आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी रैदास की कविता का जादू आज भी बरकरार है। बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि रैदास की कविता मौजूदा संदर्भ में पहले से कहीं ज्यादा शिद्दत से याद आती है। यह कविता अपने जन सरोकारों में इस कदर प्रतिबद्ध है कि वह कर्म सौंदर्य के लिए गंगास्नान, तीर्थादि के भ्रमण को अनौचित्यपूर्ण ठहरा देने का जोखिम तक उठाती है और वह भी उस शहर में जिसकी पहचान ही गंगा के कारण है। वे बेखौफ होकर पंडों के शहर काशी में अपने चमार होने की घोषणा कर सकते हैं। उनकी आँखों में जिस समतामूलक समाज का सपना परवान चढ़ता है, उसका नाम बेगमपुरा है। वहाँ समता, न्याय, बंधुत्व और कर्मसौंदर्य जीवन का आधार है। रैदास की कविता को संपूर्णता में समझने के लिए यह जरूरी है कि उस विरासत पर एक नजर डाली जाए जिस जमीन पर उनकी कविता खड़ी होती है।
जीवन के अस्वीकार और स्वीकार का धर्म
अपने समय की चुनौतियों का सामना करने की प्रायः दो दृष्टियाँ भारत समेत दुनिया भर के धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में प्रचलित रही हैं। इसे भारतीय संदर्भ में समझने का प्रयास करें। पहली वह जो अपने कृत्यों को पूर्वजन्म, पुनर्जन्म और परलोक के आलोक में परिभाषित करती हैं। यदि ध्यान से देखें तो यह भौतिक जगत के अस्तित्व को किसी-न-किसी रूप में अस्वीकार करती हैं। इसे हम जीवन के नकार का नजरिया भी कह सकते हैं। उदाहरण के लिए यह दृष्टि मानती है, जीवन में दुख पूर्वजन्म या पूर्वजन्मों के कारण है। सवाल है दुख से निवृत्ति का मार्ग क्या है? उत्तर है कतिपय अनुष्ठान जो पुरोहित की देखरेख में संपन्न होंगे। क्या उन अनुष्ठानों से दुख मुक्ति संभव है? उत्तर है, इस जन्म में मुक्ति मिली तो ठीक, नहीं तो अगले जन्म या जन्मों में मुक्ति मिल ही जाएगी। दूसरी दृष्टि वह है जो अपने परिवेश की पृष्ठभूमि में वर्तमान और भविष्यदृष्टि के मद्देनजर रोजमर्रा की जिंदगी से ही व्यवस्थागत निर्मितियाँ तैयार करती हैं और सबके सुख और समता की राह पर चलती हैं। यह परंपरा मानती है कि किसी व्यक्ति या समाज के दुख या सुख का कारण जगत में ही है। वे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक निर्मितियाँ जिनसे व्यवस्था संचालित होती हैं, मनुष्य या समाज के सुख-दुख का कारण हैं। जहाँ पहली दृष्टि परलोक, स्वर्ग-नर्क के अस्तित्व को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करती है, वहीं दूसरी दृष्टि यह मानती है कि इस लोक के अलावा कोई लोक नहीं होता। भारत में भी दोनों परंपराएँ साथ-साथ चलती रहीं। इन्हें हम क्रमशः वैदिक और श्रमण संस्कृति भी कहते हैं। भारतीय समाज में उल्लिखित दोनों प्रकार के समाज सक्रिय रहे। एक वह जो वर्णवाद, मोक्ष, परलोक, स्वर्ग-नरक की कुहेलिका में सौंदर्य मानकों को गढ़ता रहा, दूसरा वह जो श्रम आधारित सौदर्यशास्त्र और वर्णवादी दंभ के प्रखर विरोध में मानवीय समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहा। रैदास का संबंध इसी श्रमण संस्कृति से है।
इस लेख के आरंभ में रैदास द्वारा गंगास्नान, तीर्थाटन, व्रत-उपवास आदि में यकीन न करने की चर्चा की गई है। आगे इस तरह के दोहों और पदों का भी उल्लेख किया जाएगा। फिलहाल कुछ और बातें जिन पर एक नजर डालना मुनासिब होगा। यह परंपरा अचानक बवंडर या तूफान की तरह नहीं आ गई। वृहस्पति के सूत्र, लोकायतों की परंपरा, सिद्धों-नाथों का हस्तक्षेप वे पृष्ठाधार हैं, जिनकी जमीन पर निर्गुणों की कविता फली-फूली। प्रसंगवश कुछ संदर्भ देखे जा सकते हैं। बौद्ध धर्मकीर्ति 'प्रमाणवार्तिक' के पहले अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में कहते हैं -
'वेद प्रमाण्यं कस्यचित् कर्तृवादः
स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः।
संतापरंभः पापहानाम चेति
ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्च लिंगानि जाड्ये।'
अर्थात् वेद को प्रमाण मानना, किसी ईश्वर को कर्ता कहना, स्नान (गंगादि) से धर्म चाहना, जाति की बात का अभिमान करना, पाप नष्ट करने के लिए उपवास आदि करना, ये पाँच अकलमारे हुओं की जड़ता के चिह्न हैं। सिद्धों-नाथों की कविताएँ भी ऐसी उक्तियों से भरी-पूरी है। उसी तरह रैदास के समकालीन और उनके मित्र कबीर कहते हैं -
'दस अवतार निरंजन कहिए सो अपना न कोई।
ब्रह्मा-विष्णु महेसर कहिए इन सारी लागी काई।
इनहीं भरोसे मत कोई रह्यो, इनहूँ न मुक्ति पाई।।
न हम नरक लोक को जाते, न हम सुरग सिधारे हो।
बराहमन गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहीं।।
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिए सभा माहि अधिकाई।
इनसे दीक्षा सब कोई माँगे, हँसि आवै मोहि भाई।।
बराहमन कीन्ह कौन को काजा।
बराहमन ही सब कीनी चोरी।।
अर्थात दस अवतारों में अपना कोई नहीं। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था से पीड़ित दलितों से कहा कि उनके भरोसे मत रहना। जब उन्हें ही मुक्ति नहीं मिली तो वे तुम्हें क्या मुक्त करेंगे? उन्होंने स्वर्ग-नरक दोनों से इनकार किया। ब्राह्मण की तथाकथित प्रतिष्ठा पर प्रहार करते हुए कहा कि वह पूरे संसार का गुरु हो सकता है पर साधु का गुरु नहीं हो सकता। जो उन्हें ऊँचे कुल का कहकर दीक्षा माँगते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है। उसने आज तक किसी का भला नहीं किया। वह तो चोर है।
इस कविता ने ईश्वर के परंपरागत स्वरूप को ही बदल दिया। अब उसका ठिकाना तीर्थस्थलों, कर्मकांडों में नहीं, भक्त के निर्मल हृदय में हो गया। अब वह अवतार लेने वाले और लीला करने वाले प्रभु के रूप में नहीं रहा, जन्म-मरण के चक्र के बंधनों से भी मुक्त हो गया। कबीर और रैदास के राम दशरथ के बेटे, अयोध्या के राजा, सीता के पति, कौशल्या के लाल नहीं हैं वे तो वह प्रतीक हैं जिनसे निर्मल भक्तों के सपने का संसार रूपाकार ग्रहण करता है। वह संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं। वह व्यक्ति नहीं विचार हैं। वह किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर या अन्य किसी धार्मिक स्थल में नहीं रहता, वह तो भक्तों के हृदय में रहता है। खोजने पर उसे तुरंत पाया जा सकता है। बकौल रैदास -
हिंदू पूजे देहरा मुसलमान मसीत।
रविदास पूजे इक नाम को जिन्ह निरंतर प्रीति।।
करम मनुष्य का धरम है सत् भाषे रविदास
निर्गुण संतों की यह विशेषता रही कि वे रोजमर्रा की जिंदगी से पलायन में मनुष्य मुक्ति का सपना नहीं देखते थे। कबीर धागे बुनते थे तो रैदास जूते बनाते थे। रैदास की कविताओं में कर्म-सौंदर्य की पक्षधरता के अनेक स्थल मिल जाते हैं। वे उस धन को त्याज्य मानते थे, जिसमें श्रम न हो। उनसे जुड़े अनेक किस्से लोक में प्रचलित हो गए। स्वाभावतः उनमें अनेक चमत्कारिक बातें भी हैं। पर उनका केवल तात्विक महत्व ही है। दरअसल रैदास जैसे संत किसी भी चमत्कार में यकीन नहीं करते थे। नाभादास कृत 'भक्तमाल' में एक घटना का जिक्र है। रैदास की तंगी देखकर भगवान को दया आ गई। भगवान साधु रूप में प्रकट हो रैदास को पारस पत्थर का प्रस्ताव दिया। लेकिन रैदास ने उसे लेने से इनकार कर दिया। पूरे प्रसंग के तात्विक महत्व समझने का प्रयास 'इस कहानी से यह संकेत अवश्य मिलता है कि रैदास की दरिद्रता पर दूसरे साधु पुरुषों को दया आती थी, और वे उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए तैयार रहते थे, किंतु रैदास उस सहायता को लेते न थे। यह रैदास की सम्यक आजीविका और निस्पृह तथा निर्लोभ वृत्ति का प्रमाण है।' इसी तरह लोक में एक किस्सा मशहूर है की एक बार जब रैदास जूते बना रहे थे, उसी समय कुछ लोग गंगा स्नान करने जा रहे थे। उन लोगों ने रैदास से कहा कि वे भी गंगास्नान के लिए चलें, लेकिन रैदास ने जाने से मना कर दिया। इस पर लोगों ने तर्क दिया कि स्नान से पुण्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें जाना तो होगा। रैदास ने उस कठौती की तरफ इशारा किया, जिसमें चमड़े को भिगोने-फुलाने के लिए रखा गया था। आश्चर्य लोगों को उस कठौती में गंगा नजर आईं। इस घटना का भी तात्विक महत्व है। संभवतः रैदास लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि किसी भी अनुष्ठान से अधिक पवित्र काम वह होता है जिससे हमारा जीवन चलता है। कहते हैं उसी समय से यह कहावत प्रचलित हो गई कि, 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' किसी रचनाकार की सफलता के मानकों की अनेक मान्यताओं में एक मान्यता यह भी है कि उसकी उक्तियाँ लोकमन में इस तरह व्याप्त हो जाएँ कि वे मुहावरे में तब्दील हो जाएँ। कहना न होगा रैदास ऐसे विरल संतों में एक थे।
कर्म-सौंदर्य से जुड़ी अनेक उक्तियाँ रैदास वाणी में सहज ही उपलब्ध हैं, जैसे -
'रविदास मनुष्य का धर्म है करम करहिं दिन रात।
करमह फल पावना नहि काहू के हाथ।।
रविदास श्रम कर खाइए जो लो पार बसाय।
नेक कमाई जो करइ कबहुँ न निष्फल जाय।।
बन बन में ढूँढ़त फिरत बन में हरि न कोय।
रविदास कहे शुभ कर्म कर हरि प्राप्ति होय।।
धरम-करम जाने नहीं मन मह जाति अभिमान।
ऐ सोऊ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहुँ जान।।
करम बंधन मह रमि रहियो फल की तजो आस।
करम मनुष्य का धरम है सत भाषे रविदास।।'
मेरी जाति विख्यात चमार
एक ऐसा समाज जहाँ जाति अभिमान और सवर्ण श्रेष्ठता की परंपरा पागलपन के हद तक महदूद हो, वहाँ किसी का सवर्ण न होने के बावजूद अपनी जाति का स्वीकार कोई सरलीकृत व्यक्तित्व का मसला भर नहीं है। यह स्वाभिमान के वैभव के साथ वह प्रखर घोषणा भी है कि वर्ण-व्यवस्था में यकीन करने वालों की सोच और कर्म किस कदर तंग और मनुष्य विरोधी है। रैदास की भक्ति हारे को हरिनाम नहीं है। यह एक जगे हुए मनुष्य का मनुष्यता के पक्ष में किया गया संघर्ष है। उनके इस स्वाभिमान ने ब्राह्मण समाज में खलबली मचा दी, क्योंकि उनकी सामजिक स्वीकार्यता बहुत तेजी से लगातार विस्तृत हो रही थी। नागरीदास ने लिखा, 'काहू समय रैदास जू को उत्कर्ष बहुत लोंकनि कौं करत देखि, कितनेक ब्रह्ममणन आन धर्म अभिमानी हे, तिनके बहुत मत्सरता उपजी।' अर्थात किसी समय रैदास जी की प्रतिष्ठा लोक में काफी उत्कर्ष पर पहुँची। इस कारण अनेक ब्राह्मण जिन्हें अपने धर्म पर बहुत अभिमान था, उन्हें रैदास जी से बहुत ईर्ष्या हुई। इस ईर्ष्या का प्रभाव बहुविध ढंग से हुआ। जहाँ रैदास के उन विरोधियों की संख्या बढ़ी जो सत्ता केंद्रों पर पहले से काबिज थे वहीं उन लोगों के प्रतिरोध को रैदास की निर्भीक मुद्रा के कारण नई धार मिली जो समरस समाज का सपना देख रहे थे। भक्ति की ऐसी धारा जिसमें भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं। भक्ति या धर्म पर कब्जे की मिल्कियत के खिलाफ। जो लोग जात-पाँत में धर्म और समाज की पताका फहरा रहे थे, उन्हें रैदास कहते हैं -
'ऐसो जानि जपो रे जीव, जपी लेउ राम न भरयो जीव।
नामदेव जाति कै ओछ, जाको जस गावै लोक।।
भगत हेत भागता के चलै, अंकमाल ले बीठल मिलै।
कोटि जग्य जो कोई करै, राम-नाम सम तउ न निस्तरै।।
निरगुन को गुन देखो आई, देही सहित कबीर सिधाई।
मोर कुचिल जाति में बास, भगति हेतु हरि चरन निवास।।
चारो वेद किया खंडौति, जन रैदास करै दंडौति।।'
चारो वेद के खंडन की घोषणा कोई जल्दबाजी में लिया गया निर्णय नहीं है और न ही सस्ती लोकप्रियता पाने का फौरी तरीका। यह रैदास और उनके समाज पर वेदमत के नाम पर किए गए जुल्मों की अंतहीन कहानी के खिलाफ दुर्घर्ष शब्दों में दर्ज किया गया प्रतिरोध है, जिन कारणों से उनकी वाणी तल्ख होती है। यह तल्खी तर्कों की झड़ी लगा देती है -
'जात-पाँत फेर मह उरझि रहहिं सभ लोग।
मानुषता को खात है रविदास जात का रोग।।
रविदास इक ही नूर से जिमि उपज्यो संसार।
ऊँच-नीच केहि बिधि भयो ब्राह्मण और चमार।।
रविदास जाति मति पूछिए का जात का पात।
ब्राह्मन क्षत्रि वैश्य सूदर सभन की एक जात।।
रविदास जन्म के कारने होत न कोउ नीच।
नर को नीच कर करि डारि है ओछे करम की कीच।।
इसी तरह अपने एक पद में रैदास उन लोगों से तर्क करते नजर आते हैं जो चमड़े के काम को घृणास्पद मानते हैं, वे कहते हैं उनके राम चाम के मंदिर में खेलते हैं -
'जब देखा तब चामे-चाम मंदिर खेले राम।
चाम का ऊँट चाम का नगारा चामेचाम बजावन हारा।।
चाम का बछड़ा चाम की गाय चमेचाम दुहावन जाए।
चाम का घोड़ा चाम की जीं चामेचाम करे तालीम।।
चाम पुरुष चाम कीजो चामेचाम मिलावा हो।
कहि रविदास चाम हमारा भाई चाम मंदिर माह हर देह दिखाई।।'
प्रायः रैदास को निरीह संत के रूप में चित्रित करने की परंपरा रही है। पर ऐसा है नहीं। हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा किए गए, कबीर के विश्लेषण को याद करें तो हम कह सकते हैं कि रैदास भी कबीर की तरह भक्तों के आगे निरीह और भेषधारी के आगे प्रचंड थे। उन्हें अपना प्रतिपक्ष मालूम था और यह भी मालूम था कि अपने प्रतिपक्षी को किस जबान में जवाब देना है। कई स्थानों पर उनकी वाणी की तल्खी देखते बनती है -
'एके चाम, एक मलमूतर एक खून एक गूदा।
एक बूंद से सब उत्पन्ना को बामन को सूदा।।'
उन्होंने कर्म की शुचिता से जुड़े जिस विवेक को स्थापित किया, वह अनेक वर्णधर्मी लोगों के लिए चुनौती बना। उन्होंने कहा -
'रैदास बाँभन मत पूजिए जो होवे गुनहीन।
पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन परवीन।।'
मान्यता है इसी के जवाब में तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा -
शापत, ताड़त, पारुश, कहन्ता। पूज्य, विप्र, अस, गावहिं संता।
पूजिय विप्र शील गुण हीना। शूद्र ना गुण गण ग्यान प्रवीणा।।
अर्थात, श्राप देता, मरता और कठोर वचन कहता हुआ ब्राह्मण भी पूजा के योग्य है ऐसा संत कहते है। गुण एवं चरित्र से हीन ब्राह्मण की भी पूजा की जानी चाहिए। और गुणवान, पढ़ा-लिखा शूद्र भी तिरस्कार के योग्य है, तुलसीदास कृत रामचरितमानस में यह कथन राम कबंध राक्षस के वध के बाद कहते हैं। इस प्रकार रैदास के कथनों के माध्यम से तत्कालीन समाज के अनेक वैचारिक संघर्षों से भी हम रूबरू हो सकते हैं।
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न
रैदास जिस आध्यात्मिक संरचना की कल्पना कर रहे थे, वहाँ सबकी मुक्ति के लिए जगह थी। वहाँ व्यक्तिगत मोक्ष के आनंद और नेति-नेति का तिलस्म नहीं था। इस सपने में जीवन की आधारभूत जरूरतों के लिए जगह थी, यह पेट भरों का विलास भर नहीं था, बकौल रैदास -
'ऐसा चाहूँ राज मैं जहँ मिले सबन को अन्न।
छोटे-बड़े सब संग रहे, रैदास रहे प्रसन्न।।
उन्होंने जिस समरस समाज का सपना देखा उसका नाम बेगमपुरा है। बेगमपुरा यानी बिना गम का पुर यानी नगर। संभवतः ऐसे पुर की चर्चा रैदास अपने हमजुबाँ दोस्त कबीर से भी करते होंगे। यह अकारण नहीं है कि कबीर कहते हैं -
अवधू बेगम देश हमारा।
राजा-रंक-फकीर-बादसा, सबसे कहौ पुकारा।
जो तुम चाहो परमपद को, बसिहो देस हमारा।।
जो तुम आए झीने झोंके, तजो मन की भारा।
धरन-अकास-गगन कछु नाहीं, नहीं चंद्र नहिं तारा।।
सत्त-धर्म की हैं महताबें, साहेब के दरबारा।
कहै कबीर सुनो हो प्यारे, सत्त-धर्म है सारा।।
बेगमपुरा सत्य को ही धर्म मानने वाले कबीर के साथी रैदास बेगमपुरा की जो तसवीर पेश करते हैं, उसकी समकालीनता बेजोड़ है। आइए उस पद से बावस्ता होते हैं -
अब हम खूब वतन घर पाया।
ऊँचा खैर सदा मन भाया।।
'बेगमपुरा सहर को नावँ, दुख - अंदोह नहीं तेहिं ठावँ।
ना तसवीस खिराज न माल, खौफ न खता न तरस जुवाल।।
आवादाना रहम औजूद, जहाँ गनी आप बसै माबूद।
काइम-दाइम सदा पतिसाही, दोम न सोम एक सा आही।।
जोई सैल करे सोइ भावै महरम महल न को अटकावै।
कह रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सो मीत हमारा।।
अर्थात अब मुझे अपने वतन में घर मिल गया। वहाँ हमेशा खैरियत रहती है, जो मेरे मन को खूब भाती है। जिस शहर में मैं रहता हूँ वह शहर सभी गमों से मुक्त है। उस शहर में दुख और चिंता के लिए कोई स्थान नहीं है। बेगमपुरा शहर में न कोई चिंता न कोई घबराहट। वहाँ भगवान का नाम लेने के लिए कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। वहाँ किसी का खौफ नहीं, न खता है, न किसी चीज के लिए तरस है और न ही अप्राप्ति की अगन। वहाँ सत्य की सत्ता सदा कायम है। इसके सिवा कोई और सत्ता नहीं, वह अटल है। वहाँ रहने वाले अपनी इच्छा के मुताबिक भ्रमण कर सकते हैं। वहाँ सत्य रूपी महल में जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। रैदास अपने बारे में कहते हैं कि मैं खालिस चमार हूँ, उनका कहना है जो हम शहरी है यानी जो इस विचार में यकीन करता है, वही हमारा मीत है। समता और बंधुत्व के इस विचार की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा है, क्योंकि चुनौतियाँ पहले से विकट हैं।
संदर्भ :
1. सांकृत्यायन राहुल, 2013:626, दर्शन दिग्दर्शन, किताब महल, इलाहाबाद
2. सिंह शुकदेव, 2003:292, रैदास बानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली
3. सिंह शुकदेव, 2003:65, रैदास बानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली
4. भारती कँवल, 2000:168,169, संत रैदास, बोधिसत्व प्रकाशन, रोशन बाग़, रामपुर, उत्तर प्रदेश
5. भारती कँवल, 2000:171, संत रैदास, बोधिसत्व प्रकाशन, रोशन बाग़, रामपुर, उत्तर प्रदेश
6. द्विवेदी हजारी प्रसाद, 1991:134, कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
7. वृत्तचित्र - बेगमपुरा, यू ट्यूब https://www.youtube.com/watch?v=AOYXOjUf9o0, Aug 10, 2015 - Uploaded by AWAAZ INDIA TV
8. भारती कँवल, 2000:100, संत रैदास, बोधिसत्व प्रकाशन, रोशन बाग़, रामपुर, उत्तर प्रदेश
9. दास तुलसी, 2015:610, अरण्यकांड, रामचरितमानस, टीकाकार - हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस, 13 गोरखपुर, उत्तर प्रदेश (प्रकाशन वर्ष - संवत् २०७२)
10. वृत्तचित्र - बेगमपुरा, यू ट्यूब https://www.youtube.com/watch?v=AOYXOjUf9o0, Aug 10, 2015 - Uploaded by AWAAZ INDIA TV
11. द्विवेदी हजारी प्रसाद, 1991:219, कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
12. भारती कंवल, 2000:125,संत रैदास, बोधिसत्व प्रकाशन, रोशन बाग़, रामपुर, उत्तर प्रदेश