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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम रावलपिंडी और इस्लामाबाद का फर्क पीछे     आगे

कभी आपने टाइम्स ऑफ इंडिया या हिंदुस्तान टाइम्स के मुख पृष्ठ पर किसी ऐसी तस्वीर की कल्पना की है जिसमें भारतीय सेनाध्यक्ष प्रधानमंत्री के साथ तन कर बैठा हो और सामने की कुर्सियों में से एक पर दूसरे मंत्रियों और अफसरों के साथ दुबका हुआ उसका रक्षा मंत्री दिख रहा हो? ऐसी तस्वीरें आप पाकिस्तानी अख़बारों डान या द नेशन में हर दूसरे दिन देख सकते हैं। यह पाकिस्तान में ही संभव है कि विदेशी राजनेता पाकिस्तानी दौरों पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मुलाकात करने के अलावा सेनाध्यक्ष से भी मिलने की ख्वाहिश रखते हैं। मंत्रियों और संसदीय समितियों को ब्रीफिंग के लिए सेना मुख्यालय या जी.एच.क्यू. जाना पड़ता है।

यह एक सामान्य जानकारी का विषय है कि रक्षा और विदेश नीति के मामलों में, खासतौर से अगर उनका ताल्लुक अमेरिका, भारत या अफगानिस्तान से है तो उसमें इस्लामाबाद की नहीं रावलपिंडी की चलती है। रावलपिंडी में जी.एच.क्यू. स्थित है। ऐसा तो कई बार हुआ है कि नागरिक नेतृत्व ने इन से संबंधित कोई निर्णय बाकायदा घोषित कर दिया और जी.एच.क्यू. ने अपना वीटो लगा कर उसे वापस करा दिया। भारत को व्यापार में मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने का मसला ऐसा ही एक मामला है जिसे आसिफ अली जरदारी और नवाज़ शरीफ की सरकारें चाह कर भी नहीं कर सकीं क्योंकि फौज इसके खिलाफ थी।

दरअसल फौज और नागरिक नेतृत्व के रिश्तों का निर्धारण भारत और पाकिस्तान - दोनों ही जगहों पर आज़ादी के फौरन बाद हो गया था। 15 अगस्त 1947 को दिल्ली के लालकिले में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को झंडा रोहण करना था और तत्कालीन सेनाध्यक्ष, जो अभी तक अँग्रेज था, ने एक आदेश जारी कर समारोह भारतीय जन साधारण के भाग लेने पर रोक लगा दी थी। जानकारी मिलने पर न सिर्फ नेहरू ने इस आदेश को निरस्त कराया बल्कि एक सख्त चिट्ठी द्वारा जनरल को चेतावनी भी दी कि ऐसे किसी भी नीतिगत मामले में भारत सरकार की नीति ही अंतिम होगी और यदि किसी सैनिक या असैनिक अधिकारी को इससे परेशानी हो तो वह छोड़कर जा सकता है। इसके बरक्स पाकिस्तान में असैनिक नेतृत्व ने प्रारंभ से ही एक-दूसरे को उखाड़ने पछाड़ने के शुरू से ही फौज का इस्तेमाल किया था। अँग्रेज़ों द्वारा खड़ी की गई नागरिक खुफिया एजेंसी आई.बी. के समांतर सैनिक अधिकारियों की आई.एस.आई. राजनैतिक सरकार ने ही बनाई थी और इसका शुरू से इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ सूचनाएँ एकत्र करने के लिए किया गया। यह भी कोई छिपा तथ्य नहीं है कि पहले फ़ौजी शासक अय्यूब खां के मन हुकूमत की महत्वाकांक्षा पैदा ही इसलिए हुई कि उन्हें सेनाध्यक्ष के साथ रक्षा मंत्री भी बना दिया गया था।

चार फ़ौजी शासनों के बाद अब देश में सेना की स्थिति काफी हद तक संस्थाबद्ध हो चुकी है। अफगानिस्तान में सोवियत रूस के विरुद्ध लड़ाई में इसका खतरनाक गठजोड़ जिहादियों से हो गया था जो अभी तक पूरी तरह से नहीं टूटा है। कश्मीर में सेना ने इनका इस्तेमाल अपनी दूसरी पंक्ति के रूप में किया है।

हाल में एक महत्वपूर्ण फर्क यह आया है कि पाकिस्तानी समाज के एक बड़े तबके को, जिसमें सेना का वर्तमान नेतृत्व भी शरीक है, अहसास हुआ है कि जिहादी उसके लिए भस्मासुर साबित हो रहे हैं और अगर उन्हें नियंत्रित न किया गया तो देश टूट जाएगा। एक साल पहले कराची हवाई अड्डे पर जिहादियों के हमले और पिछले दिसंबर में पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल के बच्चों के कत्लेआम के बाद फौज को भी बेहतर समझ में आ गया है कि अब उनसे लड़े बिना छुटकारा नहीं है। इसी का परिणाम है साल भर से चल रहा अभियान जर्बे अज्ब जिसमें तीन सौ से अधिक फ़ौजी मारे गए हैं पर लगभग दस गुना अधिक लड़ाकों को खोने के बाद, जिहादियों की कमर भी काफी हद तक टूट चुकी है।

पाकिस्तान में पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएँ घटी हैं, भारत के संदर्भ में जिनके दूरगामी परिणाम निकल सकते हैं। पिछले हफ़्ते अफगान सरकार ने ऐलान किया कि तालिबान का सर्वोच्च कमांडर मुल्ला उमर, जो अपने को अफगानिस्तान की इस्लामी हुकूमत का अमीर कहलाना पसंद करता था, दो वर्ष पहले कराची के एक अस्पताल में बीमारी की वजह से मर गया है। दूसरे दिन तालिबान प्रवक्ता ने भी इसकी पुष्टि कर दी।

स्वाभाविक था कि पाकिस्तान जो पहले ही ओसामा बिन लादेन के अपनी धरती पर मारे जाने से सांसत में था यह कभी नहीं चाहता की मुल्ला उमर के बारे में भी कहा जाए की वह उसकी वाणिज्यिक राजधानी कराची में इलाज करा रहा था। इसलिए खबर आने के फौरन बाद तालिबान की तरफ से बयान आया कि पदच्युत होने के बाद उमर अफगानिस्तान छोड़कर कहीं नहीं गया और उसकी मृत्यु भी अफगान धरती पर हुई है।

मुल्ला उमर कराची में इलाज करा रहा था या नहीं इस पर बहस फिजूल है क्योंकि यह अमेरिका और पाकिस्तान के बीच का मसला है और पाकिस्तान की विशिष्ट भू राजनैतिक स्थिति के कारण थोड़ी बहुत डाँट डपट के बाद अमेरिका इसे भुला भी देगा पर भारत को मुल्ला उमर का उत्तराधिकारी मुल्ला अख्तर मंसूर लंबे समय तक दुख देगा।

यह एक खुला रहस्य है कि तालिबान का जन्म बेनजीर भुट्टो के प्रधानमंत्रित्व काल में आई.एस.आई. के प्रयासों से हुआ था। अपने जन्म के साथ ही पाकिस्तान कश्मीर और अफगानिस्तान नामक दो ग्रंथियों से ग्रस्त रहा है - दोनों से निपटने के लिए राजनय और सेना जैसे पारंपरिक उपायों के अलावा उसने हथियार बंद धार्मिक मिलीशिया का भी इस्तेमाल दोनों क्षेत्रों में किया है।

यहाँ याद दिलाना जरूरी है कि अफगानिस्तान अकेला देश था जिसने आज़ादी के बाद पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने का विरोध किया था तब से दोनों देशों के बीच लव हेट रिलेशनशिप रही है। पाक सेना भारत से युद्ध की स्थिति में अफगानिस्तान में एक स्ट्रेटिजिक डेफ्थ की कल्पना करती है जिसका मतलब है एक ऐसा अफगान क्षेत्र जहाँ आवश्यकता पड़ने पर पाकिस्तान अपने वायुयान तथा अन्य सैनिक साजो सामान भारतीय विमानों की पहुँच से दूर छिपा सकता है। स्ट्रेटिजिक डेफ्थ उसकी युद्ध नीति का एक जरूरी अंग है पर यह तभी हासिल हो सकती है जब अफगानिस्तान में पाकिस्तान की कठपुतली सरकार हो। नया राष्ट्र बनने के फौरन बाद ही यह स्पष्ट हो गया कि सामान्य राजनैतिक प्रक्रिया के तहत ऐसी सरकार नहीं बन सकती जो पाकिस्तान के इशारों पर नाचे। इसमें सबसे बड़ी रुकावट वह डूरंड लाइन थी जिसे अँग्रेज शासकों ने खींच कर बहुत सारे पश्तून इलाके ब्रिटिश इंडिया में मिला लिए थे पर सौ साल के लिए हुए यह समझौता भी 1993 में समाप्त हो गया था। कबीलों में बटे अफगान समाज का अधिकांश पाकिस्तान को लेकर शंकित रहता है, ऐसे में मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों के लिए संभव नहीं है कि वे एक हद से अधिक पाकिस्तान समर्थक दिखें।

पाकिस्तानी फौज ने इसके लिए इस्लामी कट्टरपंथियों का सहारा लिया। पहला बड़ा मौका उन्हें मिला 1980 के दशक में जब अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के खिलाफ अमेरिका ने पूरी दुनिया के जिहादियों को संगठित कर तथाकथित धर्मयुद्ध छेड़ा था तो उसके इस अभियान का सबसे बड़ा सहयोगी पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. बनी।

इस प्रक्रिया में सोवियत रूस तो अफगानिस्तान से चला गया लेकिन आई.एस.आई. और जिहादियों के विभिन्न संगठनों से प्रगाढ़ रिश्ते बने रहे। इन्हीं रिश्तों की तार्किक परिणति तालिबान के रूप में हुई। यह विडंबना ही कही जाएगी 1994 में तालिबान का जन्म एक आधुनिक और गैर मजहबी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बेनजीर भुट्टो के आशीर्वाद और आई.एस.आई. के मदद से हुआ था। पाँच वर्षों (1996 -2001) तक काबुल में तालिबान की सरकार रही और 1947 के बाद यह संभवतः उसके लिए सबसे दोस्त सरकार साबित हुई। 2001 में 9/11 के बाद अमेरिका ने बल पूर्वक न सिर्फ तालिबानी शासन को ध्वस्त किया बल्कि धमका कर पाकिस्तान को भी अपना साथ देने के लिए मजबूर किया। पाकिस्तान बेमन से इस लड़ाई में अमेरिका के सहयोगी के तौर पर कूदा जरूर पर उसकी खुफिया संस्थाओं और तालिबान के रिश्ते छिपे तौर पर बरकरार रहे। लुकाछिपी के इस खेल में अमेरिका बीच-बीच में आरोप लगाता रहा और पाकिस्तान पूरी तरह से तालिबानों से किसी भी तरह के रिश्ते से इनकार करता रहा। इस झूठ का पहली बार भांडा तब फूटा जब इस्लामाबाद से कुछ ही दूर स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी के पड़ोस में अमेरिका ने एक दुस्साहसिक कार्यवाही में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया। अब यह दूसरा बड़ा मौक़ा आया है जिससे साबित होने जा रहा है की मुल्ला उमर कराची में रह कर इलाज करा रहा था और वहीं मरा।

इस घटना से पाकिस्तान और अमेरिका के बीच अविश्वास की खाई और चौड़ी होगी पर भारत के लिए इसका महत्व एक-दूसरी तरह का है। मुल्ला उमर का उत्तराधिकारी मुल्ला अख्तर मंसूर अपने कट्टर भारत विरोधी रवैये की वजह से जाना जाता है। वह 1999 में हुए एयर इंडिया की उड़ान 814 के दौरान विमान अपहरण में अपनी भूमिका की वजह से भारत के राडार पर आया था। पाठकों को संभवतः वह विजुअल याद होगा जिसमें मुल्ला उमर के नेतृत्व वाली इस्लामिक एमिरेट्स आफ़ अफगानिस्तान की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री मुल्ला अख्तर मंसूर 29 दिसंबर 1999 को कांधार हवाई अड्डे पर बंधकों के बदले छुड़ाए गए आतंकी मसूद अज़हर को गले लगाए हुए है। इसी अजहर ने पाकिस्तान वापस जाकर जैशे मोहम्मद जैसे खतरनाक आतंकी संगठन की स्थापना की थी। अभी तक पाकिस्तान अपने पश्चिमी सीमा पर सक्रिय कट्टरपंथियों का उपयोग अफगानिस्तान में कठपुतली सरकार बनाने और वहाँ स्ट्रेटिजिक डेफ्थ हासिल करने के लिए करता था और भारत से लगी पूर्वी सीमा पर गड़बड़ी का दायित्व मुख्य रूप से हफीज़ सईद के नेतृत्व वाले संगठन लश्करे तायबा का है। मुल्ला अख्तर मंसूर के नेतृत्व में तालिबान भी अब कश्मीर के संघर्ष में कूद सकता है और यह भारत के लिए गहरी चिंता का विषय हो सकता है।

ऊपर मैंने जिस दूसरी घटना का जिक्र किया है वह थोड़ी दिलचस्प है। भारत से जाकर कराची में बसे उर्दू भाषी मोहाजिरों (विस्थापितों) के नेता अल्ताफ हुसैन ने अपने अमेरिकी समर्थकों के समक्ष भाषण देते हुए सिंध से काटकर मोहाजिरों के लिए एक अलग प्रदेश बनाने की माँग की और इसे पूरा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ, अमेरिका, नाटो और भारत से मदद माँग ने की बात कही। स्वाभाविक था कि पाकिस्तान के राजनैतिक नेतृत्व और फौज ने भारत से मदद माँग ने को देश द्रोह के श्रेणी का अक्षम्य अपराध घोषित कर दिया। सभी राज्य असेंबलियों ने अल्ताफ हुसैन के खिलाफ प्रस्ताव पास किए और उन्हें फौज के नए गुस्‍से का सामना करना पड़ रहा है। लंदन में निर्वासन झेल रहे अल्ताफ हुसैन पिछले कुछ महीनों से फौज और पाकिस्तान रेंजर्स के विरुद्ध कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गए हैं। दरअसल गत एक वर्ष से कराची में उनके संगठन मुत्तहिदा कौमी महाज (एम. क्यू. एम.) के विरुद्ध रेंजर्स ने युद्ध छेड़ रखा है। इस बीच एम.क्यू.एम. से जुड़े बहुत से छुटभैये अपराधी मारे गए हैं या गिरफ्तार हुए हैं। अल्ताफ हुसैन के लिए इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है की उनके पैतृक घर की भी तलाशी ली गई और वहाँ से हथियारों का जखीरा बरामद किया गया। इसी बीच ब्रितानी पुलिस ने भी उनके खिलाफ हत्या और मनी लान्डरिंग जैसे मामलों की जाँच शुरू कर दी है। ऐसा कहा जा रहा है कि ये मामले एक ब्रिटिश खुफिया एजेंसी और ब्रिटिश पुलिस स्काटलैंड यार्ड की आपसी स्पर्धा के परिणाम हैं।

कराची में एम.क्यू.एम. की राजनीति लगभग वैसी ही है जैसी मुंबई में शिवसेना करती है। छोटे-बड़े मुद्दों का भावुक इस्तेमाल कर शहर की जिंदगी को पूर्ण विराम लगाने, अपने विरोधियों की हत्या कराने या व्यापारियों और उद्योगपतियों से हफ्ता वसूली करने वाली यह तंजीम कराची के अंडर वर्ल्ड की सबसे पसंदीदा पार्टी है। अपनी वार्ड कमेंटियों के जरिए यह कराची की जिंदगी पर पूरा नियंत्रण रखती है।

एम.क्यू.एम. के विरुद्ध यह पहली कार्यवाही नहीं है। नब्बे के दशक में उसे काफी नुकसान पहुँचा था लेकिन जनरल मुशर्रफ ने तख्ता पलट करने के बाद इसे नया जीवन दान दे दिया था। वैधता की तलाश में मुख्य धारा के दलों से दुत्कारे जाने पर वे एम.क्यू.एम. की शरण में गए और अल्ताफ हुसैन ने भी समर्थन की जमकर कीमत वसूली।

आज भी सिंध की सरकार उनके समर्थन से चल रही है और एम.क्यू.एम. इस समर्थन के एवज में अपनी गतिविधियाँ चलाने की इजाजत चाहती है जिसमें फौज बड़ी रुकावट बन रही है।

अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद टेलीफोन से प्रसारित होने वाले उनके भाषणों का अभी भी कराची में उनके समर्थक बेसब्री से इंतजार करते हैं और उनका व्यापक असर श्रोताओं के चेहरे पर झलकने वाले भावों से समझा जा सकती है।

कुछ भी हो अल्ताफ हुसैन अपने जीवन की सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ रहें हैं।

अल्ताफ हुसैन का यह कहना कि भारत कायर है और अपनी धरती से आई संतानों की मदद के लिए कुछ करने से डरता है भारतीय अंधराष्ट्रवादियों के कानों में संगीत की तरह लग सकता है पर वर्तमान परिस्थितियों में शायद भारत मोहाजिरों की मदद के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। पहले ही उस पर पाकिस्तान बलूचिस्तान के पृथकता वादियों की मदद करने का आरोप लगा रहा है। ऐसे में वह सिंध में नहीं फंसना चाहेगा


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