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कविता

एक नई पेशकश

अंकिता आनंद


मेरी तरह तुम भी ऊब तो गए होगे ज़रूर,
जब बार-बार तुम्हारे पाँव के नीचे खुद को पानेवाली
बित्ते भर की जंगली फूल मैं अपनी कँपकँपाती पंखुड़ियों से
तुम्हें वही पुरानी अपनी शोषण की कविता सुनाती हूँ,
(ये जानते हुए की प्रशंसा-गीत गाकर भी अब जान नहीं बचनी)
एक मरते इनसान की आखिरी ख्वाहिश,
जिसकी बुदबुदाहट वो खुद भी ठीक से नहीं सुन पाती
और आत्मघृणा से खिसिया मर ही जाती है।

आओ अबकी बार कुछ नया करें,
एक नया खेल ईज़ाद करें।
इस बार मैं तुम्हें एक ढीठ गीत, उछलते नारे और खीसे निपोरते तारे सी मिलने आती हूँ।
खासा मज़ा आएगा, क्या कहते हो?


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