बहुमुखी प्रतिभा के धनी से.रा. यात्री आज साहित्य जगत की एक अजीम शख़्शियत हैं
क्योंकि उनके लेखन का सरोकार संसार के सबसे कमजोर तबके के साथ उनकी
प्रतिबद्धता है साथ ही उनके साहित्य में भारतीय समाज एवं संस्कृति का यथार्थ
चित्र झलकता है। 1971 ई. में 'दूसरे चेहरे' नामक कथा संग्रह से शुरू हुई उनकी
साहित्यिक यात्रा अनवरत जारी है। तकरीबन चार दशकों के अपने लेखकीय यात्रा में
उन्होंने 18 कथा संग्रह, 33 उपन्यास, 2 व्यंग्य संग्रह, 1 संस्मरण तथा 1
संपादित कथा संग्रह हिंदी जगत के पाठकों को ही है। ऐसे चर्चित साहित्यकार
से.रा. यात्री से बातचीत का प्रमुख अंश निम्नवत है -
प्रश्न. वह कौन से दबाव रहे या विवशता रही जिनके कारण आप सृजन की ओर
प्रवृत्त हुए?
रचनात्मक सजगता आपके सृजन कर्म में किस रूप में मौजूद है?
उत्तर.
दरअसल मैंने जिस समय लिखना शुरू किया, हिंदी साहित्य का वातावरण बहुत ही
जागरूक व रचनात्मकता का था, बहुत कम लोग लिखने वाले थे। जिस तरह से आज हर विधा
में सैकड़ों साहित्यकार दिखाई देते हैं उस समय किसी विधा में प्रसिद्ध नाम
दस-बीस से अधिक नहीं थे। यह वह काल था, जब पूरे हिंदी साहित्य में यशपाल,
भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, अज्ञेय और जैनेंद्र हिंदी के शिखर कथाकार और
मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, महादेवी, पंत, निराला तथा बच्चन जी शिखर कवि थे तो
ऐसे वातावरण में कथा साहित्य और काव्य दोनों में रचनाशीलता के उत्कृष्ठ मानदंड
स्थापित करने वाली प्रतिभाएँ थीं। पढ़ने के लिए अच्छी रचनाएँ स्कूल, कॉलेज और
नगर पुस्तकालयों में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। इन्हीं महान प्रतिभाओं की
छाया में मेरा मानसिक विकास हुआ और निकटवर्ती अनुभवों ने संवेदना ग्रहण की जो
काव्य के रूप में प्रस्फुटित हुई। लेखन कर्म मेरे लिए कोई विवशता नहीं थी, यह
एक सहज ग्राह्य कर्म था।
प्रश्न. कहानीकार होने के साथ ही आप कवि भी रहे हैं?
आपको याद है कि आपने पहले कविता लिखी थी या कहानी। छपकर आने के बाद आपके
उपर क्या प्रतिक्रिया हुई थी?
उत्तर.
हाईस्कूल पास करते ही मैंने कविता लिखी। प्रसाद, निराला, महादेवी, पंत, बच्चन
और नरेंद्र शर्मा की कविताएँ मुझे बहुत आकर्षित करती थीं। इन कवियों से
अनुप्राणित होकर मैंने कविता की संवेदिता ग्रहण की। मेरी कविताएँ आकाशवाणी से
प्रसारित होने लगी, किंतु नए कवियों की रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में कठिनाई से
ही प्रकाशित होती थी। शुरू के वर्षों में मैं कवि सम्मेलन में भी गया किंतु
केवल स्वर और गलेबाजी के चमत्कार से ऊबकर मैंने कवि सम्मेलन में जाना छोड़
दिया। कालाँतर में काव्य मंच निरंतर ह्रासगामी होते चले गए। आज तो काव्यमंच
केवल लतीफेबाजी के अड्डे बन गए हैं। मेरी पहली कहानी 'नई कहानियाँ' में
सर्वप्रथम 1963 ई. में 'गर्द गुबार' नाम से प्रकाशित हुई। जिसके संपादक उस समय
के उभरते कहानीकार कमलेश्वर थे। कहानी प्रकाशित होने के बाद मुझे यश और पहचान
प्राप्त हुई। उससे उत्साहित होकर मैं कहानी लेखन की ओर प्रवृत्त हो गया।
स्पष्ट ही है कि अगले कुछ वर्षों में साठोत्तरी पीढ़ी के चर्चित लेखकों में
मेरी भी गिनती होने लगी।
प्रश्न. आपने कविता को छोड़कर कहानी को क्यों गले लगा लिया?
उत्तर.
मेरी कहानी विधा को चुनने का मुख्य कारण था कि उस समय प्रायः आत्मपरक कविताएँ
और गीतों की रचनाएँ होती थी जो मुझे जन-जीवन के कठिन संघर्षों को पूर्णरूपेण
व्यक्त करने में असमर्थ दिखाई देती थीं, मैंने कविता छोड़कर हिंदी और अँग्रेजी
में अनुदित विश्व के श्रेष्ठतम साहित्यिक रचनाएँ पढ़कर ये जान लिया था कि बहुत
बड़े समुदाय को अपनी रचनात्मक मानसिकता से परिचित कराने के लिए कहानी तथा
उपन्यास ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम है।
प्रश्न. रचनाओं में समाज का यथार्थ किस रूप में आता है,
आपके विचार से वैचारिकता के साथ यथार्थ का सामंजस्य लेखन में किस रूप में
प्रस्तुत होता है?
उत्तर.
प्रत्येक रचनाकार की अपनी रूचियाँ, प्रवृतियाँ और वैचारिक संपदा उसकी
रचनात्मकता की पूँजी होती है। मैं चूँकि समाज के निम्न मध्यवर्गीय जनजीवन से
संबद्ध हूँ, इसलिए उसके समाज के पारिवारिक एवं सामाजिक सरोकारों से निरंतर
जुड़ा रहा हूँ और साधारण जनजीवन के जो चहुँमुखी संघर्ष हैं, उससे मेरा अनुभव के
स्तर पर निकटतम संपर्क हैं और वे मेरी संवेदना में अवस्थित हैं, इसी कारण
निम्न मध्यम वर्गीय जीवन का लेखन मेरा रचना संसार है। वैचारिक रचनात्मकता लेखन
में इस रूप में स्वीकार्य है कि विशाल अनुभवों और ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों
के बिना हम वृहतर समाज से उस रूप में परिचित नहीं हो पाते हैं जिस रूप में
रचनात्मकता को एक विशाल फलक दे सकने की सामर्थ्य उत्पन्न हो सके। स्वतंत्र
विचार किसी वैचारिक धारा विशेषकर वाद विशेष का अनुगामी नहीं हो सकता क्योंकि
विचार को वादों से जोड़ने के बाद कालाँतर में रूढ़ हो जाता है तथा वह बदलते समय
और उसकी बहुविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ सिद्ध होता है। इसलिए
मैं यह मानता हूँ कि लेखक का बड़ा सरोकार बड़े विचार से अनुश्रुत होता है किंतु
वह किसी राजनीतिक विचारधारा का अनुकरण नहीं कहा जा सकता है। हालाँकि कुछ लोगों
का मानना है कि विचार से ही साहित्य की उत्पति होती है जैसे गांधीवाद,
मार्क्सवाद आदि। लेकिन साहित्य तो सतत् है, वाद तो कालाँतर में जड़ होते चले
जाते हैं। लेखक की जो रचनाएँ हैं वह तो कालातीत होती है। वह किसी भी भौगोलिक
बंधन, भाषा बंधन को पार कर जाती है लेकिन कोई वाद अभी तक वैचारिकता के इतिहास
में ऐसा कालजयी बन सका हो, यह देखने में नहीं आता है।
प्रश्न. विमर्शों के दबाव में हिंदी साहित्य को भी दलित,
स्त्री,
लेस्बियन विमर्शों में विभाजित किया जा रहा है,
इस संदर्भ में आप कहना चाहेंगे?
उत्तर.
चूँकि हमारा समाज अभी प्रायः एक निरक्षर और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ जड़ समाज है
इसलिए रचनात्मकता की अनेक स्तर अभी अभिव्यक्ति के स्तर पर रूपायित नहीं हो पाई
है। भारतीय समाज का लगभग 75 प्रतिशत जनजीवन नितांत संकीर्ण और गरहित जीवन जीने
के लिए अभिशप्त है। इसलिए जो एक चेतन समाज विकासगामी धारा में प्रवाहित होता
है, वह इस समाज की नियति नहीं बन पाया। जबतक साहित्य हमारे जीवनमूल्यों का
हिस्सा नहीं बनेगा तबतक साहित्य की अपरिहार्यता संदिग्ध बनी रहेगी। चूँकि
साहित्य का संबंध किसी लिंग, जाति, या रंगभेद से नहीं है। वह समस्त मानवता का
एक सांस्कृतिक अनुष्ठान है इसलिए उसकी रचनाशीलता को भी हम खंडित रूप में
स्थापित होते नहीं देख सकते हैं। रचनाकार सभी भेद-विभेद से ऊपर होता है। इसलिए
उसमें दलित, सवर्ण, स्त्री, लेस्बियन का भेद एक नकली अवधारणा के रूप में हमारे
समक्ष उपस्थित होता है।
प्रश्न. आज दलित विषयों पर खूब लिखा जा रहा है,
संवेदना के स्तर पर सवर्णवर्गीय भी दलित लेखन की ओर प्रवृ
त्त
हो रहे हैं। क्या आप मानते हैं कि दलित लेखन अपने आत्मकथनों के लिए ही
मुखर माना जाता है। आत्मकथन और समाज के रिश्ते पर आप क्या सोचते है?
उत्तर.
चूँकि दलित समाज वंचित, शोषित और अमानवीय स्थितियों की नरक में जीता चला आया
है, इसलिए उस कर्कश जीवन के अनुभव उसकी अनुभूति का एक अपरिहार्य अंग है किंतु
केवल अनुभवों के आधार पर श्रेष्ठ साहित्य की रचना संभव नहीं है। उसके लिए
गंभीर पठन-पाठन और अकूत ज्ञान एवं सूक्ष्मतम अन्वेषण आदि की प्राथमिक आवश्यकता
होती है। ये स्वध्याय और घोर मानसिक मंथन के द्वारा ही अर्जित की जा सकती है।
यदि दलित समाज उस व्यापक संदर्भ को अपने रचनाशीलता में समा लेता है तो निश्चय
ही उसका रचना संसार वृहद सरोकारों से जुड़ जाएगा और निश्चय ही वह केवल बौद्धिक
स्तर पर अनुभवसिद्ध रचनाकारों की रचनाशीलता का अतिक्रमण कर जाएगा। प्राथमिक
तौर पर बौद्धिक विकास रचनाशीलता के लिए अनिवार्य शर्त है चूँकि दलित लेखक
आत्मपीड़ा के अनुभवों के अतिरिक्त वृहद समाज युगीन संघर्षों से एवं पीड़ाओं से
संबंद्ध नहीं है। उनकी संवेदना वैयक्तिक और निजी स्तर की है इसलिए समग्रता की
अभिव्यक्ति उनके लेखन में अभी रूपायित होती नहीं दिखती है।
प्रश्न. क्या कारण है कि साहित्य में भी उत्तर आधुनिकता का फैशन बढ़ रहा
है?
उत्तर.
भारतीय समाज के 80 प्रतिशत जनजीवन अभी न्यूनतम आवश्यकताओं से भी पूर्ण वंचित
है। अभी इस समाज को आधुनिक बनने में कितना कार्य अपेक्षित है इसका भी कोई
अनुमान लगाना असंभव है, ऐसे विकराल स्थितियों में जब हम आधुनिक होने का दावा
भी नहीं कर सकते तो उत्तर आधुनिकता केवल एक खम-ख्याली या खुशफहमी है।
प्रश्न. क्या आप मानते हैं कि भारतीय साहित्य पाश्चात्य साहित्य से
प्रभावित है तथा हिंदी साहित्य में भी गुटबाजी व खेमेबाजी की बू आने लगी
है?
साथ ही यह बाज़ारवाद का हिस्सा बन रहा है?
उत्तर.
एक श्रेष्ठ रचनाकार अधिक से अधिक वैचारिक संपदा को अपनी मानसिकता में सम्मिलित
करना चाहता है, चूँकि साहित्य के क्षेत्र में समय भाषाओं और भौगोलिक दूरियाँ
कोई विशेष अर्थ नहीं रखती इसलिए रचनाशीलता के स्तर पर आदान-प्रदान एक सहज कर्म
के रूप में जुड़ जाता है। हम इसे अनुकरण नहीं कर सकते हैं किंतु अपने देशज जीवन
से जोड़ने वाली स्थितियों को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करने लगेंगे तो वह
हमारे सामाजिक जीवन की एक अधिकाधिक पहचान नहीं दे पाएगी। जब हमारे पास निर्माण
के लिए अपेक्षित वैचारिक संपन्नता नहीं रहती है तो हम ईर्ष्या, विद्वेष और
प्रतियोगिता की शरण में चले जाते हैं और गुटों व खेमेबाजी का हिस्सा बन जाते
हैं। यदि हमारी रचनाशीलता निरंतर परिपक्वता और सच्चे सामाजिक सरोकारों से
जुड़ती चली जाती है तो फिर हम अपने आपको संकुचित दायरों में सीमित नहीं रहने
देते।
प्रश्न. हिंदी साहित्य को अबतक नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिल पाया है?
उत्तर.
जहाँ तक नोबेल पुरस्कार का मामला है, बांग्ला साहित्य के अलावे भारतीय भाषा
में किसी को नोबेल नहीं मिला है। अँग्रेजी में सिवाय व्ही.एस. नायपाल को छोड़कर
मूल भारतीय मनीषी को भारत में रहने वाले किसी भारतीय भाषा के लेखक को यह
पुरस्कार नहीं मिला है। देशी भाषा के रचनाओं का मानक अनुवाद या तो अँग्रेजी
में उपलब्ध नहीं है। दूसरा कारण यह भी है कि भारतीय भाषा की लेखकों के
साहित्यिक श्रेष्ठता से बाहर वाले परिचित नहीं हैं। यद्यपि एशिया और अफ्रीका
के लेखकों को पुरस्कार मिलने लगे हैं परंतु दक्षिण एशिया के लेखकों की रचनाओं
का वैविध्य अँग्रेजी माध्यम से नोबेल पुरस्कार समिति को उपलब्ध ही नहीं होता
है। जहाँ तक साहित्यिक श्रेष्ठता का प्रश्न है, भारतीय भाषाओं में कई ऐसे
दिग्गज लेखक हुए हैं अथवा वर्तमान में भी कार्यरत हैं जिनकी रचनाएँ यूरोप के
नोबेल पुरस्कार प्राप्त करता। कई लेखकों की रचनाएँ उनसे पीछे है और एक कारण यह
भी है कि वे भारतीय लेखकों को अनेक कारणों से हीन मानते हैं। साथ ही भारतीय
भाषाओं के लिए उनके मन में एक पूर्वाग्रह व पूर्ण विद्वेष का भाव है।
प्रश्न. कथ्य और शिल्प में क्या अंतर है। शिल्प और भाषा की दृष्टि से आज
की कहानी समाज की प्रगतिशीलता को कितना आगे बढ़ा रही है?
उत्तर.
कथ्य का अर्थ है वह सामग्री जिसे कोई रचनाकार अपने पाठकों के संमुख प्रस्तुत
करने जा रहा है। शिल्प का अर्थ है कि वह उसे किस रूप में प्रस्तुत करने जा रहा
है। शिल्प का संबंध शैलीगत है जैसे किसी मनुष्य की वाणी से हम उसे पहचान लेते
हैं उसी प्रकार शैली या शिल्प के द्वारा हम किसी रचनाकार के व्यक्तित्व का
परिचय पा लेते हैं। बड़े रचनाकार अपने कथ्य के साथ अपने शिल्प में भी एक विशेष
किस्म का अलगाव अथवा भिन्नता प्रदर्शित करते हैं कथ्य के साथ कथन का स्वरूप भी
रचनाकार के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हैं। आज की कहानी कथ्य और कथन दोनों
में पिछली कहानी से इस रूप में भिन्न है कि पुराने समय के अनेक प्रभाव आज के
समय से भिन्न थी। आज विश्व निरंतर अपनी भौगोलिक सीमाओं में छोटा होता जा रहा
है। अनेक भाषाओं, विचारों और संस्कृतियों का संगम उस रूप में विस्तार पा रहा
है कि जिससे अनुभवों की दृष्टि से कथ्य की अनेक धाराएँ प्रवाहित हो रही है।
निश्चय ही कथ्य और शैली में आज एक भिन्नता दिखाई देती है किंतु कथ्य में कथारस
क्षीण होता जा रहा है। पहले लेखक अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाने के लिए उसके
कथन पर भी दृष्टि रखता था किंतु जनसामान्य की रूचि से जुड़ने वाले विषयों पर
लिखने वाले लेखक पाठकों को अपनी ओर उस रूप में आकर्षित नहीं कर पाते जिस रूप
में हमारे लेखक प्रेमचंद, यशपाल, भगवतीबाबू, नागर जी प्रभावित कर पाते थे।
प्रश्न. साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन भी होता है,
आप साहित्य में वैचारिकता का कितना महत्व मानते हैं?
उत्तर.
यदि साहित्य अभिव्यक्ति के स्तर पर उद्देश्यपरक नहीं है तो पाठक उसे क्यों
पढ़े? लेखक के कथ्य और कथन में उसकी वैचारिकता सूक्ष्म और अमूर्त रूप से स्थित
होती है। जिस प्रकार पानी में तेल की एक बूँद भी पानी के स्वरूप को विरूपित कर
देती है उसी प्रकार रचना में न खप सकने वाला कोई विचार रचना के स्वरूप को
बिगाड़ देता है इसलिए विचार रचना में नहीं रहेगा तो कोरा उपदेश ही बनकर रह
जाएगा। मनोरंजन साहित्य का एक सहज गुण है क्योंकि उसके द्वारा पठनीयता को
स्वीकृति मिलती है किंतु वह साहित्य का साध्य नहीं है।
प्रश्न. आप साहित्य अकादमी की ज्यूरी कमिटी में रहे हैं,
क्या आपको यह लगता है कि दलगत व वर्गगत आधार पर ही पुरस्कारों की घोषणा की
जाती है क्योंकि तेलुगु उपन्यास '
द्रोपदी'
के संबंध में ऐसी बातें आ रही हैं?
उत्तर.
साहित्य अकादमी के पुरस्कार के संबंध में मेरा अनुभव यह है कि जब कोई रचना
निर्णायक मंडल की एकमत स्वीकृति से पुरस्कार के योग्य समझी जाती है तो उसमें
किसी प्रकार की पक्षपात की संभावनाएँ बांकी नहीं रह जाती है किंतु जब पुरस्कार
बहुमत के आधार पर दिए जाते हैं तो उसमें कई प्रकार की दलगत नीतियों का प्रभाव
बने रहने की पूर्ण संभावना होती है। पहले ये पुरस्कार एकमत से दिए जाते थे पर
आज ज्यूरी की संख्या के बहुमत पर दिए जाने लगे हैं।
प्रश्न. आप लेखनी के माध्यम से समाज में व्याप्त शोषण को उजागर करते रहे
हैं। जाहिर है कि आपको कई सम्मान भी मिले होंगे,
एक लेखक के जीवन में पुरस्कार का क्या महत्व है?
उत्तर.
असल में पुरस्कार किसी रचना की श्रेष्ठता का मानदंड नहीं बन सकता है। एक ही
समय में एक ही स्तर से ग्रहण की जाने वाली समाद्यृत रचनाएँ साथ-साथ पुरस्कृत
नहीं हो पाती। इसलिए रचनाओं की श्रेष्ठता को लेकर पुरस्कार प्रायः पैमाना नहीं
बन पाता है। पुरस्कार लेखक को किंचित आर्थिक सुविधा प्रदान करने का आवश्यक
साधन हो सकते हैं। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मुझे पुरस्कार दिए जाने की
स्थिति में मेरे ही समान और कोई लेखक अधिकारी नहीं था। इस दृष्टि से यह एक
विवाद रहित तथ्य है कि पुरस्कार हमेशा न्याय स्थापित नहीं कर पाता है। जिस
वर्ष मैं साहित्य अकादमी पुरस्कार के ज्यूरी कमिटी में था, वीरेंद्र डगवाल को
पुरस्कार मिला। बाकी सम्मिलित लेखक मनोहर श्याम जोशी, काशीनाथ सिंह, चित्रा
मुद्गल, चंद्रप्रभा पुरस्कार पाने के अधिकारी थे किंतु विडंबना यह थी कि
पुरस्कार केवल एक को ही देना था।
प्रश्न. आज उच्च शिक्षा में शोषण का दायरा भी बड़ा होता जा रहा है,
इसमें भी महिलाओं को तो दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है ऐसे में आपका
साहित्यकार मानस कैसा महसूस करता है?
उत्तर.
आज से 50 वर्ष पहले किसी जीवित लेखक पर शोध नहीं होता था। अब किसी भी श्रेणी
के साहित्य लिखने पर शोध होने लगा है। लेखक की कामना यह होती है कि उसके लेखन
पर शोध-कार्य हो, इसी बिंदु से भ्रष्टाचार शुरू हो जाता है। विश्वविद्यालयों
और महाविद्यालयों में जो भी शोध निर्देशक अपने प्रभावों से निम्न श्रेणी के
शोध कराने में दिलचस्पी रखते हैं और वो शोधार्थी को तथ्यात्मक रूप से कोई भी
अपेक्षित सहायता करने में स्वयं असमर्थ होते हैं और तरह-तरह के प्रलोभनों में
पड़कर शोधार्थियों का शोषण करते हैं चूँकि महिला शोधार्थियों का कई दृष्टियों
से कई प्रकार का शोषण संभाव्य है। इसलिए वह उन्हें कई प्रकार की त्रासद
स्थितियों में डालकर उनका दैहिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई संकोच नहीं
करते। अनेक शोधार्थी स्वयं इस स्थिति में होते हैं कि वह विषय की अपेक्षित
जानकारी से पूर्व वंचित होते हैं और जिस प्रकार पैसे के बल पर उच्च डिग्रियाँ
खरीदी जाती है उसीप्रकार वह स्वयं शोध-प्रबंध न लिखकर पैसे के बल पर डिग्रियाँ
हासिल कर लेते हैं।
प्रश्न. वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय के संदर्भ में आप क्या कहना
चाहेंगे?
उत्तर.
किसी संस्थान के बाह्य विकास के साथ उसके भीतरी स्वरूप की संपन्नता ही
वास्तविक मूल्य रखती है। आज गांधी का विचार यानी गांधी के जीवनशैली किसी भी
समय से अधिक प्रासंगिक है। हमें इस देश और पूरी मानवता को विनाश से बचाकर अभय
का विचार देना होगा और यह केवल गांधी के सोच द्वारा ही सक्रियता प्राप्त कर
सकता है। यदि हम महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में
गांधी के विचारों को एक जीवनपद्धति के रूप में बहुप्रचारित और प्रसारित कर पाए
तो यह संस्थान निश्चय ही एक वैश्विक स्तर का विचारवान संस्थान बन सकने की
पात्रता ग्रहण लेगा।
प्रश्न. बाजारवाद के प्रभाव में पुस्तकों के मूल्य काफी अधिक रखे जा रहे
हैं पाठ और पाठक के बीच बढ़ रही दूरी को कैसे पाटा जा सकता है?
उत्तर.
मोटी जिल्द के स्थान पर साधारण कागज के पेपरबैक पुस्तकें कम मूल्य पर पाठकों
को उपलब्ध करायी जानी चाहिए और उन्हें पाठकों तक पहुँचाने के भी एक सुचारू
व्यवस्था होनी चाहिए। हमारे उत्सवों और जातीय मेलों के अवसर पर सस्ते मूल्यों
की किताबों के स्टॉल लगाई जानी चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मनोरंजन के नाम पर
तरह-तरह की विकृत और ध्वनि प्रस्तुतियाँ हमें परोस रही है जबतक उस पर अंकुश
नहीं लगाया जाएगा तबतक स्वस्थ्य मनोरंजन और पुस्तकों के पढ़ने की ओर पाठक
प्रवृत्त नहीं होंगे। बाजार की शक्तियाँ गंभीर और श्रेष्ठ मूल्यों से जुड़ी
हुई है। कृत्यों को प्राथमिकता देने के स्थान पर वह हर प्रकार के सस्ते
मनोरंजन को ही प्रश्रय देती है।
प्रश्न. आपकी इतनी बहुआयामी कृति है,
किसे आप सर्वश्रेष्ठ मानते हैं?
उत्तर.
सर्वश्रेष्ठता का पैमाना शायद लेखक का मत महत्वपूर्ण नहीं है। इसके सच्चे
निर्णायक पाठक हैं। मैं तो पाठक के लिए लिखता हूँ। मेरा पाठक मुझे कभी निराश
नहीं किया। मेरा कथ्य ही पाठक के लिए है। उनके और मेरे जीवन में अंतर नहीं है।
पाठक की समस्याओं को ही पठनीय रूप में प्रस्तुत कर देता हूँ। कालजयी शाश्वता
के बिंदु होते या नहीं, इसका कभी मैं विचार नहीं करता हूँ। हिंदी में जो
पठन-पाठन की स्थिति है उस दृष्टि से मैं अपने आपको बहुत सौभाग्यशाली मानता
हूँ। पाठक के सामने जाने के मार्ग में अवरोध उपस्थिति है। कहीं उसे प्रकाशन
जगत की निष्क्रियता तो कहीं पुस्तकों के मूल्यों का अति होना, ऐसी स्थिति में
यदि किसी लेखक को पाठकों की ओर से निराशा नहीं मिलती है तो उसे एक भाग्यवान
लेखक कहा जाएगा।
प्रश्न. आपने पूरी जिंदगी लेखन कार्य में समर्पित कर दिया,
क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट हैं?
उत्तर.
कोई भी विचारवान लेखक अपनी किसी भी रचना को श्रेष्ठतम और अंतिम नहीं मानता है।
इसलिए जबतक आगामी लेखन की संभावनाएँ बनी रहती है तबतक और भी अधिक मूल्यवान और
बेहतर लिखने की अपेक्षा बनी रहती है।
प्रश्न. नई पीढ़ी की रचनाओं से आपकी क्या अपेक्षाएँ हैं?
उत्तर. नए रचनाकारों से मैं यही अपेक्षा करता हूँ कि वो भारत की निरंतर विषम
स्थितियों में जीनेवाली संघर्षरत जनता का वास्तविक संकट सामने रखें यदि उनकी
वैचारिकता कोई बेहतर व्यवस्था स्थापित कर पाए तो उसके स्वरूप को ही अपने
पाठकों के सामने रखें और उनका लेखन इस तथ्य को आँखों से ओझल न होने दें
क्योंकि वे एक शोषित और विपन्न समाज के समक्ष अपनी चेतना का स्वरूप उपस्थित कर
रहे होते हैं।
प्रश्न. आजकल आप क्या कुछ पढ़-लिख रहे हैं?
उत्तर.
आजकल मैं अपने पुराने उपन्यास 'बीच के दरार' का पुर्नलेखन कर रहा हूँ, इसे 25
वर्ष के बाद लिख रहा हूँ क्योंकि इसमें कथात्मक विस्तार की संभावनाएँ दिख रही
है।