हिंदी में 'सेवासदन' और उर्दू के उपन्यास 'उमराव जान अदा' के प्रकाशन में लगभग बीस वर्ष का अंतराल है। 'उमराव जान अदा' का प्रकाशन 1899 में हुआ और 'बाज़ारे हुस्न' लगभग 1916-17 में लिखा गया, जिसका हिंदी संस्करण 'सेवासदन' शीर्षक से आया। 24 फरवरी 1917 को प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम को 'बाजार-ए-हुस्न' के बारे में लिखा था, "मैं आजकल किस्सा लिखते-लिखते नाविल लिख चला। कोई सौ सफे तक पहुँच चुका है। इसी वजह से छोटा किस्सा न लिख सका। अब इस नाविल में ऐसा जी लग गया है कि दूसरा काम करने को जी ही नहीं चाहता। किस्सा दिलचस्प है और मुझे ऐसा ख्याल होता है कि अबकी बार नाविल-नवीसी में भी कामयाब हो सकूँगा" 1 'सेवासदन अपने मूल रूप में उर्दू में तैयार था, जिसके बारे में अमृत राय ने लिखा कि "बाज़ारे हुस्न में मुंशीजी को अपनी जमीन मिल गई है। समाज में जितनी बेईमानी है, ढोंग ढकोसला है, उनपर चोट करने वाले किस्से लिखना ही उनकी अपनी बात होगी।" प्रेमचंद 'नॉविल-निगार' के तौर पर सेवासदन से प्रतिष्ठित हुए, और रुसवा के साथ भी यही हुआ। दोनों रचनाएँ बहुध्वन्यात्मक हैं और इन दोनों उपन्यासों में बतौर नायिका ऐसी स्त्री का चित्रण किया गया जो किन्हीं कारणों से 'पतिता' की श्रेणी में आती हैं। ये दोनों उपन्यास अपने-अपने ढंग से अपने समय-समाज की कथा कहने के साथ स्त्री की वकालत - स्वतंत्र अभिकर्ता के रूप में और यौनिकता के प्रति सजग स्वतंत्र मनुष्य के नजरिए से - करते हैं। 'सेवासदन' के प्रकाशन को सौ वर्ष बीत चुके हैं और इन सौ वर्षों में इस उपन्यास की पड़ताल विभिन्न दृष्टिकोण से की जा चुकी है। यह विश्व के विभिन्न विश्विद्यालयों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा है और सभी प्रमुख देशी -विदेशी भाषाओं में अनूदित है। यह आलेख 19वीं शती के उत्तरार्ध और बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में स्त्री यौनिकता के प्रश्न पर भारतीय लेखकों के रवैये की पड़ताल करने के प्रयास के साथ ही उर्दू और बांग्ला में प्रेमचंद के समकालीन रचनाकारों के स्त्री संबंधी रुझान का विश्लेषण भी इसमें अंतर्गुम्फित है। इसमें सेवासदन के उर्दू और हिंदी संस्करणों की तुलना का भी प्रयास किया गया है।
यह तय है कि स्त्री की चेतना का निर्माण न केवल जैविकता और दैनंदिन जीवन की स्थितियाँ करती हैं, बल्कि उसकी चेतना के निर्माण में 'सामुदायिकता' की भूमिका प्रमुख होती है। अपने समुदाय में उनके कुछ आदर्श होते हैं। ऐसे तमाम संरचनात्मक अवसर, जो स्त्री को स्त्री होने के कारण मिलते हैं - वे परिवार, समाज और समुदाय के अंतर्गत ही उन्हें उपलब्ध होते हैं। इन्हीं से स्त्रियों की अंतश्चेतना का निर्माण होता है, जिनके आधार पर वे अपनी जटिल पहचान को स्थापित करती हैं और किसी आदर्श या कर्तव्य के निर्वहण के लिए तत्पर होती हैं। लेकिन यह चेतना भी उनमें तभी आती है जब उन्हें एक वर्ग विशेष, समुदाय अथवा राष्ट्र के सदस्य के नाते एक वृहत्तर संस्कृति का अंग होने का अहसास हो। 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध का साहित्य देखें तो हमें पता चलता है कि संस्कृति के सांस्थानीकरण की प्रवृत्ति समाज-सुधार की अनिवार्य चिंता बन कर आई, जिसमें बाजार में स्त्री की कौन-सी छवि बिकनी है यह तय था। इसमे संस्कृति भी पण्य थी और स्त्री भी। आश्चर्य नहीं कि 1899 के दौर में 'उमराव जान अदा' जितनी लोकप्रिय हुई वह हिंदी उपन्यासकारों के लिए चुनौती थी, क्योंकि छपते ही उसके दसियों संस्करण निकल गए। प्रेमचंद ने 'बाज़ारे-हुस्न' लिखकर पाठकीय रुचि को समाज-सुधार की तरफ मोड़ना चाहा, पर उर्दू में उन्हें प्रकाशक नहीं मिला और इसका हिंदी तर्जुमा 'सेवासदन'के नाम से आया जो बतौर लेखक प्रेमचंद की आशंकाओं को धता बताते हुए आज की भाषा में कहें तो 'बेस्ट सेलर' साबित हुआ। 'सेवासदन' की सफलता से प्रेमचंद कितने उत्साहित थे इसका पता दयानारायण निगम को 25 अक्टूबर 1919 को लिखे उनके पत्र से चलता है : "...किस्से शायद मैं लिखूँ या न लिखूँ, आजकल बाज़ारे-हुस्न की सफाई और नए नाविल की तसनीफ में बेहद मसरूफ हूँ। बाज़ारे-हुस्न का गुजराती तर्जुमा शाया हो रहा है। ...हिंदी में लोग इसे बेहतरीन नाविल खयाल करते हैं।"2 मिर्ज़ा हादी रुसवा और प्रेमचंद दोनों ने तवायफ बन गई स्त्रियों का चित्रण किया। मिर्ज़ा साहेब गदर के बाद 1858 के लखनऊ की पैदाइश थे और प्रेमचंद 1880 के बनारस के पास के गाँव लमही की। मिर्ज़ा हादी रुसवा को शहराती स्वभाव विरासत में मिला था। इसके बरअक्स प्रेमचंद को ग्राम्यता मिली थी। अपने जीवन का बड़ा हिस्सा शहर में बिताने के बावजूद प्रेमचंद शहर के मनमाफिक मिजाज में ढल नहीं सके थे। दोनों रचनाकार फारसी और उर्दू में निष्णात थे और आजीविका के तौर पर दोनों ने लेखन को ही अपनाया, प्रेमचंद का अपना छापाखाना था वहीं मिर्ज़ा साहेब रासायनिक और खगोलीय प्रयोगों के साथ अपराध-कथा और जासूसी उपन्यास लिखने और पढ़ने का शौक रखते थे। प्रेमचंद, लेखन को सामाजिक सरोकार और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व से जोड़कर देखते थे। इन दोनों लेखकों को अपने पहले उपन्यास ने ही सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया। हालाँकि हादी ने 'उमराव जान अदा' से पहले 'अफशां-ऐ राज' शीर्षक उपन्यास लिखा पर वह अपूर्ण था और प्रेमचंद तो 'बाज़ारे हुस्न' को एक कहानी मानकर ही लिख रहे थे, जिसकी चर्चा उन्होंने जनवरी 1917 में मुंशी दयानारायण निगम को लिखे पत्र में की थी - "मैंने इसे कहानी के रूप में लिखना शुरू किया था, पर अब उसे उपन्यास के रूप में लिख रहा हूँ।"
'सेवासदन' का मुख्य कथानक है स्त्रीत्व के आदर्श से सुमन का पतन और उसके पुनः उत्थान का प्रयास, उधर 'उमरावजान अदा' का कथानक तवायफों के जीवन के अंदरूनी कार्यव्यापार, बाजार में बैठी स्त्री की तहज़ीब, रचनात्मक रुझानों और लोकप्रियता के व्याज से अपने समय-समाज से निर्मित हुआ है। 'सेवासदन' में प्रेमचंद सुमन से सुमनबाई बन जाने वाली स्त्री के पतन की कहानी सुनाते हैं और 'उमराव जान अदा' में हादी रुसवा अमीरन से उमराव बनी रेख्ती कहने वाली तवायफ की कहानी सुनाते (इसकी जगह सुनते होगा) हैं। 'सेवासदन' के छपते-छपते मिर्ज़ा हादी के उपन्यास को बीस वर्ष बीत चुके थे और इन बीस वर्षों का अंतराल उत्तर भारत में आ रहे बहुत से सांस्कृतिक-सामाजिक बदलावों और आहटों का अंतराल है। इसलिए 'सेवासदन' पर बात करने के लिए 'उमराव जान अदा' से होकर गुजरना जरूरी है। मिर्ज़ा हादी रुसवा 'उमराव जान अदा' को आपबीती या आत्मकथा या जीवनी कहने के पक्ष में हैं और भूमिका में लिखते हैं -
"अपनी आपबीती, वह जिस कदर कहती जाती थीं, मैं उनसे छुपा के लिखता जाता था। पूरी होने के बाद मैंने मसीदा लिखाया। इस पर उमराव जान बहुत बिगड़ीं। आखिर खुद पढ़ा और जा-बजा जो कुछ रह गया था, उसे दुरुस्त कर दिया। मैं उमराव जान को उस जमाने से जानता हूँ, जब उनकी नवाब साहब से मुलाकात थी। उन्हीं दिनों मेरा उठना-बैठना भी, अक्सर उनके यहाँ रहता था। बरसों बाद फिर एक बार उमराव जान की मुलाकात नवाब साहब से उनके मकान पर हुई, जब वह उनकी बेगम साहिबा की मेहमान थीं। इस मुलाकात का जिक्र आगे है। इसके कुछ अर्से बाद उमराव जान हज करने चली गईं।
उस वक्त तक की उनकी जिंदगी की तमाम घटनाओं को मैं निजी तौर से जानता था। इसलिए मैंने यह किस्सा वहीं तक लिखा, जहाँ तक मैं अपनी जानकारी से उनके बयान के एक एक लफ्ज को सही समझता था। हज वापसी के बाद उमराव जान खामोशी की जिंदगी बसर करने लगीं। जो कुछ पास जमा था उसी पर गुजर औकात थी। वैसे उनको किसी चीज की कमी नहीं थी। मकान, नौकर चाकर, आराम का सामान, खाना पहनना, जो कुछ पास जमा था, उससे अच्छी तरह चलता रहा। वह मुशायरों में जाती थीं, मुहर्रम की मजलिसों में सोज पढ़ती थीं और कभी कभी वैसे भी गाने बजाने के जलसों में शरीक होती थीं।
इस आप बीती में जो कुछ बयान हुआ है, मुझे उसके सही होने में कोई भी शक नहीं है। मगर यह मेरी जाती राय है। नाजरीन को अख्तियार है, जो चाहें समझें।" 3
इसके बाद पाठक बच्ची अमीरन के उमराव जान अदा में तब्दील होने और यश के शिखर पर पहुँचने के बाद स्वयं को पतित श्रेणी की स्त्री के रूप में पहचानने और फिर बदले जमाने में अपने अकेलेपन को अपनाकर हज पर जाने और इस शेर के साथ उपन्यास के अंत तक की यात्रा करता है -
मरने के दिन करीब हैं, शायद कि ऐ हयात
तुझ से तबीयत अपनी बहुत सेर हो गई 4
उमराव की जीवन-यात्रा फूलों भरी पगडंडी नहीं है। बचपन में अपहरण का शिकार हो वह खानम के कोठे पर आ बिकी। मौलवी साहेब से पढ़ाई-लिखाई सीखी, कोठे और बाजार के माहौल ने चौदह साल की उम्र में देह की भाषा सिखा दी, तवायफ बनने की पूरी प्रक्रिया उसने तफसील से बयान की है। कैसे एक साधारण साँवले रंग की किशोरी कोठे की तहजीब का अंग बन जाती है, पर आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती। कोठों पर आने वाले ग्राहक, सामंती समाज के अवशेषों के रूप में घिसी शेरवानी पहनने वाले खाली और भरी जेबों वाले नवाबजादे, नौजवान बिलकिस जैसी तवायफों की चालाकियाँ, हँसी-मजाक, मान-अपमान, नाच-गान, शेरो-सुखन पढ़ती-गुनती, मुजरों में जाती, अपने फन के बल अपर बाजार भाव से वाकिफ होते ही धीरे-धीरे वह खानम के नियंत्रण से बाहर निकल गई, कई बार छली गई, कई दोस्त बने, पर कहीं सच्चा प्रेम न मिला। कई मुजरे किए पर कोई घर न मिला। अपने मन की आवाज सुनी तो धोखे खाए। बचपन में बिछुड़े परिवार ने तवायफ जानकर उसे ठुकरा दिया। घर-गृहस्थी करने की इच्छाएँ रही भी हों तो उन्हें पूरा करना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि बाजारू औरतों को घर में जगह देना तो किसी सभ्य पुरुष के लिए संभव नहीं था। इसलिए हमपेशा स्त्रियों को वह नसीहत करती है - 'ऐ बेवकूफ रंडी! कभी इस भुलावे में न आना कि कोई तुझको सच्चे दिल से चाहेगा। तेरा आशना जो तुझ पर जान देता है चार दिन के बाद चलता-फिरता नजर आएगा। वह तुझसे हरगिज निबाह नहीं कर सकता और न तू इस लायक है। सच्ची चाहत का मजा उसी नेकबख्त का हक है, जो एक मुँह देखके दूसरे का मुँह कभी नहीं देखती। तुझ जैसी बाजारी शफतल को यह नेमत खुदा नहीं दे सकता।" 5
यह नेमत है - किसी का शरीकेहयात बनने की। नेमत जो गृहिणी को मिलती है, तवायफ को नहीं। तवायफ तो बाजारू ही रहेगी। इस सत्य को जानने के बावजूद उमराव का सपना है एक अदद सच्चा प्रेमी पा लेना। नहीं मिलना था नहीं मिला, हाँ इतना जरूर पता चल गया कि चाहे वह कितना ही सुरीला मर्सिया गाए, कितने अच्छे शेर कहे घर की चाहरदीवारी के भीतर उसकी कोई जगह नहीं, उसे तो प्रेमियों की संतानों के जनमवार पर दुआएँ गानी हैं, मजलिसों की रौनकें बढ़ानी हैं, बिना जाहिर किए कि मजलिस का मजा ले रहे, सुगंधित हुक्का पीते आशिकों के वायदों में वो भी कभी थी, उसे तो बख्शीश के चंद सिक्के लेकर अपने कोठे पर लौट आना है। यह अकेली तवायफ की कथा नहीं बल्कि गृहिणी बनाम तवायफ के मुद्दे को उन दिनों बहुत से रचनाकारों ने उठाया, क्योंकि मिर्ज़ा हादी रुसवा जिस उमराव की आपबीती लिख रहे थे वह गदर के बाद के लखनऊ की तवायफ है, जिसे कलावंत नहीं बल्कि पतित स्त्री का दर्जा दिया गया वो ब्रिटिश राज के कानूनों की बदौलत है। इस प्रसंग में उत्तर भारत की कोठा या तवायफ संस्कृति पर एक नजर डाल लेना जरूरी है, क्योंकि सन 1858 से 1877 के म्युनिसिपल रिकार्ड रूम के खातों में अधिकतम कर देनेवालों में वे स्त्रियाँ हैं जिन्हें रिकार्ड्स में 'नाचने और गाने का व्यवसाय करने वाली लड़कियाँ' कहा गया। नागरिक कर-खातों में संयुक्त प्रांत की इन तवायफों के संपत्ति-स्रोतों में बगीचे, घर, खेत, दुकानों की पूरी सूची हमें मिलती है जिनकी गिनती ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोहियों का साथ देने वाले नागरिकों में की गई। गदर के बाद इन तवायफों को सत्ता के खिलाफ षड्यंत्र रचने, विद्रोहियों को आश्रय देने और नवाब वाजिद अली शाह के पक्षधरों के रूप में चिन्हित किया गया। तवायफों को ब्रिटिश सरकार द्वारा निरंतर मेमोरेंडम दिए जाते थे, लखनऊ और अन्य सैनिक छावनियों के लिए इन्हें खतरा माना जाता था, क्योंकि जितने ब्रिटिश सैनिक गदर में नहीं मरे उनसे तीन गुना ज्यादा यौन-रोगों से मरे। यह अनुभव किया गया कि स्वस्थ छावनियों में ही सैनिक रोगमुक्त रह सकते हैं। इसलिए 'संक्रामक रोग अधिनियम 1864' पारित कर वेश्याओं की चिकित्सा जाँच तथा उनका पंजीकरण अनिवार्य कर दिया। अखबारों में खबरें प्रकाशित हुईं कि अनेक वेश्याओं ने पुलिस उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या कर ली।"6 इस अधिनियम के आने के पहले ही, यानि 1856 में, अवध में तवायफों को मिलने वाली पेंशन दी गई थी। 1857 में तो वे संदेह के घेरे में आ गई थीं, लेकिन 1864 से तो वे अति साधारण देह-श्रमिकों में तब्दील हो गईं। वे स्त्रियाँ जो साहित्य-संस्कृति, कला की वाहिकाएँ बनकर पुराने समय से ही शासन, सत्ता और संस्कृति में सम्मानित हुआ करती थीं, बदले समय में अपनी कलाओं के साथ भरण-पोषण के लिए बाजारों में बैठने लगीं। ब्रिटिश कानूनों ने उन्हें बेहद दीनावस्था में पहुँचा दिया अब वे 'सिंगिंग एंड डांसिंग गर्ल्स' बनकर सिविक टैक्स खातों में कर अदाकर्ता थीं। ये बदले समय की नई तरह की चुनौतियाँ थीं, जहाँ एक तरफ सभ्य नागरिक समाज था जो इन तवायफों पर टैक्स लगा रहा था साथ ही उनके साथ अपने संपर्कों को अवैध समझता था और कानूनी प्रावधानों के तहत इनकी मेडिकल जाँच करवाता था। शरीर के निरीक्षण-परीक्षण से बचने के लिए ये अक्सर नर्सों, दाइयों और पुलिस को उत्कोच देती थीं। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनकी ये रणनीतियाँ थीं।
झूला किन डारो रे अमराइयाँ : स्त्रीत्व का उत्सव
इस पेशे के पारंपरिक स्वरूप को संदेहास्पद बना दिए जाने के बावजूद पुरुषों की दुनिया में ये औरतें एक विशिष्ट सत्ता और पहचान के साथ उपस्थित रहीं। जिस बृहत्तर समाज का वे अंश हैं - उसने दिन के उजाले में उनसे गुरेज किया और रात की रोशनी में संग-कामना की। इन तवायफों के जीवन में पुरुष-सत्ता परंपरागत अर्थों में न थी, न है। अपने दायरे में गाने-बजाने वाली स्त्रियाँ अपनी यौनिकता के साथ हमेशा उत्सवित रहीं, और यदि फ्रायडीयन सिद्धांत को मानें तो यौनिकता एक नैसर्गिक कामप्रवृत्ति है सामाजिक नीति-नियमों से विद्रोह करती है, अपनी स्वच्छंद परवाज के लिए, जो पंख पा जाए तो आत्मा को मुक्त कर डालती है, जंजीरों में जकड़ दी जाए तो दमित कुंठा बनने में वक्त जाया नहीं करती। वही यौनिकता संस्कृति का सहारा लेकर कभी इन स्त्रियों को सम्मानित तो कहीं अपमानित करती रही। लेकिन अपने समूह, अपने कोठों के दायरे में ये यौनिकता का न सिर्फ उत्सव मनाती रहीं बल्कि सैकड़ों-हजारों लोगों जिनमें पुरुष, बच्चे, ख्वाज़ासरा, हाशिये पर धकेल दिए गए बुजुर्ग, दिवालिये हो चुके ग्राहक, विभिन्न प्रकार के छोटे-मोटे काम करने वाले - मसलन, कहार, धोबी, फूल बेचने वाले, पनवाड़ी, मद्य विक्रेता इत्यादि को रोजगार मुहैय्या करवाती रहीं। जहाँ-जहाँ ये गईं वहाँ दर्जी, हज्जाम, रंगरेज, हलवाई, किराने, सर्राफे की दुकानें खुलती गईं। या यूँ कहें कि इन स्त्रियों से बाजार बसते गए और कोठों के भीतर अपनी अलग अस्मिता का उत्सव ये मनाती दीखीं जो भीतर ही भीतर जीवन-राग की तरह बजता रहा। उन्होंने अपने निजी मंतव्यों, परिभाषाओं, विवरणों के साथ जीना सीखा। औपनिवेशिक भारत द्वारा प्रदत्त अपमानों ने उन्हें और चतुर और व्यावहारिक बनाया और वे अपने स्त्रीत्व के साथ एक दूसरी दुनिया रचने में कामयाब रहीं। इनमें से कुछ या बहुत की अभिलाषा गृहस्थिन बनने की भी रहा करती। एक लंबे समय तक बहुविवाह या रखैल की हैसियत से एकनिष्ठ प्रेम में भी मुब्तिला रहा करतीं और इसके ढेरों प्रमाण भी मिलते हैं। दूसरी तरह बड़े - सेठों, रसूखदार - लोगों से संपर्क के कारण वे सत्ता को भी प्रभावित किया करतीं, वे अपने संपर्कों से कई जरूरतमंदों का भला किया करतीं। इसके प्रमाण भी मिलते हैं कि संपन्न तवायफें, बुजुर्ग हो चुके तबलचियों, सारंगियों, संगतकारों, मौलवियों, चौकीदारों को पेंशन दिया करतीं थीं, और वयस प्राप्त, रोगी बुजुर्ग तवायफों की देखभाल और इंतजाम करने की मानवीय संस्कृति का पोषण भी कई कोठों में किया जाता था। अवध के नवाब वाज़िद अलीशाह के निष्कासन के बाद उनकी पनाह में रहने वाली तवायफों ने दरबारी संस्कृति के सलीके और तहजीब को सँभाले रखा। आज भी उनकी वंशज लखनऊ में हैं जो गर्व के साथ अपनी पूर्वजाओं का जिक्र करती हैं, जिनके कोठों पर कन्याजन्म पर उत्सव मनाया जाता है और पुत्र जन्म पर मनहूसियत छा जाती है। अपने समय में ये तवायफें काफी रुतबेदार थीं। 18वीं शताब्दी में उन्होंने स्वयं को अवध के दरबार में स्थापित कर लिया था। अब्दुल हलीम 'शरर' लिखते हैं कि - "लखनऊ की वेश्याएँ आमतौर पर तीन जातियों की थीं : एक तो कंचनिया जो असली रंडियाँ थीं और उनका पेशा आम तौर पर सतीत्व बेचना था। दूसरी चूनेवालियाँ थीं जिनका असली पेशा चूना बेचना था मगर बाद में बाजारी औरतों के गिरोह में शामिल हो गईं और अंत में जाकर उन्हें बड़ी ख्याति मिली। चूने वाली हैदर जिसका गला मशहूर था और समझा जाता था कि उसका-सा गला किसी ने पाया ही नहीं, इसी जाति की थी और अपनी बिरादरी की रंडियों का बड़ा गिरोह रखती थी। तीसरी नागरानियाँ थीं। तीनों वे बाजारी स्त्रियाँ जिन्होंने अपने गिरोह कायम कर लिए हैं और बिरादरी रखती हैं वरना बहुत सी और कौमों की औरतें भी आवारगी में पड़ने के बाद इसी गिरोह में शामिल हो जाती हैं... ज़ोहरा और मुश्तरी कवयित्रियाँ और गायिकाएँ ही नहीं उच्च कोटि की नर्तकियाँ भी थीं।7 उधर अवध के वजीर रहे हकीम मेहँदी ने अपनी सफलता के पीछे प्यारी नामक तवायफ की भूमिका का जिक्र किया है। अवध की तहजीब और गायन-नृत्य कलाओं को बचाए रखने का काम इन तवायफों ने किया, हिंदुस्तानी संगीत और कत्थक जैसी नृत्य शैली इन्हीं के संरक्षण में पुष्पित- पल्लवित हुई। अब्दुल हलीम 'शरर'ने रेख्ती (उर्दू का एक काव्यांग) में रचना करने वाली बहुत-सी तवायफों का जिक्र 'गुज़िश्ता लखनऊ'में किया है। लखनऊ की तवायफें लंबे समय तक वहाँ की जटिल सोपानिक समाज-व्यवस्था का अंग बनी रहीं। चौधराइन के नेतृत्व में कोठा चलता था, जो अब भी नई उम्र की लड़कियों को तवायफ बनने के कायदे सिखाती हैं। संपन्न और आभिजात्य वर्ग के लोग इनके सरपरस्त बनते थे, जो नई बनी तवायफों को धन देकर खरीद लेते थे, जिसमें से चौधराइन को एक तिहाई हिस्सा बतौर कमीशन मिला करता था। इन तवायफों के अलावा अपहृत या खोई हुई लड़कियाँ भी, जिन्हें रंडी कहा जाता था और जो कोठे में रहती थीं और तवायफों की अपेक्षा कम इज्जत पाती थीं। इनके अलावा पर्देदार विवाहिताएँ जिन्हें खानगी कहा जाता था - वे भी आर्थिक कारणों से कोठों से जुड़ी रहती थीं। बदले में वे अपनी आय का एक हिस्सा चौधराइन को देती थीं। चौधराइन कोठे पर पहरेदार, चौकीदार, दरजी, कहार की तनख्वाहें देती थीं, कोठों के निचले हिस्से संगतकारों, नौकरों से आबाद रहते थे वे अक्सर उनके लिए खुफियागिरी कर पुलिस से बचाते थे।
दश्ते जनूँ की सैर में बहला हुआ था दिल
जिंदा में लाए फिर मुझे अहबाब घेर के।
मिर्ज़ा हादी रुसवा उर्दू के वे पहले साहित्यकार हैं जिन्होंने कोठों और तवायफों की जिंदगी का अत्यंत प्रामाणिक वर्णन किया है। शारिब रुदौलवी का कहना है कि 'उमराव जान' में 19वीं सदी का लखनऊ पूरी तरह से उजागर हुआ है और यही इस नॉवेल की खूबी है। हालाँकि बतौर लेखक रुसवा की गहरी दिलचस्पी अपराध कथाओं में थी। उन्होंने खूनी श्रृंखला में कई उपन्यास लिखे थे। उनकी पैनी नजर ने लखनऊ की तवायफों के जीवन को देखने में मदद की होगी, इसलिए वे संक्रमणकालीन अवध प्रांत की सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों को 'उमराव जान अदा' में उकेर सके। तवायफें जो अवध की संस्कृति का अविभाज्य अंग थीं, रुसवा के देखते न देखते उन्हें जबरन देश भर में फैली 110 ब्रिटिश सैन्य छावनियों में भेजा जाने लगा। इससे न सिर्फ इस पेशे का अमानवीकरण हुआ बल्कि तवायफों को गर्हित दृष्टि से देखा जाने लगा। माना जाने लगा कि कोठों पर अपहृत, घर्षित, बलात्कृत स्त्रियाँ ही जाती हैं। ब्रिटिश राज ने इनके सांस्कृतिक अवदान को सिरे से नकार दिया। जबकि सच्चाई यह थी कि इनमे अपहृत लड़कियों का प्रतिशत बहुत कम होता था, बाल-विधवाएँ, घर से सताई, उत्पीड़ित, भूखी, धनहीन, अशिक्षित, आश्रयहीन, महामारियों में परिवार को खो देने वाली और कुछ नाच-गान में गहरी रुचि रखने वाली स्त्रियाँ होती थीं। कुछ ऐसी स्त्रियों ने भी कोठों की राह पकड़ी जो परिवार और पितृसत्ता की अधीनता से तंग आ चुकी थीं। स्त्रियों में अशिक्षा, रोजगार के अवसरों का अभाव और पितृसत्तात्मक मूल्यों की दबंगई के कारण कइयों को तवायफ का पेशा अपनाना पड़ा और कालांतर में वे मात्र देह श्रमिकों में अवमूल्यित या रिड्यूस हो गईं। उधर पश्चिम में भी उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी उपन्यासों में इन्हें अमर्यादित जीवन जीने वाली स्त्रियाँ कहा गया और उनके भीतर चलने वाले पाप-पुण्य के द्वंद्व को जगह दी गई। इस दौर के उपन्यासों में मर्यादित बनाम पतित स्त्री का द्वित्व विलोम रचा गया, जिसे पाठकों में लोकप्रियता हासिल हुई। विक्टोरियन शुद्धतावादी मूल्यों की प्रतिस्थापना में इस तरह के कथानकों ने ध्यान आकर्षित किया। औपनिवेशिक भारत में, विशेषकर बंगाल और आगे चलकर उत्तर प्रदेश में भी, समाज में स्त्री-पुरुषों की अनियंत्रित यौनिकता की आलोचना की गई। स्त्री की आकांक्षा और यौनिकता अब विशेष संदेह और नियंत्रण के घेरे में थी। समाज सुधारकों को यह समझ में ही नहीं आया कि ये स्त्रियाँ जैसी भी, जिस रूप में हैं उसके पीछे संस्कृति की बहुत बड़ी भूमिका को देख जाना जरूरी है। सामंती समाज के खोखले मूल्य, पितृसत्ताक व्यवस्था और लैंगिक एवं जातीय विभेद, दहेज, अनमेल विवाह, बाल-विवाह और सबसे बढ़कर स्त्री-देह को पण्य समझने की संस्कृति ने इन्हें कोठों की और धकेला, और यह भी कि अपहरण, यौन हिंसा, अविवाहित मातृत्व की पीड़ा, निर्धनता, परिवार द्वारा इनका परित्याग, सामाजिक एवं घरेलू हिंसा ने कितनी स्त्रियों को देह व्यापार की और मुखातिब कर दिया, जहाँ से वापस लौटने के रास्ते बंद थे।
चाहता हूँ कि उसे पूजना छोड़ूँ लेकिन
कुफ्र जो ख़ूँ में है दीं पर नहीं आने देता
आदर्श स्त्री की जो अवधारणा प्रेमचंद को अपने समाज से मिली थी, वह त्यागमयी, एकनिष्ठ, पतिप्राणा की थी। उसे समग्रता में विश्लेषित करने पर कई बिंदु आपस में गुँथे दिखाई देते हैं जिनकी अर्थच्छटाओं को समझने के लिए औपन्यासिक परिदृश्य को समग्रता में देखे जाने की जरूरत है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के गद्य में साहित्य-रूपों और कथ्य की भिन्नता के बावजूद एक ही जैसे कथानक का दोहराव यह बताता है कि राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में सांस्कृतिक मूल्यों और राजनीतिक उद्देश्य की भूमिका प्रमुख थी। प्रेमचंद के समूचे कथा साहित्य में एक खास किस्म की अंतःसूत्रता है। स्त्री संबंधी मुद्दों पर वे न तो संकीर्ण हैं न प्रतिगामी। ऐतिहासिक संदर्भ में प्रेमचंद के स्त्री पात्र परंपरागत स्त्री की भूमिका से कहीं आगे नेतृत्वकारी भूमिका की आहट देते हैं। उदाहरण के लिए आने वाले दिनों में स्त्री चेतना के विभिन्न पड़ावों का पता 'सेवासदन' की सुमन से लेकर 'गोदान' की मालती जैसी पात्र देती हैं। यहाँ सवाल यह है कि स्त्री संबंधी नैतिकता की अवधारणा वे कहाँ से ग्रहण करते हैं। साथ ही क्या वे अपने समय के एकमात्र ऐसे रचनाकार थे जो स्त्री की नैतिकता को समाज-सुधार से जोड़कर देखते थे। प्रेमचंद का स्त्री संबंधी नजरिया और उनके द्वारा प्रस्तुत की गईं जेंडर की छवियाँ समाज में स्त्रियों की स्टीरियोटाइप छवियों से कैसे प्रभावित हैं। साथ ही स्त्री यौनिकता के मुद्दे पर उनका ट्रीटमेंट क्या है यह देखने की बात है। प्रेमचंद का समय बौद्धिक संक्रमण से प्रभावित है जिसमें औपनिवेशिक समाज बनाम परंपरागत भारतीय समाज, परंपरा बनाम आधुनिकता की टकराहटें और अंतर्विरोध सामने आ रहे थे जो वस्तुतः ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है। इधर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर गांधी आ और छा चुके हैं। भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर गांधी के आने के साथ ही स्त्री संबंधी उनके विचारों को सांस्कृतिक उत्थान से जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था, जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रेमचंद में दिखाई देती है। सेवासदन में विट्ठलदास गांधी के यौनिकता संबंधी विचारों का वाहक बनकर आता है - 'महत्तर आध्यात्मिक उन्नति के लिए दुनियावी खासकर यौन सुख की इच्छा पर विजय पाना जरूरी है' महात्मा गांधी भी मगनलाल गांधी को लिखे एक पत्र में अपनी यौनेच्छाओं पर नियंत्रण की बात करते हैं।8 भारतीय आदर्श स्त्री की छवि मातृत्व से संपृक्त है। इस मातृत्व को 'धरती माँ' से जोड़कर देखा जा रहा है, स्त्री का एक अमर्यादित आचरण इस आदर्श छवि को ध्वस्त कर दे सकता है। प्रेमचंद का कहना है - "स्त्री में स्त्रीत्व ही नहीं, बल्कि मातृत्व भी होना चाहिए। जब तक वह भाव न हो, तब तक किसी से प्यार, पालन कुछ भी संभव नहीं" 9 यह छवि भारतीय जन की अपनी है - नितांत निजी - ब्रिटिश प्रभुओं का कोई दखल नहीं, जिसे बाहरी आक्रमणकारियों, हमलों से बचाना है। इसलिए प्रेमचंद स्त्री में उन गुणों की स्थापना और कल्पना करते हैं जिसे शिक्षा द्वारा नई स्त्री-छवि का आदर्श वहन करना था।10 इसके अलावा प्रेमचंद को विरासत में या तो तिलिस्मी, ऐय्यारी, जासूसी उपन्यास मिले थे या देवरानी-जेठानी की कहानी, वामा-शिक्षक जैसी पुस्तकें, जिन्हें 'कंडक्ट बुक्स' या आचरण-पुस्तक कहा गया है।11 इधर गांधी ने निजी और आश्रम जीवन में स्त्री संबंधी प्रयोग किए। उनका मानना था कि स्त्रियों में सहनशीलता पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा होती है। गांधी जी का कहना था कि "भारत से केवल अंग्रेजों को और उनके राज्य को हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उद्धार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे-पढ़े लोग पश्चिम के मोह में फँस गए हैं। जो लोग पश्चिम के असर तले नहीं आए हैं, वे भारत की धर्म-परायण नैतिक सभ्यता को मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्ति का उपयोग करने का तरीका सिखाया जाए, सत्याग्रह का रास्ता बताया जाए, तो वे पश्चिमी राज्य-पद्धति का और उससे होने वाले अन्याय का मुकाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबल के बिना भारत को स्वतंत्र करके दुनिया को भी बचा सकेंगे। आगे वे यूरोप की सभ्यता और वहाँ की संसद को 'वेश्या' कहते हैं "...जैसे बुरे हाल बेसवा के होते हैं, वैसे ही सदा पार्लियामेंट के होते हैं। ...यह सभ्यता तो अधर्म है और यह यूरोप में इतने दरजे तक फैल गई है कि वहाँ के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं। उनमें सच्ची कु़बत नहीं है; वे नशा करके अपनी ताकत कायम रखते हैं। एकांत में वे बैठ ही नहीं सकते। जो स्त्रियाँ घर की रानी होनी चाहिए, उन्हें गलियों में भटकना पड़ता है, या कोई मजदूरी करनी पड़ती है। इंग्लैंड में ही चालीस लाख गरीब औरतों को पेट के लिए सख्त मजदूरी करनी पड़ती है, और आजकल इसके कारण 'सफ्रेजेट' का आंदोलन चल रहा है।" 12
स्पष्ट है कि गांधी जी के लिए देह-श्रमिक स्त्रियाँ बहुत सम्मान की पात्र नहीं हैं, यानि यौनिकता की बात तो दूर वे स्त्रियों के स्वावलंबन की भी आलोचना यूरोपीय संदर्भों में करते दीखते हैं। भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर गांधी के आने के साथ ही स्त्री संबंधी उनके विचारों को सांस्कृतिक उत्थान से जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था, जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रेमचंद के यहाँ दिखाई देती है। इसी कारण से ममता, त्याग, समर्पण, सहनशीलता को विशिष्ट गुण माना गया और जिसके कारण स्त्रियों को पुरुषों से श्रेष्ठ माना गया और प्रेमचंद ने इन गुणों को वहन करने वाले पुरुष को 'देवता' की उपाधि दे डाली। गांधीजी की तरह प्रेमचंद भी पश्चिमी तर्ज पर मध्यवर्ग या शहरी बुर्जुआ की ओर नहीं देखते बल्कि हाशिये पर पड़े किसान, मजदूर और औरतों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। वे गांधी से एक कदम आगे जाकर क्रांतिकारी भूमिका निभाते दीखते हैं -जिसे विशिष्ट काल-खंड और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। यहीं पर उनका लिखा हुआ साहित्य प्रचलित मानसिकता के अंतर्विरोधों को व्यक्त करता दीखता है। यद्यपि प्रेमचंद अपने निबंधों और कहानियों में स्त्री-प्रश्नों पर उपन्यासों की अपेक्षाकृत ज्यादा प्रगतिकामी दिखाई देते हैं, लेकिन यथार्थ का दबाव उन पर इतना ज्यादा है कि समाजसुधार के एजेंडे को लेकर चलने के बावजूद क्रांतिकारी किस्म की प्रगतिशीलता को उनके पाठक स्वीकार नहीं कर पाते। संभवतः इसीलिए उनकी वे कहानियाँ लोकप्रियता अर्जित करने से रह जाती हैं, जो इस पैटर्न पर रची गई हैं। प्रेमचंद के उपन्यास हमें इस बात का पता देते हैं कि कैसे संस्कृति का सांस्थानिकीकरण किया जाता है और साहित्य भी उसी संस्कृति का हिस्सा है जिसमें बाजार में स्त्री की कौन सी छवि बिकनी है - यह तय होता है। यह भी कि संस्कृति भी बाजार में बिकने की वस्तु है। प्रेमचंद समाज की गतिविधियों को शब्द और संवाद ही नहीं देते, बल्कि उसमें दखल भी देते हैं। शांता जो अपनी सगी बहन को अपने घर में सम्मान नहीं दे सकी उसके पतिव्रत के बारे में प्रेमचंद की सुमन सोचती है - "उसके मन ने कहा जिसे पतिव्रत जैसा साधन मिल गया है, उसे अब और किसी साधन की क्या आवश्यकता? इस में सुख-संतोष और शांति सबकुछ है" इसलिए सदन के गायब हो जाने पर भी शांता अपना पातिव्रत्य नहीं छोड़ती और अंततः उसे इसका पुरस्कार भी मिलता है - एक सुखी परिवार के रूप में। प्रेमचंद सुमन को उसके विलोम में रूप में चित्रित करते हैं, जो चली आती हुई रूढ़ियों से अलग हटकर चलने का प्रयास करती है। वह अपने बल पर जीना चाहती है, पातिव्रत्य की महिमा को समझने का प्रयास नहीं करती, इसलिए मुँह की खाती है। वैसे प्रेमचंद चहारदीवारी के भीतर तो स्त्री स्वावलंबन के पक्षधर हैं लेकिन स्त्री के घर के बाहर नौकरी करने को वे बहुत सम्मान नहीं दे पाते जिसे वे पत्नी शिवरानी देवी के साथ अंतरंग संवादों में खुलकर अभिव्यक्त करते हैं। शिवरानी देवी लिखती हैं -
"मैं बोली - मैं देखती हूँ कि यहाँ भी काफी स्त्रियाँ नौकरी करने लगी हैं।
आप बोले - नौकरियाँ करने लगी हैं, मगर वह अच्छा नहीं है, मैं इसको अच्छा नहीं समझता। अब इसका नतीजा क्या हो रहा है? अब पुरुष और स्त्री दोनों नौकरियाँ करने लगे, तब इसके माने क्या हैं? रुपये ज्यादा आ जाएँगे। उसी का तो यह फल है कि पुरुषों की बेकारी बढ़ रही है।
मैं बोली - कुछ हो स्त्रियों की कुछ अपनी कमाई तो रहती ही है।
आप बोले - यह कमाई का सवाल अभी थोड़े दिनों से उठा है, नहीं तो पहले स्त्रियों की कमाई एक पैसा नहीं होती थी। और स्त्रियाँ काफी दबदबे के साथ घर पर शासन करती थीं।"13
प्रेमचंद अपने विचारों में सुदृढ़ हैं, वे परंपराओं की आलोचना तो करते हैं लेकिन सुमन जैसी स्त्री जो परंपरागत खाँचे में नहीं आती, उसकी तवालत और मुसीबतों को खूब बढ़ा चढ़ा कर चित्रित करते हैं, वे मेटा-लिटरेरी फंक्शन के तहत काम करते हैं, समाज सुधारकों का यथार्थ, जीवन की बहुस्तरीयता, स्त्री की बेचैनी, स्वातंत्र्य की पिपासा और अंत में विवश होकर सत्पथ की ओर लौटा लाना उनके अंतर्द्वंद्व को भी दर्शाता है। इस अंतर्द्वंद्व को बांग्ला उपन्यासों में भी देखा जा सकता है जहाँ इस दौर में उपन्यासकार विवाह-संस्था का क्रिटीक पेश कर रहे थे। उदाहरण के तौर पर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का 'कृष्णकांतार विल'(1878) और शरतचंद्र के 'चरित्रहीन' (1913) को देखा जा सकता है। यह वह दौर था जब ये लेखक समाज सुधार के एजेंडे को लेकर सिर्फ चल ही नहीं रहे थे, उसका एक क्रिटीक भी रच रहे थे जिसके लिए उपन्यास विधा सबसे उपयुक्त थी। बंगला के उपन्यासों में सतीत्व और पत्नीत्व के महिमामंडन का क्रिटीक रचकर समाज में व्याप्त कुरीतियों को उभारा गया। इसके उदाहरण के तौर पर बंकिमचंद्र, जो पारंपरिक किस्म के सुधारवादी माने जाते थे, उनकी नायिका बाल-विधवा रोहिणी के चरित्र को देखा जा सकता है जिसके भीतर विद्रोह की लपट है। 'कृष्णकांतार विल' में वह कहती है - "मेरी किस गलती की सजा मुझे मिली है कि मैं बाल-विधवा होकर संसार के सभी सुखों से वंचित रहूँ? क्या मैं दूसरों की तुलना में ज्यादा पापी हूँ कि मुझे नियति के नाम पर सभी सुखों से वंचित रहना होगा। अपना समूचा यौवन और सौंदर्य लिए हुए, किस दुख से अपना जीवन लकड़ी के सूखे कुंदे-सा व्यतीत करना होगा।"14 प्रेमचंद के 'सेवासदन' की तर्ज पर रोहिणी से यह अपेक्षा की जाती है कि स्त्री अपनी यौनिकता और भौतिक सुखों के बारे में न सोचे, सोचे तो सिर्फ यही कि अगले जन्म में पति पाने के लिए इस जन्म में कष्ट करना जरूरी है। और, सुमन जैसी स्त्री को अपने चरित्र में सुधार के लिए विधवाश्रम रहना तजवीज किया जाता है। इसके अलावा बांग्ला के उपन्यासों में एक दूसरी प्रवृत्ति भी देखी गई जो अधिक रेडिकल थी, जिसमें विधवा पुनर्विवाह की वकालत की गई ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो सके। शरतचंद्र के 'चरित्रहीन' की नायिका बाल-विधवा है। अपने प्रेमी सतीश से गहरा आतंरिक जुड़ाव होने के बावजूद वह पुनर्विवाह के लिए तैयार नहीं होती। उसे मालूम है कि सभ्य समाज इस संबंध को स्वीकृति नहीं देगा। वह अपने पक्ष में नहीं खड़ी होती। वह पुरुष के पक्ष में खड़ी होकर आत्मोत्सर्ग से पाठक की अप्रतिम सहानुभूति अर्जित कर लेती है और पाठक भावात्मक रूप से विधवा-पुनर्विवाह के पक्ष मे खड़ा हो जाता है। इस दौर के उपन्यासों में बंगाली विधवा का जीवन विशेष रूप से रेखांकित किया गया कि कैसे पति के मरते ही विधवा स्त्री से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह स्वयं को जीवन की मुख्यधारा, समस्त सुख-आराम से अलग कर ले और बेहद त्यागमय, पवित्र जीवन व्यतीत करे। तनिका सरकार ने इन विधवाओं की कठिन जीवनचर्या, इच्छाओं पर आत्मनियंत्रण, व्रत-उपवास, ईश-भजन समन्वित दिनचर्या का विश्लेषण किया है।15 प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में विधवा स्त्रियाँ समस्या के रूप में आती हैं लेकिन उनकी सिर्फ दो रचनाएँ हैं जिनमें विधवा-विवाह का प्रसंग आता है। 17 मई 1932 को प्रेमचंद ने रघुवीर सिंह को पत्र में लिखा : "प्रतिज्ञा और प्रेमा मैंने ही लिखे। मैंने प्रेमा 1905 में लिखा... जिसमें एक विधवा का पुनर्विवाह है। उसमें पूर्णा और अमृत का विवाह हो जाता है। ...विधवा के विवाह का चित्रण करके मैंने हिंदू स्त्री को उसके उच्चादर्श से पतित होते दिखाया। उस समय मैं बिलकुल युवा था सुधार के लिए ईर्ष्यालु किस्म के उत्साह से भरा हुआ था। मैं इस किताब को उस रूप में देखना नहीं चाहता था। इसलिए मैंने उसमें सुधार किए और दोबारा लिखा।' 16 स्पष्ट है कि प्रेमचंद हिंदू विधवा को सतीत्व के पथ से च्युत होते नहीं देख सकते थे। 'प्रेमाश्रम' को दोबारा लिखकर उन्होंने प्रेमा द्वारा विधवा-विवाह का नकार और आध्यात्मिक पथ पर उसे अग्रसर होना दिखाया। उन्होंने स्त्रियों के सुधार की तजवीज की, लेकिन उनका रवैया बड़ा कठोर रहा। हिंदू स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण गंभीर विवेचन का विषय है, क्योंकि उनके पुरुष पात्र जो पतित हो गए हैं, उन्हें सुधरने के पर्याप्त और आसान अवसर प्रेमचंद मुहैय्या करवाते हैं, जबकि स्त्री पात्रों को सुधरने के अवसर या तो नहीं मिलते और, मिलते भी हैं तो उसके लिए कड़े नियम और कानून हैं। तवायफों के कोठों पर जाने वाला सदन बड़ी आसानी से परिवार जनों की क्षमा का पात्र बनकर शांता के साथ गृहस्थ जीवन जीने लगता है, वहीं सुमन, जिसका, नैतिक और धार्मिक पतन हो चुका है क्योंकि उसने तवायफगिरी की है चाहे कुछ ही दिनों के लिए, उसे समाज-परिवार कोई वापस स्वीकारने को तैयार नहीं। यहाँ तक कि पितृसत्ता से अनुकूलित मष्तिष्क वाली सगी बहन शांता भी नहीं। इसी तरह 'धिक्कार' कहानी में (फरवरी 1925 )में विधवा मणि का अंत आत्महत्या में होता है, क्योंकि उसे बचाने वाला इंद्रनाथ उससे चुपचाप विवाह कर लेता है लेकिन अंततः सामाजिक और पारिवारिक अपमान की जगह वह मृत्यु का वरण करती है। इसी तरह 'प्रेमाश्रम' की विधवा गायत्री का अंत तीर्थाटन के पवित्र पहाड़ों में होता है। प्रेमचंद की रचनाएँ तत्कालीन यथार्थ को अभिव्यक्त कर रही हैं, जिसमें पुरुष सभी अधिकारों से समन्वित है। लेकिन मर्यादा-च्युत और पतित होने पर स्त्री के लिए दोबारा उठकर प्रतिष्ठा पाना असंभव है।
'कर्मभूमि' उपन्यास में प्रेमचंद ने पुरुषों के प्रति बहुत उदार दृष्टिकोण व्यक्त किया है। विवाहित अमर सकीना से प्रेम करता है, लेकिन अंततः वह परिवार की व्यवस्था में ही लौट आता है। तत्कालीन समाज व्यवस्था में स्त्री द्वारा पुरुष को गलत ठहराने का कोई अधिकार नहीं है। स्त्री हमेशा पति को उसके किए के लिए माफ कर देती है। सन्मार्ग पर लौटने के सभी रास्ते उसके लिए खुले और स्त्री के लिए बंद हैं।
मैं देखता हूँ जो उनकी तरफ तो हैरत है
मेरी निगाह का वह इजतराब देखते हैं
यहाँ सवाल यह है कि स्त्री संबंधी नैतिकता की अवधारणा वे कहाँ से ग्रहण करते हैं। साथ ही क्या वे अपने समय के एकमात्र ऐसे रचनाकार थे जो स्त्री की नैतिकता को समाज-सुधार से जोड़कर देखते थे। प्रेमचंद का स्त्री संबंधी नजरिया और उनके द्वारा प्रस्तुत की गईं जेंडर की छवियाँ समाज में स्त्रियों की स्टीरियोटाइप छवियों से कैसे प्रभावित हैं।
प्रेमचंद की तरह मिर्ज़ा हादी रुसवा भी कहते हैं कि जैसा जीवन वे देखते हैं उसे वे उपन्यास में व्यक्त करते हैं, जिससे पाठक को वह जाना-पहचाना नजर आता है। 'ज़ात -ऐ शरीफ' शीर्षक उपन्यास के संदर्भ में वे पाठकों से इसरार करते हैं कि 'इसे अपने समय के इतिहास के रूप में पढ़ा जाना चाहिए'। उधर प्रेमचंद का बल भी, सामाजिक कुरीतियों, गैरबराबरी की प्रवृत्तियों को उभार कर दिखाने पर है।
प्रेमचंद और मिर्ज़ा हादी रुसवा के उपन्यासों में रूप के स्तर पर अंतर है हालाँकि कथ्य में एक सीमा तक समानता है। रुसवा 'उमराव जान अदा' में आत्मकथात्मक रूपबंध को अपनाते हैं, उसमें उमराव की जीवनकथा सिलसिलेवार ढंग से बेहद प्रामाणिक ढंग से कही गई है। रुसवा उमराव से उसका अतीत पूछते हैं और उमराव उत्तर में अपनी जीवन-कथा कहती है। प्लाट कई अध्यायों में बँटा हुआ है, लेकिन इतिहास की वास्तविक तिथियाँ सिरे से नदारद हैं। मसलन 1857 के गदर और सामाजिक उथल-पुथल का थोड़ा हवाला दिया गया है लेकिन ब्योरेवार तिथियों का नितांत अभाव है। घटनाओं के दोहराव के कारण अंत तक आते-आते उपन्यास अपनी संरचना में ढीला पड़ जाता है, उसके ढीले-ढाले तंतुओं को बाँधने की जरूरत लगती है। अमीना याकिन का कहना है कि - "रुसवा की उमराव का चरित्र जटिल है जिसकी कहानी वह खुद रुसवा को सुनाती है। ...रुसवा हमसे चाहते हैं, कि हम उमराव जान की कहानी को आत्मकथ्य के रूप में पढ़ें। ज्यों-ज्यों कथा आगे बढ़ती जाती है वैसे वैसे कहानी की 'मैं' रुसवा की ओर स्थानांतरित हो जाती है'। जिसे हम गहन पठन (क्लोज रीडिंग) कहते हैं उसके अनुसार पुरुष के रूप में रुसवा और लेखक के रूप में रुसवा परस्पर अलग-अलग दीख पड़ते हैं। कथाकार रुसवा और पुरुष रुसवा पूरे उपन्यास में समय-समय पर आवाजाही करते रहते हैं, रुसवा बार-बार उमराव के साथ घटी घटनाओं को पूछते हैं, उमराव बहुत बार अपने बारे में बताती चलती है पर कहीं कहीं ठमक भी जाती है, कहीं कुछ बातें स्पष्ट बताना भी नहीं चाहती, कहीं अपनी यौनिकता को बहुत ही मर्यादित ढंग से काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी देती है। यहीं पर यह उपन्यास बहुअर्थछटाएँ लिए हुए अपनी जटिल संरचना में पाठक को अपने साथ लिए चलता है, 1857 के आसपास के लखनऊ, कानपुर, फैजाबाद के रास्तों, पगडंडियों, सरायों, रास्ते-घाटों, बाजार की रौनकें, चिमगोइयाँ, नोंक-झोंक, चालबाजियाँ और चौक पर -अपहृत अमीरन के तवायफ उमराव बनने की कहानी अपने अंत तक पहुँचती है जहाँ वह शेरो-शायरी लिखती एकाकी लेकिन पर्देदार जिंदगी जीती हुई पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ती है, दिल में तवायफ के लिए एक गहरी अफ्सुर्दगी, उसके इल्म के प्रति गहरे सम्मान के साथ लिपटी चली आती है। हादी रुसवा कहीं भी तवायफों को समाज से निकाल कर उन्हें हाशिये की अस्मिताएँ नहीं बनाते बल्कि यह दिखाते हैं कि शिक्षा, सौंदर्य और कला समन्वित कलावंत तवायफ को सभ्य समाज, उसका अपना परिवार मर्यादा के नाम पर स्वीकार नहीं करता। वह जलसों में गाने, मुजरा करने के लिए बुलाई जाती है, उसकी कला के कद्रदान भी हैं, संग-साथ, युवा शरीर के लिए इच्छा रखने वाले लोग भी हैं लेकिन विवाह-संस्था में नामित, मान्यता प्राप्त स्त्री के सामने 'वह' कुछ नहीं, विशुद्ध प्रेम, एकनिष्ठता, अर्धांगिनी का गौरव उसका प्राप्य नहीं। रुसवा इस स्त्री के लिए बहुत संवेदनशील हैं, लेकिन बतौर लेखक उन्हें उमराव के आत्म का जो मसाला चाहिए उसके लिए वे उसे बेतरह कुरेदते हैं। यहीं पर लेखक रुसवा और पुरुष रुसवा समान भावभूमि पर खड़े दिखाई देते हैं। वे मजे लेकर कोठों की आतंरिक संरचना, वैभव का वर्णन करते हैं। सिर्फ खुर्शीद के रूप में ऐसी तवायफ उन्हें मिलती है जो सच्चे प्रेम की तलाश में हैं, बेहद खूबसूरत लेकिन अपनी स्थिति से असंतुष्ट और इसलिए उदास। वह मेले में गायब हो जाती है और बरसों बाद नवाब की पत्नी के रूप में उमराव से मिलती है। उमराव के साथ ही बिकी बच्ची रामदेई भी बरसों बाद बेगम के रूप में उमराव को पति-बच्चे समेत मिलती है, जिसका कहना है - "खुदा ने सब आरजुएँ मेरी पूरी कीं। औलाद की हवस थी, खुदा के सदके से औलाद भी है। जब रामदेई ये बातें कह रही थी उमराव जान को अपनी किस्मत पर अफसोस आ रहा था और दिल ही दिल में कहती थी, तकदीर हो तो ऐसी हो। एक मेरी फूटी तकदीर। बिकी भी तो कहाँ! रंडी के घर में।"17
इसके बरअक्स 'सेवासदन' को देखें तो उसकी संरचना बिलकुल नगरीय है। सुमन की कामनाओं का पति से पूरा होना असंभव है। उसने खाता-पीता बचपन और कैशोर्य देखा है। दरोगा कृष्णचंद्र की गिरफ्तारी से पूरे परिवार की आर्थिक संरचना तहस-नहस हो जाती है। सावधानीपूर्वक कम खर्च में जीने का जो उपदेश 1882 में लाला श्रीनिवासदास 'परीक्षागुरु' में दे रहे थे उसी तर्ज पर 'सेवासदन' में असावधान जीवन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्रण है। कृष्णचंद्र पत्नी की बात नहीं मानते। "गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती कि जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा। उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे... दारोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते।"18 रिश्वत लेकर दरोगाजी फँस जाते हैं और उधर अनमेल विवाह होता है सुमन का और वो भी गरीब घर में। अब ये हिंदू गृहिणी की मर्यादा का तकाजा है कि वह कम खर्च में बिना प्रश्न किए गृहस्थी चलाए, पर्दे और घूँघट में ढकी रहे, सभी दुनियावी इच्छाओं को कुचल दे। सुमन ऐसा नहीं कर सकी। उसे भोली बाई के स्वातंत्र्य ने लुभा लिया। सुमन बनारस में रहती है। वही बनारस - "जहाँ बहुत दिनों से तवायफें नागरिक जीवन के केंद्र में रहती चली आती थीं। सभ्य समाज सिर्फ आनंद के लिए ही नहीं वरन कला, संगीत नृत्य का लुत्फ लेने के साथ-साथ ऐसे आभिजात्य माहौल की खोज में इन तवायफों के पास आता था, जो सौंदर्यबोधीय दृष्टि से परिष्कृत हो। जो भी तवायफ एक बार सौंदर्य और कला में महारत हासिल कर लेती, उसे हमेशा के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती। बनारस के महाराज और सत्ताधीशों के सामने उसे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता, साथ ही सभी प्रमुख मंदिरों और पवित्र नदी गंगा की रेत पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में आमंत्रित की जाती।"19 लेकिन बीसवीं शती के दूसरे दशक तक तवायफों के हालात में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुके थे। समाज सुधार के एजेंडे ने राजनीति में खास जगह बना ली थी। समाजसुधार की नई आवाजों ने पुरानी काशी के समाज और परंपराओं को बदल कर रख दिया, विशेषकर तवायफों के संदर्भ में। इसका परिणाम यह हुआ कि तवायफों को नए सिरे से अपने लिए संरक्षक और दरबार ढूँढ़ने पड़े। जबकि निचले दर्जे की देहश्रमिक सैनिक छावनियों से जुड़ गईं या शहरी बाजारों में ही सैनिकों की यौन-आवश्यकताएँ पूरी करने लगीं। उच्चस्तरीय तवायफों ने अपने नए संरक्षकों के रूप में नव्य अभिजात्य और मध्यवर्ग में संभावनाएँ तलाशीं। उमराव जैसी तवायफों ने गीत नृत्य में पारंगत होने में वर्षों लगाए थे - "इसी अर्से में मेरी भी तालीम शुरू हो गई। मेरी तबियत गाने-बजाने के बहुत ही मुनासिब पाई गई... आवाज भी पक्के गाने के लायक थी। सरगम साफ होने के बाद उस्ताद ने आस्ताई शुरू करा दी। उस्ताद जी बहुत उसूल से तालीम देते थे। हर एक राग का सुर ब्यौरा जबानी याद करवाया जाता था और वही गले से निकलवाते थे। मजाल न थी कोई सुर कोमल से अति कोमल, शुद्ध से अशुद्ध या तीव्र से तीव्रतर हो जाए..."20 वहीं बदले वक्त में लगभग बीस वर्ष के अंतराल से 'सेवासदन' की पकी हुई तवायफ भोलीबाई सुमन से कहती है - "...यहाँ गाने को कौन पूछता है, ध्रुपद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस चलती हुई गजलों की धूम है, दो-चार ठुमरियाँ और कुछ थियेटर के गाने आ जाएँ और बस फिर तुम्हीं तुम हो। यहाँ तो अच्छी सूरत और मजेदार बातें चाहिये, सो खुदा ने यह दोनों ही बातें तुममें कूट-कूट कर भर दी हैं। मैं कसम खाकर कहती हूँ सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर तोड़ दो फिर लोग कैसे दीवानों की तरह दौड़ते हैं।"
न पूछो नामाए कमाल की दिलावे जी
तमाम उम्र का किस्सा लिखा हुआ पाया
ये जंजीर कौन-सी थी जिसे तोड़ने का जिक्र भोली बाई कर रही है। इस जंजीर की गिरफ्त को उसने निजी तौर पर महसूस किया है - 'जिंदगी जैसी नेमत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जब जिंदगी का कुछ मजा ही न मिला तो उससे फायदा ही क्या? पहले तो मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी मिलेगी, लोग मुझे जलील समझेंगे, लेकिन घर से निकलने की देर थी। फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामदें करने लगे... आज यहाँ कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है जो मेरे तलुए सहलाने में अपनी इज्जत न समझे।"21 देखने की बात है कि अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, शिक्षा की रोजगार से असंबद्धता, पर्दा जैसे अनेक कारण हैं जो स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। यही ताकतें स्त्री को मात्र "देह' में रिड्यूस करती हैं। विवाह का बंधन यदि समानता और पारस्परिक सम्मान पर टिका हो तो आम स्त्री उसमें सुख तलाश लेती है। लेकिन विवाह जब अपमान की जड़ बन जाए, शिक्षा जब साक्षरता से आगे न बढ़ पाए, स्त्री जब स्वयं को दोयम दर्जे की वस्तु समझने लगे तब वह 'देह श्रम' की ओर जाती है, जहाँ उसे झूठा ही सही, सम्मान तो मिलता है। पति के घर से निकलकर आत्मसम्मान की खोज में सुमन वहाँ पहुँचती है, जहाँ उसके रूप, सौंदर्य और यौवन की कद्र तो है पर सभ्य कहे जाने वाले समाज में अब उसका चौतरफा अपमान होना तय है। इसलिए वह कोठे पर आनेवालों के साथ गंभीर नहीं, बल्कि खिलंदड़ा व्यवहार करती है। जो लोग उसकी निर्धन अवस्था के कारण दुरदुरा देते थे, वे अब चरण-चापन करते हैं। पद्मसिंह जिन्होंने लोकापवाद के भय से उसे आश्रय नहीं दिया, वे हिंदू धर्म के रहनुमा हैं। वे ब्राम्हणी को पतन की गर्त में गिरते देख उसके उद्धार के लिए तत्पर हो जाते हैं। इस पूरे दौर में समाजसुधारकों द्वारा तवायफों के कोठों पर जाने को चरित्रहीनता से जोड़ा गया। इस मुद्दे पर हिंदू और मुसलमान समाजसुधारक एकमत थे। तवायफों को अश्लील माना जाने लगा, स्त्री की पहचान को हिंदू राष्ट्र और सभ्यता से संबद्ध करके देखने का प्रयास हुआ। चारु गुप्ता का कहना है कि "इस दौर में भाषा के मानकीकरण के साथ-साथ साहित्य में अश्लीलता के लेशमात्र संकेत पर भी हमला बोला गया। ऐसे तत्वों को एक पतनशील और असभ्य संस्कृति की निशानी माना जाने लगा। यौन और शारीरिक आनंद के प्रति भय बढ़ने लगा। उन्हें राष्ट्र की मर्यादा का उल्लंघन माना जाने लगा। एक राष्ट्रवादी हिंदू पहचान का उभार नैतिकता और प्रतिष्ठा के साझा विचार के साथ गुँथ गया। अतीत की असुविधाजनक परंपराओं से एक सोची-समझी दूरी रखी जाने लगी और एक एकांगी, उच्च, लिखित, सांस्कृतिक नियमावली स्थापित करने का प्रयास किया जाने लगा... कामुक के स्थान पर सच्चरित्रता की दिशा में हुए इस बदलाव ने लैंगिक छवियों को आमूल रूप से बदल डाला और अधिकांश 'उच्च' साहित्य में स्त्री की कामुकता, यौनिकता और मौज-मस्ती वाली छवि के स्थान पर एक शास्त्रीय और सौम्य छवि दिखाई देने लगी। साहित्य में नैतिक संहिता की वकालत एक राष्ट्रीय प्रतिमान बन गया।" 22 लगता है स्त्री की इसी शांत और सौम्य छवि को उभारने के लिए प्रेमचंद ने सुमन का चरित्र गढ़ा। अमृतराय ने विक्टर ह्यूगो के 'ला मिजराबेल' का प्रभाव प्रेमचंद पर देखा है23 जिसमें ज्याँ वालाज्याँ की एक बार की हुई चोरी उसे हमेशा के लिए चोर बना देती है और वहाँ का समाज जावेर के रूप में जीवन भर उससे निर्मम प्रतिशोध लेता रहता है। प्रेमचंद की सुमन का उठाया एक अनुचित कदम उसे जीवन भर के लिए दागी बना देता है। वह बदले हुए समय की औपनिवेशिक दृष्टि का वहन करती है जहाँ औपनिवेशिक दृष्टि से अपने समाज को देखने की चेतना विकसित हो रही थी, इसलिए मध्य और उच्चवर्गीय समाज तवायफों को समाज के लिए अनैतिक और उनकी हरकतों को अश्लील मानता था, जो समय का तकाजा था। ये 'उमराव जान अदा' से बीस वर्ष बाद का समाज था जहाँ हिंदू और मुस्लिम दोनों के सुधार एजेंडे में 'सिंगिंग एंड डांसिंग गर्ल्स' का पेशा अनैतिक था जिन्हें बीच बाजार में रहने का कोई हक नहीं था। अब तवायफों के पास जाने को मुस्लिम शासकों की चरित्रहीनता से भी जोड़कर देखा जाने लगा। प्रेमचंद इन्हें पूरे समाज के लिए हानिकारक मानते थे। 'बाज़ारे हुस्न' का हिंदी तर्जुमा करते हुए उन्होंने 15वें अध्याय में जो एक अतिरिक्त अंश जोड़ा है, वह कई दृष्टियों से मानीखेज है : "इसलिए आवश्यक है कि इन विष भरी नागिनों को आबादी से दूर, किसी पृथक स्थान में रक्खा जाय। तब उस निंद्य स्थान की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हो, और वहाँ घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।" 24 देह-श्रमिकों को अब संस्कृति और तहजीब की वाहिकाओं के रूप में नहीं, बल्कि उनको उन पतित स्त्रियों के रूप में देखा जाने लगा, जो युवकों को बहला-फुसला कर उनसे धन ऐंठ लेती हैं और घर टूट जाते हैं। इन तथाकथित 'पतिताओं' के बरअक्स स्त्री के वधू रूप को महिमामंडित किया जाने लगा। यद्यपि 19वीं शती के अंतिम वर्षों में ही विवाह इत्यादि के अवसर पर नाच पार्टी बुलाए जाने को फिजूलखर्ची से जोड़कर देखा गया और बहुत से जातिवादी संगठनों ने नाचने वालियों को बुलाने वालों का बहिष्कार भी किया तथा कई प्रस्ताव भी पास किए, लेकिन अब भी परंपरावादियों और सुधारवादियों में इस मुद्दे पर मतभेद उभर कर सामने आ जाते थे। 'सेवासदन' में सदन के पिता मदनसिंह बेटे की बारात में बिना नाच के जाना नहीं चाहते - "...नाच के बिना जनवासा ही क्या? कम से कम मैंने तो कभी नहीं देखा... मैं भी इस प्रथा को निंद्य समझता हूँ। भला किसी तरह लोगों की आँखें खुलीं, लेकिन भाई, नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देंगे तो मैं भी छोड़ दूँगा। ...मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूँ। विवाह के बाद मैं भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूँगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंग पर चलने दो।" जबकि छोटे भाई पद्मसिंह सुधार के पक्ष में हैं और काफी बहस के बाद वे बड़े भाई को नाच के आयोजन की जगह कुआँ खुदवाने में निवेश करने को राजी करते हुए कहते हैं - ...सैकड़ों स्त्रियाँ जो हर रोज बाजारों में झरोखों में दिखाई देती हैं, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को भ्रष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले हम्हीं लोग हैं..." 25
सुन चुके हाल तबाही का मेरी , और सुनो
अब तुम्हें कुछ मेरी तकरीर मजा देती है
पद्मसिंह पर आर्य समाज के सुधारवाद का प्रभाव है, यह तथ्य है कि 1898 में बनारस और लखनऊ में तवायफों पर सरकार की ओर से पाबंदी लगा दी गई और 1917 में आगरा में भी तवायफों को शहर के केंद्र से हटाने के लिए प्रस्ताव पारित किए गए। इसके लिए स्थानीय निकायों और नगर निगमों पर दबाव डालकर इसे क्रियान्वित कराया गया। हिंदुओं में आधुनिकता के साथ साथ पतिव्रता पत्नी, स्त्री शुचिता, स्त्री को मर्यादा का प्रतीक मानना एक हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए अनिवार्य महसूस किया गया। हालाँकि मुस्लिम बौद्धिकों और समाज सुधारकों के लिए भी स्त्री का एजेंडा महत्वपूर्ण था लेकिन हिंदू सुधारवादियों के सुधार माडल में मुस्लिम स्त्रियों का प्रश्न प्रमुख नहीं था। संभवतः इसी लिए मिर्ज़ा हादी रुसवा जितने साहस के साथ कोठों के आंतरिक संसार, स्त्री यौनिकता के यथार्थ चित्रण के साथ 'उमराव जान' में उपस्थित होते हैं वैसा प्रेमचंद नहीं कर पाते, बाज़ारे हुस्न के बारे में अमृतराय लिखते हैं, "खैर किताब छपी लेकिन कोई खास कामयाबी नहीं उसे नहीं मिली, उर्दू वालों के लिए कोठे की जिंदगी और उनके मसलों में कोई नयापन नहीं था। नज़ीर अहमद, सरशार और मिर्ज़ा रुसवा जैसे लोग उसके बारे में बहुत लिख चुके थे और बहुत अच्छा लिख चुके थे।"26 अमृतराय नितांत तटस्थता से बताते हैं कि कोठों की अंदरूनी जिंदगी के बारे में मुंशी जी का ज्ञान बस इतना ही था कि वे उन गलियों और बाजारों से गुजरते थे, जिनका जिक्र वे उपन्यास में सतही तौर पर करते हैं। हादी रुसवा जितना अनुभव और तवायफों की जिंदगी के छोटे-बड़े ब्यौरे प्रेमचंद के पास नहीं थे और वे इस उद्देश्य से लिख भी नहीं रहे थे। "यहाँ तक कि जो उपन्यास मूल रूप में बाज़ारे हुस्न नाम से लिखा जाता है, यानि सौंदर्य, यौवन, राग, वासना, इच्छा न जाने कितनी अर्थ ध्वनियाँ जिसमें समाहित हैं उसी कथानक के हिंदी उल्थे को वे 'सेवासदन' - सेवा का घर - यानि कुछ कुछ नारी सुधार, बाल सुधार गृह, हिंदू धर्म सुधारकों की तर्ज पर नाम देते हैं।" प्रेमचंद को यही शीर्षक सबसे उपयुक्त लगा। स्त्रियों को शिक्षित करने के मुद्दे पर भी सुधारकों का जो रवैया था वह इस पत्र से जाहिर हो जाता है - "हम अपनी स्त्रियों को शिक्षित तो देखना चाहते हैं पर यदि शिक्षा का अर्थ उनका अपने मनमाफिक लोगों के साथ मनमाना मेलजोल बढ़ाना, ज्ञान में वृद्धि के साथ नैतिकता का हास जुड़ जाना, हमारे सम्मान का अवमूल्यन और घरों के अंदर की निजता का हनन हो जाए तो हम अपनी स्त्रियों को शिक्षित करने के बजाय अपना सम्मान सँजोकर रखना चाहेंगे - चाहे इसके लिए हमें हठधर्मी, पूर्वग्रही या सिरफिरा ही क्यों न कहा जाए।"27 यौनिकता के प्रश्न पर भी हिंदू समाज सुधारकों का रवैया अलग था। यौन इच्छाओं का दमन करने, समलैंगिकता और तवायफों के पास जाने से मना करके युवकों को चारित्रिक रूप से स्वस्थ और राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाने के साथ- साथ स्त्रियों को यह उपदेश दिया जाना जरूरी था कि समय रहते उनका विवाह हो, वे सतीत्व का पालन करें, ऐसे साहित्य से परहेज करें जिनसे मन में कामुक विचार आते हों। नैतिकता का यही दबाव प्रेमचंद को उपन्यास का शीर्षक 'सेवासदन' रखने के लिए प्रेरित करता है। इसके साथ ही स्त्री यौनिकता शुरू से ही समाज-सुधारकों को चुनौती दे रही थी। रुसवा समाज सुधार का एजेंडा लेकर 'उमराव जान अदा' नहीं लिख रहे थे लेकिन यही बात प्रेमचंद के बारे में नहीं कही जा सकती। चारु गुप्ता का कहना सही है कि - "इन सभी कोशिशों के बावजूद सामूहिक धार्मिक पहचान और उस पर बनाई गई पितृसत्ता अस्थिर थी। उदाहरण के लिए, सम्मान हासिल करने की सारी ललक अपने आप में तनाव का स्रोत थी। अंतरजातीय विवाह बेहद तीखे द्वंद्व का मुद्दा था। हिंदू एकता कई तरह की कृत्रिमताओं पर टिकी हुई थी, जो कभी भी डाँवाडोल हो सकती थी। इसके अलावा तमाम नियमों के बावजूद कुछ मध्यवर्गीय महिलाओं, विशेषकर कई निम्नजातीय स्त्रियों, विधवाओं और वेश्याओं ने नए ढाँचे को ठुकराया।"28 सुमन पितृसत्ता के परंपरागत ढाँचे में से निकलने का प्रयास करती है। कहने को वह भोली बाई से प्रभावित है लेकिन अनमेल विवाह के खाँचे में वह खुद को मिसफिट पाती है। बचपन में ईसाई लेडी से उसने शिक्षा पाई है, लेकिन उस शिक्षा का कोई व्यावहारिक पक्ष जान पाती कि इससे पहले ही परिस्थितियाँ उलट-पलट जाती हैं। लाड़-दुलार में पली सुमन बहुत कम वेतन वाले गजाधर के पल्ले बाँध दी जाती है, जो पर्दे का उतना ही हिमायती है जितना अन्य कोई ब्राह्मण, या सवर्ण। यह पर्दा हिंदुओं और मुसलमानों के सांस्कृतिक व्यवहार से जुड़ा हुआ था। पर्दा स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण बनाए रखने का एक औजार था। पर्दा हटा कि औरत बिगड़ी। औरत के बिगड़ जाने का खतरा था ही था जिससे जातीय वर्चस्व भी कमजोर पड़ सकता था। इसीलिए आंशिक पर्दे की वकालत के साथ-साथ कोठे पर पेशा अपना चुकी स्त्री के शुद्धिकरण की चिंता से पूरा शहर चिंतित हो उठता है। सुमन को पति के घर से प्रताड़ना मिलने पर वह सीधे भोली बाई की शरण में चली गई हो, ऐसा नहीं है। वह पहले वकील पद्मसिंह के घर आश्रय की अपेक्षा से जाती है, लेकिन लोकापवाद के भय से पद्मसिंह उसे घर से जाने को कहलवा देते हैं, अब सुमन रास्ते पर है, मायके का आसरा नहीं, रोजी रोटी लायक शिक्षा नहीं, पर्दे में रहती चली आई है तो कोई सामाजिक संपर्क नहीं - "गजाधर की निर्दयता से भी उसे इतना दुख न हुआ था। जितना इस समय हो रहा था।। उसे अब मालूम हुआ कि मैंने घर से निकलकर बड़ी भूल की... मैं इन पंडितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब मालूम हुआ कि ये रंगे हुए सियार हैं। ...यह दुत्कार क्यों सहूँ? मुझे कहीं रहने का स्थान चाहिए। खाने भर को किसी न किसी तरह कमा लूँगी? कपड़े भी सीयूँगी तो खाने भर को मिल जाएगा, फिर किसी की धौंस क्यों सहूँ? व्यर्थ में एक बेड़ी पैरों में पड़ी हुई थी। और लोक-लाज से वह मुझे रख भी लें तो उठते-बैठते ताने दिया करेंगे। बस, चलकर एक मकान ठीक कर लूँ। भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी। वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी भी दया न करेगी?"29 भोली के घर में सुमन को सिर्फ आश्रय ही नहीं मिलता, अपनी यौनिकता, अपने स्त्रीत्व की महत्ता से भी वाकफियत होती है। वह भोली को बताती है कि उसने ईसाई लेडी से शिक्षा भी पाई है, इसपर जो भोली कहती है वह ध्यान देने की बात है - "दो तीन साल और कसर रह गई। इतने दिन और पढ़ लेती तो फिर यह ताक न लगी रहती। मालूम हो जाता कि हमारी जिंदगी का मकसद क्या है, हमें जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाना चाहिए। हम कोई भेड़-बकरी तो हैं नहीं कि माँ-बाप जिसके गले मढ़ दें बस उसी की हो रहें। अगर अल्लाह को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यहीं के लोगों में है कि औरतों को इतना जलील समझते हैं, नहीं तो और मुल्कों में औरत आजाद हैं, अपनी पसंद से शादी और जब उससे रास नहीं आती तो तिलाक दे देती हैं। लेकिन हम लोग वही पुरानी लकीर पीटे चली जा रही हैं।"30 अपने स्त्रीत्व को लेकर यह सचेतनता प्रेमचंद का वैशिष्ट्य है, अपने गुणों की पहचान, यानि अपने जीवन का उत्तरदायित्व स्वयं उठाने को तैयार यह 'नई स्त्री छवि' है, जो आश्रय के अभाव में मरना नहीं चाहती, जीना चाहती है, यह पितृसत्ता के बनाए नियमों से तंग आई स्त्री है। इतनी शिक्षित नहीं कि नौकरी कर सके इसलिए अपनी देह को रोजी रोटी कमाने का जरिया बना लेना चाहती है, सुमन सिलाई करके जीवन-यापन करने को तैयार है, भोली बाई पकी हुई तवायफ है वह सुंदर स्त्री देह की कीमत बाजार में जानती है। इसलिए सुमन को उसकी सलाह है - '...यहाँ ऐरों-गैरों को आने की हिम्मत ही नहीं होती। यहाँ तो सिर्फ रईस लोग आते हैं। बस उन्हें फँसाए रखना चाहिए। अगर वह शरीफ है तब तो तबियत आप ही आप मिल जाती है और बेशरमी का भी ध्यान नहीं होता। लेकिन अगर उससे अपनी तबियत न मिले तो उसे बातों में लगाए रहो, जहाँ तक उसे नोचते-खसोटते बने नोचो। आखिर को वह परेशाँ होकर खुद ही चला जाएगा, उसके दूसरे भाई और आ फँसेंगे...।' इसके बाद सुमन उस राह पर चल निकलती है जो उसी के शब्दों में 'कलंक की कालिख' का रास्ता है, जिस पर जाना आसान है, लौटना मुश्किल। सुमन विट्ठलदास से कहती है - "आप सोचते होंगे कि मैं भोग विलास की लालसा से इस कुमार्ग पर आई हूँ, पर ऐसा नहीं है। मैं ऐसी अंधी नहीं कि भले बुरे की पहचान न कर सकूँ। मैं जानती हूँ कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कर्म किया है। लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवाय मेरे लिए और कोई रास्ता न था... यद्यपि इस काजल की कोठरी में जा कर पवित्र रहना अत्यंत कठिन है पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करुँगी। और ईश्वर चाहेंगे तो मैं अपना प्रण पूरा करुँगी। मैं गाऊँगी, नाचूँगी, पर अपने को भ्रष्ट न होने दूँगी।" 31
स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के लिए परंपरा और संस्कृति के साथ-साथ स्वयं स्त्री द्वारा अपनी इच्छाओं को कलंक बताना हिंदू सुधारवादी रवैये का परिणाम है, जो अपनी देह के प्रति सचेतन स्त्री को चुनौती मानता था। स्त्री की खुदमुख्तारी पतनशीलता की श्रेणी में शामिल थी। भूख और अभाव से मरना सभ्यता थी, लेकिन भोजन और आश्रय के लिए तवायफ बनना असभ्यता थी। राष्ट्र के हित में सुमन जैसी ब्राह्मणी का हृदय अपरिवर्तन और अपने चारित्रिक सुधार के लिए व्याकुलता वह थोपी हुई नैतिकता की प्रतिध्वनि थी जिसके तहत कामुक स्त्री कुलटा और पथभ्रष्ट थी, उसे सुधार कर समाजसेवा में लगा देना उसकी शास्त्रीय और सौम्य छवि की पुनर्स्थापना थी। भारतीय भाषाओं के साथ साथ हिंदी में स्त्रियों की यौन अस्मिता को अपने नियंत्रण में लेने के लिए अश्लील साहित्य के प्रकाशन पर रोक भी लगाई जाने लगी।" 1870 में जोसेफीन बटलर द्वारा स्थापित की गई "एसोसिएशन फार मोरल एंड सोशल हाईजीन" की भारतीय शाखा अपने केंद्रीय संगठनकर्ता मैलिसैंट शेफर्ड के माध्यम से अश्लीलता के खिलाफ एक तीखी मुहिम छेड़े हुए थी। इन धर्मयोद्धाओं ने यौनिकता और सेक्स संबंधी अभिव्यक्तियों पर लगाम कसी।" 32
उधर कई महिला संगठन भी अश्लीलता का विरोध कर रहे थे। 'आल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस' ने अश्लील विज्ञापन, अश्लील किताबों पर रोक लगाने के लिए औपनिवेशिक सरकार को पत्र लिखा था। उधर गांधी जी भी समाज और साहित्य की गंदगी की कड़ी आलोचना अपने भाषणों और लेखों में कर ही रहे थे। सुधार अभियानों में तो पहले से ही नौटंकी या नाच की कलाकारों को अश्लील और नाचने वाली लड़कियों को 'वेश्या कहना शुरू कर दिया गया था।' वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनों में वेश्या, वारांगना, रखैल, तवायफ में कोई अंतर नहीं रह गया था। अनेक रखैलों और वारांगनाओं को समाज में सम्मानजनक दर्जा प्राप्त था... अतः अंग्रेजों ने वारांगनाओं एवं महिला मित्रों का दर्जा घटाकर उन्हें सामान्य वेश्याओं का दर्जा दे दिया। इस प्रकार जो लोग रखैलों के स्वामी थे, वे उनके ग्राहकों की श्रेणी में आ गए। परिणामस्वरूप कुलीन एवं संभ्रांत लोगों ने महसूस किया कि इससे कि उनका रुतबा घट गया है और वे मालिक से ग्राहक बन गए हैं...।" 33 इस प्रकार समाज सुधार कार्यक्रमों ने देह श्रमिकों की कई श्रेणियाँ अनजाने में ही तैयार कर दीं। कल तक नौटंकी और नाच जो उत्सवों और सार्वजनिक कार्यक्रमों का हिस्सा थे उन पर अश्लीलता का आरोप लगा कर अपने एजेंडे को पवित्र हिंदूवादी रूप दिया जाने लगा। इस तरह 1897 में की गई न्यायमूर्ति रानाडे की घोषणा "आज के बाद सभी समाज सुधार संगठन कृतसंकल्प हैं कि वे अपने परिवारों में होनेवाले विवाह या अन्य समारोहों में नाच की अनुमति नहीं देंगे और न ही उन समारोहों में शामिल होंगे जहाँ नाच की व्यवस्था होगी" का अक्षरशः पालन करने का प्रयास किया गया जिसका अगला कदम था देह श्रमिकों का निर्वासन।
प्रश्न है कि समाज को तवायफों की आवश्यकता है या नहीं। प्रेमचंद इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं हैं। सभ्य कहे जाने वाले समाज से निकाल बाहर करना क्या स्थायी समाधान है या ऐसी स्थितियों में सुधार जिसमें कोई स्त्री देह श्रम के लिए बाध्य न हो। दूसरी स्थिति तो एक यूटोपिया है। पहली स्थिति कोई समाधान नहीं है बल्कि आभिजात्य और देह श्रमिकों के बीच के अंतराल को बढ़ाने की साजिश है। साथ ही हाशिये पर धकेल देने से न समाजसुधार हो सकता है न ही वे सामाजिक सेंसरशिप के दबावों से मुक्त हो सकती हैं। इन जैसी स्त्रियों को संस्कृत शास्त्रीय ग्रंथों में प्रयुक्त 'भृत्या' - जो विभिन्न प्रकार के श्रम करती है - जिसमें उत्पादन से लेकर यौन श्रम शामिल है - कहा जाना चाहिए। सुमन जैसी स्त्रियों का क्या हो? दहेज और अनमेल विवाह का शिकार हुई सुमन अपनी पहचान समाज से माँगती दीखती है। ससुराल, मायका, बहन शांता का घर, विधवाश्रम कहीं भी उसके लिए ठौर नहीं है, हर जगह उसे गर्हित पेशेवाली समझ कर किनारे कर दिया जाता है।
प्रेमचंद स्त्री को लेकर बड़े कशमकश से गुजरते हैं कुछ नहीं समझ आता तो वर्षों के खोए पति और अब, संन्यास ले चुके गजाधर से मिला देते हैं। अब सुमन को उस अनाथ आश्रम में पचास कन्याओं की देखभाल करनी होगी जो वेश्याओं की संताने हैं -"इस अनाथालय के लिए एक पवित्र आत्मा की आवश्यकता है और तुम्हीं वह आत्मा हो। मैंने बहुत ढूँढ़ा पर ऐसी कोई महिला न मिली जो इस काम को सेवा, प्रेम भाव से करे, जो कन्याओं का माता की भाँति पालन करे और अपने प्रेम से अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे।"34 ये स्त्री की आदर्श छवि थी जिसकी सिद्धि के लिए पूरा कथा-वितान रचा गया, अपने समय के कई राष्ट्रवादियों की तरह वे पश्चिम-विरोधी, पढ़ी-लिखी स्त्री को सामने लाए। सुमन या रोहिणी जैसे चरित्र राष्ट्रवादी रुझान के लिए पूरी तरह फिट बैठती हैं जो अपनी करुणा, दयालुता, सहजता, निर्धनता, की वजह से लंबे समय तक कष्ट झेलती हैं, चाहे वे पत्नियाँ हों, विधवाएँ, तवायफें हों, वे किसी भी जाति की हों उन्हें पाठक की दया का पात्र बना दिया जाता है, जिनमें सुधार की आवश्यकता अनिवार्यतः होती है। स्त्रीत्व का आदर्श पाने के लिए चरित्रों की अपनी पहचान कहीं गुम हो जाती है; वे अक्सर सेवा, त्याग, समर्पण की प्रतिमूर्ति बन जाती हैं। सुमन भी ऐसा ही एक चरित्र है, जो सुमन भोली बाई के कोठे पर स्वयं गई थी वही विट्ठलदास के यह कहने से "...सोचो तो थोड़े दिनों तक इंद्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना अन्याय कर रही हो...' तिलमिला जाती है। 'सुमन ने आज तक किसी से ऐसी बातें न सुनी थीं। वह इंद्रियों के सुख को और अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती आई थी। उसे आज मालूम हुआ कि सुख संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।"35 पाठक सुमन के इस आकस्मिक हृदय-परिवर्तन को बहुत दूर तक विश्वसनीय नहीं मानता। सेवा को जीवन का आदर्श बताने के लिए लेखक की कृतसंकल्पता को समझ भी जाता है। स्त्री का अपने इंद्रिय सुख के लिए जीना अनुचित है, निष्काम सेवा में ही उसके जीवन की वास्तविक सिद्धि है, इसे स्त्री के लिए तय करने वाला कौन सा समाज है? यह तय है कि प्रेमचंद को भारतीय सामजिक समस्याओं और परंपराओं की गहरी परख है, लेकिन स्त्री के सुधार का एक तैयार एजेंडा लेकर वे इस उपन्यास को रचते हैं। स्त्री को पतित, यौनेच्छाओं से परिपूर्ण और स्वार्थी दिखाकर वे इस सामाजिक समस्या की गहराई में पड़ताल ही नहीं करते हैं, प्रकारांतर से यह भी दिखाते हैं कि पतित स्त्री यानि भोलीबाई जैसी तवायफें ऊँची जाति की मासूम इंद्रियेच्छाओं से भरी सुमन को गलत राह दिखाती हैं।
जहाँ तक समस्याओं के समाधान की बात है तो वह है शहर, बस्ती से दूर ऐसा सदन बनाना जहाँ, अवैध कही जाने वाली बच्चियाँ रह सकें, उन्हें पढ़ाई-लिखाई, हस्तकलाओं का ज्ञान दिया जा सके। प्रेमचंद जब समाज सुधार पर बात करते हैं तो उनका ध्यान निरंतर इस पर रहता है कि पाठकों के संस्कारों को कहीं चोट न पहुँचे। सुमन 'सेवासदन' में सारे कार्य करती दिखाई देती है ऐसे जैसे अपने पतित होने का प्रायश्चित कर रही हो। गांधी भी स्त्रियों को पैसिव यौनिक ऑब्जेक्ट्स मानकर चलते थे, ब्रह्मचर्य के प्रयोगों से यह बात स्पष्ट है। प्रेमचंद भी उसी तर्ज पर सोचते हैं, वे इस मुद्दे पर नहीं लिखते कि बतौर स्त्री सुमन की अन्य दुनियावी इच्छाएँ क्या हमेशा के लिए दमित हो गईं? दूसरे की बच्चियों की पालक बनने मात्र से उसके निज की मातृत्व इच्छा का दमन क्यों और किसलिए किया गया। इस संदर्भ में पद्मसिंह और सुभद्रा का निःसंतान दांपत्य भी द्रष्टव्य है। सुभद्रा को घर में सभी सुख हैं पर उसे दुख है कि निःसंतान रह जाने के कारण पति उसे पहले जैसा प्रेम नहीं करता। प्रेमचंद इसे पूर्वजन्म के पापकर्म के फल से जोड़ देते हैं। आगे चलकर जब पद्मसिंह के सामाजिक कार्यों की महत्ता और सत्प्रयासों को पत्नी सुभद्रा समझ जाती है तब पद्मसिंह अनुभव करते हैं कि 'एक निःसंतान स्त्री भी अपने पति के लिए शांति और प्रसन्नता का स्रोत हो सकती है' -इस कथन की पितृसत्ताक टोन पर हम गौर न भी करें तो यह अस्पष्ट ही रह जाता है कि संतानहीनता कैसे किसी स्त्री की समझदारी के स्तर को प्रभावित कर सकती है?
प्रेमचंद की तुलना में मिर्ज़ा हादी रुसवा का स्त्री के सतीत्व के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं है। कोठे पर रहने के बावजूद सुमन अपना सतीत्व और स्वयंपाकी होकर जातीय शुद्धता बनाए रखती है। प्रेमचंद उसे नाचते-गाते, हँसते, सजते-सँवरते दिखाते हैं पर शरीर बेचते हुए नहीं दिखाते। सुमन के मन में सतीत्व और यौनिकता को लेकर कोई द्वंद्व नहीं, उसे बहुत शुरू से ही मालूम है कि उसे रिझाना है, लुभाना है पर शरीर नहीं देना है। सतीत्व, पातिव्रत्य और शरीर की पवित्रता बनाए रखने की धारणा हिंदू राष्ट्र से संबद्ध है, जिसे सुमन बखूबी निभा ले जाती है, यह बात दूसरी है कि सजग पाठक कितनी दूर तक इससे सहमत होता है। इसकी तुलना में 'उमराव जान अदा' स्वयं को कभी पतित नहीं कहती, न ही वह अपने अस्तित्व को 'असती' कहकर खारिज करती है। उसमें सतीत्व के प्रति अतिरिक्त आग्रह भी नहीं है। बचपन में हुए अपहरण और कोठे पर खानम को बेचे जाने को वह दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताती है, लेकिन अपने अस्तित्व को लेकर उसे पछतावा या सुधारगृह में जाने की जरूरत नहीं लगती। उसके जीवन के उत्तरार्ध की दिनचर्या के बारे में रुसवा लिखते है "...इसके बाद उमराव जान ने बहुत-सी किताबें इस किस्म की, उर्दू, फारसी बजाए खुद पढ़ीं। इससे तबीअत साफ होती गई। कसायद अनवरी और खाकानी एक एक करके पढ़े मगर झूठी खुशामद की बातों में अब उसका दिल न लगता था, इसलिए इनको बंद करके अल्मारी में रख दिया। फिलहाल कई अखबार भी उसके पास आते थे, उन्हें देखा करती, उनसे दुनिया का हाल मालूम होता रहता... उमराव जान बहुत दिन हुए सच्चे दिल से तौबा कर चुकी है और जहाँ तक हो सकता है, रोज़ा -नमाज की पाबंद है। रफ्ती रंडी की तरह है खुदा चाहे मारे, चाहे जिलाए। उससे पर्दे में घुट के तो न बैठा जाएगा। मगर पर्दा वालियों के लिए दिल से दुआगो है। खुदा उनका राज-सुहाग कायम रखे..."36 वहीं सुमन के मन में सदैव पाप-पुण्य का द्वंद्व चलता रहता है, इसके बीच का मार्ग वह निकालती है कि वह शरीर नहीं बेचेगी, सिर्फ नाच-गान करेगी। वह अपने जातीय संस्कारों के गर्व को नहीं भूलती। प्रेमचंद पाठक के संस्कारों को धक्का नहीं पहुँचाना चाहते और कठिन समय में भी वह देह की शुचिता के हिमायती हैं। सुमन यदि अपना सतीत्व खो देती तो भारतीय समाज में उसकी कोई जगह नहीं रहती, सुमन को कोठे पर चढ़ने के कारण उसे जीवन भर प्रायश्चित करना पड़ता है, लेकिन वास्तविक क्षमा से वह वंचित ही रह जाती है। वहीं कोठे पर आने वाले सदन को उसके परिवार जनों द्वारा फिर से अपना लिया जाता है, वह सुखी वैवाहिक जीवन जीता है। स्त्री-पुरुष के संदर्भ में क्षमा और प्रायश्चित के मापदंड परस्पर भिन्न हैं। सुमन के तवायफ हो जाने की सूचना पिता कृष्णचंद्र को जब मिलती है तो वह गजाधर से कहता है कि 'यदि तुम्हीं उसकी जान ले लेते तो परिवार की इज्जत पर कोई आँच ही नहीं आ सकती थी। प्रेमचंद और रुसवा का एजेंडा अलग-अलग है - प्रेमचंद के लिए तवायफें सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं और रुसवा के लिए कोई भी और काम करने वाली किसी अन्य स्त्री की तरह तवायफ भी एक स्त्री है, जिसकी जीवन शैली साधारण गृहस्थ स्त्री से अलग है, संवेदना और भावना के स्तर पर उनमें कोई अंतर नहीं बल्कि मौलवी साहेब से जो शिक्षा उमराव ने कोठे पर पाई उसने उसे रचनाकार और अपेक्षाकृत ज्यादा व्यावहारिक बनने में मदद की, मनुष्य चरित्र की परख सुमन से ज्यादा उमराव को है।
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
यदि 'बाज़ारे हुस्न' और 'सेवासदन' को आमने सामने रखा जाए तो कुछ दिलचस्प तथ्य हाथ लगते हैं। अमृतराय ने 3 सितंबर 1918 को प्रेमचंद द्वारा इम्तियाज अली को लिखे पत्र का हवाला दिया है, "मैं इसकी फेयर कापी तभी बनाऊँगा जब आप इसका जिम्मा लें ...मैं तो इसे फेयर करने की तकलीफ नहीं दे सकता। मैंने इसमें पूरे के पूरे दृश्य बदल दिए हैं।" 37
यहाँ तक कि जो उपन्यास मूल रूप में 'बाज़ारे हुस्न' नाम से लिखा जाता है, जिसमें सौंदर्य, यौवन, राग, वासना, इच्छा न जाने कितनी अर्थ ध्वनियाँ समाहित हैं, उसी के हिंदी तर्जुमा को वे 'सेवासदन' यानि सेवा का घर बना देते हैं। यही नहीं 1918-19 में प्रेमचंद ने इसकी फेयर कॉपी बनाई तब इसके हिंदी संस्करण में उन्होंने कई सुधार कर दिए और 'बाज़ारे-हुस्न' को वैसा का वैसा रहने दिया। इसकी मूल में पाठकीय अभिरुचि का सवाल था। साथ ही वे, जैसा कि गोपाल राय ने लिखा है, "हिंदू समाज को आधुनिक और तर्कसंगत रूप देना चाहते थे।"38 उन्हें इसका अहसास था कि 'बाज़ारे-हुस्न' शीर्षक उर्दू के पाठकों में खप जाएगा क्योंकि नज़ीर अहमद और मिर्ज़ा हादी रुसवा ने उपन्यासों में हुस्न के बाजार की सैर करवा दी थी। सनसनीखेज, चमकदार, भड़कीला शीर्षक उन्हें उर्दू की पाठकीय मनोरुचि के अनुकूल लगा और उन्हें यह मालूम था कि हिंदी पाठकीय संसार पर यदि अपना प्रभाव छोड़ना है तो शीर्षक पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है, शुद्धतावादी रवैये को लेकर चलने वाले उपन्यास का हिंदी पाठकों ने बड़े उत्साह के साथ स्वागत भी किया। आश्चर्य नहीं कि जो सुमन उर्दू में 'खिलंदड़ी, जीवंत, गर्वीली और मर्यादित' थी वह हिंदी में "सुंदर, चंचल और अभिमानिनी" बन चुकी थी। इसी तरह 'बाज़ारे हुस्न' में यह दृश्य है : "सुमन किसी काम में मशगूल हो, पर उनकी आवाज सुनते ही चिक की आड़ में आ कर खडी हो जाती है। उसकी शोख तबियत को इस ताक-झाँक में एक अजीब लुत्फ हासिल होता था। वो महज अपने हुस्न का जलवा दिखाने के लिए, महज दूसरों को बेकरार करने के लिए ये करिश्मा दिखाती थी" (हिंदी तर्जुमा-राबीअ बहार) जबकि सेवासदन में इस प्रसंग को यों चित्रित किया गया है : "स्कूल से जाते हुए हुए युवक सुमन के द्वार की ओर टकटकी लगाए हुए चले जाते। शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते। सुमन कोई काम करती हो पर उन्हें चिक की आड़ से एक झलक दिखा देती। उसके चंचल हृदय को इस ताक-झाँक में असीम आनंद प्राप्त होता था। किसी कुवासना से नहीं, केवल अपने यौवन की छटा दिखाने के लिए, केवल दूसरों के हृदय पर विजय पाने के लिए यह खेल खेलती थी"।39
सेवासदन के 15वें अध्याय में एक पूरा अंश है, जो तवायफों को विषभरी नागिनें सिद्ध करता है। इस आलेख में ऊपर वह अंश उद्धृत भी किया गया है, लेकिन बाज़ारे-हुस्न में वो पूरा अंश है ही नहीं। 'सेवासदन' में प्रेमचंद हिंदू समाज सुधारकों की भाषा में सोच और लिख रहे हैं। इसलिए पतिता, असती स्त्री को विषाक्त चरित्र कहते हैं।
प्रेमचंद समाज की गतिविधियों को शब्द और संवाद ही नहीं देते बल्कि उसमें दखल भी देते हैं। स्त्री और पुरुष का अपनी यौनेच्छाओं पर विजय पाकर समाज हित साधन बन जाना उनके युग की माँग थी, युग के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को पूरा करने में सहयोगी थी। भारतीय विवाह संस्था का क्रिटीक भी प्रेमचंद बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक कुप्रथाओं के कारण दांपत्य में बेड़ी का काम करता है। सुमन के द्वारा विद्रोह की कोशिश विवाह संस्था के रूढ़िवादी स्वरूप का नकार है। जब व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के अवसर अनुपलब्ध हों तो अनमेल विवाह के शिकार स्त्री-पुरुष स्वस्थ समाज के निर्माण में योगदान नहीं कर सकते। दहेज, अशिक्षा, पर्दा ये सब अनैतिकता की ओर उन्मुख करते हैं, उसकी अपेक्षा तवायफ (हालाँकि यह कोई विकल्प नहीं है) आत्मनिर्भर और स्वचेतन है, जिसके लिए उमराव जान अदा को देखा जा सकता है, जो भले समाज की दृष्टि में पतित हो लेकिन अपने जीवन में उन नियंत्रणों से मुक्त है जो धीरे धीरे उसकी मनुष्यता को निगल जाते हैं।
संदर्भ सूची
1 . अमृतराय, कलम का सिपाही, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 170
2 . वही, पृष्ठ 206
3 . उमराव जान अदा, भूमिका, मिर्ज़ा हादी रुसवा, ग्लोबल एक्सचेंज पब्लिशर्स, संस्करण 2010, पृष्ठ 5-10
4 . वही, पृष्ठ 152
5 . वही, पृष्ठ 151- 52
6 . स्त्री संघर्ष का इतिहास - राधा कुमार, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2005, पृष्ठ 83
7 . गुज़िश्ता लखनऊ - अब्दुल हलीम 'शरर', नेशनल बुक ट्रस्ट, 1971, पृष्ठ 167
8 . एरिक एच एरिक्सन, गांधीज ट्रुथ : आन द ओरिजिंस ऑफ मिलिटेंट नॉन -वोइलेन्स, न्यूयार्क, नॉर्टन, 1969,पृष्ठ 374
9 . प्रेमचंद घर में, शिवरानी देवी, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 2012 पृष्ठ 24
10 . देखें, पार्थ चटर्जी, 'कॉलॅनाइज़ेशन, नैशनलिजम ऐंड कॉलॅनाइज़्ड वुमॅन : द कंटेस्ट इन इंडिया', अमेरिकन एथनोलॅजिस्ट, खण्ड 16, 4 नवंबर 1989, पेज 4
11 . गरिमा श्रीवास्तव,नवजागरण स्त्री प्रश्न और आचरण पुस्तकें, -प्रतिमान, सीएसडीएस, दिसंबर 2014
12 . हिंद स्वराज, मोहनदास करमचंद गांधी, (अनुवाद - अमृतलाल नाणावटी) http://www.hindisamay.com/content/4708/7/ -विमर्श-हिंद-स्वराज--अनुवाद-अमृतलाल-ठाकोरदास-नाणावटी--5
13 . प्रेमचंद घर में - शिवरानी देवी प्रेमचंद, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 2012: 217
14 . कृष्णकांतार विल, बंकिमचंद्र चटर्जी, अनुवाद जे.सी घोष, (नोरफोक : न्यू डायरेक्शन्स, 1962:29
15 . तनिका सरकार, हिंदू वाइफ, हिंदू नेशन, कम्युनिटी, रिलीजन एंड कल्चरल नेशनलिज्म, ब्लूमिंगटन, इंडियाना युनिवेर्सिटी प्रेस, 2005,पृष्ठ 34-35
16 . कमल किशोर गोयनका, संपादन - प्रेमचंद विश्वकोश, दिल्ली, 1981, खंड-1, पृष्ठ 144-45 पर उद्धृत
17 . उमराव जान अदा, वही, पृष्ठ 135
18 . सेवासदन - प्रेमचंद, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2013 पृष्ठ 8
19 . वसुधा डालमिया, सेवासदन, अंगरेजी अनुवाद की भूमिका, 2005, पृष्ठ 9-10
20 . उमराव जान अदा, वही, पृष्ठ 25
21 . सेवासदन, वही, पृष्ठ 40
22 . सेवासदन,वही, पृष्ठ 39
23 . स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक, चारु गुप्ता, राजकमल प्रकाशन 2012,पृष्ठ 42
24 . कलम का सिपाही, अमृत राय, हंस प्रकाशन इलाहाबाद, 1976, पृष्ठ 204
25 . सेवासदन, वही, पृष्ठ 55
26 . प्रेमचंद, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, दूसरा संस्करण,2013 पृष्ठ 103
27 . कलम का सिपाही, वही, 206
28 . अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गजट, 8 जुलाई 1870, नेटिव न्यूजपेपर रिपोर्ट्स ऑफ यू पी, 1870, पृष्ठ 271
29 . चारु गुप्ता - स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक, राजकमल प्रकाशन, 2012, पृष्ठ 33
30 . सेवासदन, वही, पृष्ठ 40
31 . वही, 39
32 . वही, पृष्ठ 61
33 . चारु गुप्ता, स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक राजकमल प्रकाशन, 2012. पृष्ठ 54
34 . राधा कुमार - स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, 2006, पृष्ठ 84
35 . सेवासदन, वही, पृष्ठ 218
36 . वही, पृष्ठ 61
37 . उमराव जान अदा, वही, पृष्ठ 15
38 . अमृत राय - कलम का सिपाही, हंस प्रकाशन इलाहाबाद, 1976
39. हिंदी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, पृष्ठ 127