भारतीय संस्कृति अंतर्विरोधों का विचित्र समन्वय है। यहाँ एक ओर तो किसी अछूत को पूजा, उपासना और पठन-पाठन का अधिकार नहीं दिया जाता था, वहीं दूसरी ओर यदि कोई अछूत सिद्धि प्राप्त कर ले तो उसे उदारता से स्वीकार भी कर लिया जाता रहा। मध्यकालीन भारत में संत कवि रैदास इन्हीं अंतर्विरोधों का एक सशक्त उदाहरण हैं। क्रांतिकारी, समाज सुधारक, दार्शनिक, भक्त और कवि जैसी अनेक विशेषताओं से विभूषित उनके व्यक्तित्व को अब तक एक जाति विशेष तक सीमित कर उनकी परिधि को छोटा ही किया गया। जबकि मध्यकालीन संत कवियों में वे कबीर के बाद सबसे लोकप्रिय संत कवि थे। जिन्हें जयदेव, नामदेव और गुरुनानक जैसे महान संतों की अविरल परंपरा की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाना जाता है। आश्चर्य की बात है कि अभी तक भी संत रैदास का जीवनवृत्त विवादास्पद है। उनके समय पर विवाद हो सकता है, किंतु हिंदी साहित्य में तो उनके नाम पर भी विवाद है। डॉ. संगमलाल पांडेय के अनुसार - ''रविदास के कुल बारह नाम मिलते हैं।''1 यथा - ''रैदास, रयदास, रुइदास, रुईदास, रयिदास, रोहीदास, रोहीतास, रहदास, रामदास, रमादास, रविदास और हरिदास।''2 लेकिन सामान्य रूप से प्रचलित नाम रैदास और रविदास ही है।
हिंदी साहित्य में अभी तक रैदास का समय भी विवाद का विषय है। ''आचार्य रामचंद्र शुक्ल तो संभवतः आधारभूत सामग्री के अभाव में रैदास के जन्म एवं निर्वाण का कोई भी संवत तय नहीं करते हैं।''3 सबसे प्रथम ''आचार्य परशुराम चतुर्वेदी अनुमान के आधार पर इनका जीवनकाल विक्रम की 15वीं से 16वीं शताब्दी तक पहुँचता हुआ मानते हैं।''4 डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि - ''ये रामानंद के शिष्य और कबीर के समकालीन थे। अतः इनका आविर्भावकाल कबीर के समय में ही मानना चाहिए, जो संवत 1445 से सं. 1575 है।''5 ऐसा ही अनुमान ''डॉ. राजेंद्र कुमार का भी है।''6 डॉ. गणपति चंद्र गुप्त भी ''रैदास को कबीर का समकालीन मानते हुए उनका समय सं. 1455 से सं. 1575 ही तय करते हैं।''7 रैदास पर विवेचनात्मक पुस्तकें लिखने वालों में भी मतवैभिन्य देखने को मिलता है। श्री रामानंद शास्त्री एवं वीरेंद्र पांडेय ने सर्वप्रथम रैदास संप्रदाय में प्रचलित विश्वास को आधार मानते हुए लिखा है कि - ''संत रविदास का नाम जैसा कि उपलब्ध साहित्य हमें बताता है, परंपरा के अनुसार रविवार के दिन उत्पन्न होने के कारण रखा गया। आज भी अपने देश में यह परंपरा प्रचलित है। अतः हमें इस तथ्य को निःसंकोच स्वीकार कर लेना चाहिए कि संत रविदास रविवार के दिन उत्पन्न हुए थे। जहाँ तक तिथि का संबंध है, सभी रविदासी गद्दियाँ सदियों से माघ पूर्णिमा को ही संत रविदास की जन्म तिथि मानती चली आई हैं। अतः हमें इसे ही मान्यता देनी चाहिए। यदि यह जन्मतिथि और जन्म दिन सही है तो इसके आधार पर संत रविदास का निश्चित जन्म संवत भी ढूँढ़ा जा सकता है। संवत 1441 वि. से लेकर संवत 1454-55 वि. तक जिस वर्ष भी माघ की पूर्णिमा रविवार को पड़ता है, वही रविदास का निश्चित जन्म संवत माना जाना चाहिए।''8 इसी कथन को आधार मानते हुए आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद ने पंचांग के अनुसार गणना कर लिखा कि - ''हमने पंचांग के अनुसार संवत 1441 से लेकर संवत 1455 तक शोध करके देखा है। रविवार केवल संवत 1443 की माघ पूर्णिमा को पड़ता है। परंतु हम यह जन्म संवत इसलिए मानने को तैयार नहीं है कि उस दिन फाल्गुन का प्रथम प्रविष्ठा न होकर माघ का प्रविष्ठा पड़ता है और दूसरे इस संवत को न तो किसी अन्य विद्वान ने स्वीकार किया और न ही पुरातन रविदासिया संतों ने ही।''9 आजाद साहब ने अपनी एक अन्य पुस्तक में लिखा है कि - ''संत करमदास जी ने गुरु रविदास जी का जन्म, माघ पूर्णिमा संवत 1433 वि. माना है। गणना के अनुसार इस दिन रविवार ही पड़ता है और अन्य किसी भी तिथि को जिन्हें रविदास जी के जन्म दिन से जोड़ा जाता है, रविवार को नहीं पड़ता।''10
गुरु रविदास जी के जन्मतिथि के विषय में रविदास संप्रदाय में निम्नलिखित दोहा शताब्दियों से प्रचलित है -
चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी परदास।
दुखियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रैदास।।
गुरु रविदास जी का निर्वाण संवत 1584 वि. में हुआ माना जाता है। जिसका आधार श्री अनंतदास वैष्णव द्वारा रचित 'रैदास जी की परचई' (रचनाकाल सं. 1645 वि.) का निम्नलिखित दोहा है -
''पंद्रह सै चउ असी, चीतौरे भई भीर।
जर्जर देह कंचन भई, रवि-रवि मिल्यौ शरीर।।''11
संत गुरु रविदास के निर्वाण के संबंध में एक दोहा और प्रचलित है -
''पंद्रहसै चौअसी करि, कृष्ण चौदस चैतमास।
गंभीरी पे ब्रह्मलीन भये स्री रविदास।
पूरम ब्रह्मन सूँ जा मिले ब्रह्मरूप रविदास।
नामदान का गिआन देई कीन्हों जग उजिआस।।''12
रैदास का जन्म किस स्थान पर हुआ यह भी पर्याप्त विवाद का विषय रहा है। इस विवाद की ओर संकेत करते हुए डॉ. पद्म गुरुचरन सिंह लिखते हैं - ''संत रविदास के जन्म स्थान के संबंध में रविदास संप्रदाय के अनुयायियों में मतभेद है। कोई इनका जन्म स्थान पश्चिमी उत्तर प्रदेश बतलाता है तो कोई गुजरात और राजस्थान। इसी तरह कुछ लोगों की धारणा है कि संत जी का जन्म स्थान राजस्थान में मेवाड़ का कोई कस्बा रहा होगा। कुछ लोग इन्हें राजस्थान में मांडवगढ़ का निवासी सिद्ध करते हैं।''13 इस विवाद का कारण हमें 'रैदास रामायण' की निम्न पंक्तियाँ प्रतीत होती है -
काशी ढिग माडुर स्थाना, शुद वरन करत गुजराना।
माडुर नगर लीन अवतारा, रविदास शुभ नाम हमारा।।
इन पंक्तियों में मांडुर नामक नगर को लोगों ने राजस्थान में स्थिति इसलिए मान लिया क्योंकि रैदास ने अपना देह त्याग राजस्थान में किया था। और वह काशी (वाराणसी) के पास वाले अंश को नजरअंदाज कर गए।
डॉ. काशीनाथ उपाध्याय रैदास का जन्म स्थान सीर गोवर्धनपुर को भी मानने की बात कहते हैं। वे लिखते हैं कि - ''आदि धर्म मिशन मतावलंबी श्री बंताराम होरा की नई खोज के आधार पर कुछ आधुनिक विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि रविदास जी का जन्म बनारस के पास की एक छोटी सी बस्ती सीर गोवर्धनपुर में हुआ था।''14 उन्होंने श्री धेरा द्वारा 1964 ई. में इसी स्थान से किसी प्राचीन पांडुलिपि के प्राप्त करने का भी उल्लेख किया है। इस विवरण का आधार उन्होंने श्री वीरेंद सेठी द्वारा लिखित - 'मीरा प्रेम दीवानी' पुस्तक को माना है, इसमें यह उल्लेख है - ''हाल ही में कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि रैदास का जन्म सीर गोवर्धनपुर गाँव है जो बनारस से लगा हुआ है। 1971 में रविदास का स्मारक मंदिर बनाया गया, जिसका उद्घाटन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उप कुलपति ने किया।''15 मेरे विचार से यह वहीं मंदिर है जो बनारस में बनाया गया। यह खोज भी रैदास के जन्म स्थान को बनारस के पास ही होने को प्रमाणित करती है। रैदास का जन्म काशी के पास ही हुआ इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं अपनी वाणी में किया है -
मेरी जाति कुटवांढला ढोर ढोवन्ता।
नितहि बनारसी आस-पासा।16
जाके कुटुंब के ढेढ सभ ढोर ढोढ़त।
फिरहि बनारसी आस-पासा।।
आचार सहित विप्र कराहिं डंडउति।
तिन तैन रविदास दासान दासा।।17
रैदास के जन्म स्थान के बाद अब हम जाति की बात करते हैं। अंततः और वाह्य साक्ष्यों के आधार पर यह निश्चित हो चुका है कि रैदास जाति से चर्मकार थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार स्वयं को चमार घोषित किया है। कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं -
नागर जनाँ मेरी जाति विखियात चमार।
रिदै राम गोविंद गुन सार।।18
कह रैदास खलास चमारा।
जो सहरू सो मीतु हमारा।।19
मेरी जाति कमीनी पॉति कमीनी ओच्छा जनमु हमारा।
तुम सरना गति राजा रामचंद्र कहि रैदास चमार।।20
चमार जाति उत्तर प्रदेश ही नहीं संपूर्ण भारत में अछूत समझी जाती थी, जिसमें उत्पन्न व्यक्ति को दूसरी उच्च जातियों में उत्पन्न व्यक्ति, छूना तक पाप समझते थे। इसका उल्लेख रैदास ने अपनी साखी में इस प्रकार किया है -
''रैदास तू काँवचि फली, तुझहुँ न छिवे कोइ।''21
इस घृणा का कारण शायद यह हो कि इस जाति के लोग मृत पशुओं को ढोने, उनकी खाल निकालकर जूता बनाने का काम ही नहीं करते थे, बल्कि मृत पशुओं का मांस भी खाते थे। अपनी वाणी में रैदास ने अपने परिवार के लोगों का बनारस के आसपास मृत पशुओं को ढोने का उल्लेख किया है -
जाकै कुटुंब के ढेढ़ सभ ढोर ढोवंत।
फिरहि बनारसी आस-पासा।।22
''मेरी जाति कुटवाँढला ढोर ढुवन्ता
नितहि बनारसी आस-पासा।।23
वह रैदास जिसने अपनी वाणी में बार-बार 'कह रैदास चमार' और 'कह रैदास खलास चमारा' कहकर स्वयं को चमार घोषित किया है। इसी रैदास की प्रसिद्धि, सिद्धि और लोकप्रियता को देखकर कुछ लोगों ने उन्हें पूर्व जन्म का ब्राह्मण माना है, जिसने ब्राह्मण होकर मांस खाया था इसलिए उन्हें इस जन्म में चमार के घर जन्म लेना पड़ा। उन्होंने लिखा है -
'पूरब जन्म विप्र ही होता।
मांस न छाड़यो निस दिन श्रोता।
तिहि अपराधि नीच कुल दीना।
पाछला जनम चीन्ही तिन लीना।।24
रैदास के वंश संबंधी अधिकतम जानकारी जो अब तक विद्वानों ने बड़े परिश्रम से प्राप्त की है, उसके अनुसार भी पक्के तौर पर रैदास के वंश को निश्चित करना संभव प्रतीत नहीं होता। क्योंकि रैदास संप्रदाय में प्रचलित जनश्रुतियाँ कुछ और है और हमारे पुरातन साहित्य में उपलब्ध उल्लेख कुछ और है। इस संपूर्ण सामग्री का विवेचन निम्न प्रकार किया जा रहा है -
''भविष्य पुराण'' के अनुसार - ''मानदासस्य तनयो, रैदास इति विश्रुतः।।''25
रैदास के पिता का नाम मानदास दिया गया है। लेकिन 'रैदास की बानी' के संपादक ने उनके पिता का नाम 'रग्घू' दिया है। श्रीमती कला शुक्ला ने भी इसी नाम का उल्लेख किया है। बाद के सभी विद्वानों ने रैदास के पिता का नाम राघवदास या रग्घू ही दिया है।
उनकी माता का नाम 'रैदास की बानी' के संपादक ने 'घुरबिनिया' दिया है। श्रीमती कला शुक्ला ने भी यही नाम माना है। लेकिन संप्रदाय में प्रचलित रैदास की माँ का नाम 'कर्मा' या 'कर्माबाई' है। बाद के विद्वानों ने भी इसी नाम को मान्यता दी है। कुछ विद्वान और रविदासिया धर्म के प्रर्वतकों ने रैदास की माता का नाम 'कलसी देवी' तथा पिता का नाम 'संतोखदास' दिया है। रैदास की एक बहिन के होने का उल्लेख संत कर्मदास ने 'रैदास महिमा' में किया है। जिसका नाम 'रविदासिनी' था। इसके अतिरिक्त इसका उल्लेख और कहीं नहीं मिलता।
रैदास की पत्नी का नाम 'लोना' था। रैदास संप्रदाय में भी यही नाम प्रचलित है और संबंधित साहित्य में भी यही मिलता है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि 'रविदास पुराण' के रचयिता परमानंद स्वामी ने लिखा है कि इनके एक पुत्र भी थे। जिनका नाम 'विजयदास' था। इसके अतिरिक्त इनके पुत्र होने का उल्लेख हमें और कहीं नहीं मिलता है। स्वामी रामानंद शास्त्री ने 'रैदास के पूर्वजों की तालिका'26 इस प्रकार दी है -
वंश
हरिनंद चतरकौर
पुत्र
राहू या राउ
पत्नी
करमा
पुत्र
रैदास
हमारे विचार से रैदास की वंशावली इस प्रकार हो सकती है -
वंश
हरिनंद चतरकौर
पुत्र
राघवदास या रघु
पत्नी
करमाबाई
संतान
पुत्र पुत्री
रविदास रविदासिनी
पत्नी
लोना
पुत्र
विजयदास
रविदास जी की शिक्षा की बात करें तो उस समय जब कि 'स्त्री शुद्रों न धियताम' के सूत्र का बड़ी मुस्तैदी से पालन किया जाता था, ऐसी स्थिति में किसी शुद्र की औपचारिक शिक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः अपने समकालीन और गुरुभाई कबीर की भाँति ''कागद मसि छुऔ नहीं कलम गहौ नहिं हाथ''। जैसी स्थिति रैदास की भी थी। संत कर्मदास ने इस संबंध में ठीक ही लिखा है -
''पंडित गुनी कोई ढिग न बिठाये।
वेद शास्त्र किन्हुँ न पढ़ाये।।
अंतरमुखी जाउ कीन्हों ध्याना।
चारिउ जुगनि का पायो गियाना।।
कागद कलम मसि कछु नाही जाना।
सतगुरु दीन्हो पूरन गियाना।।''27
अधिकांश संतों की भाँति रैदास भी बहुश्रुत व्यक्ति थे। उन्होने अपना संपूर्ण ज्ञान सत्संग, भ्रमण और मनन द्वारा अर्जित किया था। जैसा कि डॉ. पद्म गुरुचरण सिंह ने भी लिखा है कि - ''इन्हें आध्यात्मिक ज्ञान सत्संग और स्वाध्ययन और व्यक्तिगत अनुभव द्वारा प्राप्त हुआ था।'' हमारा विचार है कि किसी भी युग की शिक्षा का जो उद्देश्य है वह रैदास के जीवन में पूर्णरूपेण फलीभूत हुआ था। उन्होंने 'रहने और कहने की कला' को पूरी तरह से जान लिया था। लेकिन यह सत्य है कि पाठशाला न जा पाने की विवशता में ही उनकी वाणी से यह पद मुखरित हुआ होगा। कहते हैं कि 'हारे को हरिनाम' ही अंतिम शरण है -
''चलि मन हरि चटसाल पढ़ाऊँ।
गुरु की साटि ज्ञान का अक्षर,
बिसरत सहज समाधि लगाऊँ।।
प्रेम की पाटी, सुरति कर लेखनि,
दर्द-मझ लिखि आँक दिखाऊँ।।''28
और उन्होंने 'प्रहलाद चरित' में तो स्पष्ट लिखा है कि मैने 'राम के नाम' के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ा है -
'हौ पढयौ राम को नाम, ऑन हिरदै नहिं आनौ।
अवर हुँ कछु न जानों, राम नाम हिरदै नहिं छाँड़ो।।
इससे स्पष्ट है कि रैदास ने राम नाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ा, तो भी उन्हें वेद, गीता, उपनिषद आदि का अच्छा ज्ञान था। निष्कर्ष के रूप में चौधरी इंद्रराज सिंह के शब्द ही पर्याप्त है। वे लिखते हैं - ''यह सत्य है कि तत्कालीन व्यवस्था के कारण और निम्न समझी जाने वाली चमार जाति का होने के कारण उन्हें किसी पाठशाला में बैठकर विधिवत वेद, शास्त्रादि या गुरुमुख से अध्ययन करने का सुयोग मिलना संभव नहीं था, परंतु उनकी वाणी के माध्यम से यह पता चलता है कि उन्हें वेद, उपनिषद, गीता, भागवत, पुराण, आदि विषयों का सार और उनकी विचारधारा का पूर्ण ज्ञान था। यहाँ हम भूल जाते हैं कि वेद या ज्ञान सुनने और मनन करने से प्राप्त होता है। ऋषियों को यह उपलब्धि श्रवण और मनन इन्हीं दो श्रोतों के द्वारा हुई थी। इन संतों को भी ज्ञानोपलब्धि सत्संग के द्वारा हुई थी और वह लगभग मौलिक थी। रैदास ने कृत्रिम अध्ययन को छोड़कर प्रभु की पाठशाला में पढ़ने का प्रयास किया। पुस्तक ज्ञान का बोध न होने के कारण ही इन्हें आत्म ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचने का अवसर मिला था।''29
अब हम संत रविदास के सामाजिक चेतना या सामाजिक विचार की बात करें तो सामान्यतः रैदास का समय 15वीं शताब्दी अनुमानित किया जाता है। यह समय ऐसा था, जब भारत पर मुसलमानों के अत्याचारों, अनाचारों की आँधी जोरों पर थी। हिंदुओं की आँखों के सामने उनके देवालय घोषणाएँ करके गिराए जाते थे, उनके आराध्य देवताओं का अपमान किया जाता था। ऐसे समय में न तो वे विद्रोह ही कर सकते थे और न ही सिर झुकाये बिना जी ही सकते थे। अतः हृदय के आक्रोश को अपनी असहायता, निराशा और दीनता को प्रभु के सम्मुख कहकर मन को शांति देने के अतिरिक्त और रास्ता ही क्या था, तत्कालीन समाज की इस स्थिति को संत रैदास ने वाणी दी है -
''त्राहि-त्राहि त्रिभुवन पति पावन
अतिशय शूल सकल बलि जाऊँ।।''30
मध्यकालीन भारत अंधविश्वासों के घनघोर अँधेरे में साँस ले रहा था, कुछ बेबुनियाद रूढ़ियों ने उसमें और सड़न पैदा कर दी थी। रैदास की ख्याति सर्वत्र फैल जाने के उपरांत भी सवर्ण हिंदू उन्हें अछूत ही समझते थे। दूसरा उल्लेख उनके काव्य में यूँ मिलता है -
''रैदास तूँ कॉवचि फली तूझे न छिवै कोय।''
इसके अतिरिक्त भी अपने हृदय के इस दर्द को उन्होंने अपनी वाणी में बड़ी सहजता से व्यक्त किया है-
''हम अपराधी नीच घर जन्में, कुटंब लोग हाँसी रे।।''
लोगों का यह उपहास ही व्यक्ति को अंतर्मुखी कर देता है और यह अपनी निराशा और उपेक्षा को सर्जनात्मक मोड़ देकर सामाजिक रूढ़ियों पर पुनर्चिंतन करता है, तब जाकर कहीं ये रूढ़ मान्यताएँ टूटती है। संत रैदास ने तत्कालीन रूढ़ियों के प्रति विद्रोह किया, इसलिए उन्हें सामाजिक क्रांति का अग्रदूत कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है।
संत कवि रैदास जी ने सर्वप्रथम हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उनका कहना था राम और रहिम को एक समझा जाय तथा वेद और कुरान को लोग बराबर सम्मान दें -
''कृष्णा-करीम, राम-हरि, राघव, जब लग एक न पेशा
वेद-कतेब-कुरान-पुरातन सहज एक नहीं वेशा।।''
इसी तरह रैदास जी ने मंदिर-मस्जिद के झगड़े को परम-पिता परमात्मा का धर्म स्थल बताकर हिंदू और मुसलमानों को आपस में न लड़ने की सलाह दी। उनका मत है -
''मंदिर-मस्जिद एक है, इन मॅह अनतर नाहिं।
रैदास राम रहमान का, झगड़ऊ कोउ नाहिं।।
रैदास हमारा राम जोई, सोई है रहमान।
काबा कासी जानि यहि, दोउ एक समान।।''31
वर्ण-व्यवस्था जैसे अभिशाप को भी रैदास ने सैद्धांतिक स्तर पर विरोध किया और कहते हैं -
''रैदास एक ही बूँद सौं, सब ही भयों वित्थार।
मूरिख है जो करत हैं वरन अवरन विचार।।
'रैदास' एक ही नूर ते जिमि उपज्यों संसार।
ऊँच-नीच किहि विध भये, ब्राह्मन और चमार।।''32
इसके बाद उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि कोई भी व्यक्ति जन्म के कारण ऊँच-नीच नहीं हो सकता, क्योंकि मनोवांछित जन्म लेना तो किसी के भी बस की बात नहीं। हाँ व्यक्ति के इहि-लौकिक कर्म अवश्य ही उसके श्रेष्ठत्व अथवा निकृष्टत्व को निर्धारित करते हैं -
''रैदास जन्म के कारणै, होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि हैं, औछे करम की कीच।।''33
भारत का दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ पर जाति ही व्यक्ति का सामाजिक स्तर निर्धारित करती रही है। उसे ऊँच और नीच माने और मनवाने पर बाध्य करती रही है। संत रैदास इसलिए ऐसी जाति प्रथा को जो व्यक्ति-व्यक्ति को जोड़ती नहीं तोड़ती हो को रोग मानते हैं -
''जात-पाँत के फेर मंहि, उरझि रहई सब लोग।
मानुषता को खात हइ, रैदास जात कर रोग।।''34
संत रैदास ने तत्कालीन समाज में प्रचलित इन सड़ी-गली मान्यताओं का विरोध कर वेद विहित मान्यताओं का प्रचार किया -
''जन्म जात मत पूछिए, का जात और पाँत।
'रैदास' पूत सम प्रभ के कोई नहिं जात-कुजात।।''35
इसका कारण उनकी दृष्टि में यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी को बनाने वाला वह एक ही 'सिरजनहार' हार है। उस एक ही बूँद का विस्तार यह सारा संसार है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में उसी परमात्मा का अंश विद्यमान है, फिर किस आधार पर ब्राह्मण को श्रेष्ठ तथा शूद्र को निकृष्ट ठहराया जाए। उन्होंने जड़मति समाज को समझाया -
''एकै माटी के सभै भांडे, सभ का एकै सिरजनहार।
रैदास व्यापै एकौ घट भीतर, सभ को एकै घडै कुम्हार।।
रैदास एकै ब्रह्म का होई रहयों सगल पसार।
एकै माटी सब घट सजै, एकै सभ कूँ सरजनहार।।
इस प्रकार रैदास ने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का विरोध किया। वहीं पर उन्होंने इसकी नई व्याख्या भी प्रस्तुत की। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण नहीं होता, बल्कि ब्राह्मण वह है जिसमें ब्रह्मात्मा विद्यमान हो -
''ऊँचे कुल के कारणै ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मण सोय।।''
क्षत्रिय कौन? ''दीन-दुखी के हेत जउ वारै अपने प्रान।
'रैदास' उह नर सूर कौ, साँचा छत्री जान।।
वैश्य कौन?
'रैदास' वैस सोई जानिये, जउ सतकार कमाय।
पून कमाई सदा लहै, लौटे सर्वत सुखाय।।
साँची हाटी बैठि करि, सौदा साँचा देई।
तकड़ी तौले साँच की, रैदास वैस है सोई।।''
शूद्र कौन?
'रैदास' जउ अति अपवित, सोई सूदर जान।
जउ कुकरमी असुधजन, तिन्ह ही सूदर मान।।
कहा जा सकता है कि छुआछूत एवं ऊँच-नीच को ही नहीं बल्कि गुरु जी ने मांसाहार, अनैतिकता, के अतिरिक्त धनलिप्सा, दुराचरण जैसे तत्वों को असामाजिक बतलाकर एक लंबी क्रांति का सूत्रपात किया। धार्मिक संकीर्णताओं, भेदभावों को भी उन्होंने सर्वथा त्याज्य बतलाया है। क्योंकि वह भेदभाव ही 'वसुधैव कुटुंबकम्' का विरोधी है। इसी ने तो आदमी को आदमी से दूर किया है। मानवीयता के लोकोपकारी सिद्वांतों के प्रसार एवं प्रचारार्थ मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर आदि पूजा स्थानों तथा काबा, काशी, मक्का, मथुरा आदि तीर्थ स्थानों का भी विशेष महत्व नहीं है। क्योंकि प्रभु का वास वहाँ नहीं व्यक्ति के हृदय में है -
''का मथुरा का द्वारका, का कासी हरिद्वार।
'रैदास' खोजा दिल आपना, तउ मिलिया दिलदार।।''36
समस्त मिथ्याचारों तथा आडंबरों का संत रैदास ने डटकर विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि ''मन चंगा तो कठौती में गंगा''। वस्तुतः मन की शुद्धता ही सर्वोपरि है उन्होंने समस्त बुराइयों पर एक-एक कर सशक्त चोट की। समाज सुधारक के नाते उन्होंने समाज की सही नब्ज को पकड़ा।
उपर्युक्त समस्त विवेचन के उपरांत निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संत रैदास का जीवन और काव्य उदात मानवता के लिए आवश्यक सदाचारों के शाश्वत सैद्धांतिक मूल्यों का अक्षय भंडार है, जिसमें से प्रत्येक वर्ग और स्थिति तथा मानसिक स्तर पर व्यक्ति अपने लिए सुंदर-सुंदर मोतियों का चुनाव सुगमता से कर सकता है। उन्होंने हिंदू मुसलमानों में भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास किए। छुआछूत तथा वर्ण व्यवस्था का विरोध कर सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अचूक औषधि तैयार की। 'जीवहत्या' को पाप घोषित कर मांसाहारी जैसी प्रवृत्ति को समाप्त करने का प्रयास किया तथा अहिंसा के वैदिक सिद्धांत का प्रचार किया। वहीं पर मानव मात्र को पूजा के साथ-साथ श्रम के प्रति आस्था का भी उपदेश दिया। इससे भी बड़ी बात जो उस युग के और किसी संत कवि के काव्य में दिखाई नहीं देती वह है उनकी ''स्वतंत्र चेतना''। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाई थी। और एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें ये सब विषमताएँ न हों। प्रत्येक व्यक्ति श्रम करके जीविकोपार्जन करे तथा हिंदू तथा मुसलमान सब मिलकर भारत की इस पवित्र भूमि पर रहे तथा दूसरे सर्वांगीण विकास के लिए कार्य करें। इन संपूर्ण तथ्यों पर गंभीरता से विचार करने के उपरांत हम कह सकते हैं कि संत रैदास के काव्य का वैचारिक आधार बहुत दृढ़ तथा उसकी भावात्मक पृष्ठभूमि बहुत ही विस्तृत तथा सामाजिक महत्व की है जिसकी प्रासंगिकता सम-सामयिक संदर्भों में भी असंदिग्ध है।
संदर्भ-सूची
1. संत रैदास : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, श्री संगम लाल पांडेय, पृष्ठ संख्या-7
2. वही, पृष्ठ संख्या-5 से 9 तक
3. हिंदी साहित्य का इतिहास - रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ संख्या-57
4. संत साहित्य, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ठ संख्या-183
5. हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. राम कुमार वर्मा, पृष्ठ संख्या-224
6. हिंदी साहित्य कोश भाग-2, डॉ. धीरेंद्र वर्मा, पृष्ठ संख्या-509
7. हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, डॉ. गणपति चंद्र गुप्त, पृष्ठ संख्या-208
8. संत रविदास और उनका काव्य, स्वामी रामानंद शास्त्री एवं वीरेंद्र पांडेय, पृष्ठ संख्या-84
9. युग प्रवर्तक संत गुरु रविदास, आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद, पृष्ठ संख्या-47-48
10. रविदास दर्शन, सं. आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद, पृष्ठ संख्या-72
11. श्री गुरु रविदास चरितम् सं. डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ संख्या-51
12. युग प्रवर्तक संत गुरु रविदास : आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद, पृष्ठ संख्या-22
13. संत रविदास : विचारक और कवि, डॉ. पद्म गुरुचरन सिंह, पृष्ठ संख्या-22
14. गुरु रविदास वाणी, डॉ. काशीनाथ उपाध्याय, पृष्ठ संख्या-11
15. मीरा प्रेम दीवानी, श्री विरेंद्र सेठी, हिंदी (अनुवाद) श्रीमती शांति सेठी, पृष्ठ-6, प्रकाशक राधा स्वामी सत्संग, व्यास, सप्तम संस्करण 1988, जिला अमृतसर (पंजाब)
16. संत गुरु रविदास वाणी, डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ-01, पद संख्या-51
17. वही, पृष्ठ-117, पद संख्या-117
18. संत गुरु रविदास वाणी, डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ संख्या-90
19. वही, पृष्ठ -119, पद संख्या-122
20. वही, पृष्ठ -88, पद संख्या-45
21. वही, पृष्ठ -140, वाणी-6
22. वही, पृष्ठ -117, पद संख्या-117
23. संत गुरु रविदास वाणी, डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ संख्या-91
24. श्री गुरु रविदास चरितम्, डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ संख्या-34
25. भविष्य पुराण, खंड-04, अध्याय 17-18
26. संत गुरु रविदास और उनका काव्य, स्वामी रामानंद शास्त्री और वीरेंद्र पांडेय, पृष्ठ संख्या-72
27. युग प्रवर्तक संत रविदास, आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद, पृष्ठ संख्या-63
28. संत गुरु रविदास वाणी, डॉ. बी.पी. शर्मा, पृष्ठ -107, पद संख्या-140
29. संत गुरु रविदास इंद्रस्थ सिंह पृष्ठ संख्या-48
30. संत कवि रैदास : मूल्यांकन और प्रदेश, डॉ. एन. सिंह, पद संख्या-35, पृष्ठ संख्या-49
31. वहीं, पृष्ठ संख्या-35
32. वहीं, साखी संख्या-86, 89, पृष्ठ -28, 29
33. वहीं, साखी संख्या-160 पृष्ठ -33
34. वहीं, साखी संख्या-155 पृ0-33
35. वहीं, साखी संख्या-154 पृष्ठ -33
36. वहीं, साखी संख्या-109 पृष्ठ -30