'उनको देखकर चेहरे पर आ जाती है जो रौनक,
वो समझते हैं 'ग़ालिब' बीमार का हाल अच्छा है...'इंकलाबी शायर
मिर्जा असदउल्ला खाँ 'ग़ालिब' का नाम उर्दू-फारसी जगत में बड़े अदब के साथ
लिया जाता है। अपनी हर नज़्म से सोते हुए जमीरों को जगा देने वाले ग़ालिब की
शायरी में जिंदगी की कशमकश, नाइंसाफी के खिलाफ विद्रोह, एक क्रांति, एक आग थी।
आज जब जुबान खोलते ही गद्दार हो जाने का डर हो, जब देश में शिक्षक दिवस पर
ऐलान हो जाए 'अपने बच्चों से कहो, मेरे मुताबिक सोचें', जब एक खास सोच से अलग
आप सोचें तो आपको मुल्क के बदनुमा दाग की तरह दिखाया जाए, जब क्या खाया के
सवाल पर किसी को कत्ल कर दिया जाए या फिर प्यार करने वाले के नाम पर फतवा
जारी कर दिया जाए तो फिर ग़ालिब याद आते हैं। एक ऐसा शायर जिसका एक-एक शेर
दबे-कुचलों की आवाज कई सालों से बना हुआ है। ग़ालिब ने अपनी गजलों और नज्मों
के जरिए हमेशा आमजन के दिलों में अपनी अलग जगह बनाई है।
उर्दू और फारसी अदब के महान शायर ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796 ई. को आगरा
में सैनिक परिवार में हुआ था। उनका लालन-पालन ननिहाल में हुआ। 5 वर्ष की आयु
में उन्होंने अपने पिता अब्दुला बेग खाँ और 9 वर्ष की आयु में चाचा
नसरुउल्ला बेग खाँ को खो दिया था। उनका जीवनयापन मूलतः अपने चाचा की
मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से चलता था। उन्होंने कभी कोई काम धंधा नहीं
किया। उनकी गुजर-बसर शाही अनुदान, दोस्तों की मदद और कर्ज से चलती थी।
13 वर्ष की आयु में विवाह के बाद ग़ालिब की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ती ही गईं।
आगरा, ननिहाल में इनके दिन आराम व रईसीयत से बीतते थे। दिल्ली में भी कुछ
दिनों तक रंग रहा। साढ़े सात सौ सलाना पेंशन नवाब अहमदबख्श खाँ के यहाँ से
मिलती थी, बाद में अहमदबख्श खाँ के पुत्रों के बीच पारिवारिक झगड़े के कारण
ग़ालिब को 1831 ई. में पेंशन देना बंद कर दिया गया। एक बार कर्ज के बोझ ने
ग़ालिब को अपने घर में बंद रहने को मजबूर कर दिया, एक दीवानी मुकदमे में उनके
खिलाफ पाँच हजार रुपये की डिक्री हो गई। क्योंकि उस वक्त कर्जदार व्यक्ति
यदि प्रतिष्ठित होता, तो घर के अंदर से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। ग़ालिब
की आर्थिक दशा को देखते हुए ऋणदाताओं ने भी अपने रुपये माँगने शुरू कर दिये।
तकाजों से इनकी नाक में दम हो गया। उसी समय ग़ालिब के छोटे भाई मिर्जा यूसुफ
28 वर्ष की आयु में पागल हो गए। चारों ओर से कठिनाइयाँ एवं मुसीबतें एक साथ उठ
खड़ी हुईं और जिंदगी दूभर हो गई।
ग़ालिब आर्थिक कठिनाईयों में भी कभी अपनी शानो-शौकत में कमी नहीं आने देते थे।
एक तरफ आर्थिक कठिनाइयाँ और अन्य विपत्तियाँ, दूसरी तरफ गरीबी में भी अमीरी
शान। ससुराल के कारण मिर्जा ग़ालिब का परिचय दिल्ली के प्रतिष्ठित समाज में
हो गया था। बड़ों-बड़ों से उनका मिलना-जुलना और मित्रता थी। दिल्ली के
रईसजादों के साथ शराब और जुअेबाजी की लत लग गई। उन्हें शुरू से ही शतरंज और
चौसर खेलने की आदत पड़ गई थी। अँग्रेजी कानून के मुताबिक जुआ जुर्म था पर
रईसों के दीवानखानों पर पुलिस उतना ध्यान नहीं देती थी। ग़ालिब का जान-पहचान
आला अफसरों से थी, इसलिए कानूनी कार्रवाई की परवाह उन्हें नहीं रहती थी। सन्
1845 में एक नया कोतवाल फैजुलहसन आया, जिसे काव्य से कोई अनुराग नहीं था और
वह बड़ा ही सख्त आदमी था। मित्रों ने अगाह किया कि कभी भी छापा पड़ सकता है
पर वे मानने वाले कहाँ थे। कोतवाल ने जुआ के अड्डों पर छापा मारा और लोग
पिछवाड़े से भाग निकले पर ग़ालिब पकड़ लिए गए। उनकी गिरफ्तारी से पूर्व जौहरी
पकड़े गए, वे रुपया देकर बच गए। ग़ालिब के पास रुपया कहाँ था। हाँ मित्र थे।
उन्होंने बादशाह तक से सिफारिश कराई, लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों
को ग़ालिब की रिहाई की तरफ से निराशा हो गई, तब न केवल यार दोस्तों और
उठने-बैठने वालों ने अपितु अँग्रेजों ने भी एकदम ऑंखें फेर लीं। वे इस बात पर
लज्जा का अनुभव करने लगे कि कैसे-कैसे मित्र हैं जो वक्त पड़ने पर साथ नहीं
दे सके। हालाँकि उनके एक मित्र नवाब मुस्तफा खाँ 'शोफ्ता' ने हर कदम पर इनका
साथ दिया। जुअे के मुकदमे में मिर्जा को सौ रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने
पर चार मास की कैद हुई थी और यह चंद दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए
थे। ग़ालिब सँभाले नहीं। वे दोबारा 1847 में जुआखाना चलाने के जुर्म में
गिरफ्तार हुए। मुकदमा कुँवर वजीर अलीखाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। छह
माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दंड मिला। जुर्माना न देने पर छह मास
और। इस सजा और कैद से ग़ालिब के अहम को गहरी चोट पहुँची, जिसका उल्लेख मौलाना
हाली ने अपने खत 'यादगारे ग़ालिब' में किया है। तीन मास बाद ही दिल्ली के
सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफारिश पर मिर्जा छोड़ दिए गए। मानसिक उलझनों,
शारीरिक कष्टों और आर्थिक चिंताओं के कारण जीवन के अंतिम वर्षों में वे
प्रायः मृत्यु की आकांक्षा किया करते थे। हर साल अपनी मृत्यु की तिथि
निश्चित करते। मृत्यु के पूर्व उन्हें बेहोशी के दोरे आने लगे थे। बेहोश
होने बाद ठीक हो जाते पर 14 फरवरी के दिन बेहोश होने के उपरांत हकीम महमूद खाँ
और हकीम अहसन उल्ला खाँ को खबर दी गई, आकर जाँच की और बतलाया कि दिमाग पर
फालिज गिरा है। बहुत यत्न किया पर सफलता हाथ नहीं लगी। उन्हें फिर होश नहीं
आया और अगले दिन 15 फरवरी 1869 ई. को उनकी मृत्यु हो गई। एक ऐसी प्रतिभा का
अंत हो गया, जिसने इस देश में फारसी काव्य को एक नए मुकाम तक पहुँचाया और
उर्दू गद्य-पद्य को परंपरागत श्रृंखलाओं से मुक्त कर एक नए साँचे में ढ़ाला।
ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी में गुलो-बुलबुल, हुस्नो-इश्क आदि के रंग कुछ
ज्यादा ही हुआ करते थे। यह ग़ालिब को पसंद नहीं था। इसे वे गजल की तंग गली
कहते थे, जिससे वे अपने शेरों के साथ गुजर नहीं सकते थे। उन्होंने ऐसी शायरी
करने वाले उस्तादों को अपने शेरों-शायरी में खूब लताड़ा। यही वजह है कि इन
उस्तादों द्वारा उनका मजाक उड़ाया जाता था, जिसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं
की। दिलचस्प पहलू है कि ग़ालिब के शायरी की आलोचना उनसे खिसियाये या घबराए
उस्तादों ने जितनी नहीं की, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने स्वयं ही की।
तात्पर्य साफ है कि वे अपनी शायरी के कठोर आलोचक भी थे। तभी तो उन्होंने, जब
दीवान-ए-ग़ालिब का संकलन तैयार करना शुरू किया तो असंख्य शेरों में से दो
हजार शेरों को बेदर्दी से निरस्त कर दिया। उनकी शायरी में डूबना आज भी उतना
आनंदप्रद है, जितना इसके रचयिता के जमाने में।
शायरी की शुरूआत
- ग़ालिब की प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बहुत स्पष्ट नहीं कहा जा सकता
लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होंने 7-8 वर्ष की अवस्था में उर्दू एवं 11-12 की
अवस्था में फारसी में पद्य और गद्य लिखना शुरू किया। उन्होंने अपनी रचनाओं
में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण
इन्हें उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनके दो पत्र संग्रह
'उर्दू-ए-हिंदी' और 'उर्दू-ए-मुअल्ला' ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना
आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता है। बचपन से ही इन्हें
शेरो-शायरी की लत लगी। इश्क ने उसे उभारा। 10 वर्ष की आयु में जब ग़ालिब
मोहम्मद मोअज्जम के मकतबे में पढ़ते थे तभी से इन्होंने शेर कहने लगे। शुरू
में बेदिल और शैकत के रंग में शेर कहते थे। 25 वर्ष की आयु में दो हजार शेरों
का एक 'दीवान' तैयार हो गया। इसमें स्त्रैण भावनाएँ, हुस्न के जलवे,
पिटे-पिटाए मजमून (विषय) थे। एक बार उनके हितैषी इनके कुछ शेर मीर तकी 'मीर'
को सुनाए। सुनकर मीर का मन प्रसन्न हुआ और बोले कि, अगर इस लड़के को कोई
काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको शिष्यत्व में रखकर सही रास्ता दिखा
दिया तो ग़ालिब लाजवाब शायर बन जाएगा। बर्ना निरर्थक बकवास करने वाला बन
जाएगा। मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई और वे शायरी के उस्ताद के रूप में मशहूर
हो गए। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना
जाता है। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में जिंदगी गुजारने वाले ग़ालिब को उनकी
उर्दू गजलों के लिए याद किया जाता है। उन्होंने अपने बारे में स्वयं लिखा था
कि दुनिया में बहुत से शायर-कवि जरूर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है -
'हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयाँ और'
उनकी खूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में
प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका
है। उनकी शायरी में इंसानी जिंदगी की हर एहसास बहुत शिद्दत के साथ दिखाई पड़ती
है। उनकी रचनाओं में एक संवेदना, रसशीलता तो है पर उनकी अपेक्षा उनमें एक
छटपटाहट, बेचैनी, जवानी के सपनों की छाया, एक तड़प, एक चाहत और एक आशिकाना
अंदाज परिलक्षित होता है। उन्होंने अधिकतर फारसी और उर्दू अदब में पारंपरिक
भक्ति और सौंदर्य रस पर ग़जलें लिखीं साथ ही उन्होंने पारंपरिक गीत-काव्य की
रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गज़ल के रूप में
जाना जाता है।
प्रोफेसरी से इनकार
- ग़ालिब की जिंदगी कर्ज में डूबी थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन
पहले से ही दुखद था। इन निराशा की घड़ियों में भी ग़ालिब के हौसले टूटे नहीं
थे। 1842 के आस-पास मिस्टर टामसन भारत सरकार के सेक्रेटरी थे, जो ग़ालिब के
हितैषियों में से एक थे। उसी दौरान टामसन दिल्ली कॉलेज के प्रोफेसरों के
चुनाव के लिए दिल्ली आए थे। अरबी भाषा में मिस्टर ममलूक अली एक अच्छे
शिक्षक थे पर फारसी में योग्य अध्यापक की माँग थी। टामसन ने इच्छा प्रकट की
कि अरबी की तरह ही फारसी में योग्य अध्यापक रखे जाएँ। इस मुआइने के समय
सदरूस्सदूर मुफ्ती सदरुद्दीन खाँ 'आजुर्दा' भी थे। उन्होंने कहा कि दिल्ली
में फारसी के लिए तीन व्यक्ति उस्ताद माने जाते हैं - मिर्जा असदउल्ला खाँ
'ग़ालिब', हकीम मोमिन खाँ 'मोमिन' और शेख इमामबख्श 'सहबाई'। टामसन ने
प्रोफेसरी के लिए सबसे पहले मिर्जा ग़ालिब को बुलवाया। अगले दिन ग़ालिब पालकी
पर सवार होकर गए और पालकी से उतरकर दरवाजे के पास इस प्रतीक्षा में रुके रहे
कि कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिए आएँगे। जब देर हो गई, साहब ने
जमादार से देर से आने का कारण पूछा। जमादार ने आकर ग़ालिब से दरियाफ्त किया।
ग़ालिब ने कह दिया कि चूँकि साहब मेरा स्वागत करने बाहर नहीं आए इसीलिए मैं
अंदर नहीं आया। यह बात सुनकर टामसन स्वयं बाहर आकर बोले - ग़ालिब जी, जब आप
बहैसियत कवि के रूप में तशरीफ लाएँगे तब आपका स्वागत-सत्कार किया जाएगा,
लेकिन इस वक्त आप नौकरी के लिए आए हैं, इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं
आया।
ग़ालिब ने टामसन को कहा कि मैं तो सरकारी नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि
खानदानी प्रतिष्ठा बढ़े, न कि पहले से जो है, उसमें भी कमी आ जाए और
बुजुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूँ। टामसन ने नियमों के कारण विवशता प्रकट
की तो ग़ालिब ने कहा, ऐसी मुलाजिमत को मेरा दूर से ही प्रणाम और कहारों से कहा
कि वापस चलो।
बीबी पास
- एक बार ग़ालिब के घर कोई मिलने आया। ग़ालिब अपने शयन कक्ष में पत्नी के साथ
बैठे थे। आगंतुक ने नौकर को ग़ालिब से मिलने के लिए अपना 'विजिटिंग-कार्ड'
दिया और उसमें फाउंटेन पेन से अपने नाम के आगे बी.ए. पास जोड़ दिया, क्योंकि
उसने कार्ड छपवाने के बाद बी.ए. पास किया था। नौकर आगंतुक के आग्रह पर ग़ालिब
से इजाज़त लेकर अंदर गया और 'विजिटिंग-कार्ड' दिखाया। नौकर बाहर आकर आगंतुक को
उनका कार्ड वापस दे दिया। कार्ड के पीछे ग़ालिब ने एक शेर लिख दिया था : 'शेख
जी घर से न निकले और यह कहला दिया - आप बी.ए. पास हैं तो मैं भी बीबी पास
हूँ।'
पुल्लिंग या स्त्रीलिंग
-
ग़ालिब स्त्रीलिंग और पुल्लिंग बताने में कन्फ्यूज कर जाते थे।
दिल्ली में 'रथ' को कुछ लोग स्त्रीलिंग और कुछ लोग पुल्लिंग बताते थे। एक
सज्जन ने ग़ालिब से पूछा कि 'हज़रत रथ मोअन्नस (स्त्रीलिंग) है या मुज़क्कर
(पुल्लिंग) है?' मिर्ज़ा ने उत्तर दिया - 'भैया, जब रथ में औरतें बैठी हो तो
उसे मोअन्नस कहो और जब मर्द बैठे हों तो मुज़क्कर।'
आधा मुसलमान
- ग़ालिब अपनी हाजिरजवाबी और विनोदवृत्ति के कारण जहाँ कई बार कठिनाइयों में
फँस जाते थे वहीं कई बार बड़ी-बड़ी मुसीबतों से भी बच निकलते थे। गदर के
दिनों की बात है। उस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अँग्रेजों ने दिल्ली
विजय के उपरांत इन्हें खूब सताया। एक बार जब गोरे ग़ालिब को गिरफ्तार करके ले
गए, तो अँग्रेज कर्नल ब्राउन ने इनकी खूबसूरत सज-धज को देखकर पूछा - वेल टुम
मुसलमान? मिर्जा ने जवाब दिया - आधा। कर्नल ने फिर पूछा - इसका क्या मटलब है?
ग़ालिब बोले - मतलब साफ है, शराब पीता हूँ, सूअर नहीं खाता। कर्नल सुनकर हँस
पड़े और उन्हें लौटने की इजाजत दे दी।
वैवाहिक जीवन
- किशोरावस्था में ही 13 वर्ष की आयु में ग़ालिब का विवाह नवाबी परिवार
जमींदार नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हुआ। विवाहोपरांत वह दिल्ली
आ गए जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती। इन्हें सात बच्चे हुए पर एक भी जीवित नहीं
रहा। 'आरिफ' (गोद लिया हुआ बेटा) को बेटे की तरह पाला, वह भी मर गया।
शाही खिताब
- मिर्जा ग़ालिब मुग़ल सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफ़र द्वितीय के
राजदरबारी कवि थे। 1850 में शहंशाह ने उन्हें 'दबीर-उल-मुल्क' और
'नज्म-उद-दौला' और 'मिर्जा नोशा' का खिताब दिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र
राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्जा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया।
ग़ालिब की चुनींदा शायरी -
दिल-ए-नादां, तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
इश्क ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं, तो क्या होता?
उनको देखा नहीं, देखने की ख्वाहिश अभी जिंदा है,
उनकी हसरत में बाकी एक फरमाईश अभी जिंदा है,
खुद को तराश कर आजमाया तो बहुत मगर,
फिर भी जरा सी खुद की आज़माइश अभी जिंदा है...