हिंदी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्म का जन्म
होली के पावन पर्व पर 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद में
हुआ था। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार
पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई थी, उनके बाबा बाबू बाँके बिहारी ने हर्षोल्लास
से इन्हें घर की देवी - महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। नौ वर्ष
की बाल्यावस्था में ही इनकी शादी 1916 में बरेली (नबाव गंज) के श्री स्वरूप
नारायण वर्मा से कर दिया। कुरीतियों को तोड़ने का दम रखने वाली महादेवी ने
अपने बाल विवाह को नकार दिया। आजीवन अविवाहित जीवन व्यतीत करते हुए उन्होंने
शब्दों से दोस्ती प्रगाढ़ की, विचारों की फसल बोयीं और अंतिम समय तक उसे
सीचतीं रहीं। 50 से अधिक वर्षों तक फैला उनका लेखनी संसार आज भी हिंदी साहित्य
की पूँजी मानी जाती है। कवि के रूप में उनकी छवि निजी जीवन के दुख-सुख को
कविता में व्यक्त करने वाली विरह-कातर स्त्री की बनी। समय के नैतिक आग्रहों ने
उसमें रहस्यवाद खोज लिया और काफ़ी समय तक वे आधुनिक युग की मीरा के रूप में
जानी-पहचानी गईं।
हिंदी साहित्य में महादेवी की गिनती हिंदी कविता के छायावादी युग के चार
प्रमुख स्तंभ-सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
के साथ की जाती है। महादेवी ने खड़ी बोली हिंदी को कोमलता और मधुरता से
संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को
दीपशिखा का गौरव दिया, व्यष्टिमूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित
किया। यही कारण है कि कवि निराला ने उन्हें 'हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती'
भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी।
वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के
भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अंधकारमय काली बदरी
को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने
स्नेह और श्रृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में
स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक
प्रभावित किया।
एक लंबे इतिहास की पैठ में महादेवी को जिस स्टीरियो में कैद कर दिया गया तथा
'मैं नीर भरी दुख की बदली' तक ही सीमित कर दिया गया, जबकि वे अपने विचारों में
स्त्री पराधीनता को, उनके मुक्ति के स्वप्न को चरम पर रखती हैं। उन्होंने
नारी मन को न केवल गहरे तक टटोल कर स्त्री विमर्श की शुरुआत की बल्कि आज से
करीब आठ दशक पहले कुरीतियों को नकारने का साहस भी दिखाया था। स्त्रियों की
स्थिति के बारे में कलम के जरिये पहली आवाज उन्होंने ही उठाई। उनसे पहले ऐसा
किसी ने नहीं किया और आज जो स्त्री विमर्श की बात होती है उसकी शुरुआत महादेवी
वर्मा ने ही की, दरअसल वे आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श की जननी हैं।
श्रृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस
साहस व दृढ़ता से आवाज उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की
है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के
कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। प्रयाग महिला
विद्यापीठ की संस्थापिका और फिर लंबे अर्से तक प्राचार्य पद पर रहीं। उनके
संपूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य
रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव
परिलक्षित होता है। आर्थिक स्थितियों में नारियों की भागीदारी पर महादेवी
लिखती हैं कि 'आर्थिक स्वतंत्रता के बिना नारी स्वतंत्र नहीं हो सकती। अपनी
वर्तमान स्थिति के विरूद्ध जब तक वह स्वयं विद्रोही तेवर के साथ खड़ी नहीं
होती तब तक उसका उद्धार संभव नहीं है।' इसके पीछे महादेवी वर्मा का मानना है
कि भारत में ही नहीं, संपूर्ण दुनिया में नारी आदिम काल से शोषित और उत्पीड़ित
रही हैं। उन्होंने नारी की वेदना, उसकी छटपटाहट, उसकी पराधीनता को शब्दबद्ध
करते हुए उसकी गरिमा को रेखांकित किया है। श्रृंखला की कड़ियाँ पढ़ने के बाद
ऐसा एहसास देता है कि यह हिंदी स्त्रीवादी लेखन का अप्रतिम उदाहरण है क्योंकि
श्रृंखला की सभी कड़ियाँ स्त्री गुलामी की कड़ियाँ हैं। इसलिए आलोचक प्रो.
मैनेजर पांडेय ने श्रृंखला की कड़ियाँ' का महत्व बताते हुए कहा है कि 'ऐसा
लगता है कि नारीवादी और अन्य लेखिकाएँ भी श्रृंखला की कड़ियाँ के महत्व से
पूरी तरह परिचित नहीं हैं। वे सिमोन द बुआ की किताब पढ़ती हैं लेकिन महादेवी
वर्मा की श्रृंखला की कड़ियाँ नहीं, क्योंकि वह हिंदी में लिखी गई है; फ्रेंच
या अँग्रेजी में नहीं।'
पेंटिंग की शौकीन महादेवी वर्मा ने अपनी जिन भावनाओं को 'दीपशिखा' और 'यामा'
में शब्दों में बाँधा था, उन्हीं पर उन्होंने रंगों से कागज पर चित्रकारी भी
की थी। हिंदी साहित्य की अमिट हस्ताक्षर महादेवी वर्मा की यामा को हिंदी
साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञान पीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 1956 में
भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1979 में साहित्य अकादमी की
फेलो बनने वाली वह पहली महिला हैं। 1988 में उन्हें पद्मविभूषण से भी सम्मानित
किया गया। कविता संग्रह (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, सप्तपर्णा,
प्रथम आयाम और अग्निरेखा), रेखाचित्र (अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ),
संस्मरण (पथ के साथी, मेरा परिवार, संस्मरण), निबंध (श्रृंखला की कड़ियाँ,
विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध, संकल्पिता, हिमालय,
क्षणदा) जैसी कालजयी कृति के रचयतिा महादेवी वर्मा का 11 सितंबर, 1987 को निधन
हो गया। उनके निधन से हमने एक ऐसे साहित्य विभूति को खो दिया जिन्होंने अपने
समय के सभी प्रासंगिक विषयों पर लेखनी चलायी। स्त्री जीवन की समस्याओं पर
महादेवी ने जिस गंभीर सरोकार से लिखा है, उसमें स्त्री-विमर्श के पैरोकारों और
प्रवक्ताओं को 21वीं सदी में साथ लिए चलने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। परिवार,
धर्म, परंपरा, समाज और राजसत्ता किसी के वर्चस्व से वे भयभीत नहीं हुईं। भारत
के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशमान हैं।