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निबंध

ले आव ना हरदिया, दरदिया होला बड़ी जोर

श्रीधर दुबे


बचपन के दिनों में मौसी के गाँव तक पहुँचने के लिए न तो कोई साबुत सड़क थी और न ही कोई साधन ही उपलब्ध था। बस एक कच्ची ऊबड़-खाबड़ सड़क हुआ करती थी जिस पर हिचकोले खाते हुए मैं और मेरी माँ कभी बैलगाड़ी से तो कभी रिक्शे से मौसी के घर तक जाया करते थे।

उमर में मुझसे बड़ी मेरी तीन मौसेरी बहनें थीं जिनके पैदा होने के बाद मौसा किसी बीमारी की वजह से मौसी को जीवन के अधरस्ते ही छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे। आज भी मन होता है मौसा को देखूँ कि वो कैसे दिखते थे, लेकिन मौसी की स्मृतियों के सिवा मौसा की और कहीं कोई तस्वीर ही नहीं उपलब्ध थी।

मौसेरी बहनों की आस-पड़ोस में ढेर सारी सहेलियाँ थीं। उस समय सहेली बनाने के कुछ कायदे कानून होते थे। मौसेरी बहनों में सबसे छोटी बहन का पड़ोस की एक दीदी से सहेली बनना मुझे अभी भी याद है। खिचड़ी (मकर संक्रांति) का दिन था, मैं और मेरी बहन अपनी डलिया में लाई-भूजा लेकर पड़ोस वाली दीदी के घर गए थे। वहीं पर दोनों ने अपनी अपनी डलिया के लाई-भूजा का आदान-प्रदान किया था। फिर दोनों ने अपनी-अपनी कानी अँगुली एक-दूसरे के हाथों में उलझाकर एक गाना गाया था।

सखी-सखौना
महुआ गोदौना
सखी के मरदा
बडा फुसिलौना॥

यह गीत गाने के बाद दोनों ने आजीवन एक दूसरे को उनके नाम से न पुकारने की कसम खाई और सहेली होने का रस्म पूरा किया। आज भी वो दोनों एक दूसरे को सखी के संबोधन से ही पुकारती हैं।

मौसी के घर किसी पुरुष के न होने से वहाँ पड़ोस की लड़कियों और औरतों की भीड़ जुटी रहती। खूब हँसी ठहाके होते। मैं, मेरी बहनें और पड़ोस की लड़कियाँ गर्मियों की पूरी दोपहर खेल खेल में ही बिता देते थे। वहाँ हर रोज उत्सव जैसा ही माहौल होता था। लेकिन उत्सव के दिनों में तो उस माहौल में चार चाँद लग जाया करता था।

मुझे बड़ी वाली दीदी के तिलक जाने की वह साँझ अब भी याद है। मौसी के सारे रिश्तेदार तिलक चढ़ाने लड़के वालों के गाँव चले गए थे। घर में सिर्फ औरतें और बच्चे ही बचे थे। मैं अंदर कोठरी में सोया हुआ था, लेकिन आँगन में गाने-बजाने का शोर सुन मेरी नींद खुल गई और मैं दबे पाँव आँगन के किनारे बनी रसोई वाली कोठरी के पास चुप-चाप खड़ा होकर औरतों का बारी-बारी से नाचना गाना देखने व सुनने लगा। तब-तक मेरी माँ को मेरे जाग जाने का भान नहीं हुआ था और उसी क्रम में माँ के नाचने और गाने की भी बारी आई। मैने पहली बार माँ को इतना खुश होकर हँसते और नाचते-गाते हुए देखा था। उस वक्त माँ मुझे मेरी ही उमर की किसी छोटी बच्ची सी लगी थी। लेकिन मेरे पर नजर पड़ते ही उसके कदम रुक गए थे और पास आकर मुझे अपनी गोद में उठा लिया था। हालाँकि वह इस बात से भीतर ही भीतर काफी दिनों तक डरी हुई थी कि कहीं मैं उसके गाने या नाचने की बात अपने घर या उसके ससुराल वालों से कह न दूँ।

यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली कि लड़की के घर से तिलक चढ़ाने जाने की रात गाने-बजाने या कोई नाटक खेलने का यह एक रस्म या कहें रिवाज होता है। जिसकी वजह से घर की औरतें सारी रात जागती रहती हैं ताकि घर में चोरी का भय न हो। उस रस्म को हमारे गाँव में जुलुआ बोलते थे। जुलुआ के रोज औरतों और लड़कियों को अपने मन माफिक जीने और गाने-बजाने की खुली छूट होती थी। क्योंकि वहाँ किसी पुरुष की मौजूदगी नहीं होती थी।

जुलुआ रस्म के तहत गाने-बजाने के ही क्रम में मौसी को भी बुलाया गया और उसे एक गाना सुनाने और किसी गाने पर नाचने का आग्रह किया गया। लेकिन विधवा मौसी के दिमाग में तो अपनी बिटिया के विवाह को किसी तरह से संपन्न कराने का हिसाब-किताब परेशान कर रहा था। ऐसे में उसे गाना-बजाना भला कहाँ से सूझता? फिर भी लोगों के आग्रह पर और अपनी बेटियों की खुशी के लिए उसने एक गीत गाना शुरू किया और गाते-गाते अपने गीत के अंतिम बोल पर आकर अटक गई और शून्य में ताकने लगी। मौसी का गाया वह गीत मुझे अब भी याद है।

बहे पुरवईया रे ननदी
पवनवा करे ला शोर
सुनss सुनss छोटकी ननदिया, वचनिया मानs हो इ मोर
पीस के ले आवSना हरदिया
दरदिया होला बड़ी जोर
(हे ननद ! पुरवाई बह रही है
पवन शोर मचाये हुए है
ऐ मेरी छोटी ननद मेरी एक बात मान लो
लगाने के लिए हल्दी पीस के ले आवो
दर्द से बदन टूट रहा है)

उस उम्र में न तो मौसी के गाए उस गीत का मतलब ही समझने भर की समझ पैदा हुई थी न ही उस वजह को जिस वजह से वाह गाते-गाते चुप हो गई थी और एकटक शून्य में निहारने लगी थी।

लेकिन अब इतनी उमर हो गई है कि उस गीत का मतलब भी समझने लगा हूँ और उस वजह को भी जिस वजह से मौसी कुछ देर तक एक टक शून्य में निहारने लगी थी।

छुटपन का वह दिन बहुत पीछे छूट चला है। साथ ही साथ मौसी का गाँव, उसका घर, मौसेरी बहनों की सहेलियाँ, सब के सब पीछे छूटकर स्वप्न की धुँधली स्मृति बन चुके हैं। लेकिन जुलुआ की उस रात मौसी के गाए उस गीत की पँक्तियों ने आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा।

जब कभी भी मौसी के गाए उस गीत की याद ताजा हो जाती है तो बरबस ही सोचने लगता हूँ कि क्या मौसी के वैधव्य भरे जीवन का जो दर्द था वह सचमुच ननद के हाथों पिसी हुई हल्दी से दूर होने वाला था? क्या बहती पुरवाई में पवन का जो शोर था वह सचमुच मौसी के जीवन के अभावों और उसके दुखों से उपजे शोर से अधिक था?

अपने घर में एक पुरुष भर के न होने से उसे अपने ही गाँव से निर्वासन की पीड़ा झेलनी पड़ी। उसकी जगह जमीन हथियाने के लिए उसका रस्ता रोका गया। उसके पंडोह का पानी तक रोका गया। कितनी ही रातों तक उसने अपनी तीन बेटियों को अपनी गोद में दुबकाए हुए घर के आस-पास डरावनी हँसी सुनी।

पुरुषों के इस समाज में एक अकेली स्त्री के जीवन में उपजी पीड़ा को हरने की कुव्वत किसी पिसी हुई हल्दी में या दवा में नहीं! तभी तो बड़ी दीदी के विवाह की उस रात गाते-गाते मौसी की नजर शून्य में ही कहीं अटक गई थी। और उसी अटके हुए शून्य में उसने गुजर चुके मौसा को भीतर ही भीतर चीख-चीख कर पुकारा था।

मौसी की बड़ी बेटी की ही शादी की एक और बात आज तक चित्त से उतरी ही नहीं। शादी के बाद दीदी की विदाई का दृश्य था। दीदी घर से विदा हो रही थी, पड़ोसियों समेत पूरा घर रो रहा था और मौसी थी कि रोते रोते बेहोश हो जाती थी। मैं घर के एक कोने में चुप-चाप खड़ा यह सब देख रहा था।

लोगों के साथ मैं भी दीदी को सिवान के बाहर तक छोड़ने गया था। उसकी गाड़ी वहीं कुछ देर तक खड़ी रही थी फिर मेरे आँखों के सामने से धूल के बवंडर उड़ाती ओझल हो गई थी। उस दिन के बाद से आज तक किसी की विदाई का दृश्य देखा ही नहीं जाता। फिर एक-एक कर मौसी की और बेटियाँ भी विदा हुई और मौसी अपने घर में अकेली ही रह गई। बुढ़ापे के अंतिम दिनों में उसकी आँखों पर मोतियाबिंद इस कदर छा गया था कि कभी कभी सब्जी में नमक की जगह सर्फ डाल देती थी।

मौसी के गुजरे हुए कई साल हो गए। मौसेरी बहनें भी विदा होकर अपने अपने घर-बार में व्यस्त हो गईं। जिस उबड़-खाबड़ कच्ची सड़क से होकर मौसी के गाँव तक जाना होता था उस जगह अब एक पक्की सड़क बन चुकी है और उस पर तमाम सवारी गाड़ियाँ भी चलने लगीं हैं।

मौसी के घर का एक एक परिपार्श्व उजड़ते-उजड़ते वीरान खँडहर में तब्दील हो चुका है। उस जगह को देखकर लगता ही नहीं कि यह वही घर है जहाँ कभी मेरी माँ ने और उसकी सहेलियों ने गाना-बजाना करते हुए जुलुआ का उत्सव मनाया था।

वर्षों बाद आज फिर मौसी के उसी वीरान पड़े, खँडहर हो चुके घर में आया हूँ। वहीं खडा चुप-चाप देख रहा हूँ कि तभी वीरान पड़ा, खँडहर हो चला वह घर एक बसे-बसाए घर में तब्दील हो जाता है। फिर उत्सव की शाम का जलसा सजता है, नाच-गाना होता है। तभी पीछे की एक कोठरी में सोया एक नन्हा बालक उत्सव का शोर सुन अपनी नींद से जाग जाता है और आँखे मलता हुआ आकर चुप-चाप जुलुआ का उत्सव देखने लगता है। फिर उस नन्हें बालक की मौसी आती है और एक गीत गाते गाते शून्य में निहारने लगती है। फिर जैसे उपस्थित मंच पर परदा गिरता है और सारे दृश्य आँखों से ओझल हो जाते हैं ठीक वैसे ही सारा दृश्य एक-एक कर आँखों से ओझल हो जाता है।

आज जब मौसी के गाए उस गीत की बाबत सोचता हूँ तो यही बात जेहन में आती है कि उजड़ने का दुख एक स्त्री से अधिक भला और कौन जान सकता है? अब बड़ा हो गया हूँ, काफी बड़ा हो गया हूँ, और कहने के लिए एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम भी करता हूँ। इन सबके वावजूद भी एक पछतावे के बोझ तले अभी भी दबा हुआ हूँ। वह पछतावा मौसी के अंतिम दिनों में उसे न देख पाने का, उसके लिए कुछ न कर पाने का है।

माँ बताती है कि मृत्यु के अंतिम दिनों में उसके कलेजे में दर्द रहने लगा था और वह उससे लगातार कहती थी कि बाबू यानि मैं आऊँगा तो अपना इलाज कराने को कहेगी। माँ के ही कहे अनुसार जीवन की अंतिम साँस लेते वक्त उसके कलेजे का दर्द इतना बढ़ गया कि कराहते कराहते वह चल बसी।

मौसी अब नहीं है, कहीं नही है, लेकिन उसके कलेजे का दर्द अब मेरे कलेजे का दर्द बन गया है। वह दर्द मौसी की याद आते ही कई गुना बढ़ जाता है, और मैं भीतर ही भीतर उस दर्द की पीड़ा से छटपटाने लगता हूँ।


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