कृष्णबिहारी मिश्र के बाद जिस व्यक्ति ने पत्रकारिता के इतिहास के अनुशीलन का
मानक प्रस्तुत किया है, वे हैं विजयदत्त श्रीधर। आज उनकी राष्ट्रव्यापी पहचान
पत्रकारिता के इतिहास को सँजोने और सहेजने वाले व्यक्ति के रूप में है। वे
पत्रकारिता के कितने गंभीर अध्येता हैं, यह देखने के लिए उनकी कोई पुस्तक ले
सकते हैं। उदाहरण के लिए सामयिक प्रकाशन से आई किताब 'पहला संपादकीय' से ही
बात आरंभ करें तो उस पुस्तक से समूची हिंदी पत्रकारिता की गणेश परिक्रमा हो
जाती है। उस किताब की लंबी प्रस्तावना में श्रीधर जी ने हिंदी पत्रकारिता की
पूरी कहानी कह दी है। प्रस्तावना के बाद श्रीधर जी ने 1826 से लेकर 2004 के
बीच की अवधि की 20 प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं से उनकी पहली संपादकीय टिप्पणी
प्रस्तुत की है। इनमें 'उदन्त मार्तण्ड' और 'बंगदूत' की संपादकीय टिप्पणियाँ
हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल की हैं। 'भारत मित्र' और 'उचित वक्ता' की
संपादकीय टिप्पणियाँ आजादी की पहली लड़ाई के बाद के दौर की हैं। 'सरस्वती',
'देवनागर', 'अभ्युदय', 'प्रताप', 'आज', 'कर्मवीर', 'विशाल भारत', 'नवयुग',
'हंस' और 'नारी' की संपादकीय टिप्पणियाँ बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की हैं
तथा 'नई धारा', 'नया प्रतीक', 'जनसत्ता', 'प्रभात खबर', 'नया ज्ञानोदय' और
'अहा! जिंदगी' के अग्रलेख आजादी के बाद के समय के हैं। विजयदत्त श्रीधर ने जिन
पत्र-पत्रिकाओं के अग्रलेखों को उनके मूल स्वरूप में सँजोया है, वे अपने युग
और पत्रकारिता की प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह वे अग्रलेख
भिन्न-भिन्न कालखंडों की परिस्थितियों की शृंखला प्रस्तुत करते हैं। हर
अग्रलेख के संचयन के साथ श्रीधर जी ने मूल्यवान टीप लिखी है ताकि संदर्भ
सुस्पष्ट होता जाए। पुस्तक के विमर्श खंड में रामानंद चट्टोपाध्याय, इंद्र
विद्या वाचस्पति, बाबूराव विष्णु पराडकर, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर
विद्यार्थी और आचार्य नरेंद्र देव के व्याख्यान/आलेख भी संकलित हैं जो
पत्रकारिता के मर्म को समझने की कुंजी देते हैं। प्रसन्नता की बात है कि 'पहला
संपादकीय' अब पेपरबैक में भी उपलब्ध है।
'पहला संपादकीय' यदि हिंदी पत्रकारिता की गणेश परिक्रमा है तो माधवराव सप्रे
स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान, भोपाल द्वारा प्रस्तुत और वाणी
द्वारा प्रकाशित 'भारतीय पत्रकारिता कोश' समूची भारतीय पत्रकारिता की गणेश
परिक्रमा है। दो खंडों में प्रकाशित यह किताब विजयदत्त श्रीधर की डेढ़ दशक की
तपस्या का प्रतिफल है। यह किताब भी पेपरबैक में उपलब्ध हो गई है। पहले खंड में
1780 से 1900 तक और दूसरे खंड में 1901 से 1947 तक की भारतीय पत्रकारिता का
कालक्रमानुसार इतिवृत्त दर्ज है। भारत में सभी भाषाओं के समाचारपत्रों और
पत्रिकाओं का प्रामाणिक वृत्तांत लिपिबद्ध करने के साथ-साथ सन 1947 तक के भारत
के पूरे भूगोल को भी इसमें श्रीधर जी ने समाहित किया है। विजय दत्त श्रीधर की
यह किताब बताती है कि भारत में पत्रकारिता की शुरुआत करने का पहला प्रयास
विलियम बोल्ट्स ने कैसे किया था। उन्होंने 1776 में कोलकाता से एक समाचार पत्र
निकालने का ऐलान किया। बोल्ट्स का घोषणा पत्र इस तरह था, "मेरे पास ऐसी बहुत
सारी बातें हैं जो मुझे कहनी हैं और जिनका सम्बन्ध हर व्यक्ति से है।" बोल्ट्स
की इस घोषणा से ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी चिंता में पड़ गए। हालाँकि
बोल्ट्स भी अंग्रेज थे किंतु उन पर भी कंपनी के अधिकारियों ने भरोसा नहीं
किया। पत्र निकालने की जैसे ही उन्होंने घोषणा की, कंपनी सरकार ने उन्हें
बंगाल छोड़ने का आदेश दे दिया। बोल्ट्स को बंगाल से चेन्नै ले जाया गया और वहाँ
से उन्हें यूरोप के लिए रवाना कर दिया गया। बोल्ट्स की उस असफल चेष्टा के बाद
29 जनवरी 1780 को जेम्स आगस्टस हिकी नामक दूसरे अंग्रेज ने 'बंगाल गजट आर
कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' का प्रकाशन किया। उसके साथ ही भारत में पत्रकारिता का
जन्म हुआ। उस साप्ताहिक अखबार को हिकीज गजट के नाम से जाना जाता है। उस समाचार
पत्र के प्रवेशांक में हिकी ने खुद को आनरेबल कंपनी का मुद्रक घोषित किया था।
हिकी स्वयं को कंपनी के कर्मियों में पहला मुद्रक मानता था फिर भी ईस्ट इंडिया
कंपनी उसे महत्व नहीं देती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी में जहाँ भी अनौचित्य देखता,
हिकी अपने अखबार 'बंगाल गजट आर कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' में उसकी आलोचना करता
था। हिकी ने दो पन्ने के अपने अखबार में गवर्नर वारेन हेस्टिंग्ज सहित कंपनी
के अधिकारियों की तीखी आलोचना की। उसके फलस्वरूप उसे जनरल पोस्ट ऑफिस से
समाचार पत्र भेजने की सुविधा से वंचित कर दिया गया। हिकी की पत्रकारिता पर
वारेन हेस्टिंग्ज का वह पहला प्रहार था। वारेन हेस्टिंग्ज ने 14 नवंबर 1780 को
यह आदेश जारी किया, "आम सूचना दी जाती है कि एक साप्ताहिक समाचार पत्र जिसका
नाम 'बंगाल गजट ऑर कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' है, जो जे.ए. हिकी द्वारा मुद्रित
किया जाता है, के ताजा अंकों में व्यक्तिगत रूप से निजी जिन्दगी को लांछित
करने वाले अनुचित अंश पाए गए हैं, जो अशांत करने वाले हैं, अतएव इसे जी.पी.ओ.
के माध्यम से प्रसारित होने की और अधिक अनुमति नहीं दी जा सकती।" वह भारत में
पत्रकारिता के क्षेत्र में समाचार पत्र के शासन से टकराने की पहली घटना थी।
जेम्स आगस्टस हिकी ने व्यवस्था से टकराने और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए
प्रताड़ना के रूप में कीमत चुकाने का सम्मान भी हासिल किया। तात्पर्यपूर्ण है
कि हिकी ने सरकारी प्रताड़ना के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया और शासन की आलोचना
जारी रखी। स्वीडिश मिशनरी जॉन जकारिया कीरनेंडर ने हिकी के खिलाफ मुकदमा दायर
कर दिया। उसमें हिकी को चार महीने की कैद और पाँच सौ रुपये जुर्माना से दंडित
किया गया। जब तक वह जुर्माना अदा न करता, तब तक उसे जेल में ही रहना था। इसके
बावजूद हिकी ने तेवर नहीं बदला और उसने गवर्नर तथा मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ
भी लेखन जारी रखा। इस बीच यूरोपीय लोगों की अगुवाई में करीब चार सौ हथियारबंद
लोगों की भीड़ ने हिकी के प्रेस पर हमला कर दिया। हिकी से अस्सी हजार रुपये की
जमानत माँगी गई, जिसे वह नहीं चुका पाया और उसे जेल भेज दिया गया। जेल में
रहते हुए भी हिकी अखबार का संपादन करता रहा। यही नहीं, उसने अपना स्वर भी नहीं
बदला। उस पर चले मुकदमे में एक आरोप में एक वर्ष की कैद और दो सौ रुपये
जुर्माना की सजा हुई। वहीं दूसरे आरोप में मुख्य न्यायाधीश ने वारेन
हेस्टिंग्ज को पाँच हजार रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में चुकाने का आदेश पारित
किया। इतने सब आघातों से विचलित हुए बिना हिकी ने अपना प्रतिरोधी लेखन जारी
रखा। इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत में पत्रकारिता की शुरुआत प्रतिरोध की
संस्कृति से हुई। 'बंगाल गजट आर कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' के नाम के ठीक नीचे
अखबार में लिखा होता था - ए वीकली पोलिटिकल एंड कामर्शियल पेपर ओपेन टू आल
पार्टीज बट इन्सपायर्ड बाइ नन। इसे भारतीय पत्रकारिता का आदि संकल्प मानना
चाहिए। यानी पत्रकारिता को हर पक्ष के प्रति उन्मुक्त रहना चाहिए किंतु
प्रभावित किसी से नहीं होना चाहिए। 'बंगाल गजट आर कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर'
चूँकि ईस्ट इंडिया कंपनी से प्रभावित नहीं था, वह कंपनी का पिछलग्गू नहीं बना
इसीलिए उस पर शासन का शिकंजा कसता गया। हिकी के अखबार का मुकाबला करने के लिए
सरकारी सहायता से 'इंडिया गजट' 18 नवंबर 1780 को प्रारंभ किया गया। किंतु
'हिकीज गजट' का तोड़ सरकारी गजट नहीं निकाल पाया।
'भारतीय पत्रकारिता कोश' पुस्तक में विजयदत्त श्रीधर बताते हैं कि जिस कोलकाता
में अँग्रेजी पत्रकारिता का जन्म हुआ, उसी शहर में चार अन्य भाषाओं - बांग्ला,
उर्दू, फारसी और हिंदी पत्रकारिता का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। 23 मई
1818 को बांग्ला का पहला अखबार 'समाचार दर्पण' कोलकाता से निकला। वह साप्ताहिक
था। मार्शमैन उसके संपादक थे। भारत में फारसी पत्रकारिता का जन्म कोलकाता में
20 अप्रैल, 1822 को 'मिरात-उल-अखबार' के प्रकाशन के साथ हुआ। उसे राजा राममोहन
राय ने कोलकाता से निकाला था। राजा राममोहन राय ने उसके प्रकाशन की घोषणा करते
हुए कहा था, "अवाम को मुत्तला किया जाता है कि इस मुल्क में बहुत से अखबार
शाया होते हैं लेकिन अब तक फारसी का कोई अखबार शाया नहीं हुआ है। जिससे उन
लोगों को अमूमन जो अँग्रेजी से नावाकिफ हैं और हिंदी के रहने वालों को खुसून
खबरें मालूम हो सकें, चुनांचे एडीटर 'मिरात-उल-अखबार' के इजरा का काम शुरू कर
रहा है।" इस घोषणा से ही पता चलता है कि 'मिरात-उल-अखबार' से पहले भारत में
फारसी का और कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। राजा राममोहन राय ने
'मिरात-उल-अखबार' की अपनी पहली संपादकीय टिप्पणी में ही अपने उद्देश्य की
घोषणा कर दी थी, "कुछ अंग्रेज देश और विदेश के समाचार प्रकाशित करते हैं किंतु
इससे केवल वे ही लोग लाभ उठा पाते हैं जो अँग्रेजी जानते हैं। जो लोग अँग्रेजी
नहीं जानते, वे खबरों को दूसरों से पढ़वाते हैं या फिर उनसे अनजान बने रहते
हैं, ऐसी दशा में मुझे फारसी में एक साप्ताहिक अखबार प्रकाशित करने की
आवश्यकता प्रतीत हुई। बहुत से लोग फारसी भाषा जानते हैं अतएव यह अखबार बहुत से
लोगों तक पहुँचेगा। इस अखबार के प्रकाशन से मेरा अभिप्राय न तो धनाढ्य
व्यक्तियों की और न अपने मित्रों की प्रशंसा करना है और न मुझे यश और कीर्ति
की अभिलाषा है। संक्षेप में इस पत्र के प्रकाशन से मेरा अभिप्राय यह है कि
जनता के समक्ष ऐसी बातें प्रस्तुत की जाएँ जिनसे उनके अनुभवों में वृद्धि हो,
सामाजिक प्रगति हो, सरकार को जनता की स्थिति मालूम रहे और जनता को सरकार के
काम काज और नियम-कानूनों की जानकारी मिलती रहे।" 'मिरात-उल-अखबार' हर शुक्रवार
को छपता था। 'कलकत्ता जर्नल' ने 'मिरात-उल-अखबार' का मूल्यांकन करते हुए लिखा
था कि देशी भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों में अन्य कोई पत्र इतना अच्छा
नहीं निकलता जितना कि 'मिरात-उल-अखबार'। 'मिरात-उल-अखबार' एक साल ही निकल सका
क्योंकि अँग्रेजी शासन द्वारा भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को क्षत-विक्षत
करने के मकसद से प्रेस अध्यादेश लाया गया। 14 मार्च, 1823 को कार्यकारी गवर्नर
जनरल जॉन एडम ने एक अध्यादेश जारी कर जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया
और अखबारों के संपादकों-प्रकाशकों से यह लिखित आश्वासन माँगा कि सरकार द्वारा
निषिद्ध विषयों पर वे कलम नहीं चलाएँगे, तब राजा राममोहन राय ने न्यायालय में
इस अध्यादेश को चुनौती दी। लेकिन उनकी याचिका सुप्रीम कोर्ट में खारिज कर दी
गई। इस याचिका पर दस्तखत करने वाले थे - राजा राममोहन राय, चंद्र कुमार टैगोर,
द्वारकानाथ टैगोर, हरचंद्र घोष, प्रसन्न टैगोर, गौरीचरण बनर्जी। राजा राममोहन
राय ने सरकार के सामने झुकने के बजाय अखबार को बंद करना ही बेहतर माना।
उन्होंने अपनी याचिका इंग्लैड में किंग-इन-कौंसिल के समक्ष भी प्रस्तुत की।
वहाँ भी उन्हें असफलता ही हाथ लगी। फिर भी उनका संघर्ष जारी रहा। राजा राममोहन
राय ने उस अध्यादेश के विरोध स्वरूप 'मिरात-उल-अखबार' का प्रकाशन ही बंद करने
की घोषणा कर दी। उन्होंने 4 अप्रैल, 1823 को आखिरी संपादकीय लिखी, "शपथ पत्र
पर विश्वास दिलाने के बाद भी जब प्रतिष्ठा को आघात लगता है और हर समय यह
लायसेंस रद्द करने का डर बना रहता है, तब दुनिया के समक्ष मुँह दिखाने लायक
नहीं होता। इससे मन की शांति भी भंग होती है। स्वभावतः मनुष्य से गलती होती
है। अपनी भावना को अभिव्यक्ति देते समय जिन शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया
जाता है तो उनका अपने पक्ष में अर्थ निकाल कर शासन के रोष का सामना करना पड़ता
है।"
फारसी की तरह उर्दू का पहला समाचार पत्र 'जाम-ए-जहाँनुमा' कोलकाता से 27 मार्च
1822 को निकला। वह साप्ताहिक हर बुधवार को प्रकाशित होता था। तब वह विलियम
हॉपकिंस के मिशन प्रेस में छपता था। उसके संपादक मुंशी सदासुख मिर्जापुरी थे।
संचालक हरिहर दत्त थे। उस समाचार पत्र में छह पृष्ठ होते थे। हर पृष्ठ दो कालम
में बँटा होता था तथा हर कालम में 22 पंक्तियाँ होती थीं। शुरू में
'जाम-ए-जहाँनुमा' केवल उर्दू भाषा में निकला किंतु 15 मई 1822 के अंक से उसमें
एक कालम फारसी भाषा में भी शुरू किया गया। वह कालम इतना लोकप्रिय हुआ कि उर्दू
भाषा में शुरू हुए उस पत्र का प्रकाशन 29 मई 1822 से फारसी में ही किया जाने
लगा। इस तरह उर्दू 'जाम-ए-जहाँनुमा' का जीवन कुछ अंकों तक ही सीमित रहा। 30 मई
1826 को कोलकाता से युगल किशोर शुक्ल ने हिंदुस्तानियों के हित के हेत हिंदी
का पहला समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' निकाला।
'भारतीय पत्रकारिता कोश' में गुजराती समाचार पत्र 'मुंबई समाचार' के इतिहास को
रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। 'मुंबई समाचार' समूचे एशिया महाद्वीप का
सबसे पुराना जीवित अखबार है। आज भी उसकी साख और धाक में कोई कमी नहीं आई है।
मुंबई में तो आज भी वह व्यावसायिक रुझान वाले गुजराती भाषी परिवारों में
अपरिहार्य बना हुआ है। जब यह अखबार मुंबई में निकला तब वहाँ गुजराती और मराठी
दोनों भाषा बोलने वाले लोग रहते थे। आज भी रहते हैं। इसलिए इस अखबार के चलते
रहने में कभी कोई अवरोध नहीं आया। भारत के स्वाधीनता संग्राम में 'मुंबई
समाचार' ने महती भूमिका निभाई। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल
ने 'मुंबई समाचार' को जगह-जगह उद्धृत किया है। 'मुंबई समाचार' अपने स्थापना
काल से ही निष्पक्ष और ईमानदार ढंग से समाचार देता रहा है। 'मुंबई समाचार' के
संस्थापक-संपादक फरदुनजी मर्झवानजी को ही गुजराती भाषा का सर्वप्रथम छापाखाना
स्थापित करने का श्रेय जाता है। 1812 ईस्वी में यह प्रेस स्थापित हुआ और 1818
में वहीं से गुजराती की पहली पुस्तक 'खोरदेह अवस्ता बा माओजी' छपी। उसी प्रेस
से एक जुलाई 1822 को 'मुंबईना समाचार' का प्रकाशन गुजराती साप्ताहिक पत्र के
रूप में प्रारंभ हुआ। उसके पीछे बांग्ला के प्रथम समाचार पत्र 'समाचार दर्पण'
की प्रेरणा थी। 'समाचार दर्पण' देखकर फरदुन जी के मन में यह विचार जन्मा कि
पश्चिमी भारत में गुजराती में भी कोई समाचार पत्र शुरू किया जाए। उस विचार को
उनके मित्रों ने बहुत पसंद किया। मित्रों में मुंबई के तत्कालीन गवर्नर माउंट
स्टूअर्ट एलफिन्स्टन प्रमुख थे। छापेखाने के लिए कोलकाता से मराठी, अँग्रेजी,
फारसी का नया टाइप मँगवाया गया। 10 जून 1822 को 'मुंबईना समाचार' के प्रकाशन
की नोटिस जारी की गई जिसमें एक जुलाई 1822 से गुजराती भाषा में प्रति सप्ताह
'मुंबईना समाचार' प्रकाशित करने की घोषणा की गई। कुछ ही दिनों में 150
ग्राहकों ने समाचार पत्र खरीदने के लिए अपने नाम दर्ज कराए। 50 प्रतियाँ
गवर्नर एलफिन्सटन ने माँगी थीं। साप्ताहिक के रूप में 'मुंबईना समाचार' का
अंतिम अंक सोमवार 2 जनवरी 1832 को प्रकाशित हुआ और 3 जनवरी 1832 से वह दैनिक
समाचार पत्र के रूप में प्रकाशित होने लगा। नाम हो गया 'मुंबई समाचार'। 'मुंबई
समाचार' ही देश में किसी भी भाषा में प्रकाशित होने वाला प्रथम दैनिक पत्र भी
है। लेकिन प्रेस की तकनीकी कठिनाइयों की वजह से जल्दी ही वह अर्द्ध साप्ताहिक
के रूप में निकलने लगा। 1855 तक यही स्थिति रही। प्रत्येक रविवार और बुधवार को
'मुंबई समाचार' के अंक प्रकाशित होते थे। 1855 से वह फिर दैनिक समाचार पत्र हो
गया। 1827 के बाद घटनाचक्र कुछ ऐसा चला कि 'मुंबई समाचार' के प्रेस, फरदुनजी
के बंगले आदि की जब्ती की नौबत आ गई। यहाँ तक स्थिति बनी कि उन्हें जेल न जाना
पड़े। उन्हीं हालात के बीच 11 अक्टूबर 1832 को फरदुनजी दमन जाकर रहने लगे। 27
मार्च 1847 को फरदुनजी का निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप जो लेख
प्रकाशित हुआ उसमें फरदुनजी की तुलना गुटेनबर्ग से की गई थी।
'भारतीय पत्रकारिता कोश' में श्रीधर जी ने भारतीय पत्रकारिता में 1907 के
महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उस साल कोलकाता से जस्टिस शारदाचरण मित्र
ने देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के लिए 'देवनागर' जैसा पत्र निकाला,
माधवराव सप्रे ने नागपुर से 'हिंदी केसरी' निकाला और मदन मोहन मालवीय ने
इलाहाबाद से 'अभ्युदय' निकाला। उसी साल इलाहाबाद से ही उर्दू साप्ताहिक
'स्वराज' निकला। अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जो कीमत 'स्वराज' ने चुकाई, उसकी
मिसाल दुनिया की किसी भाषा की पत्रकारिता में नहीं मिलती। 'स्वराज' सिर्फ ढाई
साल निकला। उसके कुल 75 अंक ही निकले किंतु उसके आठ संपादकों को कुल मिलाकर
सजा और देश निकाला मिला 94 साल 120 दिन। 'स्वराज' के संपादक पद के लिए इस तरह
विज्ञापन छपता था, "एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरहे-तनख्वाह (वेतन)
है जिस पर 'स्वराज' इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब (आवश्यकता) है। यह वह
अखबार है जिसके दो एडीटर बगावत आमेज मजामीन (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत
में गिरफ्तार हो चुके हैं। तब तीसरा एडीटर मुहैया करने के लिए जो इश्तिहार
दिया जाता है उसमें जो शरहे तन्ख्वाह जाहिर की गई है के ऐसा एडीटर दरकार है जो
अपने ऐशोआराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी और एक प्याला पानी को तरजीह
दे।" इस विज्ञापन को 'जू उन करनीन' ने फरवरी 1909 के अपने अंक में उद्धृत किया
है। इस तरह के विज्ञापन के बाद भी 'स्वराज' को संपादकों का टोटा न पड़ा।
'भारतीय पत्रकारिता कोश' पुस्तक से यह पता चलता है कि 1838 में 'बांबे टाइम्स'
किस तरह निकला। राबर्ट नाइट ने 1861 में 'बांबे टाइम्स', 'बांबे स्टेंडर्ड' और
'बांबे टेलीग्राफ' को मिलाकर 'टाइम्स आफ इंडिया' का प्रकाशन कैसे प्रारंभ किया
और 'बांबे टाइम्स' के प्रकाशन वर्ष को ही अपना प्रकाशन वर्ष स्वीकार किया।
राबर्ट नाइट ने मुंबई से कोलकाता आने के बाद 1875 में 'स्टेट्समैन' निकाला।
1878 में चेन्नै में छह नवयुवकों जी. सुब्रहमण्यम अय्यर, एम. वीरराघवाचार्य,
टीटी रंगाचार्य, पी.वी. रंगाचार्य, डी. केशवराव पंत और एन. सुब्बराव पंतुलु ने
अँग्रेजी साप्ताहिक 'हिंदू' का प्रकाशन प्रारंभ किया। 1883 से वह हफ्ते में
तीन बार छपने लगा। जनवरी 1889 से वह दैनिक हो गया। करुणाकरन मेनन उस दैनिक के
संपादक बने। 2 फरवरी 1881 से 'द ट्रिब्यून' को सरदार दयालसिंह मजीठिया ने
लाहौर से शुरू किया था। वह संस्थान अब चंडीगढ़ में है और वह आर्य समाज द्वारा
स्थापित ट्रस्ट द्वारा संचालित होता है। किताब बताती है कि 22 मार्च 1888 को
साप्ताहिक 'मलयाल मनोरमा' कैसे निकला। आरंभ में वह साप्ताहिक था। 1928 से वह
दैनिक हो गया। मदन मोहन भट्ट ने 1873 में बिहार का पहला अखबार 'बिहार बंधु'
निकाला। वह साप्ताहिक था।
'भारतीय पत्रकारिता कोश' पुस्तक में मराठी, तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड,
ओडिषी पत्रकारिता का भी कालक्रमानुसार विवरण भी दिया गया है। पत्रकारिता में
सभी भारतीय भाषाओं का योगदान रहा है इसलिए सभी भारतीय भाषाओं की सामग्री
'भारतीय पत्रकारिता कोश' में सँजोयी गई है। 'भारतीय पत्रकारिता कोश' को तैयार
करने में श्रीधर जी ने अपने कई सहयोगियों की मदद ली जिनका नामोल्लेख उन्होंने
'अपनी बात' में किया भी है। श्रीधर जी पत्रकारिता के इतिहास के अध्ययन की ओर
आज से छत्तीस साल पहले तब उन्मुख हुए थे जब डा. शिवकुमार अवस्थी ने हिंदी
ग्रंथ अकादमी के लिए मध्यप्रदेश की पत्रकारिता का इतिहास लिखने का उन्हें
दायित्व सौंपा। श्रीधर जी की वह पुस्तक 'मध्यप्रदेश में पत्रकारितारू उद्भव और
विकास' शीर्षक से 1989 में आई। उसका अद्यतन और परिवर्द्धित संस्करण मध्यप्रदेश
हिंदी ग्रंथ अकादमी ने हाल ही प्रकाशित किया है। वह किताब कई भ्राँतियों का
निवारण करती है। मसलन, यह तथ्य प्रमाणित करती है कि मध्यप्रदेश में पत्रकारिता
का इतिहास छह मार्च 1849 को इंदौर से हिंदी-उर्दू के द्विभाषी पत्र 'मालवा
अखबार' के प्रकाशन के साथ प्रारंभ हुआ और 'अखबार ग्वालियर' की प्रकाशन तिथि
जनवरी 1852 ठहरती है। श्रीधर जी की पैनी नजर केवल पत्रकारिता के इतिहास पर ही
नहीं है, वर्तमान पर भी है। उनकी नई किताब का शीर्षक ही है - 'समकालीन हिंदी
पत्रकारिता' जो पिछले साल सामयिक प्रकाशन से आई। उसमें 'हिंदी पत्रकारिताः कल,
आज और कल' पर प्रकाश डालते हुए श्रीधर जी ने आखिर में कुछ प्रश्न भी रखे हैं।
उस पुस्तक में पत्रकारिता की आचार संहिता, बाजार की पत्रकारिता, सांस्कृतिक
पत्रकारिता, संपादक का पन्ना, आजादी के बाद की दिल्ली, पूर्वी भारत, दक्षिण
भारत, पश्चिम भारत, उत्तर भारत, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़,
मध्यप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता पर आलेख संकलित हैं तो सोशल मीडिया पर भी।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता की सभी प्रवृत्तियों को समझने में वह
पुस्तक बहुत सहायक है।
विजयदत्त श्रीधर की किताब 'माधवराव सप्रे रचना संचयन' साहित्य अकादेमी ने
सालभर पहले जून 2017 में प्रकाशित की। वह किताब एक द्रष्टांत है कि चयन एवं
संपादन कैसे करना चाहिए। यही बात 'नारायण दत्त मनीषी संपादक' और 'मूल्य
मीमांसा' शीर्षक पुस्तकों के लिए भी सही है। उन दोनों पुस्तकों का संचयन और
संपादन भी श्रीधर जी ने ही किया है। 'माधवराव सप्रे रचना संचयन' 452 पृष्ठों
की किताब है और उसमें सप्रे जी की सभी महत्वपूर्ण रचनाओं को शामिल किया गया
है। 'छत्तीसगढ़ मित्र' के पुरोधा संपादक के रूप में सप्रे जी ने समालोचना विधा
को हिंदी में स्थापित किया था तो बाल गंगाधर तिलक के ओज और तेज का हिंदी में
संचार करने के लिए 'हिंदी केसरी' निकाला था। सप्रे जी कोशकार भी थे। सप्रे जी
की रचनाओं में प्रवेश करने की जमीन प्राक्कथन से तैयार होती है। प्राक्कथन में
श्रीधर जी ने निबंध, समालोचना, अनुवाद, अर्थशास्त्रीय चिंतन और कहानी उप
शीर्षकों के तहत इन विधाओं में सप्रे जी के अवदान तथा उनके सृजनात्मक
वैशिष्ट्य को रेखांकित किया है। श्रीधर जी की दूसरी संचयन प्रस्तुति 'नारायण
दत्त मनीषी संपादक' पुस्तक के तीन खंड हैं। पहले खंड में विश्वनाथ सचदेव तथा
जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी के परिचयात्मक आलेख और 'बनारसीदास चतुर्वेदी के चुनिंदा
पत्र' ग्रंथ पर कृष्ण बिहारी मिश्र की समीक्षा है। दूसरे खंड में नारायण दत्त
जी के पत्रकारिता विषयक 15 लेखों, समीक्षा तथा व्याख्यानों का संचयन किया गया
है। 'हिंदी पत्रकारितारू कुछ प्रवृत्तियाँ, स्थितियाँ और चिंताएँ, 'शुद्ध
हिंदी और हिंदी पत्रकार' तथा 'गणेश शंकर विद्यार्थी की देन के प्रति हम कितने
जागरूक' शीर्षक नारायण दत्त जी के आलेख एक गहरे नैतिक आवेग में लिखे गए हैं।
प्रणाम शीर्षक संपादकीय में विजयदत्त श्रीधर ने याद किया है कि 1989 में
नारायण दत्त जी ने उनकी शोध पुस्तक 'मध्यप्रदेश में पत्रकारिता का उद्भव और
विकास' को कैसे मँगवाया और भाषा फीचर सेवा से उसकी समीक्षा प्रसारित करवाई
जिसे कई अखबारों ने छापा और उसके बाद कैसे नारायण दत्त जी से श्रीधर जी की और
सप्रे संग्रहालय की निकटता बढ़ी। 'मूल्य मीमांसा' पुस्तक में विजयदत्त श्रीधर
ने कृष्ण बिहारी मिश्र की प्रतिनिधि रचनाओं का संचयन किया है। मिश्र जी को
श्रीधर जी साहित्य मनीषी कहते हैं। 'मूल्य मीमांसा' के संचयन में भी श्रीधर जी
ने गहरी सूझबूझ का प्रमाण दिया है। कृष्णबिहारी मिश्र के कृतित्व पर तीन लेख
दिए गए हैं जिनमें नारायण दत्त जी का लिखा 'गुण ज्येष्ठ' और राधावल्लभ
त्रिपाठी का 'परकाया प्रवेश से उपजा एकालाप' विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
साहित्य में मिश्र जी की बहुआयामी उपस्थिति जीवनी, निबंध, संस्मरण विधाओं तथा
पत्रकारिता के इतिहास के विशेषज्ञ के रूप में है। विभिन्न विधाओं में मिश्र जी
की सृजनशीलता की झाँकी 'मूल्य मीमांसा' पुस्तक में मिल जाती है। इसमें मिश्र
जी के जीवनी साहित्य (कल्पतरु की उत्सव लीला) का मुखड़ा 'रसे बशे राखिश मां',
दो निबंध 'आँगन की तलाश' और 'अराजक उल्लास', एक संस्मरण 'लालित्य की अंतरंग
आभा' (हजारीप्रसाद द्विवेदी पर) तथा पत्रकारिता विषयक उनके छह आलेख संकलित किए
गए हैं।
विजयदत्त श्रीधर की एक अन्य महत्वपूर्ण संपादित पुस्तक है - 'महामानव गांधी'।
इसी शीर्षक से अपने आलेख में श्रीधर जी कहते हैं, "उन्नीसवीं शताब्दी गांधी जी
के जन्म की, बीसवीं शताब्दी कर्म की और इक्कीसवीं शताब्दी विकल्प की है।
हिंसा-द्वेष-कलह-क्लेश की मारी इस दुनिया की मुक्ति और अस्तित्व रक्षा का उपाय
गांधी मार्ग का अवलंबन ही है।" इस किताब में कुल 19 लेख संकलित हैं। प्रमुख
लेखकों में शामिल हैं विनोबा, नेताजी, रमेशचंद्र शाह, कुमार प्रशांत, अरविंद
मोहन, संत समीर, अमृतलाल वेगड़, सुंदरलाल श्रीधर, मीनाक्षी नटराजन, जयश्री
पुरवार, कपूरमल जैन और कमल किशोर गोयनका। इसके अलावा सोहनलाल द्विवेदी की
कविता युगावतार गांधी भी भीतरी कवर पर प्रकाशित की गई है। गांधी जी की आत्मकथा
का अंश और उनकी आखिरी वसीयत भी दी गई है। जब राष्ट्रनायक ने राष्ट्रपिता से
आशीर्वाद माँगा शीर्षक आलेख से पता चलता है कि आजादी की लड़ाई में नेताजी स्वयं
गांधी की शुभकामनाओं के कितने आग्रही थे। बृजमोहन गुप्त ने बापू का पहला
रेडियो प्रसारण शीर्षक लेख में आँखों देखा हाल ही बता दिया है।
विजयदत्त श्रीधर ने जिस पवित्र आवेग के साथ किताबों में पत्रकारिता के इतिहास
को सँजोया, उसी आवेग के साथ भारतीय पत्रकारिता से संबद्ध दुर्लभ सामग्री को
सहेजने के लिए सप्रे संग्रहालय की स्थापना की। टैगोर ने जिस तरह शांतिनिकेतन
की स्थापना की, मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की, उसी तरह
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भोपाल में विजयदत्त श्रीधर ने सप्रे
संग्रहालय की स्थापना की। 1982-83 में मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के लिए
'मध्यप्रदेश में पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तक की पांडुलिपि तैयार करते हुए
संदर्भ सामग्री जुटाने के लिए विजयदत्त श्रीधर को मध्यप्रदेश के विभिन्न
स्थानों पर जाना पड़ा। तभी उन्हें इस संकट का एहसास हुआ कि अनेक विद्यानुरागी
परिवारों के पास समाचारपत्रों-पत्रिकाओं, अन्य दस्तावेजों और ग्रंथों का
दुर्लभ संग्रह है और जर्जर पृष्ठों में संचित वह राष्ट्रीय बौद्धिक धरोहर नष्ट
हो सकती है। व्याकरणाचार्य कामताप्रसाद गुरु के पुत्र पं. रामेश्वर गुरु
(जबलपुर) ने विजय दत्त श्रीधर को यह प्रेरणा दी कि इस सामग्री को एक छत के
नीचे संकलित और संरक्षित करने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए वह
ज्ञान कोश बचाया जा सके। श्रीधर जी ने 19 जून 1984 को भोपाल के ऐतिहासिक
कमलापति महल के पुराने बुर्ज से माधवराव सप्रे समाचारपत्र संग्रहालय शुरू
किया। 19 जून 1996 को सप्रे संग्रहालय अपने भवन में स्थानांतरित हुआ। शुरू में
संग्रहालय के पास महज 73 पत्र-पत्रिकाओं के 350 अंक थे। आज सप्रे संग्रहालय
में 25997 शीर्षक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ, 116393 संदर्भ ग्रंथ, 1467 अन्य
दस्तावेज, 500 लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों-पत्रकारों-राजनेताओं के 5000 से
अधिक पत्र, 163 गजेटियर, 345 अभिनंदन ग्रंथ, 620 शब्दकोश, 866 रिपोर्ट और 784
पांडुलिपियाँ संग्रहीत हैं। 378 पांडुलिपियाँ हस्तलिखित हैं जो 500 साल तक
पुरानी हैं। पुरानी पांडुलिपियों में मनुस्मृति, धर्म प्रवृत्ति, समयसार,
संहिताष्टक, कुंडार्कमूल, मुहूर्त चिंतामणि, श्री सूक्तक, गृहलाघव,
तत्वप्रदीप, कृत्य मंजरी, भाव प्रकाश, मिताक्षरा, झांसी को राइसो, श्रुतिबोध
जैसी 1509 से लेकर 1925 तक की पांडुलिपियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामविवाह मंगल, श्री राम गीतावली, प्रांगन गीता
एवं श्री उमा शंभु विवाह मंगल की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ भी संग्रहालय में
उपलब्ध हैं। दुष्यंत कुमार की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ और पत्र भी यहाँ
संरक्षित हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, वृंदावनलाल वर्मा, सेठ
गोविंददास, सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्रानंदन पंत, हजारीप्रसाद द्विवेदी,
मैथिलीशरण गुप्त, भवानीप्रसाद मिश्र और नंददुलारे वाजपेयी के पत्र भी यहाँ
संरक्षित हैं। खंडवा में माखनलाल चतुर्वेदी के अनुज बृजभूषण चतुर्वेदी, दिल्ली
में जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी, बेंगलुरु में नारायण दत्त, पटना में डा. श्रीरंजन
सूरिदेव, जबलपुर में रामेश्वर गुरु ने अपनी धरोहर सप्रे संग्रहालय को सौंपी।
देशभर में ऐसे 1000 से अधिक परिवार हैं जिनकी बौद्धिक धरोहर ने सप्रे
संग्रहालय को ज्ञान तीर्थ बनाया है। सप्रे संग्रहालय दाताओं के नाम से ही उनकी
सामग्री को संरक्षित करता है। अब तक 900 शोधार्थी अपने प्रबंधों के लिए इस
संग्रहालय की सामग्री का लाभ उठा चुके हैं। सप्रे संग्रहालय में शोध संदर्भ के
लिए महत्वपूर्ण सामग्री तीन करोड़ पृष्ठों से अधिक है। संचित सामग्री में
हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी, मराठी, गुजराती भाषाओं की सामग्री बहुतायत में है।
श्रीधर जी अब संग्रहालय का डिजिटलकरण कर रहे हैं। यह भारत में अपनी तरह का
एकमात्र न्यूज म्यूजियम है। अनेक दुर्लभ पत्र और उनके प्रवेशांक और कई
ऐतिहासिक पत्रिकाओं की पूरी फाइलें यहाँ उपलब्ध हैं।
समाचार पत्र संग्रहालय की स्थापना, पत्रकारिता विषयक शोध एवं इतिहास प्रलेखन
के प्रामाणिक प्रयत्नों तथा सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता के लिए विजयदत्त
श्रीधर को छह साल पहले 2012 में भारत सरकार ने पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित
किया था। श्रीधर जी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के
शोध निदेशक भी रहे। श्रीधर जी की वृत्ति पत्रकारिता ही रही है। उन्होंने 1974
में भोपाल से प्रकाशित 'देशबंधु' से विधिवत पत्रकारिता प्रारंभ की थी। उसके
चार साल बाद 1978 में वे 'नवभारत' से जुड़े। वहाँ उन्होंने 23 वर्ष का लंबा
कार्यकाल बिताकर संपादक के पद से अवकाश लिया। उनके कार्यकाल में 'नवभारत'
शीर्ष पर पहुँच गया था। श्रीधरजी ने 'नवभारत' को सबसे अधिक मजबूत आंचलिक
क्षेत्रों में ही किया। आंचलिक पत्रकारों के लिए उन्होंने 1976 में मध्यप्रदेश
आंचलिक पत्रकार संघ की स्थापना की। पत्रकारिता और जनसंचार पर केंद्रित मासिक
शोध पत्रिका 'आंचलिक पत्रकार' का संपादन और प्रकाशन भी सितंबर 1981 में
प्रारंभ किया। इस पत्रिका ने कई विशेषांक निकाले जैसे गुलामी के खिलाफ कलम और
कागज का जेहाद, राष्ट्रीय आंदोलन और पत्रकारिता, प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ,
हिंदी पत्रकारिता के 175 वर्ष, मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के 150 वर्ष,
सरस्वती. छत्तीसगढ़ मित्र, विज्ञान लेखन कौशल और चुनौतियाँ, महिला पत्रकारिता,
गणेश शंकर विद्यार्थी, द्वारकाप्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव
सप्रे, झाबरमल्ल शर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, गणेश मंत्री। वैसे 'आंचलिक
पत्रकार' का हर अंक ही अपने-आप में विशेषांक होता है। इसीलिए विद्यानुरागियों
को हर महीने इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है।
शोध और शोध सामग्री के संकलन-संरक्षण के प्रति श्रीधर जी की गहरी संलग्नता
दरअसल ज्ञान के प्रति उनके सात्विक समर्पण का ही सबूत है। मैंने जब उन्हें
पिछले साल गांधी युग के प्रमुख समाचार पत्र 'युगांतर' की कतिपय प्रतिलिपियाँ
भेजीं तो वे पुलकित हो गए और फोन कर मुझे धन्यवाद देते रहे। वे मेरी इस सूचना
से बहुत प्रसन्न हुए कि 'युगांतर' की मूल प्रतियाँ उन्हें सौंपे जाने की
तैयारी 'युगांतर' के संपादक शहीद राम दहिन ओझा के पौत्र प्रभात ओझा कर रहे
हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा कृष्णबिहारी मिश्र के सम्मान
में कोलकाता में आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए विजयदत्त श्रीधर फरवरी में
कोलकाता आए तो यहाँ भी दुर्लभ सामग्री के संकलन के लिए बेचौन दिखे। श्रीधर जी
स्वभाव से बहुत सरल हैं। मेरे आग्रह पर वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में आए और पत्रकारिता के विद्यार्थियों से
घंटों बातचीत करते रहे। सत्तर साल की उम्र में भी नौजवान जैसी उनकी सक्रियता
चकित करती है।