वैलेंटाइन डे (वीडे) एक वैश्विक उत्सव बन चुका है। वीडे की कथा बड़ी रोचक है।
	रोम का राजा क्लॉडियस द्वितीय महत्वाकांक्षी शासक था। वह साम्राज्य विस्तार के
	लिए ताकतवर सेना चाहता था। इसके लिए उसने युवाओं की शादी पर रोक लगा दी थी।
	ऐसे ही समय में रोम के कैथोलिक चर्च में पादरी संत वैलेंटाइन और संत मारियस ने
	युवाओं की प्रेम भावना को समझकर गुप्त शादियाँ करवा दीं। इससे कुपित होकर राजा
	ने 14 फरवरी 270 ई. को संत वैलेंटाइन को फाँसी पर लटका दिया। प्यार की खातिर
	शहीद होनेवाले संत की याद में 14 फरवरी को संसार का युवा वर्ग प्रेम-रोमांस
	पर्व के रूप में मनाता है। अपने देश में इसने 1990 के बाद तेजी पकड़ी।
	बाजार ने फैलाया
	
	माल, मुनाफा और मीडिया के मार्फत आए भूमंडलीकरण से वीडे ने भी खुद को
	भूमंडलीकृत कर लिया है। इस त्योहार की तैयारी में बाजार गिफ्ट से भर जाते हैं।
	जो खरीददारी नहीं कर पाते, वे मन मसोस कर रह जाते हैं। बाजारवादी ताकतें प्रेम
	को नए तरीके से व्याख्या करने में लगी हैं। मनी, माइंड, मसल के बल पर अधिकार
	करने की पुरजोर कोशिश में हम इस कदर अपने आप को भूला रहे हैं कि कौन अपना और
	कौन पराया है? हम तो सामूहिकता से भी कटते जा रहे हैं। हम जो एकांगीपन लिए
	बुद्धू बक्से को अपना मान बैठे हैं, वह हमें दूसरे यथार्थ में ले जा रहा है।
	हमें यह सोचना होगा कि आधुनिक मीडिया प्रेम के किन रूपों को प्रदर्शित कर रहा
	है। बच्चे टीवी के उल-जुलूल कार्यक्रम को देखकर बचपन में सयाने हो रहे हैं।
	कई खतरे
	
	टीन-एज प्रिगनेंसी की दर बढ़ रही है। पिछले वैलेंटाइन डे को एक पार्क में
	तकरीबन 400 लोग चुंबन व आलिंगनबद्ध हो रहे थे, इस घटना से खुश हुआ जा सकता था
	लेकिन स्त्री-पुरूष संबंध की जो यथार्थ स्थिति बन रही है, वह तलाक के आँकड़े को
	शेयर बाजार से भी बड़ा उछाल दे रही है। क्या हम इसके लिए भूमंडलीकरण के अगुवा
	मीडिया को जिम्मेदार ठहराएँ? भूमंडलीकरण नयी विश्व-व्यवस्था है, जिसकी समय-समय
	पर अमेरिकी-ब्रिटिश शासक वकालत करते रहते हैं। इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय
	संस्थाओं का वर्चस्व है। आज दुनिया में 40 हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हैं,
	जिनकी ढ़ाई लाख शाखाएँ हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में सबसे ज्यादा
	परिसंपत्तियाँ इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र की कंपनियों की हैं। इसके अलावा 500
	बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आधिपत्य है।
	दर्शक
	-
	श्रोता-पाठक समीकरण
	
	इन कंपनियों का अमेरिका की 80 फीसदी अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व है। वर्चस्वशाली
	ताकतें मीडिया के माध्यम से गरीब देशों (तीसरी दुनिया) के उपभोक्ताओं तक अपना
	माल बेचकर बाजार पर अपना कब्जा आसानी से स्थापित करना चाहती हैं। भूमंडलीय
	स्तर की पाँच बड़ी मीडिया फर्मे-टाइम वार्नर, डिज्नी, न्यूज कारपोरेशन, वायकाम
	और टीसीआई हैं। ये फर्मे ही तय करती हैं कि दुनियाभर में दश्रोपा
	(दर्शक-श्रोता-पाठक) को क्या दिखाना है। भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के समस्त
	देशों तक ये फर्मे बहुराष्ट्रीय निगमों के बाजार का विस्तार चाहती हैं। बाजार
	विस्तार करने के लिए पूँजी व मुनाफे के खेल में इन कंपनियों को सांस्कृतिक
	मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये निगम स्वरूप बाज़ार अपने दर्शक को नागरिक
	(मानव) नहीं, बल्कि उपभोक्ता मानता है। उपभोक्तावादी समाज में मीडिया हमें
	अवगत करा रहा है कि प्रेम दो के बीच का केमिकल आकर्षण है। चूँकि प्रसारण
	नीतिनिर्धारकों का वास्ता हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से कम ही होता है। मीडिया
	कार्यक्रमों की प्रस्तुति में उपभोक्तावादी वस्तुओं पर जोर रहता है। यह एक नया
	यथार्थ निर्मित करती है।
	चरमराता परिवार
	
	आज हम भले ही प्रेम को दो व्यक्तियों तक सीमित अर्थों में देखें, पर इसका भाव
	विराट है। जीसस ने कहा था - दूसरों से प्रेम करो, पड़ोसी से प्रेम करो। लेकिन
	हम तो माता-पिता से, पति-पत्नी से प्रेम न करते हुए फरेब करने में कोई कसर
	नहीं छोड़ते हैं। प्रेम के अभाव में परिवार संस्था चरमरा रही है। हम छिप-छिप कर
	प्रेमालाप में लगे हैं। ताकि हमारे इस पाप के बारे में दुनिया न जान सके। क्या
	इसे ही टेलीविजन मीडिया नए कार्यक्रम 'इमोशनल अत्याचार' के माध्यम से पुष्ट
	करने में लगा है? मीडिया चिंतक जगदीश्वर चतुर्वेदी व सुधा सिंह अपनी पुस्तक
	'भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया' में लिखते हैं कि 'प्रेम का अर्थ, घर बनाना और
	उसमें कैद हो जाना नहीं है। प्रेम का अर्थ है - घर के बाहर निकल कर प्रेम
	करना। उस जगह से बाहर निकलना, जहाँ आप रह रहे हैं। उन आदतों से बाहर निकलना
	जिसमें आप कैद हैं। आप उनसे प्यार करें जो आपसे अलग हैं। व्यक्तिगत संबंधों के
	परे जाकर प्रेम करें।'
	दिखावा का बहकावा
	
	उपभोक्तावादी समाज में मीडिया लगातार हमें दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के
	भाव से दूर ले जा रहा है। इस कारण हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। यह एक ऐसा
	वातावरण निर्मित कर रहा है कि हम मानवीय प्रेम को भूला कर भौतिकतावादी प्रेम
	के आगोश में चले जाएँ। प्रेम भावना से ज्यादा दिखावे पर अवलंबित नई पीढ़ी धोखे
	का शिकार होती जा रही है। दिखावे के बहकावे में हम जिसे प्रेम समझ बैठे हैं,
	वह तो मृगमरीचिका के समान है। प्रेम के कोलाहल में हमने अपने अंदर के दरवाजे
	बंद कर लिए हैं। हमने अपने पड़ोसी की जिंदगी से आँखें फेर ली हैं। हम पड़ोसी से
	प्रेम करने के बजाय उस पर संदेह करने लगे हैं। विश्व के साथ अलगाव को हम प्रेम
	कह रहे हैं।
	भोगवादी संस्कृति कहां ले जाएगी
	?
	 
	
	समाज वैज्ञानिक एरिक फ्रॉम कहते हैं कि आज की सबसे बड़ी मानवीय जरूरत है, इस
	अलगाव को कम करना, अपने अकेलेपन की कैद से मुक्त होना। उपभोक्तावादी संस्कृति
	कर्म का भोग करती है। मजा योग में नहीं, भोग में है; भोग से भागने के बजाय हम
	भोग के भजन में उलझते जा रहे हैं। इंद्रियवाद सुखों की महिमा ही जीवन का रंग
	है। बाजारवाद में हर चीज क्रय-विक्रय योग्य है। उसे खरीदकर भोगने की ताकत
	पैदा करो। भोग सको तो भोग लो का संदेश देकर ये हमें कहाँ ले जाना चाहते हैं?
	यह नई संस्कृति जान चुकी है कि देश को ब्रेड बनाने के कारखाने की अब उतनी
	जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि मीडिया ने जनता की भूख की किस्म बदल दी है।
	पूँजीवादी सत्ता जानती है कि नई पीढ़ियों के लिए एक नया आनंद बाजार है, जिसमें
	सब कुछ बेचा जा सकता है - ब्रा, कच्छा से लेकर कंडोम तक।
	प्यार है केमिकल लोचा
	
	कहते हैं कि दिल की लगी क्या जाने ऊँच-नीच, रीति-रिवाज, जात-बिरादरी और
	लोकलाज। पुरूषों में 'टेस्टोस्टेरोन' और महिलाओं में 'इस्ट्रोजेन' हार्मोन
	के कारण दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। प्यार, संवेदना, लगाव,
	वासना, धृणा और अलगाव की विभिन्न भावनाएँ कमोबेस सभी के जीवन में आती हैं।
	बाल्यवस्था के उपरांत किशोरावस्था में विपरीत लिंग के प्रति 'प्लूटोनिक
	लव' (असहनीय प्यार) पैदा होती है। प्यार के आकर्षण में व्यक्ति अनिद्रा,
	भूख न लगना, प्रेमी को देखने की प्रबल ईच्छा, यादों में खोए रहना, लगातार
	बातें करना, पढ़ने या किसी काम में मन न लगना जैसी बातें आम होती हैं। इस
	अवस्था में डोपामिन, नॉर-एपिनेफ्रिन तथा फिलाइल-इथाइल-एमीन नामक हार्मोन
	रक्त में शामिल होते हैं। डोपामिन को 'आनंद का रसायन' भी कहा जाता है
	क्योंकि यह परम सुख की भावना उत्पन्न करता है। नॉर-एपिनेफ्रिन नामक रसायन
	उत्तेजना पैदा करती है। यही कारण है कि डोपामिन और नॉर-एपिनेफ्रिन नामक रसायन
	से व्यक्ति का सारा ध्यान प्रेम पर केंद्रित हो जाता है। इतना ही नहीं,
	डोपामिन एक अत्यंत महत्वपूर्ण हार्मोन 'ऑक्सीटोसिन' के स्त्राव को भी
	उत्तेजित करता है। जिसे 'लाड़ का रसायन' (स्पर्श) कहा जाता है। यह
	'ऑक्सीटोसिन' प्रेम में आलिंगन, हाथ में हाथ रखकर बैठना, शारीरिक स्पर्श
	जैसी निकटता की तमाम क्रियाएँ संचालित और नियंत्रित करता है। यही कारण है कि
	इसे 'निकटता का रसायन' कहा जाता है। दरअसल प्रेम एक शुद्ध रसायनिक कविता है जो
	प्रेमी को न सिर्फ ऊर्जावान और साहसी बनाता है अपितु प्रेमिका को पाने के लिए
	कुछ भी कर गुजरने को सोचने लगता है।
	गिफ्ट की शुरुआत
	
	वीडे के लिए उपहारों की शुरुआत अमेरिका में राबर्ट एच एल्टन और टॉमस डब्ल्यू
	स्ट्रांग ने की थी। आज उपहारों की दुकानों की चाँदी हो रही है। शहरों में ऐसा
	कोई रेस्त्र नहीं होता जो वैलेंटाइन के दिन बुक न हो। यूरोप में इस दिन
	सामान्य दिनों के मुकाबले दो अरब यूरो की ज्यादा बिक्री होती है। अमेरिकी फूल
	बाजार में तकरीबन 60 प्रतिशत की बिक्री अधिक होती है। वैलेंटाइन डे कार्ड का
	बाजार भी दो हजार करोड़ डॉलर का होता है। भारत की ही बात करें तो एक आर्थिक
	पत्रिका के अनुसार वर्ष 2003 में 100 करोड़ रुपये से ज्यादा के वैलेंटाइन डे
	कार्ड की बिक्री हुई थी। इस आँकड़े को 40 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि से जोड़ कर
	मौजूदा खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है। वीडे के बहाने बाजार अपना हित साध
	रहा है। समाज वैज्ञानिक एरिक फ्रॉम का कहना है कि किसी भी रूप में प्रेम की
	अनुभूति वैसी ही मानवीय कमोडिटी के विनिमय के जरिए ही पैदा हो पाती है, विनिमय
	वही करना चाहिए जिनका सामाजिक मूल्य हो।
	प्रेम यानी देने का भाव
	
	आज वीडे मनाने की परंपरा का नया तरीका ईजाद किया जा रहा है, जिसमें उपहारों को
	अनिवार्य रूप देने की परंपराएँ हैं। जाहिर है कि हम पश्चिम का अनुकरण करने में
	कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। पश्चिम के अभियान का लक्ष्य है - सभी संस्कृतियों
	को कैद करना, यह कार्य वे सांस्कृतिक समानता स्थापित करने के नाम पर करते हैं।
	ज्यों ही संस्कृति अपना मूल्य खो देती है, दूसरे पर हमला करती है। ऐसा वह अपने
	राजनीतिक अथवा आर्थिक लक्ष्य के तहत करती है। हिंदी साहित्य में प्रेम की
	चर्चा कालिदास के मेघदूत, श्री हर्ष की रत्नावली, वाणभट्ट की कादंबरी,
	विशाखदत्त की मुद्राराक्षस में पढ़ने को मिलती है। प्रेम का वही रूप टिकाऊ होता
	है, जिसमें अन्य के प्रति देने का भाव है, पाने का नहीं। पाने के भाव से प्रेम
	नहीं मिलता, अपितु प्रेम का लोप हो जाता है। संत वैलेंटाइन ने जिस प्रेम के
	लिए शहादत दी थी, हम उस प्रेम को याद करें, न कि इसे बाजारवाद का हिस्सा बनने
	दें।