महाकवि निराला एक उच्चकोटि के प्रतिभाशाली साहित्यकार थे। एक प्रतिभाशाली
साहित्यकार होने की यही पहचान है कि उन्होंने कई प्रकार की रचनाएँ की है और
उनकी रचना में विषयगत और विधागत वैविध्य भी है। वे जयशंकर प्रसाद,
सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ में गिने जाते
हैं। उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों की भांति साहित्य की सभी विधाओं में
रचनाएँ की और सफलता पाई। परंतु उन्हें मुख्य रूप से कवि रूप में ही ग्रहण किया
गया। निराला जी कितने सशक्त उपन्यासकार है यह उनकी औपन्यासिक कृतियों का
अध्ययन करने पर ही पता चलता है। उनके उपन्यास में यथार्थ के साथ-साथ
व्यावहारिकता पाई जाती है। उनके उपन्यास आधुनिक भारत की उभरती हुई छवि के
साथ-साथ पौराणिक भारतीय संस्कृति की गरिमा को लिए हुए है, इसलिए उनके
उपन्यासों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है
निराला जी के व्यक्तित्व के बारे में यह कहा जाता है कि वे एक संवेदनशील
व्यक्ति थे, उन्होंने समाज को बहुत गहराई से देखा, जाना और समझा था। उनके
जीवन-परिधि में जो कुछ भी घटा, जो कुछ भी हुआ उन्होंने इन सबका एक निष्पक्ष
परंतु संवेदनशील दर्शक के रूप में पर्यवेक्षण किया, गहराई से अनुभव किया एवं
इन अनुभूतियों को अपनी प्रभावशाली रचना-शैली के सहारे अपनी रचनाओं में
अभिव्यक्त करते चले गए। बलदेव प्रसाद मेहरोत्रा के शब्दों में - 'निराला के
कथा साहित्य में उनके जीवन की अनुभूतियाँ बड़े ही सुंदर रूप में चित्रित हुई
हैं। समाज का विविध रूप उनकी दृष्टि के सामने आया और उन्होंने समाज को तिक्त,
मधुर रूपों को देखा, किंतु उनके जीवन में तिक्त अनुभूतियाँ ही सबल रहीं।
उन्होंने अपने युग के समाज में प्रतिदिन जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित
शोषित जनों का क्रंदन सुना था, उन्हें जीवन के कुत्सित व्यवहार देखने को मिले
थे। कृषकों की दयनीय स्थिति, उनकी जटिल समस्याएँ, निराला के अंतर्मन को
विक्षुब्ध करती रहीं। इन समस्याओं को कथाकार निराला ने अपने उपन्यासों में
प्रकाशित किया।'1 वस्तुतः निराला जी का जीवन कठिनाइयों और दुखों के
साथ ही गुजरा है। अपने जीवन के सारे कठिन पलों के बावजूद भी जो सुख के थोड़े
से पल पाए थे उन सबको समेटकर उन्होंने अपने विविध उपन्यासों में व्यक्त किया
है। उन्होंने 'कुल्लीभाट' उपन्यास में कुल्ली के जीवन के साथ-साथ अपने जीवन के
बारे में भी बहुत कुछ लिखा है। इस उपन्यास में उनका स्वयं का कथन है कि - 'पं.
पथवारीदीन जी भट्ट (कुल्ली भाट) मेरे मित्र थे। उनका परिचय इस पुस्तिका में
है। उनके परिचय के साथ मेरा अपना चरित्र भी आया है, और कदाचित अधिक विस्तार पा
गया है।'2 हिंदी उपन्यास साहित्य में सामाजिक उपन्यास लिखने वालों
में प्रेमचंद जी का नाम सबसे पहले आता है, क्योंकि उन्होंने ही इस प्रकार के
उपन्यास की शुरुआत की। उसके बाद कई रचनाकारों ने उनकी परंपरा का पालन करते हुए
कई सामाजिक उपन्यास लिखे। परंतु निराला जी ने उपन्यास साहित्य में केवल इसलिए
कदम रखा क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि हिंदी उपन्यास साहित्य में केवल कुछ
ही कृतियाँ है जो आदर-सम्मान तथा स्नेह की प्रार्थी है। परंतु वे यह भी जानते
थे कि उनकी पहली औपन्यासिक कृति भी इन्हीं उपन्यासों के समरूप है। क्योंकि वे
आत्मविश्वासी थे। निराला ने स्वयं अपनी पहली औपन्यासिक रचना अप्सरा के प्रकाशन
के समय लिखा था - 'इन बड़े-बड़े तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफिल में मेरी
दंशिताधरा अप्सरा उतरते हुए बिलकुल संकुचित नहीं हो रही। उसे विश्वास है, वह
एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी।'3 प्रेमचंद और
निराला दोनों के उपन्यास सामाजिक चेतना से संपन्न हैं। परंतु उन दोनों की
सामाजिक चेतना में मौलिक अंतर है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में जिस सामाजिक
चेतना को अभिव्यक्त किया है, वह उनका देखा हुआ ज्ञान है, जबकि निराला के
सामाजिक चेतना में भोगा हुआ यथार्थ है। यह चेतना उनके जीवन का प्रत्यक्ष अंग
है। इतना ही नहीं उनके लिखे सभी उपन्यास सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक तथा वे
समस्त तत्वों से भरे हुए है जो उनके उपन्यासों को आज के संदर्भ में भी
महत्वपूर्ण बनाते है। ऐसा इसलिए है क्योंकि निराला जी ने जिनके बारे में लिखा
है जो कथा है, जो पात्र है, जितनी समस्याएँ है वे सब निराला जी ने बहुत करीब
से देखा है, उनके जीवन का एक अंग बनकर भी उपभोग किया है। उनके उपन्यास के
पात्र, कथावस्तु, भाषा, समस्याएँ एवं शैली सभी समाज की सापेक्षता में रचे गए
है। इसी कारण उनके उपन्यासों में हम समकालीन भारतीय समाज को भी पढ़ सकते है।
उनके उपन्यास तत्कालीन समाज की विचारधारा, जातीय-संरचना, वर्गहित एवं बन रही
नवीन परिस्थिति आदि के साथ-साथ भविष्य का भी कथन करते है। साथ ही निराला जी ने
अपने उपन्यासों में जो समस्याएँ व्यक्त की है और उन समस्याओं के लिए जो समाधान
प्रस्तुत किए है, उन समाधानों को यदि आज भी उपयोग में लाया जाए तो वे उपन्यास
में अभिव्यक्त सामाजिक समस्याओं को खत्म करने में कारगर साबित होंगे। प्रस्तुत
विषय में हम उनके उपन्यासों का परिचय देते हुए उनके उपन्यासों में सामाजिक
तत्व एवं समस्याओं की विवेचना करेंगे, साथ ही उनके प्रति निराला जी के
दृष्टिकोण को भी देखेंगे जो निराला जी ने इन सामाजिक तत्व एवं समस्याओं प्रति
व्यक्त किया है।
सामाजिक उपन्यास की अगर बात कही जाती है तो यह कहा जाता है कि -सामाजिक
उपन्यास, समाज के विभिन्न क्षेत्रों - स्त्री-पुरुष के रति-संबंधों, परिवार,
जाति, संप्रदाय, वर्ग, राष्ट्र, अर्थ-दशा, रीति-धर्म, सभ्यता, संस्कृति आदि का
चित्रण करते हुए, उनके लक्ष्य तथा उनकी समस्याओं का निरूपण करता है। सामाजिक
उपन्यास, सामाजिक जीवन-प्रवाह तथा उसकी समस्याओं से बँधकर चलने के कारण
कालावधि में गतिशील रहता है।3
निराला जी द्वारा लिखित उपन्यास हैं - (1) अप्सरा,(2) अलका, (3) निरुपमा,(4) प्रभावती, (5) कुल्लीभाट,(6) बिल्लेसुर बकरिहा, (7) चोटी की पकड़, (8) काले कारनामे। अप्सरा, अलका, निरुपमा, कुल्लीभाट,
बिल्लेसुर बकरिहा, काले कारनामे सामाजिक उपन्यास हैं। जबकि प्रभावती उपन्यास
में ऐतिहासिक तत्व के कारण ये ऐतिहासिक उपन्यास है, परंतु इसमें भी निराला ने
उच्चवर्गीय सामाजिक व्यवस्था और उसके स्वरूप को दर्शाया है। उच्चवर्गीय समाज
में होनेवाली घटनाओं और हलचल के कारण तत्कालीन मध्यमवर्गीय तथा निम्नवर्गीय
समाज पर पड़ते प्रभाव को भी इस उपन्यास में दर्शाया है। इसी प्रकार चोटी की
पकड़ एक राजनैतिक उपन्यास है। इसमें राजनैतिक माहौल, राजनैतिक षड्यंत्र,
राजनैतिक घटनाओं के कारण समाज में पड़नेवाले प्रभाव को भी दर्शाया है। कहा जा
सकता है कि इस उपन्यास में राजनैतिक समाज के दर्शन होते है। वैसे ये स्वदेशी
आंदोलन की कथा है। इस माहौल में हुई प्रत्येक घटना का असर तत्कालीन राजनीति पर
तो पड़ा ही, साथ-साथ तब के समाज पर भी पड़ा जिसे निराला जी ने हमारे सामने
लाने का प्रयत्न किया और जिसमें वे सफल भी हुए।
निराला के उपन्यासों में सामाजिक तत्वों की चर्चा करें तो हम सर्वप्रथम
'अप्सरा' की बात करेंगे।
अप्सरा निराला की पहली रचना है। अप्सरा उपन्यास की नायिका एक वेश्या पुत्री है
जिसका अभिजात कुलीन एक युवक से प्रेम है। उपन्यास में इन दोनों की प्रेमकथा
है। इन दोनों की भेंट थिएटर में शकुंतला नाटक के अभिनय के दौरान होती है।
दोनों एक-दूसरे को प्रथम दृष्टि में ही चाहने लगते है, परंतु राजकुमार अपने
देश-सेवा तथा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन तथा उसके प्रचार-प्रसार के व्रत धारण
किए हुए होता है जिस कारण वह अपने मन में कनक के प्रति प्रेम को समझ नहीं
पाता। पर बाद में उसे यह बात समझ में आ जाती है और वह कनक को अपना लेता है।
परंतु कनक के परंपरागत पेशे और उसकी सुंदरता के कारण उसे कुँवर साहब जैसे भोगी
रईस और उनके मित्र अंग्रेज अफ्सर उसका गलत फायदा उठाना चाहते है और उसे
राज्याभिषेक के उत्सव के समय अपने जाल में फँसाते हैं जिसे कनक समझ लेती है।
कनक फिर राजकुमार और उसके मित्र चंदन की सहायता से कुँवर साहब के जाल से मुक्त
हो जाती है और वह राजकुमार से विवाह कर लेती है। 'अप्सरा' उपन्यास इस प्रकार
से एक सरस प्रेम कथा सी प्रतीत होती है, परंतु निराला जी ने इसमें कुछ गंभीर
सामाजिक समस्याओं को उद्घाटित किया है। वेश्या समस्या हमारे समाज में कई दशकों
से चली आ रही है। और वेश्याओं के कारण ही बड़े-बड़े रईस, राजा-महाराजा और अमीर
घराने के लोग पतन के गर्त में चले जाते है। परंतु समाज में वेश्याओं का होना
दरअसल पुरुषों की भोग-विलास की कुटिल कामना का ही नतीजा है जिसने स्त्री को इस
दलदल में ढकेला। पहले जब इन धनी लोगों के घरों में किसी भी प्रकार के उत्सव या
त्योहार का आयोजन होता था तो वे लोग वेश्याओं को बुलाकर उनसे मुजरा करवाते थे।
यही तत्कालीन खानदानी कहे जानेवालों की शानोशौकत की सबसे बड़ी मिसाल थी। जो
जितना ज्यादा इस प्रकार के भोग-विलास में धन का व्यय करता था वह उतना ही बड़ा
कहलाता था। विजयपुर के कुँवर साहब भी उन दिनों कलकत्ते की सैर कर रहे थे।
इन्हें स्टेट से छ हजार मासिक जेब-खर्च के लिए मिलता था। वह सब नई रोशनी, नए
फैशन में फूँककर ताप लेते थे। आपने भी एक बॉक्स किराए पर लिया। थिएटर की मिसों
की प्रायः आपकी कोठी में दावत होती थी, और तरह-तरह के तोहफे आप उनके मकान
पहुँचा दिया करते थे।4 निराला जी ने इस सामाजिक समस्या को बखूबी
पहचाना है और इसका सफल चित्रण किया है। परंतु इसके साथ उन्होंने शहरी सामाजिक
जीवन को अच्छी तरह से इस रचना में चित्रित किया है जिसे पढ़कर यह अंदाजा लगाया
जा सकता है कि तब आधुनिकता की छाप किस प्रकार से शहरी जीवन में घुलती जा रही
थी। किस प्रकार से लोगों को आधुनिकता अपनी ओर आकर्षित करती जा रही थी - थिएटर
गेट के सामने पान खाते, सिगरेट पीते, हँसी-मजाक करते हुए बड़ी-बड़ी तोंदवाले
सेठ छड़ियाँ चमकाते, सुनहली डंडी का चश्मा लगाए हुए कॉलेज के छोकरे, अँगरेजी
अखबारों की एक-एक प्रति लिए हुए हिंदी के संपादक सहकारियों पर अपने अपार ज्ञान
का बुखार उतारते हुए, पहले ही से कला की कसौटी पर अभिनय की परीक्षा करने की
प्रतिज्ञा करते हुए टहल रहे थे। इन सब बाहरी दिखलावों के अंदर सबके मन की
आँखें मिसों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं, उनके चकित-दर्शन, चंचल चलन को
देखकर चरितार्थ होना चाहती थीं। जहाँ बड़े-बड़े आदमियों का यह हाल था, वहाँ
थर्ड क्लास तिमंजिले पर फटी-हालत, नंगे-बदन, रूखी-सूरत, बैठे हुए बीड़ी-सिगरेट
के धुएँ से छत भर देनेवाले, मौके-बेमौके तालियाँ पीटते हुए 'इनकोर-इनकोर' के
अप्रतिहत शब्द से कानों के पर्दे पार कर देनेवाले अशिष्ट, मुँहफट, कुली-क्लास
के लोगों का बयान ही क्या? वहीं इन धन-कुबेरों और संवाद-पत्रों के सर्वज्ञों,
वकीलों, डॉक्टरों, फ्रोफेसरों और विद्यार्थियों के साथ ये लोग भी कला के प्रेम
में साम्यवाद के अधिकारी हो रहे थे।5 यहाँ यह बात स्पष्ट दिखाई
देती है कि किस प्रकार आधुनिक युग ने प्रारंभ से ही भारतीय समाज को जकड़ रखा
है। किस प्रकार यह आधुनिक भारतीय समाज आधुनिकता का मतलब भी जाने बगैर इसके
समस्त तत्वों का आनंद लेना चाहता था, इसे अपनी सभ्यता और संस्कृति में शामिल
कर लेना चाहता था। निराला ने यहाँ तत्कालीन समाज के चरित्र का प्रकाशन किया है
जो इस प्रकार से आधुनिकता के खोखले रंग में स्वयं को रँग चुका था। वस्तुतः
निराला जी ने इस प्रकार से समाज की आधुनिकता पर व्यंग्य किया है। निराला जी ने
इतना ही नहीं किया बल्कि तत्कालीन समाज के अमीर और इज्जतदार कहे जाने वाले
सेठों, ताल्लुकेदारों आदि के नैतिक पतन को अपने दूसरे उपन्यास 'अलका' में भी
बखूबी चित्रित किया है। निराला ने दिखाया कि किस प्रकार उस समय ये
सेठ-ताल्लुकेदार अपनी अमीरी को बरकरार रखने के लिए अंग्रेज शासकों के हाथों
स्त्रियों को बेच देते थे, अपने ही लोगों को धोखा देते थे। निराला ने यहाँ
समाज की सबसे बड़ी समस्या नारी समस्या को दर्शाया है। उनकी हीन दशा को चित्रित
किया है। ...बाबू मुरलीधर अवध के आकाश के एक सबसे चमकीले तारे हैं, जहाँ तक
ऐश्वर्य की रोशनी से ताल्लुक है, यानी सबसे नामी ताल्लुकेदार। कहते हैं, कभी
उनके दीपक में इतना तेल न था कि रात को उजाले में भोजन करते, बात उनके
पूर्वजों पर है। उनके यहाँ शाम से पहले भोजन-पान समाप्त हो जाता था। यह विशाल
संपत्ति उनके पितामह ने अँगरेज सरकार की तरफदारी कर प्राप्त की। गदर के समय
बकरियों के बच्चे ढकनेवाले बड़े-बड़े झाबों के अंदर बंद कर कई मेम और साहबों
को बागियों से उन्होंने बचाया था। फिर जब राय विजयबहादुर की फाँसी के समय,
उनके महान् भक्त होने के कारण, तीन बार फाँसी की रस्सी कट-कट गई, और गोरे बहुत
घबराए, तब उनके गले में फाँसी लगने का उपाय इन्होंने बतलाया कि यह विष्णु
भगवान के बड़े भक्त हैं, जब तक इनका धर्म नष्ट न होगा, इन्हें फाँसी नहीं लग
सकती, इसलिए मुर्गी के अंडे का छिलका इनकी देह से छुआ दिया जाए। साहबों ने ऐसा
ही किया, तब फाँसी लगी। ...मुरलीधर को धैर्य हुआ। इससे पहले की दावतों में
सुंदरी-से-सुंदरी वेश्याओं के कदम-शरीर फिर चुके थे। फिर उनकी ओर सेकेंड हैंड
किताबें खरीदने की तरह अपना ही मन नहीं मुड़ता, फिर निमंत्रित व्यक्ति कैसे
खुश होंगे। यहा शंका भी मोहनलाल ने की, और समाधान भी उन्होंने किया। कहा, 'अब
दावतों का रुख बदल देना है। अब गाने के लिए तो मशहूर विद्याधरी,
राजेश्वरी-जैसी रंडियाँ बुलाई जायँ और (इशारे से समझाकर) गृहस्थों के घर की,
बहुत मिलेंगी, एक-से-एक खूबसूरत पड़ी हैं, रुपया चाहिए, अपने पास इसकी कमी
नहीं।'6 उपन्यास के ये वाक्य साफ दर्शाते हैं कि किस प्रकार
तत्कालीन समाज पतन के गर्त में चला गया था और धन के लालच में व्यक्ति का नैतिक
पतन हो चुका था। निराला ने 'अलका' उपन्यास भी नारी समस्या को लेकर लिखा है। इस
उपन्यास में निराला ने दिखाया की किस प्रकार उस समय स्त्री को भोग की वस्तु
समझकर उसे खरीदा या बेचा जाने लगा था। अलका के साथ भी उसके गाँव का
ताल्लुकेदार यही करना चाहता है पर वह भागने में सफल होती है। तब के अमीर लोग
अपनी अमीरी को बरकरार रखने के लिए किसी घर की गरीब स्त्री को उठा ले जाते थे।
यह सारी बातें तत्कालीन समाज में नारी की दयनीय दशा को दर्शाती हैं। दारिद्रय
का भार न सह सकनेवाली या कुलटा या लोभ से बिगड़ी हुई अथवा कूटनियों से बिगाड़ी
हुई गृहस्थों के घर की सुंदरी-से-सुंदरी स्त्रियाँ मिलने लगीं। वात्स्यायन के
समय से पहले भी, शायद सृष्टि के प्रारंभ से ही मिलती थीं। मुरलीधर के रस की
रास-लीला ऐश्वर्य की शुभ्र शारद ज्योत्सना में सारंगी में सप्त स्वरों,
नूपुर-निक्वणों और नेत्रवीक्षणों से मधुमय क्षण-क्षण मर्त्य को लोगों की
चिर-कामना के स्वर्ग में बदलने लगी। ...इलाके के, विशेष रूप मुरलीधर के, नजदीक
रहनेवाले प्रिय पात्र, मोहनलाल के लाडले, शागिर्द, कर्मचारी, जिलेदार जमाने का
रंग खूब पहचानते थे। इनके द्वारा भी दूसरों की दाराएँ कभी-कभी जमींदारों का
द्वार देख आती थीं। पहले शहर के गृहस्थों से, जहाँ शौकीन शाह वाजिदअली का
आदर्श है, रुपये के बदले रूप लिया जाता रहा, पर यह प्रथा गाँवों तक फैली हुई
है। प्रमाण मिलने पर देहाती खूबसूरती पर ध्यान ज्यादा गया। देहाती रूपसियों की
निर्दोषिता साहबों को पसंद आई, इसलिए धीरे-धीरे गाँवों पर धावे होने लगे।
देहात की सुंदरी विधवाएँ, भ्रष्ट की हुई अविवाहित युवतियाँ एकमात्र माता जिनकी
अभिभाविका थीं, और अपना खर्च नहीं चला सकती थीं, और इस तरह के लब्ध अर्थ से
लड़की का धोखे से ब्याह कर देना चाहती थीं, लगान की छूट, माफी आदि पाने की गरज
से, कुटनियों के बहकावे में आकर चली जातीं या भेज दी जाती थीं।7
निराला ने अलका में भारतीय ग्रामीण समाज की दुर्दशा को दर्शाया है। जब विजय जो
कि शोभा यानी अलका का पति है नाम बदलकर गाँव में किसानों की शिक्षा और संगठन
करने काम करता है तो गाँव के जमींदार दूसरे जमींदारों को इकट्ठा कर गाँव के
किसानों को डरा-धमका कर उसे जेल भेज देते है और किसान भी जमींदार के अत्याचार
के भय से उसका साथ छोड़ देते है। इतने बड़े कुत्सित सत्य को चित्रित किया है
जिसे पढ़कर पाठकों के मन में सहसा एक आक्रोश सा उमड़ आता है। गरीबी, अशिक्षा
तथा नारी समस्या निराला के हर उपन्यास में हमें नजर आती है। निरुपमा,
प्रभावती, चोटी की पकड़ और बिल्लेसुर बकरिहा उपन्यासों में निराला ने हर वर्ग
के स्त्री के साथ हो रहे अत्याचार को पाठकों के सामने लाकर रख दिया है।
प्रभावती उपन्यास में निराला ने दिखाया कि भले ही प्रभावती राज परिवार की बेटी
ही क्यों न हो पर वह अपने मन के अनुसार अपना वर नहीं चुन सकती है। वह तो केवल
राजनैतिक रिश्तों और समझौतों के लिए उसे बली चढ़ना है। तभी उसके पिता दलमऊ
नरेश राजा महेश्वर सिंह उसका विवाह मनवा के सरदार राजा बलवंत सिंह के साथ करना
चाहते थे और इसके पीछे एक ही कारण था कि राजा महेश्वर सिंह का अपनी शक्ति को
दुगना करना और दूसरे सरदारों की नजरों में ऊँचा उठना। परंतु ऐसा नहीं हुआ और
प्रभावती अपनी इच्छा से अपने पिता के शत्रु लालगढ़ के राजकुमार से विवाह कर
लेती है और जिस कारण उसे कई कष्ट झेलने पड़ते है। वस्तुतः इस उपन्यास को
निराला ने रोमेंटिक उपन्यास की संज्ञा दी है। परंतु इसमें भी पृथ्वीराज के
शासन कालीन समाज के कुछ झलक हमें मिल ही जाती है। क्योंकि निराला ने स्वयं
लिखा है कि यह कथा पृथ्वीराज के शासन काल और उनके कान्यकुब्जेश जयचंद की
शत्रुता के समय की कथा है। इस उपन्यास में हमें उस समाज के दर्शन होते है जो
इन उच्चवर्गीय परिवारों से बने है। जहाँ आपसी शत्रुता ने सबके जीवन को तहस-नहस
कर रखा है। विशेष कर स्त्री के जीवन का अस्तित्व सिर्फ इस बात पर निर्भर करता
है कि वह केवल इन राज परिवार के लोगों की हाथ की कठपुतली है और उसका केवल
धर्म, जाति तथा परिवार के प्रति ही कर्तव्य है न कि स्वयं के प्रति। प्रभावती
का बलवंत से विवाह करके महेश्वर सिंह चाहते थे कि साधारण-सा कारण भी मिले, तो
सम्मिलित शक्ति से बदला चुका लें।8 इतना ही नहीं तब के समय में
राजाओं के आपसी वैर से प्रजा और राष्ट्र का अस्तित्व भी खतरे में था। और हम यह
भली-भांति जानते है कि इसी आपसी वैमनस्य के कारण ही अंततः देश पराधीन हो गया।
चिरकाल से क्षत्रियों की युद्ध-ज्वाला भारत को दग्ध कर रही थी। कृषि, जनपद तथा
जीवन अकारण युद्ध के कारण नष्ट हो रहे थे। साधारण जनों के दृश्य बड़े
करुणोत्पादक थे।9 ...यमुना जब प्रभावती को समझाती है तब
कहती है हमारी जाति, धर्म और देश की रक्षा की जो समस्या पुरुषों के सामने है,
वही हमारे सामने भी है। आज क्षत्रिय अपने दर्प से आप चूर्ण हो रहे हैं।
बार-बार बाहरी घात होते जा रहे हैं, पर उन्हें सँभालकर उल्टा जवाब वे नहीं दे
सकते। ...हमारे यहाँ मुसलमानों के अनेक हमले हो चुके हैं। वे विजयी भी हुए
हैं। उनका हौसला बढ़ गया है। आश्चर्य नहीं, हिंदू संस्कृति पर मुसलमानों की
विजय हो। उनमें हमसे अधिक एकता है।10 निराला ने इतना ही नहीं किया
बल्कि तत्कालीन वर्णाश्रम धर्म की क्रूरता को भी 'प्रभावती' उपन्यास में बखूबी
प्रस्तुत किया है साथ-ही-साथ तत्कालीन राज शासन के अंतर्गत पराधीन समाज को भी
दर्शाया हैः- वह और ही युग था। एक ओर गाँव में गरीब किसान छप्परों के नीचे,
दूसरी ओर दुर्ग में महाराज धन-धान्य और हीरे-मोतियों से भरे प्रासादों में,
फिर भी उन्हीं के पास फैसले के लिए - न्याय के लिए जाना और उन्हें भगवान का
रूप मानना पड़ता था। ...गाँवों में वर्णाश्रम धर्म की धाक थी। राजवंश के
क्षत्रियों को छोड़कर और सभी जातियों को चाहे वृद्ध की बगल से बच्चा आ निकले,
यदि ब्राह्मणवंश का हो, चारपाई छोड़कर उठना पड़ता था, गाँवों में दिन-भर यह
कमाल जारी रहता था।11 इसी भेदभाव को निराला के 'निरुपमा' (1936 ई.)
उपन्यास में देखा जा सकता है जहाँ आधुनिकता तो पहुँच गई मगर भाषा, जाति तथा
वर्ण के आधार पर भेदभाव होता है। वस्तुतः निरुपमा की कथा इसी वर्ण-व्यवस्था
तथा भाषावाद-जातिवाद पर चोट करती हुई कथा है। निरुपमा जमींदार घराने की है जो
अपने पिता के देहांत के बाद लखनऊ में रामपुर गाँव की वह जमींदार बनती है।
कृष्णकुमार भी उसी गाँव का रहने वाला है। कृष्णकुमार लंदन से डी.लिट्. करके
आता है पर कहीं काम न मिलने पर जूते पालिश का काम अख्तियार करता है। जिस कारण
उसे ब्राह्मण होते हुए भी चमार समझा जाता है और उससे लोग घृणा करते है। परंतु
कुमार को कर्म करने की चाह थी और घर के चलाने की भी, इसलिए वह इस काम में कोई
बुराई नहीं समझता है। निरुपमा कुमार से प्यार करती है पर उसके मामा उसका विवाह
यामिनी बाबू से करना चाहते है और धोके से निरुपमा की सारी संपत्ति हर लेना
चाहते है। परंतु निरुपमा की सहेली कमल द्वारा उसके मामा की सारी सच्चाई खुल
जाने पर निरुपमा अपने मामा का साथ छोड़ देती है और अंत में निरुपमा का विवाह
कृष्णकुमार से होता है तथा यामिनी की सच्चाई भी सामने आती है कि वह भी
चारित्रिक दृष्टि से अच्छा व्यक्ति नहीं है। निराला ने इसमें भाषावाद तथा
जातिवाद तथा सिफारिश खोरी का चित्रण बहुत स्पष्ट करके दिखाया हैः- लंदन की
डी.लिट्. उपाधि लेकर लौटा हुआ कुमार, स्थान रहने पर भी योग्यता की अस्वीकृति
से उदास, कलकत्ता विश्वविद्यालय से लखनऊ आया हुआ है - यहाँ कोई स्थायी-अस्थायी
काम मिल जाय, पर चूँकि किसी चान्सलर, वाइस चान्सलर, प्रिन्सिपल, प्रोफेसर या
कलक्टर से उसकी रिश्ते की गिरह नहीं लगी, इसलिए किसी को उसकी विद्वत्ता का
अस्तित्व भी नहीं मालूम दिया। जाँच करनेवाले ज्यादातर बंगाली सज्जन एक राय रहे
कि एम.ए. में किसी तरह घिसट गया है - थीसिस चोरी की होगी। ...कुमार फिर जगह की
तलाश में क्रिश्चियन-कालेज गया, पर वहाँ भी वर्णाश्रम-धर्मवाला सवाल था। 12 निराला ने दिखाया कि किस प्रकार समाज में भेदभाव फैला हुआ था।
और यह सब निराला ने समाज में सत्य में घटते हुए देखा है। निराला ने योगेश बाबू
निरुपमा के मामा के चरित्र का चित्रांकन में यह बात स्पष्ट दिखाया कि किस
प्रकार बड़े लोग धन-संपत्ति के लालच में स्वयं अपने ही लोगों से धोखा करते रहे
है। और यह एक सामाजिक फैक्ट है और सच भी कि सदियों से एक ही परिवार के लोग
संपत्ति के लिए एक-दूसरे को धोखे से वनवास देते थे या एक-दुसरे के विरुद्ध
युद्ध छेड़ देते थे। योगेश बाबू भी निरुपमा को धोखे में रखकर धीरे-धीरे सब
हथिया रहे थेः- योगेश बाबू विचारों में यद्यपि सनातनधर्मी थे, फिर भी निरु के
विवाह-विषय में ब्राह्म-समाजी बन गए। कहा, आजकल बीस साल से पहले का ब्याह,
ब्याह में ही शुमार करने योग्य नहीं। भीतरी उद्देश्य उनका और था, जिसका पता
उनके अलावा उनकी पत्नी को भी नहीं लगा। बात यह थी कि रामलोचन की बीमारी में
उन्होंने पचास हजार का खर्च तैयार किया था। उनकी मृत्यु के बाद, उनकी जमींदारी
तथा मकान-किराये की आमदनी उसी खर्चवाले कर्ज में ब्याज के साथ काटते जाते थे,
वह भी इस तरह कि बीस रुपये महीने के मुख्तार आम की जगह सुरेश का मासिक वेतन दो
सौ अलग करके, और घर के खर्च और मुआमलों-मुकद्दमों जो तीन के तेरह करते थे, वह
अलग। इस रूप से ब्याज निकालकर तीन साल में सिर्फ दस हजार रुपये असल में कटे
थे। बाकी जिन्स-असबाब निरू के घर से उनके घर पहुँचकर कम अंशों में निरू के रह
गए थे। गहने अपनी अस्लियत खो बैठे थे, उनकी जगह उन्हीं की तरह हल्के दूसरे
बनकर आ गए थे। निरू को यह कुछ मालूम न था। इस सबके संबंध में उसे ज्ञान भी
बहुत थोड़ा था। योगेश बाबू के पास इन सबका सच्चा चिट्ठा तैयार था। 13 निराला ने निरुपमा उपन्यास में कृष्णकुमार के जूता पालिश के काम
करने के जरिए यह भी बताना चाहा है कि तत्कालीन भारत में आर्थिक परिस्थिति भी
कुछ ठीक नहीं थी जिस कारण दिनोंदिन लोग और गरीब होते जा रहे थे और यह सब
पूँजीपतियों के कारण था। जो क्रांतिकारी भावना उनके 'बादल राग' कविता में
झलकती है। वही इस उपन्यास में और फिर बाद में बिल्लेसुर उपन्यास में भी एक अलग
लेकिन सकारात्मक कदम के जरिए दिखती है। ऐसा इसलिए था क्योंकि निराला जी स्वयं
अपने जीवन में आर्थिक कठिनाइयों से गुजर रहे थे और जिनका उन्हें भली-भांति
एहसास था। निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व को पूँजीवाद के शिकंजे और
किसानों-मजदूरों के शोषण ने बहुत अधिक प्रभावित किया। इसमें किसी हद तक उनकी
स्वयं की आर्थिक दशा का भी प्रभाव है क्योंकि देश की आर्थिक परिस्थितियाँ लेखक
और प्रकाशक के संबंध पर भी अपना प्रभाव डालती हैं। जब एक व्यक्ति का अधिकांश
समय परिवार के भरण-पोषण और दायित्वों को निभाने में ही बीत जाएगा तो वह समाज
और सामाजिक दशा के बारे में क्या सोच पाएगा? क्या वह इस सबसे उबर पाएगा?
पराधीनता का वह समय जहाँ समस्त राष्ट्र के लिए एक चुनौती था वहीं आर्थिक
दृष्टि से भी लोगों के जीवन स्तर के प्रति चिंता का प्रश्न बना हुआ था। निराला
भी इन परिस्थितियों से अछूते कैसे रह सकते थे? 14 निराला के 'कुल्ली भाट'
उपन्यास पढ़ें तो पाठक को वह समस्त स्थिति स्पष्ट होती नजर आ जाएगी, क्योंकि
निराला जी ने अपने जीवन के उन पलों को भी व्यक्त किया है। निरुपमा, कुल्लीभाट,
बिल्लेसुर बकरिहा इन तीनों उपन्यासों में आर्थिक समस्याओं को भली-भांति चित्रण
हुआ है।
निराला इन चारों उपन्यास में निराला ने समाज के उन सच्चाइयों के दर्शन कराए है
जो कही-न-कही आज भी हमारे समाज में मौजूद है। परंतु निराला ने इन उपन्यासों
में इन सामाजिक बुराइयों का केवल चित्रण ही नहीं किया बल्कि इन उपन्यासों में
उनकी सकारात्मक दृष्टि से इन बुराइयों को खत्म करने का भी उपाय बताया है। तभी
तो राजकुमार (अप्सरा), अलका, प्रभाकर तथा स्नेहशंकर (अलका), युमना (प्रभावती),
कृष्णकुमार तथा कमल (निरुपमा) जैसे प्रात्रों से निराला वह करवा जाते है जिससे
इन पात्रों के जीवन में आए कोई भी कठिनाई को ज्यादा देर तक टिक नहीं पाती है।
निराला के ये सभी उपन्यास स्त्री पात्र प्रधान उपन्यास हैं। सभी उपन्यासों की
कथा में निराला ने स्त्री पात्रों को हर प्रकार की परिस्थिति से लड़ते हुए और
जीतते हुए दिखाया है। क्योंकि निराला का नारी के प्रति दृष्टिकोण ही ऐसा है कि
वह न कभी इनमें दुर्बलता देख सकते है न ही कोई इन्हें अबला बनाकर रख दे यह सह
सकते है। यह स्वयं कहते हैं कि (समाज और स्त्रियाँ) इस समय संसार में
वैज्ञानिक ज्ञानलोक का जितना ही विस्तार बढ़ता जा रहा है, सभ्यता तथा
स्त्रियों से संबंध रखनेवाले विचार क्रमशः उतने ही बदलते जा रहे हैं। समाज,
जाति तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही स्त्रियों की समान स्वतंत्रता की
आवाज भी उतनी ही ऊँची सुनाई दे रही है। वकालत, बैरिस्टरी, डॉक्टरी, प्रोफेसरी,
नेतृत्व, विज्ञान, कला-कौशल, वाणिज्य, बड़ी-बड़ी नौकरियाँ तथा और भी अनेक
प्रकार के जो जीवनोपाय तथा प्रतिष्ठा के कार्य पुरुषों के अधिकार में आज तक
थे, वे अब स्त्रियों के अधिकार में भी आ गया हैं। जीवन-संग्राम में
पुरुष-पुरुष का ही द्वंद्व नहीं, बल्कि स्त्री-पुरुष की भी स्पर्धा बढ़ गई है,
और स्त्रियाँ हर विषय में पुरुषों का बड़ी खूबसूरती से मुकाबला करती हुई अपने
अधिकार के मैदान में आगे बढ़ती चली जा रही हैं।15 निराला के ये
विचार यहाँ स्पष्ट कर देते है कि स्त्रियों के विषय में आधुनिक काल में जो
समाज तथा व्यक्ति के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे वे सभी स्त्री के विषय
में भी सकारात्मक दृष्टि अपनाने लगे थे और निराला भी अपनी दृष्टि में स्त्री
को शक्ति-स्वरूपा ही मानते थे।तभी तो निराला यमुना को सीता और दमयंती के
मुकाबले पूरी क्षत्राणी कहकर संबोधित करते हैं। निराला बल्कि उन लोगों पर
व्यंग्य-बाण कसते है जो नारी को अबला कहते है। संस्कृत और हिंदी-साहित्य में
स्त्रियों को अबला कहने की प्रथा बहुत दिनों से चली आ रही है। किंतु भारत के
आदिम इतिहास से लेकर अब तक लाखों स्त्रियों ने अपने इस नाम की निरर्थकता सिद्ध
कर दी है। आजकल के उन्नति के युग में तो उन्हें अबला कहना एक वितंडा मात्र है।
यूरोप की स्त्रियों की सार्वजनीन उन्नति और प्रबलता को देखते हुए, घोंघा
पंडितों के अतिरिक्त, कौन ऐसा होगा, जो उन्हें अबला कह सके?16
निराला दरअसल समाज में किसी भी प्रकार का अन्याय या अत्याचार को देख नहीं सकते
बल्कि वे इसका प्रबल विरोध करते है तभी उनके उपन्यास के पात्र कभी अपने जीवन
में या समाज में कोई भी बुराई का मुकाबला करते हुए नजर आते है। निराला के इन
चार उपन्यासों के अलावा उनके बाकी महत्वपूर्ण उपन्यास कुल्लीभाट (1939),
बिल्लेसुर बकरिहा (1942),चोटी की पकड़ (1946), काले कारनामे (1950) ये सभी
उपन्यास निराला ने तब के समय में लिखे जब देश में विदेशी शासन के विरुद्ध
जोरदार आंदोलन शुरू हुआ। तत्कालीन परिस्थिति के समय में सामाजिक व्यवस्था कैसी
थी और तब के समय में समाज के निचले तबको के लोग तथा गरीब लोगों और स्त्रियों
की क्या दशा थी, ये सब उनके उपन्यास में देखे जा सकते हैं। कुल्लीभाट उपन्यास
में निराला ने समाज में चल रहे तत्कालीन हिंदू-मुसलमान के बीच की जातीयता के
तथ्य को बखूबी दर्शाया है। निराला का जब जनेऊ होता है तब उन्हें उनके पिताजी
पं. भगवानदीन जी की विधवा पतुरिया के घर जाने से रोकते है क्योंकि वह एक
मुसलमान स्त्री है। पर निराला को यह बात अच्छी नहीं लगती है क्योंकि वह जानते
थे कि पतुरिया उन्हें माँ की तरह प्यार करती थी। एक दीन वे पतुरिया के बेटे के
हाथ से पानी पिते है तो गाँव वाले उनकी शिकायत लेते हुए उनके पिताजी से कहते
है किः- आपका लड़का सबके सामने पतुरिया के छोटे लड़के का भरा पानी उन्हीं के
लोटे से पी रहा था। अभी नादान है, इसलिए इस दफा माफ किए देते हैं, फिर अगर ऐसी
हरकत करते देखा गया, तो हमें लाचार होकर आपसे व्यवहार तोड़ना होगा। 17 कैसी अजीब विडंबना है समाज की कि वह दूसरों के मामले में अपनी
राय देना कितना गर्व का काम समझता है जबकि उसे इसका कोई अधिकार नहीं और चूँकि
अगर कोई आपसे मैत्री रखना चाहता हो, आपको स्नेह और प्रेम की दृष्टि से देखता
हो तो उसे हमें भी आगे बढ़कर अपनाना चाहिए न कि उसे जाति-पाती के झमेले में
धकेलना चाहिए। निराला जानते थे कि जब पं. भगवानदीन जी जब तक जीवित थे तब तक
गाँव के लोग उनके घर आया-जाया करते थे और उनके यहाँ भोजन भी करते थे। पर जब
पंडित जी की मृत्यु हुई तब लोगों ने उन लोगों ने इन सब के साथ रिश्ता तोड़
लिया। निराला ने कुल्लीभाट तब लिखा जब देश में स्वदेश आंदोलन का जोर था और
निराला जानते थे कि देश का उद्धार तभी संभव है जब भारतीय समाज के सभी वर्गों
का समान रूप से विकास हो और यह तभी संभव है जब वर्ण-व्यवस्था खत्म हो जाए।
निराला जब कुल्ली की पाठशाला में जाते है तो दरिद्र दलितों की अवस्था को देखकर
उन्हें ग्लानि होती है कि उन्होंने अब तक क्या किया है।
निराला के बिल्लेसुर बकरिहा उपन्यास, जो कि 1941 ई. में रूपाभ से प्रकाशित
हुआ, की अगर बात करें तो निरालाने दिखाने की कोशिश की है कि जब रूढ़ियाँ
मनुष्य के जीवन में ही दखल कर उसे पूर्ण रूप से जीने नहीं देतीं तो उसे तोड़
देना ही उचित है तभी व्यक्ति जी पाएगा। बिल्लेसुर ब्राह्मण होते हुए भी जीविका
के लिए बकरी पालता है और उसके भाई भी अपना जीवन और पेट पालने के लिए कोई भी
रास्ता इख्तियार कर लेते है। बिल्लेसुर के ब्राह्मण होते हुए भी बकरी पालने को
लेकर लोग उसका विरोध करते है पर जब लोगों को पता चलता है कि उसके पास पैसा है
तो जो तथाकथित ब्राह्मण लोग उसे अपने में शामिल नहीं करना चाहते थे वे लोग
उसका पैसा हड़पने की भरपूर कोशिश करते हैं। पर बिल्लेसुर किसी की जाल में नहीं
फँसता है। अंत में वह अपने भाई मन्नी की साँस को अपने साथ मिलाकर उन्हीं के
जात की लड़की से विवाह कर घर ले आता है और जीवन भर अपने धन का राज नहीं खोलता
है। निराला यहाँ कुछ ऐसे सामाजिक तत्वों को हमारे सामने लाना चाहते है जो हम
अक्सर जानते हुए भी उससे अनजान रह जाते है। निराला ने दिखाया कि जब तक किसी के
पास धन नहीं तब तक उसे लोग कभी भी सम्मान नहीं देते हैं और जब उसके पास धन आता
है तो उसके धन को धीरे-धीरे हड़पने की कोशिश करते हैं। बिल्लेसुर गाँव आए।
अण्टी में रुपये थे, होंठों में मुस्कान। गाँव के जमींदार, महाजन, पड़ोसी सबकी
निगाह पर चढ़ गए - सबके अंदाज लड़ने लगे - 'कितना रुपया ले आया है'। लोगों के
मन की मंदाकिनी में अव्यक्त ध्वनि थी - बिल्लेसुर रुपयों से हाथ धोएँ! रात को
लाठी के सहारे कच्चे मकान की छत पर चढ़कर, आँगन में उतरकर, रक्खा सामान और
कपड़े-लत्ते उठा ले जानेवाले चोर ताक में रहने लगे कि मौका मिले तो हाथ मारे।
एक दिन मन्सूबा गाँठकर त्रिलोचन मिले और अपनी ज्ञानवाली आँख खोलकर बड़े अपनाव
से बिल्लेसुर से बातचीत करने लगे...18 लोगों की धन लोलुपता ही
लोगों को गलत काम करने से भी नहीं रोकती फिर चाहे वह किसी की चापलूसी करके भी
उससे पैसे हड़पना। निराला का ये उपन्यास यथार्थवादी उपन्यास है। यहाँ निराला
ने ये दिखाने की कोशिश की है कि कर्म करके ही व्यक्ति जी सकता है, स्वयं वह
खुश भी रह सकता है। इसका संकेत वह निरुपमा उपन्यास में कृष्णकुमार के जरिए
पहले ही दे चुके होते है। फिर भी लोग धन को बिना परिश्रम पा लेने की होड़ में
है, जबकि बिल्लेसुर में उन्होंने दिखाया कि बिल्लेसुर किस प्रकार कर्म और
परिश्रम दोनों को अपनाकर अपना जीवन सुखी हो कर बिता रहा है। क्योंकि निराला
स्वयं कर्म को महत्व देते थे और निराला के साहित्य में उनके व्यक्तित्व की झलक
मिलती है। कुसुम वार्ष्णेय के अनुसार निराला की सम्पूर्ण कृतियों पर उनका यह
व्यक्तित्व छाया हुआ है। उनका दयनीय से दयनीय पात्र बेबस, मजबूर और निर्बल
नहीं है। उनमें विद्रोह की अमित शक्ति है, अन्याय से प्रतिकार की उत्कट भावना
है और जीवन की नई प्रेरणा है।19 निराला का जीवन हम उनके
कुल्लीभाट उपन्यास में देख सकते है। उन्होंने अपने जीवन में अन्याय को कभी जगह
नहीं दी न ही किसी भी अनुचित बात को ही दिया। जहाँ तक बिल्लेसुर बकरिहा
उपन्यास की बात है इस उपन्यास में निराला ने ग्रामीण व्यक्तित्व को इतनी
खूबसूरती के साथ उभारा कि हमें गाँव के एक साधारण गरीब ब्राह्मण में एक
मेहनतकश इनसान नजर आता है जो कि जीविका के लिए अपने ब्राह्मणत्व का इस्तेमाल न
कर स्वयं कर्म को महत्व देता है। साथ ही वह जो भी धन कमाता है उसका वह अपने ही
जीवन के लिए सही तरह से इस्तेमाल करता है। उसके भाइयों के चरित्र में भी जो
कुछ निराला जी दिखाना चाहते थे वह भी बहुत बखूबी दिखाया है। वे सभी अपने जीने
का जो भी ढंग अपनाते है एक साधारण व्यक्ति की ही तरह करते है। पर इसमें खास
बात यह है कि निराला ने इसमें अपनी व्यंग्य भाषा का इस्तेमाल कर इसे इतना रोचक
बना दिया कि पाठक इसे पढ़कर यथार्थ को जानने के साथ-साथ थोड़ा गुदगुदा भी लेता
है। रामविलास शर्मा के अनुसार यह लघु उपन्यास नहीं, न कहानी है, एक तरह की
लोककथा है जो साहित्यिक कहानी से अधिक समय लेती है, लघु उपन्यास से कम। न केवल
इसका ढाँचा लोककथा का है, वरन् इसका वातावरण, कथा कहने की शैली, कथा परिणति-सब
कुछ लोककथाओं जैसा है। बिल्लेसुर की कथा में काफी दर्द है, किंतु कहीं कटुता
नहीं है, कथा में जहाँ व्यंग्य है, दबा हुआ है। निराला के प्रसन्न हास्य की
आभा में सारी कथा रंगी हुई है।20 वस्तुतः निरला जी ने साधारण
ग्रामीण पात्रों का सटीक चित्रण किया है। निराला जी का सातवाँ उपन्यास चोटी की
पकड़ 1946 ई. में किताब महल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास स्वदेशी
आंदोलन की कथा है। इस उपन्यास में निराला जी ने स्वदेशी आंदोलन के समय में जो
कुछ भी बंगाल में हुआ तथा जो कुछ भी उस समय के आम लोगों के जीवन के यथार्थ को
दर्शाया है। जब देश में स्वदेशी आंदोलन बंगाल से शुरू हुआ था जिसमें लोगों ने
अंग्रेसी शासन के विरुद्ध स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल तथा विदेशी वस्तुओं का
बहिष्कार प्रारंभ कर दिया था। जगह-जगह यही चल रहा था और इस आंदोलन में कुछ
अंग्रेज शासकों से खफा हुए जमींदार आंदोलनकर्ताओं का साथ गुप्त रूप से दे रहे
थे। ताकि यह आंदोलन सब जगह सफलता के साथ हो सके। ऐसे समय में कुछ सरकारी अफ्सर
अंग्रेजों को इन लोगों के खिलाफ भड़काने तथा अपना मंसूबा परा करने के इरादे से
षड्यंत्र रच रहे है। निराला ने दिखाया कि तब ऐसे समय कुछ मुसलमान पुलिस
अधिकारी क्रांतिकारियों के खिलाफ तथा उन्हें गुप्त रूप से मदद करने वाले
जमींदारों के खिलाफ षड्यंत्र रच रहे थे। यहाँ निराला जी ने दिखाया कि तत्कालीन
समय में सांप्रदायिकता किस प्रकार फैल रही थी जो बाद में भारत के विभाजन के
समय अपनी नरविनाश लीला दिखा गई थी। आजकल जमींदारों और कुछ हिंदुओं ने सरकार के
खिलाफ गुटबंदी की है। जिस जमींदार से आपके तअल्लुकात हैं, इस पर सरकार को
शुबहा है। इसका भेद मालूम होना चाहिए। इससे सरकार की मदद भी होगी और कौम की
खिदमत भी। सरकार की मदद इस तरह कि आपके जरिये दुश्मन का राज सरकार को मिलेगा
और कौम की खिदमत इस तरह की सुदेशी का बवेला जो हिंदुओं ने मचा रक्खा है, यह
जड़ से उखड़ जायगा। मुसलमान रैयत को फायदे के बदले नुकसान है अगर हिंदुओं को
कामयाबी हुई। सरकार ने बंगाल के दो हिस्से इस उसूल से किए है कि मुसलमान रैयत
को तकलीफ है, मौरूसी बंदोबस्तवाली 99 हरसदी जमीनों पर हिंदुओं का दख्ल है, यह
आगे चलकर न रहेगा। इससे मुसलमानों की रोटियों का सवाल हल होता है। 21 निराला ने दिखाना चाहा है कि किस प्रकार अंग्रेजों ने भारत में
अपनी फूट नीति का इस्तेमाल करना शुरू किया था। निराला ने तत्कालीन
राजा-जमींदारों का वेश्याओं के साथ के ताल्लुकातों तथा उनके साथ विलास-भोग की
भी बात इसमें कही है। साथ ही वे यह भी दर्शाते है कि किस प्रकार तत्कालीन समाज
में क्षेत्रीयवाद तथा जाति-व्यवस्था भी अपनी चरम सीमा पर थी जिसे वे निरुपमा
उपन्यास में वे दर्शा चुके है। निराला ने चोटी की पकड़ उपन्यास में भी स्त्री
की समस्या को चित्रित किया है। इस उपन्यास में एक युवती की करुण कथा है जिसका
भतीजा जागीरदार की लड़की से ब्याह करता है पर वह उसकी बुआ होने के नाते भी
किसी भी प्रकार से सम्मान नहीं पाती है, यहाँ तक कि उसके साथ महल की दासी भी
बुरा व्यवहार करती है। वह विधवा भी है और उसके साथ एक बलात्करी ने अत्याचार भी
किया है। बुआ विधवा हैं, मौसी भी विधवा। बुआ की उम्र पच्चीस होगी। लंबी
सुतारवाली बँधी पुष्ट देह। सुघर गला, भरा उर। कुछ लंबे मांसल चेहरे पर
छोटी-छोटी आँखें, पैनी निगाह। छोटी नाक के बीचोबीच कटा दाग। एक गाल पर कई दाँत
बैठे हुए। चढ़ती जवानी में किसी बलात्कारी ने बात न मानने पर यह सूरत बनाई। 22 निराला की इस प्रकार की भाषा यह साफ जाहिर करती है कि उनके मन
में इस प्रकार के अत्याचार के प्रति क्या था। निराला अपने निबंध 'समाज और
स्त्रियाँ' में नारी के प्रति अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं। निराला का यह
उपन्यास एक प्रकार से अंग्रेज शासन के अधीन उस भारत तथा उसकी सामाजिक-राजनैतिक
परिस्थिति की सच्चाई को पेश करती हुई कृति है। निराला का एक और यथार्थवादी
उपन्यास 'काले कारनामे' है जो 20 अक्तूबर 1950 में कल्याण साहित्य मंदिर,
प्रयाग से प्रकाशित हुआ। काले कारनामे उपन्यास जमींदारों के आपसी रंजिश, झूठे
घमंड और एक-दूसरे के खिलाफ दाँव-पेंच लड़ाते रहने की कथा है। कथा एक सीधे-साधे
युवक मनोहर की है जो प्रतिदिन अपने फूफा के घर जो कि एक जमींदार है वहाँ पर
कुश्ती सीखने और जोर आजमाने अखाड़े में जाया करता था, पर उसके उस्ताद रामसिंह
पहलवान और दूसरे जमींदार के बीच इस बात से लड़ाई होती है कि मनोहर जमींदार
घराने का लड़का है जिसे रामसिंह पहलवानी सिखाता है और इस कारण रामसिंह गाँव के
जमींदारों से रैयत की तरह पेश नहीं आता। मनोहर के उस्ताद रामसिंह के खिलाफ
जमींदार झूठी चोरी की रिपोर्ट लिखाते है और रामसिंह बिना किसी कसूर के दो सौ
रुपये देकर अपनी जान बचाते हैं, क्योंकि गाँव के एक मान्य माधव मिश्र के घर
चोरी की झूठी साजिश में वह बेकार फँसते हैं जिसपर सभी उनसे पैसा एठने के चक्कर
में रहते है। गाँव के जमींदार के रामसिंह के सुखी जीवन और इज्जत से जलन होती
है जिसका बदला वे लोग इस प्रकार लेते हैं। इधर मनोहर गाँव से भागकर काशी चला
जाता है और वहाँ रहकर वह शूद्रों को संस्कृत पढ़ाकर उन्हें शिक्षित एवं संगठित
करता है। वह गरीब किसानों को भी शिक्षित करता है और अपने अधिकारो के लिए लड़ने
को कहता है। गाँव के कुछ जमींदार मनोहर के पढ़े-लिखे होने तथा पहलवान होने और
उसके उन्नत विचारों के कारण उससे जलते थे जिस कारण उन लोगों ने उसे इस प्रकार
बदनाम किया। साथ ही, मनोहर भी गाँव वालों की कपटता का परिचय पा लेता है। गाँव
के कुछ जमींदार दूसरों के सुखी जीवन और नेकमाशी से इसलिए जलते थे क्योंकि इससे
वे उन लोगों से जबरन पैसा नहीं कमा सकते थे। इस कारण जब कभी भी उन्हें सुयोग
मिलता तो वे किसी को भी फँसाकर, झूठे मुक्दमे चलाकर धन कमाने की फिरात में
रहते थे। दूसरों का इससे घर बर्बाद हो, जिंदगी खराब हो, इससे उन्हें कोई
लेना-देना नहीं था। जमींदार और उनके गुलाम सरकारी मुलाजिमों को खुश करने तथा
उनके साथ मिलकर गाँव के गरीब किसानों को लूटते रहने का कोई-न-कोई बहाना ढूँढ़ते
ही रहते थे। निराला ने दिखाया कि किस प्रकार ये धनी वर्ग इन गरीब देहाती लोगों
को लूटते रहते थेः- धनी वर्ग की आमदनी का उपाय देहात में यही है। कौन परदेशी
है, कितना कमा लाया, कौन किसान आलू या गन्ने की खेती से दो-चार सौ रुपये जोड़
चुका, कौन दुकानदार अपने व्यवसाय में फायदा उठा रहा है, ये लोग पूरी जानकारी
रखते हैं। उनके घरों के जवान बेटी, बेटों, पतोहू और दामादों को फँसाकर रिश्वत
ले-लिवाकर, या मुकदमे लड़वाकर या गवाहियाँ दिलवाकर अपनी जेब भरते हैं। 23 यहाँ तक कि गाँव के गरीब किसान या अन्य लोग इनके खिलाफ कुछ कर
भी नहीं सकते थे, क्योंकि अगर इनके खिलाफ कोई खड़ा हुआ तो जमींदारों का
सारा-का-सारा कुनबा इन्हें जेल भिजवा सकता है, जिसका एक स्वरूप निराला अलका
उपन्यास में दिखाते है जब विजय देहात में गाँववालों को शिक्षित और संगठित करने
लगता है तब गाँव के जमींदार विजय के खिलाफ दूसरे जमींदारों को खड़ा कर पूरे
गाँव को विजय के खिलाफ कर देता है और इसके लिए वह बेकसूर गरीब किसानों को जेल
भेज देता है। निरालाजी ने इस उपन्यास में यह दिखाना चाहा है कि किस प्रकार
जमींदार वर्ग को ही उस समय सरकार मानती थी क्योंकि इन्हीं जमीदारों से सरकार
को आमदनी होती थी। जमींदार राजा है। उसका हिसाब पहले। सरकार के यहाँ उसका
कहना। यह नेकमाश को बदमाश करार दे सकता है। सरकार उसकी बात मानेगी। बदमाश की
निगरानी वह अपने जिम्मे ले सकता है। सरकार को उस पर विश्वास है। सरकार से
समझौता उसी का होता है, इसलिए मुख्यतः तुम्हारे सिर दो हैं, सरकार और जमींदार।
इसको कभी न भूलो। यह लकड़ी हाथ से गई कि दुनिया में कहीं भी थाह न मिलेगी। 24 ये बातें मनोहर को उसके फूफा के छोटे भाई अपनी जमींदारी का घमंड
करते हुए कहते है, जिससे कि मनोहर खुद को जमींदार का आदमी समझकर उनके साथ
झमेलो में पड़े। पर मनोहर को इन बातों से भी कोई लेना-देना नहीं था। वह बस
गाँव के इन लोगों के बिन-बात के झगड़े-फसाद से दूर रहना चाहता था। इस प्रकार
हम देखते है कि निरालाजी गाँव के भीतर की उस कड़वी सच्चाई को पेश करते हैं
जिसमें गाँव के सीधे-साधे लोग इन धन-लोलुप लोगों के फेर में पड़कर अपने सत्य
की राह और अच्छाई को छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। और जो पड़ना नहीं चाहते है
उन्हें वे लोग रहने नहीं देते तभी मनोहर को गाँव छोड़कर काशी चला जाना पड़ा।
वह अपने पिता के पास बंबई इसलिए नहीं गया क्योंकि वहाँ भी अच्छे लोगों की कद्र
नहीं थी। पर मनोहर काशी आकर काशी रहने वाले शूद्रों को संस्कृत की शिक्षा देता
है क्योंकि वह समझ चुका था कि धनिक लोग भी धन के लिए और अपने झूटे घमंड के लिए
कोई रास्ता अख्तियार कर सकते है। शूद्रत्व की जो छवि मनोहर ने गाँव के
जमींदारों में देखी थी, इससे तो कहीं अधिक भले स्वयं शूद्र ही उसे लगते हैं।
मनोहर की अच्छाई से जहाँ गाँव के जमींदार उसकी शिकायत उसके पिता से करते है
वहीं गाँव के किसान उसे अपना भैया कहते हैं जो उनकी बात सुनता था और जिसने
अपने पिता की मूँछें रख लीं।
इस प्रकार निराला ने अपने हर उपन्यास में गाँव हो या शहर हो हर जगह की सामाजिक
समस्याओं को चित्रित किया है। इनके प्रत्येक उपन्यास में जो भाषा है, जो कथ्य
है, जो बात है वह इस ओर इशारा करती है कि इन्हें पूँजीपति वर्ग से और
धनकुबेरों से कितनी घृणा थी क्योंकि यह लोग जब-तब अपने फायदे के लिए गरीबों को
इस्तेमाल करते, उनके साथ अन्याय-पर-अन्याय करते रहते है। और गरीब, शोषित किसान
तथा शहर में रहने वाले निचले तबको के लोग इनके अत्याचार के कारण बर्बाद होते
रहते हैं। निराला के हर उपन्यास में इन दुखी जनों के प्रति सहानुभूति झलकती
है। निराला जी का काले कारनामे उपन्यास रचने के पीछे यही मुख्य उद्देश्य था
जिसमें वह सफल भी होते है। निराला वस्तुतः स्वयं अपने जीवन में समाज का यह सब
काला सच देख चुके थे और वह यह अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, प्रांतीयता,
जातीय अहंकार को कभी सहन नहीं कर सकते थे। वे जानते थे कि इन सबका अंत होने पर
ही भारत गुलामी से आजाद हो पाएगा और समाज में नई क्रांति आएगी जिससे समाज का
उत्थान होगा। वह यह मानते थे कि समाज में वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, अंग्रेज
हाकिमों की गुलामी आदि जब तक जड़ जमाए बैठेगी तब तक समाज का विकास नहीं हो
सकता है। इसलिए निराला के प्रत्येक उपन्यास में हम इसका विरोध करते देखते हैं।
संदर्भ ग्रंथ
1
.
कथा शिल्पी निराला - बलदेव प्रसाद मेहरोत्रा, लोकभारती प्रकाशन,1984,
पृ.सं.-39
2
.
निराला रचनावली - भाग-4, संपादक- नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, कुल्ली भाट की भूमिका, पृ.सं.-22
3
.
हिंदी उपन्यास की प्रवृत्तियाँ - डॉ शशिभूषण सिंहल, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा
1998, पृ.सं.-14
4
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निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, अप्सरा उपन्यास, पृ.सं.-25
5
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, अप्सरा उपन्यास, पृ.सं.-25-26
6
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक- नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, अलका उपन्यास, पृ.सं- 143
7
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, अलका उपन्यास, पृ.सं.-143-144
8
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, प्रभावती उपन्यास, पृ.सं.-258
9
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, प्रभावती उपन्यास, पृ.सं.-257
10
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, प्रभावती उपन्यास, पृ.सं.-256
11
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, प्रभावती उपन्यास, पृ.सं.-256-257
12
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, निरुपमा उपन्यास, पृ.सं.- 341
13
.
निराला रचनावली - भाग-3, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, निरुपमा उपन्यास, पृ.सं.- 357
14
.
निराला - एक अध्ययन : अश्विनी पाराशर - भारतीय ग्रंथ निकेतन, नई दिल्ली 1992,
पृ.सं.-35
15
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निराला रचनावली - भाग-6, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, टिप्पणियाँ - समाज और स्त्रियाँ - पृ.सं.-255
16
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निराला रचनावली - भाग-6, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, टिप्पणियाँ - हिंदू अबला - पृ.सं.-274
17
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, कुल्ली भाट उपन्यास, पृ.सं.- 35
18
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, बिल्लेसुर बकरिहा उपन्यास, पृ.सं.-94
19
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निराला का कथा साहित्य - डॉ. कुसुम वार्ष्णेय, ममता प्रकाशन, इलाहाबाद, 1971
पृ.सं.- 8
20
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निराला की साहित्य साधना - भाग-2, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
1997, पृ.सं. 479
21
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006,चोटी की पकड़ उपन्यास, पृ.सं.- 134
22
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006,चोटी की पकड़ उपन्यास, पृ.सं.-121
23
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, काले कारनामे उपन्यास, पृ.सं.- 228
24
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निराला रचनावली - भाग-4, संपादक - नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2006, काले कारनामे उपन्यास, पृ.सं.-220