तरह अपने सौंदर्य की अवर्णनीय आभा बिखेरता है। अपने अवश्यंभावी मृत्यु में भी यह प्रेरक बना रह सकता है।" अल्काजी ने पंद्रह सालों तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को इसी उद्देश्य से चलाया। उनकी परिकल्पना की बारीकी को इन पंद्रह साल में प्रस्तुत हुए नाटकों और उत्तीर्ण स्नातकों में देखा जा सकता है। इन वर्षों में उन्होंने एक से एक क्लासिक प्रस्तुति की। जिसकी सूची आसानी से प्राप्त की जा सकती है।
रानावि के अंतर्गत स्थापित रंगमंडल भी उनकी ही परिकल्पना का प्रतिफल था। "मेरा सरोकार हमेशा था कि भारत में हमारे समय के लिए प्रासंगिक रंग आंदोलन हो। और इसे केवल एक बारीक बुने हुए समूह के जरिए प्राप्त किया जा सकता है जो समस्याओं के बारे में अवगत हो और उनके समाधान के रास्तों का सामना भी करें" (अल्काजी : 1981)। यह समूह आगे चलकर अल्काजी ने रानावि स्नातकों से रंगमंडल का निर्माण कर के लिया जिसने रंगमंच को व्यावसायिक रंगमंच संचालन का एक आदर्श स्थापित किया, इसकी प्रस्तुतियाँ भारतीय रंगमंच में प्रेरणा और चर्चा का केंद्र बन गई। केवल अरोड़ा लिखते हैं - "अल्काजी ने एक अनुशासित और सक्षम रंग संस्थान निर्मित किया; गंभीर रंगमंच के लिए दर्शक बनाए और रंगमंच ने भी अपने को गंभीरता से लिया, जिसने अक्सर बारीकी से संयोजित और सुपरिकल्पित अभिनय प्रस्तुतियाँ और प्रतिमान दिए जिसकी गुणवत्ता और शैली उस समय के लिए नई थी और इसने भारत में शहरी मध्यवर्ग के रंगमंच को उभारने में मदद की" (केवल अरोड़ा : 2003)। ये दीगर बात है कि अल्काजी के इस निर्माण में असफलताएँ भी थी और रानावि में अपनी भूमिका उस तरह परिभाषित की थी या अपने को रानावि से इतना जोड़ लिया था कि वे विद्यालय पर हावी हो गए थे, जो उनके कालांतर के मोहभंग और विद्यालय एवं रंगमंच दोनों से अलगाव का कारण बना। बहरहाल इसकी चर्चा फिर कभी।
अल्काजी के लिए भारतीय रंगमंच क्या है?
अल्काजी भारत के जिस राष्ट्रीय रंगमंच की परिकल्पना कर रहे थे और उसे अपने तरीके से साकार करने की कोशिश राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के जरिए कर रहे थे। वह भारतीय रंगमंच अल्काजी के लिए क्या था?
अल्काजी की मानसिक चेतना का गठन सार्वभौमिक था जिसमें संकीर्णता की जगह नहीं थी। ऐसा उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से, प्रशिक्षण से एवं संगत से पता चलता है। वे अरबी माँ बाप के संतान थे जिसके घर में अरबी ही सिर्फ बोलने का नियम था लेकिन जिनकी माँ उर्दू, हिंदी, मराठी, गुजराती, पिता अरबी और टूटी फूटी हिंदुस्तानी जानते थे। बचपन और किशोरावस्था बंबई के विविधतापूर्ण सामाजिक सरंचना में गुजरा था और वे खुद स्वीकार करते थे कि उनके बनने में विभिन्न अस्मिताओं का योगदान है। वे विश्व की सभी रंग परंपराओं से अवगत हैं और उनके उदाहरण भी वही से आते हैं। वे बराबर यह जोर देते हैं कि आधुनिक समय में कला वह स्थल है जहाँ देश की सीमाएँ धुँधली हो जाती है और कला की कोई भी प्रगति किसी देश की प्रगति न होकर समूची मानवता की प्रगति है और आधुनिक समय की माँग है कि एक अंतरराष्ट्रीय शैली विकसित हो जो एक ही समय में उतना ही देशी हो जितना अंतरराष्ट्रीय (अल्काजी : 1981)।
अल्काजी रंगमंच की किसी एक स्थिति को भारतीय स्थिति नहीं मान सकते थे। उन्हें पता था कि भारत में रंगमंच की तीन परंपराएँ हैं : एक संस्कृत की है जिसका संपर्क टूट गया है, और उसका जीवित साक्ष्य नाटकों के अतिरिक्त नहीं मिलता शैली और स्थापत्य के रूप में। दूसरा समकालीन रंगमंच जिसकी प्रेरणा पश्चिमी रंगमंच है और इन दोनों (संस्कृत और आधुनिक) के बीच इतनी चौड़ी खाईं है कि जिसे पाटा नहीं जा सकता। जिस अल्काजी को आलोचक लोक और परंपरा की उपेक्षा करने वाला निर्देशक होने का आरोप लगाते हैं वह अल्काजी मानते हैं कि - "भारत में लोक नाटकों की परंपरा प्राचीन रीतियों और यथार्थवादी युक्तियों के अपने चमत्कारिक मिश्रण से किसी प्रकार से थोड़ी कड़ी प्रदान कर सकते हैं। दोनों ही समयकाल की दूरी, संस्कृत और यथार्थवादी समकालीन रंगमंच के बीच, को पाट सकते हैं।" आगे वे भारतीय नाटककारों की असफलता का जिक्र भी करते हैं कि मैं इस अनुभूति को नहीं रोक सकता कि कि भारतीय नाटककार न केवल इन लोक शैलियों को यथोचित सम्मान देने में असफल हुए हैं बल्कि पाश्चात्य नाट्य शैलियों की कृत्रिम चमक और प्रस्तुति के लिए इन्हें तिरस्कारपूर्ण ढंग से खारिज किया है। भारत को उसके लोर्का की जरूरत है जो उसे अपनी लोक परंपरा की समृद्धि का ज्ञान कराए।" यहाँ यह उल्लेख करना वाजिब होगा कि इसी समय के आस पास हबीब तनवीर भी लोर्का को भारतीय नाट्य परंपरा के अनुकूल मानते हैं। अल्काजी यह भी कहते हैं कि पारंपरिक शैलियों की प्रस्तुति से अधिक जरूरी है कि आधुनिक मंच के अनुकूल उनको कैसे बरता जाए इसका रास्ता खोजा जाना चाहिए। और उम्मीद करते हैं कि यह रास्ता नाटककार ही निकालेंगे।
अल्काजी एक खास प्रकार की भारतीयता को ही भारतीय मानने से सहमत नहीं है। वे भारतीयता का अनुसंधान परंपरा से संवाद के साथ परंपरा से प्रश्न पूछने में भी करना चाहते हैं। ब्रेख्त का अनुसंधान जब भारतीय रंगमंच में होता है तब अल्काजी भी उसको अपने निकट पाते हैं। लेकिन किस ब्रेख्त को, उसको जो परंपरा को यथास्थिति में स्वीकार न करके उससे संवाद करता है और उसको अपने युग के अनुकूल व्याख्यायित भी करता है। "भारतीय रंगमंच के लिए ब्रेख्त का सबसे बड़ा महत्व उसके निरंतर प्रश्नशील दृष्टिकोण में है। वह कभी किसी को यों ही स्वीकार न करता था, उसने पूरी यूरोपीय नाट्य परंपरा का फिर से अन्वेषण और अधिनिरूपण किया। यह कहना सचमुच बड़े साहस का काम है कि पूरी परंपरा अरस्तू के समय से ही रास्ते से भटकी हुई है। साथ ही ब्रेख्त निरा सिद्धांतकार का पर्चेबाज न था, बल्कि उसने अपनी हर बात को साहस के साथ अपने व्यावहारिक कार्य द्वारा सिद्ध किया। इसके लिए उसे रंगमंच के हर पक्ष की समूची प्रक्रिया को नए सिरे से स्वयं अकेले ही परिभाषित और निर्धारित करना पड़ा। हम अपने देश में अपनी परंपरा को यो ही स्वीकार कर लेते हैं। ब्रेख्त से हम उसके बारे में प्रश्न करना और जाँच पड़ताल करना सीख सकते हैं।" आगे वे कहते हैं कि - "भारतीय रंगमंच के लिए ब्रेख्त की सार्थकता उसकी पद्धतियाँ सीखने में इतनी नहीं है कि जितनी एक सही दृष्टिकोण अपनाने में, मनुष्य के गौरव और उसकी सोचने की क्षमता पर बल देने में, और यह क्षमता यदि उसके अपने कुछ विचारों के विपरीत भी सिद्ध हो तो उसका निरंतर उपयोग करने में। (अल्काजी : 1968)। स्पष्ट है कि परंपरा चाहे संस्कृत की हो, पश्चिम की हो या लोक की अल्काजी ऐसे ही स्वीकार नहीं करना चाहते। वह बार बार युगानुकूलता को महत्व देते हैं और परंपरा से प्रश्न करने की बात करते हैं। गौरतलब है कि भारतीय मनीषा की परंपरा इसी संवाद और विवाद में है, जहाँ कोई भी दर्शन कोई भी शैली, कोई भी धर्म, कोई भी मत ना प्रश्न से परे है और ना ही सर्वमान्य। उनकी आलोचना भी परंपरा में मौजूद है। इस क्रम में अल्काजी सभी परंपराओं से सर्वश्रेष्ठ ग्रहण करने की वकालत भी करते हैं, और केवल भारतीय में ही नहीं यदि वह उन्हें जापान की काबूकी में मिलता है तो वहाँ से भी लेते हैं और शेक्सपीयर से भी।
अल्काजी इस बात का कड़ाई से प्रतिवाद करते हैं कि वे अभिनय के किसी एक स्कूल के लिए प्रतिबद्ध हैं, और मेथड स्कूल अभिनय के लिए तो बिल्कुल नहीं। वे कहते हैं कि उन्हें प्रतिबद्ध होना ही तो वे महाकाव्यात्मक रंगमंच (एपिक थियेटर) के लिए होना चाहिए क्योंकि; पहली बात कि शास्त्रीय भारतीय रंगमंच इसी दिशा में स्वाभाविक रूप से जाता है और यह भारतीय रंगमंच की विशेषताओं में भी घुला है और इसकि कई परंपरा और रीतियाँ लोक नाट्य में भी आ गईं है, जैसे संगीत, नृत्य, संवाद, का इस्तेमाल। मोंताज का इस्तेमाल जो महाकाव्यात्मक रंगमंच में होता है, कार्यव्यापार का टूटना, कार्य व्यापार की अनिरंतरता, दर्शकों का मंच के अभिनय से और इसी तरह अभिनेता का भूमिका से अलगाव। ये सभी मेरे खयाल से भारतीय रंगमंच का हिस्सा हैं। (अल्काजी : 1956)।
भारतीय संस्कृति की मूल्यपरक विविधता को स्वीकार करते हुए अल्काजी किसी एक अस्मिता को थोपे जाने के खिलाफ है। भारतीयता को व्याख्यायित करते हुए अल्काजी भारतीयता के किसी एक कट्टर रूप और उसकी संस्कृतिक तानाशाही स्थापित होने के खतरे से भी वाकिफ हैं। उनका विचार है कि मानवता की कोई भी उपलब्धि चाहे वह संसार के किसी कोने में हो समूचे मानव जगत की उपलब्धि है। ज्ञान किसी सीमा से बँधा हुआ नही हैं। वे भारतीयता के प्रश्न के ऊपर अपनी बुनियादी मनुष्यता के अभ्यास की वकालत करते हैं और समतावादी, तार्किक और भविष्य दृष्टि को साथ लेकर और सामंतवादी, प्रतिक्रियावादी और अतीतोन्मुखी दृष्टि को पीछे छोड़ने कि बात करते हैं। वे रंगमंच के जरिए समकालीन संवेदना जो एक ही साथ बद्धमूल भी और आधुनिक भी हो का विकास करने की बात करते हैं।
अल्काजी अपने समकालीन रंगमंच को भी बताते हैं और उसकी समस्याओं की चर्चा करते हैं। साठ के दशक के रंगमंच पर टिप्पणी करते हुए बताते हैं कि ईर्ष्या और एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ रंगमंच को कही नहीं ले कर जाएगी। आखिरकार समाज के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बनाना होगा, वे ऐसे नाटकों पर तंज कसते हैं जिनकी प्रस्तुति भारतीय सामाजिक सरंचना में फिट नहीं बैठती है। वे स्वपरीक्षण, अंतरावलोकन, जो कला के लिए जरूरी हैं, को रंगकर्मियों की सोच व शब्दावली से अनुपस्थित पाते हैं। वे कहते हैं कि - "एक समूह को बौद्धिक और दार्शनिक आधार बना होगा, दृष्टिकोण, जीवन के प्रति रवैया जो नाटकों से नहीं बल्कि आंतरिक वृति से पैदा हो और और आकार ले विकसित हो महत्व रखता है। इसके लिए बौद्धिक इमानदारी आवश्यक है। उनके सामने हबीब का उदाहरण हैं जिन्होंने कम साधनों में अपने समझ और दृष्टि से सम्मानजनक स्थान बनाया है। जिसका वे उल्लेख भी करते हैं। वे बताते हैं कि यथार्थवादी पद्धति की तीन अंकीय नाटकों की सरंचना लंबे समय तक वृहत्तर विषयों को प्रस्तुत नहीं कर पाएगी। इसलिए नाटककारों को वर्तमान को अभिव्यक्त करने की अपनी शैली तलाशनी होगी। भारतीय रंगमंच की समस्या पेशेवर स्तर की अनुपस्थिति है, उन मान्यताओं की अनुपस्थिति जिस पर किसी नाटक का मूल्यांकन हो। केवल आलोचकों के द्वारा ही नहीं नाटककारों के द्वारा रंगकर्मियों के द्वारा, निर्माताओं, अभिनेताओं के द्वारा। भारतीय रंगमंच में कमी आलोचना की भी है जो रंगमंच को सही दिशा में निर्देशित कर सके। (अल्काजी : 1956)
अल्काजी भारतीय रंगमंच के वास्तविक स्वभाव की भी पहचान कर रहे हैं जो संस्कृत और लोकनाट्यों में है लेकिन वे मानते हैं कि विश्व के रंगमंच से जुड़ना भी समय की जरूरत है और उनके समय का आधुनिक भारतीय रंगमंच बहुत हद तक पाश्चात्य शैली से प्रभावित था। अल्काजी स्वयं भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहते रानावि के उनके कार्य की आलोचना भी उनके इस पाश्चात्य रुझान के आधार पर की जाती रही।
इस लेख में अल्काजी के विचारों के सर्वेक्षण का ही काम किया गया है। स्पष्ट है कि अल्काजी के चिंतन के और भी पहलू हैं या अभी भी इन विचारों से गहन आलोचनात्मक संवाद संभव नहीं हो पाया है, जो समकालीन रंगमंच और समकालीन रंगचिंतन के बीच इन विचारों को रखे जाने के बाद ही संभव हो सकता है, जो और भी अधिक विस्तार माँगता है। फिलहाल इस लेख के समाहार का समय आ गया है।
एलिया कजान और ब्रेख्त के योगदान की चर्चा करते हुए अल्काजी कहते हैं - "एलिया कजान और ब्रेख्त की महानता इस तथ्य में है कि उन्होंने चीजों को कहने का जो तरीका खोजा वह समय के तालमेल में था। उनका युग एक नए रंगभाषा की माँग रहा था उन्होंने वह रंगभाषा खोजी। यह ऐसे प्रतिभाएँ है जो एक ऐसी कला शैली निर्मित करते हैं जो एक ही समय में निजी और राष्ट्रीय दोनों होती है।" (अल्काजी : 1959-60) अल्काजी का यह कथन उन पर फिट बैठता है उनका संघर्ष भी एक ऐसी भाषा, ऐसी शैली, ऐसी भारतीयता खोजने का है, जो उनके समय की हो। उनके चिंतन में यह दबाव दिखता है वह रंगमंच के हर घटक को अपने समय से जोड़ के परिभाषित करते हैं और एक नई दृष्टि निर्मित करने की कोशिश करते हैं, जिसमें विविधता के लिए भी पर्याप्त लचीलापन है। तैयारी, अनुशासन, सफाई, बारीकी, ब्यौरा, इत्यादि उनकी शैली की विशिष्ट पहचान है जो उनकी चिंतन में भी परिलक्षित होता है। उनके चिंतन के रंगमंच में कला के प्रति उतनी ही सजगता जितनी कला के सामाजिक सरोकार के प्रति। इब्राहिम अल्काजी ऐसे रंग चिंतक नजर आते हैं जो भारतीय रंगमंच की भारतीय पहचान के साथ एक अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति चाहते हैं।
संदर्भ
1. इब्राहिम अल्काजी (1956), "द ट्रेनिंग ऑफ द एक्टर", इंडियन ड्रामा इन रेट्रोस्पेक्ट, संगीत नाटक
अकादमी, होप इंडिया पब्लिकेशन, नई दिल्ली
2. (1959-60), "द पोएटिक्स ऑफ थियेटर" नाट्य, (सं. सोम बेनेगल), शरद
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4. (1968), " ब्रेख्त पर परिसंवाद", नटरंग, खंड 2 अंक 8
5. (1969-70), इ. अल्काजी - इंटरव्यूड - अविक घोष, इनैक्ट
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13/05/2014 को देखा गया। URL : http://www।jester।org/stable/40871938
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10. केवल अरोड़ा (2003), "इब्राहिम अल्काजी", थियेटर इंडिया, अंक -7
11. देवेंद्र राज अंकुर (2000), "इब्राहिम अल्काजी के निर्देशन प्रक्रिया से गुजरते हुए", रंग प्रसंग