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कहानी

काई का फूल

वीरेंद्र प्रताप यादव


छपाक... पूरा शरीर पानी से भीग गया है। शरीर डुबकी लगाता, फिर ऊपर आ जाता। तालाब कुम्हार का चाक हो गया है जिससे तरह-तरह की आकृति एक पल के लिए उभरती फिर गायब हो जाती। क्षण भर के लिए कोई गोलाई बाहर आती, उस पर नजरें ठहरने से पहले ही वो वापस पानी में डूब जाती। मानो आँखमिचौली का खेल चल रहा हो। पुरानी फटी साड़ी स्तनों को और उनके उभार को कैद नहीं कर पा रही है। मानो सदियों से पिंजरे में बंद परिंदे अपनी पहली उड़ान के लिए आतुर हों। शरीर ने कपड़े त्यागकर पानी को पहन लिया। पानी की एक-एक बूँद शरीर के संपर्क में आते ही मोती बन रही हैं। पानी की एक बड़ी लहर ने जैसे ही साड़ी को घुटनों के ऊपर धकेल कर साँवली, मांसल जाँघों का आलिंगन किया तो हलचल से उत्पन्न छोटी धाराओं ने उसे चूमना शुरू कर दिया। जलकुंभी का फूल बालों में फँस कर उसका श्रृंगार करने लगा। बहुत देर से पानी में रहने के कारण चमड़ी ने पानी सोख लिया है। साँवले बदन की मैल फूल कर चिकनी हो गई है जिससे एक अजीब सी मादक गंध हवा में मिलती जा रही है। गंध हल्की है किंतु उसकी उपस्थिति से तालाब के किनारे खड़ा महुआ का पेड़ भी लज्जित हो सिकुड़ता जा रहा है। भीगे बदन की महक महुआ के फूलों को मादकता का पाठ पढ़ा रही है। इसी मादकता से व्याकुल होकर नीलगायें महुआ बिनना छोड़ कर तालाब की ओर सर उठाए हवा में नथुने फड़फड़ा कर इसका स्रोत खोजने का यत्न कर रही हैं। तालाब के किनारे की नरकट की झाड़ी कोई देख न ले पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। फिर भी बूढ़ा पीपल का पेड़ खाँसता हुआ चुपके से इस खेल को देख रहा है। बेहया का सूखा हुआ पौधा कोमल अंगों को छूकर जीवित हो बैंगनी फूल बरसाने लगा। पूरा का पूरा वन, पानी और शरीर के इस मिलन को टकटकी लगाए निहार रहा है।

यह वर्ष पिछले कई वर्षों से कुछ अलग था। वैसे तो हर वर्ष ही अलग होता है किंतु यह अलग होना बहुत अलग नही होता। यह वर्ष बहुत अलग था और यह अलग होना अनुभूत होता है। वर्ष के लिए 'वर्ष' शब्द हटा के 'जीवन' शब्द से संबोधित करें तो भी अर्थ में कोई भेद नही प्रकट होगा। वैसे भी शब्द और अर्थ, परंपरा से पैदा होते हैं। हाथी के लिए सदियों से 'हाथी' शब्द का प्रयोग होता आया है। अतः हाथी को 'हाथी' शब्द से संबोधित किया जाता है। यदि बोली के विकसित होते समय हाथी के लिए 'बैल' शब्द का प्रयोग किया जाता तो आज हाथी को बैल शब्द से पुकारा जाता। जिन लोगों का जीवन वैसा चल रहा था जैसा चलते आया था उनके लिए यह वर्ष अलग नही था। जिनका जीवन पहले के जीवन जैसा नही था उनका यह वर्ष भी पहले के वर्षों की तरह नही था। कभी कभी वर्ष का समाप्त हो जाना जीवन का समाप्त हो जाना होता है और जीवन के समाप्त होने पर तो जीवन के समाप्त होने वाले के लिए वर्ष स्वतः समाप्त हो जाता है। जो बच जाते हैं उनका न तो जीवन समाप्त होता है और ना ही वर्ष।

इस वर्ष अल्ली का जीवन बदला था। जीवन बदला था इसलिए उसका यह वर्ष पिछले वर्षों से अलग था। अल्ली की आयु सत्रह वर्ष, लिंग महिला, निवास न तो पूरी तरह कह सकने लायक गाँव ही था न वन। स्थिति ऐसी थी कि वन पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था और गाँव आरंभ नहीं हुआ था। वन, वन होता है और गाँव, गाँव होता है। वन गाँव नहीं होता और गाँव वन नहीं होता। लेकिन जहाँ वन और गाँव का संलयन होता है, एकमात्र बिंदु जहाँ वन और गाँव में निरंतरता होती है वहीं तेरह-सत्रह झोपड़ियों का झुंड है जिसे अतीत ने धक्के मार के बाहर निकाल फेंका था और वर्तमान के लिए वो अछूत है। यही अल्ली का निवास स्थान था, जहाँ वह अपने माता-पिता, भाई-बहनों और पड़ोसियों के साथ रहती है।

अल्ली, जैसा कि नाम से प्रतीत होता है हिंदू नहीं है। अल्ली अली का अपभ्रंश नहीं है अतः वो मुसलमान भी नहीं है। नाम शब्द होता है। यह आवश्यक नहीं कि हर शब्द का अर्थ हो। लेकिन शब्द का धर्म जरूर होता है। भाषा, भाषा नहीं रही वो धर्म हो गई है। भाषा, हिंदी या उर्दू नहीं रही वो हिंदू या मुसलमान हो गई है। धर्म ने भाषा पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। धर्म भाषा को अर्थ देने लगा है। धर्म भाषा को भाव देने लगा है। भाषा की तरह व्यक्ति व्यक्ति नहीं है, वह हिंदू, मुसलमान, ईसाई इत्यादि है। अल्ली को जानने के लिए उसका धर्म जानना आवश्यक है। अल्ली का जन्म राज गोंड जनजाति में हुआ है। उसके परिवार और पड़ोसियों की तरह उसकी जनजाति भी अतीत तथा वर्तमान के बीच झूल रही है। अंतरिक्ष में तारा अपने ही गुरुत्वाकर्षण बल के कारण अपने आप में सिमटता हुआ ब्लैक होल बन जाता है। ब्लैक होल अपने आस-पास से गुजरने वाली हर वस्तु को अपने अंदर खींच के उसे पचा लेता है। यहाँ तक कि किसी अन्य तारे या सूर्य की रोशनी जोकि उसके नजदीक से गुजरती है वो भी उससे बच नहीं पाती। उसके गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उसमे समाकर कभी वापस नहीं निकल पाती। अल्ली और उसकी जैसी अन्य जनजातियाँ भी आधुनिक, विकसित और सभ्य समाज रूपी ब्लैक होल के मुहाने पर आकर अटक गई हैं। हर चीज गतिशील होती है। उसका ब्लैक होल के मुहाने पर अटकना सिर्फ अटकना लगता है जबकि वो धीरे-धीरे हर पल उसमे समाती जा रही हैं। बाघ का संरक्षण हो रहा है। गिद्ध का संरक्षण हो रहा है। अन्य संकटग्रस्त जीवों का संरक्षण हो रहा है। अतः जनजातियों का भी संरक्षण हो रहा है। ब्लैक होल के गर्भ से एक चौकीदार को जनजातियों के संरक्षण का ठेका इन शर्तों के साथ दे दिया गया है कि मुहाने पर जो अटक जाना लग रहा है वो उसके गर्भ तक पहुँच जाने पर भी अटक जाना ही लगे। साथ ही साथ जितनी संख्याएँ गर्भ में आकर पच रहीं हैं उनके खाली स्थान पर काल्पनिक स्थिर संख्याएँ खड़ी कर दी जाएँ। अल्ली का, उसकी जनजाति का बहुत कुछ बदल रहा है इसलिए उनका जीवन बदल रहा है। जीवन बदल रहा है इसलिए हर वर्ष बदल रहा है। वर्ष बदल रहा है इसलिए यह वर्ष अलग है। यह अलग होना साफ नजर आ रहा है।

इस वर्ष चौथा महीना अप्रैल नहीं था। मई भी नहीं था। हर कोई जल्दी में है। शायद इस वर्ष जून भी बहुत जल्दबाजी में था और वह छलाँग लगाकर चौथा महीना बन बैठा। वो भी एक महीने के लिए नहीं तीन महीनों के लिए। यह वर्ष सिर्फ अल्ली और उसके जैसे लोगों के लिए ही अलग नहीं था बल्कि पलाश के पेड़ों के लिए भी अलग था जिनमें इस वर्ष फूल नहीं निकले थे। नीम के पेड़ के लिए भी अलग था जिसकी पत्तियाँ तो झड़ गई थीं लेकिन न ही उनमें नई पत्तियाँ निकलीं और ना ही सफेद फूल। महुआ के पेड़ों से भी इस वर्ष ओले नहीं गिरे थे। इन सबको जल्दी नहीं थी। था तो सिर्फ इंतजार बरसात का, हरियाली का, जीवन का। लेकिन जून महाजन के बहीखाते की तरह एक बार जो बैठ गया तो अमर हो गया। समाचार चैनलों में लगातार प्रसारण हो रहा था कि इस वर्ष मध्य भारत में सूखा पड़ा है। विशेषज्ञ, विदेशी कंपनियों का शीतल पेय पीते-पीते पानी कैसे बचाया जाए इसका उपाय बता रहे थे। साथ ही साथ वो ये भी दिखा रहे थे कि विदेशी कंपनियों का पानी पीने से उनके देश के पानी की बचत होगी। सभी तालाब और झीलें सूख गई थीं। नदियों को पहले से ही कोका कोला और पेप्सी ने पूरी तरह से पी लिया था।

तीन महीने के इस एक महीने ने अल्ली के थके जीवन को तीन गुना कर दिया है। सत्रह वर्षीय अल्ली अचानक इक्यावन वर्ष की हो गई है। अढ़ाई बित्ते के आँचल में कमल की कलियाँ नहीं, लू से चिचुके दो आम लटक रहे हैं। पानी लेने अब दो नहीं छह कोस जाना पड़ता है। दूर-दूर तक पानी का कोई नामो-निशान तक नहीं है। अल्ली की पथराई आँखों में भी नहीं है। जितने डांगर पैदा होते थे उसके तीन गुना मर चुके हैं। जंगल सूख कर ईंधन बन गया है। चूल्हे में जंगल है या जंगल ही चूल्हा है कोई भेद नहीं है। पानी सिर्फ तीन जगह है। अल्ली के चिचुके स्तनों में संरक्षित चर्बी के रूप में, छह कोस दूर पटेल के सदाबहार तालाब में और ब्लैक होल के संडास के नल में। पानी की आवश्यकता सिर्फ अल्ली या उसके जैसे लोगों को ही नहीं है। पानी की आवश्यकता पलाश, नीम, महुआ के पेड़ों, जंगल के सूखे तिनकों को भी है। पानी के इंतजार में अल्ली का बूढ़ा बैल भी अपनी अंतिम साँस रोके बैठा है। पानी की एक-एक बूँद बड़े हिसाब से उपयोग में लाई जा रही है। पानी नहीं था इसलिए उसका उपयोग किफायत से हो रहा है। ब्लैक होल के मुहाने से धीरे-धीरे अंदर सरकते हुए अल्ली और उसके जैसे लोग, पानी जब बहुतायत में था तब भी उसका उपयोग बड़ी किफायत से करते थे। ब्लैक होल के मुहाने में सूखा पड़ा था जबकि उसके अंदर संडास में काई फल-फूल रही थी। यहाँ का नल अजर-अमर था। उसे सदा के लिए धारा प्रवाह बहने का वरदान मिला था। जब पानी नहीं था तब भी वहाँ का नल लगातार संडास में उगी काई को सींच रहा था। यह वर्ष ब्लैक होल के संडास की काई के लिए भी अलग था। वैसे तो काई को पानी और खाद वर्षों से मिल रहा था लेकिन यह वर्ष अलग था। वर्ष अलग था क्योंकि यह वर्ष पिछले वर्षों जैसा नहीं था। इस वर्ष पहली बार ब्लैक होल के संडास की काई पर एक फूल खिला था। कसाई की दुकान पर उलटे लटके उधड़े हुए बकरे की तरह उसका रंग गुलाबी था। बहुत बड़ा फूल था। काई का यह फूल लगातार बड़ा होता जा रहा था। बढ़ते-बढ़ते यह फूल इतना बड़ा हो गया कि संडास में अँट नहीं रहा था। कुछ ही दिनों में फूल बढ़कर संडास के बाहर आ गया और संडास को ढक दिया। अब संडास कहीं नहीं नजर आता था। फूल का बढ़ना रुक नहीं रहा था। वो लगातार बढ़ता जा रहा था। संडास के नल का पानी अभी भी काई के फूल के लिए काफी था। फूल दसों दिशाओं की तरफ फैलने लगा था।

इधर ब्लैक होल के मुहाने पर अल्ली के परिवार में आज ज्यादा ही हलचल थी। अभी तक तो अल्ली और उसके परिवार का यह वर्ष अलग था। एक अलग होने के अंदर कई अलग होने होते हैं। यही कई अलग होना ही एक बड़े अलग को पैदा करता है। अल्ली के बड़े अलग के अंदर आज एक छोटा अलग हुआ था। छोटा अलग आज के दिन हुआ था। दिन या वर्ष तभी अलग होते हैं जब जीवन अलग होता है। जीवन लगातार अपनी गति से चलता रहे तो वो अलग नहीं होता है। इस वर्ष उसके जीवन में कई छोटे-छोटे अलग हुए थे जिसने उसके वर्ष को अन्य वर्षों से अलग किया था। आज भी एक अलग हुआ था। आज सुबह से ही अल्ली का बूढ़ा बैल नहीं मिल रहा था। बैल बूढ़ा था, इसलिए बैल कमजोर था। सूखा पड़ा था इसलिए भी बैल कमजोर था। सूखा पड़ने से बैल कमजोर था सूखा पड़ने से जंगली जीव भी कमजोर थे। कमजोर जंगली जीव कमजोर बैल को मार के नहीं ले जा सकते थे। बैल को बहुत खोजा गया लेकिन वो नहीं मिला। वो नहीं मिला क्योंकि खोजने वाले भी कमजोर थे। खोजने वाले कमजोर थे इसलिए बैल को खोजना बंद कर दिया गया। कभी-कभी अलग हो रहा है इसकी भी आदत पड़ जाती है।

रात में संडास के काई का फूल भी लापता हुआ था। रात भर काई के फूल की तलाश की गई। खोजने पर काई का फूल ब्लैक होल के मुहाने पर मिल गया। रात में दबे पाँव वो वहाँ चला गया था। ऐसा नहीं था कि संडास के नल में पानी नहीं था। वहाँ से तो लगातार पानी की धार गिर रही थी। काई के फूल को मिलना था इसलिए नहीं मिला, फूल इसलिए मिला क्योंकि उसे खोजने वाले कमजोर नहीं थे। फूल फिर न खो जाए इसलिए ड्राइंग रूम की मेज पर शीशे के फूलदान में रख दिया गया। फूल का आज अलग था। फूल का आज इसलिए अलग था क्योंकि वो कल जैसा नहीं था। कल फूल मांस की तरह गुलाबी था लेकिन आज वो लाल रंग का था। फूल से लाल-लाल बूँदें टपक रही थीं। शायद फूल को पता चल गया था कि भोजन में एनिमल प्रोटीन का होना भी आवश्यक है। उसने रात में अल्ली के बैल को साबूत खा लिया था।

बहुत खोजने पर भी अल्ली को बैल नहीं मिला। बैल के नहीं मिलने पर शोक नहीं मनाया जा सकता था। ब्लैक होल के संडास के काई के फूल को एनिमल प्रोटीन की आदत हो गई थी। मनुष्य भी एनिमल प्रोटीन का अच्छा स्रोत है। स्वादिष्ट और पोषण से लबालब भरा हुआ। काई के फूल की भूख उसके कद की तरह लगातार बढ़ती जा रही थी। शोक मनाने से रात में माता, पिता या भाई-बहन भी खो सकते थे। माता, पिता या भाई-बहन खो न जाएँ इसलिए अल्ली ने शोक नहीं मनाया। उसने आज के अलग को अलग के रूप में नहीं लिया। अलग अब उसकी नियति बन गया था। अलग भी जब लगातार होता रहता है तो एक समय बाद वह अलग नहीं लगता। चूँकि अल्ली के लिए हर दिन अलग था और ये अलग होना लगातार होता जा रहा था। इसलिए अब अलग, अलग नहीं रह गया था। इस अलग और लगातार होने वाले अलग को उसने स्वतः नहीं चुना था। यह उसके ऊपर थोपा गया था। उसके जैसे करोड़ों पर थोपा गया था। गरीब को सिर्फ एक मौत नहीं आती। उसे तो व्यवस्था और मौसम कई मौत मारते हैं। ब्लैक होल ने मौसम को अपना लठैत बना लिया है। फिर भी मौत का इंतजार नहीं किया जा सकता। अपने प्रियजनों की मौत का बिलकुल भी नहीं। मरने और जीने में कोई अंतर न रहे तब भी मौत का इंतजार नहीं किया जा सकता। अल्ली जैसे लोग मृत पैदा होते हैं, मृत बूढ़े हो जाते हैं और मृत ही मर जाते हैं। वो कभी भी जीवित नहीं रहते। वो कभी भी जवान नहीं होते हैं। जैसे सूर्योदय से सूर्यास्त तक सूर्य विद्यमान रहता है। वैसे ही जन्म लेने से मृत्यु तक वे सिर्फ मृत रहते हैं।

जन्म और मृत्यु के बीच के खाली स्थान में समय विद्यमान रहता है। समय जितना लंबा होता है जीवन भी उतना लंबा होगा। समय और जीवन दोनों को लंबा होने के लिए ईंधन चाहिए। हवा, पानी, घर, परिवार इत्यादि ईंधन है। अल्ली को जीवित रहने के लिए, अपने परिवार को जीवित रखने के लिए ईंधन चाहिए था। पहले इसी ईंधन को प्रकृति निःशुल्क प्रदान करती थी। अब ईंधन हाट में सेकेंड हैंड बिकता है। इसका वस्तु विनिमय होता है। जमीन दो गेहूँ ले जाओ, जंगल दो कपड़े ले जाओ। पिछले कुछ वर्षों से हाट में मेड इन चाइना हवा आने लगी है जोकि बहुत सस्ती है। उदारीकरण के कारण हवा निःशुल्क हो गई है बशर्ते आपको कुछ बीमारियाँ साथ में ले जानी पड़ेंगी। पानी की माँग ज्यादा, उपलब्धता कम होने के कारण अभी तक मूल्य निर्धारित नहीं हो पाया है। पानी का मूल्य केंद्रीकृत नहीं किया जा सका है। अलग-अलग हाट में अलग-अलग मूल्य है। किसी हाट में मानव अस्थियों के बदले पानी मिल रहा है, कहीं बच्चियों के बदले, कहीं मजदूरों के बदले। कुछ हाट वाले उदार हो गए हैं, स्तनों और योनि के बदले पाने दे रहे हैं। ब्लैक होल के अंदर की अर्थव्यवस्था उत्कृष्ट है। बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग होता है। प्रकृति का कैसे दोहन किया जाए इस विषय पर बड़े-बड़े शोध चल रहे हैं। प्रकृति से जनजातियों का अधिकार छीन कर नए-नए पेटेंट कराए जा रहे हैं। महुआ अब महुआ न होकर मधुका लोंगिफोलिया हो गया है। इसकी देशी शराब बनाना गैर कानूनी हो गया है। देशी शराब स्वास्थ्य के किये हानिकारक होती है। अंग्रेजी शराब पीना चाहिए। एक तो ये हानिकारक नहीं होती दूसरा इससे आबकारी कर भी मिलता है। भारत अब इंडिया हो गया है। शाइनिंग इंडिया का नारा सबकी जुबान पर है। ये आदिवासियों और सपेरों का देश नहीं रहा। ब्लैक होल के बाहर की दुनिया अछूत है। ब्लैक होल के बाहर की दुनिया बर्बर है। वहाँ जंगली जानवर रहते हैं। वहाँ के दो पैरों वाले जानवर से दूर रहना चाहिए। अत्यंत घृणित जीव है। नंगा रहता है, झाड़-फूँक में विश्वास रखता है, हमारे देवी-देवताओं पर उसे विश्वास नहीं है, कुत्ता-बिल्ली और बंदर खाता है, ईमानदार है, झूठ नहीं बोलता, उनकी मादाओं से ब्लैक होल की सभ्य महिलाओं को बचने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता और अधिकारों की माँग करने का खतरा है। बाप रे बाप बहुत खतरनाक हैं उस दुनिया वाले। दूर रहने में ही भलाई है। कैसी विडंबना है! वहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ है। कोयला, लोहा, यूरेनियम इत्यादि उपजता है। पूरी तरह उसे अलग भी नहीं किया जा सकता। उसका अच्छा उपयोग करना चाहिए। दोहरा उपयोग करना चाहिए। आरक्षित क्षेत्र बना दो उसे। कोई उस पार से इधर न आ पाए और कोई इधर से उस पार न जा सके। दो पाइप लगा दो इस पार से उस पार। एक पाइप से सारे प्राकृतिक संसाधन खींच लो। दूसरे पाइप से ब्लैक होल की सारी गंदगी ढकेल दो उस ओर। औद्योगिक कचरे के शुद्धिकरण की आवश्यकता नहीं रही। ढकेल दो उस ओर। जितना हो सकता है उतना दोहन करो। उस पार की दुनिया एक अच्छा बाजार भी बन सकती है। ब्लैक होल के अंदर उत्पाद मानक बहुत कड़े है। जो उत्पाद, मानक पार नहीं कर पाए हैं उन्हें बड़े मुनाफे पर उस पार बेचा जा सकता है। जीवन के लिए हानिकारक रसायनों से बने उत्पाद, जिनका निर्माण लागत बहुत कम होता है उन्हें ऊँचे लाभ पे उस पार बेंचा जा सकता है।

अल्ली को जीवित रहना था। उसके परिवार को जीवित रहना था। अल्ली को इसलिए नहीं जीना है कि जीने में मजा आ रहा है। अल्ली को इसलिए नहीं जीना है कि मरने से डर लगता है। अल्ली को इसलिए जीना है क्योंकि उसे जीने की आदत हो गई है। जीने की आदत आकस्मिक पैदा नहीं हो गई थी। जीने की आदत हो गई थी क्योंकि पिछले सत्रह वर्षों से वो जीती आई थी। आदत का क्या है एक बार जब पड़ जाती है कहाँ छूटती है। अल्ली के जीने की भी आदत नहीं छूट रही है। जीने के लिए पानी चाहिए। इस वर्ष सूखा पड़ा है। नदी, तालाब और झीलों का अपहरण किया जा चुका है। पानी से भरा सबसे पास वाला तालाब छह कोस दूर है जिसका पटेल ने अपहरण कर लिया है। तालाब पर ताला लगा है। पानी पर ताला लगा है। गाँव का मरियल कुत्ता पटेल के तालाब पर पानी पी सकता है। मुर्दा खाने के बाद गिद्ध पटेल के तालाब पर चोंच धो सकता है। पटेल का नाती तालाब में मूत्र विसर्जित कर सकता है। पटेल की भैंस तालाब में गोबर कर सकती है। लेकिन अल्ली के लिए तालाब पर ताला लगा है।

आज सुबह नहीं हुई थी। सुबह शायद सो गई थी। मुर्गे को बाँग लगाना याद नहीं रहा। मुर्गा भी शायद सो गया था। लेकिन अल्ली नहीं सोई थी। खाली पेट बिस्तर पर लेटा तो जा सकता है लेकिन सोया नहीं जा सकता। पूरी रात वो करवटें गिनती रही थी। पूरी रात वो अपने जीवन को गिनती रही थी। उसे याद आ रहा था अपना बचपन। उसे याद आ रहा था बचपन कितना अच्छा था। उसे याद आ रहा था अपनी माँ के साथ जंगल में लकड़ियाँ बीनने जाना। वर्ष का यही चौथा महीना था जब वो माँ के साथ जंगल में लकड़ियाँ बीनने जाती थी। माँ साथ में बकरियाँ ले जाती थी। जंगल के पास देने के लिए बहुत कुछ हुआ करता था। वो आगे-आगे दौड़ती जाती थी पीछे-पीछे बकरियों को हाँकती हुई माँ आया करती थी। हमेशा की तरह रास्ते में बाहें फैलाए रंग बिरंगे झंडों से लदा बरगद का पेड़ उसे झूला झुलाने के लिए अपने असंख्य हाथों में से एक हाथ उसकी ओर बढ़ा देता। वो झट से उसकी एक लटकती जड़ पकड़कर झूलने लगती। माँ चिल्लाती "अरे अल्ली ये क्या कर रही है। चल हट वहाँ से, पाप लगेगा।"। अल्ली पूछती "माँ बरगदहा बाबा से सब डरते क्यों हैं"। माँ डरी हुई कहती "बेटी यहाँ मत आया कर। तुझे पता नहीं यहाँ निसार किया जाता है। अभी पिछले महीने ही मेंगुर की बहू मरी थी तो उसका निसार यहाँ किया गया था। देखती नहीं उसकी बहू की बिंदी, सिंदूर और साड़ी हाँडी में बाबा के नीचे अभी भी है। बेचारी असमय मर गई"। अल्ली पूछती "माँ ये निसार क्या होता है"। माँ बताती "जब कोई असमय मर जाता है, उसकी आत्मा न भटके, आत्मा की शांति के लिए निसार किया जाता है।"। अल्ली पूछती "सभी के मरने के बाद उसकी आत्मा भटकती है?"। माँ बताती "उसी की आत्मा भटकती है जो असमय मरता है।"। अल्ली पूछती "लोग क्यों मर जाते हैं, आत्मा क्यों भटकती है?"। अल्ली के सवालों से झल्लाती हुई माँ कहती "तू सवाल जवाब बहुत करती है। जा बकरी हाँक। देखती नहीं वो मेदार खा रही है।"। अल्ली बकरी हाँकने उठती है ओर माँ आगे बढ़ने लगती है। माँ-बेटी जंगल की ओर बढ़ने लगती हैं। अल्ली चौंककर माँ से कहती है "माँ सुन, कहीं शोर हो रहा है"। माँ कुछ सोच रही थी। सोच से बहार आए बिना ही कहती है "अरे महुआ बीनने के लिए बंदर हुडदंग कर रहे होंगे"। शोर सच में आ रहा था। माँ को भी आभास होने लगा कि शोर हो रहा है। दोनों शोर की दिशा की ओर सर करके कल्पना से सारी स्थिति को समझने का प्रयास करने लगीं। कल्पना करते-करते दोनों के पैर स्वतः हलचल की दिशा में बढ़ने लगे। पंद्रह-बीस लोगों का झुंड था। भीड़ का चेहरा जाना पहचाना था। गाँव के ही लोग थे। अल्ली ने सुना कि विलाप करने वाली महिला से माँ माजरा पूछ रही है। रोते-रोते महिला ने बताया आज बाघ ने फिर उनकी बकरी मार दी। बकरी गरीब की गाय होती है। उसका मरना कष्टदायक था। बकरी के मरने से लोग दुखी थे। अल्ली ने देखा एक किशोर अपने भाले की नोक को आँखों से टटोलता हुआ बड़बड़ाता है "बहुत हो गया रोज-रोज का ये तमाशा, आज मैं इसका अंत करूँगा। जीवित नहीं छोड़ूँगा इस हत्यारे को"। शायद बकरी इसी की थी। अल्ली को भीड़ में से आवाज सुनाई पड़ती है "तू पागल है क्या। अरे होनी थी और हो गई। बाघ तो बकरी खाता है और खाता रहेगा। इसमें बाघ का क्या दोष'। अल्ली सोचती है आवाज होनी को कोस रही थी। आवाज बाघ को नहीं कोस रही थी। उसे दूसरी आवाज सुनाई पड़ती है "अहीर (चरवाहा) गाँजा पी कर सो गया होगा"। दूसरी आवाज भी बाघ को नहीं कोस रही थी। बाघ को कोई नहीं कोस रह था। इसमें बाघ का कोई दोष नहीं। तीसरी आवाज आती है "बाघ जंगल का पुत्र है। बाघ ने बकरी को मारा क्योंकि जंगल की आत्मा नाराज है"। चौथी आवाज आती है "जंगल की आत्मा की भी कोई गलती नहीं। जंगल की आत्मा नाराज है, हमीं में से किसी ने कोई पाप किया होगा"। अल्ली को लगा कि कौन सा पाप हुआ है और किसने किया है यह जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं। दिलचस्पी है तो बाघ द्वारा पशुओं को मारने का सिलसिला रोकने में। वो जानती है इस सिलसिले को रोकने का काम केवल परधान (ओझा) ही कर सकता है। तभी निहुरे-निहुरे गाँव का बूढ़ा परधान भी पहुँच जाता है। शायद उसे बाघ द्वारा बकरी मारने की सूचना मिल गई थी। कैसे, पता नहीं।

परधान की आयु अस्सी पार कर गई होगी। शरीर धनुष की तरह झुका हुआ था। अल्ली और बाकी लोग बेचारगी भरी आँखों से टकटकी लगाए परधान से सब कुछ ठीक करने का आग्रह करने लगे। परधान काम का आदमी था लेकिन गाँव के लोग उससे दूरी बना के रखते थे। गाँव के बच्चे चोरी छुपे परधान के साथ खेला करते थे। लोग दूरी बनाए थे क्योंकि वो परधान से डरते थे। बच्चे दूरी नहीं बनाए थे क्योंकि वो परधान से नहीं डरते थे। लोग परधान से डरते थे क्योंकि वो कभी-कभी पाप करते थे। बच्चे नहीं डरते थे क्योंकि वो पाप नहीं करते थे। परधान के पास आत्माएँ थीं जो बता सकती थीं गाँव में माता का प्रकोप हुआ क्योंकि खेलावन ने नीम के पेड़ के नीचे शौच किया था। शीतला माता नाराज हो गई थीं। गाँव में आग लग गई क्योंकि सोन्नर की बहू ने चूल्हे में पीपल की हरी लकड़ी जला दी थी। अल्ली को लगा डर अक्सर दूरी बढ़ाने का कार्य करता है। हड़बड़ाहट में परधान अपनी सारंगी लाना भूल गया जो हमेशा उसके पास रहती थी। सारंगी माध्यम थी परधान का आत्माओं से संपर्क बनाने का। परधान भयभीत हो गया। अल्ली कहती है मैं अभी दौड़कर सारंगी ले आती हूँ। एक किशोर अल्ली के साथ दौड़कर सारंगी लेने चला जाता है। परधान शांत उकड़ूँ बैठा कुछ मनन करने लगता है। शायद मंत्र फूँक रहा है। थोड़ी ही देर में अल्ली और किशोर सारंगी लेकर आ जाते हैं। परधान सारंगी को माथे से लगा उसकी पूजा करता है। वह सारंगी बजाता है लेकिन उसके तार टूट जाते हैं। परधान धड़ाम से औंधे मुँह जमीन पर गिर जाता है। वो काँपने लगता है। अल्ली और सबकी नजरें अवाक परधान का गिरना और काँपना देखने लगती हैं। परधान चिल्लाता है अनर्थ हो गया। अनर्थ हो गया... अनर्थ हो... कह कर वो फिर काँपने लगता है। अल्ली को सुनाई पड़ता है परधान काँपते-काँपते कह रहा है दरवाजे बंद कर लो, खिड़कियाँ बंद कर लो, सब छुप जाओ कहीं। ब्रह्म प्रेत आया है। सबको निगल जाएगा। सबको निगल जाएगा।

भूखे सियार की आवाज से अल्ली अपने अतीत से कूदकर वापस वर्तमान में आ जाती है। अभी भी उसके दिमाग में परधान की आवाज गूँज रही है। अनर्थ हो गया। दरवाजे बंद कर लो, खिड़कियाँ बंद कर लो, सब छुप जाओ कहीं। ब्रह्म प्रेत आया है। सबको निगल जाएगा। सबको निगल जाएगा। कहीं इसी ब्रह्म प्रेत ने उसके बैल को तो नहीं निगल लिया। कहीं इसी ब्रह्म प्रेत ने गाँव को मरघट तो नहीं बना दिया। ब्रह्म प्रेत सबको निगलता जा रहा है। गूलर के पेड़ को, गिलहरी को, हरे भरे जंगल को, गाँव के तालाब के पानी को। हाँ ये सूखा ब्रह्म प्रेत ही तो है। उसे कहाँ पता था एक नहीं दो-दो ब्रह्म प्रेत हैं एक तो ब्लैक होल और दूसरा सूखा। सूखा उसको निगल रहा था और ब्लैक होल उसके अस्तित्व को निगल रहा था। सूखे के लिए किसी राज गोंडी का पाप नहीं ब्लैक होल जिम्मेदार था। कई सप्ताहों से पूरे परिवार ने भोजन कहने लायक कोई भी वस्तु नहीं खाई थी। इधर झरबेरियों में जंगली बेर खाकर कुछ दिन तो गुजर गए थे। सिर्फ अल्ली का परिवार ही भूखा नहीं था। पूरा गाँव, जमीन और सियार भी भूखे थे। बेर अब समाप्त हो चुके थे। इस साल जंगल में बेल भी नहीं लगे थे। कल क्या खाया जाएगा इसकी चिंता सबको थी। भूखे सियार की हुआँ-हुआँ ने अल्ली की माँ को भी चेतन में ला दिया था। वो भी शायद अल्ली की तरह करवटें बदलती हुई विचारों में गोते लगा रही थी। माँ अल्ली से कहती है "रोज-रोज मरने से अच्छा तो एक बार में ही मौत आ जाए। अपनी भूख पर तो काबू भी कर लें लेकिन तुम लोगों का कष्ट नहीं देखा जाता"। आगे जोड़ते हुए माँ कहती है "किस्मत इतनी खराब है कि मौत भी नहीं मिलती"। अल्ली कहती है "बापू भी शिकार से खाली हाथ लौटे"। माँ कहती है "पूरे दिन जंगल घूमते रहे, एक खरहा तक नहीं मिला। जंगल गारड बता रहा था कि बड़े साहब के शहरी मित्र पिकनिक मनाने जंगल आए थे। जो कुछ हाथ आया मार ले गए"। अल्ली अपने आप से सवाल करती है "आदमियों में ये अंतर क्यों है। जंगल में अलग-अलग नियम क्यों है। हम भूख मिटाने के लिए भी शिकार नहीं कर सकते और शहर वाले साहब लोग मनोरंजन के लिए जानवर मार डालते हैं। जंगल की आत्मा उन पर क्यों नहीं नाराज होती है?" शायद माँ सुन लेती है। वो जवाब देती है "शहर वाले बड़े खतरनाक हैं। परधान बता रहा था कि उनके पास बड़ी-बड़ी आत्माएँ हैं। इतनी बड़ी आत्माएँ हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। जंगल की आत्मा को भी उन्होंने वश में कर लिया है।" अल्ली जवाब देती है "सही कह रही हो मैंने भी सुना है उनके पास एक कोठरी है जिसमें बहुत ठंडा पानी रहता है... बरफ भी... उस कोठरी में सूखा भी नहीं पड़ता।" माँ चौंककर पूछती है "तुझे कैसे पता"? अल्ली कहती है "वो जो हरखुआ नहीं है जो जंगल गेसेट हाज में काम करता है, उसकी बेटी सुभौती बता रही थी"। माँ लंबी साँस लेते हुए कहती है "बड़ा भला आदमी है हरखुआ। पिछले हफ्ते आम की गुठलियाँ दे गया था। आधा पसेरी रहा होगा। बता रहा था कि साहब लोग आम खाकर गुठलियाँ फेंकने के लिए उसे दे दिए थे। आधा अपने लिए रखकर बाकी हमें दे दिया था। मैंने सुखा के रख लिया था। अच्छा याद दिलाया। सुबह उसी को उबाल के खा लेंगे। उनके पास बहुत बड़ी आत्मा है, बिना मौसम सूखे में भी पके आम तक ले आती है।" दोनों सुबह के इंतजार में शांत हो लेट जाती हैं। दोनों सोने का अभिनय करने लगती हैं। दोनों वापस अपने-अपने विचारों में लौट जाती हैं। दोनों कम से कम सुबह के भोजन के लिए अचिंतित हैं। अभिनय करते-करते दोनों सोने के अभिनय को जीवंत कर देती हैं। दोनों की आँखें लग जाती हैं। पता नहीं दोनों अच्छी अभिनेत्रियाँ हैं कि सुबह के भोजन की बेफिक्री ने दोनों को सुला दिया।

सोया हुआ मुर्गा जाग जाता है। मुर्गा बाँग लागता है। सोई हुई सुबह जाग जाती है। सुबह ने मुर्गे को जगाया था। अल्ली को लगता है मुर्गे ने सुबह को जगाया है। अल्ली की माँ को लागता है रात सो गई है इसलिए सुबह जाग गई है। ब्लैक होल की सुबह अक्सर अच्छी होती है। ब्लैक होल के बाहर की सुबह आज कल अच्छी नहीं है। सुबह का अच्छा होना सोए हुए दिन, सोई हुई रात पर निर्भर करता है। सुबह का अच्छा होना सुबह के बाद होने वाले दिन पर निर्भर करता है। सुबह ने अल्ली के पिता को भी जगा दिया। सब अलग चल रहा था इसलिए आज कल की सुबह भी अलग थी। सुबह शीतल नहीं थी। सुबह सिंदूरी नहीं थी। सुबह ताजी भी नहीं थी। आज भी ताजी सुबह नहीं हुई थी। आज बासी सुबह हुई थी। बासी सुबह का स्वाद बासी था। इतना बासी कि सुबह, सुबह ही नहीं लग रही थी। सुबह दोपहर लग रही थी। रात के बाद सीधे दोपहर हो गई थी। सुबह सिर्फ अल्ली और उसके जैसे लोगों के लिए ही अलग नहीं थी। सुबह गाय-बैलों के लिए अलग थी, उनके पास मक्खियाँ उड़ाने की शक्ति नहीं थी। सुबह महुआ के पेड़ के लिए अलग थी, उससे महुआ के फूल नहीं टपकते थे। सुबह मधुमक्खियों के लिए अलग थी, बैठने के लिए नीम, पलाश या आम के फूल नहीं मिलते थे। बासी सुबह ने बासी दिन ला दिया था। मुर्गे ने बाँग लगा दी थी, इसलिए अब और ज्यादा देर बिस्तर पर नहीं लेटा जा सकता था। अल्ली ने बिस्तर छोड़ दिया, अल्ली की माँ ने बिस्तर छोड़ दिया। अल्ली के पिता ने भी बिस्तर छोड़ दिया था। अल्ली की पाँच साल की बहन और आठ साल का भाई अभी भी बिस्तर पर थे। वो अभी सो रहे थे। अल्ली के पिता कहते हैं "जब से उठा हूँ पूरा शरीर दर्द हो रहा है।" अल्ली को लगा उसका शरीर भी दर्द हो रहा है। अल्ली की माँ को भी लगा कि शरीर दर्द हो रहा है। अल्ली ने गौर किया उसके पिता की काली पीठ बैंगनी हो गई है। कहीं-कहीं से खून भी रिस रहा है। अल्ली परेशान होकर पिता की पीठ देखने और करीब जाती है। अल्ली घबरा जाती है। माँ से कहती है "माई देख तो पिता को कुछ काट लिया है। पीठ पे घाव हो गया है। खून भी रिस रहा है।" अल्ली की माँ भी करीब आकर अपने पति के घाव देखने लगती है। तभी अल्ली की नजर माँ की फटी मटमैली साड़ी पर जाती है। साड़ी पीठ की ओर लाल-भूरी हो गई थी। अल्ली साड़ी छू कर देखती है। साड़ी भीगी हुई है। अल्ली की उँगलियों में लाल रंग लग जाता है। अल्ली चिल्लाती है "माई तुम्हारी पीठ से भी खून निकल रहा है।" अल्ली जब माँ से बता रही थी कि तुम्हारी पीठ से खून निकल रहा है तभी उसे अपनी पीठ भीगी हुई लगती है। उसे लगता है कोई चिपचिपा कीड़ा उसकी पीठ पर रेंग रहा है। वो हाथों से पीठ झटकने लगती है। उसे आभास होता है कि उसके हाथ भीग गए हैं। उसे आभास होता है कि उसने बियाई हुई गाय की खेंडी छू ली है। अल्ली की घबराहट देख उसके माँ-पिता अपनी-अपनी घायल पीठ भूलकर उसकी पीठ पर नजरें डालते हैं। अल्ली की पीठ पर भी घाव हुआ है जिससे ताजा खून बह रहा है। अल्ली का पिता कहता है बेटी घबरा नहीं, मैं खड़िया डाल देता हूँ घाव अभी भर जाएगा।" अल्ली की माँ तुरंत खड़िया पानी में घोलकर अल्ली की पीठ पर लगाती है। खड़िया का घोल ठंडा था। जैसे-जैसे माँ पीठ पर खड़िया लगाती है, उसका घाव भरने लगता है। अल्ली का घाव पूरी तरह भर जाता है। अल्ली को खड़िया लगाने के बाद उसकी माँ, उसके पिता की, फिर अल्ली उसकी पीठ पर खड़िया का घोल लगाती है। उन दोनों के भी घाव भर जाते हैं। तीनो की पीठ से खून बहना बंद हो जाता है। थोड़ी ही देर में घावों का निशान भी गायब हो जाता है। अल्ली अभी भी सदमे में थी। माँ से पूछती है "तीनो जनों की पीठ पर घाव क्यों हो गया था?" माँ जवाब देती इससे पहले ही जमीन पर इधर-उधर कुछ ढूँढ़ते हुए फिर कहती है "देख तो कौन सा कीड़ा है जो हम तीनों को काट लिया है।" अल्ली इस बार भी माँ का जवाब आने से पहले अपने सोए हुए भाई और बहन की पीठ छूकर देखती है कहीं उनकी पीठ पर भी घाव नहीं है। उनकी पीठ पर घाव नहीं था। अल्ली की माँ चुप थी। अल्ली के पिता चुप थे। शायद ये घाव हर सुबह उनकी पीठ पर होते थे। अल्ली की पीठ पर पहली बार हुए थे। घाव पिछली रात थी जो दिन होने के बाद भी तीनों की पीठ पर रह गई थी।

अल्ली पड़ोसी के यहाँ से आग लाकर चूल्हा जला देती है। हाथ-मुँह धोकर अल्ली आम की सूखी हुई गुठलियाँ निकाल लाती है। गुठलियाँ की गठरी कई जगह से मुँह खोले हुए थी। आदमियों की तरह चूहे भी भूखे थे। उन्होंने गठरी में रक्खे आम की गुठलियों को गठरी सहित खा लिया था। चार-पाँच ही गुठलियाँ बचीं थीं। अल्ली की माँ उन्ही चार-पाँच गुठलियों को उबाल देती है। अल्ली की माँ, अल्ली और उसके पिता को आम की उबली हुई गुठलियाँ परोसने लगती है। अल्ली के पिता चूल्हे पर बिना ढक्कन की हाँड़ी देखते हुए कहते हैं "रात को ठीक से सो नहीं पाया। हाजमा ठीक नहीं लग रहा है।" अल्ली के पिता पेट में हवा भरकर, पेट फुला कर, पेट सहलाते हुए उठ कर बाहर चले जाते हैं। अल्ली की माँ कुछ नहीं कहती है। अल्ली भी हाँडी देख चुकी थी। पिता की तरह उसे भी आज भूख नहीं थी। वह भी उठ कर दूसरे काम करने लगती है। अल्ली की माँ कुछ नहीं कहती है। अल्ली की माँ को भी भूख नहीं होगी। अल्ली के भाई-बहन जब उठेंगे, उन्हें भूख होगी और वे भर पेट खाएँगे। लोहा, लोहे को काटता है, विष, विष को काटता है वैसे ही भूख, भूख को मारती है। अल्ली की भूख, अल्ली के पिता की भूख और अल्ली की माँ की भूख अल्ली के भाई-बहन की भूख को आम की उबली हुई गुठलियाँ देकर मारेंगे। अल्ली के पिता बासी दिन की तैयारी करने के लिए बासी सुबह घर से बासी मुँह निकल जाते है। अल्ली की माँ कुछ नहीं कहती है।

एक सुबह और हो रही थी। सुबह कभी भी एक नहीं होती है। एक ही समय असंख्य सुबह हो रही होती हैं। सुबह की तरह एक ही समय अलग-अलग रात होती है। सुबह अलग-अलग होती है। रात अलग-अलग होती है। रात के बाद सुबह आती है। रात के बाद सुबह की जगह रात भी आती है। कभी-कभी रात आती ही नहीं है, उसकी जगह केवल सुबह होती है। सुबह के बाद फिर सुबह होती है। और ये सिलसिला चलता रहता है। जब एक सुबह अल्ली की हो रही थी ठीक उसी समय एक सुबह ब्लैक होल में हो रही थी। ब्लैक होल में एक सुबह समाप्त हुई थी और उसके समाप्त होते ही दूसरी सुबह प्रारंभ हो गई थी। वहाँ दो सुबह के बीच रात नहीं होती। दो सुबह के बीच सुबह होती है। चौबीसों घंटे सिर्फ सुबह होती है। वहाँ की सुबह बासी नहीं होती। वहाँ ताजी सुबह होती है। ब्लैक होल में एक सुबह के तुरंत बाद एक नई ताजी सुबह हो रही थी। नई ताजी सुबह होते ही, हर नई ताजी सुबह की तरह ड्राइंग रूम में रक्खे शीशे के फूलदान का पानी बदला गया। बीती सुबह का पानी बासी हो गया था। नई ताजी सुबह फूलदान में नया ताजा पानी डाला गया। सुगंधित स्प्रे द्वारा ताजे काई के फूल को और ताजा किया गया। उसके गुलाबी-लाल रंग के ऊपर, हर ताजी सुबह की तरह गुलाबी-लाल रंग का अतिरिक्त छिड़काव किया गया। साज-सज्जा के बाद काई का फूल टहलाने के लिए बाहर खुली हवा में ले जाया गया। पिछले कई घंटों लगातार एयर कंडिशंड कमरे में रहने के कारण हो सकता है वो ऊब गया हो। हवा-पानी बदलना जरूरी था। स्वास्थ्य अच्छा बना रहे, कुछ देर उसे खुला छोड़ दिया गया। टहलने से पसीने की दो लाल बूँदें टपकीं। वो थक गया। थकते ही भूख लगी।

काई का फूल घूमते-घूमते ब्लैक होल के मुहाने पर आ गया। मुहाने में सूर्य का प्रकाश था। फूल को प्यास लगी। उसने प्रकाश पी कर अपनी प्यास बुझाई। प्रकाश पिए जाने से कई जगहों पर प्रकाश रहित एक रिक्त क्षेत्र बन गया। प्रकाश के बीच-बीच में अंधकार के धब्बे बन गए। प्रकाश उजला न होकर चितकबरा हो गया। प्रकाश से प्यास बुझा कर काई का फूल तरो-ताजा हो गया। अभी भी थोड़ी प्यास बाकी थी। उसने और प्रकाश पी लिया। काला धब्बा और बड़ा हो गया। मुहाने में धीरे-धीरे प्रकाश का स्थान काले धब्बे लेने लगे। फूल की प्यास अभी भी नहीं बुझी। वह कूदकर महुआ के पेड़ पर जा बैठा। पेड़ पर पिछले बसंत की बासी पत्तियाँ और फूलों की कुछ स्मृतियाँ थीं। काई का फूल अमर बेल की तरह महुआ के पेड़ से जा चिपका। उसने महुआ की पिछले बसंत की बासी पत्तियों और फूलों की स्मृतियों को भी पी डाला। लेकिन उसकी प्यास थम नहीं रही थी। प्यास बढती जा रही थी। उसकी प्यास जितनी बढ़ती, महुआ का पेड़ उतना ही सूखता जाता। अंततः उसकी प्यास तो नहीं बुझी किंतु महुआ का पेड़ सूख कर ठूँठ हो गया। किसी ने ब्लैक होल में पंखा चला दिया था जिससे हवा का झोंका आया और काई के फूल को उड़ाकर पलाश के पेड़ पर ले गया। उसने पलाश के फूलों की स्मृतियों को पी डाला। पलाश के फूलों की स्मृतियाँ काली हो गईं और काई का फूल सुर्ख गुलाबी-लाल को गया। हवा का एक झोंका और आया तथा काई के फूल को उड़ाकर बूढ़े नीम के पेड़ पर ले गया। फूल ने नीम का हरा रंग पी लिया। रंग कड़वा था, काई के फूल को उल्टी हो गई। उल्टी के छींटें नीम के पेड़ पर जा गिरे।

बासी सुबह अल्ली के भाई-बहन बासी भूख के साथ जागे। माँ पहले ही आम की सूखी गुठलियों को उबाल चुकी थी। बच्चे माँ से खाना माँगते हैं। माँ इन शर्तों के साथ खाना परोसने लगती है कि पहले नित्य-क्रिया कर आओ। नित्य-क्रिया भी एक आदत है। चाहे दो दिन से पेट में अनाज का एक दाना भी नहीं गया हो लेकिन आदतन माँ ने बच्चों को इसके लिए भेज दिया। बच्चे नीम की दातुन चबाते-चबाते वापस आ गए। माँ भोजन परोस चुकी थी। बच्चों ने अढ़ाई-अढ़ाई आम उबली गुठलियाँ खाईं। बच्चों का पेट आम की गुठलियों से भर रहा था। अल्ली और उसकी माँ का पेट आँखों से भर रहा था। उबली गुठलियाँ खाते ही बच्चों के पेट में दर्द शुरू हो गया। थोड़ी ही देर में बच्चे उल्टी करने लगे। अल्ली परेशान होकर माँ से कहती है "खड़िया कहाँ रक्खी हो...। दो... पानी में घोल के पिला देती हूँ...।पीठ के घाव की तरह इनका पेट भी ठीक हो जाएगा।" माँ बताती है "खड़िया तो पहले ही समाप्त हो गई। सब पीठ पर लगा दिया। तू जा पड़ोसी के यहाँ से ले आ।" अल्ली दौड़कर पड़ोसी के यहाँ जाती है। पडोसी के घर पर केवल कुत्ते का पिंजर बैठा मिलता है। सब रात में ही ब्लैक होल द्वारा पचा लिए गए थे। अल्ली मायूस घर लौटती है। उसे उम्मीद थी कि माँ के पास और भी विकल्प होंगे। उसका सोचना सही था। माँ को घर में ही खड़िया मिटटी मिल गई थी और वो उसका घोल बच्चों को पिला रही थी। खड़िया पीते ही बच्चों को पेट में ठंडक महसूस होती है और वो सो जाते हैं। बच्चों के सिरहाने बैठ कर माँ सोचती है "शायद आम की गुठलियाँ खराब हो गई थीं।" माँ की सोच अल्ली की सोच बन जाती है। बच्चों की तबियत खराब होने को लेकर माँ मन ही मन अपने आप को कोसती है। छोटे भाई-बहन की तबियत खराब होने को लेकर अल्ली मन ही मन अपने आप को कोसती है। दोपहर हो जाती है लेकिन बच्चे सोते ही रहते हैं। दिन धीरे-धीरे गरम और गरम होता जाता है। बच्चे धीरे-धीरे ठंडे और ठंडे होते जाते हैं। दिन गरम होकर भट्टी हो जाता है। बच्चे ठंडे होकर बरफ की सिल्ली हो जाते है। अल्ली और उसकी माँ की आँखें भी ठंडी हो जाती हैं। बच्चों का शरीर नीला हो जाता है। अल्ली और उसकी माँ की आँखें भी नीली हो जाती हैं। नीले शरीर में काई निकल आती है। काई में से एक फूल निकल आता है। अल्ली की नजर नीम की दातुन पर जाती है। दातुन पर भी काई उगी होती है। हवा के कारण काई के छोटे-छोटे फूल दातुन से निकलकर उड़ने लगते हैं। एक फूल सूखी नदी की ओर, एक फूल गाँव की ओर, एक फूल पहाड़ों की ओर तथा बाकी बचे फूल जंगल की ओर उड़ने लगते हैं। अल्ली की माँ अल्ली के साथ थी लेकिन उसे लगता है कि वह अकेली है। अकेली अल्ली बाहर आती है ताकि इस पीड़ा की बेला में उसे किसी का साथ मिल सके। झोपड़ी से निकलते ही वो पड़ोसियों के घरों की ओर चलने को होती है किंतु उसे पड़ोसियों की झोपड़ियाँ नहीं मिलती। वो दूसरे गाँव की ओर जाना चाहती है लेकिन दूसरे गाँव को जाने वाली डगर नहीं मिलतीं। वह भागकर जंगल में छुप जाना चाहती है लेकिन जंगल कहीं नजर ही नहीं आता। नजर आतें हैं सिर्फ काई के फूल। काई के फूल हर ओर उड़ रहे हैं, पड़ोसियों के घरों पर, दूसरे गाँव जाने वाली डगर पर और जंगल में।

अल्ली की माँ बरफ की सिल्ली बन चुके अपने बच्चों के करीब बैठी थी। उसके हाथ पैर ठंडे हो गए थे। लेकिन उसकी आँखें बहुत गरम थीं। वो अपनी आँखों की गर्मी से पिघलने लगती है। बायीं आँख से एक आँसू निकलता है। आँसू उसके काले मुरझाए गालों पर नहीं गिरता। आखों की गर्मी के कारण आँसू भाप बन उड़ जाता है। उसे कुछ जलने की बू आती है। उसकी कनपट्टी से पिघला हुआ तरल उसकी बाँह पर टपकता है। उसे लगता है की उसके बाल जल रहे हैं। उसका माथा पिघल कर बूँद-बूँद बच्चों के ठंडे शरीर पर चू रहा है। चरचराहट के साथ उसके माथे के बाएँ किनारे का एक बड़ा हिस्सा पिघलते मोम की तरह चू जाता है। माथे के उस बड़े हिस्से के चूने के साथ ही तितलियों का झुंड फड़फड़ा कर उसके आँचल पर गिर जाता है। असंख्य तितलियाँ उसके इर्द-गिर्द उड़ने लगती हैं। वो तितलियों से घिर जाती है। तरह-तरह की तितलियाँ थीं। कुछ रंग-बिरंगी तो कुछ रंगहीन थीं। कुछ बड़ी थीं तो कुछ छोटी थीं। दो छोटी चंचल तितलियाँ उसके आँचल पर आकर बैठ जाती हैं। तितलियाँ उसके मटमैले गंदे आँचल पर छपे फूल पर बैठी थीं। उसका आँचल गीला हो जाता है। उसके सूखे स्तनों से दूध की बूँदें टपकने लगती हैं। तभी एक चमगादड़ उसके आँचल पर बैठी दोनों छोटी चंचल तितलियों को खा जाता है। चमगादड़ सभी रंगबिरंगी छोटी तितलियों को खा जाता है। धीरे-धीरे रंगबिरंगी छोटी तितलियाँ कम हो जाती हैं। एक छोटी रंगबिरंगी तितली उसके उदर पर बैठ जाती है। उसका उदर ठंडा होता जाता है। उसकी कोख ठंड से जम जाती है। वो हिल-डुल नहीं पाती है। वो अल्ली को बुलाने के लिए चीखती है लेकिन उसके मुँह से आवाज की जगह मांस का पिघला हुआ एक लोथड़ा निकल कर जमीन पर गिर जाता है। शायद वो उसकी जीभ थी। चमगादड़ उस लोथड़े को खा जाता है। चमगादड़ सभी रंग-बिरंगी तितलियों को खा जाता है।

अल्ली मदद के लिए बाहर निकली थी। आज उसका गाँव कल जैसा नहीं था। सब बदल गया था। उसे मदद के लिए कोई नहीं मिला। उसे जंगल का रास्ता नहीं मिला। वह वापस घर लौट जाना चाहती थी लेकिन उसे अपने गाँव जिसमें वो लगातार सत्रह वर्षों से रहती थी, अपने घर लौटने का रास्ता नहीं मिला। अल्ली का मस्तिष्क शून्य हो जाता है। लेकिन अल्ली के कदम अपने आप बढ़ने लगते हैं। गतिशील कदम शून्य मस्तिष्क का भार उठाए दिशाहीन बढ़ने लगते हैं। उसके पैरों का संपर्क उसके मस्तिष्क से टूट जाता है। लेकिन वह आगे बढ़ती जाती है। कई दशकों की यात्रा के बाद उसके पैर थम जाते हैं। उसके कदम जिस तरह स्वतः गतिवान हुए थे वैसे ही स्वतः गतिहीन हो जाते हैं। पैरों के गतिहीन होते ही उसका मस्तिष्क शून्य की दशकों की यात्रा से चेतन में आ जाता है। वह अपने आप को जंगल जाने वाले रास्ते पर पड़ने वाले बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे पाती है। पेड़ के नीचे वह अकेली नहीं थी। उसके साथ असंख्य सवाल थे। उसके साथ असंख्य स्मृतियाँ थीं। उसके साथ एक स्याह सन्नाटा था। वह मुर्दा आँखों से बरगद के पेड़ को देखती है। पेड़ का भी आज अलग था। उसका आज अलग था क्योंकि वो कल जैसा नहीं था। उसे पेड़ पर लाल, पीले, नारंगी, बैंगनी कई रंग के पत्ते नजर आते है। एक भी पत्ता हरे रंग का नहीं था। उसे लगता है की वह अकेली नहीं है। अल्ली जानती थी कि मेंगुर की बहू जोकि कुछ वर्ष पहले मर गई थी उसकी आत्मा भी उसके साथ खड़ी रंगबिरंगी पत्तियों को देख रही है। सिर्फ मेंगुर की बहू ही नहीं, न जाने कितने राज गोंड़ियों की आत्माएँ उसके साथ खड़ी हैं। जिस तरह अल्ली को लगा था कि वो कई आत्माओं से घिरी है उसी तरह उसे अपने आस पास आत्माओं में कमी प्रतीत होने लगी। आत्माएं एक-एक कर अपनी उपस्थिति को समाप्त करने लगती हैं। आत्माओं का इस तरह चले जाने का कारण अल्ली को अपनी ओर निहुरे-निहुरे आते परधान को देखकर समझ आ जाता है।

आते ही परधान अल्ली से पूछता है "तुम अभी यहीं हो"। अल्ली जवाब नहीं देती वो बरगद के रंगबिरंगे पत्तों को एकटक देखती रहती है। परधान दूसरा प्रश्न करता है "तुम गई नहीं?"। अल्ली अभी भी बरगद के रंगबिरंगे पत्तों को घूर रही थी। परधान बीड़ी जलाता हुआ धुँए का एक बड़ा कश छोड़ते हुए आह के साथ बड़बड़ाता है "ब्रह्म प्रेत सबको लीलता जा रहा है।" परधान वहीं जमीन पर उकड़ूँ बैठ जाता है। उसका बैठने का अंदाज ऐसा था मानो उसके ऊपर कोई अदृश्य भार है जिसे वो जमीन पर रख देना चाहता है। परधान अल्ली की ओर देखते हुए कहता है "सब खत्म होता जा रहा है। कुछ नहीं बचेगा। पूरा गाँव मरघट हो गया है।" अल्ली अभी भी बरगद के रंग-बिरंगे पत्तों को एकटक देखे जा रही थी। अल्ली अभी भी पूरी तरह चेतन में नहीं थी। उसे न तो परधान की सुध थी, ना ही अपने मृत भाई बहनों की और न ही अपनी। वह तो सिर्फ बरगद के रंग-बिरंगे पत्तों में अटकी हुई थी। एक ही अल्ली के अंदर इस समय दो अल्ली थीं। छोटी अल्ली शून्य में थी और बड़ी अल्ली बरगद के रंग-बिरंगे पत्तों को देख रही थी। बड़ी अल्ली बरगद की एक झूलती जड़ को छूती है। छोटी अल्ली उसके पीछे पहुँच जाती है। बड़ी अल्ली उड़कर रंग-बिरंगे पत्तों को सहलाने लगती है। छोटी अल्ली बरगद की जड़ का स्पर्श करती है। जड़ नीरस थी। जड़ निर्जीव थी। बड़ी अल्ली के सहलाने से एक जर्जर नीला पत्ता नीचे गिर जाता है। छोटी अल्ली उस पत्ते को उठा लेती है। बड़ी अल्ली एक डाली से कूदकर दूसरी डाली पर पहुँच जाती है। उसके कूदने से डाल हिल जाती है और एक लाल, एक पीला फिर एक नारंगी पत्ता नीचे गिर जाता है। छोटी अल्ली लाल पत्ते को उठाती है। पत्ता नीले कपड़े में बदल जाता है। छोटी अल्ली बड़ी हो जाती है और बड़ी अल्ली छोटी हो जाती है। पीला और नारंगी पत्ता भी जर्जर फटे पीले और नारंगी कपड़ों में बदल जाते हैं। छोटी अल्ली और बड़ी हो जाती है, बड़ी अल्ली और छोटी हो जाती है। परधान चिल्लाता है "तू झंडों को क्यों छू रही है। पाप लगेगा"। परधान की आवाज इस बार अल्ली सुन लेती है। दोनों अल्ली वापस एक अल्ली बन जाती हैं। परधान बरगद के पेड़ की ओर देखता हुआ बोलता है "बाबा भी सूख गए। कोई नहीं बच पाएगा इस ब्रह्म प्रेत से"। अल्ली चौंककर बरगद के पेड़ की ओर देखती है। वो घबरा जाती है। पेड़ सूख चुका था। उस पर एक भी पत्ता नहीं था। थे तो सिर्फ झंडे। लाल झंडे, नीले झंडे, पीले झंडे, रंग-बिरंगे झंडे जिन्हें राज गोंडियों ने अपनी मन्नतें पूरी करने के लिए लगाया था ।

कुछ ही पल में अल्ली पूरी तरह चेतन हो जाती है। परधान से कहने के लिए उसके पास बहुत कुछ था। वह अपने मृत भाई-बहन के बारे में बताने के लिए मुँह खोलती है लेकिन उसकी आवाज नहीं निकल पाती। सिर्फ साँय-साँय की ध्वनि ही बाहर आती है। उसके होंठ फटे थे। उनसे खून रिस रहा था। जब भी वह कुछ कहने के लिए मुँह खोलती उसके गले के अंदर उगे नागफनी के असंख्य काँटे चुभने लगते। अल्ली की आवाज साथ नहीं दे पा रही थी लेकिन उसकी आँखें सारा हाल बता रहीं थीं। परधान की आँखें अल्ली की आँखों को सांत्वना देती हैं। अल्ली की पीली-सूखी आँखें इस तरह सिकुड़ती है मानो वो अपने अंदर ही कहीं छिप जाना चाहतीं हों। उसकी आँखें कुछ देखना नहीं चाहती थीं। उसके दिमाग में चलने वाले अंतहीन स्याह परिदृश्य का चित्रण नहीं करना चाहती थीं। वह हमेशा के लिए दृष्टिहीन हो जाना चाहती थी। परधान अपने झोले से एक गंदी जर्जर मिनरल वाटर की बोतल निकलता है और अल्ली को मटमैला पानी पिलाता है। यह बोतल उसे जंगल में मिली थी जिसे ब्लैक होल के अंदर के शहरी जंगल में पिकनिक मनाने के दौरान पानी पीकर फेंक गए थे। परधान पानी के कुछ छीटें अल्ली के चेहरे पर भी डालता है। परधान अल्ली से पूछती है "चल...। तेरा बापू भी आ गया है।" अल्ली सूखी सिकुड़ी आँखों से परधान की ओर देखती है। अल्ली परधान से कहती है "मेरे भाई-बहन भी 'जिव' बन जाएँगें?" परधान जवाब देता है "तेरे भाई-बहन मुक्त हो गए हैं। हम सब मरे हुए ही तो हैं। क्या फरक पड़ता है इस पार हों या उस पार हो?" अल्ली कहती है "निसार कैसे होगा? बरगदहा बाबा भी तो सूख गए हैं।" परधान जवाब देता है "उनका निसार तो तभी हो गया था जिस दिन वो पैदा हुए थे।" अल्ली नजरें झुकाए, अपने मृत भाई-बहन की स्मृतियों में डूबी हुई परधान की ओर रिक्त आँखों से देखती है।

जिस तरह अल्ली शून्य में बरगदहा बाबा के पास आ गई थी उसी तरह चेतन में आते ही वापस अपने घर की तरफ लौटने लगती है। मरियल परधान उसके साथ था। दोनों आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे। अल्ली का शरीर चल रहा था, उसकी आत्मा मर चुकी थी। उसके कान गरम होकर लाल हो गए थे। उसकी आँखें बर्फ की तरह जम गई थीं। उसके कंधों पर इतना वजन था कि हर कदम पर वह जमीन पर धँसती जा रही थी। फिर भी वह घर की ओर बढ़ी जा रही थी। वह जिस रात से दिन की ओर भाग जाना चाहती थी वापस उसी रात की ओर बढ़ती जा रही थी। उसके जीवन में अब दिन था ही कहाँ? वहाँ तो रात ही थी। एक रात से अगली रात के बीच एक लंबी रात। इसी लंबी रात में वह घर पहुँचती है और रात के एक अंतहीन अँधेरे सपने में अपने मरे भाई-बहनों और मरणासन्न माता-पिता के पास पहुँच जाती है। वह अपने आप को समझाना चाहती है कि यह एक सपना है। यह सब मैं सपने में देख रही हूँ। काश सुबह हो जाए। सूरज की पहली किरण के साथ उजाला मुझे जगा दे और मैं इस काले सपने से मुक्त हो जाऊँ। अल्ली इस अँधेरे में डिबरी की लौ को पा जाना चाहती है। लेकिन वो जानती थी की न तो यह कोई सपना है और न ही कोई सुबह होने वाली है।

वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाती है। उसकी माँ रो-रो कर बेहोश हो जा रही थी। उसके पिता उसे ईश्वर की मूर्ति की तरह लग रहे थे जिनमें उसकी श्रद्धा तो थी लेकिन वह यह भी जानती थी कि वो सबसे लाचार भी हैं। अब तक गाँव के बचे-खुचे लोग आ जाते हैं और शवों को दफनाने के लिए ले जाने लगते हैं। उनके पीछे उसके पिता भी चल देते हैं। कुछ औरतें अल्ली की माँ को होश में लाने की कोशिश करने लगती हैं। जैसे ही उसकी माँ होश में आती है वह चीखती हुई बाहर भागने लगती है। औरतें उसको पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने लगती हैं। अल्ली झोपड़ी में अकेले रह जाती है। उसके अलावा वहाँ कोई नहीं था। वह अभी भी उसी कोने में बैठी थी। बाहर दोपहर का काला अँधेरा और चटक होने लगा था। अल्ली के शरीर और मन दोनों पर इतना अधिक बोझ था कि वह उसी कोने में बैठी रह जाती है। अभी भी उसे यकीन था कि वह सपना देख रही है जिसे और अधिक पुख्ता करने के लिए वह सो जाती है।

जैसे ही उसकी आँखें बंद होती हैं वैसे ही उसका शरीर हल्का होने लगता है। हल्का होते-होते उसका शरीर इतना हल्का हो जाता है कि वह मदार के बीज की तरह हवा में उड़ने लगती है। उड़ते हुए वह झोपड़ी से बाहर निकल आती है। बाहर आते ही उसे आम के बौर की सुगंध आती है। सुगंध का पीछा करते हुए जंगल की ओर जाने लगती है। जंगल के ऊपर बहुत बड़ा इंद्रधनुष निकला था। वह इंद्रधनुष के पास पहुँच जाती है। इंद्रधनुष के रंग हवा में फैलते हुए उसे रंगने लगते है। तभी रंग-बिरंगे बगुलों का झुंड उसके पास से गुजरता है। वह भी बगुलों का पीछा करने लगती है। बगुले खेतों के ऊपर से गुजरते हैं। वह ऊपर से देखती है कि तोतों के झुंड खेत में लगी मकई को खा रहे हैं। बगुले उससे काफी आगे निकल गए थे, वह फिर से उनके पीछे-पीछे उड़ने लगती है। वह बरगदहा बाबा के ऊपर देखती है। उसे वहाँ से कोयल की कू-कू सुनाई पड़ती है। वह आगे बढ़ जाती है। ऊपर से ही वह देखती है कि उसके भाई-बहन गाँव के बच्चों के साथ पेड़ पर से अमरूद तोड़ रहे हैं। वहीं से कुछ दूर उसकी माँ बकरी चारा रही है और उसके पिता वहीं खड़े बीड़ी पी रहे हैं। वह सोचती है कि उसका गाँव, उसके खेत और उसका जंगल कितना खूबसूरत है। वह आगे बढ़ जाती है। उसके आगे आते ही बगुलों का झुंड जंगल के अंदर उतरने लगता है। फलों-फूलों से लदे पेड़ों जिनसे आम, महुआ, नीम, खैर आदि की सुगंध आ रही थी उनके बीच से होते हुए जैसे ही वह आगे बढ़ती है उसे एक तालाब नजर आता है। बगुले एक-एक करके उसी तालाब के किनारे उतरने लगते हैं। वह सोचती है कि यह तालाब मैंने पहले तो नहीं देखा था। कई बार बकरियाँ चराने, फल, लाख आदि इकट्ठा करने आई थी लेकिन इस तालाब को मैं क्यों नहीं देख पाई? वह तालाब के किनारे पहुँचती है और अपना पैर किनारे की हरी दूब पर रखती है, दूब की गुदगुदी उसे महसूस नहीं होती है। तब तक बगुले तालाब के अंदर उतरने लगते हैं और उनके पीछे-पीछे वह भी तालाब में छलाँग लगा देती है - छपाक...


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हिंदी समय में वीरेंद्र प्रताप यादव की रचनाएँ