"कला का धर्म समस्त प्रभावों को लेते हुए भी उनका अतिक्रमण करना है, तभी वह पूर्ण रूप से अपना 'आत्म-सत्य प्राप्त करती है। उससे साक्षात करते हुए जो अनुभव होता है, किसी बेहतर शब्द के अभाव में मैं उसे सिर्फ 'आध्यात्मिक अनुभव कह सकता हूँ; क्योंकि वहाँ मुझे बाटने वाली समस्त विभाजन रेखाएँ एक उन्मत्त लहर में डुबो जाती हैं और खुद भी उसमें डूब जाती हैं।"(निर्मल वर्मा : साहित्य का आत्म-सत्य)
यह हिंदी समाज की ही कुरीति है कि उक्त मुक्तिधर्मी पंक्तियों के लेखक को वह परदेशी भी मानती रही है। 'अँग्रेजी आंचलिकता' (रामस्वरूप चतुर्वेदी) का कलंक उसके माथे पर अभी तक जड़ा हुआ है। मलयज ने अंततः नहीं ही माना कि निर्मल अपने घर वापस लौट आए हैं। रमेशचंद शाह उनके 'साहित्यिक-संस्कारों' को देशी नहीं मानते। लाख प्रशंसा के बावजूद, नामवर सिंह भी एक तरह का 'सोफिस्टीकेशन' उनमें देखते ही रहे। संकट, एकबारगी, इतना जटिल हुआ कि कवि कुँवर नारायण तक को उनकी हिंदी या भारतीय पहचान के बचाव में कूदना पड़ा था।
निर्मल वर्मा की ट्रेजडी भी शायद अज्ञेय की ही तरह की है - विदेशियों ने यह कह दुत्कारा कि वे घर छोड़ नहीं पाए, और अपनों ने मुँह फेर लिया कि वे घर लौट नहीं पाए। इन दोनों ही लेखकों की यह ट्रेजडी गंभीरता से सोचने का विषय है। इसे थोड़ा-सा छूता हुआ विश्लेषण, इस लेख में अन्यत्र उपलब्ध है। हालाँकि, इन दोनों महान रचनाकारों की यह सूरत किस साजिश के तहत बनाई गई, इसकी जाँच जरूरी है। हिंदी आलोचना के वन में टहल रहे कई 'रँगे सियार' इस प्रक्रिया में बेनकाब होंगे।
पर फिलहाल, इतना तो सुधी जन मानते ही होंगें कि निर्मल वर्मा हमारे समय की हिंदी के एक बड़े कथाकार और साहित्य चिंतक रहे हैं। हिंदी की नई कहानी का प्रवर्तन उन्हीं की कलम से हुआ तथा हिंदी के औपन्यासिक-रूप में भी उन्होंने क्रांतिकारी बदलाव किए हैं। हिंदी गद्य का विशेषतः कल्पना प्रधान लेखन (उपन्यास और कहानी) उनकी रुचि और सृजन के केंद्र में रहा।
उधर, विचार प्रधान साहित्य चिंतन की ओर भी उनकी दृष्टि गई है। लगभग रचनाओं के तौल की उनकी आलोचना भी आकर्षित करती है तथा मूल्यांकन की माँग रखती है। किंतु उनका तटस्थ मूल्यांकन कम ही हुआ है। प्रायः विचारधाराओं के पूर्वाग्रह से देख उन्हें कलावादियों के खेमे में खिसकाया जाता रहा है। जबकि आज आलोचना में विचार-शून्यता की जो जगहें बन रही हैं उन्हें शायद केवल निर्मल का ही चिंतन भर सकता है।
प्रस्तुत लेख में, इसी सद्भाव से, निर्मल की साहित्य-दृष्टि को केंद्र में रखा गया है तथा जिसे उन्हीं के द्वारा इतरत्र व्यक्त विचारों के माध्यम से समझने की कोशिश की गई है।
(1)
निर्मल वर्मा एक शब्द-सजग, भाषा-सजग कलाकर्मी थे। भाषा की किफायतसारी के आधार पर वे प्रेमचंद के बाद शायद दूसरे बड़े साहित्यकार हैं। आश्चर्य है कि उनसे खिन्न रहने वाले मलयज ने ही कहीं लिखा है - "शब्द निर्मल के लिए जादू हैं। वे बड़े प्यार दुलार से शब्दों को उठाते हैं और पास-पास रखते हैं। उन्हें हमेशा साफ सुथरा रखने के लिए झाड़ते-पोंछते भी रहते हैं। शब्दों को बरतने का ढब उन्हें आता है। शब्दों को फुसलाना और फुसलाकर उनसे अपने मतलब की बात कहला लेना जानते हैं।"
शब्दों को गंभीरता से लेने वाली उनकी यह आत्म-चेतना ही एक बड़े स्तर पर साहित्य में सार्थक भाषा-प्रयोग की प्रतिबद्धता से जुड़ जाती है। इस रूप में, उनके हर लेखन की दृष्टि सर्वप्रथम एक सजग भाषा-दृष्टि है। उनकी साहित्यिक सोच भी यहीं से शुरू होती है - अर्थात, भाषा से। अतः, उनकी साहित्य-दृष्टि को समझने के लिए भी उनके भाषा-चिंतन से गुजरना नितांत जरूरी है।
पशु और देवदूत के बीच मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने को अजीब अधूरेपन की अवस्था में पाता है। उसमें न पशु की आत्मलिप्तता है न देवदूत की आत्म-परिपूर्णता। इतिहास के चौखटे में मनुष्य की आकृति कुछ वैसी ही अपूर्ण और अनगढ़ दिखाई देती है जिसके कुछ रंग समय ने धुंधला दिए हैं,कुछ रेखाएँ अब भी कोई आकर पाने की प्रतीक्षा में ठिठकी रह गई हैं। मनुष्य की संपूर्ण छवि, यदि ऐसी कोई चीज है, तो कहीं बाहर न होकर स्वयं उसके भीतर है। मनुष्य अपने को पाने के लिए स्वयं को उत्खनित करता है। स्वयं अपने को अपनी कब्र से उठाता है। निर्मल वर्मा के मत में - "इस आत्मखनन अथवा आत्म-अन्वेषण का ही सबसे सक्षम आयुध भाषा है।"1 यह भाषा ही, उनके मत में, वह चीज है जिसमें अपना यथार्थ हम गढ़ते हैं, अपने को उसमें और उसमें स्वयं को परिभाषित करते हैं। यह मनुष्य की देह का अदृश्य अंग है,जो उसे आत्म-दृष्टि देता है। भाषा और आत्म-बोध का यह संबंध मनुष्य को समस्त जीव-जंतुओं से अलग एक अद्वितीय श्रेणी में ला खड़ा कर देता है।
उनके अनुसार, जिसे हम संस्कृति कहते हैं, उसकी पहचान महज उसके यथार्थ तक सीमित नहीं रहती, अपने स्वप्नों द्वारा भी वह अपनी विशेषता उजागर करती है, और इसकी बुनावट में भाषा का निर्णायक योगदान रहता है। संस्कृति के ये स्वप्न क्या हैं? यह उनके अनुसार, उसकी स्मृतियाँ निर्धारित करती हैं। शब्द में यदि स्वप्न का संकेत है तो स्मृति की छाया भी। इसीलिए, कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मृत भाषा नहीं होती। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मिट जाए तो भी भाषा बची रहती है, जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं। वर्तमान में रहते हुए भी वे अवचेतन रूप में अपने अतीत से जुड़े रहते हैं, तथा अतीत, अदृश्य रूप में उनके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है। इसी अर्थ में निर्मल भाषा के द्वि-फलक चरित्र को सामने लाते हैं -
"वह संप्रेषण का माध्यम होने के साथ-साथ संस्कृति की वाहक भी होती है। किसी देश की संस्कृति, ऐतिहासिक झंझावातों द्वारा क्षत-विक्षत भले ही हो जाए, उसका सत्य और सातत्य उसकी भाषा में बचा रहता है।"2
निर्मल इस प्रसंग में भारतीय संस्कृति का उदहारण देते हैं जो इन आँधियों में भी बनी रही। जिसे (संस्कृत और अन्य भाषाओं के कारण) ग्रीक या मिश्र की सभ्यताओं की तरह म्यूजियम की गौरवमय किंतु मृत स्मारकों की तरह नहीं देखा जा सकता है। संस्कृत और भारतीय भाषाओं के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी समग्र और विपुल संपदा सुरक्षित है, जो एक संजीवनी शक्ति की धारा की तरह अतीत से बहकर भारत की वर्तमान चेतना को आप्लावित करती है।
निर्मल वर्मा के मत में - "जिसे संस्कृति का सत्य कहते हैं वह कुछ और नहीं, शब्दों में अंतर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है और जिसे हम यथार्थ कहते हैं वह इन्ही अर्थों की खिड़की से देखा गया वाह्य जगत है।"3 इस प्रकार भाषा भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ के बीच सेतु का काम करती है। हालाँकि यहाँ वे सत्य और यथार्थ को भी अलग-अलग नहीं मानते क्योंकि हम रहते एक ही शब्द जगत में हैं, जिस तरह बाहरी दुनिया भाषा की बंदी है वैसे ही हम भाषा के बंदी हैं। खिड़की और उसके बाहर देखा गया परिदृश्य एक दूसरे से भिन्न नहीं है।
इस शब्द जगत में ही कोई संस्कृति अपनी पहचान अर्जित करती है। इस भाषा में ही वह अपनी अस्मिता गढ़ती है। संवाद तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं, पर वह इतना परिष्कृत और व्यवस्थित नहीं होता। मनुष्य की भाषा यदि उनसे गुणात्मक रूप से भिन्न है तो इसलिए कि एक सीमा के बाद उसके शब्द महज संवाद का साधन न रह कर एक स्वतंत्र स्वायत्त सत्ता प्राप्त कर लेते हैं। मूल छवियों से वे कालांतर में अमूर्त प्रत्ययों में परिणत होकर एक स्थायी अर्थ हासिल कर लेते हैं। इस तरह शब्द एक तरह से 'क्षणिक देवताओं' की तरह हैं,वे एक भावात्मक स्फुटन के क्षण में जनित होते हैं और उसके बीत जाने के बाद अपना एक स्वावलंबी अस्तित्व ग्रहण कर लेते हैं। पर वे केवल ध्वनि मात्र नहीं - अपितु अर्थों के संवाहक भी होते हैं। एक जाति के मिथक उसके शब्द संसार की इन्ही प्राक-स्मृतियों द्वारा संयोजित होते हैं। मिथक, वस्तुतः भाषा के आदि देवता हैं।
निर्मल के मत में भाषा, मिथक और स्मृति का यह अंतर-संबंध ही 'एक समूह के सदस्यों को एक सामूहिक अस्मिता में एक-सूत्रित करता है।"4 वे हाईडेगर के हवाले से कहते हैं की हर भाषा उन लोगों के इर्द-गिर्द, जो उसे बोलते हैं, एक जादुई घेरा खींच देती है, जिससे केवल एक दूसरे घेरे में जाकर ही बचा जा सकता है।
इस प्रकार निर्मल के इस भाषा चिंतन के दो पहलू उभरते हैं - एक, वह जो हम बोलते हैं अर्थात भाषा का व्यवहारिक पहलू, और दूसरा, वह जो भाषा का अत्यधिक तात्विक स्वरूप है, जो सतह के नीचे वास करता है, किंतु बराबर सतह के ऊपर बोले हुए शब्दों में प्रतिध्वनित होता रहता है। वे लिखते हैं - "भाषा अपनी आत्यंतिकता में एक शांत धारा की तरह है, जो अपने प्रवाह में दो पाटों को जोड़ती है और उनका निर्माण भी करती है, एक पाट वह जो वह कहती है, दूसरा पाट वह जो हमारी वाणी है, जिसे वह प्रतिध्वनित करती है।"5
वैसे एक भाषा जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं होती, बल्कि अनेक भाषाएँ होती हैं। इन भाषाओं के भीतर ही दुनिया की विभिन्न जातियों, जन-समूहों का भरण पोषण होता है, भाषाएँ उनका आवास गृह होती हैं। निर्मल के मत में - "मानवीय भाषाएँ एक ही दुनिया में जन्म लेती हैं किंतु हर भाषा की दुनिया अपने में अलग है। जब हम एक से दूसरी भाषा में अनुवाद करते हैं तो वह सिर्फ शब्दों का ही अनुवाद नहीं है। शब्दों द्वारा भाषा की एक समूची सृष्टि अपने पूरे माल-असबाब के साथ दूसरी भाषा में अवतरित होती है। वे यह सर्वमान्य तथ्य हमारे सामने लाते हैं कि एक भाषा दूसरी से अपने ध्वनि संकेतों और शब्दार्थों के कारण ही भिन्न नहीं होती बल्कि अपनी विश्व दृष्टि के कारण भी अलग होती है। हर भाषा दुनिया को खास ढंग से देखती परखती अपने अर्थों में अनुदित करती है।"6
भाषा, जब अपने इस स्वरूप में खंडित होती है तो भ्रष्ट हो जाती है। ठीक यही हमारे यहाँ हुआ। निर्मल इसे एक गहरा संकट मानते हैं। एक 'भाषाई विस्थापन' हमारी परंपरा में हुआ। उनके मत में, चूँकि हर भाषा संस्कृति सापेक्ष होती है तथा वह उसके मिथकों, स्मृतियों से अंतर-संबंधित होती है। अतः दो नितांत भिन्न पृष्ठभूमियों से आयातित भाषा के प्रत्ययों के घालमेल से कई समस्याएँ भी पैदा हुई हैं तथा जिन्होंने एक गहरे संकट को जन्म दिया है। वे इस प्रसंग में 'सेक्युलरीज्म' शब्द का उदहारण देते हैं जिसका गहरा संबंध यूरोप की संस्कृति और इतिहास से रहा है। इसको स्वतंत्रता के बाद जिस तरह से भारतीय राज्य प्रणाली एवं शासन पद्धति पर आरोपित किया गया है, उसका धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा से कोई संबंध नहीं है। इस 'सेक्युलरिज्म' का ही दुष्परिणाम है कि भारतीय समाज स्वयं अपनी पहचान खोने लगा है। कारण कि जब हम अपने विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं तो एक हद तक स्वयं हमारे विचार उस भाषा के प्रत्ययों द्वारा अनुशासित होने लगते हैं। भाषा सिर्फ माध्यम नहीं रहती, वह एक स्वायत्त शक्ति का साधन बन जाती है। हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं किंतु उसी रूप में जिसमें वह हमसे करवाना चाहती है। वे लिखते हैं -
"हम एक ऐसी भाषा के माध्यम से अपने को व्यक्त करना चाह रहे हैं, जिसका तर्कशास्त्र हमें एक दिशा में ले जाता है जबकि हमारी अनुभव दृष्टि हमें विपरीत दिशा में खींचती है। क्या हममें से अधिकांश शिक्षित लोग अपने को एक ऐसी भाषाई विस्थापन की स्थिति में नहीं पाते जिसके चलते हमारी राष्ट्रीय चेतना भी संदिग्ध और विकृत हो जाती है। उसके बीचों-बीच एक ऐसी फाँक पद जाती है जिसे स्वतंत्रता के बाद भी हम पाट पाने में सफल नहीं हो पाए हैं।"7
'संदिग्ध' 'विकृत' 'फाँक'- ये वास्तव में बेचैन कर देने वाली स्थितियाँ हैं। निर्मल, दरअसल, इसी की प्रतिक्रिया में साहित्य के निज-रूप पर सोचना शुरू करते हैं; और तब उनकी यह सोच,यह दृष्टि, एकरेखीय, एकांगी नहीं, अपितु हमारी संस्कृति, स्मृति, मिथक, जाति और राष्ट्र के प्रति लगाव से संबंधित हो जाती है; और तब यह दृष्टि, हिंदी साहित्य के 'आत्मान्वेशी' दर्शन में बदल जाती है।
(2)
निर्मल की, साहित्य के आत्म-अन्वेषण की यह दृष्टि तब साहित्य धारा के निज-स्वरूप, उसमें घुस आए खर-पतवारों की पहचान और उनके निस्तारण से एकाग्र होती है। उनके मत में, शब्दों की दुनिया एक तरह से अनुभवी जीवन दृष्टि के समानांतर चलती है। एक समाज की धार्मिक सम्वेदनाएँ और मिथकीय चेतना उसकी भाषा में भी अपने स्मृति चिह्न, अपनी अनुगूँज छोड़ जाती है। यही कारण है की भारतीय दर्शनशास्त्र - वे उपनिषद हों या गीता - की दार्शनिक अवधारणाएँ और काव्य भाषा के बिंबों के बीच विभाजन रेखा खीचना आसन नहीं है। रामकृष्ण परमहंस का तो समूचा दर्शन रूपकों, प्रतीकों, दंत कथाओं और मिथकीय संकेतों की उर्वरा धरती पर प्रवाहित होता है। आत्म, परमात्म, ब्रह्म, पुरुष और प्रकृति जैसे अमूर्त प्रत्ययों को वह एक ऐसा महाकाव्यात्मक आयाम देते हैं कि कविता और तत्व चिंतन के बीच की सीमा रेखा ही मिट जाती है।
हिंदी साहित्य और उसकी भाषा से अंतर-संदर्भित करते वे इसे दो धारणाओं में प्रकट करते हैं। पहला, एक संस्कृति का काल-बोध, जो अदृश्य रूप से भाषा के आंतरिक स्वरूप को प्रभावित करता है। वे मानते हैं कि भारतीय संस्कृति की काल प्रतीत, ऐतिहासिक काल-क्रम की पश्चिमी अवधारणा से बहुत अलग रही है, जिसने उसकी भाषाओं पर भी गहरी छाप डाली है। इस प्रसंग में वे अज्ञेय का हवाला देते है -
"ऐतिहासिक काल को पूरी तरह मान लेने से भाषा में वाक्य की अवस्थिति में एक जड़ता, लचीलेपन की कमी, बल्कि उसका परित्याग आया है। आवर्ती काल के बोध के साथ हमारी भाषा में एक लचीलापन था, जिसे छोड़ने को हम लाचार हो गए - एक निर्विकल्प अन्विति से तनिक सा व्यतिक्रम हमें खटकने लगा। इस मामले में नई कविता की अन्विति उससे पहले से कितनी कम लचीली, कितनी अधिक जड़ हो गई है - क्या इसका कारण यह नहीं है कि इसमें काल की प्रतीत बड़ी कठोरता के साथ अनुक्रमिकता के साथ बंधी है?"8
इस काल के अनुक्रमिक बोध ने ही, उनके मत में, आधुनिक साहित्य की संभावनाओं को जड़ित और संकुचित बनाया है। अपनी पुस्तक 'शताब्दी के ढलते वर्षों में' के अध्याय 'संस्कृति, समय और इतिहास' में उन्होंने ऐतिहासिक काल बोध और भारतीय उपन्यास के बीच संबंध का बड़ा ही सारगर्भित विश्लेषण किया है। विशेषकर कथात्मक गद्य पर आए संकट का कारण खोजते हुए उन्होंने लिखा है कि भारतीय मनीषा में काल की अनेक परिकल्पनाएँ रही हैं, उन्हें पाश्चात्य ऐतिहासिक बोध की अनुक्रमिक अवधारणा में ढालकर हमने उन्हें विपन्न और एक आयामी बनाया है, जिसका असर अनिवार्य रूप से रचनात्मक विधाओं पर पड़ा है।
काल बोध के अलावा दूसरा तत्व है - मनुष्य का प्रकृति से संबंध। उनके अनुसार जिन समाजों में मनुष्य और प्रकृति दो विरोधी सत्ताएँ नहीं हैं, जहाँ उनके परस्पर संबंध अधिक आत्मीय, निकट और नैसर्गिक होते हैं, वहाँ अनुभूति और चिंतन की भाषा में अंतराल अधिक नहीं होता और उसकी मिथकीय संवेदनाएँ अधिक समृद्ध होती हैं। ऐसे समाजों में भाषा अपने मूल स्वभाव में रूपकात्मक होती है। उनके मत में भारतीय भाषाओं का विकास बिंबों और प्रतीकों के प्रभामंडल में हुआ तथा इसका कारण मनुष्य और प्रकृति के बीच यही पुनीत साहचर्य था। पर आधुनिकता के आक्रमण ने इसे क्षत-विक्षत किया। 'रीजन व् रेसनालिटी' का प्रवेश हुआ जिसने भाषा के साथ साथ साहित्यिक विधाओं का रूप-विन्यास बदल दिया। कथा से जातीय बिंब व मिथक गायब होने लगे। कल्पना का योगदान घटने लगा। हम भूलने लगे की भाषा का इतिहास ही नहीं भूगोल भी होता है। भारतीय भाषाओं में यदि गंगा, सरस्वती, हिमालय आदि के बिंब इतने गरमाई व गहराई से हमारी काव्यात्मक भावनाओं को झिंझोड़ते हैं तो उसका कारण यह है कि ये केवल प्रकृति के उपादान न होकर हमारी पौराणिक स्मृतियों के वाहक भी हैं, जो किसी समय भारतीयों को उनके देवी-देवताओं से जोड़ते थे, उनके लौकिक परिवेश को एक तरह की अलौकिक पवित्रता प्रदान करते थे। भारत शब्द का अर्थ ही उसका सत्य था - आलोक से घिरा भूमंडल। उनके सुंदर वाक्य हैं - "भारत को देवभूमि और संस्कृत को देवभाषा कहने के पीछे भूमि और भाषा के बीच का शाश्वत और पुनीत संबंध ही ध्वनित होता है।"9
लेकिन आधुनिक काल में ही कुछ मनीषी इस रीजन या रेसनालिटी के प्रभाव में नहीं रहे। भारतीय चिंतन एवं सृजन की परंपरागत धारा से वे अनुप्राणित रहे। उनके मत में, बंकिम बाबू के उपन्यास, गांधी का हिंद स्वराज, तथा अरविंद के चिंतन का गहरा संबंध इस भाषा, मिथक और स्मृति के अंतःसंबंध से जुड़ता है। ऐसी ही भाषा के माध्यम से वे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को विस्मृति के अँधेरे से बाहर लाने की आकांक्षा रखते थे। इस तरह निर्मल अपने साहित्य चिंतन को एक उद्देश्य देते हैं -
"अक्सर कहा जाता है कि हम अपनी भाषा में स्वप्न देखते हैं, कुछ संस्कृतियों के साथ शायद ऐसा ही होता है कि वे अपनी कथा अपनी स्वप्न भाषा में ही कहती हैं। भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का यथार्थ शायद ऐसी स्वप्न भाषाओं में ही रूपायित हुआ है।"10
और यहाँ, अगर उनके चिंतन का अनुसरण करें, तो शायद हिंदी साहित्य का भी यथार्थ ऐसी स्वप्न भाषा में रूपायित हुआ है। पर यह रूप बहुत हल्का है। इसीलिए, जिस भाषाई स्वराज की माँग किसी जमाने में दार्शनिक के.सी. भट्टाचार्य ने उठाई थी, निर्मल हिंदी में सर्वप्रथम उसकी माँग उठाते नजर आते हैं। इसी व्यापक सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि के क्रम में तब निर्मल, हिंदी साहित्य की विशेषतः कथा की परंपरा को गहराई और भव्यता से देखते लिखते हैं -
"यह कहना गलत न होगा कि आधुनिक उपन्यासों में जो लेखक अपनी कलात्मक उपलब्धियों के लिए याद किए जाते हैं वे ठीक वही हैं जिन्होंने मनुष्य के भीतर अंतर्निहित मिथकीय क्षमताओं को सबसे अधिक गहराई और सूक्ष्मता से आत्मसात किया है।"11
इस कथन के आलोक में निर्मल न केवल हिंदी कथाओं की बल्कि विश्व की आधुनिक कथाओ की एक विशेष पहचान बताने का उपक्रम करते नजर आते हैं। वे मिथकीय तत्व की पहचान बताते हैं - मिथकीय वह है जो मनुष्य के भीतर मनुष्येतर शक्तियों को इंगित करता है। वे इसे मनुष्य के भीतर ही प्रकृति की उन शक्तियों का विस्तार बताते हैं जो उसमें एक नायक तत्व को अभिव्यक्त करते हैं। वास्तव में किसी कलाकृति के सर्वोत्तम क्षणों में भावनाओं का संवेग और ताप अपनी सांद्रता में विस्फोटक और आँख खोल देने वाला हो सकता है जो उसे मिथकीय बना देता है। जिसे जेम्स ज्वायस ने कभी 'एपिफेनी' के क्षण कहा था। यह वे क्षण हैं जब मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अपने भीतर छिपे सत्य से साक्षात्कार कर लेता है। उनके अनुसार इन्ही क्षणों में अठारह दिनों के रक्तपात के बाद युधिष्ठिर ने युद्ध की निस्सारता को पहचाना था। युद्ध और शांति के नायक पियेर ने पहली बार अपने भीतर स्वयं और सृष्टि के बीच अद्भुत अद्वैत भावना का अनुभव किया था। कुछ वैसे ही जैसे रेणु के बामनदास ने मोहभंग के यातनारूप क्षणों में अपने राष्ट्रीय प्रेम के आदर्शों को धूल में मिलते देखा था।
यह ऐसे ही निर्णायक क्षण हैं जो निर्मल के मतानुसार कथात्मक विधा से न केवल नई आभा का प्रस्फुटन करते हैं अपितु कथात्मक भाषा शैली में भी एक अप्रत्याशित परिवर्तन कर देते हैं। इस दृष्टि से हिंदी कथा परंपरा को वे कुछ यूँ देखते हैं - "खड़ी बोली के संक्षिप्त इतिहास में कहानी और उपन्यास ने इतने कम समय में जो अप्रत्याशित मोड़ लिए हैं, वे न केवल भारतीय भाषाओं के इतिहास में वरन यूरोपीय उपन्यास के संदर्भ में भी दुर्लभ दिखाई देते हैं।"12 प्रेमचंद, वह पहले कथाकार हैं जो हिंदी कथाओं को बीसवीं सदी के विश्व साहित्य के समकक्ष ला खड़ा कर देते हैं। मिथकीय निर्णायक क्षणों ने हिंदी कथा को आगे क्या मोड़ दिया, वे लिखते हैं - "प्रेमचंद के जीवनकाल में ही दो ऐसे कथाकार सामने आते हैं जो उनकी कथात्मक शैली और भाषा को छोड़कर एक ऐसी नई जमीन तोड़ते हैं, जिसमें हिंदुस्तानी मध्यवर्ग का चिंतामग्न, आत्मशंकित, परंपरा में रहता हुआ भी आधुनिकता के थपेड़ों को सहता हुआ चेहरा दिखाई देता है, जो हिंदी साहित्य में पहले कभी नहीं दिखाई दिया था। यदि जैनेंद्र के पात्र ठिठके हुए फैसलों के बीच सोचते हुए पात्र हैं तो उस सोच को व्यक्त करती हुई भाषा भी छोटे-छोटे वाक्यों में प्रकट होती है, मानो चिंतन की संश्लिष्टता का सामना करने के लिए भाषा की ऋजुता जरूरी हो। किंतु सोच को पैनी धार तभी मिल सकती है जब वह स्वयं आत्म की सान पर चढ़ा हो। जैनेंद्र की सोच अज्ञेय के गद्य में 'आत्मसोच' की तीखी धार में चमकता हुआ दिखाई देता है और यह तभी संभव हो सकता है जब भारतीय समाज में एक ऐसे व्यक्ति का आविर्भाव हो जो समस्त आस्थाओं और मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगाने का दुस्साहस कर सके। गोरा के बाद संभवतः भारतीय उपन्यास के विकास यात्रा में शेखर एक ऐसा पात्र है जो अपने संस्कारों में भारतीय होता हुआ भी आधुनिक स्वाधीन चेतना का सबसे सशक्त संवाहक है।"13
इन्ही निर्णायक क्षणों में कवि-कथाकार रेणु की विशिष्टता को वे सामने लाते हैं। 'कवि-कथाकार' क्यों? यहाँ निर्मल जैसे अपने साहित्य-चिंतन को एकदम पारदर्शी बनाते लिखते हैं -
"उन्होंने जिस सूक्ष्म संवेदना और गहरे लगाव से बिहार के अंचल पूर्णिया की जमीन को कुरेदा था, उसके फैलाव को महीन और मांसल छवियों में ध्वनित किया था, उसके लिए गद्य की भाषा को अप्रत्याशित रूप से काव्यात्मक मुहावरे में ढाला था, वह हिंदी कथा में अभूतपूर्व घटना थी।"14
'काव्यात्मक मुहावरा' - इस रसमयी जमीन पर पहुँच कर निर्मल भारतीय कथा की प्राणधारा से जैसे एकाकार हो उठते हैं। कथा के रूपकात्मक-विन्यास की यह वह सनातन धारा है जो हमें जीवन से साक्षात्कार कराती रही है। ऋग्वेद की जुए की कहानी से लेकर रामायण, महाभारत, पंचतंत्र आदि को समाहित किए हुए यह कथाधारा विश्व की अप्रतिम थाती है। यह जीवन से इतनी एकमेक है कि एक तोते में भी मनुष्य के प्राण बसा सकती है और हम उसे भी यथार्थ से विलग नहीं मान पाते। एक समन्वित और सर्व-समावेशी कथा-धारा जो जीवन की गतिकी को कथा-त्रिकाल में स्थित कर देती है।
निर्मल की इस साहित्य दृष्टि से आधुनिक हिंदी कथा के निज स्वरूप का दर्शन करें तो एक क्षीण पर उत्साहवर्धक परंपरा देखने को मिलती है। आधुनिक काल में, प्रेमचंद के बाद, सर्वप्रथम, यह शायद अज्ञेय थे जिन्होंने इस कथा-विन्यास पर ध्यान दिया। साथ ही कथा-भाषा में नूतन परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की। उनसे पूर्व हिंदी कथा समस्याग्रस्त ही रही। वही 'वर्णनात्मकता' तथा प्रगतिवाद, आंचलिकता, सामाजिकता आदि के थोथे दावे। एक पुरातन गद्य-विधान - एक राजा था - का अनुसरण। हिंदी गद्य के स्वाभाविक गद्य विन्यास - कर्ता-कर्म-क्रिया - की इतनी गहरी पैठ कि कल्पना सिसकने लगे। इस विधान पर पूर्णतः आश्रित रहने वाले उपन्यासों में 'झूठा सच' का उदाहरण ले सकते हैं, जिसमें पता ही नहीं चलता कि उपन्यास पढ़ रहे हैं या विभाजन के दिनों की पुरानी समाचार पत्रों की फाईल उलट रहे हैं। ऐसे में ही अज्ञेय नूतन प्रयोगों पर बल देते हैं तथा जैनेंद्र के साथ मिलकर महाकाव्यात्मक उदात्तता लिए कथाओं के सृजन में तल्लीन होते हैं। दोनों ही गद्य को वर्णन के प्राथमिक स्तर से ऊपर उठाते हैं तथा सर्जनात्मकता के उच्च-स्तर तक ले जाते हैं। 'त्यागपत्र' और 'शेखर' इसके प्रमाण हैं। त्यागपत्र के शुरू के ही अनुच्छेदों में है - 'हम लोगों का असली घर पछाँह की ओर था। माता अत्यंत कुशल गृहणी थीं। जैसी कुशल थीं वैसी कोमल भी होतीं तो?'- इस होती तो? के आगे पहले का कथाकार होता तो बढ़ जाता पर जैनेंद्र नहीं बढ़ते। कारण, कथा का वर्णन न करके उसको व्यंजित करना है। गद्य की रचना प्रक्रिया का यह दरअसल, काव्य की रचना प्रक्रिया की ओर विचलन है। यथार्थ को उसकी मूल छवि के साथ उभारना है। आगे, यही अज्ञेय के कथा कर्म में और निखरती है। शेखर के बाबा मदन सिंह का यह कथन देखें - "अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है और दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है।" जैनेंद्र के आंशिक प्रयोगों के बाद सर्वप्रथम शेखर की ऐसी ही पंक्तियों में कथा भाषा और काव्य भाषा के रचनात्मक संपर्क का व्यवस्थित अस्तित्व मिलता है। 'नदी के द्वीप' और 'अपने अपने अजनबी' में यह और पुष्ट होता है। खासकर, अपने अपने अजनबी में अज्ञेय ने बोलचाल के सामान्य और खड़खड़े शब्दों को रचना के स्तर पर प्रयुक्त किया है। वास्तव में प्रचलित काव्यात्मक शब्दावली को छोड़ने पर यह समस्या आती है कि नितांत बोलचाल की भाषा का आधार लेकर सर्जनात्मक गद्य किस तरह लिखा जाए? अज्ञेय ने इसका समाधान करते हुए यह किया कि ऊपर से काव्यात्मक लगने वाले शब्दों को अलग अलग करके पूरे विधान में कविता की आंतरिक रचना प्रक्रिया का एक सीमा तक सहारा लिया, कथा की भाषा को एक सीमा तक यथासंभव एकरस बनाए रखा। कहना होगा कि अपने अपने अजनबी में वर्णन और अनुभव की भाषा के बीच जोड़ प्रकट नहीं होते। अद्भुत है कि कथा में कथा कहने वाले पंचतंत्र और हितोपदेश के देश में वर्णन करने और कहानी कहने पर ऐसा सहज और अनाटकीय संयम यहाँ पहली बार देखने को मिलता है। अज्ञेय की भाषा रूपकात्मक और कहीं-कहीं शब्दों के पुनराव के माध्यम से कैसा काव्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करती है, नदी के द्वीप के इस उद्धरण में देखें -
"भुवन को याद आया, डूबते सूर्य का उन्होंने पीछा किया था और हार गए थे। नहीं, आज वह डूबते सूर्य का पीछा नहीं करेगा, सूर्य को डूब जाने दो, पकते सेब पर उसकी धूप की चमक ही इष्ट है, उसी को वह देखेगा, उसकी लालिक क्रांति में सूर्य की धूप पकेगी, सुफला होगी। शरदारंभ नहीं हुआ, अभी बरसात का अंत ही है, फलों पर भी अभी वह सूर्यास्त की लाली-सुनहली कांटी नहीं आई, पर उसी फले हुए जीवन तरु को वह देख सकता है।"
इस उद्धरण में ही नहीं, पूरे पृष्ठ पर सूर्य, सूर्यास्त, धूप, सेब, पेड़, जीवन या इनके समानार्थक शब्दों का सर्जनात्मक दोहराव है और उनके माध्यम से ही भुवन की मनःस्थिति के संश्लिष्ट आंदोलन की सांकेतिक छवि हम तक संप्रेषित हो जाती है। रेखा के द्वारा एक 'धूप' शब्द के प्रयोग से भुवन के मन में इतनी स्मृतियों का उमड़ आना इस शब्द को रूपकात्मकता या काव्यात्मक गरिमा से मंडित कर देता है।
रेणु के कथा लेखन में यह प्रवृत्ति और भी विकसित और परिष्कृत होती है। इस संदर्भ में प्रेमचंद से उनकी तुलना रोचक है। वास्तव में दोनों के यथार्थ का फरक केवल आंचलिकता का फरक नहीं है। प्रेमचंद मूलतः वृत्तांत शैली के कथाकार हैं, इसलिए उनकी भाषा में वाक्य संगति अधिक है, रूपकात्मकता कम। जबकि रेणु मूलतः चित्रण शैली का आग्रह रखते हैं, अतः उनके लिए कथा की बजाय पूरे गाँव को, हर ब्यौरे को, एक संश्लिष्ट अनुभव की तरह रचना स्वाभाविक है, जो रूपकात्मक भाषा में ही संभव है। शायद यही कारण है कि प्रेमचंद कुछ ग्रामीण विशेषताओं को कुछ चरित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं, जबकि रेणु का गाँव स्वयं एक चरित्र है। ये यथार्थ के प्रति दरअसल दो एप्रोच हैं, जो भाषा के जरिये रचे जाते हैं।
कहना न होगा कि निर्मल की इस दृष्टि से देखने पर हिंदी कथा-परंपरा की एक दूसरी और अधिक उज्जवल धारा दिखाई पड़ने लगती है जिसके अस्तित्व और विकास का अभी तक ठीक-ठीक अध्ययन नहीं हो पाया है। हालाँकि, यह हिंदी कथा परंपरा का एक छोटा सा हिस्सा भर है। हिंदी कथा इस दृष्टि से समृद्ध नहीं कही जा सकती। हा शोक !! कि अपनी नदी में ही पानी बहुत कम है। और इतना पानी चारों तरफ कि प्यास बुझानी मुश्किल !
निर्मल के मत में इसका कारण वह 'यूरोपीय फार्म' है जिसे हमने पश्चिम से ज्यों का त्यों अपना लिया है और जिसमें हिंदी कथा का अधिकांश लिखा-पढ़ा जा रहा है। वे लिखते हैं -
"उपन्यास की अर्थवत्ता यथार्थ में नहीं, उसे समेटने की प्रक्रिया, उसके संघटन की अंदरूनी चालक शक्ति में निहित है। तभी किसी विधा के भीतर एक विशिष्ट फार्म का आविर्भाव होता है, जो समेटने की हर लय, स्तर और स्पंदन को अनुशासित करती है; ऐसे स्पेस का उद्घाटन करती है जहाँ अनुभव का औपन्यासिक जीवन शुरू होता है। हम अक्सर साहित्यिक विधा और फार्म को आपस में उलझा देते हैं - एक रूढ़ प्रणाली है, दूसरी उसको तोड़कर अपनी धारा को खोजने की कोशिश - यदि इनमें हम भेद कर पाते तो यूरोप की संस्कृति-सापेक्ष विधा को अपनाते समय उसके फार्म को भी ज्यों-का त्यों अपनाना जरूरी न समझते।"15
हिंदी कथा की वास्तविक पहचान को लेकर निर्मल का उक्त विचार अद्वितीय है। किंतु उनके इसी जैसे अन्य विचार हिंदी आलोचना के विमर्शों में एक हलचल भी पैदा कर देते हैं। बहुधा मार्क्सवादी और अन्य विचारधारात्मक दृष्टियाँ उनके इस चिंतन को खारिज कर देती हैं तथा इसे परिवर्तन-विरोधी और यहाँ तक की साहित्य विरोधी भी ठहरा देती हैं। पर निर्भय निर्मल यहीं नहीं रुकते। 'भाषाई विस्थापन' से स्तब्ध वे अपनी जड़ों की तलाश में तत्पर होते हैं। अपनी इस कथा-दृष्टि को एकदम खोलते वे 'कला का जोखिम' पुस्तक में लिखते हैं -
"वास्तव में कला की कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं है, क्योंकि इसका सब अपने आप में है, स्वायत्त और आत्मतुष्ट है और जिसकी अहमियत उसके निज के अस्तित्व की शर्तों पर ही आँकी जा सकती है। ये शर्तें अपना औचित्य सीधे जिंदगी से ही लेती हैं, इससे अलग किन्ही सामाजिक या दूसरे सिद्धांतों से नहीं - वह जिंदगी जो सारी कलाओं में स्थापित होती है।"
प्रायः आलोचक निर्मल के ऐसे ही विचारों के आधार पर उन्हें कलावादी और पतनवादी घोषित कर देते हैं। उनके आक्षेपों का कुल निष्कर्ष यह कि निर्मल अपने चिंतन और सृजन कर्म में यथार्थवादी नहीं हैं, बल्कि रोमांटिक हैं। आश्चर्य है कि वे घूमकर अपनी जड़ों की तलाश में वापस लौटते हैं पर उन्हें विजातीय ठहरा दिया जाता है। हिंदी में, अज्ञेय के बाद, इस ट्रेजडी के एकमात्र शिकार शायद निर्मल वर्मा ही हैं। अतः जरूरी है कि उनकी कथा-साहित्यिक दृष्टि के स्पष्ट साक्षात्कार हेतु हमें अब इस बड़े प्रश्न से टकराना ही चाहिए कि कथात्मक-साहित्य और यथार्थ का सह-संबंध हम बनाते कैसे हैं? तथा हिंदी कथा में, इस संबंध का ऐतिहासिक कालक्रमानुसार बना स्वरूप कैसा है?
(3)
यथार्थ क्या है? वह एक-स्तरीय है या बहुस्तरीय? यथार्थ अधिक महत्वपूर्ण है या विचारधारा या दृष्टिकोण? साहित्य में यथार्थ की प्रस्तुति भर वांछनीय है या परिवर्तन की प्रेरणा देना भी उसका ध्येय है? ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जो साहित्यिक विमर्शों के केंद्र में रहे हैं और रहेगें। लेकिन यह आम स्वीकृत है कि साहित्य का बुनियादी कर्म यथार्थ की प्रस्तुति करना है, कि वह यथार्थ को जानने और उसे संप्रेषित करने का माध्यम है। किंतु विमर्शों में ही एक और प्रभुत्वशाली दृष्टिकोण भी है जो मानता है कि यथार्थ की स्थिति साहित्य से बाहर कहीं है, और साहित्य का काम उसे जस का तस प्रस्तुत भर करना है। दूसरे शब्दों में, साहित्य की सत्ता, उसका औचित्य और प्रासंगिकता एक ऐसे यथार्थ से जुड़े होने में है जिसका अस्तित्व उसके बाहर है, साहित्यकार अनिवार्यतः उसी से बद्ध है, उसकी सर्जनात्मकता उसी से नियमित है। निर्मल के मत में, यह दृष्टिकोण न केवल साहित्य के स्वायत्त अस्तित्व का पूरी तरह अतिक्रमण करता है बल्कि मानवीय सर्जनात्मकता को भी उपयुक्त युक्तियों की तलाश तक सीमित कर देता है। यदि मान लिया जाए कि साहित्य का प्रयोजन अपने से बाहर स्थित यथार्थ का संप्रेषण है तो फिर कोई तर्क नहीं बचता कि यथार्थ की पहचान की कसौटी भी तब साहित्य के बाहर ही क्यों न हो। और साहित्य यदि माध्यम ही है तो उसका उपयोग साहित्येतर उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्यों न हो। आगे, तब इस उपयोगिता के आधार पर ही उसकी उत्कृष्टता का मूल्यांकन स्वाभाविक होगा। जाहिर है, ऐसी स्थिति किसी को भी स्वीकार्य न होगी। क्योंकि यह सत्य नहीं है। एक कलाकार की स्वतंत्रता इससे बाधित होगी। ऐसी धारणा स्वीकार कर लेने से साहित्य नाजीवादी, फासीवादी खतरों से आसन्न रहेगा।
शायद इसीलिए हमारे यहाँ साहित्य को विकल्प कहा गया है। साहित्यिक पाठ में समांतर विश्व की द्वितीयक रचना के अस्तित्व पर कभी संदेह नहीं रहा और सदा ही कहा गया कि विश्व के ज्ञान के लिए आप शास्त्र की ओर उन्मुख हों। इस द्वितीयक रचना के जगत का प्रजापति स्वयं कवि को माना गया।
वैसे, यथार्थ के बारे में इस तर्क को नकारना आसान नहीं कि यथार्थ की तद्वत पहचान संभव नहीं। हम जिस माध्यम से यथार्थ को पहचानने का उपक्रम करते हैं, उस माध्यम का होना ही यथार्थ के हमारे ग्रहण को, हमारी पहचान को अनिवार्यतः प्रभावित करता है। इसलिए हम जो कुछ जान पाते हैं वह कोई निरपेक्ष यथार्थ नहीं, हमारे माध्यम की प्रकृति से रूपांतरित यथार्थ होता है। अर्थात यथार्थ की पहचान की हमारी प्रक्रिया ही हमारा यथार्थ हो जाती है, बल्कि तब वह यथार्थ की पहचान की नहीं, यथार्थ के सर्जन की प्रक्रिया हो जाती है और हम उसी का संप्रेषण कर रहे होते हैं। इसलिए जब भी हम यथार्थ की कोई नई पहचान, किसी नई दृष्टि का अनुभव करते हैं तो वास्तव में समूचे यथार्थ का, यथार्थ के प्रति हमारे समूचे बोध का नया सर्जन कर रहे होते हैं। यह बात जितनी विज्ञान के संदर्भ में सच है उतनी ही साहित्य के संदर्भ में भी। विज्ञान का एक नया निष्कर्ष समूचे प्राकृतिक विश्व को हमारे लिए नया कर देता है और किसी कृति से साक्षात्कार के बाद भी तो हम वही नहीं रह जाते, हमारा बोध वही नहीं रह जाता, अपने परिवेश सहित हम नए सिरे से रच गए होते हैं। वस्तुतः साहित्य की कोई विधा केवल कलागत प्रयोग नहीं होती, वह हमारी संपूर्ण साहित्य दृष्टि, संपूर्ण यथार्थ बोध की नई रचना कर देती है।
वस्तुतः, यथार्थ बहुस्तरीय, बहुरूप होता है। अज्ञेय लिखते हैं - 'लेकिन यथार्थ एक साधारण दृश्य स्तर पर होता है और एक दूसरे स्तर पर भी घटित होता है... घटना जो सिर्फ बाहर दिखती है उतनी नहीं होती, बहुत सी घटना भीतर घटती है' (अपने बारे में) इसलिए यथार्थ की पहचान की विभिन्न प्रणालियों को, उसकी ऐंद्रिक और भाषिक पहचानों को एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। यदि माध्यम यथार्थ की नई रचना करता है तो मानना होगा कि यथार्थ के उतने ही प्रकार संभव हैं जितने प्रकार के माध्यमों से हम उसे पहचानने का उपक्रम करते हैं। इसलिए विभिन्न प्राकृतिक और सामजिक विज्ञानों की तरह साहित्य के विविध रूप भी यथार्थ की पहचान और पहचान की इस प्रक्रिया में उसकी रचना के विविध स्वायत्त माध्यम हैं। स्वायत्त इसलिए कि यथार्थ की जो रचना वे करते हैं, वह अन्य माध्यमों के अनुशासन से नियंत्रित नहीं है। उसकी सर्जनात्मकता उनके माध्यम की अपनी प्रकृति में ही अंतर्भुक्त है। साहित्य के प्रत्येक रूप की, इसलिए प्रत्येक कथा रूप का औचित्य इस बोध में निहित है कि वह यथार्थ की ऐसी रचना करता है और पहचान भी करवाता है जो अन्य किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो साहित्य, प्राकृतिक या सामाजिक विज्ञान एक-रूप होते।
कथा, भाषा का ही एक विशिष्ट रूपाकार है, और इसलिए यथार्थ की रचना और उसकी पहचान का एक विशिष्ट माध्यम भी है। डेविड लाज 'लैंग्वेज ऑफ फिक्सन' में लिखते हैं - 'कथाकार का माध्यम भाषा है, वह जो भी करता है, भाषा में/से करता है।' कथाकार किसी पूर्व-निर्धारित अर्थ को भी भाषा नहीं देता बल्कि भाषा के जरिये भाषा की अपनी प्रकृति के निर्देशानुसार उसी में अर्थ की तलाश करता है। इसलिए कथा भी यथार्थ तक पहुचने की एक विशिष्ट प्रणाली है,जो अपने तरीके से यथार्थ की अलग रचना करती है - इस विशिष्ट प्रणाली का अनुभव या बोध पाठक तक संप्रेषित करना ही कथाकार के लिए अपेक्षित है क्योंकि उसके और पाठक के लिए वह प्रणाली ही अधिक महत्वपूर्ण है, वही यथार्थ का स्वरूप निर्धारित करती है। इसलिए कथा में स्थूल घटनाओं या ब्यौरों की विश्वसनीयता, साहित्यगत यथार्थ की विश्वसनीयता की कसौटी नहीं है क्योंकि कथा साहित्येतर घटनाओं का बोध नहीं बल्कि भाषा के एक विशिष्ट सर्जनात्मक प्रकार के माध्यम से कथात्मक यथार्थ का बोध है। अतः वाह्य यथार्थ की तब तक कथा में कोई जगह नहीं है जब तक वह उसके किसी आंतरिक प्रयोजन को पूरा नहीं करता। फैंटेसी जैसी विधियाँ इस बात का प्रमाण हैं जिनमें स्थूल घटनाओं की विश्वसनीयता का तो अतिक्रमण किया जा सकता है पर भाषिक विश्वसनीयता का नहीं।
इसीलिए, कथा भाषा के विविध रूप और शैलियाँ यथार्थ की रचना की विविध शैलियाँ या प्रणालियाँ हैं। इन विविध शैलियों के माध्यम से यथार्थ का जो स्वरूप उजागर होता है उसमें भी भिन्नताएँ होती हैं। ये भिन्नताएँ सतही नहीं होती बल्कि ये भाषा की एक गहरी संरचना को अभिव्यक्त करती हैं। स्पष्ट है कि ठीक यही बात भाषा में यथार्थ की रचना और उसके संप्रेषण के विविध रूपों के बारे में कही जा सकती है। इसलिए उन्हें किसी साहित्येतर यथार्थ की उपज मात्र मानना गलत होगा क्योंकि इनके बदल जाने पर भी उनमे निहित दृष्टि और यथार्थ का बोध अप्रासंगिक नहीं हो जाता। आश्चर्य नहीं कि स्वयं कार्ल मार्क्स के सामने कठिनाई थी कि परस्थितियों के बदल जाने पर भी ग्रीक महाकाव्य कलात्मक आनंद क्यों देते हैं। स्पष्टतः यह गुण भाषा के अपने स्वभाव और विशिष्ट सर्जनात्मक गुणों की वजह से है।
लेकिन भाषा की अपनी प्रकृति की वजह से ही कथा लेखक या कहें सर्जनात्मक गद्य लेखक के सम्मुख कई समस्याएँ पैदा हो जाती है। भाषा का एक निश्चित सार्वजनिक अर्थ होता है और गद्य इस अर्थ को एक संगति में व्यक्त करता है। इधर कथा गद्य की विवशता यह है कि उसे वाक्यों के संगतिमूलक संसर्ग पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसका साहित्यिक परिणाम यह होता है कि वाक्यों की इस संशक्ति के कारण इनके माध्यम में रचे जा रहे यथार्थ में भी एक संगति या क्रम-व्यवस्था रच जाती है - स्पष्ट है कि यह क्रम व्यवस्था देशगत और कालगत होती है, जबकि अनुभूति या रचना के क्षण देश और काल की सीमाओं की अयथार्थता में ही संभव है। इस दबाव की वजह से ही कथा गद्य में लाक्षणिकता का विकास हुआ, जिसने तार्किक गद्य से इसे अलग कर दिया। यह वस्तुतः आधुनिक कथा भाषा का आविर्भाव था। लेकिन यह लाक्षणिकता भी कविता की कोटि तक नहीं पहुँच सकती क्योंकि अंततः इसे वाक्य संगत या कहें संसर्गमूलक होना ही पड़ता है।
स्पष्ट है कि जब संश्लिष्ट यथार्थ की रचना और संप्रेषण का प्रश्न आता है तो कथा के सामने समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कथा और यथार्थ-प्रस्तुति के संबंध गड़बड़ा जाते हैं। डेविड लाज ने उक्त उद्धृत पुस्तक में कथा की समस्यायों पर विचार करते हुए यही निष्कर्ष निकाला कि 'कथा की केंद्रीय समस्या यह है कि कोई भी यथार्थ अब इकहरा नहीं है।' अतः सब कुछ को एक साथ व्यक्त कर पाना आधुनिक कथा और उसकी भाषा की प्रमुख चुनौती है। यथार्थ के इसी विकट रूप को अज्ञेय ने 'क्रमहीन सह्वर्तिता' कहा तथा इसके समग्र अर्जन के लिए कथा के सनातन शिल्प की ओर गए।
किंतु हिंदी में, फार्मूलों से कथा रचने वाले अधिकांश कथाकार इस चुनौती से घबराकर विचारधाराओं की गोद में जाकर बैठ गए। 'प्रगति' के नाम पर बने इस कथात्मक इतिहास को हम सब जानते हैं। फैशन की एक दिखाऊ प्रवृत्ति तो इसका एक कारण रही ही, पर निर्मल के मत में इसके पीछे एक और मूल कारण रहा -
"हम डरने लगे कि कुछ शब्दों के संयोजन मात्र से एक कविता या कहानी जो यथार्थ गढ़ती है वह कुछ इतना बेगाना, विचित्र और अपरिचित हो सकता है - कि उसके संपर्क में आते ही हमारा अपना यथार्थ भरभराकर ढह जाएगा। यह एक विकट विरोधाभास है कि हम साहित्य के समक्ष जितनी 'यथार्थवादी माँगें रखते हैं, उतना ही स्वयं साहित्य के अपने सत्य से आँखें मिलाते हुए कतराते हैं।"16
'डर'- पर डर भी यूँ ही नही होता। सत्य हमेशा निडर होता है। डर के पीछे कोई झूठ छिपा होता है। निर्मल इसे केवल झूठ नहीं कहते। वे इसका संबंध 'हिप्पोक्रेसी' से जोड़ते हैं, जिसे खासकर अँग्रेजों ने हमारे जेहन में डाला। केवल कथा नहीं, पूरा साहित्य इसके दुष्प्रभाव में आया। साहित्य का प्रयोजन ढूँढ़ने की हविश में प्रगति के ये 'हिप्पोकैंपस' (घोड़े) हमें साहित्य के सत्य से क्यों दूर ले गए, इस पर वे लिखते हैं -
"हर महान कलाकृति शब्दों के बीच यथार्थ के मुखौटों को उतारकर हमारे अपने चेहरे की एक ऐसी छवि उकेरते हैं,जो उस पहचान से कुछ अलग है, जो हमें अपने बने-बनाए आईनों में दिखाई देती है। हम उस चेहरे से डरते हैं, जिसकी फोटो इतिहास व किसी पासपोर्ट के चित्र से मेल नहीं खाती। वह सिर्फ साहित्य में प्रकट होती है।"17
ये चेहरे आज तक छिपाए जाते हैं। बस ध्यान से उन्हें देखने की जरूरत भर है।
बहरहाल, उनके मत में जिनमें साहित्य के आत्म सत्य को स्वीकार करने का साहस था, निष्ठा थी, धैर्य था, प्रयोगधर्मिता थी, अपनी जड़ों पर विश्वास था, केवल वे ही इस आँधी में टिके रहे। निर्मल की दृष्टि से देखें तो कथा-धारा की ऐसी विषम स्थिति में कथा भाषा, काव्य भाषा के पास आई। इसने रूपकात्मकता को विकसित करने की चेष्टा की। पश्चिम में मार्सेल प्रूस्त ने उपन्यास को एक स्मृति की तरह परिभाषित किया तथा उसके लिए रूपक विधान को आवश्यक माना। किंतु समस्याएँ यहाँ भी आईं। क्योंकि रूपकात्मकता की बढ़ती हुई यह प्रवृत्ति अक्सर या तो गद्य को कविता में बदल देती है, या एक ऐसे गद्य की रचना करती है भाषा में संरचित यथार्थ भी चरमराने लगता है। उधर वृत्तांत की जगह चित्रण का बढ़ता हुआ प्रभाव कथा तत्व को आघात पहुँचाता है और यथार्थ को एक अनुभव की तरह नहीं, एक दृश्य वर्णन की तरह प्रस्तुत करने लगता है। अतः, कम से कम आज जरूरत है कथात्मकता और चित्रणात्मकता, तथा रूपकात्मकता और क्रमबद्धता के बीच एक भाषिक समन्वय की। हिंदी कथा और यथार्थ प्रस्तुति की वर्तमान समस्यायों का हल इस योग मार्ग से होकर ही निकलता है। अन्यथा, विचारधाराओं के घोड़ों पर सवार कलम यथार्थ के नाम पर कथा के रूप में केवल खोखले नारे ही रच सकती है, और इसने ढेर सारा रचा भी है।
वस्तुतः, हिंदी के कथात्मक साहित्य में यथार्थ के जिस चंचल खरगोश को पकड़ने की सच्च चेष्टा है, या होनी चाहिए, उसका असली खेल वही है, जिसे निर्मल वर्मा बताते हैं। बाकी बातें केवल नारेबाजी हैं। अधिकांश आलोचकगण कथा के ढाँचे से बाहर जा के फतवेबाजी करते हैं। जाहिर है कि आलोचना की मुख्यधारा में विचारधाराओं के आधार पर कथा और यथार्थ के बीच बेढंगे, मुँहदेखे, और मनमाने संबंध बनाए गए हैं। फार्मूलाबद्ध मूल्यांकनों ने न केवल हिंदी कथा के सहज और स्वस्थ प्रवाह को तोड़ा है अपितु उसे भ्रमित और नष्ट किया है। आजादी के बाद, बिना ठीक से समझे अपना लिया गया मार्क्सवाद इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। जबकि, उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यथार्थ का वह स्वरूप हमारे जैसे कथात्मक सृजन वाले समाजों में फिट नहीं बैठता जो पश्चिमी विचारों के रूप में हमने ओढ़ लिया है। यहाँ तो, जैसे जीवन फैला है - गुणातीत, वैसे ही कथा। विचारधाराओं की कलम से एकरेखीय कथा तो बन सकती है पर हमारे मनों में वह बहुत देर तक नहीं अँटेगी। क्योंकि, अतीत को चक्राकार देखने वाली हमारी दृष्टि इतिहास की कालक्रमिकता में बहुत देर तक नहीं टहल सकती। यथार्थ की कथात्मक गुत्थी को हमें अपने औजारों से ही सुलझाना होगा।
निर्मल यथार्थ के सृजन, हिंदी कथा के स्वरूप और उसकी रचना-प्रक्रिया से संबंधित ठीक इसी सवाल से जूझते दिखाई देते हैं। इसका हल भी उन्हें अपने घर में ही मिलता है -
"उपन्यास जैसी विधा के लिए हिंदी लेखक को एक पश्चिमी लेखक की ही तरह आत्म-सजग और तर्कशील होना होगा, किंतु इस विधा की सीमाओं पर उसे एक निर्वैयक्तिक, गैर-ऐतिहासिक, मिथक संपन्न अँधेरी स्मृतियों को उजागर करना होगा, उन्हें उजागर करने के लिए खुद इस अँधेरे में डूबना होगा। यह समूचा कार्यकलाप, यह ऐडवेंचर किसी आलोचनात्मक, बौद्धिक योजना द्वारा नहीं, शुद्ध कल्पनाशील अनुभवों के बीच होगा। इसी कल्पनाशीलता के आधार पर तोलोस्तोय रूसी समाज का दर्पण बने थे, अपने ऐतिहासिक, बौद्धिक ज्ञान के कारण नहीं।"18
निर्मल की यह टिप्पणी विचार-योग्य है। यह हमें कथा सर्जना की अपनी धरती की ओर ले जाती है। इतना ही नहीं, वे स्वयं अपनी कथा-रचना में इस ओर उन्मुख हैं। संशय नहीं, निर्मल की कथा-सर्जना स्वयं इन अँधेरी स्मृतियों की बेचैन तलाशों की साक्षी है। उनके 'कौव्वे और काला पानी' संग्रह को ध्यान से पढ़ें तो लगता है जैसे हमारी जातीय स्मृति एवं व्यवहार में व्याप्त भक्ति, अध्यात्म, और धर्म के जीवन शिल्प को ही वे कथा-शिल्प में तब्दील कर देते हैं तथा कवि कबीर और तुलसी के साथ कथाकार निर्मल तक, जीवन की निस्सारता के दर्शन की, एक गहरी लकीर एकतान हो उठती है। पश्चिम में, प्रूष्त के नेतृत्व में अपनी जड़ों की ओर एक पीढ़ी लौटती है और यहाँ निर्मल विचारधारात्मक यथार्थ की जंजीरें तोड़, आधुनिक हिंदी कथा में, शब्दों पर अंकित रह गईं अमिट स्मृतियों, को खोलते हैं -
"ऐसा कई बार होता है कि स्मृति-किसी घटना की स्मृति मिट जाती है, केवल शब्द रह जाते हैं। वे अलग हवा में झूलते हैं। मुझे ऐसे शब्द इकट्ठा करने का शौक है... वे अलग हैं, घटनाएँ अलग हैं, कम से कम मैं इन्हें अलग रखना चाहता हूँ... क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई भी शब्द इस घटना के तात्कालिक सत्य, उसकी धड़कन, उसके गर्द और पसीने को नहीं घेर सकते, जो बीत गया।" (हर बारिश में)
वस्तुतः, हर कलाकृति अपने सर्वोच्च क्षणों में एक अनुभव उपलब्ध कराती है, जिसे निर्मल कहते - 'अधूरेपन से संपूर्णता की यात्रा - एक आध्यात्मिक अनुभव।' महाभारत आदि महाकाव्यों में मनुष्य की निविड़ अंधकारमयी यात्राओं को हम देखते हैं जहाँ व्यक्ति ब्रह्मांड की वैश्विक चेतना से स्खलित होकर अकेले अहं की कुहेलिका में ठिठुरता है। एक अद्भुत यात्रा - जहाँ एक नरक से दूसरे नरक तक गुजरते हुए हम ऊपर उठते जाते हैं - मृत्योः स मृत्युं गच्छति। यहाँ से एक बार निकल कर वापस आना नहीं होता। यह एक आध्यात्मिक अनुभव है, जो निर्मल की दृष्टि में -
"यह वह यथार्थ नहीं, जिसमे मनुष्य अपने को आरोपित करके प्रस्तुत करता है, यह वह यथार्थ है जो मनुष्य से अलग अपनी सत्ता में संपूर्णतया निस्संग है। आध्यात्मिक अनुभव साहित्य में एक अजीब कलात्मक सौंदर्य में रूपांतरित हो जाता है, जब हम मर्मान्तक क्षणों में अपने जीवन को अविभाजित संपूर्णता में देख लेते हैं। यही नश्वर में 'शाश्वत' की फलक है।"19
अतः, उनके मत में, हमारी कलात्मक विधाओं का अध्यात्म से जो संबंध लगभग समाप्त हो गया है या कर दिया गया है उसे फिर से बनाने की जरूरत है। क्योंकि भारतीय परंपरा में ऐसा कभी न था। भगवतगीता का प्रवचन किसी मनोरम वाटिका में नहीं, युद्धक्षेत्र में विराट सेनाओं के बीच हुआ था। यहाँ भौतिक और आध्यात्मिक एक दूसरे के बिना अधूरे जान पड़ते हैं। इसीलिए कलाकृति और तत्व-दर्शन में दोनों का अद्भुत मिश्रण रहता है, जो मनुष्य के एक या दो पक्षों का नहीं - उसके समग्र मनुष्यत्व से संबंध रखता है।
निष्कर्षतः, निर्मल के मत में, परंपरा से प्रवाहित अपने जातीय मिथकीय आयाम को तथा निज फार्म को आधुनिक हिंदी साहित्य और उसकी भाषा, उसकी परिवर्तनशील विशिष्टता के साथ ग्रहण करे, हिंदी की साहित्यिक-अस्मिता के संरक्षण और संवर्धन का एकमात्र रास्ता यही है। उपन्यास विधा को संदर्भित कर वे लिखते भी हैं -
"हम आज जब उथले ढंग से भारतीय उपन्यास को नगरी, ग्रामीण, दलित आदि में वर्गीकृत करने के इतने आदी हो चुके हैं कि लगभग भूल चुके हैं कि इन कृत्रिम विभाजनों के पीछे भारतीय चरित्र कितनी तहों व परतों के भीतर एक विशिष्ट, विराट सांस्कृतिक समग्रता समेट कर निर्मित हुआ है। इसमें मैं और तुम, मनुष्य और प्रकृति, व्यक्ति और देवता एक दूसरे के चेहरों में स्वयं को प्रतिबिंबित करते हैं। यहाँ बर्गेन के उस पुराने घर के अलग कक्ष नहीं हैं, जहाँ मनुष्य के प्रायवेट सेल्फ वास करते हैं। यहाँ सब दरवाजे खुले हैं, जहाँ कोई भी कुछ भी हो सकता है।"20
(4)
इसमें शक नहीं कि अपनी इस साहित्य-दृष्टि के अनुरूप निर्मल अपनी सर्जना को एक ऊँचाई तक ले गए। इस दृष्टि से उनका उपन्यास 'अंतिम अरण्य' भी हमारे समय में, एक क्लासिक के रूप में, हिंदी कथा की उपलब्धि है। सनातन काल से चली आ रही हमारी कथा-धारा को यह उपन्यास एक उत्स देता है।
इसी उपन्यास की लगभग अंतिम पंक्तियों में हम देखते हैं कि समुद्र की आंदोलित लहरों पर दो काठ खंडों का मिलना, टकराना और अलग हो जाना, यही पूरा सत्य नहीं है। मनुष्य काठ नहीं है। अतीत वर्तमान तथा भविष्य की एक निरंतर प्रक्रिया का समन्वित सत्य है और मनुष्य अपने वर्तमान में अतीत की स्मृतियों के अधीन है, वह काठ की तरह लहरों के बीच एक दूसरे से संयोगवश टकराकर भले ही अलग हो जाए पर वह जिससे टकराता है उसके लिए अपने में जगह भी बनाता चलता है। जीवन से भिन्न, इस टकराहट में कविता, कथा में जगह बना लेती है; न केवल कथा की संरचना में, अपितु उसकी आत्मा में भी -
"साल बीतते गए, मैं उस शहर में दुबारा नहीं जा सका"
"मैं बार-बार रात की नींद में, दिन की रोशनी में, सड़क पर चलते हुए वहीं चला जाता हूँ जिसका नाम नक्शे में नहीं है।"
"मैं सुनता था और सोचता था, क्या मैं सचमुच वहाँ गया था, जहाँ सब कुछ बीत चुका था।"
वस्तुतः कथा, ज्यों कला, शाश्वत वर्तमान में जीती है। उनके मत में, वह जितना अधिक तथाकथित 'फैशनेबुल और विचारधारात्मक' प्रयोजनों से रिक्त होती जाएगी उतना ही मनुष्य को अपने अर्थों से संपन्न और समृद्ध करती चलेगी। प्रयोजन-मुक्त कथाओं में ही अर्थ-युक्त मनुष्य की छवि देखी जा सकेगी।
याद करें गीता में कृष्ण का विराट ब्रह्म-स्वरूप, जो सिर्फ एक रूपक है तथा जो हर महान साहित्यिक कृति में अंतर्निहित रहता है। जिस तरह अर्जुन अपनी 'मिनिएचर' दुनिया से उठकर हठात असंख्य सूर्यों, सृष्टियों, युगों से साक्षात करता है और उस असाधारण अनुभव के परिप्रेक्ष्य में अपनी क्षुद्र पीड़ाओं और शंकाओं से मुक्ति पा लेता है - मानों घोर निविड़ अँधेरे में हमें कोई ऐसे सत्य का सूत्र मिल जाता है जो भ्रांतियों के कुहरे को छाँट देता है और फिर हम इसी जीवन में एक नए अंतर्लोक की किरण पा लेते हैं। साहित्य के आत्म-सत्य का 'भारतीय अधिष्ठान' यहीं है। इससे साक्षात्कार के बाद जो अनुभव होता है उसे उचित ही निर्मल वर्मा 'आध्यात्मिक अनुभव' कहते हैं, जहाँ बाँटने वाली समस्त विभाजन रेखाएँ एक उन्मत्त लहर में डुबो जाती हैं और खुद भी उसमें डूब जाती हैं।
संदर्भ :
1- निर्मल वर्मा : पत्थर और बहता पानी, पृ.88
2- वही, पृ.90
3- वही, पृ.91
4- वही, पृ.93
5- वही, पृ.94
6- वही, पृ.95
7- वही, पृ.101
8- वही, पृ.102
9- वही, पृ.105
10- वही, पृ.106
11- अशोक बाजपेयी (सं) : बहुवचन, अंक-2, पृ.64
12- वही, पृ.65
13- वही, पृ.66
14- वही, पृ.67
15- निर्मल वर्मा : पत्थर और बहता पानी, पृ.93
16- निर्मल वर्मा : साहित्य का आत्म-सत्य, पृ.30
17- वही, पृ.30
18- निर्मल वर्मा : पत्थर और बहता पानी, पृ.103
19- निर्मल वर्मा : साहित्य का आत्म-सत्य, पृ.35
20- निर्मल वर्मा : पत्थर और बहता पानी, पृ.67