'उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में मीडिया प्रतिस्पर्धी बाजार में पाठकों-दर्शकों को आकर्षित करने में ज्यादा लग गया। इंडस्ट्री को चलाने वाली मुख्य ताकत मनोरंजन और विज्ञापन बन गए, जिन्होंने राजनीति एवं सामाजिक संवाद को विस्थापित कर दिया। मीडिया तेजी से बड़े व्यवसायों के नियंत्रण में चला गया। मीडिया लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की जगह, कॉरपोरेट हितों के लिए इस्तेमाल होने लगा। ये रूपाँतरण मीडिया के पुनर्सामंतीकरण के हिस्सा थे और इसमें सोचने वाली जनता को भागीदारी वाले लोकतंत्र से दूर और अपरिचित कर दिया। उसकी जगह ऐसी जनता ने ले ली जो बहुत वैचारिक या आलोचक नहीं थी और जिसकी चिंता उपभोग भर में थी। -(जुर्गन हैबरमास)
मीडिया को लोकतंत्र के तीन स्तंभों (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) के बाद चौथा स्तंभ कहा जाता रहा है और आम आदमी को पाँचवां स्तंभ। इस पाँचवें स्तंभ पर ही चारों स्तंभ आश्रित हैं। हमें इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि पाँचवें स्तंभ के लिए मीडिया की भूमिका संदिग्ध क्यों है और इसके पीछे के कारक क्या हैं। हिंदी पत्रकारिता के शीर्ष संपादक बाबूराव विष्णुराव पराडकर ने आज से करीब 75 वर्ष पूर्व भविष्यवाणी कर दी थी कि 'भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी।' आज कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को उजागर करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता में आत्मा नहीं है?
अँग्रेजी के सुप्रसिद्ध लेखक आर्थर मिलर ने एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, 'अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है।' 'सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है? क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएँ, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत , कश्मीर, उड़ीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों , मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है? मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है? हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? ' [i] स्वतंत्रता आंदोलन और उसके उपरांत भी हम मीडिया के सरोकार को सकारात्मक में लिया जाता था पर भूमंडलीकरण के उपरांत मीडिया की विश्वनीयता सहित सामाजिक सरोकार पर विमर्श होने लगा है।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भूमंडलीकरण का दौर आया। इस युग में अर्थव्यवस्था, समाज, संस्कृति, कला, संगीत, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति और पूरे मानव-चिंतन में परिवर्तन लाने की अदभुत शक्ति है। आज भूमंडलीकरण विमर्श के केंद्र में हैं। दरअसल वैश्वीकरण एक प्रक्रिया है जो कई वर्षों से चल रहा है लेकिन 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद से इसकी गति तेज हुई है। कुछ वर्षों पूर्व तक अपने बहुत सीमित अर्थ में वैश्वीकरण का अर्थ था-मुक्त बाजारवाद और अमरीकी विश्व-दृष्टि। सोवियत यूनियन के विघटन के उपरांत यूरोप व एशिया के बहुत से देशों ने अपनी 'व्यापार नीति' में मुक्त बाजा़रवाद के नारे को बुलंद करने की पुरजोर कोशिश करने लगे। पूँजीपति तबकों द्वारा नियोजनबद्ध तरीके से मीडिया के माध्यम से बाजार पर कब्जा किया जाने लगा। वैश्विक तौर पर जो मीडिया फर्में सक्रिय हैं, उनमें से ज्यादातर अमरीकी या पश्चिमी यूरोप व जापान की कंपनियाँ हैं - जो मीडिया के लिए हार्डवयर और सॉफ्टवेयर का निर्माण करती हैं। ये हैं - टाइम वारनर, डिज्ने, न्यूज कार्पोरेशन, वायकाम, टीसीआई। ये मीडिया फर्में भारत ही नहीं, समस्त तीसरी दुनिया के देशों पर बहुराष्ट्रीय निगमों/कंपनियों के द्वारा अपने बाजार का विस्तार करना चाहती हैं। न्यूज कार्पोरेशन के मुखिया रूपर्ट मर्डोक आस्ट्रेलिया के हैं जो मीडिया मुगल्स के रूप में जाने जाते हैं इनका विश्व के 92 देशों में मीडिया पर एकाधिकार हैं। 'न्यूज कार्पोरेशन के लिए मर्डोक का लक्ष्य है - कार्यक्रम के हर रूप समाचार, खेल, फिल्में और बच्चों के कार्यक्रम पर मालिकाना रखना और उन्हें सैटेलाइट अथवा टीवी स्टेशनों के जरिए अमरीका, यूरोप, एशिया और दक्षिण अमरीका के घर में प्रसारित करना।' [ii] दुनिया में मीडिया के क्षेत्र में मजबूत पकड़ बनाने वाले न्यूज कार्पोरेशन योजनाबद्ध तरीके से उन इलाकों में अपना बाजार स्थापित करते हैं जहाँ कि वाणिज्यिक जनसंचार माध्यम के द्वारा भौतिकतावादी उत्पाद के लिए बाजार की संभावनाएँ अधिकतम हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ राजनैतिक प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी होकर अपना हित साधती हैं, इसके लिए वह संचार माध्यमों का इस्तेमाल करती है। कंपनियाँ ये जानती हैं कि समाज में मीडिया एक प्रभावकारी भूमिका के रूप में है और यह मानकर चलती है कि सांस और संचार का अटूट रिश्ता है, इस रिश्ते को बनाने में मीडिया की भूमिका अहम है।
वैश्वीकरण के पूर्व समयकाल के अनुसार मीडिया का आचरण बदलता रहा है कभी मिशन की भावना से तो कभी बाजारीय मूल्य के दबाव में। पहले की मिशनरी पत्रकारिता वृत्ति से नहीं, अपितु व्रत से देश के भविष्य की दिशा तय करने में अपना अमूल्य योगदान दिया पर आज यह बाजारवाद का अंग बन चुका है। बाजारवाद में शुद्ध लाभ के गणित को तरजीह दी जाती है। यहाँ हमें यह कहने में गुरेज नहीं है कि पूँजीपति देश के भाग्य निर्माता हो गए हैं। संचार माध्यम से पूँजीपतियों ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। वास्तव में जनसंचार माध्यमों के द्वारा विज्ञापनों के जरिए सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में लूट शुरू हो चुकी है। अमेरिका के माइकेल होएट 'ह्वेन द वाल्स कम टमब्लिंग डाउन' नामक शोध आलेख में लिखते हैं कि ' गूगल के आ जाने के बाद विज्ञापन उद्योग भी दो वर्गों में विभक्त हो गया है। पिछड़े वर्ग को बी.डी. एज अर्थात् Big dumb agencies कहा जाता है जबकि दूसरा दल स्वयं को प्रगतिशील सर्जना संपन्न कहता है। यह दल एक तरह से 'नरभक्षी' है। इन सभी का कहना है उत्पाद बेचना है तो बच्चों को अपना लक्ष्य बनाओ। यह दल बच्चों को कोक और पेप्सी पीने के लिए उत्प्रेरित करता है। ऐसे विज्ञापन बनाता है जिसमें बच्चा पारंपरिक भोजन के स्थान पर 'मैगी' या 'मक्डॉनल्ड' का हैमबर्गर माँगता है। दूध की जगह 'काम्प्लान' जैसे पेय पीने के लिए विवश किया जाता है या फिर ऐसा कोई अन्य पेय पीने की फ़रमाइश करता है। वह अबोध होते हुए भी जब ऐसी गैर पौष्टिक चीज़ों को टेलीविजन पर देखता है तो इन्हीं सबकी माँग करता है। ऐसे प्रगतिशील विज्ञापन की इबारत लिखनेवाले अपनी प्रतिभा का प्रयोग करते हुए 'टेढा है पर मेरा है' जैसी व्यंजनापूर्ण इबारत लिखने में माहिर होते हैं। ' [iii] हम जानते हैं कि संचार माध्यम सामूहिकता की बजाय एकांगीपन बनाता है। यहाँ यह कहना समीचीन है कि 'संचार माध्यम एक पृथक भावबोध निर्मित करते हैं जिसके कारण एक नवीन मनुष्य जन्म लेता है उनके द्वारा विभन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान के कारण एक नया सामूहिक व्यक्तित्व उभरकर आ गया है, जो पहले के मनुष्य से बिल्कुल भिन्न है। ' [iv]
आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक सांगठनिक ढाँचे की बुनियादी ईकाई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हैं। पूँजी के इन दैत्याकार समूहों में कुछेक सौ विश्व बाजार में माल और सेवा के उत्पादन और वितरण पर अपना आधिपत्य कायम रखते हैं। इनमें से अधिकांशतः समूह अमरीकी स्वामित्व के अधीन हैं। उत्पादन और वितरण पर यह प्रभुत्व संचार और संस्कृति के उत्पादों तक अपना विस्तार पर लेता है। बहुराष्ट्रीय निगम अपने आर्थिक वर्चस्व को बढ़ाने के लिए मुख्य लक्ष्य के तहत काम करते हैं फिर भी इसका प्रभाव कुछेक बड़े-बड़े मीडिया घरानों/ इजारेदारों और सांस्कृतिक समूहों के मुनाफा कमाने के उद्देश्य के दायरे में काफी आगे तक चला जाता है। ये बहुराष्ट्रीय निगम संचार माध्यमों से नत्थी होकर लाभ कमाने की फिराक में है। खासकरके उनके लिए विज्ञापनदाता का ध्यान आकर्षित करना और विज्ञापनदाता के हितों के फलने-फूलने में सहायक होना सबसे ज्यादा जरूरी होता है। संचार माध्यम के लिए मालिक और विज्ञापनदाता का वर्चस्व सार्वजनिक कार्यक्षेत्र के लिए एक ऐसे दोहरे पूर्वग्रह से ग्रस्त बना देता है जो सार्वजनिक कार्यक्षेत्र के लिए बड़े खतरे का आधार प्रदान करता है। इसलिए ये बहुराष्ट्रीय निगम स्वरूप बाजार अपने दर्शक को नागरिक नहीं अपितु उपभोक्ता मानकर चलता है, लिहाजा किसी सार्वजनिक दायरे को लेकर किया जाने वाला कामकाज इसके नजरिए से पूरी तरह बाहर हो जाता है। साथ ही मीडिया का वित्तपोषण विज्ञापनदाताओं द्वारा होने के फलस्वरूप ये दर्शकों की सेवा विज्ञापनदाताओं (पूँजीपतियों) की शर्तों के मुताबिक किया करते हैं। पूँजी व मुनाफे के खेल में मीडिया को न तो भारतीय संस्कृति से लगाव दिखता है और न ही मानवता से। विवेक पूर्ण विचारों से तो इसका सरोकार घटता जा रहा है। किसी के भाव, दाम या कीमत के बारे में यह ताकत बहुत कुछ जानती है पर मानवीय मूल्यों से इसका सीधा रिश्ता नहीं रह गया है। यह अदृश्य ताकत जानती है कि दो चीजों के लिए इन्हें भरपूर खरीददार बनाया जा सकता है एक तो सेक्स और दूसरा धर्म। 'सो मेनी मीडिया सो लिटिल टाइम' के लेखक रिचर्ड हावुर्ड के अनुसार एक वर्ष में आठ हजार सात सौ साठ घंटे होते हैं। अधिकांश किशोर किशोरियाँ यौन संबंधी दिवास्वप्नों में खोये रहते हैं। वयस्कों के एक हजार आठ सौ चौबीस घंटे जीविकोपार्जन में निकल जाते हैं। दो हजार सात सौ सैंतीस घंटे निद्रा में। इसके बाद भी सभी रोज चार घंटे टेलीविजन देखते हुए गंवा देते हैं। जबकि अख़बार यानी पत्र-पत्रिकाओं को वे छत्तीस से चालीस मिनट ही देते हैं।' [v] ये आंकड़े पश्चिमी दुनिया के हैं। यह यह देर नहीं होगी कि भारत में सर्वेक्षण कराने पर यह ही आंकड़ा न निकले।
पूँजीपति मीडिया के मार्फत बाजार पर कब्जा जमाने की होड़ में शामिल हो चुका है। लिहाजा चैनलों की बाढ़ आ गई है। भारत में अपलिंक हो रहे 357 निजी चैनलों में 197 चैनल समाचार चैनल हैं और बांकी 160 चैनल गैर समाचार कार्यक्रम प्रसारित करते हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा जारी वार्षिक समीक्षा रिपोर्ट के अनुसार देश में दिखनेवाले कुल चैनलों की संख्या 417 है इनमें यहाँ से अपलिंकिंग चैनलों की संख्या 357 है तथा डाउनलिंक होनेवाले चैनलों की कुल संख्या 60 है। टीवी चैनल तकरीबन ग्यारह करोड़ बीस लाख घरों तक अपनी पहुँच रखते हैं जो पूरी आबादी का साठ फीसदी है। प्राइस कूपर फिक्की द्वारा कराए गए अध्ययन के मुताबिक 'टेलीविजन चेनलों का मौजूदा बाजार करीब 43,700 करोड़ रुपये का है जिसमें आनेवाले कुछ वर्षों में 18 फीसदी का इजाफा होने की संभावना है और सन् 2011 तक यह 50900 करोड़ तक पहुँच जाएगा। ' [vi]
बाजार की प्रतिस्पर्धा में चैनलों के विस्तार ने उस वाणिज्यवाद और विज्ञापनदाता शक्ति को कम करने की बजाय बढ़ा ही दिया है। सार्वजनिक दायरे या यो कहें कि लोकतांत्रिक मूल्य के लिए वरदान साबित होने जैसा कुछ भी इसमें स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता है। ये चैनल न सिर्फ समृद्ध वर्गों के साथ लयबद्ध है बल्कि केबुल व सैटेलाइट टेलीविजन एकाधिकारी मालिकान वाले ऐसे सिंहद्वार हैं। इनके मालिकान के पास वाणिज्यिक अथवा राजनीतिक आधारों पर किसी चैनल की जनता तक पहुँच को ही खत्म कर देने की जबरदस्त ताकत मौजूद है।
यह तो सच है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के संवहन हेतु मीडिया से जो जन अपेक्षाएँ हैं उस संदर्भ में नॉम चोम्स्की की बात आज पूरी तरह से भारत जैसे देश पर भी लागू हो रही है। यहाँ भी निजी बहुराष्ट्रीय निगम क्षेत्र सरकार पर यही दबाब डाल रहा है कि वह राष्ट्रीय हितों के साथ समझौता न करें। समझौता न करने से उनका तात्पर्य समाज के कमजोर तबकों को मिलनेवाली मामूली सुविधाओं को भी समाप्त कर दिया जाय। जबकि अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक दोहन इसी अभिजात वर्ग के हित में हो रहा है। अभिजात वर्ग वाले विकसित देश विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का मुख्य भाग खर्च करते हैं। इन देशों के लोग विश्व जनसंख्या का 20 प्रतिशत है लेकिन वे पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के 80 प्रतिशत से अधिक भाग का उपभोग करते हैं। उनका नवीनतम प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण व एकाधिकार है। तीसरी व दूसरी दुनिया के देश प्रौद्योगिकी, पूँजी, कौशल तथा हथियारों के लिए प्रथम दुनिया के देशों पर निर्भर हैं।
उत्पादन व निर्यात को बढ़ावा देने के नाम पर वे जनता की कमाई का एक बड़ा हिस्सा हड़पने से जरा भी नहीं हिचकते हैं। लेकिन वे ऐसा करते हुए जनता के एक बड़े हिस्से को यह भरमाने में कामयाब रहते हैं कि यह राष्ट्रीय व समाज हित में है , जनता को मिलनेवाली सुविधाओं के बड़े हिस्से को वह छीनने दें ताकि अर्थव्यवस्था को संकट की घड़ी में उबारा जा सके। जब मुल्क के वित्तमंत्री यह कहते हैं कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे तो इसका सीधा सा मतलब यही होता है कि जनता पर और अधिक आर्थिक बोझ लादा जाने वाला है, इसके लिए रोजगार के रास्ते कम होने वाले हैं। इसप्रकार जनविरोधी नीतियाँ अपनाते हुए भी जनविरोधी सरकारें जनसंचार माध्यमों के मार्फत जनता पर अपना नियंत्रण बनाए रखती है। हालाँकि इस संदर्भ में जनसंचार माध्यम यह दावा करते हैं कि वे जनता के मत को अभिव्यक्ति देते हैं। लेकिन क्या वे सचमुच में जनता के मत पेश कर रहे होते हैं, यहाँ साफगोई है कि जहाँ भारतवर्ष में तकरीबन 30 प्रतिशत आबादी समूल निरक्षर हैं वहीं जनसंचार माध्यमों द्वारा करवाए गए सर्वे किस हद तक जनता की राय का प्रतिनिधित्व करते हैं। हकीकत तो यह है कि वे अपने बाजार एजेंडा के तहत जनता के दरबार में आते हैं उनका दिल बटोरने के लिए। जनता दरबार में उनका तार्किक सवाल शुरू होता है। जनता के पास भी कई सवालात होते हैं लेकिन ये जनमाध्यम वाले सवालों के मिले जबाब को बस अपने हितार्थ में जनता की राय बनाकर हम तक पहुँचाते हैं। यह तो सीधा सा जनता के समक्ष जनसंचार माध्यमों द्वारा किया गया भद्दा मजाक है न! इससे तो लगता है मीडिया पूँजीपतियों के पैरोकारी में लगकर उनके माल को विज्ञापन के माध्यम से हम तक बेचने का माध्यम बन चुकी है। ये माध्यम जन सरोकार के नाम पर महज एक ढोंग रचती हैं।
क्या यह सच नहीं है कि भूमंडलीकरण के नाम मीडिया के द्वारा ज्ञान, धन और हिंसा तीनों मिलकर इक्कीसवीं शताब्दी में कोहराम मचा रहा है? एक नया विश्व साम्राज्यवाद विश्व उपनिवेशवाद सामने खड़ा है और यह तीसरी दुनिया के देशों को अपना स्थायी उपनिवेश बनाने की मुहिम में जुटा है। अतएव हमें शक्ति का नया नव्य पूँजीवादी अर्थ 'द न्यू मीनिंग ऑफ पावर' को समझना पड़ेगा। हालाँकि यह विवशता है कि इससे हम बच भी नहीं सकते। भविष्यवेता आल्विन टॉफ्लर ने अपनी पुस्तक 'फ्यूचर शॉक', 'दि थर्ड वेब', 'पॉवर शिफ्ट' में दिखाया कि वर्तमान, नवीन परिवर्तनों के दौर में है। ''यह नवीन परिवर्तन इतना आकस्मिक है - इतने अद्भुत ढ़ंग से सामने आया है कि आम आदमी, इसे देखकर हक्का-बक्का है। चकाचौंध के सामने मुँह बाए खड़ा है। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि यह परिवर्तन-प्रवाह इतनी ताकत से कहाँ से फूट-फट पड़ा है। इसलिए बुद्धिजीवियों, चिंतकों को चाहिए कि वे 'पावर शिफ्ट' के कारणों का गहन विवेचन-विश्लेषण करें ताकि राइज ऑफ दि न्यू पॉवर सिस्टम को पूरे फोकस से उजागर किया जा सके। 'मानव अपने औद्योगिक समाज 'पोस्ट इंडस्ट्रियल सोसायटी' के झलक का झरोखा दर्शन कर सके। विश्व मंदिर में अमेरिकावाद का नया देवता स्थापित क्यों हुआ है और यह चाहता क्या है?' [vii] क्या यह सच नहीं है कि इस असीमित परिवर्तन चक्र को मीडिया नई ऊर्जा दे रहा है मीडियातंत्र के प्रचार माध्यमों से बाजारवाद के नाम पर आम लोगों को ठगने का एक अराजक और पागलपन रवैया अख्तियार कर रहा है। यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि 'व्यापारतंत्र को भारत जैसा बहुसंख्यक उपभोक्ता वाला देश माल बेचने का सबचे अच्छा बाजार दिखाई देता है इसलिए हमें विश्व बाजारवाद की नई ताकतों, उनकी योजनाओं और उनके पैटर्नों को समझना जरूरी है। ' [viii] भारत के लिए तो पूँजीवादी देशों का खुला हमला है जिसमें गांधी विचार-दर्शन, स्वदेशी, कुटीर उद्योगों को नष्ट करने का अभियान प्रमुख है। साथ ही यह पश्चिमी उपभोक्ता संस्कृति को पनपाने में आमदा है। पुरानी सभ्यता-संस्कृति के मूल्यों को अपर्याप्त घोषित करने के बाद नई सभ्यता-संस्कृति का तंत्रजाल बिछाया जा रहा है। इस तंत्रजाल का अगुआ यूरोप, अमेरिका, जापान आदि विकसित देश हैं। इन देशों में नव औद्योगिक समाज-संस्कृति का उभार जोरों पर है। यह पूरा उभार कंप्यूटर पर आधारित सूचना तंत्रजाल पर केंद्रित है जिसमें श्रम को सेवा में बदल कर ठगा जा रहा है। यह तंत्र पूरा राजनीति और राष्ट्र-राज्य की व्यवस्था को बदल रहा है। समाजशास्त्री भविष्यवेत्ता आल्वीन टॉफ्लर ने जब 'थर्ड वेब' पुस्तक लिखकर बाजारवादी तंत्र की पोल खोली तो इस पुस्तक को 'बैड बुक' करार दिया गया लेकिन जिज्ञासुओं ने इसे बाइबिल की तरह पढ़ा और चीन में इसपर विस्तार से चर्चा हुई जबकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ? दरअसल नव औपनिवेशिक गुलामी को स्वीकार करने में भारत को कोई हिचक नहीं है। भारत की राष्ट्रभक्ति में विश्वभक्ति का यह इतिहास अद्भुत है - शर्मनाक व सोचनीय और मॉडर्न के नाम पर दूसरों की गुलामी को तैयार है भारत। पश्चिम ने उत्तर आधुनिकतावाद की आह में न्यू थियरी ऑफ सोशल चेंज तैयार की है। जिसमें क्रय-विक्रय की रणनीति है। यह रणनीति सेक्स और राजनीति, साहित्य और कलाओं को उजाड़कर सेक्स फैशन के बीज बो रही है। 'हमारे टेलीविजन पर नंगी थिरकती कामुक नारी क्या कह रही है, खाने-पीने की चीजों का लुभावना जलवा क्या संदेश दे रहा है? माइकेल जैक्सन और मेडोना नई पीढ़ी को क्यों पागल बना रहे हैं? कंप्यूटर क्रांति क्या कह रही है? सुंदरियों की प्रतियोगिताओं का आयोजन कौन कर रहा है? बहुराष्ट्रीय निगमों के नीचे सत्ता क्यों बिछी हुई है? ग्लोबलाइजेशन के पीछे हाई टेक्नोलॉजी सारे सुपर पावर देशों की नीयत क्या है? सब लोग अमेरिकन अम्ब्रैला के नीचे ही शरण क्यों ले रहे हैं।' [ix]
यहाँ यह साफगोई है कि हम अमेरिकीवाद के चारणभाट में लगे हैं। पुराने साम्राज्यवाद का अंत हो चुका है। पुराने शीत युद्ध का नशा उतर गया है और एक 'नव साम्राज्यवाद' एक नव्य सांस्कृतिक राजनीतिक साम्राज्यवाद के रूप में सामने प्रस्तुत हो चुका है। इसने धर्म, सेक्स , राजनीति, बाजार का चेहरा बदल दिया और इन सभी में एक आंतरिक अंतर्योजना का दृश्य हम सभी ने पाया। कार, फ्रीज, टेलीविजन, फिल्म, प्रिंट मीडिया, साहित्य भीतर से इतने बदलने लगे कि इस परिवर्तन की कल्पना करना बेहद कठिन है। जीवन के प्रायः सभी क्षेत्र ज्ञान, धन और हिंसाचारी के उपयोग से नवीन शक्तिवाद के साकार नाम बन गए हैं। ज्ञान अब न्यू सिस्टम में ढ़लकर धन को दिमाग से कमा रहा है। आज ज्ञान के नए साधन या यों कहें कि न्यू मीडिया यथा इंटरनेट ने ज्ञान के भूगोल व इतिहास को परिवर्तित किया है। ज्ञान आधारित टेक्नोलॉजी ने समाज को नया बिंब बना दिया। 'ग्लोबल विलेज द्वारा प्रदत्त तथाकथित सुख-सुविधाएँ यही कर रही हैं। केवल जीवन तथा संसार की विविधता को नष्ट कर उन्हें संगठनात्मक एकरूपता के नाम पर एकरस बना रही हैं। हर जगह कार्पोरेशन, क्लब संस्कृति, एक ही दुकान, एक ही तरह के खाद्य पदार्थ, एक ही नामों के होटल और रेस्टॉरेंट : हॉली डे इन, मैक्डोनेल, बर्गर किंग, केएफसी आदि व्याप्त हैं। ' [x]
यह न्यू इलीट कार्पोरेट चीफ, ब्यूरोक्रेट्स, मीडिया मुगल्स मॉस कम्यूनिकेशन्स तथा मॉस डेमोक्रेसी ने ग्लोबल पावर को बढावा दिया है। मूलरूप से ग्लोबल पावर में नव्य पूँजीवादी, नव्य साम्राज्यवादी, नव्य उपनिवेशवादी, नव्य संरचनावादी, नव्य सांस्कृतिक साम्राज्यवादी विचारधारा है जिसमें धन कुबेर बनने की योजना शामिल हैं। पूँजीपतियों बहुराष्ट्रीय निगम, अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन, अंतरराष्ट्रीय संगठन, गैर सरकारी संगठन आदि वैश्वीकरण के मुख्य इंजन हैं जो कि हमें वैश्विक गाँव के वासी होने की संकल्पना को साकार करता है।
ग्लोबल पावर में नव्य साम्राज्यवादी विचारधारा है जो अपने समय की क्रांतिकारी प्रवृत्ति और एक ऐसा सैद्धांतिक वाद-विवाद, कला, साहित्य परिसंवाद, वैश्विक स्तर पर वर्तमान का वृत्तांत, सामाजिक राजनीतिक परिवर्तनवाद का नव दर्शन बहुलतावाद, केंद्रवाद को नकारते हुए परिधि की ओर बढ़ता है। इतना ही नहीं, इसमें सभी पुरानी विचारधाराओं, वादों-प्रवृत्तियों, संस्थानों का अंतवाद घोषित है। एक प्रकार से यह आधुनिकतावाद का नया विस्तार है जिसमें 'वाइलेंस, नॉलेज और वेल्थ' का त्रिकदर्शन है। यह माइंड-मनी-मसल के द्वारा गलाकाट प्रतिस्पर्धा पर उतारू होकर पश्चिमी विचार दर्शन के द्वारा तीसरी दुनिया पर आधिपत्य स्थापित करने की मुहिम में जुटा है। पश्चिम के मिशन का लक्ष्य है - मीडिया के माध्यम से सभी संस्कृतियों को कैद करना, यह कार्य वे सांस्कृतिक समानता स्थापित करने के नाम पर करते हैं। 'ज्यों ही संस्कृति अपना मूल्य खो देती है वह सिर्फ बदला लेती है, अन्य पर हमले करती है। ऐसा वह अपने राजनीतिक अथवा आर्थिक लक्ष्य के परे जाकर करती है। भूमंडलीकरण का सारा जोर प्रतिक्रिया के इलाकों को वे उपनिवेश बना लेते हैं, इसका दखल करके उन्हें घरेलू बंदी बना लेते हैं। जिससे वह इलाका मानसिक और भौगोलिक तौर पर प्रतिरोध न कर सकें। ' [xi] यहाँ यह साफ है कि समाज में आज के नए जनांदोलन एक योजनाबद्ध तरीके से कराए जाते हैं, नए आंदोलनों ने पुराने को खारिज किया है और तर्कों की बजाय अतर्क को प्रतिष्ठित किया है सामाजिक विभ्रमों की पुष्टि की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमंडलीकरण वर्चस्ववादी व्यवस्था है, जिसमें किसी भी प्रकार की प्रतिक्रियावादी रूप मूलतः आतंकी होता है, भयोत्पादक होता है साथ ही राष्ट्र-राज्य उसके मुख्य शत्रु हैं। जिसमें पुराने चिंतन, पुराने साहित्य, पुरानी कला के क्लासिकल ढाँचा को अनुपयोगी करार दे दिया गया। ज्यां बाद्रिलॉ के शब्दों में कहें, तो 'संपूर्ण पुनरूत्पादन तथा छवियों की असीम पुनरावृत्ति के जमाने में (फोटो कॉपी, डिजिटल कॉपी) वास्तविक तथा काल्पनिक के बीच, मूल तथा 'प्रतिलिपि' के बीच, गहराई और सतहीपन के बीच का अंतर मिट गया है। इसके फलस्वरूप हमारे पास 'अति वास्तविकता' (हाइपररियलिटी) की संस्कृति फल-फूल रही है।' [xii]
अंततः कहा जा सकता है कि ग्लोबल पावर के रूप में मीडिया संगठन वैश्वीकरण से गठजोड़ स्थापित कर लोक कल्याणकारी राज्य के जुमले से हम तक पहुँचना चाहती है। ऐसे में हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में परिलक्षित होती है। मीडिया की दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है। कुछेक मामलों को छोड़कर मीडिया को पाँचवें स्ंतभ (विशाल जनसमाज की चिंताओं) की कोई परवाह नहीं है- जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं।
संदर्भ - सूची
i. http://samachar 4 media.com/is-this-the-golden-era-of-hindi-journalism, आनंद प्रधान का लेख
ii. मैक्चेस्नी राबर्ट डब्ल्यू. इलेन मिक्सिन्स वुड, जॉन बेलेमी फॉस्टर, अनुवादक राजेंद्र शर्मा , 'पूँजीवाद और सूचना का युग', श्यामबिहारी राय द्वारा ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, बी-7, सरस्वती कॉम्प्लेक्स, सुभाष चौक, लक्ष्मीनगर , दिल्ली-110092 (जेराल्डीन फैब्रिकेंट, 'मर्डोक बेट्स हैविली ऑन ए ग्लोबल मीडिया विजन' न्यूयार्क टाइम्स 29 जुलाई 1996 पृ .सं. 01)
iii. नया ज्ञानोदय, संपादक रवींद्र कालिया, अंक : 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोधी रोड, पोस्ट बॉक्स नं.3113, नई दिल्ली-110003, पृ.सं. 25
iv. नया ज्ञानोदय, संपादक रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोधी रोड, पोस्ट बॉक्स नं.3113, नई दिल्ली-110003, पृ.सं. 25
V . नया ज्ञानोदय, संपादक रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोधी रोड, पोस्ट बॉक्स नं.3113, नई दिल्ली-110003, पृ.सं.24
vi मीडिया मीमांसा, अप्रैल-जून 2009, पृ.सं. 11
vii . पालीवाल कृष्णदत्त. उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य. वाणी प्रकाशन. नई दिल्ली -111002 पृ.सं.14
viii. पालीवाल कृष्णदत्त. उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य. वाणी प्रकाशन. नई दिल्ली-110002 पृ.सं.14
ix. पालीवाल कृष्णदत्त. उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य. वाणी प्रकाशन. नई दिल्ली-110002 पृ.सं.15
x. नया ज्ञानोदय, संपादक रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोधी रोड, पोस्ट बॉक्स नं.3113, नई दिल्ली-110003, पृ.सं.19
xi. जगदीश्वर चतुर्वेदी, किसान सेज और मीडिया पुस्तक से उदधृत
xii. नया ज्ञानोदय, संपादक रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया लोधी रोड, पोस्ट बॉक्स नं.3113, नई दिल्ली-110003, पृ.सं.45