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कविता

भले घर की लड़की

अंकिता आनंद


भेंट की जाती है
पुरुष को,
उसके साथ
पाई नहीं जाती।
अपने भीतर के वेग को
नाखूनों से भेद
सिकोड़, मरोड़ देती है।
उसकी जाँघों, तकियों, कपड़ों, कागज़ों में
सबूत मिलते हैं
उसकी गड़ी उँगलियों के निशान के।
हर काम की तरह
बड़ी ही शांति से
अपने नवजात दिवास्वप्नों को
नमक चटा अंतिम नींद सुलाना भी जानती है वो।
उसकी नपी मुस्कान देख
चिड़िया के चहचहाने का सा एहसास होता है,
जिसकी भाषा समझने की ज़रूरत
महसूस नहीं होती
पर सुनकर लगता है,
चलो, सब ठीक है।


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