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विमर्श

मीडिया में दलितों की उपस्थिति और प्रतिनिधित्व

राकेश कुमार


दलितों को उनके संवैधानिक अधिकारों दिलाने में डॉ. भीमराव अंबेडकर की बड़ी भूमिका रही है। देश में संविधान के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का विचार एक क्रांतिकारी विचार था। स्वतंत्रता के बाद 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में उन्होंने कहा था कि हम एक ऐसे समय में प्रवेश करने जा रहे हैं जहाँ हम संविधान में तो समान होंगे पर वास्तविक जीवन में समान नहीं होंगे।"1 उनकी यह बात आजादी के लगभग सात दशकों बाद भी सच साबित हो रही है। समाज में न केवल अल्पसंख्यकों के प्रति शंका का भाव भरा गया है बल्कि दलितों के प्रति एक विशेष प्रकार का भ्रम भी फैलाया जा रहा है। इस भ्रम के अनुसार दलित अयोग्य होते हैं। दलित को सभी कुछ बिना श्रम किए मिल जाता है। दलित आरक्षण का दुरुपयोग करते हैं। दलित स्वयं जाति व्यवस्था समाप्त नहीं करना चाहते। दलित सवर्णों को फँसाने के लिए एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग करते हैं। दलित सवर्णों की रक्त की शुद्धता को समाप्त करने के लिए प्रेम विवाह का प्रयोग करते हैं। इसलिए समाज के तथाकथित उच्च वर्ग को यह अधिकार है कि वह अपने पक्ष में 'ऑनर किलिंग' जैसी 'उचित' कार्यवाही करे। जबकि वास्तविकता यह है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार हर 18 मिनट में किसी न किसी दलित पर अत्याचार होता है। प्रतिदिन औसतन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या कर दी जाती है, प्रतिदिन दो दलितों के घर जलाए जाते हैं, 37 प्रतिशत दलित गरीबी की रेखा से नीचे हैं, 45 प्रतिशत दलित निरक्षर हैं। 28 प्रतिशत गाँवों में दलित थानों में प्रवेश नहीं कर सकते। 39 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को खाना खाते समय अलग बैठाया जाता है। 24 प्रतिशत गाँवों में दलितों को उनके घर डाक नहीं पहुँचाई जाती। 48 प्रतिशत गाँवों में दलितों को पानी के स्रोतों को छूने ही मनाही है।"2 यह वह देश है जहाँ अस्पृश्यता एक कानूनी अपराध है। समाज के समर्थ वर्ग के इस दुष्प्रचार में सहायक होता है मीडिया। मीडिया में इस प्रकार के अनेक ऐसे संदेश और उदाहरण मिल जाते हैं जिससे यह साफ होता है कि मीडिया में दलितों का चित्रण नकारात्मक है और प्रतिनिधित्व नगण्य। आज भी मीडिया में काम करने वालों तथा उच्च प्रशासनिक क्षेत्रों में भी दलित समाज का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है। 9 अप्रैल 2015 को अँग्रेजी के अखबार द हिंदू में इंस्टिट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज एंड एशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट सिंगापुर में विजिटिंग प्रोफेसर, रोबिन जैफ्री ने एक लेख लिखा है। लेख का शीर्षक है 'मिसिंग फ्रॉम द न्यूज रूम'।3

इस लेख में रॉबिन जैफ्री बताते हैं कि भारतीय मीडिया जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शामिल है, में दलितों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। भागीदारी का यह अभाव रॉबिन को आश्चर्य में डालता है। वे मानते हैं कि यह संविधान द्वारा प्रदत्त समानता और बंधुत्व के अधिकार के साथ धोखा है। उन्होंने लिखा है कि मीडिया में - "भारत के मीडिया संगठनों के समाचार कक्षों में 1992 में एक भी दलित नहीं था और न ही आज (2015) है। भारतीयों की 25 प्रतिशत आबादी (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) के जीवन की कहानियाँ अनजानी ही रह जाएँगी। बहुत कम प्रसारित और लिखित। बस हिंसा और गंदगी की कहानियों को छोड़कर।"4 1992 से वर्ष 2015 भूमंडलीकरण के इन तेइस वर्षों के यदि भारतीय दलित समाज को देखें तो हम जान जाते हैं कि इस दौरान न केवल शिक्षित दलितों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होती है बल्कि एक सशक्त दलित मध्य वर्ग भी इस दौरान बन जाता है। यह शिक्षित दलित मध्य वर्ग राजनीतिक रूप से जागरूक भी था। पर सवाल यह है कि क्या इस दौर में शिक्षित दलित मध्य वर्ग के सामने आने के बावजूद क्या उनकी सामाजिक स्थिति में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन आता है? इसका उत्तर नकारात्मक ही आता है। अर्थशास्त्री हिमांशु सेमिनार पत्रिका में छपे अपने एक लेख 'इनइक्वलिटी इन इंडिया में लिखते हैं' "एक व्यक्ति के सामाजिक पदानुक्रम में उसके स्थान से उत्पन्न होने वाली असमानता सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता से कहीं अधिक मायने रखती है। यह तथ्यात्मक रूप से स्थापित हो चुका है कि जाति, धर्म, जेंडर, और तो और भूगोल के आधार पर गहरी असमानता समाज में उपस्थित है। यद्यपि आय और उपभोग के मोटे आँकड़ों के आधार पर इसे पूरे तौर पर जानना कठिन है परंतु अग्रलिखित आँकड़ों से इसके परिमाण का सहज अनुमान लगाया जा सकता है : वर्ष 2011-12 में ग्रामीण इलाकों में शेड्यूल्ड ट्राइब्स में 43 प्रतिशत और शैड्यूल्ड कास्ट्स में 29 प्रतिशत गरीबी देखी गई। इनमें से 65 प्रतिशत ग्रामीण और 48 प्रतिशत शहरी गरीब भारत के सात राज्यों, बिहार, आसाम, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ ओड़ीशा और मध्य प्रदेश में स्थित हैं।"5 तो यह साफ है कि आर्थिक गतिशीलता ने दलितों की सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित नहीं किया। राजनीति भले ही दलितों को सशक्त मान रही हो पर समाज में उन्हें उनकी वास्तविक हिस्सेदारी से वंचित ही रखा गया। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सन 1992 से 2016 के दौरान मीडिया में निजी कॉरपोरेट पूँजी आती है। और मीडिया सरकारी नियंत्रण से बाहर हो जाता है। भूमंडलीकरण के बाद के ग्लोबल मीडिया से निरंतर यह प्रचार होता है कि अब दुनिया बदल चुकी है और हम अब ग्लोबल सिटिजन हो गए हैं। परंतु रोबिन जैफ्री का आकलन साफ कर देता है कि मीडिया में दलितों के लिए कोई जगह नहीं है। कॉरपोरेट पूँजी पर चलने वाला मीडिया भी पुराने ढंग की सवर्ण मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है।

कुछ लोग जाति की तुलना नस्ल से करते हैं जो कि यूरो-अमेरिकी संदर्भों में एक सच्चाई है। रंगभेद के आधार पर हुई बर्बरता को मानव इतिहास में भूला नहीं जा सकता है। यही स्थिति भारत में जाति की भी है। परंतु भारत की जाति व्यवस्था में शोषण की जितनी पर्तें हैं वे सब रंगभेद में भी नहीं हैं। अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ एक पूरा आंदोलन चला जिसमें प्रेस की बड़ी भूमिका थी। जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका में एक बड़ा परिवर्तन आता है कि एक अश्वेत को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया जाता है। परंतु भारत में जाति उन्मूलन को मीडिया का उतना अधिक समय नहीं मिला, जितना कि मिलना चाहिए था। हिंदी के न्यूज चैनलों को यदि देखा जाए तो एक भी दलित न्यूज एंकर नहीं दिखाई देता। यह एक विडंबनात्मक स्थिति है। इससे मुक्ति के लिए यदि स्वयं दलित एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करें तो संभव है उनके पक्ष की कुछ बात आ सके परंतु जितनी भारी पूँजी की आवश्यकता मीडिया चैनलों को चलाने के लिए चाहिए उतनी अधिक पूँजी दलित लगा नहीं सकते इसलिए यथास्थिति बनी हुई है। रॉबिन जैफ्री लिखते हैं - "जिस समय मैने 'इंडियाज न्यूज पेपर रेवोल्यूशन 2000 प्रकाशित कराया तथा तब तक कुछ नहीं बदला था। सन 2006 में जब कूपर-उनियाल जाँच की दसवीं वर्षगाँठ के अवसर पर एक सर्वे ने बताया कि मीडिया के 300 निर्णयकर्ताओं में एक भी एस.सी. या एस.टी. नहीं था। एक साल पहले भी कुछ नहीं बदला था जब जे. बाला सुब्रमणियम ने अपने निजी अनुभव इकोनॉमिक्स और पॉलिटिकल वीकली में लिखे थे।"6 इस तथ्य से एक बात तो साफ है कि जब निर्णयकर्ताओं में एक भी दलित नहीं है तो दलितों से जुड़ी समस्याओं और उनके दमन की दास्तान कौन कहेगा? भारतीय मीडिया में दलितों के प्रश्नों को उठाने का काम अभी भी नहीं किया जा रहा है। अक्सर यह देखने में आया है कि मीडिया में अब दलितों पर होने वाले अत्याचारों की खबरें तो आ जाती हैं परंतु दलितों के प्रतिरोध को दिखाने वाले आंदोलनों और प्रदर्शनों को मीडिया अक्सर अनदेखा कर देता है। कहने को यह तो कहा जा सकता है कि चलिए अब मीडिया दलितों पर होने वाले अत्याचारों की खबरें तो दिखा रहा है पहले तो यह भी नहीं था, परंतु इस प्रवृत्ति को दूसरा पक्ष यह भी है कि दलितों पर होने वाले अत्याचारों को दिखाने का एक उद्देश्य यह भी है कि दलितों के भीतर एक भय बैठाया जा सके। अभी 11 जुलाई 2016 को गुजरात के ऊना जिले में पाँच दलितों को गौ रक्षकों ने मरे हुए पशु (गाय) की खाल उतारने के आरोप में बर्बरता से पीटा और उसका वीडियो बना कर वितरित भी किया। यह वीडियो लगभग एक सप्ताह तक सोशल मीडिया पर बार-बार देखा गया। यह इतना अधिक हिंसक, क्रूर और बर्बर था कि इसकी बड़ी तीखी प्रतिक्रिया पूरे देश में उठी। इससे पहले हरियाणा के झज्जर में 15 अक्टूबर 2002 को पाँच दलितों को भीड़ ने गाय की खाल उतारने के जुर्म में पीट-पीटकर मार डाला था। इसके बाद लगातार कभी मिर्चपुर, कभी कैथल और कभी गोहाना में लगातार दलितों के घर जलाए जाते रहे।"7 परंतु समाज में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए जिस तरह का कठोर संदेश जाना चाहिए था वह नहीं गया। उल्टे गौ रक्षा के नियम बनाने के आड़ में दलितों और अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए गौरक्षक स्वयंसेवको के अनौपचारिक गिरोहों को सरकारी मान्यता तक दे डाली। यहाँ आकर दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं रह गया। वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश में अखलाक नाम के एक व्यक्ति की हत्या मात्र घर में गौ मांस होने की शंका में कर दी गई। आश्चर्य की बात यह भी है कि गौ को राष्ट्र का प्रतीक तक सिद्ध किया जा रहा है। यानी जो गौरक्षक है वह राष्ट्र का रक्षक स्वयं ही हो जाता है। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि इस अपराध में शामिल एक युवा ने जब आत्महत्या कर ली तो न सिर्फ उसे शहीद का दर्जा दिलाने की बात उठी बल्कि उसके शव को तिरंगे में लपेट कर रखा गया। यानी एक हत्या के आरोपी व्यक्ति को बिना किसी जाँच-पड़ताल के न सिर्फ दोषमुक्त कर दिया गया; बल्कि उसे राष्ट्र के लिए शहीद होने वाले सैनिक के समकक्ष रखा गया।"8 समस्या इस बात से भी मीडिया आम तौर पर इस प्रकार की प्रवृत्ति को प्रश्नित करने से कतराता है। सरकार से या उनके मंत्रियों द्वारा जब इस गौरक्षक की बीमारी से हुई मृत्यु पर मुआवजे की घोषणा होती है तो उसे सामान्य बात कह कर टाल दिया जाता है।

दलितों के प्रश्नों पर मीडिया की संवेदनहीनता का एक ज्वलंत उदाहरण हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के प्रकरण में देखा जा सकता है।"9 वैसे वर्ष 2016 को इस नाते भी याद रखा जाएगा कि इस वर्ष में दलितों ने अपने अपमान और प्रताड़ना के खिलाफ संगठित होकर आवाज उठाई। रोहित वेमुला के प्रसंग में यह बहुत साफ है यदि मीडिया रोहित और उसके साथियों के निष्कासन के खिलाफ उनके प्रदर्शन को स्थान देता तो शायद रोहित जीवित होता। रोहित की आत्महत्या को उसकी राजनीति और उसके परिणामों से जोड़ा गया। यही नहीं रोहित की आत्महत्या को उसके निजी जीवन की तथाकथित असफलताओें से भी जोड़ा गया। मीडिया में रोहित का मुद्दा तभी उभरा जब उसने आत्महत्या कर ली और सोशल मीडिया के माध्यम से उसकी आत्महत्या एक बड़ा मुद्दा बन गई। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उसको देशद्रोही करार देने तक के प्रयास मीडिया में देखने को आए और इन सबके बीच संस्थान और उसके चलाने वालों को निरंतर उनकी जवाबदेही से मुक्त कर दिया गया। रोहित वेमुला की आत्महत्या से पहले भी हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी जैसे देश के उच्च शिक्षा-संस्थानों में दलित छात्र आत्महत्या करते रहे पर उनकी आत्महत्याओं को समाज के बीमार होने का लक्षण न मान कर उन्हें पढ़ाई का बोझ न सह सकने वाले युवा करार दे दिया गया। यह कहा जाता है कि दलित छात्र आरक्षण से दाखिला तो ले लेते हैं पर वे उच्च शिक्षा में पढ़ाई के स्तर तक योग्य न होने के कारण पिछड़ने लगते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। पर मीडिया अक्सर दलित छात्रों के साथ होने वाले जातिगत भेदभावों को छिपा जाता है। उत्तर भारत और हैदराबाद के उच्च शिक्षा संस्थानों में वर्ष 2007 से 25 छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें से 23 दलित थे। इन बड़े शिक्षा संस्थानों में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अतिरिक्त आई.आई.टी. और एम्स जैसे संस्थान शामिल हैं। यदि हम रोहित वेमुला की दुखद आत्महत्या के बाद तीन बड़े समाचार चैनलों के न्यूज पोर्टल पर निगाह डालें तो यह साफ-साफ दिखाई देता है कि इन पोर्टल्स पर खबरों पर आने वाली टिप्पणियों के स्वरों में बहुत समानता है। अक्टूबर 2016 के एन.डी.टी.वी.डॉट.कॉम पर जब इसकी खबर आती है तो उस पर आने वाली टिप्पणियाँ रोहित वेमुला को देशद्रोही और झूठा कहती हैं।"10 इसी प्रकार 18 अक्टूबर 2016 को जी न्यूज के न्यूज पोर्टल पर आने वाली टिप्पणियों का स्वर भी ऐसा ही है।"11 यही हाल ए.बी.पी. न्यूज के न्यूज पोर्टल का है। यानी सोशल मीडिया और इंटरनेट पर पूरा एक ऐसा वर्ग है जो सामंती, जड़ और सांप्रदायिक तरीके से हस्तक्षेप करता है।

वास्तव में भारतीय मीडिया के लिए उच्चवर्णीय सांस्कृतिक सरोकार तो महत्वपूर्ण हैं परंतु हाशिए के समाज के सपने, उसके अकेलेपन और संघर्ष को दिखाने का कोई समय नहीं है। वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक संस्कृति के सवाल तो जैसे मीडिया के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। इसीलिए बहुसंख्यक समाज की उच्चवर्णीय संस्कृति को पोषित और महिमामंडित करने का काम मीडिया कर रहा है। एन.डी.टी.वी. के प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार अपने लेख - 'एबसेंट दलित : द इंडिया न्यूज रूम' में बहुत विस्तार से इस बात को दिखाते हैं कि किस प्रकार से मीडिया में जाति एक बड़ी भूमिका निभाती है। वे मीडिया में उपस्थित जातिवाद की सूक्ष्म तहों को उजागर करते हैं। वे मीडिया में मध्य वर्ग की सांस्कृतिक हेजेमनी या आधिपत्य को दर्शाते हुए कहते हैं - "मीडिया के मध्यवर्गीय सांस्कृतिक आधिपत्य का अर्थ है कि करवा चौथ, लोहड़ी और यहाँ तक कि धन लक्ष्मी जैसे व्रत-त्यौहार के विषय में बोला और लिखा जाता है लेकिन अंबेडकर जयंती, वाल्मीकि जयंती या रविदास जयंती पर एक बहरी चुप्पी रहती हैं।"12 रवीश कुमार मीडिया में जाति आधारित विविधता की कमी को बहुत गंभीरता समस्या कहते हैं। वे मानते हैं कि यह समस्या मात्र मेरिट की नहीं है समस्या कहीं गहरी उस मानसिकता की जिसके कारण मीडिया में दलितों का प्रतिनिधित्व हो ही नहीं पाता।

आदिवासियों के प्रश्नों पर तो आम तौर मीडिया की चुप्पी देखी ही जा सकती है। मीडिया में आदिवासियों के चित्र तभी दिखाए जाते हैं जबकि या तो प्रधानमंत्री राज्य का दौरा कर रहे हों और उनके सामने आदिवासी संस्कृति की कुछ झलक प्रस्तुत करनी हो या फिर किसी आंदोलन में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए उनमें से कुछ मारे जाते हों। यदि आप मुख्यधारा के मीडिया में ढूँढ़ने जाएँ तो मुश्किल से ही कुछ लोग ऐसे होंगे जिन्हें वास्तव में आदिवासियों के मुद्दों की समझ होगी। आदिवासियों की अपनी जो पत्रिकाएँ भी निकलती हैं वे सभी बहुत छोटे स्तरों पर निकल रहीं हैं। इन्हें व्यावसायिक रूप से सफल बनाने के लिए विज्ञापन भी नहीं मिलते हैं। जिसकी वजह से ये पत्र-पत्रिकाएँ भी बहुत लंबे समय तक नहीं निकल पाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वैकल्पिक मीडिया का स्थान बहुत आसानी से मुख्यधारा का मीडिया ले लेता है। नेह अर्जुन इंदवार लिखते हैं - "आदिवासी पत्रिकाओं का प्रकाशन अपने समाज की आवश्यकता की बात सोच कर खुद उत्साही आदिवासी ही निकालते हैं। वे अपनी सीमित आय और अपने दोस्तों के सहयोग से इस तरह के सामाजिक कार्य को द्रुत गति देने के लिए निकालते रहे हैं। समाज में अब तक अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई है। अगुवानवा इंजोतनवा, पडहावीर बिरसा, आदिवासी टाइम्स आदि निकलीं लेकिन समाज का समर्थन नहीं मिलने के कारण बंद हो गईं। समाज में किसी पत्र-पत्रिका का नहीं होना अत्यंत नुकसानदायक होता है। दूसरे समाजों के साथ आदिवासी समाज के विकास की तुलना करें तो इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है।"13 तो समस्या यह है कि न तो मुख्यधारा का मीडिया आदिवासियों की आवाज और उनके संघर्ष को ठीक ढंग से उठा रहा है और न कोई ऐसा वैकल्पिक मीडिया ही वहाँ पर विकसित हो पा रहा है जो मुख्यधारा के मीडिया के विपरीत रिपोर्टिंग कर सके।

क्या करें? आज हिंदी में दलितों के प्रश्नों को लेकर दलित दस्तक, मूकवक्ता जैसी अनेक पत्रिकाएँ निकल रही हैं। जिनमें अनेक प्रगतिशील पत्रकार अपना योगदान देते हैं। पर यह भी सच है कि आज भी इन पत्रिकाओं का सर्कुलेशन बहुत कम है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब मुख्यधारा का मीडिया, दलितों के प्रश्नों को स्थान नहीं दे रहा है तो क्या किया जाए? क्या जैसे चल रहा है उसे चलने दिया जाए या फिर कुछ ऐसे रास्तों की खोज की जाए जिससे कि दलितों के प्रश्नों को सही परिप्रेक्ष्य में दिखाया और समझाया जा सके। हमारे सामने एक ही विकल्प दिखाई देता है। वह है तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया को मजबूत किया जाए। दलित जागृति के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों को राजनीतिक लड़ाइयों के साथ-साथ सांस्कृतिक-बौद्धिक लड़ाई की ओर भी अधिक ध्यान देना होग। वैकल्पिक मीडिया का काम यह होगा कि वह उन मुद्दों को आम जनता के बीच मे लाए जिन्हें या तो मुख्यधारा का मीडिया छोड़ देता है या फिर उन्हें ठीक से प्रस्तुत नहीं करता। आज का शिक्षित दलित युवा तकनीक के क्षेत्र में खूब काम कर रहा है। इसलिए सोशल मीडिया जैसे नए मीडिया मंचों का उपयोग करना होगा। मुख्यधारा के मीडिया के तर्ज पर ही ऑनलाइन वैब पोर्टल और वैब पत्रिकाएँ शुरू की जा सकती हैं। साथ ही साथ वैकल्पिक सांस्कृतिक आंदोलनों को भी मजबूत करना होगा। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों को इन संस्कृतिक कला आंदोलनों के साथ जोड़ना होगा।

संदर्भ

1. बी.आर. अंबेडकर, संविधान सभा में भाषण, कांस्टीट्यूएंट असेंबली डिबेट्स खंड-11

On the 26th of January 1950, we are going to enter into a life of contradictions. In politics we will have equality and in social and economic life we will have inequality. In politics we will be recognizing the principle of one man one vote and one vote one value. In our social and economic life, we shall, by reason of our social and economic structure, continue to deny the principle of one man one value. How long shall we continue to live this life of contradictions? How long shall we continue to deny equality in our social and economic life? If we continue to deny it for long, we will do so only by putting our political democracy in peril. We must remove this contradiction at the earliest possible moment or else those who suffer from inequality will blow up the structure of political democracy which is Assembly has to laboriously built up. http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/vol11p11.htm

2. http://indiatoday.intoday.in/story/dalits-untouchable-rohith-vemula-caste-discrimination/1/587100.html

3. http://www.thehindu.com/opinion/lead/missing-from-the-indian-newsroom/article3294285.ece

4. द हिंदू, संपादकीय पृष्ठ, 9 अप्रैल, 2015

5. http://www.indiaseminar. com/2015/672/672_himanshu.htm

6. http://www.thehindu.com/opinion/lead/missing-from-the-indian-newsroom/article3294285.ece

7. https://loksangharsha.wordpress.com/2010/10/03/दलित-उत्पीड़न-झज्जर-गोहान/

8. http://khabar.ndtv.com/news/india/dadri-case-accused-death-sparks-tension-in-village-1471015

9. http://www.hindustantimes.com/analysis/the-media-s-caste-how-it-s-to-blame-for-rohith-vemula-s-death/story-iMkswsn297muC9fTJRimlN.htm

10. http://www.ndtv.com/hyderabad-news/report-aimed-at-saving-ministers-vice-chancellor-alleges-rohit-vemulas-brother-1471282

11. http://zeenews.india.com/news/hyderabad/video-shot-week-before-his-suicide-shows-rohith-vemula-saying-i-am-a-dalit_1941027.html

12. http://www.indiaseminar. com/2015/672/672_ravish_kumar.htm

13. https://madhubaganiar.wordpress.com\आदिवासी-समाज-में-क्यों-नह/


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