आधुनिक काल में हिंदी क्षेत्र में पहला नवजागरण 1857 में आया जब हिंदी के पहले दैनिक 'समाचार सुधावर्षण' ने स्वाधीनता की चेतना जगाई थी और अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर का ऐतिहासिक फरमान (घोषणा पत्र) प्रकाशित किया था। हिंदी नवजागरण का दूसरा दौर भारतेंदु युग में शुरू हुआ और तीसरा दौर महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में। नवजागरण के इस तीसरे युग में जिन नायकों का विराट अवदान है, उनमें शिवपूजन सहाय अनन्य हैं। बंगाल में नवजागरण लाने के लिए राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया था और उसे 'सोमप्रकाश', 'तत्वबोधिनी पत्रिका' से लेकर बाद में 'हिदवादी', 'युगांतर', 'बंदेमातरम', 'अमृत बाजार पत्रिका' और 'आनंद बाजार पत्रिका' ने आगे बढ़ाया। राजाराममोहन राय के नवजागरण को रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद और उनके बाद ऋषि अरविंद घोष धर्म और अध्यात्म के जरिए आगे ले गए तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद चटर्जी, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर और सखाराम गणेश देउस्कर पत्रकारिता व साहित्य के जरिए आगे ले गए। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल में नवजागरण की जितनी सारी सरणियाँ हम देखते हैं -शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता और अध्यात्म, उन सबका समुच्चय बीसवीं शताब्दी में हम शिव पूजन सहाय की पत्रकारिता में देख सकते हैं। हिंदी क्षेत्र में सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक जागरण लाने के लिए शिव पूजन सहाय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया। सहायजी ने पत्रकारिता की शुरुआत 1921 में सचित्र मासिक पत्र 'मारवाड़ी-सुधार' से की थी। वह पत्र कलकत्ता से छपता था। 'मारवाड़ी-सुधार' के बाद सहाय जी 'मारवाड़ी अग्रवाल' पत्रिका के संपादक बने। उसके बाद 'माधुरी', 'मतवाला', 'आदर्श', 'उपन्यास तरंग', 'समन्वय', 'बालक', 'जागरण', 'नई धारा', 'साहित्य' और 'हिमालय' पत्रिकाओं को भी सहायजी का संपादकीय संस्पर्श मिला। लगभग चार दशकों तक उन्होंने पत्रकारिता की। उनकी पत्रकारिता मुख्यतः साहित्यिक पत्रकारिता थी।
सहायजी को लगता था कि हिंदी समाज में नवजागरण तब आएगा जब वहाँ पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। पुस्तक संस्कृति को बढ़ाने के ही उद्देश्य से उन्होंने 1922 में 'माधुरी' के वर्ष 1 आषाढ़, संवत 1980 में हिंदी पुस्तकालयों का संगठन शीर्षक लेख लिखकर पुस्तकालयों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, "पुस्तकालय वास्तव में सरस्वती के मंदिर, ज्ञान के भंडार, साहित्य के यशःस्तंभ, विद्या के कल्पद्रुम, आनंद के उद्यान और शांति के आधार हैं। किसी देश की सभ्यता देखने की इच्छा हो तो उस देश के पुस्तकालयों को देख जाइए।"1 इस टिप्पणी के बाद सहाय जी इस पर दुख जताते हैं कि "भारतवर्ष में पुस्तकालयों की संख्या यथेष्ट नहीं है।"2 इस टिप्पणी के जरिए सहायजी हिंदी पाठकों को पुस्तकालयों की महत्ता और उपयोगिता समझाकर पुस्तक संस्कृति के प्रति जागरण लाना चाहते हैं।
तो 'माधुरी' के ही वर्ष 1 फाल्गुन संवत 1979 के अंक में राष्ट्रभाषा का विराट संग्रहालय शीर्षक लेख लिखकर यह आकांक्षा प्रकट करते हैं कि आजतक जितनी छोटी बड़ी पुस्तकें और पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं या आजकल प्रकाशित हो चुकी हैं तथा आगे होंगी, उन सबका सिलसिलेवार संग्रह किसी एक उपयुक्त स्थान में सुरक्षित रहना चाहिए।3 इसी टिप्पणी में इस पर दुख जताते हैं कि भारतवर्ष के किसी नगर में ऐसा एक वृहद संग्रहालय नहीं है जिसमें हिंदी की सारी संपत्ति कौड़ी-कौड़ी तक सुरक्षित हो।4
पुस्तकालय और संग्रहालय के लिए चिंतित सहाय जी हिंदी समाज में रंगमंच का भी विकास देखना चाहते थे। 'माधुरी' के वर्ष 6, श्रावण, 304 तुलसी संवत अंक में सहायजी ने बंगीय रंगमंच शीर्षक लेख में कहा कि नाटक में बंगालियों ने अब तक जैसी उन्नति कर दिखाई है, वह निःसंदेह प्रशंसनीय है। माधुरी के तीन अंकों में वर्ष 11 पौष 309 तुलसी संवत तथा वर्ष 12, कार्त्तिक 310 तुलसी संवत, पौष 310 तुलसी संवत अंकों में बंगीय रंगमंच का इतिहास लिखा। सहाजजी जब बांग्ला रंगमंच की विकास कथा लिख रहे थे और उनके मन में हिंदी रंगमंच के विकास की आकांक्षा स्वाभाविक थी। मासिक 'लक्ष्मी' के अक्टूबर 1916 के अंक में उन्होंने वेदना के साथ लिखा था, "हिंदी में शुद्धादर्श, उच्चाशयपूर्ण नाटकों का अभिनय विद्वतमंडली द्वारा अभिनीत नहीं होता, हिंदी साहित्य प्रेमी उत्तम नाटकों का गुण नहीं जानते, हिंदी संसार में ऐसा कोई अभिनेतृ समाज नहीं है, जिसमें अच्छे अच्छे विद्वान सम्मिलित हों, हिंदी नाटक खेलने के लिए कोई रंगशाला नहीं है।" 5
सहायजी व्यक्ति को सांस्कृतिक रूप से चैतन्य बनाना चाहते थे, वहीं वे व्यक्ति में औदार्य, सेवा व प्रेम जैसे गुणों से संपन्न करने पर बल देते थे। 'समन्वय' के वर्ष 2 अंक 3 में उन्होंने लिखा, "औदार्य मानव हृदय का वह सर्वश्रेष्ठ गुण है जो मनुष्यत्व को देवत्म में परिणत कर देता है।"6 'समन्वय' के ही वर्ष 2 के आठवें अंक में उन्होंने लिखा, "प्रेम और सेवा से ही हृदय में औदार्य का उदय होता है। अतएव यह प्रत्यक्ष प्रकट होता है कि प्रेम और सेवा का सम्मिलित भाव ही विश्व प्रेम है।"7 सहायजी ने 'समन्वय' के वर्ष 4 के अंक 3 में सत्संगति की महिमा का बखान करते हुए लिखा, "सत्संगति से ही संसार में ऐसे ऐसे महापुरुष उत्पन्न हुए हैं जिनके विषय में पहले कोई उच्च धारणा या कल्पना भी नहीं कर सकता था। पहले स्वामी विवेकानंद को ही लीजिए। वे पहले घोर नास्तिक और तार्किक थे। किंतु परमहंस श्री रामकृष्ण के सत्संग से उनके हृदय में ईश्वर प्रेम की ऐसी अखंड ज्योति जगमगा उठी कि उनके हृदय का मोहाधंकार आनन-फानन दूर हो गया।"8
हिंदी समाज में आदर्श नागरिक की कल्पना करते थे। सहायजी ने इसी मकसद से 1922 में कलकत्ता से प्रकाशित मासिक 'आदर्श' पत्रिका में आदर्श पुरुष, आदर्श देश, आदर्श बंधु, आदर्श साहित्यिक शीर्षक टिप्पणियाँ लिखी हैं। 'आदर्श' पत्रिका के कार्त्तिक संवत 1979 यानी सन् 1922 के अंक में सहायजी ने मर्यादा पुरुषोत्तम शीर्षक लंबा लेख लिखा और उसमें राम का चरित्र चित्रण आदर्श पुत्र के रूप में, आदर्श शिष्य के रूप में, आदर्श भाई के रूप में, आदर्श जितेंद्रिय के रूप में, आदर्श सुंदर के रूप में, आदर्श पति के रूप में, आदर्श लोकसेवक के रूप में, आदर्श मित्र के रूप में, आदर्श नीतिज्ञ के रूप में, आदर्श दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में, आदर्श वीर के रूप में, आदर्श राजा के रूप में, आदर्श शरणागतवत्सल के रूप में, आदर्श दयालु के रूप में किया। उस टिप्पणी के आखिर में सहायजी लिखते हैं, "रामायण ही भारतवर्ष के महान आदर्शों का आदिम भंडार है। एक से एक आदर्श उसके अंदर भरे पड़े हैं। अन्वेषक और अनुयायी का अभाव है। संसार की कौन सी ऐसी वस्तु है जो अपने अमूल्य आदर्श से कोई शिक्षा नहीं देती।9 'आदर्श' के वर्ष 1 के तीसरे और चौथे अंक में सहायजी ने आदर्श देश-स्वर्ग सहोदर भारतवर्ष शीर्षक टिप्पणी लिखी। उसमें उन्होंने आरंभ में ही कहा, "पुराण पुरुषोत्तम की परम प्यारी पुण्य भूमि अर्थात ईश्वरावतार की आदि भूमि भारतवर्ष है। यह देश समस्त ब्रह्मांड का संक्षिप्त संस्करण कहा जाता है।"10 उसी टिप्पणी में वे कहते हैं, "भारतवर्ष का शरीर भी सुंदर है, आत्मा भी पवित्र है, भेष-भूषा भी भव्य है, धर्म भी महान है और ज्ञान भी पूर्ण है। अतएव वह सब प्रकार से आदर्श है। सब प्रकार से आराध्य है। सब प्रकार से शीर्ष स्थानीय है। अर्थात् विश्वमौलिमुकुटमणि है। सकल जगत का आचार्य है, शिरसाबंद्य और वाचास्तुत्य एवं प्रातःस्मरणीय है।"11
सहाय जी ने 1923 में मासिक आदर्श के वर्ष 1 संख्या सात में आदर्श साहित्यिक शीर्षक लेख में शील को सबसे अधिक महत्व दिया। उन्होंने लिखा, आदर्श साहित्यिक वही है, जो केवल सच्चरित्रता का उपासक है।12 1923 में ही सहायजी कलकत्ता से निकले 'मतवाला' के संपादन कर्म से जुड़ गए। सहाय जी ने अपने कलकत्ता-प्रवास के संस्मरण में 'मतवाला' की चर्चा करते हुए स्वयं खुलासा किया है, "आरंभ में निर्णय हुआ कि मुखपृष्ठ के लिए निराला जी प्रति सप्ताह अपनी कविता देंगे, मैं अग्रलेख (संपादकीय) और 'चलती चक्की' नामक स्तंभ के लिए विनोदपूर्ण टिप्पणियाँ भी लिखा करूँगा, मुंशी जी 'मतवाला की बहक' नामक स्तंभ के लिए व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ लिखा करेंगे, समालोचनाएँ भी निराला जी ही लिखेंगे, अन्य सारी सामग्री का संपादन और पूरे पत्र का प्रूफ संशोधन मुझे करना पड़ेगा, संपादक की जगह सेठजी का नाम छपेगा। इसी निर्णय के अनुसार सन 1923 ईस्वी सावन में 'मतवाला निकला। …'बहक' का बोझ भी मेरे ही ऊपर आ पड़ा। मुंशी जी भी कभी-कभी यथावकाश कुछ लिख दिया करते। वे और सेठ जी जब अखबार पढ़ने का अवसर पाते तब उसमें निशान लगाकर मेरे पास उस पर टिप्पणी जड़ने के लिए भेज देते।' 13 सहायजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि उन पर 'मतवाला' के संपादन का बहुत अधिक दायित्व था। मतवाला, वर्ष 2, अंक 1 की 'आत्मकथा' शीर्षक संपादकीय टिप्पणी में शिवपूजन सहाय की चर्चा करते हुए कहा गया है, "यहाँ हम उन सज्जनों का आभार अंगीकार करना भी अपना कर्तव्य समझते हैं जिनके सहृदयतापूर्ण सहयोग से हमारी यात्रा सानंद हुई है। ...उनमें सर्वप्रथम उल्लेख योग्य हैं हिंदी-भूषण बाबू शिवपूजन सहाय। ये वास्तव में हिंदी साहित्य के भूषण हैं। उन्होंने इस जाँच को सफल बनाने में जिस अथक परिश्रम और विचक्षणता का परिचय दिया है, उसे दृष्टि में रखते हुए हम यह बिना किसी प्रकार की अत्युक्ति के कह सकते हैं कि इनका सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो यह जाँच हजार चेष्टा करने पर भी अधूरी ही रहती।"14
सहायजी का बल केवल सांस्कृतिक जागरण पर नहीं था, अपितु राजनीतिक जागरण पर भी था। 'मतवाला' का अग्रलेख वे ही लिखते थे और 'मतवाला' के 31 मई 1924 के अग्रलेख में कहा गया था, "यदि आप स्वतंत्रता के अभिलाषी हैं, अपने देश में स्वराज्य की प्रतिष्ठा चाहते हैं तो तन, मन और धन से अपने नेता महात्मा गांधी के आदेशों का पालन करना आरंभ कीजिए।"15 मतवाला के 26 जनवरी 1924 की संपादकीय में कहा गया है, "हमें बिना विलंब सत्याग्रह की शरण लेकर लीडरों को इसका पिछल्गुआ बनने के लिए बाध्य करना चाहिए क्योंकि गांधीविहीन स्वराज्य यदि स्वर्ग से भी सुंदर हो तो वह नरक के समान त्याज्य है। उस एक महात्मा पर ही शत-शत स्वराज्य न्यौछावर कर देने योग्य है।"16
सहायजी ने बनारस से प्रकाशित साप्ताहिक 'समाज' और मासिक 'आर्य महिला' में कई टिप्पणियाँ लिखीं। उन्होंने बालकों में अच्छे संस्कार देने के मकसद से लहेरियासराय से प्रकाशित मासिक 'बालक' पत्रिका में जो प्रमुख लेख लिखे, उनमें कुछ उल्लेखनीय हैं - बालक प्रह्लाद का सिद्धांत (जनवरी 1944), प्राचीन भारत की हवाई लड़ाई (युद्धांक 1940), महाभारत कैसे लिखा गया (फरवरी 1934), धनुष भंग (वर्ष 3 अंक 11), सद्भाव का प्रभाव (वर्ष 5 अंक 5 शीर्षक लेख लिखे। इसी के समांतर उन्होंने अभिमन्यु की वीरता और लव कुश की बहादुरी शीर्षक लेख भी लिखे। उन्होंने स्त्री प्रश्नों को भी शिद्दत से उठाया। 1927 में 'आर्य महिला' में प्रकाशित ग्रामीण स्त्रियों की दशा शीर्षक लेख में उन्होंने कहा, "ग्रामप्रधान देश भारत के गाँवों की दशा सोचनीय होने से ही देश की दशा दयनीय हो गई है।" 17 उन्होंने परदा प्रथा का भी विरोध किया। 'आर्य महिला' के भाग दस, संख्या चार में परदा प्रणाली शीर्षक लेख में सहाय जी ने लिखा, "रामायण काल में आज जैसी परदा प्रथा नहीं थी। महाभारत काल में भी नहीं थी। पुराणों में भी अनेक प्रमाण ऐसे हैं जिनसे परदा प्रथा का खंडन होता है।"18 वाराणसी से प्रकाशित दैनिक 'आज' में विधवा विवाह समस्या शीर्षक लेख में सहाय जी ने लिखा, "अगर आज देहातों और शहरों में घूम-घूमकर कोई सहृदय दल बेचारी विधवाओं की असली दशा की जाँच करे तो उसकी रिपोर्ट देखकर सचमुच आप चकित हो जाएँगे।" 19
सहायजी जहाँ बालकों, नौजवानों को शीलवान बनाने के लिए प्रेरणा दे रहे थे तो स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए रचनात्मक संघर्ष कर रहे थे, वहीं वे पूरे हिंदी समाज को दलबंदी और ईर्ष्या देश से मुक्त करना चाहते थे। बनारस से 11 फरवरी 1932 को निकले 'जागरण' पाक्षिक की पहली ही संपादकीय में सहाय जी ने लिखा था, "यह किसी दल विशेष का पत्र नहीं है। ईश्वर दया से भविष्य में भी यह ऐसा ही रहेगा। साहित्यिक दलबंदी और ईर्ष्या-द्वेष को मिटाने में कभी कोताही न करेगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि यह साहित्य संसार में पारस्परिक बंधुत्व और सौहार्द्र फैलाने में समर्थ हो। आशा है, आप लोग भी इस ईश्वर-प्रार्थना के स्वर में स्वर मिलायेंगे।"20 इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि सहाय जी नाहक साहित्यिक विवाद की जगह संवाद के हिमायती थे। इसीलिए तब हिंदी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं के होते हुए भी 'जागरण' की आवश्यकता थी, इसकी प्रतीति उन्होंने कराई।
पहले अंक की सामग्री से ही उनकी संपादन कला का परिचय मिल जाता है। पहले पृष्ठ पर संपादकीय लेख के अतिरिक्त प्रसाद जी की रचना 'ले चल मुझे भुलावा देकर' छपी थी। दूसरे पृष्ठ पर विभिन्न पत्रों की समीक्षाएँ प्रकाशित की गई थीं। प्रवेशांक का पूरा चौथा पन्ना 'क्षणभर' कालम को समर्पित था। उस स्तंभ में साहित्यिक टिप्पणियाँ छपी थीं। टिप्पणियों को प्रस्तुत करने का ढंग बहुत ही निराला था। उदाहरण के लिए एक टिप्पणी में कहा गया था, "विश्ववाणी के प्रथमांक में उसके सुयोग्य संपादक डाक्टर हेमचंद्र जोशी लिखते हैं - 'हिंदी में साहित्य तब पैदा होगा, जब लेखक के रक्त से लिखा जाएगा।' इससे तो यही प्रकट होता है कि जोशी जी महाराज कभी हिंदी के लेखक रहे ही नहीं हैं। सचमुच अगर रहे होते तो अवश्य कहते कि आज हिंदी में जो कुछ भी साहित्य पैदा हुआ है, वह लेखकों के रक्त से ही लिखा जाएगा। अब क्या आप हाड़-मांस भी चाहते हैं।"
इसी प्रकार 'सरस्वती', 'विशाल भारत', 'आर्य महिला', 'त्रिवेणी' आदि के अतिरिक्त 'माधुरी' के बारे में लिखा गया था - 'माधुरी' के 'उद्यान' में एक शुक्ल जी ने करीब सवा डेढ़ एकड़ जमीन हथिया ली है - वहीं एक योगी को बसाकर आप कह सकते हैं -
जो नहीं है जग सुख भोगी, अरे वह योगी है योगी।
बस ठहरिए कवि होकर भूलते क्यों हो, यों कहिए -
'जो नहीं है जग सुख भोगी, अरे वह रोगी है रोगी।
प्रवेशांक में ही हिंदी-उर्दू के बारे में कहा गया था, "हिंदी-उर्दू को दूध-मिसरी की तरह मिलाने के और भी उद्योग हो रहे हैं। 'चाँद' इधर 'केसर की क्यारी' सींचकर इस पौधे को उगा रहा है। उधर बाँसुरी भी उर्दू-हिंदी का गुलदस्ता सजा रही है। अब तो 'जगद्गुरु का फतवा' निकल जाना चाहिए कि जिस प्रकार दाढ़ी चोटी में कोई अंतर नहीं है - सिर्फ आगे पीछे का भेद है, उसी प्रकार हिंदी-उर्दू में भी सिर्फ दाहिने बाएँ का भेद है।"
प्रवेशांक के पृष्ठ 6, 7, 8 एकलव्य की बुलबुल और गुलाब नामक कहानी छपी है। 9, 10, 11वें पृष्ठ पर जयशंकर प्रसाद के 'तितली' उपन्यास का पहला अंश प्रकाशित है। पृ.सं. 11 पर ही 'हिंदी लेखक और खेलकूद' नामक लेख प्रो. बदरीनाथ भट्ट, बी.ए. द्वारा लिखा गया है। पृ.सं. 12-13 पर प्रेमचंद की टिप्पणी छपी है जिसका शीर्षक है - 'आत्मकथा' क्या साहित्य का अंग नहीं है। पृ. 14, 15 पर 'ईरान का नाटक' - मुंशी महेश प्रसाद मौलवी, 'बिहारी का ग्राम वर्णन' - प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिंह द्वारा लिखा गया है। पृ. सं. 16 पर जयशंकर प्रसाद की 'वरुणा की शांत कछार' नामक कविता छपी है। पृ. 17, 18 वाचस्पति पाठक की 'जागरण' कहानी छपी है। प्रवेशांक के ही पृ.सं. 19, 20 पर 'रंग मंच' कालम में 'भारतेंदु नाटक मंडली' नामक लेख बालकृष्ण दास द्वारा लिखा गया है। इसी प्रकार पृ.सं. 21, 22 पर 'मधु संचय' नामक स्थायी कालम में विभिन्न लेखकों की टिप्पणियाँ व समीक्षाएँ प्रकाशित हैं। इसके बाद 'सबसे बड़े और सबसे पहले' वाला कालम ज्ञान विज्ञान विषयक है। पहले अंक के पृष्ठ सं. 23 पर इस स्तंभ को पं. सूर्यनाथ तकरू एम.ए. ने लिखा है। पृ. 24 पर 'समाचार संकलन' में विभिन्न प्रकार के साहित्यिक समाचार छपे हैं। 'जागरण' के समाचार केवल साहित्यिक व पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध होते थे। जैसे-नाटक की उत्पत्ति और स्वरूप (पं. सूर्यनारायण व्यास), रंग मंच और स्त्रियाँ (ब्रजमोहन वर्मा), 'काव्य और शृंगार' (डॉ. प्रताप नारायण सिंह)। एक अन्य समाचार में कहा गया है, 'खबर है कि मजदूर दल के हिंदी साप्ताहिक 'तूफान' (लखनऊ) के संपादक तथा प्रकाशक श्री शिवचरण लाल को 1500) की जमानत देने का हुक्म हुआ है। उपरोक्त की तरह काशी से प्रकाशित 'संदेश' का भी एक समाचार इसी अंक में प्रकाशित है - 'काशी से बाबू परिपूर्णानंद वर्मा के संपादकत्व में जो हिंदी द्वि दैनिक 'संदेश' निकलता था, उसके प्रकाशक और संचालक दीवान रामचंद्र कपूर को एक वर्ष की कड़ी कैद और 2000) जुर्माने की सजा हुई है। जुर्माना न देने पर 3 मास और कैद।' पहले अंक की तरह ही पाक्षिक जागरण के सभी अंक निकले। सभी स्तंभ प्रवेशांक की तरह ही जाते थे।
शिव पूजन सहाय के संपादन में 'जागरण' पाक्षिक के केवल 12 अंक ही निकल पाए। सहाय जी ने ग्राहकों के अभाव के कारण उसे मुंशी प्रेमचंद जी को हस्तांतरित कर दिया। सहाय जी ने पाक्षिक 'जागरण' की अंतिम संपादकीय 'परिवर्तन' शीर्षक से लिखी - 'जिमी नूतन पट पहिरि कै, नर परिहरे पुरान' - उसी प्रकार 'जागरण' अब जगनियंता परमात्मा की इच्छा के अनुसार, साप्ताहिक रूप में परिवर्तित होने जा रहा है। अब इसके संपादक होंगे स्वनामधन्य उपन्यासकार श्री प्रेमचंद जी और प्रकाशक होंगे मुद्रण कला-कुशल श्री प्रवासीलाल जी वर्मा। आशा है दो यशस्वी कलाकारों के हाथ में रहकर यह विशेष सुंदर, समुन्नत और सुविख्यात होगा। इसका साप्ताहिक संस्करण आगामी मास में, स्थानीय सरस्वती प्रेस से जहाँ से 'हंस' मासिक पत्र भी निकलता है, अवश्य ही प्रकाशित हो जाएगा। उसका रूप रंग कैसा होगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं। इसके लिए संपादक और प्रकाशक का नाम ही संतोषप्रद है। अब 'जागरण' संबंधी समस्त पत्र व्यवहार उन्हीं के नाम से होना चाहिए। पाक्षिक रूप में ग्राहकों और पाठकों की जितनी सेवा कर सकता था, उसने कहीं अधिक साप्ताहिक रूप में कर सकेगा। 'उपजहिं अनत-अनत छवि लहहि।' अब जो कृपालु सज्जन छ महीने के लिए ग्राहक बने थे, उनकी सेवा की अवधि पूरी हो गई, किंतु सालभर के ग्राहकों की सेवा में साप्ताहिक जागरण नियमित रूप से पहुँचता रहेगा। पाक्षिक जागरण का जो रूप रंग था, उसे सभी साहित्यिकों और सहयोगियों ने तो पसंद किया, पर सर्वसाधारण पाठकों ने उसे कैसा समझा - यह जानने का हमें विशेष अवसर न मिला। अब तक की स्थिति ने यहीं सुझाया कि शुद्ध साहित्यिक पत्र के पाठक हिंदी संसार में गिने चुने हैं। ईश्वर हिंदी पाठकों की रुचि को परिष्कृत करे कि जागरण फिर अपने असली रूप में धारण करने में समर्थ हो।'
पाक्षिक 'जागरण' के आखिरी अंक में आचार्य शिवपूजन सहाय ने कुछ मनोरंजक टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की थीं - 'गतांक में पाठकों से क्षमा प्रार्थना करते हुए हमने लिखा था - 'अगले अंक में सब सामग्री पूरी होगी। हमें क्या पता था कि अगले अंक में 'जागरण' की आयु ही पूरी होगी।' "गताङ्क के आरंभ ही में हमारा सबसे पहला वाक्य था कि - 'अब लेखनी आगे नहीं बढ़ती।' हम क्या जानते थे कि पीछे नियति भी बोल रही है - तो 'जागरण' का ढेला भी अब आगे नहीं बढ़ेगा।" "आषाढ़ में भगवान विष्णु शयन करते हैं और कार्तिक में जागते हैं। जागरण भी आषाढ़ ही में शयन कर रहा है, पर हम कैसे कहें कि कार्तिक में जागेगा? कहीं वह नियति न पीछे खड़ी हो?" "श्री प्रेमचंद जी श्रावण में 'जागरण' को गोद ले रहे हैं, सुनते हैं कि श्रावण का दत्तक बड़ा होनहार होता है। अच्छा बेटा 'जागरण' तुम नीके रहो, उन्हीं के रहो।" "हमारे मुखारविंद की ऐसी महिमा है कि जहाँ जाते हैं, चापड़ कर डालते हैं। पहले पहल मारवाड़ी सुधार का बंटाधार किया। फिर आदर्श और उपन्यास तरंग का छत्र भंग किया। यदि बालक और 'गंगा' को न छोड़ते तो उन्हें भी ले बीतते और यदि 'जागरण' को प्रेमचंद जी अपना पोसपुत्तर न बना लेते तो शायद इसकी भी खैर न थी। पर अब किसी की मिट्टी खराब नहीं करेंगे। हमने बहुत से पापड़ बेले हैं, अब एकतारा लेकर केवल यही भजन गाया करेंगे।
पाक्षिक जागरण का संपादन करने के पहले सहाय जी 'गंगा' का संपादन कर चुके थे। कर वे बनारस चले गए थे जहाँ चार-पाँच वर्ष तक उन्होंने हिंदी पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय) का साहित्यिक कार्य संपादन किया और पाँचवें वर्ष में सात महीनों तक उन्होंने 'बालक' का संपादन किया।
शिवपूजन सहाय ने 1950 में 'नई धारा' का संपादन भार सँभाला। ध्यान रहे कि उसी साल 'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' भी निकले थे। 'ज्ञानोदय' (1949), 'कल्पना' (1949) और 'नया समाज' (1948) पहले से ही निकल ही रहे थे। उसी सांस्कृतिक परिवेश में सहाय जी ने 'नई धारा' का प्रवेशांक अप्रैल 1950 में निकाला। प्रवेशांक में ही 'हमें यह कहना है' शीर्षक संपादकीय में सहाय जी ने लिखा था, "लीजिए, यह 'नई धारा'। मैं इसके संबंध में क्या कहूँ। अपने तीस वर्षों के पत्रकार-जीवन की परिणति के रूप में इसे हिंदी-संसार के समक्ष पेश करना चाहता हूँ। किंतु, पहले अंक में ही कई स्थायी शीर्षक छूट गए, कई उपयोगी लेख छूट गए। समय और स्थान की खींचातानी। इसके बावजूद यह जो कुछ है, आप लोगों की सेवा में है। 'नई धारा' को साहित्य और संस्कृति की नवीनतम प्रवृत्तियों की प्रतिनिधि-पत्रिका बनाने की आकांक्षा है। 'नई धारा' के लिए यह सौभाग्य की बात है कि हिंदी के सुप्रसिद्ध कलाकार श्रीमान् राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह जी ने इसे अपनी साधन-संपन्नता की उर्वर भूमि से होकर प्रवाहित होने का सुअवसर दिया है। इसलिए, अर्थ चिंता से यह मुक्त है और मैं भी इस बार बचा हुआ हूँ संपादक-जीवन के उस अभिशाप से जब वह एक ही साथ 'पीर, बबर्ची, भिस्ती, खर' बन जाता है। किंतु कारूँ का खजाना भी किसी पत्र-पत्रिका को जीवित नहीं रख सकता, जब तक गुणग्राही जगत उसे दिल खोल कर नहीं अपनावे। क्या आशा करूँ, अब राष्ट्रभाषा हिंदी के हितैषियों और सेवकों में गुणग्राहिता की कमी नहीं रह गई है? अब, जबकि देश आजाद हो चुका है, यह स्वाभाविक है कि हमारा ध्यान राजनीति की ओर से हटकर धीरे-धीरे संस्कृति की ओर आकृष्ट हो। हमारे जीवन-में अभी आर्थिक अड़चनें हैं - अपने देश, अपने समाज के व्यक्ति-व्यक्ति को धन-धान्य से पूरा किए बिना हम सम्यक रूपेण संस्कृति की ओर ध्यान दे नहीं सकते-यह भी सही है कि अभी एक दूरी और तय करनी है। किंतु, जीवन एकांगी नहीं है और वर्त्तमान के गर्भ में ही तो भविष्य छिपा रहता है, पलता है। अतः गेहूँ की दुनिया में फँसे होने पर भी हमें गुलाब की दुनिया को भूल नहीं जाना है - शायद भूल भी नहीं सकते। फिर बागवान का ध्यान फल पर हो; किंतु मंजरी देखकर ही कोयल कूक उठती है। क्या समाज में कलाकार की स्थिति कोयल की नहीं है? यही कारण है कि हमारे समूचे देश में, देश के कोने-कोने में इस समय संस्कृति-साहित्य और कला के लिए एक अजीब उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारे राजनीतिक पुरुष गेहूँ की समस्या में ही उलझे हुए हैं; वहाँ हमने गुलाब के गीत के गुंजार से अंतरिक्ष को भरना प्रारंभ कर दिया है। कह लीजिए, तुम स्वप्नदर्शी हो, हवाई महल के रहने वाले हो - आप कभी-कभी हमें कायर, बुजदिल, पलायनवादी, रजतपसंद आदि शुभ नामों से भी संबोधित कर लेते हो। किंतु इसका जवाब हम इसके अतिरिक्त और क्या दे सकते हैं कि आप अपने स्वभाव से लाचार हैं, तो हम अपनी तबीयत से भी कम मजबूर नहीं हैं। हम गाते चलेंगे; आप गालियाँ देते रहिए। देखना है, कौन हारता है? हाँ, मैं स्पष्ट कह दूँ, 'नई-धारा' द्वारा मैं गुलाब का गीत गाना चाहता हूँ। हमें वादों और विवादों से कुछ लेना-देना नहीं है। जीवन का उनसे संबंध है, गहरा संबंध है, मानता हूँ, जानता हूँ, देखता हूँ। उनसे दिलचस्पी भी है। किंतु, क्या एक स्थान ऐसा नहीं हो सकता, जहाँ वाद-विवाद भूलकर हम मिलें, मिलाएँ; रस में भीगें, भिगाएँ? कलाकार भी धरती का प्राणी है - धरती के सुख-दुख उसे भी प्रभावित करते हैं। किंतु, जिस तरह फुहारा सूर्य की किरणों का एक खास अंदाज से विक्षेप पाकर इंद्रधनुष बन जाता है; वही हालत इन सुख-दुखों की कलाकार-हृदय पर होती है। जो सिर्फ बिंदु-बिंदु हैं, वे ही सतरंगी बन जाती हैं वहाँ! भगवान के नाम पर उस सतरंगी पर कोई दूसरा रंग चढ़ाने की दया न कीजिए। जरा गहरे देखिए, आँखों के पर्दे हटाकर देखिए - वहाँ वह सब कुछ हैं, जो धरती दे सकती है। उसे अपने ही रूप में, रंग में निखरने दीजिए। आइये, जब कभी इन वादों और विवादों से आपको थकावट मालूम हो, अवसाद का अनुभव हो, तो इस गुलाब की दुनिया में-रस की सतरंगी दुनिया में आ जाइए। मेरा विश्वास है, हम आपको रंग और गंध ही नहीं देंगे, जीवन और ज्योति भी देंगे! गुलाब की दुनिया! यह क्या-कहीं मुर्झाहट; कहीं सकुचाहट! कोई कली संकोच में खिल नहीं रही - कोई फूल असमय मुर्झा रहा है। 'नई-धारा' ऐसे फूलों पर से धूल झाड़ेगी; उनकी जड़ में जीवन डालेगी, उनके रेशे-रेशे में नए रस का संचार करेगी। और, कलियों को सहलाएगी, गुदगुदाएगी, उन्हें खिलने को, विकसित होने को उकसाएगी। वह चाहेगी कि दिगदिगंत रंग और सुगंध से परिपूरित हो उठे! और, हाँ, जो बबूल के ठूँठे पेड़ इस पाक जमीन पर आ जमे हैं, उन्हें जड़मूल से उखाड़ कर ही दम लेगी। बहुत हुआ; बहुत! आपके काँटों के कहर से यह दुनिया तबाह हो चली है। काश, आप जान पाते, आपके नुकीले बर्छों ने कितनी कोयलों के कलेजे छेदे हैं, आपकी इन खूसट जड़ों ने कितनों के जीवनाधार रस को चूसा है? सावधान, बबूलों! खुशिया मनाओ कलियों, फूलों! हिंदी राष्ट्रभाषा हो चुकी। किंतु छाती पर हाथ रख कर कहिए, क्या हमारा साहित्य इस पद के अनुरूप सभी अंगों से पूर्ण है? संतों की वाणी को ही बानगी में पेश करके हम कब तक संतोष करते रहेंगे? हमारी भूमि में कविता के पौधे आपसे आप पैदा होते हैं; खूब बढ़ते हैं। किंतु यहाँ भी क्या जंगली घास का दृश्य नहीं है? और, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि का क्या हाल है? टेकनिक के खयाल से तो हम बहुत ही पिछड़े हुए हैं। बस लकीर पीटते जा रहे हैं। मालूम होता है, हमारे साहित्य-स्रष्टाओं में दम नहीं कि वे विद्रोही की तरह खम ठोक कर खड़े हो सकें! समाज को विद्रोही चाहिए, उससे अधिक विद्रोही चाहिए साहित्य को, कला को। 'नई धारा' ऐसे विद्रोहियों की वाणी कहकर जिस दिन बदनाम की जाएगी; हमारी चरम सफलता का दिन तब होगा। वह दिन निकट आवे। यही आशीर्वाद दीजिए।"21 आजादी के ठीक बाद स्वप्न भंग के हालात का अंदाजा लगाते हुए सहाय जी उससे आगाह करते हुए 'नई धारा' को विद्रोहियों की वाणी के रूप में स्थापित करना चाहते थे।
संदर्भ
1. शिवपूजन रचनावली, तीसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण-1957, पृष्ठ-214
2. वही
3. वही, पृष्ठ 234
4. वही, पृष्ठ 235
5. वही, पृष्ठ-166
6. वही, पृष्ठ-27
7. वही, पृष्ठ-31
8. वही, पृष्ठ-41
9. शिवपूजन रचनावली, दूसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण-1957, पृष्ठ-427
10. वही, पृष्ठ-431
11. वही, पृष्ठ-437-438
12. वही, पृष्ठ 454
13. मिश्र, कृष्णबिहारी (संपादक), हिंदी साहित्य बंगीय भूमिका, भारतीय विद्या मंदिर, द्वितीय
संस्करण-2014, पृष्ठ-405
14. 'मतवाला', वर्ष 2, अंक-1
15. वही, 31 मई 1924
16. वही, 26 जनवरी 1924
17. शिवपूजन रचनावली, दूसरा खंड, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, संस्करण-1957, पृष्ठ-265
18. वही, पृष्ठ-280
19. 'आज', वाराणसी, 29 सितंबर 1927
20. पाक्षिक 'जागरण', 11 फरवरी 1932
21. 'नई धारा', अप्रैल 1950