मुख्य शब्द
	- आत्महत्या, बैंक कर्ज, किसान, खेतिहर, सरकारी योजनाएँ।
	सारांश :
		समकालीन परिदृश्य में सरकार व समाज के सामने यक्ष-प्रश्न है कि आखिर कब
		तक मजबूर होकर, अन्नदाता किसान, सल्फास का जहर खाकर या फंदे से लटक कर
		आत्महत्या करता रहेगा? खेती को घाटे की सौदा मानकर लोग इससे विमुख हो रहे
		हैं। खेती किसी भी मुल्क के जिंदा रहने की बुनियाद होती है। जब बुनियाद ही
		नहीं बचेगा, तो ढाँचा बिखर जाएगा। हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें, लेकिन
		किसानों की तरक्की किए बगैर सही मायने में देश खुशहाल नहीं हो सकता। हम यह
		सोचने को विवश हैं कि भारत में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के
		बावजूद भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं? आखिर कौन से कारक हैं जिससे कि
		किसानों को कृषि करने में लागत और उत्पादन में अंतर का ग्राफ बड़ा हो गया?
		वर्तमान सरकार की योजनाएँ किसानों के अनुकूल है या नहीं? किसानों की
		आत्महत्या के संदर्भ में इन प्रश्नों से रू-ब-रू होना जरूरी है।
	प्रायः सभी उत्पादन का आधार कृषक है और कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।
	सभी व्यवस्थाएँ अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। हालात यह है कि सभी व्यवस्थाएँ
	मजबूत होती जा रही हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था के इस दौर में किसानी व्यवस्था
	ही हाशिए पर धकेल दी गई है। वर्तमान में करीब 70 फीसदी से ज्यादा कृषि आधारित
	व्यवस्था मुनाफा कमा रहे हैं लेकिन इस खाद्य श्रृंखला में किसान ही है जिसकी
	स्थिति अत्यंत दयनीय है। खेती मौत की फसल में बदल चुकी है, आँकड़े भयावह हैं।
	राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आँकड़ों के अनुसार,
	किसानों की आत्महत्या के मामलों में 42 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
	लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया भी किसान आत्महत्या को आम
	मानकर खबर नहीं बनाता, यह आज सफलता व लाभ के भँवर में ऐसा फँसा है कि उसे
	किसानों की आत्महत्या की खबरें महज एक हेडलाइन से ज्यादा कुछ नहीं लगती।
	किसान, मजदूर, कभी खबर के केंद्र में नहीं हैं। केंद्र में है तो राजनीति,
	नेता, कलाकार आदि की खबरें।
	भारत में किसान आत्महत्या सन् 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें
	प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसान आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई। मानसून की
	विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का बोझ, बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि
	के चक्र में फँसकर भारतीय किसानों ने आत्महत्याएँ की है। 1990 ई. में अंग्रेजी
	अखबार 'द हिंदू' के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी.साईंनाथ ने किसानों द्वारा
	नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी। आरंभ में ये खबरें महाराष्ट्र से आईं फिर
	आंध्रप्रदेश से। शुरुआत में लगा कि अधिकांश आत्महत्याएँ महाराष्ट्र के विदर्भ
	क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की है लेकिन महाराष्ट्र राज्य अपराध लेखा
	कार्यालय के अनुसार, यहाँ कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की
	आत्महत्याओं की दर बहुत अधिक रही है। आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले
	किसान नहीं अपितु मध्यम और बड़े जोत वाले किसान भी थे। बाद के वर्षों में कृषि
	संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और
	छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएँ की। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले
	महाराष्ट्र में सामने आए। 30 दिसंबर 2016 को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट
	'एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015' के मुताबिक वर्ष 2015 में कृषि
	क्षेत्र से जुड़े 12,602 लोगों ने आत्महत्या की (औसतन हर 41 मिनट में हमारे
	देश में कहीं न कहीं एक किसान आत्महत्या करता है), इनमें 8,007 किसान-उत्पादक
	थे जबकि 4,595 लोग कृषि संबंधी मजदूर थे। 2015 में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों
	ने महाराष्ट्र में आत्महत्या की जबकि 1,569 आत्महत्याओं के साथ कर्नाटक इस
	मामले में दूसरे स्थान पर है। इसके बाद तेलंगाना (1400), मध्य प्रदेश (1,290),
	छत्तीसगढ़ (954), आंध्र प्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) का स्थान आता है। वर्ष
	1995 से 2015 के बीच के 21 वर्षों में देश के कुल 3,18,528 किसानों ने
	आत्महत्या की है। 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 12,360 और
	2013 में 11,772 थी। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता में तीन
	जजों वाली एक बेंच किसानों की स्थिति और उसमें सुधार की कोशिशों से जुड़ी एक
	याचिका पर सुनवाई कर रही है। इसी के तहत सरकार ने ये आँकड़े पेश किए हैं। यह
	याचिका सिटीजन रिसोर्स एंड एक्शन इनीशिएटिव की तरफ से दायर की गई है। आम आदमी
	पार्टी की रैली के दौरान दिल्ली में सरेआम पेड़ से लटक कर अपनी जान देने वाले
	राजस्थान के एक किसान की मौत के बाद देश में किसानों की आत्महत्या का मामला एक
	बार फिर सुर्खियों में आया इसके बाद यह मामला संसद में भी गूँजा और
	प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि किसानों की समस्या की जड़ें बेहद गहरी
	हैं और इनके समाधान के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी है।
	1995 के बाद सर्वाधिक कृषक आत्महत्याएँ सन 2004 में हुई हैं। इस दौरान 18,241
	किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। गौरतलब है कि भारत में यह उदारीकरण का चरम था।
	इसी से अतिप्रसन्न होकर एनडीए सरकार ने शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था और समय
	से पहले ही चुनाव मैदान में उतरने का फैसला कर लिया था। आज 1995 से अब तक देश
	भर में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल तादाद का सिलसिला रुक नहीं रहा
	है। बिडंबनापूर्ण बात यह है कि 29 राज्यों पर आधारित किसान आत्महत्या की
	संख्या में 61.52 प्रतिशत सिर्फ पाँच राज्यों से हैं। इनमें अगर बीमारू
	राज्यों की श्रेणी में रखे जाने वाले मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ को निकाल
	दिया जाए तो महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश) और
	कर्नाटक राज्य आगे बढ़े हुए राज्य माने जाते हैं। यहाँ यह गौर करने की बात
	है कि क्या किसान आत्महत्या करने वाले राज्य में ही गरीबी है, अन्य
	राज्यों में नहीं है। जवाब सरल है कि संचार क्रांति की लहर समृद्ध प्रांतों
	में अधिक प्रभावकारी ढ़ंग से पहुँची है, यहाँ के लोगों की जीवन-शैली उपभोक्ता
	संस्कृति के ज्यादा करीब है।
	किसान आत्महत्या से सबसे ज्यादा प्रभावित 5 राज्य :
	
	
		
			| 
					वर्ष
				 | 
					महाराष्ट्र
				 | 
					आंध्र-प्रदेश
				 | 
					कर्नाटक
				 | 
					मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़
				 | 
					इन राज्यों में कुल आत्महत्या
				 | 
					भारत में प्रतिवर्ष किसानों की आत्महत्या
				 | 
					पाँचो राज्यों में कुल आत्महत्या का प्रतिशत
				 | 
		
			| 
					1995
				 | 
					1083
				 | 
					1196
				 | 
					2490
				 | 
					1239
				 | 
					6008
				 | 
					10720
				 | 
					56.04
				 | 
		
			| 
					1996
				 | 
					1981
				 | 
					1706
				 | 
					2011
				 | 
					1809
				 | 
					7507
				 | 
					13729
				 | 
					54.68
				 | 
		
			| 
					1997
				 | 
					1917
				 | 
					1097
				 | 
					1832
				 | 
					2390
				 | 
					7236
				 | 
					13622
				 | 
					53.12
				 | 
		
			| 
					1998
				 | 
					2409
				 | 
					1813
				 | 
					1883
				 | 
					2278
				 | 
					8383
				 | 
					16015
				 | 
					52.34
				 | 
		
			| 
					1999
				 | 
					2423
				 | 
					1974
				 | 
					2379
				 | 
					2654
				 | 
					9430
				 | 
					16082
				 | 
					58.64
				 | 
		
			| 
					2000
				 | 
					3022
				 | 
					1525
				 | 
					2630
				 | 
					2660
				 | 
					9837
				 | 
					16603
				 | 
					59.25
				 | 
		
			| 
					2001
				 | 
					3536
				 | 
					1509
				 | 
					2505
				 | 
					2824
				 | 
					10374
				 | 
					16415
				 | 
					63.20
				 | 
		
			| 
					2002
				 | 
					3695
				 | 
					1896
				 | 
					2340
				 | 
					2578
				 | 
					10509
				 | 
					17971
				 | 
					58.48
				 | 
		
			| 
					2003
				 | 
					3836
				 | 
					1800
				 | 
					2678
				 | 
					2511
				 | 
					10825
				 | 
					17164
				 | 
					63.07
				 | 
		
			| 
					2004
				 | 
					4147
				 | 
					2666
				 | 
					1963
				 | 
					3033
				 | 
					11809
				 | 
					18241
				 | 
					64.74
				 | 
		
			| 
					2005
				 | 
					3926
				 | 
					2490
				 | 
					1883
				 | 
					2660
				 | 
					10959
				 | 
					17131
				 | 
					63.97
				 | 
		
			| 
					2006
				 | 
					4453
				 | 
					2607
				 | 
					1720
				 | 
					2858
				 | 
					11638
				 | 
					17060
				 | 
					68.22
				 | 
		
			| 
					2007
				 | 
					4238
				 | 
					1797
				 | 
					2135
				 | 
					2856
				 | 
					11026
				 | 
					16632
				 | 
					66.29
				 | 
		
			| 
					2008
				 | 
					3802
				 | 
					2105
				 | 
					1737
				 | 
					3152
				 | 
					10795
				 | 
					16196
				 | 
					66.66
				 | 
		
			| 
					2009
				 | 
					2872
				 | 
					2414
				 | 
					2282
				 | 
					3197
				 | 
					10765
				 | 
					17368
				 | 
					61.98
				 | 
		
			| 
					2010
				 | 
					3141
				 | 
					2525
				 | 
					2585
				 | 
					2363
				 | 
					10614
				 | 
					15964
				 | 
					66.49
				 | 
		
			| 
					2011
				 | 
					3337
				 | 
					2206
				 | 
					2100
				 | 
					1326
				 | 
					8969
				 | 
					14027
				 | 
					63.98
				 | 
		
			| 
					कुल
				 | 
					33752
				 | 
					20610
				 | 
					19083
				 | 
					23956
				 | 
					97401
				 | 
					149783
				 | 
					65.03
				 | 
		
			| 
					कुल 1995-2011
				 | 
					53818
				 | 
					33326
				 | 
					37153
				 | 
					42388
				 | 
					166685
				 | 
					270940
				 | 
					61.52
				 | 
	
	
		स्रोत - राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट 1995-2011
	
	
	भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के
	बदहाल किसानों को राहत देते हुए 37 अरब 50 करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा की
	थी। इस पैकेज के तहत घोषित राशि में से 21 अरब 77 करोड़ रूपए की राशि कृषि
	परियोजनाओं पर ख़र्च की और किसानों का 7 अरब 12 करोड़ रूपए का कर्ज माफ कर
	दिया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि प्रभावित परिवारों को तत्काल
	मदद देने के लिए विदर्भ क्षेत्र के सभी छह जिलाधिकारियों को 50-50 लाख रूपए
	दिए गए थे। इस राहत पैकेज को विदर्भ क्षेत्र के छह जिलों अमरावती, वर्धा,
	अकोला, वाशिम, बुलढाणा और यावतमाल में इस्तेमाल किया जाना था। पूर्व
	प्रधानमंत्री ने पैकेज की घोषणा करते हुए पत्रकारों से कहा था, "विदर्भ के
	किसानों की समस्या हमारे लिए काफी गंभीर विषय है। इसीलिए इस योजना के लागू
	होने की निगरानी मेरा कार्यालय खुद करेगा। हम इस बात का ध्यान रखेंगे कि जो
	वादे किए गए हैं, उन्हें पूरा किया जाए।" उन्होंने कहा था कि इस पैकेज से
	क्षेत्र के किसानों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार होगा ही, साथ ही कर्ज का
	बोझ भी हल्का होगा किन्तु विदर्भ में आत्महत्या के आँकड़ें सरकारी योजनाओं और
	उनके क्रियान्वयन की पोल खोल के रख दे रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार आत्महत्या
	करने वाले किसान के परिवार को 1 लाख का मुआवजा देती है। यह मुआवजा तीन शर्तों
	पर दिया जाता है। पहली, किसान के पास अपनी मिल्कियत की जमीन हो, दूसरी,
	आत्महत्या करते वक्त किसान कर्जदार रहा हो और तीसरा, कर्जदारी ही उसकी
	आत्महत्या का प्रधान कारण हो। इन तीन कारणों से आत्महत्या करने वाले कई
	किसानों के परिवार मुआवजे से वंचित हुए। पितृसत्तात्मक समाज में अक्सर
	महिलाओं की गणना किसान आत्महत्या के आँकड़ों में नहीं की जाती क्योंकि उनके
	नाम से जमीन की मिल्कियत नहीं होती जबकि जमीन की मिल्कियत का होना किसान
	कहलाने के लिए सरकारी नीतियों और आँकड़ों में जरुरी है। ठीक इसी तरह आत्महत्या
	करने वाले दलित और आदिवासी किसानों के आँकड़े भी सरकारी आकलन में ठीक-ठीक पता
	नहीं किए जा सकते क्योंकि उनमें से ज्यादातर के पास जमीन का स्वामित्व साबित
	करने वाले सक्षम दस्तावेज नहीं होते। नीची जाति के किसान और उनका परिवार जमीन
	की मिल्कियत के मामले में भी भेदभाव भरी नीतियों का शिकार होता है। जिन
	किसानों के पास अपनी जमीन की मिल्कियत नहीं होती उन्हें आधिकारिक तौर पर किसान
	नहीं माना जाता और परिवार के मुखिया की आत्महत्या की दशा में उसका परिवार
किसान ना माने जाने के कारण सरकारी मुआवजे और राहत से वंचित हो जाता है।	
	इसके अतिरिक्त किसान परिवार का मुखिया अगर आत्महत्या करता है तो इसका असर पूरे
	परिवार पर पड़ता है। कर्ज की विरासत ढो रहे उसके परिवार का कोई अन्य सदस्य अगर
	आर्थिक तंगहाली की सूरत में आत्महत्या करे तो भी इसकी गणना सरकारी आँकड़े में
	नहीं होती। ठीक इसी तरह एनसीआरबी के आँकड़े में बंटाईदारी पर खेती करने वाले
	किसानों की आत्महत्या कृषक-आत्महत्या के रुप में दर्ज नहीं की जाती।
	आत्महत्या करने के उपरांत पुलिस विभाग द्वारा प्राथमिकी दर्ज की जाती है।
	पुलिस की परिभाषा के अनुसार किसान होने के लिए स्वयं की जमीन होना आवश्यक है
	और जो लोग दूसरे की खेती को किराए में लेकर करते हैं उन्हें किसानों की श्रेणी
	में नहीं रखा जाता है। यहाँ तक कि इसमें उन लोगों को भी शामिल नहीं किया गया
	है जो अपनी घर के खेतों को सँभालते हैं लेकिन जिनके नाम में जमीन नहीं है। अगर
	किसी घर में पिताजी के नाम में सारी जमीन है लेकिन खेती की देखभाल उसका पुत्र
	करता है तो पिता को तो किसान का दर्जा मिलेगा लेकिन बेटे को पुलिस विभाग किसान
	की श्रेणी में नहीं रखता। पुलिस विभाग द्वारा जिस तरह से मापदंड अपनाया गया है
	उस हिसाब से वास्तविक किसान द्वारा आत्महत्या की संख्या एनसीआरबी की संख्या से
	और भी ज्यादा होगी।
	कहा जा सकता है कि 'फार्मर स्यूसाइड, ह्यूमन राइटस एंड द एग्रेरियन क्राइसिस
	इन इंडिया' के अनुसार, किसानों की आत्महत्या का एक पहलू जातिगत और लैंगिक
	भेदभाव से जुड़ा हुआ है। भारत में उदारीकरण की नीतियों के बाद खेती (खासकर
	नकदी खेती) का पैटर्न बदल चुका है। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण 'नीची जाति'
	के किसानों के पास नकदी फसल उगाने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर अभाव होता है।
	संभवतः ऐसे किसानों पर बीटी-कॉटन आधारित कपास या फिर अन्य पूँजी-प्रधान नकदी
	फसलों की खेती से जुड़ी कर्जदारी का असर बाकियों की तुलना में कहीं ज्यादा
	होता हो और आत्महत्या करने के सिवाय उनके पास कोई चारा न बचता हो। भारत में
	सरकारी तौर पर मिल्कियत से वंचित किसानों की एक बड़ी तादाद (यथा महिला, दलित
	और आदिवासी) की है और भारत सरकार के एनसीआरबी के आँकड़े किसान-आत्महत्या की
	सामाजिक सच्चाइयों को छुपाते हैं, किसान-आत्महत्या से जुड़े जातिगत-लिंगगत
	भेदभाव के पहलू की तरफ ध्यान दिलाते हुए भारत सरकार से अपील की गई है कि वह
	अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का हस्ताक्षरी होने के नाते इस मामले में
	रोकथाम, जाँच और समाधान के लिए समुचित कदम उठाए।
	यह निर्विवाद सत्य है कि करोड़ों भूमिपुत्र का जीविकोपार्जन खेती पर ही
	निर्भर है। विडंबना यह है कि सुबह से शाम खेती के लिए अपना जीवन होम करने वाले
	किसानों को पेट भरने के लिए दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। कृषि उनके गले
	की फाँस बन गई है - जिसे अपनी प्रवृत्ति और मजबूरी के कारण न छोड़ पाते हैं न
	ही उसमें खुश रह पाते हैं। सरकार जनता को लुभाने के लिए ढ़ेर सारी योजनाएँ
	बनाती है पर सच्चाई तो यह है कि न तो वह जमीनी हकीकत से जुड़ी है न ही किसानों
	की बुनियादी समस्याओं से। प्रश्न तो यह है कि संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना,
	स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामोदय जैसी
	किसानोन्मुखी योजनाओं के बावजूद किसान क्यों आत्महत्या करने पर विवश हैं? इसका
	सीधा जवाब यह है कि ये योजनाएँ किसानों को ध्यान में रखकर बनाए ही नहीं गए।
	इसका सीधा लाभ बिचौलियों को मिलता है जिसमें कृषि के नाम पर ऋण देने वाला
	बैंक, सेठ, साहूकार, महाजन यहाँ तक कि पुलिस अधिकारी सभी शामिल हैं। सरकारी
	नीतियाँ, बैकों का रवैया, उद्योगपतियों की स्वार्थभावना, मौसम की प्रतिकूलता
	आदि कई ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से किसानों के जीवन में दुखों का अंबार टूट
	पड़ता है और वे आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।''18
	गाँवों में मूलभूत सुविधाएँ आजादी के इतने वर्षों बाद भी नहीं पहुँची। भूमि,
	जो जीवन का एक मूलभूत संसाधन है आज भी, उस पर मूलतः सवर्णों और सामाजिक ढाँचे
	में तेजी से आगे बढ़ती कुछ पिछड़ी जातियों का कब्जा है। जिन राज्यों में
	जमींदारी प्रथा का उन्मूलन सही दिशा में हुआ, उनको छोड़ अधिकतर राज्यों में
	जमीन के बड़े हिस्से पर मुट्ठी भर किसानों का कब्जा है और उनके नीचे हैं बेहद
	विपन्न या छोटे रकबे वाले किसान और फिर विशाल भूमिहीन मजदूरों की फौज। विनोबा
	का भूदान हो या भूमिहीनों को जमीन का पट्टा देने का सरकारी प्रयास, अब तक विफल
	ही रहा है।
	हाल में जो आँकड़े आए हैं उनमें इस बात का खुलासा भी हुआ है। तीस फीसद ग्रामीण
	आबादी भूमिहीन है। कभी जोर-शोर से यह नारा लगाया जाता था कि 'जो जमीन को जोते
	बोए, वह जमीन का मालिक होए।' लेकिन यह नारा कभी जमीन पर उतर नहीं पाया। यह भी
	हकीकत है कि आदिवासियों को छोड़ छोटी जोत के मालिक अधिकतर किसान कब के खेती छोड़
	दिहाड़ी मजदूर बन चुके। क्योंकि खेती करना उनके बस का नहीं। उससे उनका पेट ही
	नहीं भरता। इसके अलावा वह अब महँगी भी हो चुकी है। खेती तो अब वैसे ही किसान
	करते हैं जिनके पास जमीन का अपेक्षाकृत बड़ा रकबा है और जो मजदूर रखने और बीज,
	खाद, पानी, डीजल, बिजली आदि के खर्च उठा सकें। इसी सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में
	अवतरित होता है यह दर्शन कि कृषि तो अलाभकारी है और उसे लाभकारी बनाने के लिए
	उसका व्यवसायीकरण जरूरी है। और यह होगा कैसे? जमीन की क्षमता का अधिकतम दोहन
	कर। परंपरागत बीजों की जगह बहुदेशीय कंपनियों द्वारा आयातित बीज और रासायनिक
	खादों के इस्तेमाल से। कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से। यह एक
	वास्तविकता है कि नए किस्म के बीजों और रासायनिक खादों, खासकर यूरिया के
	प्रयोग से उपज बढ़ी। लेकिन खेती बेहद महँगी हो गई।
	देश के बड़े भू-भाग में धान की खेती होती है। अपने देश में धान के बीजों के
	विविध प्रकार थे, किसान फसल का बीज अपने घर में बचा कर रखता था। लेकिन बाजार
	में उपलब्ध बीजों का प्रचलन होते ही पुराने बीजों का प्रचलन खत्म हो गया।
	घरेलू बीज और बाजार के बीज की कीमत में अंतर क्या है? बिहार, यूपी और झारखंड
	में धान दस रुपये किलो बिकता है जबकि बाजार का बीज 270-280 रुपये किलो। देशी
	बीज गोबर की खाद और अपेक्षाकृत कम पानी में भी फसल देते हैं जबकि बाजार के
	बीजों के लिए रासायनिक खाद, भरपूर पानी और कीटनाशक जरूरी। फलस्वरूप उपज तो
	बढ़ी लेकिन बाजार पर निर्भरता भी। हुआ यह भी कि नगदी फसलों का प्रचलन बढ़ा और
	खाद्यान्न कम उगाने लगे। कपास, गन्ना जैसी नगदी फसलों की ओर किसान आकर्षित
	हुए। उसका परिणाम क्या हुआ, कपास के मामले में हम देख सकते हैं जिसे उपजाने
	वाले किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएँ कीं। कपास की उपज में वृद्धि के लिए
	बीटी कॉटन के नाम से एक नया बीज बाजार में उतारा गया। प्रचारित किया गया कि
	परंपरागत बीजों की तुलना में इससे तिगुनी फसल होती है। लेकिन ये बीज सामान्य
	बीजों से काफी महँगे मूल्य पर उपलब्ध होते हैं। महँगे बीज के लिए महाजन से
	कर्ज लिया। एक जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में 2012 में हुई अत्यधिक
	आत्महत्याओं की वजह नए बीटी बीजों को बताया। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है
	कि पिछले कई वर्षों से विदर्भ और मराठवाड़ा से सर्वाधिक आत्महत्या की खबरें आ
	रही हैं, जहाँ के किसान कपास उगा रहे हैं।
	सवाल यह है कि किसानों को कपास उगाने के लिए कहता कौन है? यह बाजार कहता है।
	बाजारवादी व्यवस्था अपने हिसाब से किसानों को फसल उगाने के लिए कहती है। उसके
	लिए तरह-तरह के प्रलोभन और कर्ज देती है और किसान उनके झाँसे में आ जाते हैं।
	फिर उनके हाथों में खेलने लगते हैं। क्योंकि उपज की कीमत भी बाजार तय करता है
	फिर शुरू होती है सरकारी हस्तक्षेप की माँग। सरकार कीमत तय करे। समर्थन मूल्य
	घोषित करे। कर्ज माफ करे, वगैरह। लेकिन समस्या जस की तस बनी रहती है। भारतीय
	किसान सदियों से बाढ़, सुखाड़, अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि से जूझता रहा है, लेकिन
	जिस तरह किसानों की आत्महत्याओं की खबर नब्बे के दशक से बड़े पैमाने पर आने लगी
	हैं, वैसा पहले नहीं था। तबाही पहले भी मचती थी। लेकिन आत्महत्या पर उतारू हो
	जाए किसान, यह हमारे दौर की एक परिघटना है। हम याद करें भारत में ब्रिटिशकाल
	के दौरान बंगाल में दो दशक के अंतराल पर पड़े अकाल को। लाखों लोग भूख से मर गए।
	लेकिन आत्महत्या की घटनाएँ उस वक्त भी विरल थीं। इसी देश में करीब अठारह-बीस
	करोड़ भूमिहीन दलित, अति पिछड़े मजदूर हैं। उनके जीवन में यह मौका ही नहीं आता
	कि वे बैंक से कर्ज लें, खेती करें, उनकी फसल नष्ट हो और वे आत्महत्या कर लें।
	इसका अर्थ यह नहीं कि हम किसानों की आत्महत्या से पीड़ा का अनुभव नहीं करते।
	लेकिन इस बात को समझना तो होगा कि एक भूमिहीन किसान या मजूर आत्महत्या न कर
	जीवन से जद्दोजहद क्यों करता है और दस-बीस लाख की अचल संपत्ति का मालिक किसान
	एक खास मनोदशा में आत्महत्या क्यों कर लेता है? आत्महत्या के बजाय वह एक काम
	तो कर ही सकता है कि किसानी छोड़ कोई दूसरा काम कर ले या फिर भूमिहीन मजदूर की
	तरह खट-खा लें। दरअसल आत्महत्याओं का कारण आर्थिक, समाजशास्त्रीय और
	मनोवैज्ञानिक है।
	क्या यह महज इत्तिफाक है कि नरसिंह राव के जमाने में नई औद्योगिक नीति,
	उदारीकरण और निजीकरण के दौर के साथ किसानों की आत्महत्या की खबरें आनी शुरू हो
	गर्इं। शुरुआती दौर में तो इसे किसी ने तवज्जो नहीं दी, लेकिन धीरे-धीरे इन
	मौतों से आँख चुराना समाज के प्रभुवर्ग के लिए मुश्किल हो गया। दरअसल, नई
	आर्थिक नीति घोषित रूप से न सिर्फ उद्योगोन्मुख विकास की वकालत करती है, बल्कि
	ऐसा वातावरण भी बनाती है जिसमें मुनाफा ही सब कुछ होता है। नब्बे के दशक में
	नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद से ही लोगों ने खेती की तरफ से मुँह मोड़
	लिया। गाँव छोड़कर शहर की ओर रूख किया। यह बात उभर की आयी कि देश में खुशहाली
	वित्तीय पूँजी और औद्योगिक विकास के जरिए ही संभव है। राजनीतिक पार्टियों के
	लिए भी कृषक एक बड़ा वोट बैंक है, इसलिए चुनावी मौकों पर उनकी बातें होती हैं।
	कभी-कभार उनके लिए नीतियाँ भी बनती हैं, पर सरकारों का फोकस उनसे दूर जा चुका
	है। कृषि संकट दूर करने के नाम पर किए जाने वाले उपायों का लाभ मुट्ठी भर बड़े
	किसानों को मिलता है। दिन पर दिन खस्ताहाल हो रहे छोटे किसानों की कहीं कोई
	सुनवाई नहीं है। इधर शासक वर्ग यह प्रचारित करने में जुट गया है कि खेती फायदे
	का धंधा नहीं है, लिहाजा किसान थोड़ा-बहुत मुआवजा पकड़ें और अपनी जमीन छोड़
	दें। इस क्रम में लाखों किसान दूसरे काम-धंधे में लग गए और जिन्हें कोई काम
	नहीं मिला, वे या तो बर्बाद हो गए या अपराध के रास्ते पर बढ़ चले। अभी बदलते
	मौसमों के रुझान और बड़ी ताकतों में जमीन हड़पने की ललक पर गौर करें तो खेती
	का यह संकट आगे कहीं ज्यादा रफ्तार से बढ़ता दिखाई देता है।
	आज कॉरपोरेट सेक्टर और सरकारों के बीच संबंध पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं।
	1990 के आस-पास से ही बाजारवादी शक्तियों को खुली छूट मिलने लगी। इन शक्तियों
	का एकमात्र उद्देश्य है - लाभ कमाना। हम उपभोक्तावादी सभ्यता के कदमताल में
	विदेशी पूँजी के आगे झुकते हैं, सब अमेरिकी छाता के नीचे नतमस्तक हैं, आखिर
	क्यों आज किसान को मजदूर बनने और उन्हें निगल जाने के लिए कई अदृश्य ताकतें
	संगठित व एकजुट हैं। भारतीय किसान प्राकृतिक विपत्तियों व सामाजिक आततायी
	शक्तियों को सदैव झेलता रहता है। किसानों को मारने का सिलसिला केवल बढ़ा ही
	नहीं है अपितु स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि वे सपरिवार आत्महत्या करने
	को विवश हो रहे हैं। सरकार किसानों के विकास के लिए कई योजनाएँ बनाकर उनके
	विकास के बारे में सोच रही है पर यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि सरकार किसानों
	के लिए योजना तो बनाती है पर इसका लाभ खेतिहर उठा रहे हैं। आज खेतिहर से
	तात्पर्य है -बाजार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उत्पादन करना।
	अर्थशास्त्र में दो शब्द हैं - 'किसान' (पेजेंट) और 'खेतिहर' (फॉर्मर)।
	यद्यपि आम बोलचाल में उनमें फर्क नहीं किया जाता फिर भी वे एक-दूसरे के उसी
	तरह पर्यायवाची नहीं हैं जैसे 'मूल्य' और 'कीमत'। किसी भी गंभीर और वैज्ञानिक
	विमर्श में इनमें अंतर करना बेहद जरूरी है। किसान मानव सभ्यता के साथ तब से
	जुड़ा है जबकि खेतिहर का आगमन पूँजीवादी उत्पादन अर्थात् बाज़ार में उत्पाद
	बेचकर मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के हावी होने के साथ हुआ। साधारणतः किसान का
	अपनी जोत पर अधिकार होता है और वह अपने परिवार के सदस्यों या रिश्तेदारों के
	श्रम के आधार पर कृषि कार्य संपन्न करता है। उसके उत्पादन का उद्देश्य अपने
	परिवार की उपभोग-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ मवेशियों का पालन व
	अगली बुवाई के लिए बीज का प्रबंध करना होता है जबकि उन्नीसवीं सदी के अंतिम
	दशकों में पैसेवालों ने कृषि भूमि खरीदकर भाड़े के मजदूरों के आधार पर बाजार
	के लिए उत्पादन करना शुरू किया। भ्रष्टाचारी ब्यूरोक्रेट्स, नौकरीपेशा व
	अन्य लोगों ने अचल संपत्ति के रूप में जमीन खरीदकर जमींदार के रूप में समाज
	के समक्ष उभरे। आजादी के बाद भूमि सुधार कानूनों में छोड़े गए चोर-दरवाजों का
	इस्तेमाल कर अनेक पूर्व जमींदारों, ताल्लुकेदारों और जागीरदारों ने अपने को
	बड़े खेतिहरों में बदल दिया। छोटे, विशेषकर सीमांत किसानों ने खेती से गुजारा
	न होने की स्थिति में शहर का रुख किया और उनकी जमीन ले दूसरे खेतिहर बन गए। इन
	सब परिवर्तनों के फलस्वरूप किसान तेजी से लुप्त होने लगे और उनकी जगह खेतिहर
	आने लगे। प्रख्यात इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी पुस्तक 'ग्लोबलाइजेशन,
	डेमोक्रेसी एंड टेररिज्म' में किसान के लुप्त होने और उसकी जगह खेतिहर के
	आने की परिघटना का विश्लेषण करते हुए बतलाया है कि इंडोनेशिया में किसानों का
	अनुपात 67 प्रतिशत से 44, पाकिस्तान में 50 प्रतिशत से कम, तुर्की में 75
	प्रतिशत से घटकर 33, फिलीपींस में 53 प्रतिशत से घटकर 37, थाईलैण्ड में 82
	प्रतिशत से 46 और मलेशिया में 51 प्रतिशत से 18 प्रतिशत रह गया है। चीन की कुल
	आबादी में किसान 1950 में 86 प्रतिशत थे, जो 2006 में 50 प्रतिशत हो गए।
	बांग्लादेश, म्यांमार आदि में 60 प्रतिशत जनसंख्या किसानों की है। भारत में
	यह संख्या काफी घट गई है जो कभी 80 प्रतिशत से अधिक थी। किसानगिरी की
	प्रतिशतता में कमी क्या सोचनीय प्रश्न नहीं है। यह हवाला दिया जाता रहा है
	कि हरित क्रांति के बाद किसानों ने फसलों की पैदावार कर खाद्यान्न में देश को
	आत्मनिर्भर बनाया है। हरित क्रांति ने हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश,
	पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में किसानों को अपदस्थ
	कर खेतिहरों को बिठा दिया।
	पिछले कुछ वर्षों से 'कांट्रेक्ट फार्मिंग' या ठेके पर खेती का धंधा शुरू हुआ
	है। जिसके तहत बड़ी कंपनियाँ कृषि क्षेत्र में आ गई हैं जो उत्पादन कर अपना
	प्रोसेसिंग का कारोबार कर अधिकांशतया डिब्बाबंद उत्पाद बाजार में लाते हैं।
	उत्तर प्रदेश व बिहार के गन्ना उत्पादक और विदर्भ के कपास उगाने वाले किसान
	नहीं खेतिहर हैं। यह तो सच है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकान खेतिहरों
	को पूँजी व उपकरण मुहैया कराकर उत्पादन पर भी कब्जा करने में जुट गए हैं। वे
	उत्पाद माल पर अपना रैपर डाल कर बाजार में उतारती है और मोटे दामों में बेचती
	है। वालस्ट्रीट जर्नल (10 जून 2009) में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार,
	बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने माल बेचने के लिए दूरदराज के ऐसे गाँवों में
	घुसना शुरू किया है जहाँ सड़क खस्ता हाल है, बिजली नदारद है और टेलीविजन एवं
	इंटरनेट की सुविधा का सवाल ही नहीं उठता। अखबार देर-सबेर आ जाता है। इस स्थिति
	को देखते हुए उन्होंने पुराने तरीकों का सहारा लिया है। गायक और कथावाचक
	युवकों को काम पर लगाया है जो गायन-वादन और किस्से-कहानियों के सहारे भीड़
	जमा करते हैं और आधुनिक उपभोक्ता उत्पादों के बारे में बतलाते हैं, उनके
	गुणों का बखान करते और ग्रामवासियों को उनके फायदे बतला उन्हें खरीदने के लिए
	प्रोत्साहित करते हैं। गाँवों के स्कूलों में जा वे छात्रों को नेस्ले के
	नूडल खिलाने के लिए प्रेरित करते हैं। यूनिलीवर के साबुन और क्रीम के साथ ही
	दंतमंजन और कंडोम का प्रचार करते और उनके नमूने मुफ्त बाँटते हैं।
	'वालस्ट्रीट जर्नल' के एरिक बैल्लमैन के शब्दों में 'भयंकर भूमंडलीय मंदी
	से अछूते भारत के ग्रामीण उपभोक्ता अभूतपूर्व रूप से खर्च कर रहे हैं।
	अन्यत्र सिकुड़ते हुए बाज़ार के कारण होने वाली क्षति से बचने के उपाय
	ढूँढ़ने की उत्सुक अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ - विक्रेताओं की पूरी फौज भेज रही
	हैं। उत्पाद कंपनियाँ अपने माल को बाजार में खपाना जानती हैं और उसे पता है
	कि कैसे इनके पॉकेट से पैसा निकाला जा सकता है।
	
	निष्कर्ष
	
	आर्थिक उदारीकरण के बाद या यों कहें कि नब्बे के दशक के बाद से ही किसानों की
	आत्महत्या की दरें बढ़ती जा रही है। कृषक परिवार अपने परिजन को खोने के बाद
	खेती से तौबा कर लेते हैं। उनके द्वारा की गई आत्महत्या स्विट्जरलैंड की मर्सी
	कीलिंग नहीं बल्कि उन पर लादी गई व्यवस्था की बोझ है जो आत्महत्या के नाम पर
	उनकी हत्या कर रही है। तथाकथित विकास के नाम पर वैश्वीकरण, हमारी कृषि नीति
	पर, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक ढाँचें पर सवाल खड़ा करता है, बाजार
	में कृषि उत्पादों की दलाली करने वाले मालामाल हैं, जबकि किसानों के हाथ खाली
	हैं। ये सामाजिक दस्तावेज एक चेतावनी है जिससे पता चलता है कि यदि हालात न
	बदले तो ऐसा समय भी आएगा जब दुनिया का हर आदमी उपभोक्ता होगा, वह अपने मनपसंद
	उत्पाद को खरीदने की कोई भी कीमत देने को तैयार होगा, पर पैदा करने, उपजाने
	वाला कोई न होगा। खेती को आर्थिक रूप से व्यावहारिक और टिकाऊ बनाने में ही
	चुनौती आज हमारे समक्ष है लेकिन 1995 के बाद आने वाली सभी सरकारें संकटग्रस्त
	कृषि क्षेत्र को मुश्किलों में राहत देने में विफल रही हैं। कृषि को बचाना है
	तो सिंचाई सुविधाओं को प्राथमिकता के आधार पर बढ़ाना होगा। पर्यावरण को बिगड़ने
	से बचाना होगा। विदेशी बीज, खाद, कीटनाशकों की जगह थोड़ी पुरानी नजर आने वाली
	परंपरागत आत्मनिर्भर खेती की ओर लौटना होगा और इस तथ्य को समझना होगा कि खेती
	व्यवसाय के लिए नहीं, अपना और दूसरों का पेट भरने के लिए है। जीने की एक
	पद्धति है।
	संदर्भ सूची 
	
	1. बहुवचन, संपादक ए.अरविंदाक्षन, अंक 26-27 (संयुक्तांक), महात्मा गांधी
	अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
	2. https://hi.wikipedia.org/wiki/
	3.
	http://hindi.indiawaterportal.org/node/34289
	
	4.
	http://hindi.cobrapost.com/indian-national-news-hindi/ncrb-report-on-farmers-suicide/50146
	5. http://www.mediaforrights.org/poverty/hindi-articles/221
	6. http://www.allrights.co.in/manavadhikar-sanghathan-ki-report-kisan/
	7. http://www.jansatta.com/politics/farmer-suicides-karnataka-police-karnataka-state-financiers/35675/
	8. https://vishwahindijan.blogspot.in/2017/02/blog-post_27.html
	9. http://jankritipatrika.in/read.php?artID=236